________________ राजर्षि कुमारपाल मुख्य भाग सिद्धराजसे अपनेको बचानेके लिए भटकने और कष्ट सहनेमें ही व्यतीत हुँआ था। पचास वर्षकी उम्रमें उसके भाग्यका परिवर्तन हुआ और वह गुजरातके विशाल साम्राज्यका भाग्यविधाता बना / राज्यप्राप्तिके पश्चात् मी उसके 5-6 वर्ष तो विपक्षियोंको जीतने में ही गये अर्थात् 56.57 वर्षकी अवस्थामें उसका सिंहासन स्थिर हुआ और उसके प्रतापका सूर्य सहस्रकिरणके समान तपने लगा। इस उम्रमें अध्ययनके लिए कितना अवकाश मिल सकता था। तथापि प्रबन्धकार कहते हैं कि इतना होने पर भी अवसर मिलने पर अति परिश्रम करके उसने संस्कृतका अच्छा अभ्यास कर लिया था और उससे वह विद्वानोंकी तत्त्वचर्चामें यथेष्ट भाग ले सकता था। हेमचन्द्राचार्यके द्वारा उसीके लिए बनाये गये योगशास्त्र और वीतरागस्तोत्रका वह प्रतिदिन खाध्याय करता था / योगशास्त्रमें हेमचन्द्र द्वारा किये गये उल्लेखसे प्रतीत होता है कि उसे योगकी उपासना प्रिय थी और इसलिये उसने कई योगशास्त्रोंका परिशीलन किया था। 'त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र' नामक ग्रन्थ जो तीर्थकर आदिके जीवन पर प्रकाश डालता है, हेमचन्द्राचार्यने कुमारपालकी खास प्रेरप्पासे ही बनाया था, यह तो ऊपर बता दिया गया है / इससे प्रतीत होता है कि उसे ऐसे ग्रन्थ पढ़नेका शौक था। कदाचित् प्राचीन बातें जाननेकी जिज्ञासा उसके अन्दर बहुत परिमाणमें विद्यमान थी। राज्यप्राप्तिके पहले एक बार जब वह भटकता भटकता चित्तौड़ के किले पर जा पहुँचा तो वहाँ पर स्थित एक दिगम्बर विद्वानसे उसने किले के विषयमें सारी हकीकत पूछी थी। उसी प्रकार राज्यप्राप्तिके पश्चात् जब उसने एक बड़ा संघ ले कर गिरनारकी यात्रा की थी और जूनागढ़में दशदशार मंडप आदि प्राचीन स्थल देख कर उसने उस विषयमें हेमचन्द्राचार्यसे प्राचीन विवरण बतानेकी विज्ञप्ति की थी। आचार्य हेमचन्द्रका प्रभाव कुमारपाल बहुत भावुक प्रकृति वाला पुरुष या / भावुक होनेके कारण ही वह इस प्रकारकी धार्मिक वृत्तिमें दृढ़ श्रद्धाशील बना था / हेमचन्द्रके प्रति उसकी अनन्य भक्ति थी। इसके कई कारण थे-प्रवासी दशामें हेमचन्द्रकी प्रेरणासे खंभातके मंत्री उदयनकी सहायता मिलना, आचार्य द्वारा भविष्यमें उसे राज्यगद्दी मिलनेका विश्वास दिलाना, निराश जीवनको आशांकित बनाना और राज्यप्राप्तिके पश्चात् मी उसको समय समय पर अपनी विद्या शक्तिके बलसे पाश्चर्य चकित करना / इस प्रकारके प्रभावको ले कर वह हेमचन्द्रका अनन्य अनुरागी हो गया था / ज्यों ज्यों थाचार्यसे उसका विशेष मिलना जुलना होता रहा और उनके चारित्र, ज्ञान, तप, आदिके बलसे उसका विशिष्ट परिचय होता गया त्यों त्यों वह उनका श्रद्धालु शिष्य होता गया। जब उसे यह विश्वास हो गया कि आचार्यका जीवनध्येय केवल परोपकार वृत्ति है और इतने बड़े सम्राटसे मी, दो सूकी रोटी प्राप्त करने तककी मी इनकी अभिलाषा नहीं है, तब तो उसने अपने सम्पूर्ण आत्माको आचार्यके चरणों में समर्पित कर दिया और इस महर्षिके आदेशसे खयं मी 'राजर्षि' बन गया। राजनीतिनिपुणता ... / यद्यपि कुमारपाल बड़ा पराक्रमी पुरुष था तो भी मिथ्या महत्त्वाकांक्षी न था। उसका साम्राज्य विस्तार सहज ही उतना हो गया था। साम्राज्य विषयमें उसकी नीति आक्रमणात्मक नहीं बल्कि रक्षणात्मक थी। परराज्यों पर उसे परिस्थितियोंसे बाध्य हो कर ही चदाई करनी पड़ी। वह महत्त्वाकांक्षी न था तो मी खाभिमानी तो था ही। जहाँ आत्मसम्मानको थोडी सी मी ठेस पहुँचती थी तो वह उसे सहन नहीं कर सकता था और राजनीतिका भी पूर्ण अनुभवी था / जिस मनुष्यके विशेष प्रयत्नसे उसे राजगदी प्राप्त करनेका सौभाग्य मिला था और जो उसका एक निकट का सगा बना हुआ था, वैसे कान्हरदेव को भी, जब अपनी पूर्वावस्थाको उपलक्ष्य कर उपहास करता देखा तब उसका तत्काल गात्रभा करा कर उसे निर्जीव बना दिया और उसी प्रकार दूसरे कांटोंका मी तत्काल जीवित नाश करवा दिया। पूर्वावस्थामें भले ही वह रङ्ककी तरह मटका हो परन्तु अब भाग्यने उसे राजा बनाया है और वह भाग्यदत्त राज्यका रक्षण अपनी शमशेरके बलसे करने में समर्थ है, यह खाभिमान उसके पौरुषमें परिपूर्ण था और इस अभिमानका प्रभाव बतानेके लिए उसने अपने भाप्तजनों