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________________ 32 राजर्षि कुमारपाल बादिके परिवार सहित, अपने पिताके पुण्यनामांकित 'त्रिभुवनपालविहार' नामक महाविशाल और अतिमन्य जैन मन्दिरमें जिसको उसने करोड़ों रुपये खर्च करके बनवाया था, दर्शन और पूजा करने जाता था / जिस समय वह जिनमूर्तिका अभिषेक कराता था उस समय रङ्गमण्डपमें वारांगनाएँ आडम्बरके साथ नृत्य और गान करती थीं। जिन मन्दिस्में पूजाविधि समाप्त करके वह हेमचन्द्राचार्यके चरण वंदन करता और चंदन, कपूर एवं स्वर्ण कमलों द्वारा उनकी पूजा करता / उनके मुखसे यथावसर धर्मबोध सुन कर वहाँसे राजमहलकी ओर लौट जाता था / लौटते समय वह हाथी पर न चढ़ कर घोड़े पर सवार होता था। और अपने स्थान पर पहुँचता था। तदनन्तर याचकों आदिको यथायोग्य दान दे कर भोजन करता था। उसका भोजन बहुत ही सात्त्विक होता था / जैन धर्मके अनुसार वह बहुत बार एकाशन आदि तप करता था और हरे शाकादि खादिष्ट पदार्थोंका त्याग करता था। भोजनोपरान्त वह आरामगृह में बैठता था और वहाँ प्रसंगवश विद्वानोंके साथ शास्त्र और तत्त्व सम्बन्धी चर्चा करता था। तीसरे प्रहर वह अपने शाही ठाठके साथ राजमहलोंसे शहरके राजमार्गोंमें होता हुआ बाहर घड़ी दो घडी उद्यान क्रीड़ा करने जाता था। उस उद्यानको संस्कृतमें राजवाटिका, गुजरातीमें रायवाड़ी और राजस्थानी भाषामें रेवाड़ी, कहते हैं। संध्या समय वह वहाँसे राजमहलकी ओर लौटता और महलोंमें आ कर देवकी आरती आदिका संध्याकर्म करता। तत्पश्चात् एक पाट पर बैठ कर वाराङ्गनाओंके नृत्य और गान सुनता था। स्तुतिपाठक और चारणलोग उसकी खूब स्तुति करते थे / वहाँसे वह सर्वावसर नामक मुख्य सभा-मण्डपमें आ कर सिंहासन पर बैठता था / सभी राजकीय और प्रजावर्गीय सभाजन उपस्थित होते थे। राजा और राज्यके कल्याणके लिए राजपुरोहित द्वारा मन्त्र पाठ हो जाने पर चामर धारण करनेवाली स्त्रियां आसपास चामरादि उपकरण धारण करके खड़ी हो जाती थीं। तदुपरान्त मङ्गलवाय बजते थे और दूसरी स्त्रियां अपने अपने कामके लिए उपस्थित होती थीं। तत्पश्चात् वारांगनाएं राजाके वारणे लेती थीं और दूसरे सामन्त एवं अधीन राजा हाथ जोड़ कर खड़े रहते थे / राजाके सन्मुख राज्यके दूसरे महाजन-जैसे श्रेष्टिवर्ग, व्यापारी, प्रधान ग्रामजन आदि आ कर बैठते थे / परराज्योंके जो दूत आते थे वे दूरी पर सबसे पीछे बैटते थे। नीराजना विधि पूरी होनेके पश्चात् वारांगनाएँ एक तरफ बैठ जाती थीं और सम्पूर्ण सभा एकाग्र हो राज्य कार्यकी प्रवृत्ति देखती थीं। राज्य कार्यमें सबसे पहले सान्धिविग्रहिक अर्थात् विदेश मंत्री ( Foreign minister) परराज्योंके. संबंधोंकी कार्यवाही निवेदन करता था / किस राजाके साथ क्या संधि हुई है, कौनसे राजाने क्या इष्ट, अनिष्ट किया है, किसके ऊपर फौजें भेजी है, किन फौजोंने क्या किया है, कौन शत्रु मित्र होता है- इत्यादि परराज्योंके साथ संबंध रखनेवाली सब बातें निवेदन करता था। राजा यह सब सुन कर उस संबंधमें उपयुक्त विचार व्यक्त करता था। तत्पश्चात् दूसरी सारी राज्य कार्यवाही होती थी। उसको सुन कर भी यथायोग्य विचार करता और अन्त में सभाको विसर्जित कर यथावसर शयनागारमें जा कर शय्याधीन होता था। जैन धर्मके व्रतोंका स्वीकार करने पश्चात् वह बहुत बार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता था और पूर्ण रूपसे एकपत्नीव्रतधारी था। इस विषयमें वह पहलेसे ही बहुत सदाचारी था। इसी कारण तदाश्रित समस्त राजवर्गीय जनोंमें उसका बहुत प्रभाव था / इस तरह कुमारपालकी दिनचर्या नियत थी / विशेष अवसरों पर इस दिनचर्यामें जो फेरफार होता था वह प्रासंगिक होता था। प्रजाजनोंके आनन्दके लिए गजयुद्ध या मलयुद्ध एवं ऐसे ही दूसरे खेलोंका कार्यक्रम जब होता था उस समय राजा अपने राजवर्गके साथ वहाँ बैठता था और खेलोंको देखता था और अपने कार्यक्रममें फेरफार करता था। रथयात्रा आदि धार्मिक उत्सवोंमें भी वह इसी प्रकार भाग लेता था। कुछ पर्च दिवसोंके प्रसङ्ग पर रात्रिमें मन्दिरोंमें नाट्यप्रयोग या संगीतोत्सव होते थे उनमें भी वह उपस्थित रहता था। विद्या प्रेम कुमारपालके जीवन पर दृष्टिपात करनेसे पता चलता है कि वह सिद्धराज जितना प्रतिभाशाली और विद्यारसिक तो न था, तो मी बुद्धिमान् तो था ही। उसे युवावस्थामें विद्याप्राप्तिका अवसर ही कहाँ मिला था ! उसकी * युवावस्थाका
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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