SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किञ्चित् प्रास्ताविक वि० सं० 1458 में गुजरातके प्रसिद्ध पुरातन नगर खंभायतमें लिखी गई है। मुख्य करके प्राकृत भाषामें इसकी रचना की गई है और प्रन्यका विस्तार प्रायः 8800 श्लोकपरिमाण जितना विशाल है / इसके कर्ता सोमप्रभाचार्य हैं जिनने वि० सं० 1241 में इसकी रचना पूर्ण की। ये आचार्य स्वयं राजा कुमारपाल और आचार्य हेमचन्द्रके केवल सम-समयवर्ती ही नहीं थे अपितु उनके साथियोंमेंसे थे, अतः इनकी इस रचनाका ऐतिहासिक महत्त्व बहुत अधिक है। इस ग्रन्थका सर्वप्रथम संपादन मेरे द्वारा हो कर, बडौदाके [ भूतपूर्व ] गायकवाड राज्यकी सुप्रसिद्ध प्राध्यप्रन्थमाला-गायकवाडस् ओरिएन्टल सिरीझ-में, ई०स०१९२० में प्रकाशन हुआ। उस संपादनमें, मैंने ग्रन्थगत जितना ऐतिहासिक भाग था उसका पृथक् तारण कर, परिशिष्टके रूपमें संकलित कर दिया था, जिससे इस ग्रन्थका, जो जिज्ञासु विद्वान् केवल ऐतिहासिक वस्तु जाननेकी दृष्टिसे ही उपयोग करना चाहे, उनको सरलतासे वह प्राप्त हो सके / वह ग्रन्थ अब प्रायः अप्राप्य सा है। अतः उसका वह ऐतिहासिक सारभागरूप संकलन हमने यहां पर पुनर्मुद्रित कर दिया है। कुमारपालके इतिहासके विषयमें अन्वेषण और अनुसन्धान करनेवाले विद्वानों-लेखकोंको इसका अवलोकन अत्यावश्यक है। कुमारपालके जीवन चरितका, सूत्र रूपमें परन्तु सर्वथा प्रामाणिक ऐसा, सबसे पहला निरूपण, इसी ग्रन्थमें मिलता है / इस ग्रन्थके प्रास्ताविक रूपमें हमने ग्रन्थकारके परिचयको लक्ष्य कर एक संस्कृत वक्तव्य लिखा है तथा साथमें अन्यके परिचयको लक्ष्य कर इंग्रेजी वक्तव्य भी दिया है। जिज्ञासुओंके अध्ययन और अवलोकनके निमित्त ये दोनों वक्तव्य मी इस प्रास्ताविकके साथ प्रकट कर दिये जाते हैं। रासमाला नामक गुजरातके इतिहासका प्रधान और पहला ग्रन्थ अंग्रेज विद्वान् किन्लॉक फार्बसने अंग्रेजीमें लिखा जिसका गुजराती भाषान्तर पढ कर मेरे मनमें कुमारपालके इतिहासके मौलिक साधनोंका अध्ययन, अवलोकन, अन्वेषण आदि करनेकी विशेष रुचि उत्पन्न हुई / सौभाग्यसे मुझे इस परमाईत नृपतिकी राजधानी अणहिलपुर पाटणमें ही कुछ वर्षों तक रहनेका सुयोग मिला और मेरी अल्प-स्वल्प ज्ञानपिपासाकी परितृप्तिमें परमोपकारकका स्थान पाने वाले स्वर्गवासी परममुनिपुङ्गव प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराज तथा उनके ज्ञानरसिक, ग्रन्थोद्धारक, सुशिष्य मुनिवर श्रीचतुरविजयजी महाराजके सात्विक सान्निध्यमें, वहांके बहुमूल्य एवं विशिष्ट समृद्धिपरिपूर्ण भिन्न भिन्न ज्ञानभण्डारोंके निरीक्षणका यथेष्ट अवसर मिला / उसी. समयसे मैंने, अन्यान्य साहित्यिक सामग्रीके साथ कुमारपालविषयक साहित्यका भी संग्रह आदि करना प्रारंभ किया। प्रायः 45 वर्ष जितने जीवनके विशेष कालमें, जो कुछ इस विषयकी सामग्री में प्राप्त कर सका उसे यथासाधन प्रकाशमें रखनेका प्रयत्न करता रहा। इस प्रयत्नके फलस्वरूप, जितने प्रबन्ध, चरित आदि प्रकाशित हुए हैं उनका कुछ निर्देश, इस प्रास्ताविकके प्रारंभमें ही किया जा चुका है / प्रस्तुत संग्रह भी उसी लक्ष्यका एक और विशिष्ट फल है। अभी एक और भी ऐसा संग्रह अवशिष्ट है-पर शायद अब उसे मैं प्रकाशमें रखनेका अवसर न पा सकूँगा। इस अवशिष्ट संग्रहमें, मेरा लक्ष्य प्राचीन गुजराती-राजस्थानी भाषामें कुमारपाल विषयक जितना साहित्य उपलब्ध है उसे एकत्र कर एक सुसंपादनके रूपमें प्रकाशित करना है। बहुतसी सामग्री तो संकलित रूपमें तैयार की हुई पडी है-परंतु अब मन और शरीर दोनों इसके लिये उतने उत्साहित नहीं दिखाई पडते। इस संग्रहका मुद्रणकार्य प्रारंभ करते समय मेरे मनमें, इसके साथ कुमारपालका एक संपूर्ण एवं प्रमाणभूत विस्तृत इतिहास लिखनेका संकल्प था; क्यों कि इस विषयकी सबसे अधिक सामग्री आज तक मेरे ही द्वारा संपादित हो कर प्रकाशमें आई है और जो कुछ अवशिष्ट सामग्री है उसका भी प्रायः सर्वाधिक संकलन एवं संचय मेरे समीप है। महान् गुजरात और विशाल राजस्थानके इतिहासमें कुमारपालका राज्यशासनसमय सर्वोत्तम युग जैसा रहा है / सारे पश्चिम भारतका वह सुवर्णयुग था। समृद्धि, संस्कृति, स्वप्रभुत्व और सौराज्यकी दृष्टि से वह युग अपनी चरम सीमापर पहुंचा हुआ था / कुमारपाल एक अत्युच्च आदर्शजीवी राजा था। उसने अपने राज्यको-राष्ट्रको सुसंस्कारसंपन्न, समृद्धिपरिपूर्ण एवं सर्वसुखसुलभ बनानेका यथेष्ट प्रयत्न किया और उसमें यथेच्छ सफल हुआ। इस युगके इतिहासका यथार्थ चित्रण हमारे लिये बहुत प्रेरणादायक और गौरवप्रदर्शक है। पर इस इतिहासके आलेखनका कार्य मेरे लिये अब शक्य नहीं मालूम देता। मेरी मन:कामना है कि हमारी संपादित एवं प्रकाशित इस सामग्रीका उपयोग कर, कोई अधिक सुयोग्य विद्वान् ऐसा सुन्दर इतिहास लिख कर इस लक्ष्यकी परिपूर्ति करे। भनेकान्तविहार / ममदाबाद -मुनि जिन विजय
SR No.004294
Book TitleKumarpal Charitra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktiprabhsuri
PublisherSinghi Jain Shastra Shikshapith
Publication Year1956
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy