________________ किशित् प्रास्ताविक (3) कुमारपालप्रबोध-प्रबन्ध जैसा कि ऊपर वर्णन दिया गया है इस संग्रहके तीसरे ग्रन्थका नाम 'कुमारपालप्रबोध-प्रबन्ध' है / यह नाम हमने ग्रन्थकी प्रारंभिक कण्डिकाके उल्लेख परसे अङ्कित किया है। उसमें लिखा है कि- 'श्रीकुमारपालभूपालस प्रारम्यतेऽयं प्रबोधप्रबन्धः।' इस उल्लेखके सिवा प्रन्थमें और किसी जगह अथवा अन्तिम पुष्पिका लेखमें भी इसका खास नाम लिखा हुआ हमें प्राप्त नहीं हुआ। पूनामें उपलब्ध एक त्रुटित प्रतिमें प्रबोध इस शब्दकी जगह 'प्रतिबोध' ऐसा पाठ भी मिला है इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इसका नाम 'प्रतिबोध प्रबन्ध' भी हो सकता है और शायद इसी नामको लक्ष्य कर उक्त दूसरे नंबरके चरितके कर्ता सोमतिलकसूरिने यह लिखा है कि इसका विस्तार 'कुमारपालप्रतिबोध' शास्त्रसे जानना चाहिए। दोनों शब्दोंका अर्थ प्रायः एक ही है, इससे नाममें कोई विशेष मेद नहीं पडता / इस ग्रन्थका मुद्रण करते समय हमें प्रथम एक ही प्रति प्राप्त हुई थी जो पाटणके भण्डार की थी / इस प्रतिके अन्तमें जो 'प्रन्थलेखनप्रशस्ति' दी गई है और जिसको हमने इसके साथ मुद्रित किया है (देखो, पृ० 112) उससे ज्ञात होता है कि वि. स. 1464 में, देवलपाटक (काठियावाडके देलवाडा) में पंडित दयावर्द्धन नामके यतिवरके आदेशसे, श्रावक लोगोंने अपने गच्छके अनुयायियोंके पढनेके लिये इस चरितकी प्रतिलिपि करवाई थी। पाटणकी उक्त प्रति कुछ कुछ अशुद्ध थी इस लिये इसका संशोधन करनेमें हमें कुछ कठिनाई ही रही, तो भी यथामति पाठशुद्धि करनेका हमने पूरा प्रयत्न किया / प्रन्थका पूरा मुद्रण हो चुकने बाद, हमें बीकानेरसे साहित्यप्रिय श्रावकबन्धु श्रीयुत अगरचन्द्रजी नाहटाकी. तरफसे इस ग्रन्थकी एक और प्रति मिली जो वि० सं० 1656 की लिखी हुई है / उससे इसका मिलान करने पर हमें इन दोनोंमें परस्पर कहीं कहीं पाठभेद उपलब्ध हुए जिनमें कुछ तो मात्र शाब्दिक परिवर्तन स्वरूपके हैं और कुछ पंक्तियोंके और पद्योंके न्यूनाधिकत्व बतलाने वाले हैं। इनमेंसे जो पाठभेद कुछ खास विशेषत्व रखते हैं उनको हमने इसके साथ परिशिष्टके रूपमें दे दिये हैं। सबसे अधिक विशेषतावाला पाठभेद है वह प्रारंभके मंगलाचरणवाले श्लोकों ही का है। हमारे मुद्रित ग्रन्थमें मंगलाचरणके जो 4 पद्य मिलते हैं उनसे सर्वथा भिन्न प्रकारके 4 पथ इस बीकानेरवाली प्रतिमें प्राप्त होते हैं। (देखो परिशिष्ट A) / इसका कारण यह हो सकता है कि इस प्रन्यके संकलन कर्ताने पहले जो एक आदर्श तैयार किया होगा उसकी प्रतिलिपिवाली ये पाटण और पूनावाली प्रतियां होनी चाहिये। उसके बाद संकलन कर्ताने ग्रन्थमें जो कुछ थोडा बहुत पीछेसे संशोधन-परिवर्तन किया होगा उस आदर्शकी प्रतिलिपिवाली परंपराकी यह बीकानेरवाली प्रति होनी चाहिये / क्यों कि इस प्रतिके पाठ, हमारी मुद्रित प्रतिके पाठसे, शब्दसन्दर्भ और वाक्यरचनाकी दृष्टिसे कुछ विशेष परिमार्जित मालूम पडते हैं / ऐसे संकलनात्मक प्रन्थोंकी प्रतियोंमें इस तरहके विशेष पाठभेद, इस प्रकार किये गए संशोधन-परिवर्तनके कारण, प्रायः उपलब्ध होते रहते हैं। इससे इसमें कोई खास आश्चर्यकी बात नहीं है। बादमें हमें पूनामें भी इस ग्रन्थकी एक और तीसरी प्रति प्राप्त हुई जो भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटके राजकीय ग्रन्थ संग्रह में रक्षित है। यह प्रति त्रुटित है। प्रारंभके 10 पत्र बिल्कुल ही नहीं है और बीचके भी कुछ पत्र लुप्त हैं पर अन्तका पत्र विद्यमान है / यह प्रति वि. सं. 1482 की लिखी हुई है और भट्टारिक श्री जयतिलकसूरिके शिष्य पं. दयाकेशरगणिको, ओसवंशीय गोठी संग्रामकी पत्नी बाई जासने लिखा कर समर्पित की है। इसका यह पुष्पिका लेख इस प्रकार है। इति संवत् 1482 वर्षे फागुण शुदि पंचम्यां गुरौ श्रीमति श्री तपा पक्षे श्रीरत्नागरसूरीश्वराणां गच्छे महारिक श्रीजयतिलकसूरीस्व(श्व)राणां शिक्ष (व्य) पं० दयाकेशरिगणिवराणां श्रीओसवंश अं()गार गोठी संग्रामकस्य भार्या बाई जासू नाना लिषाप्य प्रददौ मुदा / चिरं नंदतु /