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________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य धार्मिक-जीवन / - यहाँ तक हमने आपके व्यावहारिक-सामाजिक जीवनका उल्लेख किया। अब कुछ थोडे से शब्द, धार्मिकआध्यात्मिक जीवनके विषयमें, कह कर; इस प्रस्तावनाकी समाप्ति करेंगे। आप जिस प्रकार नैतिक और सामाजिक विषयोंमें औरोंके लिए आदर्शखरूप थे, उसी प्रकार धार्मिक विषयों में भी आप उत्कृष्ट रूपमें धर्मात्मा थे, जितेन्द्रिय थे और ज्ञानवान थे। श्रीमान् हेमचंद्राचार्यका जबसे आपको अपूर्व समागम हुआ तभी से आपकी चित्तवृत्ति धर्मकी तरफ जुडने लगी। निरंतर उनसे धर्मोपदेश सुनने लगे / दिन प्रतिदिन जैनधर्म प्रति आपकी श्रद्धा बढने तथा दृढ होने लगी / अंतमें संवत् 1216 के वर्षमें, शुद्ध श्रद्धानपूर्वक जैनधर्मकी गृहस्थ - दीक्षा स्वीकार की। सम्यक्त्वमूल द्वादश व्रत अंगीकार कर, पूर्ण श्रावक बने ! उस दिनसे निरंतर त्रिकाल जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करने लगे / परमगुरु श्रीहेमचंद्राचार्यकी विशेष रूपसे उपासना करने लगे, और परमात्मा महावीरप्रणीत अहिंसाखरूप जैनधर्मका आराधन करने लगे / आप बडे दयालु थे, किसी भी जीवको कोई प्रकारका कष्ट नहीं देते थे। पूरे सत्यवादी थे, कभी भी असत्य भाषण नहीं करते थे। निर्विकार दृष्टिवाले थे, निजकी राणियोंके सिवाय संसार मात्रका स्त्रीसमूह आपको माता, भगिनी और पुत्रीतुल्य था / आपने महाराणी भोपलदेवीकी मृत्युके बाद आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया था / राज्यलोभसे सर्वथा पराङ्मुख थे / मद्यपान, तथा मांस और अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण कभी नहीं करते थे। दीन दुःखी जनोंको और अर्थी मनुष्योंकों निरंतर अगणित द्रव्य दान किया करते थे / गरीब और असमर्थ श्रावकोंके निर्वाहके लिए दरसाल लाखों रुपये राज्यके खजानेमें से दिये जाते थे। लाखों रुपये व्यय कर जैन शास्त्रोंका उद्धार कराया और अनेक पुस्तक-भंडार स्थापन किये / हजारों पुरातन देवमंदिरोंका जीर्णोद्धार करा कर तथा अनेक नये बनवा कर भारत-भूमिको अलंकृत की / तारंगादि तीर्थक्षेत्रों परके दर्शनीय और भारतवर्षकी शिल्पकलाके अद्वितीय नमूने रूप, विशाल और अत्युच्च, मंदिर आज भी आपकी जैनधर्म प्रियताको जगत्में जाहीर कर रहे हैं / इस प्रकार आपने जैनधर्मके प्रभावको जगत्में बहुत बढाया / संसारको सुखी कर अपने आत्मा का उद्धार किया। एक अंग्रेज विद्वान् लिखता है की-“कुमारपालने जैनधर्मका बडी उत्कृष्टतासे पालन किया और सारे गुजरातको एक आदर्श जैन राज्य बनाया।" अपने गुरु श्रीहेमचंद्राचार्यकी मृत्युसे छः महीने बाद, वि. सं. 1230 में, 80 वर्षकी आयु भोग कर, इस असार संसार को त्याग, स्वर्ग प्राप्त किया। , अंतिम निवेदन पाठक ! हमने ऊपर जिन दो महापुरुषोंका संक्षेपमें वर्णन किया है उन्हीं पुण्यात्माओंका जीवनविस्तार इस कुमारपाल चरित्रमें है। इसको अच्छी तरह पढिये और अपनी आत्माको निर्मल करिये / हर एक समाज और देशकी उत्कृष्ट संपत्ति उसके आदर्श पुरुष ही है। मनुष्य जीवनको उन्नत करनेके लिए महात्माओंका पवित्र जीवनचरित्र ही एक सर्वोत्तम साधन है / जिस समाज और देशको, अपने पूर्वकालीन समर्थ पुरुषोंके प्रचंड सामर्थ्यका खयाल नहीं है, उनके सुकृत्योंका अभिमान नहीं है और उनकी आज्ञाका पालन नहीं है, वह समाज और देश कमी उन्नति पर नहीं पहुंच सकता। इसलिए, प्रिय जैनबंधुओ! ऐसे महात्माओंके जीवनचरित्रोंको पढ कर आप अपने पूर्वजोंके गुणों और सुकृत्योंको अपने हृदयमें स्थापन करो, उनकी पवित्र आज्ञाओंका पालन करो और गये हुए जैन-धर्मके गौरवको, अपने पुरुषार्थ द्वारा एक दफह फिर पीछा ला कर, जगत्को उसका सर्वश्रेष्ठत्व बतला दो। अंतमें, इस चरित्रके लेखक स्नेहास्पद श्रीयुत मुनिवर ललितविजयजी महाराजका मैं उपकार मानता हूं कि जिनके प्रसंगसे, इस प्रस्तावना द्वारा मुझे महापुरुषोंके गुणानुवाद करनेका यह सुअवसर मिला। बीर सं. 2440 (वि.सं. 1970) आश्विन कृ.५ जैनउपाय, महेसाणा (उत्तर गुजरात) -मुनि जिन विजय
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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