SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजर्षि कुमारपाल 31 नहीं समझा जाता था। समाजके शिष्ट कहलाने वाले वर्गके साथ वेश्याओंका बहुत सम्बन्ध रहता था। उसी प्रकार वेश्याओंकी स्थिति भी आजकी भांति हलकी और व्यभिचार पोषक न थी। वेश्याओंका स्थान समाजमें एक प्रकारसे उच्च समझा जाता था। राज दरबारमें हमेशा उनकी उपस्थिति रहती थी। देवमन्दिरोंमें भी नृत्य संगीत आदिके लिए उनकी उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी / व्यक्तिगत और सार्वजनिक महोत्सवोंमें भी उनका स्थान पहला रहता था / कला और कुशलताकी वे शिक्षिकाएं मानी जाती थीं / लक्ष्मीदेवीके कृपापात्र राजपुत्रादि उनसे कलाका अभ्यास करते थे। अनेक राजा ऐसी कलाधाम वेश्याओंको अपनी प्रियतमा भी बनाते थे। स्वयं कुमारपालका पितृकुल भी, ऐसी ही एक, वेश्यावर्गमेंसे अवतीर्ण कलानिधी राजरानी की संतति था। उसके दरबार में भी यह वेश्यावर्ग काफी परिणाममें और अच्छी स्थितिमें विद्यमान था। इसलिए उनकी प्रवृत्तियोंके विषयमें किसी भी प्रकारका विधि-निषेध करनेका कुछ भी विचार नहीं किया होगा। इस प्रकार कुमारपालने जैनधर्ममें दीक्षित हो कर जैन सिद्धान्तोंके अनुसार कई स्थूल धार्मिक और नैतिक नियम जाहिर किये थे और प्रजा द्वारा इन नियमोंका पालन करानेके लिए पूरी सावधानी रखी थी। हेमचन्द्र आचार्यका कहना है कि उसके अहिंसाके आदेशका पालन करनेके लिए अन्त्यज जन भी जू माकड़ आदि तककी हत्या नहीं करते थे। इस कथनमें भले ही कुछ अतिशयोक्ति होगी, लेकिन राजा इस विषयमें पूरा पूरा सतर्क था इसमें कोई शंका नहीं है / प्रबन्धोंमें जो एक यूंकाविहार मन्दिर बंधवानेका इतिहास मिलता है उससे इस बातकी पुष्टि होती है। ___ कुमारपालने इस प्रकारके नैतिक कार्य करनेके उपरांत जैन धर्मके प्रचार और प्रसारके लिए जगह जगह सैकड़ों मन्दिरोंका निर्माण कराया था / शत्रुजय और गिरनार जैसे जैन तीर्थोंकी यात्रा बड़े शाही ठाठके साथ संघ निकाल कर की थी। वह राजधानीमें प्रति वर्ष बड़े बड़े जैन महोत्सवोंका भी आयोजन किया करता था और दूसरे शहरोंमें मी महोत्सवोंके आयोजनकी प्रेरणा दिया करता था। राजर्षिकी दिनचर्या .. वह राजकाजको नियमित रूपसे देखता रहता था। उसकी दिनचर्या व्यवस्थित थी। विलास या व्यसनका उसके जीवनमें कोई स्थान न था / वह बहुत दयालु और न्यायपरायण था / अंतरसे वास्तवमें मुमुक्षु था और ऐहिक कामनाओंसे उसका मन उपशांत हो गया था। राजधर्म समझ कर वह राज्यकी सब प्रवृत्तियाँ देखता था लेकिन उनमें उसकी आसक्ति न थी। उसकी दिनचर्याके संबंधमें हेमचन्द्राचार्यने 'प्राकृतद्याश्रय' काव्यमें और सोमप्रभाचार्यने 'कुमारपाल प्रतिबोध' नामक ग्रन्थमें जो बताया है उससे पता लगता है कि- वह प्रातःकाल सूर्योदयके पहले ही शय्या त्याग करके सबसे प्रथम जैनधर्ममें मंगलभूत अरिहंत, सिद्ध, आचार्यादि पाँच नमस्कार पदोंका स्मरण करता था। तदुपरान्त शरीरशुद्धिकी क्रिया वगैरहसे निवृत्त हो कर अपने राजमहलके गृहचैत्यमें पुष्पादिसे जिन प्रतिमाकी पूजा करके स्तवनके साथ पञ्चाङ्ग नमस्कार करता था। वहाँसे निकल कर वह तिलकावसर नामक मण्डपमें जा कर सुकोमल गद्दी पर बैठता था / वहाँ उसके सामने दूसरे सामंत राजा आ कर बैठते थे और पासमें चामर धारण किये हुए वारांगनाएँ खड़ी रहती थीं। उसी समय राजपुरोहित या दूसरे ब्राह्मण आ कर आशीर्वाद देते थे और उसके मस्तक पर चन्दनका तिलक करते थे। तत्पश्चात् ब्राह्मणोंसे तिथिवाचन सुन कर उन्हें दान दे कर बिदा करता था और तुरंत ही फर्यादें सुनता था। यह कार्य समाप्त कर वह राजमहलोंकी ओर जाता और वहाँ अपनी माता और माताके समान ही राजवृद्धाओंको नमस्कार करके आशीर्वाद प्राप्त करता था। तदनन्तर फल-फूल आदिसे राजलक्ष्मीकी पूजा करवाता था और दूसरे देवी देवताओंकी जो प्रतिमाएँ राजमहलमें थीं, उनकी स्तुति वगैरह कराता था। वृद्ध स्त्रियोंको सहायतार्थ धन बाँटता था / उसके बाद व्यायाम शालामें जा कर व्यायामसे निपट कर स्नान करके वस्त्रालंकार धारण करता था और फिर राजमहलके बाहरके भागमें आता था। वहाँ पर पहलेसे ही सवारीके लिए सुसज्जित राजगज पर आरूढ़ हो, समस्त सामंत, मत्री
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy