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________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य आचार्यपद प्राप्ति इस प्रकार हेमचंद्र मुनिके ज्ञानबल और चारित्रबलकी उत्कृष्टताका प्रवाह जैन संघमें सर्वत्र प्रसर गया / 'लव जैन धर्मकी विजयपताका थोडे ही समयमें सारे भूमंडलमें उडने लगेगी- इस प्रकार संघमें आनंदवार्ता प्रयतेने लगी। संघके आग्रहसे तथा शासनकी महिमा बढानेके लिए, गच्छाधिपति श्री देवचंद्रसूरिने नागपुर नगरमें, संवत 1162 के सालमें हेमचंद्रमुनिको आचार्यपद पर अभिषिक्त किया। ___ शासनोद्धार करनेकी प्रतिज्ञा जब आपको आचार्यपद दिया गया और जैन धर्मकी धुरा कंधे पर रखी गई, तब शासनकी स्थिति देख कर थापके मनमें अनेक प्रकारके विचार उप्तन्न होने लगे / जैनधर्म का उद्धार और प्रचार जगत् में किस तरह होयह बात दिन और रात मनमें घुलने लगी। हरएक उपायसे भी परमात्माके शासनकी वैजयन्ती पताकाको, एक दफे फिर मी, भारतवर्षमें फरकानी चाहिए, ऐसा पूर्ण उत्साहके साथ आपने दृढ संकल्प किया / जब तक कोई राजा महाराजा इस धर्मका नायक न हो, तब तक यह संकल्प सिद्ध होना मुश्किल है-ऐसा विचार कर, किसी महाराजको प्रतिबोध करनेके लिए, मंत्राराधन कर, देवतासे वर माँगा / आपके प्रबल मनोबलसे, संतुष्ट हो कर देवताने भी ईप्सित वर प्रदान किया। गुर्जरपति सिद्धराजका समागम . विविध देशोंमें विहार करते हुए और उपदेशामृत द्वारा अनेक भव्य जीवोंको प्रतिबोध करते हुए, क्रमसे राज्यनगर अणहिलपुर-पाटणमें प्रवेश किया। इस समय महाराज सिद्धराज जयसिंह यहां पर प्रजाप्रिय. नृपति थे। धीरे धीरे सारे शहरमें तथा राजदरबारमें आपकी विद्वत्ताकी ख्याति फैलने लगी, जिसे सुन कर महाराज मी आपके दर्शनके लिए उत्कंठित हुए। प्रसंगवश एक दिन आपका और महाराजका समागम हुआ। राजा आप की विद्वत्ता और सच्चरितता पर बडा मुग्ध हुआ। 'आप कृपा कर निरंतर यहाँ आया करें और धर्मोपदेश द्वारा हमें समार्ग बताया करें। इस प्रकारकी राजाकी विज्ञप्ति, धर्मकी प्रभावनाके निमित्त, स्वीकार कर ली / राजाकी इच्छानुसार, आपका आगमन निरंतर राज्यसभामें होता था / नाना प्रकारकी तत्त्वचर्चाएं हुआ करती थीं। देश-देशांतरोंसे बनेक मतोंके विद्वान् अपनी विद्वत्ताका परिचय देनेके लिए सिद्धराजकी सभामें उपस्थित होते थे / सबके साथ हेमचंद्राचार्यका वाद-विवाद होता था, और उसमें सदा आप ही का जय होता था। - जैनधर्ममें अटल श्रद्धा आपका आत्मा जैन धर्ममें पूर्ण रंगा हुआ था / आर्हत धर्म पर आपकी अटल श्रद्धा थी। यदि, जैन धर्मकी बयाचनिको सर्वत्र फैलानेके लिए, रसातलमें मी जाना पड़े, तो, आप वहां जानेके लिए भी तैयार थे। इस प्रकार जैनधर्म पर जो आपका विश्वास था वह धार्मिक-मोह जन्य नहीं था, किंतु जैनधर्मकी सत्यताके कारण पा। आप एक स्तुतिमें वीतराग महावीर प्रभुकी स्तवना करते हुए कहते हैं कि न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु / यथावदाप्तात् परीक्षयाच त्वामेव वीर ! प्रभुमाश्रिताः स्म // वर्षाद- वीर ! केवल श्रद्धा-अंधश्रद्धा से ही तेरेमें हमारा पक्षपात है तथा केवल द्वेषमात्रसे ही अन्योंमें हमारा बनादर है, ऐसा नहीं है; किंतु परीक्षापूर्वक, हमारा यह व्यवहार है / जैन धर्मके सिद्धान्तोंको आप अखंडनीय ते थे, और अपने ज्ञानबलसे उनकी अखंडनीयता. समस्त प्रवादियोंके सामने, अकाट्य प्रमाणों द्वारा, बडी निर्भीकता के साप, सिद्ध करते थे। इसी ही स्तुतिमें आप अन्यत्र कहते हैं कि- इमां समक्षं प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे / न वीतरागात्परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकांतमृते नयस्थितिः //
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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