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________________ राजर्षि कुमारपाल प्रबन्धगत प्रमाणोंसे प्रतीत होता है कि कुमारपाल जैन धर्मानुयायी होनेसे पहले मांसाहार तो करता था लेकिन मद्यपानकी तरफ उसे हमेशासे घृणा रही है। यहाँ तक कि उसके कुलमें भी यह वस्तु त्याज्य समझी जाती थी। हेमचन्द्रके योगशास्त्र में आये हुए एक उल्लेखसे प्रतीत होता है कि चौलुक्य कुलमें मद्यपान ब्राह्मण जातिकी तरह ही निन्य था। चौलुक्योंके पुरोगामी चावड़े पूरी तरहसे मद्यपायी थे। स्वयं अणहिलपुरका संस्थापक वनराज भी मद्य - प्रिय था। उसके पीछे उसके द्वारा निर्माण कराये गये अणहिलपुरके राजमहलोंमें मदिरा देवीका खूब सत्कार होता था और उसीका यह परिणाम हुआ कि यादवोंकी भांति चावड़ा वंशका भी नाश हो गया। यह बात मोहराजपराजय नाटक के कर्ता मन्त्री यशःपाल अप्रकट रूपसे बताते हैं / अंतिम चावड़ा राजा सामंत सिंहका राजसिंहासन किस भांति चौलुक्य वंशके प्रतिष्ठाता मूलराजके हाथमें आया, उसका सारा विवरण प्रबन्धचिन्तामणि में दिया है। उससे भी चावड़ों के मद्यपानकी बात स्पष्ट रूपसे ज्ञात होती है। जुएका निषेध मद्यनिषेधके साथ जुआ खेलनेकी मनाही भी कुमारपालने उतनी ही सख्तीसे की थी। धूतको ले कर पांडव जैसोंको भी कितना कष्ट भोगना पड़ा था और उसी प्रकार नल जैसे राजा पर कैसी आपत्ति आई थी-ये सब कथाएँ कुमारपालने हेमचन्द्रसूरिसे कई बार सुनी थीं और खयं ने भी आसपासके लोगोंमें इसका कुपरिणाम देखा था। इसलिए उसने चूत क्रीड़ा पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया / यशःपाल मन्त्रीके कथनसे प्रतीत होता है कि उस समय लोगोंमें. जुएका दुर्व्यसन अत्यधिक फैला हुआ था। बड़े बड़े राजपुरुष भी इस व्यसनमें फंसे हुए थे। ऐसे राजपुरुषोंमें से कुछ लोगोंका स्पष्ट निर्देश भी किया गया है, जो बहुत ही उपयोगी है। इस निर्देशके अनुसार मेवाड़का राजकुमार, सोरठके राजाका भाई, चन्द्रावतीका अधिपति, नाडोलके राजाका दौहित्र, गोधराके राजाका भतीजा, धाराके राजाका भानजा, शाकंभरीके राजाका मामा, कोंकणके राजाका सौतेला भाई, कच्छके राजाका साला, मारवाड़के राजाका दौहित्र और खुद चालुक्य नृपति अर्थात् कुमारपालका कोई पितृव्य आदि जैसे व्यक्ति थे। इस उल्लेखसे प्रतीत होता है कि अणहिलपुरके सम्राट्की सेवामें रहने वाले सारे अधीन राजाओंके प्रतिनिधी इस व्यसनमें पूरी तरह आसक्त थे / निकम्मे बैठे हुए इन लोगोंको दसरा और कोई क्या काम हो सकता था। प्रतिदिन नियत किये हुए दो तीन घण्टे राजाके उपस्थित हों और अपनी हाजिरी दे दें / उसके उपरान्त शांतिके समयमें ऐसे राज-प्रतिनिधियों को कोई काम न था। इसलिए उनका समय ऐसे ही दुर्व्यसनोंमें खर्च होता था। आज भी ऐसे लोगोंमें ऐसी ही स्थिति हम पाते हैं / इसी धूतको ले कर जुआरियोंमें आपसमें अनेक प्रकारके भयंकर कलह होते थे, मारामारी होती थी और नाना प्रकारके अश्लील कार्य होते थे। कुमारपालको यह वस्तुस्थिति अच्छी तरह मालूम थी। ऐसे दुष्परिणामोंसे प्रजाको बचानेके लिए उसने चुतनिषेध की राजाज्ञा जाहिर की थी। वेश्याव्यसनकी उपेक्षा इस प्रकार जिस राजनीतिको कुमारपालने चलाया उसमें एक मुख्य बात नजर नहीं आती; वह है वेश्याव्यसन के विषयमें / कुमारपालको इसकी कल्पना तो होनी ही चाहिए। मध और चूत की भांति यह त्यसन 11 प्रा हितकी दृष्टि से उतना ही अनिष्टकारी है और धर्मशास्त्रोमें भी इसकी अनिष्टता भली भांति वर्णित है / कुमारपालने, चाहे कुछ भी कारण हो, इस व्यसनकी उपेक्षा की थी। मोहराजपराजय नाटकमें इस विषयमें भी एक निर्देश मिलता है / उपरोक्त प्रकारसे जब कुमारपालने सब दुर्व्यसनोंका बहिष्कार कराया तब वेश्याव्यसन को भी भय लगा; परन्तु राजा उसकी उपेक्षा करता हुआ कहता है कि- 'वेश्याव्यसनं तु बराकमुपेक्षणीयम् / न तेन किश्चिद् गतेन स्थितः। वा' - अर्थात् बेचारे वेश्याव्यसनकी तो उपेक्षा करनी चाहिए। इसके रहने और जानेमें कुछ भी नहीं है। यह निर्देश गुजरातकी उस समयकी वेश्याविषयक स्थिति पर प्रकाश डालता है / उस समय समाजमें, दूसरे व्यसनों की भांति, वेश्या-व्यसन बहुत निय
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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