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________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य कर अपने प्रजापति पदको सार्थक करो / यदि, हमारे उपकारका बदला चुकानेकी ही, तुम्हारी दृढ इच्छा है, तो हमारी इच्छा पूर्ण करो। हम जगत्में अहिंसा और जैन धर्मका पूर्ण रूपसे उत्कर्ष देखना चाहते हैं; इस लिए, हमारी इन तीन आज्ञाओंका पालन करो, जिससे तुम्हारा और तुम्हारी प्रजाका कल्याण हो / प्रथम तो, अपने राज्यमें प्राणीमात्र का वध बंध कर सब जीवोंको अभय दान दो। दूसरा, प्रजाकी अधोगतिके मुख्य कारण, जो दुर्व्यसन-बूत, मांस, मद्य, शिकार, आदि हैं, उनका निवारण करो / तीसरा, परमात्मा महावीरकी पवित्र आज्ञाओंका पालन कर, उसके सत्य धर्मका प्रचार करो / " महाराज कुमारपाल बडे कृतज्ञ थे, भव्य थे, दयालु थे, और अल्प-संसारी थे। अल्प ही समयमैं मुक्ति जाने वाले होनेसे उनके विशुद्ध हृदयमें, हेमचंद्राचार्यके इस वचनामृतसे बोधि-बीज अंकुरित हो गया। महाराजने सूरीश्वरजीके चरणोंमें फिर मस्तक रख कर कहा-"भगवन् ! आपकी सर्व आज्ञायें मुझे शिरसा वंद्य हैं! जीवित पर्यंत इन पवित्र आज्ञाओंका उत्कृष्टतया पालन करनेमें, पूर्ण प्रयत्न करूंगा / आप ही मेरे स्वामी, गुरु और प्राण खरूप हैं।" सूरीश्वरजीको, महाराजके इन वचनोंसे जो आनंद हुआ उसके वर्णन . करनेकी शक्ति किसमें है। जैनधर्मका साम्राज्य महाराज कुमारपालने उसी क्षणसे, गुरु महाराजकी आज्ञाओंको अमलमें लानेकी शुरुआत की / धीरे धीरे आपने अपने सारे राज्यसे हिंसा राक्षसी को देशनिकाला दिया। यहां तक कि, मनुष्य 'मर' और 'मार' इन शब्दोंको भी भूल गये! पशुसे ले कर कीडी और जूं जैसे अतिक्षुद्र प्राणी पर्यंतके किसी जीवको, कोई मनुष्य कष्ट नहीं पहुंचा सकता था / मनुष्य जातिके अवनतिके कारणभूत दुर्व्यसनोंका भी देशसे बहिष्कार कराया। अनीतिका नाम सुनता भी प्रजा भूल सी गई! महाराज निरंतर सूरीश्वरका धर्मोपदेश सुनने लगे। उनकी दिन प्रति दिन जैनधर्ममें श्रद्धा बढने लगी। उनको जगतजंजाल मिथ्या भासने लगा, संसारकी विरसताका अनुभव होने लगा। थोडे ही समय आपने जैन शास्त्रोक्त उत्कृष्ट गृहस्थ जीवन पालनेके लिए, द्वादशवत स्वरूप श्रावक धर्म अंगीकार किया / अनेक प्रकारसे जैनधर्मकी प्रभावना करने लगे। जैन समाज फिर एक दफह चतुर्थ काल के आ जानेका अनुभव करने लगा। सर्वत्र जैनधर्मकी जय जय ध्वनि होने लगी। यह सब देख कर हेमचंद्राचार्य अपने जीवनको सफल समझने लगे / अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई देख, स्वीय आत्माको कृतकृत्य मानने लगे / वीतरागके सत्यधर्मका इस प्रकार उत्कर्ष सत् युगकी अपेक्षा कलियुगको ही आप श्रेष्ठ कहने लगे। महाराज कुमारपालके नित्यपाठार्थ जो आपने 'वीतरागस्तोत्र' लिखा है, उसमें आप कहते हैं कि यत्राल्पेनापि कालेन त्वद्भक्कैः फलमाप्यते / कलिकालः स एकोऽस्तु कृतं कृतयुगादिभिः॥ अर्थात्-हे वीतराग ! जिस कलियुगमें, अल्प समयमें ही तेरे भक्त श्रेष्ठ फल प्राप्त कर लेते हैं, वह कलिकाल ही हमारे लिए तो सदा रहो! हमें उस सत् युगसे क्या मतलब है कि जिसमें, तेरे धर्मके विना व्यर्थ ही संसारमें मारे मारे फिरते थे। आगे चल कर आप कलिकालमें भी वीतरागके शासनकी एकच्छत्रताका वर्णन करते है कहते हैं कि श्राद्धः श्रोता सुधीर्वक्ता युज्येयातां यदीश तत् / त्वच्छासनस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं कलावपि // अर्थात-हे देव! यदि. शुद्ध श्रद्धासे निर्मल है अंत:करण जिसका ऐसा, श्राद्ध तो श्रोता हो, और सकलशास्त्रपारंगत तत्त्वपारीण ऐसा, वक्ता हो, तो कलिकालमें भी तेरे शासनका एकच्छत्र साम्राज्य हो सकता है। यह श्लोक बडे मार्केका है, इसमें भगवान् श्रीहेमचंद्राचार्यने अपने जीवनका अनुभव प्रगट किया है / वे कहते हैं कि जहाँ, युगान्त. र्यर्ती सकल शास्त्रका पारगामी (मेरे समान) जैन धर्मका वक्ता - उपदेशक है, और चौलुक्यचक्रचूडामणि महाराज श्रीकुमारपाल देव जैसा श्रोता- श्रावक है, तब इस कलिकालमें भी जैन शासनका, एकच्छत्र साम्राज्य हो इसमें आश्चर्य क्या /
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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