________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य आप प्रजाका पालन पुत्रवत् करते थे। अपने राज्यमें एक भी प्राणीको दुःखी नहीं रखना चाहते थे। प्रजा भापको 'राम' का ही दूसरा अवतार समझती थी / प्रजाकी अवस्था जाननेके लिए, गुप्त वेशसे आप शहरमें भ्रमण करते थे। हेमचंद्राचार्य कहते हैं कि-"दरिद्रता, मूर्खता, मलिनता इत्यादिसे जो लोक पीडित होते हैं वे मेरे निमित्तसे हैं या अन्यसे ! इस प्रकार औरोंके दुःखोंको जाननेके लिए राजा शहरमें फिरता रहता था।" इस प्रकार जब गुप्त भ्रमणमें महाराजको जो कोई दुःखी हालतमें नजर पडता था, तो आप झट अपने स्थान पर आ कर, उसके दुःख र करनेकी चेष्टा करते थे। 'द्याश्रय महाकाव्य' के अंतिम सर्ग (20) में भगवान श्रीहेमचंद्र लिखते हैं कि"महाराज कुमारपालने एक दिन रास्तेमें, एक गरीब मनुष्यको, चिल्लाते हुए और जमीन पर गिरते-पडते हुए ऐसे 5-7 बकरोंको खींच कर ले जाता हुआ देखा / महाराजने पूछा कि-'इन मरे हुए जैसे बिचारे पामर प्राणियोंको कहाँ ले जाता है ! / ' उस मनुष्यने कहा-'इनको कसाईके यहाँ बेच कर, जो कुछ पैसा आएगा, उससे उदरनिर्वाह करूंगा।' यह सुन कर महाराज बडे खिन्न हुए और सोचने लगे कि-'मेरे दुर्विवेकसे ही इस तरह लोक हिंसामें प्रवृत्त होते हैं, इस लिए धिक्कार है मेरे प्रजापति नाम को इस प्रकार अपनी आत्माको ठपका देते हुए राजभवन में आए और अधिकारियोंको बुला कर सखत आज्ञा दी की-'जो झूठी प्रतिज्ञा करे उसे शिक्षा होगी, जो परस्त्रीलंपट हो उसे, अधिक शिक्षा होगी, और जो जीवहिंसा करे उसे, सब से अधिक कठोर दंड मिलेगा-इस प्रकारकी आज्ञापत्रिका सारे राज्य में भेज दो।' अधिकारियोंने उसी वखत उक्त फरमान सर्वत्र जाहिर कर दिया। इस प्रकार सारे महाराज्य में- यावत् त्रिकटाचल ( लंका) पर्यंत-अमारीघोषणा कराई। इसमें जिनको नुकसान पहुंचा उनको तीन तीन वर्ष तकका अन्न दिया / मद्यपानका प्रचार भी सर्वत्र बंध कराया। *यज्ञ-यागमें भी पशुओंके स्थान पर अन्नका हवन होना शुरु हुआ ! एक दिन महाराज सोये हुए थे, इतने में किसीके रोनेकी अवाज सुनाई दी / आप ऊठ कर अकेले ही उस स्थान पर पहुंचे / जा कर देखा तो एक सुंदर स्त्री रोती हुई नजर पडी / उसे पूछने पर मालूम हुआ कि, वह एक धनाढ्य गृहस्थकी स्त्री है, उसका पति और पुत्र दोनों मर गये / वह इस लिए रोती थी कि-'राज्यका पूर्वकालसे यह क्रूर नियम चला आता है कि संततिहीन मनुष्यकी मिल्कतका मालिक राज्य है-अतः इस नियमानुसार मेरी जो संपत्ति है वह सब राज्य ले लेगा तो फिर मैं अपना जीवन किस तरह बिताऊँगी / इस लिए मुझे भी आज मर जाना अच्छा है।' महाराजने यह सुन कर उसे आश्वासन दिया और कहा कि-'तूं मर मत / राजा तेरा धन लेगा। सुखपूर्वक तूं अपनी जिंदगीको धर्मकृत्य करनेमें बिता / ' खस्थान पर आ कर महाराजने मनमें सोचा कि इस प्रकार, राज्यके क्रूर नियमसे प्रजा कितनी दुःखी होती होगी ! आपका अंतःकरण दयासे भर आया। प्रजाके इस त्रास को नहीं सहन कर सके। आपने अधिकारियोंको बुला कर कहा कि-निष्पुत्र मनुष्यकी मृत्युके बाद, उसकी संपत्ति राज्य ले लेता है यह अत्यंत दारुण नियम है। इससे प्रजा बहुत पीडित होती है, इस लिए यह नियम बैध करो। चाहे भले ही मेरे राज्यकी ऊपजमें लाख-दो-लाख तो क्या परंतु कोड-दो-क्रोड रुपयेका भी क्यों न घाटा आ जाय। अधिकारियोंने आपकी आज्ञाको मस्तक चढाया और उसी क्षण सारे राज्यमें इस कायदेकी क्रूरता दाब दी गई, जिससे प्रजाके हर्पका पार नहीं रहा / तथा कर-दंड वगैरह भी आपने बहुत कम कर दिये थे / इस प्रकार आपने अपनी प्रजाको अत्यंत सुखी की थी। * इस बात पर गुजरातके प्रख्यात विद्वान् , सद्गत प्रो. मणिलाल नभुभाई द्विवेदी लिखते हैं कि-"कुमारपालने जबसे अमारी घोषणा (जीवहिंसा बंध ) कराई तबसे यज्ञयागमें भी मांसबलि देना बंध हो गया, और यव तथा शालि होमनेकी चाल शुरु हुई / लोगोंकी जीव जाति ऊपर अत्यंत दया बढी। मांसभोजन इतना निषिद्ध हो गया कि, सारे हिंदुस्थान (बंगाल, पंजाब, इत्यादि) में, एक या दूसरे प्रकारसे, थोडा बहुत भी मांस, हिंदु कहलाने वाले, उपयोगमें लाते हैं, परंतु गुजरातमें तो उसका गंध भी लग जाय तो, झट बान करने लग जाते हैं। ऐसी वृत्ति लोगों की उस समयसे बंधी हुई आज पर्यंत चली जा रही है।" (देखो 'बाश्रयकाव्य' का गुजराती भाषांतर, गायकवाड सरकारका छपाया हुभा।)