Book Title: Kamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shivnarayan Saxena
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. कामताप्रसादजी जैन का व्यक्तित्व एवं कृतित्व अकाशक-मूलचन्द किसनदास कापलिया, भरत । जैन मिन के ६६ वर्ष के प्राहकों को अ सीतल. प्रसाद जी स्मारक ग्रन्थमाला की ओरसे भेंट Education International Swiww.jainelibrary.org. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्र० शीतलप्रसाद स्मारक ग्रन्थमाला नं० १७ प्रसिद्ध विद्वान् एवं समाजसेवी डॉ. कामताप्रसाद जैन का व्यक्तित्व एवं कृतित्व लेखक ::― श्री. शिवनारायण सक्सेना, एम० ए०, विद्यावाचस्सति सिद्धान्त-भाकर सह-सम्पादक - " ज्ञान यज्ञ" अलीगंज (पटा) S प्रकाशक : मूलचन्द किसनदास कापड़िया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, गांधी चौक-सूरत प्रथमवार ] वीर सं० २४९१ | वि० सं० २०२२ " जनमित्र " के ६६ वें वर्षके ग्राहकों को श्री० ० सीतलप्रसादजी स्मारक ग्रंथमालाकी ओर से भेंट मूल्य - दो रुपये For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व०ब्र-शीतलप्रसादजी स्मारक ग्रंथमाला पुष्प नं. १७ का निवेदन करीब ६०-७० दि० जैन ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक. टोका कार व सम्पादक तथा दि० जैन समाजमें अनेक संस्थाओं के कर्ता, जन्मदाता और "जैनमित्र" साप्ताहिक पत्रकी ३५ वर्षोंतक अविरत सेवा करनेवाले तथा कुछ वर्ष 'वीर' आदिके पत्रोंके सम्पादक जैनधर्मभूषण, धर्मदिवाकर, श्री ब्र० शीतल सादजी (लखनऊ नि०) का स्वर्गवास करीब ६५ वर्षकी बायुमें और सं० २४६८ विक्र० सं० १९९८ में लखनऊमें हो गया तब हमने मापकी धर्मसेवा, जातिसेवा, "जैनमित्र" की रातदिन अथक सेवाके स्मारकके लिये आपके नामको प्रथमाला निकालने का व उसे "जैनमित्र" के ग्राहकों को भेंट देनेकी १००८०) की अपील की थी तो उसमें ६०००) भरे गये थे तो भी हमने जैसा-तेग प्रबन्ध करके इस ग्रन्थमालाको स्थापना आज से २१ वर्षपर की थी। __ इस प्रन्धमालासे प्रतिवर्ष १-१ ग्रन्थ भेंट देनेका खर्च नहुन अधिक होता है। अतः हमने "जैन मित्र" के प्रत्येक प्राहकसे प्रतिवर्ष १) अधिक लेने की योजना को है जिससे ही इतनी बड़ी ग्रन्थमाळा चालू रह सकी है । चालू रखना हो है। इस ग्रंथमाला द्वारा आजतक १६ जैन ग्रन्थ प्रकट करके "जैनमित्र" के ग्राहकों को भेंट कर चुके हैं जिनके नाम निम्नलिखित हैं For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & ६ ६४ (३) १. स्वतंत्रताका मोपान (ब्र० सोताकृत) अप्राप्य २. श्री आदिपुराण (स्व० ५० तुलसीराम हली कृत) छंदोषद्ध ५) ३. श्री चंद्रपभपुराण (कवि हीरालाल बडौन कृत) छन्दोबद्ध । अाप्य ४. श्री यशोधर चरित्र (महाकवि पुष्पदंत कृत पं० हजारी. लाल जैनके अनुवाद सहित) अप्राप्य ५. सुमोम चक्रवति चरित्र (भ० रतनचंद बिचित मूड और पं० गलाराम जी शास्त्रो कुन अनुवाद) ३) ६. श्री नेमिनाथ पुराण (ब. नेमिदत्त रचित संस्कृत ग्रंथका पं० उदयलाल कासलीवाल का अनुवाद) ७. परमार्थ बनिका व उपादान निमित्तको चिट्ठी (कवि बनारसीदासजी रचित) पर ब्र० सीतलप्रसादजी कृत भावार्थ । अप्राप्य श्री धन्यकुमार चरित्र-(सकरकीर्ति कृतक हिंदी अनु०) १३) ९. श्री प्रभेत्ता श्रावकाचार (भ० सालकीर्ति रचित) संस्कृतकी स्व० पं० लालारामजी शात्री कृत टोका ४) १०. श्री अमितगत श्रावकाचार ( आ० अमितगति कृत) मूर व पं० भागचंदजी कृत वचन का ४) ११. श्रीपाल चरित्र छन्दबद्ध किवि भागमल्ल जी रचित) ३) १२. "जैनमित्र'का होरक जयन्ती सचित्र अंक, संपादक द्वारा संकलित १३. धर्मपरीक्षा ( आ. अमितगति कृत मूल सं० प्रन्थका स्व० ५० पन्नालालजी बाकलीवाढ कृत अनुवाद १४. श्री हनुमान चरित्र हनुमानाष्टक सहित (कवि श्री ब्रह्मराय कृत पद्यका मास्टर सुखचंदसा पद्मसा पोरवाड खंडवा कृत अनुवाद १६. श्री चंद्रप्रभ चरित्र (महा कषि बीरनंदी कृत संस्कृत काव्यका पं० रूपनारायण पांडे कृत अनुवाद । २॥) For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) १५. श्री महावीर चरित्र (महा पंडित अशक कवि कृत सं० काव्यका स्व० पं० खूबचन्दजी शास्त्रो विद्याबारिधि कृत) अनुवाद । और अब यह १७ वां ग्रन्थडॉ०कामताप्रपाद जैन का व्यक्तित्व और कृतित्व (श्री शिवनारायण सक्सेना एम. ए. विद्या-वाचस्पति सिद्धांतप्रभाकर अलीगंज कृत ।) प्रकट किया जाता है। यह कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है लेकिन एक महान समाजसेवी व विश्वभर में जैनोंके अहिंसा धर्मके प्रचारक स्व० डॉ० कामताप्रसादजी जैन, सम्पादक व प्रकाशकबाईस मोफ अहिंसा (अंग्रेजो ) व अहिंसा-वाणी (हिन्दो) का जीवन परिचय, उनका अहिंसा धर्म प्रचार व उनके कृतत्वका महान परिचय इस ग्रन्थमें दिया जा रहा है जो "जैननित्र" के ग्राहकोंको अतीव रुचिकर व अनुकरणीय होगा। स्व० डॉ० कामताप्रसादजी जैन (अलीगंज) से हमारा परिचय माजकलका नहीं, ३५-४० वर्षोंसे था व आप हमारे धर्ममित्र थे। आपकी लिखिल बड़ी-बड़ी १५-२० पुस्तकें जैमी किभगवान महावीर, भ० महावीर और बुद्ध, संक्षिप्त नैन इतिहास ३ खंडोंमें ८ भाग, नवरत्न, पंचरत्न, महारानी चेटना, वीर पाठाबली, कुन्दकुन्दाचार्य, कृषण जगावन चरित्र, मादि हमने ही प्रकट की हैं अतः आपके साथ हमारा बहा पत्रव्यवहार होता था तथा आपके स्थापित विश्व जैन मिशन की प्रवृत्तियोंका प्रचार हम "जैनमित्र" में करते ही रहते थे। इससे 'मित्र' के ग्राहक आपके सेवा-कार्यों से अतीव परिचित है। For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) आपके जैसे अहिंसा जैन धर्म सेवकका ६५ वर्षकी अवस्था में ही स्वर्गवास हो जानेसे एक रीत्या जैन समाज अनाथ हो गया है। आपका अहिंसा प्रचार कार्य अकेले हिन्दमें ही नहीं लेकिन सारे विश्वमें पत्रव्यवहारसे तथा दोनों पत्रों द्वारा कई व मचित्र तीर्थकर विशेषांक निकालकर तो दि० जैन समाज में एक अद्भुत प्रचार श्री तीर्थकरकी वाणीका उनके मचित्र जीवन चरित्र सहित किया है, जिस प्रणालीको आपके सुपुत्र भाई वीरेन्द्रकुमार जैन बी० ए० ने भी चालू रखा है, यह प्रकट करते हुए हमें बड़ा हर्ष हो रहा है, तथा आशा है कि भाई वीरेन्द्रकुमार पिताजीकी तरह हो अहिंसा जैन धर्म प्रचार-कार्यमें सतत् सेवा देते ही रहेंगे। इस डॉ. कामताप्रसाद जैन प्रन्धके लेखक हैं-आपके विद्वान मित्र-श्री शिवनारायण सकसेना एम० ए० अलीगंज । आपने महा परिश्रम पूर्वक यह ग्रन्थ लिखकर अपने सहृदय मित्रका ऋण पूर्ण किया है। आपने इन ग्रन्थको तैयार करके सपुत्र भाई वीरेन्द्रको दिखाया व प्रकाशनार्थ निवेदन किया तो भाई वीरेन्द्रने कहा कि इसे मैं प्रकट करूं इसने तो यह अच्छा हो कि कोई दूसरे मित्र व अनन्य सेवक प्रकट करें तो सोनामें सुगन्ध हो सकता है। अतः आप दोनोंने हमसे पत्र व्यवहार किया तो हमने इसे प्रमन्नता पूर्वक प्रकट करने की तथा इसे 'जैनमित्र' साप्ताहिकपत्रके ग्राहकों को भेट स्वरूप देने का प्रबंध करने की स्वीकृति दी और इसकी प्रेम कापीको हमने सूरत मंगालिया था। जिसको अन्य कार्यवशात् एक वर्ष हो गया है तो भी बाज वह "डॉ. कामताप्रसाद जैन' प्रन्थ हम प्रकट कर रहे हैं व मित्र के ६६ वें वर्षके ग्राहकोंको भेट कर रहे हैं। इस ग्रन्थका एक२ पृष्ठ पढ़ने ब मनन करने योग्य है। तथा For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें डॉ. कामताप्रसादजी कृत ६०-७० ग्रंथोंकी सुन्दर समालोचना लेखकने इस प्रकार की है कि जिससे इन ग्रंथों का खासा परिचय मिल जाता है। __ग्रंयके अंतमें डॉ० कामताप्रसादजीके बियोग बाद मिली हुई श्रद्धांजलियां भी प्रकट की है, जिन्हें पढ़कर पाठकों को मालूम होगा कि हमारे मित्र डॉ. कामताप्रसादजी कैसे महान कार्यकर्ता + जैन समाजके कैसे महान सेवक थे। हमारे पाठकोंको इस प्रत्यको पढ़कर डा० कामतापसादजीके गुणों का अनुकरण करना चाहिये भी ही हमारा यह प्रयास सार्थक हो सकता है। इस ग्रन्थको कुछ प्रतियां वित्र याथें भी निकाली गई हैं। अतः प्रचारार्थ आमसमाज में बांट नेके लिये यह ग्रन्थ बहुत उपयागी होगा। बीर सं० २४९१ । -निबेदक : आश्विन सुदी ८ मूलचंद किसनदास कापडिया ता. २-१०-६५ सूरत. ) प्रकाशक विषय-सूची १-जन्म व परिचय, २-वंशवृक्ष ३- कलमके धनी, ४-कुशल गृहसंचालन ९-१२ ५- जनसेवकके रूपमें ६ --राष्ट्र य व तरराष्ट्रीय सन्मान ७-यशस्वी संपादक, ८-साहित्यसेवाके क्षेत्रमें २२-२६ ९-प्रकाशित ग्रंथों का परिचय १०-महान नेताका महाप्रयाण ११-डॉ० कामताप्रसादजीके निधन पर शोक व श्रद्धांजलियां १२७ १२--विश्व-दृष्टिमें डॉ० कामताप्रसादजी (हिंदी । अंग्रेजी) १२९ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) दो शब्द वैसे मेरी इच्छा बाबूजीको अभिनन्दन प्रन्थ भेंट करनेकी थी, इसी भावनासे मैं मई ६४ के प्रथम सप्ताहमें मि 1 भी था पर अबस्थताके कारण मैंने इस बारे में कोई बातचीत नहीं की, केवल उनके स्वास्थ्य तथा प्रचारकार्य पर ही विचार विमर्श होता रहा। और यही मोचा कि बाबूनीके स्वस्थ हो जाने पर इस तरह की योजना बनाऊंगा। पर समय बड़ा बलवान होता है। मेरी यह इच्छा केवल इच्छा ही बनी रही और १७ मई ६४ को तो वे इस संसारसे नाता तोड़ सदेवके लिये चले गये। पहले तो उनकी मृत्युकी सूचना पर सहसा विश्वास न हुआ, और ऐसी सनसनीपूर्ण खबर पाकर उनके चि० भाई वीरेन्द्र जैनके पास दौडा दौडा आया तब रास्ते का मारा बाताबरण शोकाकुल देखकर अत्यंत दुःख हुवा। ___महापुरुषोंकी चिरस्थायी स्मृति उनके श्रेष्ठ कार्य ही होते हैं, उनके द्वारा संस्थापित ब. वि० जेन मिशन, अहिंसावाणी तथा बाइम ओफ अहिंसा जैसी मासिक पत्रिकाएँ तथा सैकडों हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तके