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________________ राजर्षि कुमारपाल होता है और जीवनकी अस्थिरताका गम्भीर विचार करने लगता है। साथ ही साथ मृतके कुटुम्बकी करुण दशा और राज्यकी क्रूर नीतिका बीभत्स चित्र देखता है / आशाषन्धादहह सुचिरं संचितं क्लेशलक्षैः केयं नीतिर्नुपतिहतका यन्मृतखं हरन्ति / क्रन्दन्नारीजघनवसनाक्षेपपापोत्कटानाम् आः किं तेषां हृदि यदि कृपा नास्ति तत्किं त्रपाऽपि // राजा कुछ विचार कर कहता है कि मैं वहीं आता हूँ। तत्पश्चात् राजा पालकीमें बैठ कर राजभवनसे भी अधिक सशोभित और विशाल ऐसे कुबेरके भवनके पास आया। महलके ऊपर कोट्यधीशताका सचन करने प्रकारकी ध्वजाएं फहरा रही थीं / एक दरवाजे पर शहरके सैंकडों सेठ शोकविह्वल दिखाई पड़ रहे थे और घरके अन्दरसे रुदनका करुण खर आ रहा था / घरके बाहर खडे हुए सेठोंको देख कर राजाने अग्रणी सेठसे पूछा कि सब लोग बाहर क्यों खडे हुए हैं / सेठका उत्तर था कि हम लोग राजाकी आज्ञाकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजाने कहा इसमें राजाज्ञाकी क्या आवश्यकता है ! सेठने उत्तर दिया- राज्यनियमानुसार जब राज्याधिकारी सारी सम्पत्तिको अपने अधिकारमें कर ले उसके बाद हमें घरमें जाना चाहिए / अन्यथा हम लोग दण्डके भागी होते हैं / राजा पालकीसे ऊतर कर घरमें जाता है और सेठ उसकी सारी ऋद्धि समृद्धिका उसे परिचय कराता है / राजमहलोंमें भी अलभ्य ऐसी वस्तुएं सेठके मकानमें पा कर राजा आश्चर्यचकित हो जाता है / तत्पश्चात् राजा कुबेरकी माताके पास जा कर बैठता है और कुबेरकी मृत्युके बारेमें सारी हकीकत पूछता है। कुबेरके मित्र सारी हकीकत कहते हैं-'परदेशमें व्यापार चलानेके लिये कुबेर पाटनसे भरुच गया था और वहाँसे 500 नावोंमें माल भर कर परदेश चला गया था / वहाँ पर सारा माल बेच कर 4 करोड रुपयेका अन्य माल प्राप्त किया। वहाँसे खदेश आते समय रास्तेमें एक भयंकर तूफान आया और उससे सब नावें नष्ट - भ्रष्ट हो गई और कुछ इधर- उधर भटकती भरुच बंदरगाह पर पहुँची। कुबेरका क्या हाल दुआ यह अभी तक पता नहीं लगा इसी लिए यह ऐसा प्रसंग उपस्थित हुआ है। राजा यह सब सुन कर सहानुभूति पूर्ण स्वरसे कुबेरकी माताको आश्वासन देता है-'माता! इस तरह अविवेकीकी तरह शोकसे विहल मत बनो। आकीटाद्यावदिन्द्रं मरणमसुमतां निश्चितं पान्धवानां . 'सम्बन्धश्चैकवृक्षोषितबहुविहगव्यूहसांगत्यतुल्यः। प्रत्यावृत्तिम॒तस्योपलतलनिहितप्लुष्टबीजप्ररोह- . प्रायः प्राप्येत शोकात् तदयमकुशलैः क्लेशमात्मा मुधैव // __माता उत्तर देती है-'पुत्र ! सब समझती हूँ, लेकिन पुत्रका मृत्युशोक सब विस्मरण करा देता है।' राजा कहता है कि-माता ! मैं भी तुम्हारा ही पुत्र हूँ इसलिए शोक करना अच्छा नहीं है।' इतनेमें राज्यके नौकरोंने कुबेरके घरका सारा धन इकट्ठा करके राजाके सामने ढेर लगा दिया। राजा उसका निषेध करता हुआ महाजनोंसे कहता है कि-'मैं आजसे मृतजनोंका धन राजभण्डारमें लेनेका निषेध करता हूँ। यह कितनी अधम नीति है कि जो मनुष्य अपुत्र मर जाय उसके धन हडपनेकी इच्छा रखने वाले राजा उसके पुत्रत्वको प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं।' राजा वहांसे महलमें आ कर मंत्रियों द्वारा सारे शहरमें घोषणा करवाता है कि निःशूकैः शकितं न यनृपतिभिस्त्यक्तुं कचित् प्राक्तनैः पन्याः क्षार इव क्षते पतिमृती यस्यापहारः किल / आपाथोधिकुमारपालनृपतिर्देवो रुदत्या धनं विभ्राणः सदयः प्रजासु हृदयं मुश्चत्ययं तत् खयम् / /
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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