________________ राजर्षि कुमारपाल उसके राजजीवनका रेखांकन करनेके लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। याश्रय काव्यमें कवित्वकी कोई ऊँची उड़ान नहीं है, इसका कारण है ऐसे काव्योंकी पद्धति / ऐसे काव्योंमें अर्थानुसारी शब्दरचना नहीं होती किन्तु शब्दानुसारी अर्थरचना होती है / जिस प्रकारके शब्दप्रयोग व्याकरणके क्रममें चले आ रहे हैं, उन्होंने उसी प्रकारके शब्दोंकी रचनाके लिए, उपयुक्त अर्थोंको कुमारपालके राजजीवनमेंसे चुन लिया और श्लोकबद्ध कर दिया। इतने ही अंशोंमें इस काव्यका कवित्व है। इसके अतिरिक्त सरसताकी दृष्टिसे कही जाने वाली कोई विशेष बात उसमें नहीं है। किन्तु हमारे लिए तो प्रस्तुत विषयको दृष्टिसे काव्यविभूतिकी अपेक्षा यह सादी शब्दरचना ही अधिक उपयोगी है। हेमचन्द्राचार्य द्वारा वर्णित कुमारपालका दूसरा वर्णन 'त्रिषष्टि-शलाकापुरुष-चरित्र'के अन्तिम 'महावीरचरित्र में है। इसकी रचना हेमचन्द्राचार्यने कुमारपालकी प्रार्थनासे की थी और यही उनके जीवनकी अन्तिम कृति है। जन धर्म खीकार करनेके पश्चात् कुमारपालने जैसा कुछ उसका आचरण किया है उसका बहुत थोड़ा किन्तु सारभूत वर्णन इस ग्रन्थमें है। __ हेमचन्द्राचार्यके पश्चात् दूसरी सामग्री 'मोहराजपराजय' नामक नाटकके रूपमें है / यह नाटक कुमारपालके उत्तराधिकारी अजयपाल या अजयदेवके एक मन्त्री मोढवंशीय यशःपालका बनाया हुआ है और यह गुजरात और मारवाड़ की सीमा पर स्थित थारापद - इस समय थराद - नगरके 'कुमार विहार' नामक जैन मन्दिरमें महावीर यात्रामहोत्सवके समय खेला गया था। कुमारपालने जैन धर्मका खीकार कर जीवहिंसा, शिकार, जुआ और मद्यपान आदि जिन दुर्व्यसनोंका निषेध कराया था उस कथावस्तुको ले कर इस नाटककी रचना हुई है / इस नाटकका संकलन हृदयंगम और कल्पनामनोहर है / इसमें कोई ऐसा स्पष्ट ऐतिहासिक उल्लेख नहीं है किन्तु बहुत सी विशिष्ट बातें ऐसी हैं जो ऐतिहासिक दृष्टिसे उपयोगी हो सकती हैं और इसीलिए वे प्रमाणभूत मानी जा सकती हैं। तीसरी कृति सोमप्रभाचाय कृत 'कुमारपालप्रतिबोध' है / कुमारपालकी मृत्युके 11 वर्ष पश्चात् , पाटनमें ही प्रसिद्ध राजकवि सिद्धपालके धर्मस्थान में ही यह रचना पूणे हुई थी। खयं हेमचन्द्राचायेकं तीन शिष्य-महेन्द्र, वर्धमान और गुणचन्द्र-ने इस ग्रन्थको आद्योपान्त सुना था। यह ग्रन्थ है तो बहुत बड़ा-करीब 8-9 हजार श्लोकका किन्तु इसमें ऐतिहासिक सामग्री करीब 200-250 श्लोक जितनी ही है / इस ग्रन्थकारका उइंश कुमारपालका विस्तृत जीवन चरित्र लिखनेका नहीं था किन्तु हेमचन्द्राचार्यने जिन धर्मकथाओं द्वारा कुमारपालको जैन-धर्माभिमुख बनाया था उन्हीं कथाओंको लक्ष्य कर एक कथासंग्रहात्मक ग्रन्थ बनानेका था / ग्रन्थकार उसका निर्देश प्रारम्भमें ही कर देते हैं। वे कहते हैं कि-"इस युगमें हेमचन्द्रसूरि और कुमारपाल दोनों असंभव चरित्र वाले पुरुष हुए हैं। इन्होंने जैनधर्मकी महती प्रभावना द्वारा कलियुगमें सत्ययुगका अवतार किया है। यद्यपि इन दोनों पुरुषोंका जीवन सम्पूर्णतया मनोहर है लेकिन मैं सिर्फ जैनधर्मके प्रतिबोधक विषयमें ही कुछ कहना चाहता हूँ।" इस प्रकार इस ग्रन्थका उदेश भिन्न होने के कारण इसमें ऐतिहासिक विवरणकी विशेष आशा नहीं की जा सकती; तो भी प्रसंगवश इसमें भी कहीं कहीं ऐसा विवरण मिलता है जो कुमारपालका रेखाचित्र अंकित करनेके लिए बहुस महत्त्वपूर्ण है। इन तीनों समकालीन-अथवा जिन्होंने कुमारपालके राज्यशासनको स्वयं अच्छी तरह देखा था-ऐसे पुरुषोंका ही आधार मैंने इस निबंधमें लिया है। यदि कहीं पर उत्तरकालीन कृतियोंका आधार लिया गया है तो वह केवल मूल घटनाको साधार प्रमाणित करनेके लिए। कुमारपालका धर्मसंस्कार हमारे देशके इतिहासमें कुमारपालके धार्मिक जीवनके विषयमें एक प्रकारकी अज्ञानता या गैर समझ फैली हुई है / हेमचन्द्राचार्य के उपदेशोंसे प्रभावित हो कर कुमारपालने जैनधर्मका पूर्णतया अंगीकार किया था और वह एक परमाईत राजा बना