युग युगान्तरों तक उनकी कीर्ति इस संसार में फैलाती रहेंगी। अनेक लोगोंने उनके स्मारक बनाने की इच्छाएं मी प्रकट की। ____ मैं उन्हें कैसे श्रद्धांजलि देता, मेरी समझ में तो एक बात हो बाई कि मैं एक पुस्तक अहिंसाकी दिव्यमूर्ति और उद्भट विद्वान डॉ. कामताप्रसाद जैनके व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर उनकी पुण्यतिथिसे पूर्व लिखकर साहित्य-जगतको भेंट कर दू। जहां चाह होती है वहीं राह मिल जाती है। जून ६४ में ही इस पुस्तक का अधिकांश भाग तैयार थी For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) हो गया। पुस्तकोंको जुन नें, तथा मिशन पुस्तकालयकी अनेक पत्रपत्रिकाओंसे सहायता लेने में प्रसिद्ध साहित्यकार तथा तरुण कवि श्री बीरेन्द्रप्रसाद जैनने हमें खूब सहयोग दिया है। वे अपने ही हैं, अतः धन्यवाद देने में तो बड़ा संकोच होता है पर उनका मैं आभारी तो सदेव हूंगा ही । कुछ पुस्तकों की तलाशके लिये जयपुर आदिके पुस्तकालय में खोजबीन की पर कोई लाभ न हुआ इस लिये देरी होती चडी गई। ब्रादको अक्टूबर ६४ में फिर जैन मिशन अलीगंज के विशाल पुस्तकालय की खोजबीन की तो ८-१० पुस्तकें पुन: मिलों जिससे यह पुस्तक पूर्णं हुई । पुस्तक पूर्ण हो भी नहीं पाई थी कि स्व० बाबूजी की अनेक पुस्तकोंके प्रकाशक - श्री मूलचन्द किसनदासजी कापडिया, संपादक वनमित्र, सूरत (गुजरात) ने इसके प्रकाशनकी व्यवस्थाका मार ले लिया और हमारे संकल्पको पूर्ति जो एक वर्ष में ही पुस्तक लिख कर धर्म प्रेमी जनताको देनेकी थी, श्री कापडियाजीकी कृपासे पूर्ण हुई अब यह पाठकों के हाथमें है । उद्भट विद्वान डॉक्टर साहब की जीवनगाथा लिखना मुझ जैसे साधारण व्यक्तिके बशकी बात नहीं थी, उनके कार्य और प्रशंसाको शब्दों में वान्धना भी संभव नहीं था, फिर भी जैसेतैसे अपनी बाल- बुद्ध से प्रयास किया है। इसमें मुझे कहां तक सफलता मिली है आप जानें। एकवार पुन: बाबूजी की दिवंगत आत्माको शान्तिकी कामना करते हुवे पाठकोंसे यह विनम्र निवेदन करता हूं कि यदि उनके जीवनसे कुछ शिक्षा लें तो मानवजीवन की सार्थकता है । अलीगंज (एटा) दि० २६ /१०/६४ शिवनारायण सक्सेना | For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाल जैन मन्दिर देहली में स्वाध्याय करते हुए डॉ० कामताप्रसादजी जैन- अलीगंज For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध विद्वान व समाज-सेवी डॉ. कामताप्रसादजी जैन-अलीगंज महान् विभूति अहिंमाके पुजारी, प्रसिद्ध साहित्यकार, धर्मनिष्ठ, समाज-सेवी और यशस्वी सम्पादक डॉ. कामताप्रसादजी जैन भारतकी ही नहीं वरन् विश्वकी महान विभूतियों में से एक रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन में जैन साहित्यको एक विषय बनाया इसीलिए विचारधारा भी पूरी तरहसे जैन दर्शनसे ओतप्रोत दिखाई पड़ती है। जिस मिशनको लेकर आगे बढ़े उसका प्रमुख उद्देश्य यही था कि जैन धर्मपर जो घनघोर घटायें छा गयीं थीं उनको छिन्न भिन्न करके सूर्यके समान प्रकाशित करना। भगवान भास्कर For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) अपनी दिव्य किरणोंसे बिना भेदभाव के इस विश्वको आलोकित करते हैं ठीक यही उद्देश्य तो किसी धर्मका होता है। नहीं, धर्म वाणीकी वस्तु नहीं, लेखन और कापी किताबों का विषय सच्चा धर्म अथवा अध्यात्म जीवन में ढालने की चीज है. जिसके प्रभाव से हैवान इन्सान बन जाते हैं, नरसे नारायण होते हैं, और पुरुषसे पुरुषोत्तम बनते भी देर नहीं लगती। जिन विचारधाराको लेकर बाबूजी चले यद्यपि वह उनकी नहीं थी, पूर्व ऋष मनोषियोंकी वाणीको रचनात्मक रूप देकर संसारके अज्ञानांधकार में प्रसित व्यक्तियों को जो प्रकाशपुञ्ज दिया उससे सभी धन्य हो गये । यही तो सबसे बड़ी विशेषता थी कि अपनी सच्ची लगन, व्यक्तित्व, चारित्र, सेवा, आत्मविश्वास और प्रतिभा के बलपर अपने जीवन के ६३ वर्षो में जो कुछ कर गये उसे अन्य लोगोंके लिये तो जन्म जन्मान्तर तक प्रयत्न करने के बाद पूर्ण करना सम्भव नहीं था । आज देश में अनेक सम्प्रदाय, सामाजिक संस्थाएं, और संघ चल रहे हैं जिनके पास लाखों और करोड़ों रुपये की सम्पत्ति है, फिर भी धनाभावका रोना रोते हैं। जिस उद्देश्य को लेकर संस्थाओंका प्रादुर्भाव होता है उम्र उद्देश्यकी पूर्ति तो दूरकी बात रही जीवन के प्रारम्भिक दो चार वर्षों में ही पदलोलुपता, ईर्ष्या-द्वेष, धनलिप्सा, झूठी वाहवाही लूटनेकी छछोरी आदत, पार्टीबन्दी और फूरके अखाड़े बन जाते हैं। समाज से बाकी आड़ में स्वयंकी सेवा होने लगती है । समाजके श्रमजीवियोंके पसीने की गाढ़ी कमाई जो सेना और जनसुधार के लिये थी अपने काममें आने लगती हैं। हमने तो एक बात देखी है कि जिन्हें कार्य करने की चाह होती है उनके लिये राह अपने आप बन जाती है। समाजसेवा के For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काभेष प्रारम्भ करना पर अवश्य है, पर उन्हें पूर्णता तक पहुंचाना सबके बूते की बात नहीं होती। शुरूमें अपने सम्पपी सफ उपहास करते हैं, मनौट पड़ाते हैं, कुछ नहीं होता तो बाद में स्वयं विरोष करते हैं और दूसरोंसे करानेका प्रयास करते हैं। सांसारिक उपहास और विरोधका जो साहपसे सामना कर लेते हैं जन्तमें विजयश्री नहीको बरण करती है। बाधक साधक बन जाते हैं, विरोधी सिर झुकाते हैं और सारा मंमार अपना माथा टेकनेके रिये तैयार होता है। जिप बखित विध जैन मिशनको लेकर वाचूजी आगे बढ़े उसकी विचारधारा बड़ी ही प्रौद, परिमार्जित, नादर्श व उदात्त है। इसी लिए ईसाई धर्मकी तरहसे उसके द्वारा अपनी विचारधारा न हो किसी पर जबरन ना दी गई और न धन, बम, भोजन, सर्षिय अथवा इन्द्रिय विमाका प्रलोभन देकर मसानी, अशिक्षित, असमर्थ और पिछड़ी जातियों के लोगोंको धर्म परिषवनके रिये मजबूर किया गया। इस मिशनने वास्तविकता सपके सामने अपने साहित्य प्रकाशन द्वारा रखी है, जिसके प्रभावमें बाकर भारतवासियोंने ही नहीं विदेशियोंने तक अपनेको जैन घोषित किया। धार्मिक साहित्यका पठन पाठन कर वे मंत्रमुग्ध हो गये और जिस शान्तिकी उमाशमें अपने जीवन के बनेक वर्ष खोये थे वह वहांसे बात की। इंग्लैण्डके केंषमैनवेठ माहब, जर्मनीके वेण्डेड साहब, अमरीकाके बाहर माहस तथा एनके मैके पाहपकी गणना ऐसे ही महानुभावों में की जाती है। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जन्म और परिचय भारतवर्ष सृष्टिके प्रारम्भसे ही जगतगुरु रहा है। जिन दिनोंमें पश्चिमी देश प्रारम्भिक स्थिति में थे तब भारत अपने आत्मबल और आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा मार्ग प्रदर्शन करता था, इसीलिये पुण्यभूमि और कर्मभूमि भारतवर्ष रहा है। महापुरुषों को जन्म देने वाली खान यह भारत माता सदै वसे पूजनोय और वन्दनीय रही है। यहां तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्व विद्यालयों में विदेशी ज्ञान-पिपासु अध्ययन करनेके लिये आया करते थे। ईसा मसीहने स्वयं अपनी शिक्षाकी विद्यापीठ भारतको ही बनाया था। यह वीर प्रसूति भारत माता कालीदास, व्याम, वाल्मीकि, चाणक्य, वशिष्ठ, विश्वामित्र जैसे ऋषियों, भगवान महावीर, बुद्ध जैसे संतों, दशरथ जनक और शोक जैसे राजाओं, शिवि, कर्ण, दधीचि और भामाशा जैसे दानियों, जगतगुरु शंकराचार्य, विवेकानंर, दयानंद, लाजपतराय, तिलक, गोखले और गांधी जैसे युगदृष्टाओं, नेताजी बोष, भगतसिह, आझाद और खुशेगम जैसे क्रांतिकारियों, डॉ. राजेन्द्रप्रसाद और पं० अचाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं को जन्म देती रही है। ऐसे ही ज्ञान गंगा प्रवाहित करनेवाले देशमें डॉ० कामलाप्रसादको जन्म दिनांक ३ मई सन् १९०१ में केम्पबेपुर (जो आज पाकिस्तान में है) हुआ था। इनके पिता पूज्य श्री लाला प्रागदासका निजी बैंकिंग फर्म था, जिसके कारण विभिन्न प्रान्तों में भी जाना पड़ता था। यह फर्म तत्कालीन सरकारी फौजसे सम्बन्धित था। सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि बाबूजीने जहां जन्म लिया वहां उपासना तो दूरको बात रही जैन धर्मका नाम For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक सुनने को नहीं मिलता था। पर जिसे सुयोग्य माता मिल जाती है, उसका वातावरण कुछ नहीं कर पाता । वीर अभिमन्युने तो गर्भावस्थामें चक्रव्यूहकी बेधन क्रिया सीख ली थी, "मर्यादा-पुरुषोराम गम" और योगीराज कृष्ण अपने जीवन में जिस आदर्शवाद को लेकर आगे बढे वह उनकी माताका ही तो परिणाम था । वीर शिवाजीको उनकी माता जीजाबाईने बीरताकी कहानियाँ सुना सुनाकर बीर बना दिया था। महात्मा गांधीजीने भी धर्मकी सारी शिक्षा माताकी गोदमें सोखी थी। वास्तवमें माताकी गोदी सबसे बड़ी पाठशाला होती है। इस आदर्श पाठशालाम जिसको पढ़ने के लिये सौभाग्य प्राप्त हो जाता है फिर उसकी अधिकसे अधिक शिक्षा तो ४ या ५ वर्ष की आयु पूर्ण होते होते ही सीखने को मिल जाती है। ___आचार्य विनोबा भावेको आजीवन ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत कर समाजसेवाका व्रत लेनेका उपदेश मातासे ही प्राप्त हुआ था। वह कहा करती थीं "विवाह होनेसे तो एक पीढो तरती थी, पर ब्रह्मचर्यपूर्वक रहनेसे सात पीढ़ियां उऋण हो जाती हैं " भला इतनी शिक्षा पाकर बिनोबा उसे अपने जीवन में क्यों न क्रियान्वित करते ? यदि उनकी माता भी साधारण आज जैसी जननी रहीं होती तो विवाइके लिए जिद् करती रहती। मध्य प्रदेशके भूतपूर्व मुख्य मन्त्री श्री कैलाशनाथ काटजूने अपनी प्रगति का सारा श्रेय अपनी माता गमापारीबाईको हो "में भूल नहीं सकता" नामक पुस्तकमें दिया है। कामसे लेकर मत्सर तककी कुशिक्षा और ब्रह्मचर्य से लेकर