________________ राजर्षि कुमारपाल था यह सत्य कथा, संकीर्ण मनोवृत्ति वाले बहुतसे अजैन विद्वानोंको रुचिकर प्रतीत नहीं हुई और इसका खण्डन करनेके लिए भ्रमपूर्ण लेखादि लिखे जाते रहे हैं, किन्तु उसके जैनत्व की बात उतनी ही सत्य है जितनी कि उसके अस्तित्व की है। इस विषयका विवरण प्रकट करनेवाली सामग्री अपने आपमें ही इतनी प्रतिष्टित है कि उसको सत्य सिद्ध करनेके लिए किसी दूसरे सबूत की आवश्यकता नहीं है / तथ्यदर्शी यूरोपियन विद्वानोंने तो इस बातको कभी का सिद्ध कर दिया है किन्तु हम लोगोंकी धार्मिक संकीर्णता बहुत बार सत्य दर्शनमें बाधक होती है / इसी कारण हम लोग अनेक दोषोंके शिकार हो गए हैं। कुमारपाल जैन हो तो क्या और शैव हो तो क्या - मुझे तो उसमें कोई विशेषता नहीं प्रतीत होती। महत्त्व है तो उसके व्यक्तित्वका / सिद्धराज जैन न था, वह एक चुस्त शैव था इससे अगर मैं सिद्धराजका महत्त्व न समझू तो समझ लो कि मेरी सारासारविवेक बुद्धिका दिवाला निकल गया है / अमुक व्यक्ति अमुक धर्मका अनुयायी था इतने मात्रसे हम उसके व्यक्तित्वको परखने और अपनाने की उपेक्षा करें तो हम अपनी ही जातीयता - राष्ट्रीयताका अहित करते हैं। शव हो, या वैष्णव, बौद्ध हो या जैन- धर्म से कोई भी हो- जिन्होंने अपनी प्रजाकी उन्नति और संस्कृतिके लिए विशिष्ट कार्य किया है वे सब हमारे राष्ट्र के उत्कर्षक और संस्कारक पुरुष हैं / ये राष्ट्रपुरुष हमारी प्रजाकीय संयुक्त अचल सम्पत्ति हैं। अगर इनके गुणोंका यथार्थ गौरव हम लोग न समझें तो हम उनकी अयोग्य प्रजा सिद्ध होंगे। शैव, बौद्ध, जैन ये सारे मत एक ही आर्यतत्त्वज्ञानरूपी महावृक्षकी अलग अलग दार्शनिक शाखाओंके समान हैं। वृक्षकी विभूति उसकी शाखाओंसे ही है और जब तक वृक्षमें सजीवता मौजूद है उसमें शाख-प्रशाखाएं निकलती ही रहेंगी। शाखा-प्रशाखाओंका उद्गम बन्द हो जाना वृक्षके जीवनका अन्त है / धर्मानुयायी और मुमुक्षु जन पक्षियोंके समान हैं जो शान्ति और विश्रान्तिके लिए इस महावृक्षका आश्रय ग्रहण करते हैं। जिस पक्षीको जो शाखा ठीक और अनुकूल प्रतीत हो वह उसीका आश्रय लेता है और शान्ति प्राप्त करता है / जिस प्रकार कोई पक्षी, अनुकूल न होने पर एक शाखा छोड़ कर दूसरी शाखाका आश्रय लेता है उसी प्रकार विचारशील मानव भी स्वरुचि अनुसार किसी एक धर्मका त्याग कर धर्मान्तर ग्रहण करता है और मनःसमाधि प्राप्त करता है / कुमारपालने भी मनःसमाधि प्राप्त करनेके लिए ही धर्मपरिवर्तन किया था। सात्त्विका रूपसे किया गया धर्मपरिवर्तन दोषरूप नहीं, गुणरूप होता है / ऐसे धर्मपरिवर्तनसे नवीन बल और उत्साहका * चार होता है। प्रजाकी मानसिक और नैतिक उन्नति होती है। जैन धर्मका स्वीकार कर कुमारपालने जो प्रजाक अनन्य कल्याण किया था वह दूसरी तरहसे करना संभव न था / उसके धर्मपरिवर्तनने प्रजाके पारस्परिक विद्वेषको कम किया और सामाजिक उत्कर्षको आगे बढ़ाया / वस्तुतः उस जमाने में आजके समान धर्मपरिवर्तनकी संकुचित विचारश्रेणी नहीं थी। सामाजिक दृष्टिसे धर्मपरिवर्तन कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है। गुजरातके अनेक प्रतिष्ठित कुटुंबोंमें जैन और शैव दोनों धौंका पालन किया जाता था। किसी घरमें पिता शैव था तो पुत्र जैन, किसी घरमें सास जैन थी तो वधू शैव / किसी गृहस्थका पितृकुल जैन था तो मातृकुल शैव और किसीका मातृकुल जैन था तो पितृकुल शैव / इस प्रकार गुजरातमें वैश्य जातिके कुलोंमें प्रायः दोनों धौके अनुयायी थे / इसलिए इस प्रकारका धर्मपरिवर्तन गुजरातके सभ्य समाजमें बहुत सामान्य सी बात थी / राज्यके कारोवारमें भी दोनों धर्मानुयायियोंका समान स्थान और उत्तरदायित्त्व था / किसी समय जैन महामात्यके हाथमें राज्यकी बागडोर आती तो कभी शैव महामात्यके हाथमें। लेकिन इससे राजनीतिमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं होता था। शवों और जैनोंकी कोई अलग अलग समाजरचना नहीं थी / सामाजिक विधि-विधान सब ब्राह्मणों द्वारा ही नियमानुसार संपन्न होते थे। शैव कुटुम्बों और जैन कुटुम्बोंकी कुलदेवी एक ही होती पी और उसका पूजन-अर्चन दोनों कुटुम्ब वाले कुलपरम्परानुसार एक ही विधिसे मिल कर करते थे। इस प्रकार सामाजिक दृष्टिसे दोनोंमें अमेद ही था। सिर्फ धर्मभावना और उपास्य देवकी दृष्टिसे थोडासा मेद था। शैव अपने इष्टदेव शिवकी उपासना और पूजा-सेवा करते, जैन अपने इष्टदेव जिनकी पूजा-अर्चना करते / शिवपूजकोंके कुछ वोंमें मद्यमांस जाग्य नहीं माना जाता था परन्तु जैनोंमें यह वस्तु सर्वथा त्याज्य मानी जाती थी। कोई भी अगर जैन बनता तो