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________________ साविकमारपाक अब पीछेसे मारवाड़ भादिकी तरफसे बड़ी संख्यामें सेना आ पहुँची तब फिर से उसी दंडनायकके आधिपत्यमें गुजरातकी एक प्रचल सेना कोंकणचक्रवर्तीका दर्प चूर्ण करनेके लिए दूने उत्साहसे रवाना हुई। रणभूमिमें दोनोंके बीच घमासान पर दुधा और अन्तमें गुजरातियोंकी जय होनेके कारण सेनानायक आंबडके गलेमें विजयदेवीने वरमाला डाल दी। राजपितामह बिरुदधारक मल्लिकार्जुनका गर्वोन्नत मस्तक, गुजरातके एक दयाधर्मी वणिक सुभटने अपनी तीक्ष्ण तलवार से कमलपुष्पकी भांति काट लिया और उसे खर्ण पत्रमें लपेट कर श्रीफलकी भांति अपने खामीको अर्पित किया / कुमारपालने उसके पराक्रमके प्रभावका सत्कार करनेके लिए उस निहत राजाका प्रिय विरुद आंबड भट्टको अर्पित कर उसे 'राजपितामह' बनाया / इस प्रकार कोंकणराजका उच्छेद होने पर कुमारपालकी राज्यसत्ता दक्षिण प्रांतमें दूर दूर तक फैल गई थी और कदाचित् सह्याद्रिके सुदूर शिखर तक गुजरातका ताम्रचूड विजयध्वज फहराने लगा था। गुजरातके साम्राज्यकी सीमा को बताने वाली इतनी बड़ी विशाल रेखा भारतवर्षके मानचित्रमें केवल कुमारपालके पराक्रमने ही अङ्कित की थी। उसके समकालीन भारतीय राजाओंमें कुमारपाल सबसे बड़े राज्यका खामी था / हेमचन्द्राचार्य उसके राज्यकी चतुस्सीमाओंका इस प्रकार वर्णन करते हैं. स कौबेरीमातुरुष्कमैन्द्रीमात्रिदशापगाम् / याम्यामाविन्ध्यमावापि पश्चिमां साधयिष्यति॥ अर्थात् -कुमारपालकी राजाज्ञा उत्तरमें तुरुष्क लोगोंके प्रान्त तक, पूर्वमें गङ्गा नदीके किनारे तक, दक्षिणमें विन्ध्याचल तक और पश्चिममें समुद्र तक मानी जाती थी। प्रबन्धकारोंके अनुसार हेमाचार्य द्वारा बताई गई उस चतु:सीमामें कोंकण, कर्णाटक, लाट, गूर्जर, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्धु, उच्चा, भम्भेरी, मारवाड़, मालवा, मेवाड़, कीर, जाल सपादलक्ष, दिल्ली, जालन्धर और राष्ट्र महाराष्ट्र इत्यादि अठारह देशोंका समावेश होता था। एक दूसरी जगह .. मी हेमचन्द्रसूरि कुमारपालने जिन देशोंको जीता था उसका निर्देश करते हैं / जैसे कि जिष्णुश्चेदिदशार्णमालवमहाराष्ट्रापरान्तान् कुरुन् / सिन्धूनन्यतमांश्च दुर्गविषयान् दोर्वीर्यशक्त्या हरिः। चौलुक्यः परमाहेतः विनयवान् श्रीमूलराजान्वयी // इत्यादि। कुमारपाल अपने राज्यका कार्यभार संभालनेमें कई तरहसे सफल हुआ / उसके लगभग तीस वर्षके राज्यकालमें प्रजाने अद्वितीय शान्ति और उन्नति प्राप्त की थी। देश समृद्धिके शिखर पर पहुँच चुका था। किसी भी प्रकारका खचक्र सम्बन्धी या परचक्र सम्बन्धी उपद्रव नहीं हुआ। लक्ष्मी देवी के समान ही प्रकृति देवी भी उसके राज्य पर प्रसन्न थी और उसके समयमें देशमें एक मी दुष्काल नहीं पड़ा / उसकी ऐसी भाग्यसफलता प्रत्यक्ष देखने वाले आचार्य सोमप्रभ इस बात पर विशेष जोर दे कर लिखते हैं स्वचक्रं परचक्रं वा नानर्थ कुरुते कचित् / दुर्भिक्षस्य न नामापि श्रूयते वसुधातले // गुणवर्णना आचार्य हेमचन्द्र उसके सर्व गुणोंके समुच्चयका परिचय बहुत ही परिमित और सर्वथा यथार्थ शब्दोंमें अपनी अन्तिम रचनामें इस प्रकार देते हैं - कुमारपालो भूपालश्चौलुक्यकुलचन्द्रमाः। भविष्यति महाबाहुः प्रचण्डाखण्डशासनः // स महात्मा धर्मदानयुद्धवीरः प्रजां निजाम् / ऋद्धिं नेष्यति परमां पितेव परिपालयन् //
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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