सन्त बनने तककी सुशिक्षा मातासे ही मिलती है। जो माता जैसी होती है वह अपने बच्चेको वैसा ही बना देती है, उसके सूक्ष्म तत्वोंका समावेश उनकी सन्तानमें न चाहने पर भी हो For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणालीत तारा जाता है। बाबूजीकी माता भगवन्तीदेवीने जैन धर्मकी विचारधारा सिद्धान्त और शिक्षाओं की अमिट छाप डाली। जिस तरह सूर्य की किरणें चन्द्रमा पर पड़ती हैं और उसके दिव्य, और शीतल प्रकाशसे जनता जनार्दन लाभान्वित होती रहती है, ठीक वैसे ही माताजीकी दिव्य भाभाका जो प्रतिबिम्ब बाबूजी पर पड़ा, उससे सारे अज्ञानाडोकको एक ज्ञानज्योति मिल सकी। बाबूजी द्वारा प्रज्वलित की गई और जानकी अखण्ड ज्योति तब तक इस मूलोक पर प्रकाश और प्रेरणा देती रहेगी, जबतक एक भी धर्मनिष्ठ, कर्तव्यपरायण, और सत्य प्रेमी जीवित रहेगा। बाबूजीका बचपन सिंध हैदराबाद में व्यतीत हुआ, जब वे "नवडराम हीराचन्द एकेडेमी" नामक विद्यालयमें शिक्षा ग्रहण करते थे। वहां सिख धर्मकी शिक्षाका बोलपाता था, उसके बीच निर्भयता और साहमसे 'सामायिक पाठ' और जैन स्तोत्रोंको बड़े भावसे सुनाया करते थे। इनके पूर्वज उत्तर प्रदेश प्रान्त के एटा जिले में तहसील अलीगंजके अन्तर्गत कोट प्रामके थे। यह प्राम अलीगंजसे दक्षिणकी बोर लगभग ३ मील दूर है। उस समय ब्रिटिश शासनके द्वारा इस परिवारको विशेष सम्मान भी मिला हुआ था। पादको धीरे२ गांव छोडकर लोग अलीगंजमें बाकर बस गये। इस परिवार की ४ पीढ़ीकी वंशावली इस प्रकार है। इस वंश वृक्षसे विस्तृत जानकारी पाठकोंके लिए विशेष लाभान्वित सिद्ध होगी, ऐसा मुझे विश्वास है For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only ढाढा परमसुख छन्नम ू पं० तेजराय | अम्बासाद प्रवीण बाला कुन्दनबाल डाला घनामल बाला निर्मलदास छाला फूलचन्द नेमीचन्द्र डा० गोविन्दप्रसाद श्री अनन्दीप्रसाद नरेशचन्द्र 1 टाढा झम्मनढाउ T प्रबुद्ध मुकुल ललित लाला गिरधारीलाल I ला० पागदास बाबू कामताप्रसाद श्री बीरेन्द्रप्रसाद मिथिलेशचन्द्र प्रिय ऋषभ ( ७ ) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) बाबूजीने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू और सिन्धीका प्रायवेट शिक्षकोंसे ज्ञान प्राप्त किया। साहित्य, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रमें बिना कई भाषाओंका ज्ञान प्राप्त किये कार्य नहीं चलता इसरिये उन्होंने धीरे धीरे कई भाषाएं सीखीं। उनकी प्रतिभासे प्रभावित होकर श्री अनूपचंद न्यायतीर्थने कहा थातुम संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश, हिन्दी अंग्रेजी जानकार । थे स्वाभिमान गौरव संयुक्त, तिभाशाली साहित्यकार ।। तुम सफल प्रबक्ता सत्य रूप, प्रबचन सबहीको मन भाता । सत्कार्य तुम्हारे देख देख, श्रद्धासे शीश झुका जाता ।। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) कलमके धनी डाक्टर साहबने अपना सारा जीवन साहित्य साधनामें लगाया। रुग्णावस्थामें नित्य ९-९, १०-१० घण्टे स्वाध्यायमें लगाये। अपने शरीर और स्वास्थ्यकी तनिक भी चिंता न करते हुए निस्वार्थ सेवा करनेवाले बाबूजीमें गजबकी शक्ति और उत्साह था। अंतिम समय तक साहित्यकी सेवामें जुटे रहे। दो मार्च १९६४ को पारनाथ तीर्थ सपरिवार गये । यह तीर्थ बिहार प्रान्त के हजारीबाग जिले में है। वहीं से ही उन्हें एक नवीन प्राथ लिखने की प्रेरणा मिली जिसका शीर्षक--- __"शिखरजी महात्म'' रखनेवाले थे, उस अभूतपूर्व ग्रन्धको रचनाके लिये अन्तिम समय तक ८-९ घन्टे रोज अध्ययन करते रहै, पर विधाताको यह मंजूर ही नहीं था कि यह ग्रन्थ पूरा हो, सकी थोड़ीसी पंक्तियां लिख पाई थीं जिसे देख कर ही उनकी साहित्य सेवाकी तीव्र उत्कंठाका परिचय मिल जाता है । जितना वे लिख सकते थे उतना लिखा, और खूब लिखा । लगभग १०० प्रन्थोंका हिन्दी अंग्रेजी में लिखना हर साहित्यकार के इसकी बात नहीं थी। उनका सारा जीवन पुस्तकों के बीच में ही व्यतीत हुआ। इस प्रकार नित्य आने वाले सैकडों पत्रोंके उत्तर भी स्वयं लिखते थे। कार्यालयमें कुर्क इत्यादि होते हुये भी आधेसे अधिक कार्य वे स्वयं निबटा लेते थे। सन् १९२२ में बाबूजीकी पहली अनुदित पुस्तक 'असहमत संग्रम ' जो बैरिस्टर स्व० श्री चम्पतरायजीकी विश्रुत कृति Confluence of opposites का अनुवाद थी, प्रकाशित हुई और सन् १९२४ में " भगवान महावीर " नामक मौलिक पुस्तक For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामने आई। वैसे फुटकर लेखनका कार्य तो १८ वर्ष की आयुसे हो प्रारम्भ कर दिया था और छुटपुट लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने बगे थे। “जैन सिद्धान्त भाकर " पत्रिकाका सम्पादन तो जोवनभर करते रहे। "वोर " साप्ताहिकका अम्पादन भी बड़ी कुशलतासे तीससे भी अधिक वर्षों तक करते रहे । गभग ६० पुस्तके हिन्दी में तथा तीस अंग्रेजीमें लिखीं। बीसियों ट्रेक्ट सरल भाषामें लिखकर लाखों की संख्यामें सर्व. साधारणमें वितरित करवाये। हिन्दी भाषा भाषियों तक तो हिन्दी में लिखे गये अन्य कार्य कर सकते हैं, पर हिन्दी भाषियों के दिये विदेशी विचारकों और साधारण व्यक्तियों तक अंग्रेजी में बिना रिखे किसी भी प्रकार काम नहीं चल सकता था। डाक्टर साहब सर्वप्रथम पत्रकार व प्रसिद्ध इतिहासकारके रूपमें हमारे सामने आते हैं। स्वयं अनेक पत्रिकाओंका तो सम्पादन किया हो, अनेक साहित्यकारों को भी सम्पादनकी कलासे अवगत कराया तथा नई नई पत्रिकाओं के प्रकाशनके लिये प्रेरणा तथा सहयोग दिया। बड़े आश्चार्यकी बात तो यह है कि बाबूजीने नवराय होगबन्द एकेडेमी विद्यालयसे केवल कक्षा ९ तक ही शिक्षा प्राप्त की थी। वह मैटिक पास भी न थे पर उनके स्वाध्याय न श्रमने उन्हें जो बना दिया बह किसीसे छिपा नहीं। इतने अल्प शिक्षित होते हुये भी इतना बड़ा कार्य हिन्दी अंग्रेजी संस्कृत पाहि भाषाओं में किया, जिसका कुछ ठिकाना नहीं है। बाबूजीके दो विवाह हुये थे। पहला विवाह तो अल्पायुमें ही हो गया, जिसे कोई सन्तान नहीं हुई और धर्मपत्नीको मृत्यु भी ५-६ वर्ष बाद हो गई। तदुपरांत पूज्य पिताजीके विशेष भाप्रसे दूसरा विवाह सरस्वतीदेवीके साथ तेईस वर्षकी For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) पायुमें सम्पन्न हुआ। जिनसे कई बच्चे जन्में पर आज तीन हो जीवित हैं। सबसे बड़ी पुत्री श्रीमती परोजिनीदेवी हैं, उनसे छोटे बाबू बोरेन्द्रप्रसादजी हैं, और सबसे छोटी सुपुत्री श्रीमती मुमन हैं। जहां तक शिक्षाका प्रश्न है बाबू वीरेन्द्र और श्रीमती सुमन क्रमशः बी० ए० साहित्यरत्न और एम० ए० (हिन्दी) तक सुशिक्षित हैं। बड़ी सुपुत्री श्रीमती सरोजिनीने भी स्वाध्यायसे पर्याप्त ज्ञानाजेन किया है जो शैक्षणिक योग्यतामें सुमनसे किसी भी प्रकार कम नहीं बताया जा सकता है। धन धान्यसे पूर्ण होते हुये भी अपना जीवन सादगीमय ही व्यतीत किया। अपने पुत्रको बी० ए० तक शिक्षण दिलानेके बाद उन्होंने यह उचित नहीं समझा कि नौकरी करवाई जावे । आज नौकरियों में अपनी आत्माका हनन पग पग पर करना पडता है अत: घर पर प्रेम खुलवाकर, साहित्य सेवामें लगा लिया। धर्मनिष्ठता, सम्पादन करना, चरित्र, विद्वता, धर्मप्रचारकी भावना, कवित्व शक्ति, और सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा श्री वीरेन्द्र जी को अपने पिताजी से ही मिली। उन्होंने अपने पिताजीसे बहुत कुछ सीखा, और पून्य पिताजीने भी अपने होनहार पुत्र को बहुत कुछ सिखाया सच बात तो यह है कि श्री वीरेन्द्रप्रसाद, वीरेन्द्रप्रसाद नहीं वरन् भविष्यमें होनेवाले दूसरे श्री डॉ. कामताप्रसादजी है। प्रेस खुलमानेका प्रमुख ध्येय अधिकसे अधिक प्रचारकार्यमें सुविधा होना ही था, धनोपार्जन तो गौड़ रूपमें ही रहा। पत्रिकाएँ, ट्रेक्ट तथा अन्य छोटी छोटी पुस्तकें ही छपती रहती थीं, बाहरका काम या बहुत कम निकल पाता या । For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) कुशल गह संचालन पुत्र पुत्रियोंकी बाल हठों पर न खीजते हुये सदैव प्रेमसे उन्होंो समझाते रहे। और उचित मार्गदर्शन देते रहे। मारपीटकी कौन कहे कभी नाराज होने तकका नम्बर न आया । क्रोधको जीत ही लिया था । ऐसा उनके जीवन से प्रत्यक्ष झळक मालूम पड़ती है । प्रेम, मिशन, मन्दिर, प्रकाशन, पुस्तकालय तथा अपना घरेलू आय-व्ययका हिसाब स्वयं ही रखते थे । उनका जीवन तो एक मशीनके समान था। वे चौबीस घण्टे के दिन रात में अकेले ही ५-६ व्यक्तियोंके बराबर कार्य करते थे । उनकी व्यवहारिक करुणाकी कई बातें पारवारिक जीवन में मिलती हैं। कई बार नौकरोंके द्वारा ऐसे कार्य हो गये जिनके कारण उन्हें निकाल देना अनिवार्य था, फिर भी उन्होंने ऐसा न किया । दो पुराने सेवक जो वयोवृद्ध हो गये थे, उन्हें भी अन्तमें हटाना इसलिये उचित नहीं समझा कि जिन्होंने अपना पूरा जीवन परिवारकी सेवामें लगाया, उन्हें किस तरह अलग किया जा सकता है ? पारवारिक जीवनसे लेकर दाम्पत्य जीवन तक में भी पूरी तरह से कर्तव्यनिष्ठा और आदर्शवाद के दर्शन होते हैं । परिवार में आनेवाले सभी अतिथि आबाल वृद्ध बाबूजी की करुणा और यातिथ्य सत्कार की अमिट छाप लेकर जाते थे । पौत्र और पौत्रियाँ ही नहीं वरन् अतिथियोंके बच्चों तथा अन्य बच्चोंसे भी आपको अधिक स्नेह था। बच्चों में बच्चों जैसा बन जाना आपका प्रमुख स्वभाव था। बाबूजीने सन् १९४८ में " कृपण जगावन चरित्र " नामक पुस्तकका सम्पादन किया था। उसके प्रारम्भिक पृष्ठों को पढ़ने से बाबूजी से पारिवारिक जीवनको झांकी मिलती है। उनके पितामह, मातापिताका स्वभाव, समाजकी स्थिति, बाबूजीको उनके द्वारा For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) मिली प्रेरणा आदिका स्पष्ट ज्ञान होता है इसलिये हम उनके शब्दोंको यथार्थरूपसे ही यहां उल्लिखित किये दे रहे हैं__ " उनके (पिताजी ) हो अनुग्रह और उदार भावने हमें यह सुअबसर दिया कि हम समाजको सेबा कर सके हैं और कर रहे हैं। समाजके लिये उनका यह समुदार कार्य भुलाने की वस्तु नहीं हो सकती। अच्छा तो सुनिये-संयुक्त प्रान्तके जिला एटामें अलीगंज नगर के पास ही एक कोट नामका ग्राम है। तेरहवें तीर्थकर भगवान विमलनाथजीको जन्मनगरी और तपोभूमि कम्पिलासे वह, १०-१२ मील दूर है। अपनो समृद्धिशाली स्थिति में कम्पिला वहां तक फैला था। ___इस कोट के ग्राममें काश्यपगोत्री यदुवंशी बुढे ले जैनी रहते थे। कोटके जो महानुभाव फर्रुखाबादके नवाबके यहां नायच थे. उनके भंडारीका कार्य जैनी करते थे। जब सन् १७४७ में अलीगंज का जन्म हुआ तब आसपाससे बुलाकर लोगोंको यहां नवाबखान बहादुग्ने बसाया । तभी कोटके उपयुक्त जैन कुटुम्बके रत्न श्री लिमबदामजी यहां आकर बस गये । उनके वंशज कोटवाले जैनी कहलाए । इस कोटवाले वंशमें ही इमारे पूज्य पिताजी श्री प्रागदासजीका जन्म वि० सं० १९२५ में हुआ था। उनके पितामह श्री फूलचन्दजी पराक्रमी पुरुष थे। उन्होंने जाकर फौजमें देन लेन और ठेकेदारीका व्यापार प्रारम्भ किया और उसमें वह अपने पौरुषसे सफल हुये। हमारे पितामह श्री गिरधारीलालजी तो उस समय दिवंगत हो गये थे, जब हमारे पिताजो अबोध बालक थे। शिखाजीकी यात्राका संघ गया था, सानंद यात्रा करके जब वह लौट रहे थे और संघकी बैल गाड़ियां कानपुर आ गई थीं तब वहां ही पितामहजी स्वर्गवासी हो गये। पितामहीजी पर मानो वन ही टूट पड़ा हो। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अब सो जमाने के प्रभाव से विधवा जीवन में कुछ अंतर भी हुमा है। विधवाओंके जीवन सुधरे भी हैं, किन्तु सौ वर्ष पहले के समाजमें विधवाके लिये कोई स्थान न था। घर कुटुम्ब में यह अनादर की बात समझी जाती थी। कुछ हवा ही ऐसी चल रही थी। हमारी पितामही उस संकट कारसे ज्यों त्यों निकली थीं। पितामहीजी देवता थीं। उनकी गोदमें पळकर पिताजीने भी देवरूप पाया था। शांति और स्वावलम्बन उनके स्वभावमें रमा हुआ था। कुमारावस्थामें वह मांसे दूर लखनऊमें रहे और वहां ही विद्याध्ययन किया था । किन्तु मांकी ममताने उनको आगे पढ़ने न दिया । वह घर पर आ गये और अपने पैरों पर खड़ा होनेका साहस उन्होंने प्रकट किया। विधवा मांने जो कुछ दिया उस थोडीसी पंजीसे उन्होंने नमकका व्यापार प्रारम्भ कर दिया था ! किन्तु शीघ्र ही उनके भाग्यने पलटा खाया। ___ उनके अभिन्न मित्र बनारसीदासजीने उनको बुला लिया। वह फौजमें बैंकर कोन्ट्रेक्टर थे। उन्हें साझेकी दुकान के लिये एक विश्वनीय साझीदार चाहिये था। पिताजीको उन्होंने साझीदार बना लिया। श्री बनारसीदासजी धर्मात्मा थे। उन्होंने सं० १९५७ में भौगांव जिला मैनपुरोमें एक विम्ब प्रतिष्ठोत्सव कराया था। सन् १९४० में पिताजीने अपना निजी फर्म 'मेसर्स मागदास एन्ड सम्स' नामसे स्थापित किया था। और अंग्रेजी तोपखाना फौजके साथ भारतकी विविध छावनियों में बह गये थे। अफगान युद्ध में भी हमारे धर्मके प्रतिनिधि फौजके साथ मोर्चे पर गये थे। जब सन् १९०१ में पिताजी पश्चिमोद्वार पीमा प्रांतकी छावनी कैम्प वेळपुरमें थे, तभी वहां हमारे शरीरका अवतरण हुआ था। "हमसे आयुमें बडी दो बहनें थीं और दो बहनें हमसे छोटी थीं। __उस कारमें भी पून्य पिताजीने यह व्यवस्था की। हमारी For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) बहनें भी हिन्दोका सामान्य ज्ञान प्राप्त कर सकी थीं और धर्मज्ञ हुई थीं। खेद है उनमें से दो दिबंगत हो चुकी हैं। वहांके बाद पेशावर, रावळपिंडी, बाहोर, मेरठ, हैदराबाद, सिंध आदि स्थानों में उन्होंने व्यापार किया था। सन् १९२० में हम भी अपने इस फर्म में कार्य करने लगे थे । हैदराबाद सिंधके अतिरिक्त करांची दिल्ली और बरेली में भी फर्म की शाखाएं थीं। किन्तु सन् १९३० के बगभग फौजी विभागने भारतीय बैंकरों को फौज में न रखनेका निश्चय प्रगट किया तथा ठेकेदारी भी विषम हो गई। अतः पिताजीने इस कार्यको करना उचित न समझा । घरपर आकर जमीनदारी आदि कार्यको सम्भाल लिया | आसामियोंके प्रति उनका व्यवहार इतना सरल था कि वह कठोर शब्दों में रुपयोंका तकाजा नहीं करते थे। आसामीकी खुशी में उनकी खुशी थी। दुकानोंके किरायेदारोंसे किराया इस तरह मंगवाते मानों उनके उपकार में दबे हों । कुटुम्बी और मित्रजनों के आपत्तिकाल में उन्होंने निस्वार्थ भाव से सहायता की। - स्थानीय मंदिरजीका प्रबन्ध सुचारू रीति से वर्षों किया और मंदिरजीकी कायापट दी उन्होंने साहू श्यामलालजी और बेनीरामजी के सहयोग से कर दो। संगमरमरकी वेदियां संगमरमर के फर्श और स्वर्णखचित चित्रकारीसे मंदिरजी चमकने लगा । श्री शिखरजी, गिरिनारजी, जैनबद्रोजी आदि स्थानोंकी उन्होंने एक से अधिक बार यात्रा की। इस प्रकार उनका जीवन सुखमय बीता था। अब्बत्ता अन्तिम जीवन में सन् १९४० से बणबेतगोलकी यात्रा से लौटने पर उनको पथरी रोगकी पीढ़ाने घेर दिया था जिसको उन्होंने साहससे सहन किया। इसी रोग में उनका शरीरान्त ता० २० मई १९४८ के प्रातः हो गया । For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) जनसेवकके रूप में अलीगंज में रहकर बाबूजी समाज सेवा के कार्यों में अपनेको निरन्तर लगाये रहे । समय समय पर जनहितके कार्य करते रहे उनमें यथाशक्ति अपना सहयोग दिया | सन् १९३१ से १९४९ तक ऑनररी मजिस्ट्रेट तथा सन् १९४३ से १९४८ तक असि टेन्ट कलेक्टर रहे | ऐसे पदों पर रहते हुये भी ईमानदारी और सेवा भावना के बराबर दर्शन होते रहे हैं। तत्कालीन जिलेके उच्च पदाधिकारी तथा सर्वधाधारण जनता आपकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करती रहती थी । - सन् १९४३ के जिलाधीश श्री लोबो प्रभो I. C. S. सन् १९४४ के एल० डो० एम० श्री इकरामुद्दीन तथा सन् १९४५ के जिलाधीश श्री के० बो० फेवादअली बाबूजी की कार्यतत्परता, तथा चरित्र से बड़े प्रभावित हुये। श्री इकरामउद्दीनने तो यहां तक कहा था " मैं श्री जैनको उनको जन सेवाओं और प्रत्येक भले कार्यों में रुचि रखने के ढिये धन्यवाद देता हूं। कहनेका तात्पर्य तो यह है कि इस क्षेत्रके प्रत्येक राजकीय कार्यमें आप आगे रहे। मद्य निषेध तहसील कमेटी, महात्मा गांधी निधि-तहसील कमेटी आदिक मन्त्री रहे। पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत विकास योजना क्षेत्रकी शिलान्यास क्रिया समारोह के प्रमुख कार्यकर्ता रहे तथा स्वागत भाषण दिया। इस क्षेत्रमें होनेवाले कवि सम्मेलनों, सभाओं, सोसायटियों, अधिवेशनों, तथा गोष्ठियोंके अध्यक्ष बनते रहे। विभिन्न राष्ट्रीय पर्वों तथा अन्य धार्मिक उत्सबों पर संभ्रान्त नागरिक के रूपमें अभिनन्दन होता रहा। कितने ही वर्षों तक श्री बैरिस्टर चम्पतरायजी ट्रस्टकी कार्यकारिणीकी समिति के For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व जैनमिशन अधिवेशन इन्दौर में व्याख्यान देते हुए श्री. डॉ. कामताप्रसादजी जैन, अलीगंज ww ----- For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) सदस्य भी रहे। भारतीय इतिहास, परिषदके सदस्य, हिन्दी साहित्य सम्मेलन एटाकी पडीगंज शाखाके संयोजक रहे। कांग्रेसके आन्दोलनों में भी सक्रिय भाग लेते रहे। बैसे तो बाबूजी चुनायके चका में कभी नहीं पड़े फिर भी जवान जोग उन्हें पद देते रहे, ये पद-पदके लिये नहीं और न समाजमें सम्मान अथवा नाम प्राप्तिकी इच्छाके लिये वरन् जिनपदों पर अथवा जिन संस्थानों और समितियों में रहे उनमें जीजानसे तन, मन और धनसे सेवा करते रहे। For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान राबूजी अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिके महापुरुष थे, जिनके व्यक्तित्वसे सभी प्रभावित तो हुये ही साथ ही भूरिभूरि प्रशंसा भी की गई। 'यशोविजय जन ग्रन्थमाला'की ओरसे 'भगवान महावीर विषयक निबन्ध पर 'स्वर्ण पदक' मिला । भारतीय विद्या भवन बम्बईके तत्वावधानमें आयोजित निबन्ध प्रतियोगितामें “हिन्दी जैन साहित्य निबन्ध पर 'रजत पदक' प्राप्त हुआ । इन्दौर (म० प्र०) की निबंध जांच कमेटीके द्वारा "जैन संख्याके ह्राससे बचने के उपाय" विषयक निबंध 'सर्वश्रेष्ठ' ठहराया गया। बैरिस्टर श्री चम्पतरायजी द्वारा संस्थापित जैन एकेडेमीने अपने करांची अधिवेशन में, जो सन् १९४२ में सम्पन्न हुमा, बाबूजीको डॉक्टर ऑब लोजकी उपाधि से सुशोभित किथा । कनाडाकी ईसाई Pcnmenical Chruch आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाने सर्व धर्मके तुलनात्मक अध्ययन पर पो. एच. डी. की उपाधि प्रदान की। बनारसकी संस्कृत परिषदने 'साहित्य मनीषी' तथा जैन सिद्धान्त भवन आराको स्वर्ण जयन्ती पर 'सिद्धांताचार्य' की उपाधियोंसे सम्मानित किया गया। ब्रिटिश शासनमें अनेक राजकीय प्रशंसापत्र प्राप्त हुये। बादको जनता द्वारा अभि. नन्दन पत्र समय समय पर भाषण, अधिवेशन व सम्मेलनों में प्राप्त होते रहे हैं। रॉयल एशियाटिक सोसायटी उन्दनने बाबूजीको सदस्य चुना। जर्मनीकी कीसरलिंग सोसायटीने अपना सम्मान सदस्य तथा मध्य अमेरिकाके अंतर्राष्ट्रीय धर्मसंघने सर्वोच्च सम्मान प्रदान करके अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना व्यक्त की। १५ वें विश्व शाकाहारी सम्मेउनमें उत्तर भारत के देहली अधिवेशनको स्वागतकारिणी For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) समितिके मन्त्री रहे। डॉ. राजेन्द्रप्रसाद भूतपूर्व राष्ट्रपतिने जब 'विदेशी शाकाहारी प्रतिनिधियों के स्वागतार्थ प्रीतिभोजका बायोजन किया उसमें आपको भी सादर आमंत्रित किया गया था। राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन्से भी कई बार अहिंसा, धर्म तथा दार्शनिक अनेक विषयों पर चर्चा कर चुके हैं। सन् १९५५ में अहमदाबादमें आयोजित ओरेंटियल कान्फ्रेंस में जैनधर्म और प्राकृतिक विभागके अध्यक्ष बननेका शुभ अवसर प्राप्त हुआ। कितने ही वर्ष तक दि० जैन परिषद देहलीके वे उ० प्र० के मंत्री भी रहें। For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) दान धर्मके प्रति निष्ठा 'योग्य पिताजीकी योग्य सन्तान' बाली लोकोक्ति हमने बहुत सुनी है, पर उसके दर्शन हमें बाबूजी में मिलता है। बाबूजीके पिता, पितामह आदि सभी दान धर्मकी निष्ठाको भली भांति जानते थे। निर्धनों की सेवा करना उन्होंने खूब सीखा था। डॉ० साहबके पिता सन् १९४८ में जब अस्वस्थ होगये तो, उन्होंने अपने पितासे कुछ दान पुण्य करने के लिये निवेदन किया । बह तो पहलेसे ही तेयार थे, अत: १००१) की व्यवस्था उन्होंने कर दी। वैसे वाबूजीकी माताके व्रतोद्यापन प्रसंगमें पिताजीने एक वेदी लगवाकर वेदी प्रतिष्ठोत्सव करवाया था। अतः उस १००१) की दानकी धनराशिको मन्दिर या वेदीप्रतिष्ठामें लगाना उचित नहीं समझा। जब देशमें इजारों की संख्यामें मन्दिर हों, लोग धर्मकी ओरसे विमुख हो रहे हों, चारों ओर पाप कर्म बढ़ रहे हों, अज्ञानांधकार छा रहा हो और वर्तमान मन्दिरोंकी रक्षाका प्रश्न मुह बायें सामने खड़ा हों, उस समय बाबूजीने यह सर्वश्रेष्ठ कार्य समझा कि जिन व्यक्तियों को धर्मके रुचि कम हैं, भौतिकवादकी मोर दौड़ते जा रहे हैं, अज्ञान और अविवेकी हैं, ऐसे लोगों में ज्ञानकी ज्योति जलाना उन्होंने पवित्र कर्तव्य समझकर उस पैसेको निर्धन व्यक्तियों तथा साहित्य प्रचार में लगाया ! उस समय शरणार्थियों की समस्या अपने देशमें बहुत बड़ी थी, अत: 'शरणार्थी फण्ड' में २२१), गांधी स्मारक निधि १११) तथा १०१) कुन्थुनागर ग्रन्थमालाको प्रदान किये। १०१) उन मन्दिगेको दे दिया जिनकी स्थिति अच्छी नहीं थी। शेष लगभग पौने पांचसौ रु० ट्रेक्ट छपवाकर देश, विदेशमें वितरित करवाने के लिये सुरक्षित रखा। For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) बाबूजीका यह विश्वास था कि इससे लोगों में ज्ञान, विवेक, सुखशान्ति और प्रेमका वातावरण उत्पन्न होगा। प्रन्थ प्रकाशनके लिये सुरक्षित धन राशिमेंसे पहला ट्रेक्ट पिताजीकी पुन्यस्मृतिमें 'कृपण जगावनचरित्र' प्रकाशित करवाकर जनता जनार्दनकी सेवामें निशुल्क वितरत करवाया। स्थानीय डी० ए० बी० इन्टर कालेजमें एक कमरेका निर्माण करवाया। स्थानीय मन्दिरमें संगमरमरका फर्स, वाचनालयमें सैंकडों पुस्तकोंका उदारतापूर्वक दान दिया। इसके अतिरिक्त अन्य संस्थाओंके सभासद आर्थिक सहयोगके लिये जब भी आते उन्हें सहयोग देकर कर्तव्य पालन करते रहे। मिशन के प्रचारकाय, ट्रेक्ट पर्चे, या ऐसी ही अनेक गतिविधियों में तीन चारसौ रुपया माह सनका निजी लगता रहा। प्रेसकी बायका आधेसे अधिक भाग धर्मप्रचार व दान में देनेवाले ब्यक्तिके बारे में क्या प्रशंम्रा की जावे ? स्वयं ही अनुभव करिये कि बह दिव्यमूर्ति कितनी विशाल हृदयी होगी जो दूसरेके दुःख को अपना दुःख समझकर दूर करती थी। * अखिल विश्व जैन मिशनका प्रधान कार्यालयभवन अलीगंजमें निर्मित हुआ जिसमें २० हजारके आसपास रुपया कुल व्यय हुआ। कई हजार रुपये की अचल सम्पत्ति बेचकर उसमें लगाकर उस कार्यको पूर्ण किया, इसके साथ ही साथ उच्च स्तर पर वेदी प्रतिष्ठोत्सव भी सम्पन्न कराया जो बाबूजीके जीवन का धार्मिक कार्यों में अन्तिम कार्य ही माना जाना चाहिए ! क्योंकि वह दोनों कार्य मृत्युसे दो माह पूर्व ही किये थे। अपने जीवन में अनेक ऐसे अनाथ और निर्धन छात्रोंकी सहायता भी की जो बेचारे पढ़ने की इच्छा रखते हुये भी पढ़ने में असमर्थ थे, उनके लिये शुल्क, पुस्तकें तथा अन्य जो भी सहायता कर सकते थे, करते रहे। For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) यशस्वी सम्पादक आज सम्पादनका अर्थ यह लगाया जाता है कि पत्रिकाओं के लिये आनेवाले लेखोंको वैसा का वैसा ही छाप यदि कुछ कमी अनुभव हो तो लेखकके पास बापिस कर दिया जावे, साथ ही एक लेख कलम " से किसी ज्वलन्त समस्याको लेकर लिख दिया जावे । पर बाबूजीने सम्पादकका न तो कभी यह अर्थ लगाया और न ऐसा किया हो। ठीक पं० महावीरप्रसाद द्विवेदीकी जो भावना हिन्दी साहित्य के प्रचार- प्रसारकी थी वही बात बाबूजीमें हमें दिखाई पड़ती है। उनका प्रमुख ध्येय नये साहित्यकारों को जन्म देना रहा है। नवोदित साहित्यकारोंको प्रोत्साहन देना उनके आये हुए लेखोंके प्रति उदासीनताकी वृत्ति न बनाकर एक कुशल शिक्षककी तरहसे पूरे लेखको पढ़ना, उसमें संशोधन करना, नयी टिप्पणी लगाना और फिर प्रकाशित करवाना था, जिससे प्रत्येक लेखक आशावादी तथा सरनाही बनकर और भी आगे विकास के मार्ग पर पहुंच सके । 6 वीर' पत्रके प्रथम सम्पादक नबम्बर १९२३ में बाबूजी हो बने थे । और ३० से भी अधिक वर्षों विशेष आप संपादक बने रहे । लगभग २५ वर्ष तक पं० परमेष्ठीदास जैन ललितपुर (झांसी) भी बाबूजी के साथ वीरके सम्पादक मण्डलमें रहे। इसीलिए उन्होंने कहा भी " बाबूजी इतना लेखन कार्य कर गये कि दूसरे किसीसे भी आशा नहीं " इसके अतिरिक्त सुदर्शन, आदर्श जैन, जैन सिद्धान्त भास्कर तथा उत्कर्ष ( जातीयपत्र ) का भी बड़ी कुशलता से सम्पादन किया। पिछले १४ वर्षोंसे ' बॉइस ऑफ अहिंसा' और ' अहिंसा बाणी' का सम्पादन भी करते रहे । अहिंसा वाणी हिन्दी क्षेत्रों में तथा 6 'बॉइस ऑफ अहिंसा For Personal & Private Use Only दिया जावे | उस रचनाको " सम्पादककी " Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) हिन्दी क्षेत्रोंमें खूप लोकप्रिय रही है। 'अंग्रेजी' की पत्रिकाके सैकड़ों अंक तो इंगलैण्ड, जापान, जर्मनी, अमेरिका, और कैनाडा जैसे देशों को जाते थे। बाबूजीकी 'सम्पादनकला ' से ही प्रभावित होकर आहसा वाणा और 'बॉइस ऑफ अहिंसा' को पाठक बड़े चावसे पढ़ते थे। अधिकसे अधिक लेखकोंके लेखों. और कविताओंको अन्त समय तक स्थान देते रहे, अपना सम्पादकीय प्रभावशाली छोटा लेख लिखकर ही कर्तव्यको पूर्ण करते रहे। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४) इतिहाससे प्रेम बाबूजीने इतिहासका खूध अध्ययन किया। विभिन्न पुस्तकालयों, शोध-संस्थाओं, शिलालेखों तथा अन्य जो भी सामग्री उपलब्ध हुई उसको खूब समझा और परखा। इसीलिए अनेक ऐसे ग्रन्थ हैं जो इतिहास के अनेक तत्वोंपर निर्भर हैं । इतिहासके अभ्ययनकी आवश्यकता अनुभव करते हुये श्रद्धेय बाबूजीने "वीर-पाठा " की भूमिकामें लिखा है-'जैन इतिहास के अध्ययन में मेरी रुचि विशेष है और उस दिशामें मैंने कुछ साहित्य निर्माण भी किया है, किन्तु इतिहास एक ऐसा नोरस प्रश्न है कि आवाट वृद्ध बनिता उसे पढ़ना जल्दी स्वीकार नहीं करते । विवेचनात्मक पुरानी बातोंमें कलामय औपन्यासिक सरलता भला कहांसे आये ? परन्तु साथ ही यह सच है कि बिना पुरानी बातोंको जाने कोई जाति अपनी उन्नति नहीं कर सकती।" यदि यह कहा जावे कि बाबूभी प्रथम इतिहासकार हैं और बादको समाज सुधारक तो अनुचित न होगा। इनके लोकप्रिय होनेका प्रमुख कारण इतिहाससे प्रेम ही है। जो कुछ भी लिखा है उसमें अधिकतर सामग्री इतिहासके आधार पर ही है। 'जैन जातिका हाम', संक्षिप्त जैन इतिहास भाग १, भाग २ खण्ड १, भाग २ खण्ड २, भाग ३ खण्ड १, भाग ३ खण्ड २, ३, ४, ५, और भाग ४ खण्ड १-२, प्राचीन जैन लेख संग्रह, जैन वीरोंका इतिहास, बादि अनेक प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। बाबूजीकी कुछ पुस्तकोंका अनुवाद तो गुजराती, चीनी, जापानी आदि भाषामें हो चुका है। "जैनधर्म चारित्र्य" का बनुबाद गुजराती भाषामें सन् १९५६ में, तथा "बाहुबति" नामक अंग्रेजी पुस्तकका अनुबाद चीनी भाषामें देखा है। इस For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) प्रकार बाबूजीने विदेशियोंके लिए भी अनेक संस्कृत व हिन्दी पुस्तकोंका अनुबाद अंग्रेजीमें किया तथा बिदेशियोंके द्वारा बिखे गये अनेक उपयोगी लेखोंका हिन्दी भाषा भाषियोंके लिए हिन्दी में अनुवाद किया। वैसे अनुवादका कार्य कोई विशेष महत्वपूर्ण नहीं है पर विशेषता तो इसमें है कि उसकी मौखिकलता समाप्त न होने पाये, यही बात इनके अनुवादित ग्रन्थों में पाई जाती है । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) साहित्य सेवाके क्षेत्र में बाबूजी की धार्मिक पुस्तकोंके स्वाध्यायकी रुचि वृद्धि करने का श्रेय स्वर्गीय श्री देवेन्द्रप्रसादजोको है जिन्होंने अपने यहांसे प्रकाशित होनेवाली सारी पुस्तकें एकबार में ही भेज दीं। धीरे धीरे साहित्य के प्रति अभिरुचि बढ़ने लगी और धर्मके प्रति निष्ठा भी गतिशील हुई तो 'जैनमित्र' और ' दिगम्बर जैन ' पत्रों ग्राहक भी बन गये तथा इनमें लेख लिखकर भी भेजने ढगे । बाबूजीने स्वयं ही एकबार कहा था." जैनभित्र के सम्पादक श्री ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने उत्साह बद्धनार्थ किन्हीं किन्हीं को मित्रमें स्थान दिया । फलतः लिखना न छूटा, लिखता रहा तो लिखना आ गया । " नियमित अभ्यास करने से कठिन से कठिन कार्य भी सुलभ बन जाते हैं। और दैनिक लेखन कार्यसे बाबूजीका स्थान विश्वके उच्च कोटिके साहित्यकारोंके बीच स्वतः ही बन गया । ——— प्रसिद्ध साहित्यकार श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकरने बाबूजीके सम्बन्ध में ठीक ही कहा है- " जैन साहित्य उनका विषय है, जैन इतिहास उनकी विचारधारा है और उनका मिशन है समय के प्रभाव से जैन धर्मके दिव्य दिवाकर पर छाये हुये वादोंको हटाकर विश्वको उसके प्रकाशसे आलोकित करना । " बाबूजीका कृतित्व बाबूजी ने अपने जीवन में लगभग १०० पुस्तकें हिन्दी न अंग्रेजी भाषा में इतिहास, धर्म, दर्शन एवं साहित्य पर लिखी हैं जिनका हम यहाँ विहंगावलोकन करेंगे । For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ) महारानी चेलनी जून सन् १९२५ में वाबूजी द्वारा लिखित १७० पृष्ठकी यह पुस्तक बहायानी चेकनीके जीवनचरित्र पर प्रकाश डालती है । यह जीवनचरित्र कोई साधारण कहानी नहीं है वरन् प्रत्येक गृहस्थके पढ़नेयोग्य उपदेशात्मक कथाका धर्म-ग्रन्थ हैं। भारतमें अनेक ऐसे चारित्रवान व्यक्ति हुये हैं जो प्रकाशमें नहीं आ सके । वीरांगनाओं और विदुषी महिलाओंकी तो इससे बुरी स्थिति है। इसी कारण समाजमें देवियों का जो पूर्व में स्थान था वह अब नहीं है। बाबूजीने जिस उद्देश्यको लेकर इस अन्धकी रचना की है वह इस प्रकार हैं-"अपने घरोंको यदि हमें दिव्य शृङ्गारसे अलंकृत बनाना है तो आदर्श भारतीय रमणियों के पावन जीवन पुनः प्रकाशमें लाना नितांत आवश्यकता है। प्रस्तुत पुस्तक इस ही बातको लक्ष्यकर प्रकट की जारही है।" तत्कालीन राज्य और लिच्छिव वंश, गणराज्य और न्यायकी बादर्श व्यवस्थाका इस पुस्तकसे पूरी तरह पता चलता है । चेलनीकी कौमारावस्थाके साथ ही साथ सुन्दरताका वर्णन किया है। गुणहीन सौन्दर्यको बेकार बताते हुये पुत्रीमें भी पुत्र जैसे प्रेमके दर्शन करते तथा पुरातन भारतीय आदर्शको सामने रख. कर माता-पिताको स्वयं सुसंस्कारित बननेकी शिक्षा दी गई है। बैसे चेलनीकी कौमारावस्था, सम्राट श्रेणिकका परिचय, विवाह, चेलनीकी धर्म-परीक्षा, सम्राट श्रेणिक और यशोधर मुनि, सम्राटकी सम्यक्त्वमें दृढ़ता, महारानीका गृह-सुख तथा अन्तिम त्यागमय जीवन आदिकी सुन्दर झांकी तो दर्शन के लिये मिलती हो है। पर साथ साथ माता-पिता अपने बच्चों के स य कस वरहका व्यवहार करें ? विधवाएं अपना जीवन को बित? For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) परिवार के लोगोंका कर्तव्य विधवा जी के प्रति क्या है ? बधुओंको अपना गृहस्थ जीवन किस तरह पूर्ण करना चाहिए ? विवाहकी रूपरेखा क्या हो ? कितना व्यय किया जावे ? फैशनसे कौनसी हानियां है ? और बालं तथा वृद्ध विवाहोंका अन्त महिलाओंके द्वारा कैसे हो सकता है ? आदि आदि अनेक तत्कालीन समस्या, कुरीतियों, और कुसंस्कारोंसे छुटकारा प्राप्त कराने के सम्बन्ध में शिक्षा दी गई है, और उपाय सुझाये गये हैं। यदि हम चाहे तो महारानी चेलनीके जीबनसे बहुत कुछ सीख. कर अपने जीवन में गुणोंका समावेश करा सकते हैं। " उनका जीवन परम आदर्शरूप है, परन्तु उससे शिक्षा ग्रहण करना अथवा न करना हमारे आधीन है। लेकिन जो सुवको खोज में हैं वे अवश्य ही उनके दिव्य चरित्रसे शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को सफल बनायेंगे क्योंकि महापुरुष जिम पथका अनुपरण करते हैं वही ग्राहनीय होता है-'महाजना: येन गताः सः पंथ: " बाल-चरितावली यह बालोपयोगी २० पृष्ठकी पुस्तक शिक्षाप्रद तथा सरल भाषा की है। जिसमें ७ कहानियाँ महावीर वर्धमान, जम्बूकुमार, श्री भद्रबाहु, धीर-वीर चन्द्रगुप्त, ऐल खारवेल, निकलंक और पार्श्वनाथकी हैं। बच्चे इसे मनोरंजनके लिए पढ़ सकते हैं और बहुत कुछ भावी जोवन के लिए सीख सकते हैं। बच्चे भावी जीवनके निर्माता हैं, वे ही आगे चलकर देशके कर्णधार और महान आत्माके रूपमें हमारे सामने आते हैं। इसलिये प्रारंभमें ही उनका जैसा जीवन बना दिया जाता है वैसा ही आगे चलता रहता है । सादा जीवन, प्रेम, वीरता, आज्ञापालन. अनुशासन, संयम, चारित्र निर्माण, परमार्थ, बाल विवाह न करने, और अात्मकल्याण जैसे अनेक विषयों को शिक्षा कहानियां तथा महापुरुषोंक जोबनसे सम्बन्धित कर बताई गई हैं, जिन्हें For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९) पढ़कर प्रत्येक पाठक और बालिकाके मनमें आदर्श जीवन व्यतीत करने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने तथा विवाह देर से करनेकी शिक्षा जम्बूकुमारके जीवन वृतान्तसे इस प्रकार मिलती है___"बालको ! तुम भी जम्बूकुमारके जीवनसे कुछ शिक्षा ग्रहण करो। प्रतिज्ञा करलो कि जब तक तुम खूब पढ़-लिखकर होशियार न हो जाओ, विवाह नहीं करोगे। पढ़ते हुये तुम पूरे ब्रह्मचर्यसे रहोगे और व्यायाम करके शरीरको पुष्ट रक्खोगे। यदि तुम जम्बूकुमारके समान बीर सैनिक बनोगे तो अपने देशकी सच्ची सेवा कर सकोगे तथा लोकका और खुद अपना आत्मकल्याण कर पाओगे। भावना करो, तुममें से प्रत्येक जम्बू कुमार हो और मावापका मुख उज्ज्वल करो।" सत्य-मार्ग जुलाई सन् १९२६में प्रकाशित ४४० पृष्ठकी यह 'सत्य मार्ग' नामक पुस्तक बाबूजी द्वारा लिखित है। इसमें हिंदी, अंग्रेजी व उर्दू के लगभग ४१ ग्रन्थोंके स्वाध्यायका निचोड़ है। यह ४१ प्रन्थ सहायक हैं जिनकी सूची भी पुस्तकमें दी हुई है। जन्म लेनेवाला प्रत्येक जीव सुख शान्ति चाहता है पर प्रयत्न करनेके बाद भी वह प्राप्त नहीं कर पाता। संसारके लोग झूठे मार्गको सच्चा मार्ग समझते रहते हैं और असत्य सुखको ही सच्चा सुख समझ कर जीवनके अमूल्य क्षण नष्ट किया करते हैं। इस पुस्तकमें सच्चे सुखको प्राप्त करनेका मचा मार्ग बताया गया है। ताकि प्रत्येक प्राणी भूल भुलयोंमें न पड़कर अपना जीवन पूर्ण रूपसे सफल बना सके। अनेक लोग इन्द्रिय लिप्सा, धनोपार्जन तथा अन्य सांसारिक वैभवोंको सुख समझते हैं पर वे शायद अपने जीवनको सबसे बड़ी मूठ करते हैं। सवा सुख कहीं बाहर की For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु नहीं है वह तो अपनी आत्मामें ही है। आत्म निरीक्षण, आत्मध्यान और बात्माकी भक्तिसे ही सब कुछ प्राप्त हो सकता है । आदर्श गृहस्थ जीवन व्यतीत करनेवालोंको देवपूजा, गुरुदेवकी सेवा, स्वाध्याय करना, आत्मसंयम, तप व दान देना चाहिए । नशीली वस्तुओंसे बचना, मांसाहार न करजा, सत्य बोलना, दूमरेकी सम्पत्ति देखकर मनोविकार उत्पन्न न होने देना, दूसरेकी मां बहिनोंमें भी मातृत्वकी भावना रखना, आवश्यकतासे अधिक वस्तुओंका संचय न करना, जैसे आदर्श गुण सन्त महात्माओंने गृहस्थ जीवन के लिये अनिवार्य बताये हैं इन बातोंका पालन करनेवाला गृहस्थ आदर्श जीवन व्यतीत कर लोक और परलोक दोनों ही सुधार सकता है। श्री ब्र० शीतलप्रसादजी सम्पादक 'जैनमित्र' सूरतने इस पुस्तकके बारेमें लिखा है-"पुस्तकमें अहिंसा और मांसाहार निषेधका कथन हिन्दू, ईसाई, मुसलमान, पारसीकी पुस्तकोंके वाक्य देकर इतना बढ़िया किया गया है, यदि ये लोग अपने२ धर्मग्रन्थों के वाक्यों पर श्रद्धा रखके चलना चाहे तो उनके लिये यह अनिवार्य हो जायगा कि वे एकदम पशु हिंसा और मांस खाना छोड़ दें। वास्तवमें गृहस्थोंको सत्य मार्ग दिखाने में इस पुस्तकने एक आदर्श रख दिया है।" लाला फूलजारीलाल जैन जमीदार करहल जि० मैनपुरी (उ० प्र०) की यह तीव्र इच्छा थी कि सभी गृहस्थोंको सत्य मार्गपर प्रेरित करनेके लिये एक ऐसी पुस्तक लिखवाकर प्रकाशित करवाई जावे, जिससे मानव जातिका बड़ा उपकार हो, पर लालाजीकी इच्छाको पूर्ण करनेके लिये कोई भी जैन विद्वान तैयार न हुआ, तब उनकी यह इच्छा बाबूजीने ही पूर्ण की। और शीघ्र ही इतनी बड़ी पुस्तक विखकर उन्हें भेंट कर दी। बाबूजीने इस पुस्तकमें अपनी भावना भी इस प्रकार प्रकट की For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) 5 "हमारी यह भावना है कि सर्व साधारण महाशय इससे उचित लाभ उठाकर अपने जीवनको अहिंसा पूर्ण और उन्नतिशील बनावें ।” सुखके राजमार्गके विभिन्न उपाय, उपासना और प्रार्थना की विधि मूर्ति पूजाका कारण हिन्दू, ईसाई, बौद्ध व इस्लाम धर्ममे बलिदान की भावनाका महत्व, तीर्थयात्राका वास्तविक स्वरूप, संयमकी जीवन में आवश्यकता, अहिंसाका सैद्धान्तिक विवेचन, अहिंसाव्रत के सहायक साधन, और ब्रह्मचर्य व्रतकी महिमा जैसे अनेक जीवनोपयोगी अंगोंकी इस ग्रन्थ में सविस्तार विवेचना की है। चौर्य कर्मकी भी खूब निन्दा की गई है तथा जुआ खेटने को भी पापकर्म बताकर उससे छुटकारा पानेके लिये जोर दिया है। जुम्राको भी चोरी ही बताते हुए बाबूजीने लिखा है" विवेक बुद्धिके लिये जुआ खेउनेका त्याग चोरीकी तरह करना ही श्रेष्ठ है। चोरीकी तरह यह भी पापका कारण एक तरह से प्रकट चोरी ही है। इसके अभ्यास से मनुष्य में सहज ही अन्य आवश्यक दुर्गुण आजाते हैं अतएव जुए और चोरी के त्याग में उसका कल्याण है | अपरिग्रह व्रतकी व्याख्या भी की गई है । इस प्रकारके परिग्रह शास्त्रोंके आधार पर बताये हैं जो यह हैं - क्षेत्र, वास्तु. हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दाख, मांड, कुप्प । इस व्रत के करनेका मुख्य ध्येय तृष्णा व ढोभसे बचने के लिये होता है । सन्तोषके अभाव में जीवन दुःखी होता चला जाता है। व्यक्ति स्वय ही अपने दुःख सुखका उत्तरदायी होता है, उसके सुख दुःखमें अन्य कोई भी भागीदार नहीं हो पाता । इसलिये शांति प्राप्त करनेके लिये भी स्वयं प्रयास करना पड़ता है । पर मानवीय स्वभाव पानीके प्रवाहकी तरह होता For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) है। पानी सदैव नीचेको बहता है और वैसे ही मानव बुरी प्रवृत्तियों की ओर अपने आप बढ़ने ढगता है । पानीको ऊपर चढ़ाने के लिये कठिनाइयाँ होती हैं वैसे ही मानबीय प्रवृत्तिको सरमार्ग पर मोड़नेके लिये बाधाओंका सामना करना पड़ता है। सबको अच्छाइयोंकी ओर बढ़ना है, पश्चिमी सभ्यता के स्थानपर अपने अध्यात्मवादको हो टटोलना अच्छा रहेगा । बाबूजीने इसका कारण भी बताया है – “स्वयं पश्चिमीय देशों को उसके षटुक फलोंसे भय लग रहा है । वे उससे असंतो