________________ पुरातनाचार्यसंगृहीत एगिदिय पंचिंदिय उहे य अहे य तिरियलोए / विगलिंदियजीवा पुण तिरियलोए मुणेयवा // 378. पुढवी आउ वणस्सइ बारसकप्पेसु सत्तपुढवीसु। पुढवी जा सिद्धिसिला तेऊ नरखित्ति तिरिलोए // जइया होही पुच्छा जिणाण मग्गंमि उत्तरं तइया / एगस्स निगोयस्स य अणंतभागो अ सिद्धिगओ॥ 38.. गोलाइ असंखिज्जा असंखनिगोअओ हवइ गोलो। इक्किकमि निगोए अणंतजीवा मुणेयवा // अत्थि अणंता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइ परिणामो। उप्पजंति चयंति य पुणोवि तत्थेव तत्थेव // 382. सामग्गिअभावाओ ववहारियरासिअप्पवेसाओ / भवावि ते अणंता जे सिद्धिसुहं न पावंति // सिज्झंति जत्तिआ खलु इहयं ववहारिरासिमझाओ। एति अणाइवणस्सइमज्झाओ तित्तिया चेव // // 384. अक्खीणजीवखाणी हुंति निगोआ उ जिणसमक्खाया। तेण न दोसो संसाररित्तियासंभवो होइ // लोए असंखजोयणमाणे पइ जोअणंगुलासंखा। पइ तं असंखयं सा पइ यसअसंखया गोला // गोलो असंखनिगोओं सोऽणंतजिओ जियं पइ पएसा / अस्संख पइ पएसं कम्माणं वग्गणाणंता // 387. पइ वग्गणं अणंता अणू अ पइ अणु अणंतपजाया। एवं लोगसरूवं भाविज तह त्ति जिणवुत्तं // 388. पत्थेण व कुडएण व जह कोइ मिणिज सबधन्नाई। एवं मविजमाणा हवंति लोगा अणंताओ॥ लोगागासपएसे निगोअजीवं खिवेइ इक्किकं / एवं मविजमाणा हवंति लोगा अणंताओ॥ 652. एवं जीवतत्त्वे व्याख्याते सति कश्चित्तीर्थान्तरीयः प्राह -'हे महात्मन् ! एवं च युष्मदुक्तयुक्त्या सूक्ष्मै - दरैश्च त्रसैः स्थावरैश्च जीवैः सर्वत्र व्याप्ते लोके कथमहिंसकत्वं नाम, कथं च सर्वप्राणातिपातविरतिव्रतम् / तदा श्रीसूरयः प्राहुः-'भो वादिन् ! तत्त्वातत्त्वपरिज्ञानानभिज्ञत्वेनेयं भवदुक्तिः / यतः, हिंसापरिणामपरिणत एवात्मा * हिंसक इत्युच्यते, न त्वपरिणतः, तस्याहिंसकत्वात् / यदुक्तमहिंसापरमवेदिभिः श्रीसर्वज्ञैः अज्झत्थविसोहीए जीवनिकाएहिं संघडे लोए / देसिअमहिंसकत्तं जिणेहिं तिलुक्कदंसीहिं // नाणी कम्मस्स खयट्ठमुट्टिओ नो ठिओ उ हिंसाए / जयइ असहं अहिंसत्थमुडिओ अवहओ सोउ / 385. 390.