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________________ किञ्चित् प्रास्ताविक गुजरातके सुवर्ण युगका शिखरभूत परमार्हत चौलक्य नृपति कुमारपाल इतिहासविश्रुत है। अपने समयके भारतके मात बडे बापत विद्वान्, सर्वशास्त्रनिष्णात, अनेकानेकग्रन्यप्रणेता, राष्ट्रीयज्योतिःखरूप, जैनाचार्य हेमचन्द्रसरिके समुपदेशसे प्रतिबुख हो कर उसने अपने राजजीवनके उत्तर कालमें, जैन धर्मकी अणुव्रतग्रहणात्मक गार्हस्थ्यकार की थी। इसलिये तत्कालीन एवं उत्तर कालीन अनेक जैन विद्वानोंने उसके जीवनवृत्तको लक्ष्य कर प्राकृत, यभाषामें छोटे बडे अनेक ग्रन्थ-प्रबन्ध आदि ग्रथित किये हैं। इन ग्रन्थोंमेंसे कई अन्य अब तक प्रकाशमें बार कुछ अभी तक अप्रकाशित हैं / ऐतिहासिक साधन-सामग्री आदिकी उपयोगिताकी दृष्टि से, ये सब ग्रन्थ मापके हैं और प्रसिद्धि पाने योग्य है / हमने इतःपूर्व कुमारपालप्रतिबोध, प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबज्यकोष, पुरातनप्रवन्धसंग्रह भादि ग्रन्थोंका संपादन-प्रकाशन कर, एतद्विषयक सामग्रीको योग्य रूपमें प्रकाशित करनेका यथाशक्य प्रयास किया और उसी लक्ष्यानुसार, अब यह प्रस्तुत कुमारपालचरित्रसंग्रह नामका ग्रन्थ मी, सिंधी जैन अन्यमालाके 413 पुष्पके रूपमें, विद्वानोंके करकमलोंमें उपस्थित किया जा रहा है। . इस संग्रहमें जिन प्रबन्धों अथवा चरितों का संग्रह किया गया है उनमें से प्रायः बहुतसे अप्रसिद्ध और अज्ञात सात इतिहासके मध्ययन और अन्वेषणकी दृष्टि से, इनमें कुछ ऐसी नूतन विचारसामग्री भी विद्वानोंको उपन्य होगी जो बनी तक बात नहीं है। मारपालके इस प्रकार के प्रबन्धों - चरित्रों के अन्तर्गत जिनमण्डन गणीका बनाया हुआ संस्कृत कुमारपालप्रबन्ध विप्रसिद्ध और पठनीय रहा है। इस प्रबन्धका बहुत कुछ उपयोग, गुजरातके इतिहासके उत्साही आलेखक अंग्रेज मान किल्लॉक फार्बसने अपनी प्रसिद्ध अंग्रेजी पुस्तक रासमाला लिखते समय किया था। इसका पूर्ण गुजराती अनुवाद बडोदाकी गायकवाड सरकारकी ओरसे, कई वर्षों पहले प्रकाशित हुआ / इस प्रबन्धका हिन्दी भाषामें साररूप अवतरण खर्गवासी मुनिवर श्रीललितविजयसूरिने किया था जो 'कुमार पाल चरित'के नामसे बंबईके अध्यात्मज्ञानप्रसारक .म रा विक्रमसंवत् 1971 में प्रकाशित हुआ था। मुनिवर्य श्रीललितविजयजी मेरे एक बहुत बेहभाजन मुनिमित्र निरोधसे मैने, उक्त परितके प्रास्ताविक रूपमें एक छोटासा हिन्दी निबन्ध लिख डाला था जिसमें कुमारपाल और उसके गुरु बाचार्य हेमचन्द्र के विषयमें कुछ स्थूल स्यूल घटनाओंका उल्लेख किया था / वि. सं. 1970 के माचिन मासमें उस निबन्धके लिखते समय, मेरे सामने वह कोई प्रन्थसामग्री उपलब्ध नहीं थी जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया। यह मेरी प्राथमिक प्रस्तावना इसके साथ प्रकट की जा रही है। उस समयसे ही, कुमारपालविषयक साहिन जो जैन भण्डारों में छिपा पा था, उसको प्राप्त करनेकी और प्रसिद्धिमें लानेकी मेरी अभिलाषा बनी रही है और उसके फखरूप, उक्त रूपमें सोमप्रभाचार्यविरचित कुमारपालप्रतिबोध नामक बृहत्काय प्राकृत प्रन्थका 'गायकलाउस ओरिएन्टल सीरीज' द्वारा, तथा प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबन्धकोश, पुरातनप्रबन्धसंग्रह बादि प्रबन्धात्मक गतियोंको, इतःपूर्व प्रस्तुत सिंघी जैन अन्धमाला द्वारा प्रकाशन किया गया है और इसी उद्देश्यकी इतिक रूपमें प्रस्तुत चरित्रसंग्रह भी अब प्रकाशमें आ रहा है। : चौल्यचक्रवती नृपति कुमारपालको उसके धर्मगुरु कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रने राजर्षिकी उपाधि दी थी। इसको लक्ष्य करके मैंने राजर्षि कुमारपाल नामका एक निबन्ध गुजरातीमें लिखा था जिसमें कुमारपालके जीवन पर, बपन्त विवसनीय प्रमाणों के आधार पर, कुछ विशेष प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया था। वह निबन्ध भी इसके साथ प्रकट किया जा रहा है जिससे पाठकोंको इस प्रकारकी साहित्य - सामग्रीका उपयोग और महत्त्व लक्षित हो सकेगा।
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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