षित हैं। किंचित् अध्यात्मवादकी ओर नेत्र फेर रहे हैं। ऐसे समय में हम भारतीयों को अपने प्राचीन ऋषियोंके वाक्यों में श्रद्धा लाना हितकर है ....... अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप में विश्वास करके जब शाश्वत सुखकी ओर हम भारतीय दृढ़ बद्ध परिकर होंगे, तभी हमारा कल्याण होगा। हमारा सच्चा आत्मज्ञान और आत्मश्रद्धान हमारा उद्धार करेगा । जैनधर्म और सम्राट् अशोक सन् १९२९ में लिखित ४८ पृष्ठीय पुस्तक "जैनधर्म और सम्राट अशोक" को देखने से यह ज्ञात होता है कि अशोकका नाम इतिहास में अमर है उठका प्रमुख कारण जैनधर्मका प्रचार है । यदि अशोक महानकी भांति आजके शासक अपना जीवन व्यतीत करें तो वह दिन दूर नहीं जब पुनः सुख और शांति की भागीरथी प्रवाहित होने लगे। इसमें मौर्यवंश और अशोक के पूर्वजों के राज्याभिषेक तथा धर्म प्रचारके कार्यका वर्णन किया है। जनत्ता में एक धारणा हजारों वर्षोंसे चली आ रही है कि अशोक कलिंग विजयके बाद बौद्ध धर्मका अनुयायी बना, पर डा० फ्लीट, प्रो० मैकफैल, मि० मानइत, मि० हेरस, डॉ० कर्नल साहब, इल्स साहब, इस कथन के विरोध में मत प्रकट करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) बाबूजीने स्पष्ट ही लिखा है " सने भहिंसा तत्वका महत्व जैन गुरुओंसे सुना था, इस उपदेशका प्रभाव उसके हृदयपटलपर अंकित था और उसने कलिंग विजयके पहलेसे ही राजकीय रसोईघरमें मांसभोजी सम्बन्धियोंके लिये पशुओं का मारा जाना कम करा दिया था।" मो० कर्न तथा टामसने अशोकको जैनी बताया है। जिन शासनका प्रचार कियाथा, अबुलफजलको 'आईने अकबरी' राजतरिंगणी, जैसे ग्रन्थ भी जैनत्वको स्वीकार करते हैं । अशोकके द्वाग दी गई सारी शिक्षाएं भी जैनधर्मसे सम्बन्धित बताई गई हैं । अनेक शब्द जैसे श्रावक, प्राण, जीव, श्रमण, त्राण, अनारम्भ, भूत, कल्प, एकदेश, संबोधि, वचनगुनि, समवाय, वेदनीय, अपामिनवे, आसिनच, जीवनिकाय, प्रोषध, धर्मवृद्धि आदि शब्द जो शिलालेखों में हैं वे जैन साधुओं द्वारा व्यवहत अथवा जैन ग्रन्थों के ही हैं। विविध ग्रन्थों तथा शिलालेखोंके आधार पर अशकका जैनो होना ही ठहरता है, लिजिये आप भी बाबूजीके शब्दोंमें ही सुन लीजिए "अशोकका बचपनसे ही जैनधर्मसे संसर्ग था। अपने प्रारम्भिक जीवनमें वह जैनधर्मानुयायी था, यह बात जैनोंके ग्रन्थों के साथ२ बौद्धोंके कथन और उसके शिलालेखोंसे भी प्रकट है। जैन ग्रन्थ तो उसे प्रारम्भमें जैन तीर्थों की वन्दना करते हुये और जैन मन्दिर बनवाते हुये प्रकट करते ही हैं......निस्सन्देह अशोक अपने जीवनके प्रारम्ममें जैन श्रावक था। For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन वीराङ्गनाएं __" जैन वीराङ्गनाएं " नामक ८० पृष्ठका ग्रन्थ वाबूजी द्वारा लिखित सन् १९३० में प्रकाशित हुआ, जिसमें ७ चोर माताओं की गौरव गाथाओंको अंकित किया गया है। बाबूजी नारियोंको अबला कहना उनका अपमान समझते थे, वे सबला है इसलिये प्रगतिके द्वार उनके लिये समान रूपसे खुले रहने चाहिए । महिलाओं की महिमा तथा उनके उद्धार की भावना समाजमें जागृत करनेके लिये हो इसकी रचना हुई है। पुरातन महिलाएं खाने, पीने और घर बेठने तक ही अपने कर्तव्यको नहीं माने बैठी थीं, वरन् अपना और जन-सुधारका कार्य कर अमरत्वको प्राप्त हो गई। सती चन्दनबाला, महारानी सिंहपथा, महारानी वीरादेवी, वीराङ्गना साबियव्वे, बीराङ्गना जबकमव्वे, बिदुषी विजयकुमारी और बीरमाताके जीवनको बीरत्व पूर्ण, सोये मनको जगानेवाली तथा खून खौलने वाली घटनाओंका वर्णन किया है। इस पुस्तकको पढ़नेसे नर नारी दोनोंके हो हृदयमें वीरताके अंकुर फूट पढ़ते हैं और देश धर्मपर कुरबान होनेवालों की स्मृति में कर्तव्य मार्ग पर अड़े रहने की प्रेरणा मिलती है। __ श्री ऋषभदेवकी उत्पत्ति असंभव नहीं है - आर्यसमाजके नेता पं० देवेन्द्रनाथ शास्त्री द्वारा रचित ट्रेक्ट "श्री ऋषभदेवजीकी उत्पत्ति असम्भव है" के उत्तरमें उत्पत्ति सम्भव बताते हुये बाबूजीने सन् १९३० में ७६ पृष्ठकी यह पुस्तक लिखी। इस पुस्तकको पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि बाबूजीको बात्मा यहांके अन्धविश्वास, और सम्प्रदायवादको देखकर आठ माठ बांसू बहा रही है। वे बड़े दुःखी जान पड़ते हैं, इसका प्रमुख कारण यही है कि लोग अपने अपने विचारोंको बिल्कुल For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) सत्य मान लेते हैं, विभिन्न मन्तव्यों तथा विभिन्न प्रमाणित ग्रन्थोंका अवलोकन किये बिना सच्चाईकी चुनौती भी देते हैं। शास्त्रीजी विरोधी ट्रेक्टको देखकर जो शब्द इस पुस्तकमें चाबूजीने लिखे हैं उससे उनकी निर्भीकता और निष्पक्षताकी सहज ही जांच हो जाती है " बड़े नामका काम, बड़ा होगा, यह अन्दाजा लगाना कुछ बेजा नहीं । हमने भी ऐसा ही अनुमान किया और बड़ी उत्सुकतासे इस पुस्तिकाको हमने पढ़ डाला ! लेकिन अफसोस, बड़ी दुकान पर फीका पक्कान पाया। सिवाय साम्प्रदायिक विष उगलने के इसमें कहीं भी सत्यको पा लेनेका प्रयत्न नहीं किया गया है। अपितु जैन मान्यताओं का मजाक उड़ाने के अतिरिक्त इसमें और कुछ है ही नहीं। इतने पर भी लेखक महोदयने अपनी इस कृतिको सत्यका दर्पण प्रकट करते हैं, यदि वस्तुत: यह ऐसा होता तो हमारे लिये बड़े हर्षका स्थान था, क्योंकि इससे भारतीय साहित्यका बड़ा हित सब जाता...... भला उनके इस एकपक्षी निर्णयको कौन बुद्धिमान निखिल सत्य स्वीकार कर लेगा ? " अयोध्याको इन्द्र द्वारा बसाने, ऋषभदेवका गर्भमें आना, जन्मकल्याणक, यौवनकाल, विवाह तथा तपश्चर्या, समवशरण, और निर्वाणसे सम्बन्धित जितनी आपत्तियां उठाई गई हैं उनका खोज और तर्कपूर्ण उत्तर दिया है। शास्त्रीजी को भी जैनियोंको उपदेश देनेकी जल्दबाजी न करने, जैन साहित्यका अध्ययन करके ही कलमको कष्ट देने, गल्ती सुधारने, और सरलहृदयी बनाने का सुझाव दिया है। बाबूजीने दावे के साथ यह सिद्ध किया है " हम दावे के साथ यह घोषित करते हैं कि भगवान ऋषभदेव एक वास्तविक महापुरुष थे और उनकी उत्पत्ति बिल्कुल संभव है । " For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) रत्नत्रय कुँज भाषण २८ नवम्बर ५६ पृष्ठकी यह पुस्तक सन् १९३० में प्रकाशित हुई। इसमें विद्यावारिधि जैन दर्शन दिवाकर बाबू चम्पतरायजी जैन बैरिस्टर एटors विदेशों में दिये गये तीन अंग्रेजी व्याख्यानोंका हिन्दी में अनुवाद किया गया है । प्रथम सन् १९२६ को पेरिस में "जैनधर्म के चारित्र - नियम", दूसरा फ्रांस में २६ दिसम्बर सन् १९२६ को " जैनधर्म और उसकी अशांति भेटने की शक्ति", तीसरा दि० ६ जनवरी १९२७ में इटली में "धर्म और तुलनात्मक धर्म" पर दिया गया था। ये व्याख्यान बड़े महत्वपूर्ण हैं, इसीलिए बाबूजीने हिन्दी में अनुवाद कर सर्व साधारण के लिये उपयोगी बनानेका प्रयास किया है 1 वैज्ञानिक और वास्तविक तथ्योंपर जैन धर्मका आधारित होना, सम्यकूचारित्रके वे व्यवहार सिद्ध नियम, निरामिष भोजन की विशेषता, तीर्थंकरोंकी ऐतिहासिकता, तीर्थंकर शब्दका भाव, आत्माकी अमरता, और प्रेम तथा अहिंसा सिद्धांत की व्यापकता पर काफी जोर दिया गया है। बाइबिल, हिन्दू ग्रन्थ, तथा अनेक विदेशी विद्वानोंके विचारोंको भी व्यक्त किया गया है। जैन वीरोंका इतिहास " जेन बीरोंका इतिहास " नामक यह पुस्तक ८६ पृष्ठकी है, जिसे बाबू कामताप्रसाद जैनने लिखा और अप्रैल १९३१ में प्रकाशित हुई। जैन इतिहासकी अनेक पुस्तकोंसे लोग वंचित हैं, उन्हें पढ़ने-देखने तथा समझने तकका ढोग प्रयास नहीं करना चाहते। ऐसे प्रमाणिक इतिहासोंके प्राप्त हुए बिना जैन बीरोंके बारे में कुछ भी दिखना कष्ट साध्य और कठिन ही सिद्ध होता है । फिर भी अपने अध्ययन और अनुसंधानके बलबूते पर जो For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) कुछ भी लिखा है वह ठीक तो है ही, पर लिखनेका मुख्य उद्देश्य यही जान पड़ता है कि इसके पढ़नेसे समाजके व्यक्तियोंमें नब चेतना उत्पन्न हो, और बीरता, त्याग, कर्तव्य-परायणता एवं चरित्रकी अनुपम शिक्षा लेकर अपने मार्गपर आगे की ओर बढ़ सकें। 9 पुराणकाल से लेकर १६ वीं शताब्दी तक के अनेक जैन राजकुलों तथा वीर पुरुषोंका वर्णन किया गया है। वीरांगनाओंको भी सुहाया नहीं है। ऋषभदेव, चक्रवर्ती, अरिष्टनेमि, महाबीर जैसे तीर्थंकर श्रेणिक, उदायन, चन्द्रप्रद्योत, नन्दिवर्द्धन, चन्द्रगुप्त, बिन्दुवार, अशोक, विक्रमादित्य, पुष्यमित्र शंकर गण, भोज और नरबर्मा जैसे राजाओं, वीरधवल, पाहिड, भामाशाह, आशाशाह, सेनापति अमरचंद, अमरचंद दीवान, जैसे वीरों तथा खारवेल की रानी, भैरवदेवी, सवियब्बे और जकमब्बे जैसी वीरांगनाओं का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्यों जैसे मैसूर, विजयनगर, बीकानेर, जोधपुर और गुजरातमें जो वीर हुये हैं उन्हें भी भुलाया नहीं गया है । , कवंशी, कलचूरिवंशी, पल्लत्रवंशी, चेरवंशी, कोगलवंशी, चेगलवंशी, पाण्डवंशी, कोदम्बवंशी, होय्यबलवंशी, गंगवंशी, और आन्ध्रवंशी राजा महाराजाओं, सेनापतियों, दीवानों तथा अन्य बीरात्माओं के जीवन पर प्रकाश डाला है। महापुरुषों की जीवनगाथाएं समाज का सार होती हैं। उनके त्याग और वीरता की कहानी पढ़ते हर किसीके खून में उबाल आ जाता है। जो बातें लम्बे चौडे भाषणों से हमें नहीं मिलती वह अपने आप सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करनेवाली व पुरुषार्थी बनने आदिके लिये प्रेरणा जीवनियोंसे मिल जाती है। यह देश महिलाओंका भी सदा सम्मान करता था, वह अबला नहीं सबला थीं, उनकी शक्ति बाबूजी के शब्दों में सुनिए - For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) "केवळ पुरुष ही थे न वे जिनका जगतमें