________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत मूला तह भूमिरुहा विरुदाई तह टक्क वत्थूलो पटमो। सूअरवल्ली अ तहा पलंको कोमलंबिलियाइ // आलू तह पिंडालू हवंति एए अणंतनामेणं / बत्तीसं च पसिद्धा बजेयधा पयत्तेणं // गढसिरसंधिपचं समभंगमहीरुहं च च्छिन्नरह। साहारणं सरीरं तविवरीयं च पत्तेयं // -इत्यनन्तकायविचारः। रात्रिभोजनं सर्वशास्त्रनिषिद्धम् - 307. नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर!। तपस्विना विशेषेण गृहिणा तु विवेकिना // त्रैलोक्यशेषभावानां यो ज्ञाता ज्ञानचक्षुषा / न मुले सोऽपि सर्वज्ञो रात्रौ किमपरे जनाः // सर्वदेवैः परित्यक्तमृषिभिः पितृभिस्तथा। तद्रात्री भोजनं निन्द्यं विधेयमितरैः कथम् // // अथामगोरससंपृक्तं द्विदलम् / द्विदललक्षणमिदम् - जंमि उ पीलिजंते नेहो नहु होइ बिति तं विदलं / पिदले वि हु उप्पन्नं नेहजुयं होइ नो विदलं // अथ वर्जनीयवस्तून्याहुः३११. पंचुंबरि चउविगई अनायफलं हिम-विस-करगे य।.. मही राईभोयण-बहुबीय-अणंतसंधाणं // 312. घोलवडां वाइंगण अमुणियनामाणि फुल्ल-फलयाणि'। तुच्छफलं चलियरसं च तह अभक्खयाणि बावीसं // 313. यदुक्तम्- भक्ष्याभक्ष्याणि वस्तूनि यो न जानाति मूढधी। स जानाति कथं धर्म सर्वजीवदयामयम् // // तत्र पञ्चोदुम्बरी वटपिप्पलप्लक्षकाकोदुम्बरीफलरूपा सा मसकाकारसूक्ष्मबहुजीवभृतत्वाद् वर्जनीया // 5 // चतस्रो विकृतयः-मद्य-मांस-मधु-नवनीतरूपा, सद्य एव तत्रानेकजीवसंमूर्च्छनात् // 9 // हिमं शुद्धासंख्याकायरूपत्वात् // 10 // विषं जीवघातादिसंभवात् // 11 // करका अप्कायासंख्यत्वात् // 12 // मृत्तिका सर्वापि दर्दुरादिपञ्चेन्द्रियप्राणिउत्पत्तिनिमित्तात् , सर्वग्रहणं खटिकादीनाम् // 13 // रजनीभोजनं बहुविधजीवहिंसाप्रदम् // 14 // बहुबीजं पंपोटकादि प्रतिबीजं जीवोपमर्दकम् // 15 // [अनन्तं] अनन्तजीववधहेतुत्वात् // 16 // "सन्धानं बिल्वकादीनां जीवसंसक्तिहेतुत्वात् // 17 // घोलवटकानि आमगोरससंसक्तद्विदलादिमध्ये सूक्ष्मजीवोत्पत्तिः केवलिदृष्टत्वात् // 18 // वृन्ताकानि निद्राबाहुल्यकामोद्दीपनादिदोषदुष्टत्वात् // 19 // अज्ञातफलपुष्पाणि नियममङ्गसम्भवात् , विषफले पुष्पे मृत्युरपि // 20 // तुच्छफलमर्द्धनिष्पन्नं कोमलाम्बिलियादि // 21 // चलितरसं कुथितान्नं पुष्पितौदनादि, दिनद्वितयातीतं च दधि वर्जनीयं प्राणातिपातादिदोषसम्मवात् / एतान्यमक्ष्याणि /