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________________ 23 राजर्षि कुमारपाल उसका अर्थ यही होता था कि उसने मद्य-मांसका सेवन त्याग दिया है और इसका त्याग कर उसने जीवहिंसा न करनेका मुख्य जैन व्रत लिया है / शैव और जैन दोनों मुख्य रूपसे गुजरातके प्रजाधर्म थे, तो भी सामान्य रूपसे राजधर्म शैव ही माना जाता था और गुजरातके राजाओंके उपास्य देव शिव थे / राजपुरोहित शिवधर्मी नागर ब्राह्मण और राजगुरु शिवोपासक तपस्वी थे। किन्तु अणहिलपुरके संस्थापक वनराज चावड़ासे ले कर कर्णवाघेला तक गुजरातके हिन्दू राज्य कालमें, जैन धर्मके अनुयायियोंका सामाजिक दर्जा सबसे ऊँचा था। प्रजावर्गमें जैन जन विशेष प्रतिष्ठित एवं अग्रणी थे। राज्यशासनमें भी उनका हिस्सा सबसे अधिक था। इससे राजाओंके शैव होने पर भी जैन धर्म पर उनकी सदैव आदर दृष्टि रहती थी। विद्वान् जैन आचार्य राजाओंके पास निरन्तर आते रहते थे और राजा लोग भी अपने गुरुओंके समान ही उन्हें आदर देते कई बार तो राजकुटुम्बोंमेंसे भी कोई कोई जैन धर्मकी संन्यास दीक्षा धारण कर लेता था। अनेक राजपुत्र जैन आचार्योंके पास शिक्षा ग्रहण करते थे / इस प्रकार राजा लोग जैनोंके साथ सब प्रकारसे निकट सम्बन्धमें रहते थे। उससे इनके मनमें धर्म-सम्बन्धी किसी भी प्रकारका भेदभाव नहीं रहता था। शैव धर्मका आदर्श प्रतिनिधि सिद्धराज भी जैनोंसे काफी सम्ब- . न्धित था। सिद्धपुरमें रुद्रमहालयके साथ-साथ उसने 'रायविहार' नामक आदिनाथका जैन मन्दिर भी बनवाया था। गिरनार पर्वत पर नेमिनाथका जो मुख्य जैन-मन्दिर आज विद्यमान है वह भी सिद्धराजकी उदारताका ही फल है। सोमनाथकी यात्राके साथ उसने गिरनार और शत्रुञ्जय तीर्थकी भी उसी भावसे यात्रा की थी / शत्रुञ्जय तीर्थका खर्च चलानेके लिए उसने बारह गांव उसके साथ लगा देनेके लिए अपने महामात्य अश्वाकको आज्ञा दी थी। इससे प्रतीत होता है कि सिद्धराजके हृदयमें जैन-धर्मके लिये किसी प्रकारकी तुच्छ भावना नहीं थी। उसमें और कुमारपालमें जो अन्तर था वह यही कि सिद्धराज अपने मनमें शैव धर्मको मुख्य मानता था और जैन धर्मको गौण; कुमारपाल अपने पिछले जीवनमें जैन-धर्मको मुख्य मानने लगा था / सिद्धराजके इष्टदेव अन्त तक शिव ही थे; किन्तु कुमारपालके इष्टदेव पिछले जीवनमें जिन थे / उसने जिनको अपना देव और आचार्य हेमचन्द्रको सद् गुरु, आप्तपुरुष और कल्याणकारी माना था। इसी प्रकार अहिंसा प्रबोधक धर्मको अपना मोक्षदायक धर्म मान कर श्रद्धापूर्वक उसका स्वीकार किया था। इस तरह वह जैन धर्मका एक आदर्श प्रतिनिधि बन गया था। इतनी पूर्व भूमिकाके बाद अब मैं कुमारपालके राजजीवनका रेखाचित्र उपस्थित करना चाहता हूँ। . अशोक और कुमारपाल कुमारपालका राजजीवन कई बातोंमें मौर्य सम्राट अशोकसे मिलता जुलता है। राजगद्दी पर आरूढ़ होने पर जिस प्रकार सम्राट अशोकको अनिच्छासे प्रतिपक्षी राजाओंके साथ लड़ना पड़ा उसी प्रकार कुमारपालको भी अनिच्छासे प्रतिपक्षी राजाओंके साथ लड़नेके लिए बाध्य होना पड़ा। राज्यसिंहासनारोहणके बाद तीन साल तक अशोकका शासन अस्त-व्यस्त रहा / यही हाल कुमारपालका भी था / जिस प्रकार अशोक 7-8 वर्ष तक शत्रुओंको जीतने में व्यग्र रहा उसी प्रकार कुमारपालको भी इतने ही समय तक शत्रुओंके साथ युद्ध करनेमें लगा रहना पड़ा। इस तरह आठ-दस वर्षके युद्धोपरान्त, जीवनके शेष भागमें जिस प्रकार अशोकने प्रजाकी नैतिक और सामाजिक उन्नतिके लिए कई राजाज्ञाएं निकाली और राज्यमें शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाये रखनेका प्रयत्न किया था, उसी प्रकार कुमारपालने भी स प्रकार अशोक पहले शैव और फिर बौद्ध हो गया उसी प्रकार कुमारपाल भी पहले शैव था, फिर जैन हो गया। अशोकके समान ही कुमारपालने भी स्वीकृत धर्मके प्रचारके लिए अपनी सारी शक्ति लगा दी थी। जिस प्रकार अशोकने बौद्ध-धर्म प्रतिपादित शिक्षाएँ तथा उच्च धार्मिक नियमोंका स्वीकार कर 'परमसुगतोपासक'की पदवी धारण की; उसी प्रकार कुमारपालने भी जैन-धर्मप्रतिपादित गृहस्थके जीवनको आदर्श बनाने वाले आवश्यक अणुव्रतादि नियमोंका श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके 'परमाहत'का पद प्राप्त किया। अशोकके समान ही प्रजाको दुर्व्यसनोंसे हठानेके लिए कुमारपालने कई राजाज्ञाएँ निकालीं थीं। अशोकके बौद्ध स्तूपोंकी भांति कुमारपालने भी कई जैन विहारोंका निर्माण कराया /
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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