गव था । गृहदेवियां भी थीं हमारी देवियां सर्वथा ॥" अबला जन्मोंका आत्मबल, संसार में वह था नया । चाहा उन्होंने तो अधिक क्या, रवि उदय ही रुक गया । अन्तमें सच्चे वीरके स्वरूपको बताते हुये प्रेरणा लेनेकी आज्ञा प्रदान की है। वीर वह है जिसके हृदयमें दया हो, धर्म हो । पापियोंके सख्त, निर्दोषोंके हकमें नर्म हो! कष्ट हो, दुख हो, न बहु लेश्चिन भलाईसे फिरे । जखम खाकर भी न मुंह, उसका लड़ाईसे फिरे ।। दिगम्बर मुनि नवम्बर सन् १८३१ में प्रकाशित होनेवाली "दिगम्बर मुनि" नामक ३२ पृष्ठीय पुस्तक वाबूजो द्वारा रचित है। भूमिकामें प्रो० घासाराम जैन विकटोरिया कालेज ग्वालियरने पुस्तक लिखनेके उद्देश्य तथा समाजकी आवश्यकताको स्पष्ट कर दिया है। "कालदोषसे सर्वसाधारण लोग नग्नताके महत्वको भूल बैठे हैं। और इस कारणसे परम पवित्र, अन्तरंग व बाह्य विकारशून्य, निष्परिग्रही मोक्षमार्गके साधक, दिगम्बर मुनियों के विचरनेमें लोगोंके द्वारा रुकावटें डाले जाने की चेष्टा हो रही है। इस छोटीसी पुस्तकमें लेखक महोदयने बड़े परिश्रमसे प्रमाण एकत्रित कर यह सिद्ध कर दिया है कि सभी धर्मों के धर्म-ग्रन्थ नग्न अवस्थाको आदर्श मानते आ रहे हैं और इसी कारणसे प्राचीन इतिहासकाळसे लेकर आजपर्यंत किसी भी शासन के राज्यमें दिगम्बर मुनियोंके बिहार में कोई बाधा नहीं डाली गई।" दिगम्बर मुनि अपनी प्राकृतिक वेषभूषामें रहते हैं, जन्मके For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) समय सभी नग्न रहते हैं, यह प्रारम्भिक स्थिति मानवकी आदर्श और परमहंस स्थिति है। वास्तविक जीवन जीने की कला यदि किमीको आती है तो वे दिगम्बर मुनि ही हैं। जिसकी दिशाएं ही स्वयं अम्बर वन होती हैं वही तो दिगम्बर मुनि कहलाते हैं । इस प्रकार दिगम्बर शब्दकी व्याख्या, और परिभाषा तो प्रारंभमें ही कर दी गई है। अपरिग्रही जीवन ही सबसे बड़ा जीवन माना जाता है जिसके दर्शन इन मुनियों में सबको मिलते हैं। सच्चे साधू के विषयमें बाबूजीने कहा है-"दिगम्बर रूप सरलताकी पराकाष्ठा है। उसमें दिखावट नामको नहीं है। जो कुछ है सो वास्तविक-निखर सत्य ! और एक साधुको बिल्कुल सच्चा होना ही चाहिये । भीतर बाहर जब यह एकसा होगा तब ही वह साधु एकसा हो सकता है." ___ मुनियोंके वस्त्रहीन रहने की आवश्यकता पर बल देते हुये लन्दनके अजायबर घरमें खुले आम युवतियों को नंगे चित्र खोंचने, माताकी गोदी में बालकका नंगा पड़ा रहने, निर्वाणकी प्राप्ति करने श्रीमद्भागवत (स्कन्ध ५ अध्याय ५) में ऋषभदेवको केश खोल उन्मत्तकी भांति नग्न होने, हिन्दुओंके कापालिका नागा साधु भृतहरिके 'वैराग्य शतक में 'दशो दिशाएं जिनके बल हैं' को धन्य मानने, प्राचीन भारत के आजीविक सम्प्रदायके साधुओंको नग्न रहने, बौद्धोंमें नंगे साधु होने, अधीसिनिया और वैक्ट्रियामें नंगे साधु मिलने, मिश्र और यूनानमें नंगी मूर्तियां मिलने, मुहम्मद साहबसे पूर्व काबाकी नंगे प्रदक्षिणा करने, ईसाई धर्ममें प्रभु द्वारा अभोजके लड़केको नंगे रहनेका आदेश देने, मिश्रदेशकी सुन्दरी सेंट मेरीके नंगे रहने और यहूदी धर्म ग्रंथों आदिकी अनेक तर्क संगत विवेचनाएं भ्रम निवारणके लिये रखी हैं। मौर्य साम्राज्य, सिकन्दर महान, यवन राजा, नन्दराजा, For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) मम्राट खारवेल, गुप्तकाल, सम्राट हर्ष, गजा भोज, सिद्धराज जयसिंह, सम्राट अमोघवर्ष, शेग्शाह, अकबर, औरंगजेब आदि अनेक राज्यकालोंमें दिगम्बर मुनियों को विहार करते हुए देखा गया है । यह कोई नई चीज नहीं है, बाबूजीने इसीमें लिखा है, "दिगम्बर जैन मुनियों का सर्वत्र विहार करना धर्म और कानून सब ही तरह से उचित है। उस पर किसीको आपत्ति हो ही नहीं सकती। अज्ञात कालसे भारत में जन जैन साधु होते आये हैं, और आज भी वह इस पवित्र भूमिको अपने दिव्य भेष और पुण्य चरित्रसे अलंकृत कर रहे हैं। यह इस देशका सौभाग्य है" भगवान महावीरका समय इस ३२ पृष्ठीय पुस्तकका लेखन कार्य जुलाई १९३२ में हुआ । भगवान महावीरके निर्वाण सम्बत के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद था। वैसे अनेक विद्वानोंने इस समस्या पर अपने अपने विचार शोधके आधार पर प्रपट किये । उनका अध्ययन कर तथा इस सम्बन्धमें और खोज बीनकर वीर निर्वाण सम्बतका शुद्ध रूप समाजके सामने रखा। महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर का समकालीनता तथा विद्वानोंके विचारोंसे जन्मसे लेकर मृत्यु तकके सभी पहलूओं पर संक्षिप्त में प्रकाश तो डाला ही है पर साथ ही यह भी नहीं भुलाया गया है कि भगवान महावीरका समय कौनसा है ? विभिन्न शास्त्रों, डॉ. जैकोबी, ग्रो० जाल चान्टियर और श्री देवसेनाचार्य जैसे बोसियों विद्वानों के साहित्यांचलसे समयकी पुष्टि करनेका भरसक प्रयास किया है। ___ डॉ० साहबने सभी मतों पर विचार करते हुये यही लिखा है " जैन समाजमें एक थोड़े समयसे ही उनका निर्वाण ई० पूर्वे ५२७ में हुमा माननेका रिवाज चल पड़ा है वैसे इस विषयमें For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) जैनोंके पूर्ववर्ती विभिन्न मत मिलते हैं। और उनमें से प्रायः सबका हो ठीक ठीक विचार इस निबंध में किया जा चुका है और तब एक निश्चित मत इस विषयमें निर्धारित किया गया है अर्थात भगवान महावीरका निर्वाण ई० पूर्व ५४५ में हुला था।" दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि सन् १९३२ में प्रकाशित ३२० पृष्ठको पुस्तक "दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि" बाबू कामताप्रसादजोकी रचित है। इति. हाससे प्रेम रखनेवाले बाबूजीने समयकी पुकारको सुनकर दिग. बरत्व पर थोड़े ही समयमें एक बड़ीसी पुस्तक लिख डाली। धर्म भावनासे प्रेरणा लेकर सत्य के चारार्थ सभी धर्मों के लिये, चाहे वे हिन्दू, मुसलमान, सिख और ईमाई क्यों न हो, रची गई। इसकी उपयोगिताकी कसौटी भी यह निर्धारित की गई। "सब ही प्रकार के लोग उसे पढ़ें और अपनी बुद्धिको तराजू पर उम तौलें और फिर देखें दिगम्बरस्व मनुष्य समाजकी भलाई के लिये कितनी जरूरी और उपयोगी चीज है।" . इस पुस्तके सम्बन्धमे श्री राजेन्द्रकुमार जैन न्यायतीर्थका कार इस प्रकार - "दिगम्बरबके समर्थन में प्रस्तुत पुस्तकमें प्रचोनमे प्रवीन शाहों के लेखों एवं शिलालेख और विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरणों में से कुछ शब्दों का संग्रह भी बड़ी ही गम्भीर खोजके साथ किया गया है, दिगम्बरत्व सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक मत्य है। अतएव वह सवतंत्र सिद्धान्त भी है, इसका स्पष्टीकरण भी हमारे सुयोग्य लेखकने महत्वके साथ किया है।" बाप स्वयं ही विचार करिए कि १०६ पुस्तकों के अध्ययनके बाद लिखा गया यह अन्य किसना महत्वपूर्ण होगा ? प्रकृतिने For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) धर्मके रूपमें मनुष्यको अच्छी पोशाक देही दी है। फिर प्रकृतिसे निकटरूप जितना जीवन व्यतीत किया जाता है, सुख शांति भी प्राप्त होती है। फिर कपड़े पहनकर अपने दुराचारको छिपाया भी तो जा सकता है। दिगम्बरत्वमें सदाचारकी अधिक मात्रा. आरोग्यका पोषण, साधु प्रकृतिको अनुरूपता, परमोपादेय धर्म, त्याग वृत्ति, ममताकी उपेक्षा, आत्मोतिकी पराकाष्ठा, मोक्षमार्गकी प्राप्ति, और पुद्गल के संसर्गसे मुक्ति होने जैसी अनेक बातोंका समावेश होता है। श्री ऋषभदेवको दिगम्बरत्वका प्रथम उपदेशक माना जाता है। इन्हें योगी कल्पतरु और महायशस्वी भगवानके रूपमें माना जाता है। हिन्दू धर्मके वेद तथा उपनिषद जो पुरातन ग्रन्थ हैं, में तो दिगम्बरवका वर्णन मिलता है । जाबानोपनिषत्, परमहंसोपनिषत् , भिक्षुकोपनिषत् , दत्तात्रयापनिषत् , और याज्ञवल्क्यो . पनिषद् आदिके उन्दर्मोंसे अपनी बातकी पुष्टि की है। मुगलशासक औरंगजेबके समयमें फ्रांससे आनेवाले डॉ. बनियरने नंगे हिन्दू सन्यासियोंको देखा था, सन् १६२३ में आनेवाले विदेशी यात्री पिटरडेल्ला वॉल्लाने भी अहमदाबाद में साबरमतीके किनारे अनेक नागा साधुओंके दर्शन किये थे। जलालुद्दोनके 'महलबी ग्रन्थ' तथा यहूदियों की पुस्तक Ascensioh of Isaian, से भी दिगम्बरत्वकी झलक मिलती है। दिगम्बर मुनिक २८ गुणों विभिन्न नामों, अतीतकाल में दिगम्बर मुनियोंको स्थिति, भगवान महावीरके समकालीन दिगम्बर मुनि, आदिका विस्तार में हल्लेख किया है। आपने नन्द साम्राज्य, मौय सम्राट, सिकन्दर महान, संग राजवंश, राजा मनेन्द्र कलिंग, नृा ऐल खारवेल, गुप्त साम्राज्य, हर्षवर्धन परमार राजा, राजाभोज, गुजरात के शासक, चन्देल राज्यमें दिगम्बर मुनियों की जो स्थिति रही है उसको भी भ्रमित जनताके सामने खोज करके For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) रखा है। भारतीय संस्कृत साहित्य में जिन दिगम्बर मुनियों की चर्चा है उनके नाम भी गिनाए गये हैं । अंग्रेजों के शासनकाल में जितने दिगम्बर संघके तथा उनके अन्तर्गत विहार करनेवाले सभी मुनियोंका वर्णन किया है जो भारतभर में भ्रमण करते थे । इन मुनियों चातुर्मास, निवासस्थान, तथा नाम बगैरहका भी पता लगता है। और धर्मको लेकर जो मुकद्दमेबाजों होतो रही हैं, उनके निर्णयों की प्रतिलिपियां भी हैं। आजके युग में पूज्य बापू, श्री बफोर्ड, स्विटजरलैंड के निवासी डा० रोडियर, बंगाली विद्वान बरदकान्त, महाराष्ट्रीय विद्वान श्री वासुदेव गोबिन्द आप्टे, आदिके उच्च श्रेणीके विचार भी देखनेको मिलते हैं। सहज तया अनुमान लगाना कठिन है कि कितने परिश्रमसे इस ग्रन्थ की रचना हुई है । भगवान महावीरकी अहिंसा और भारत के राज्यों पर उसका प्रभाव मई १९३३ में प्रकाशित ६० पृष्ठीय यह पुस्तक बाबूजी द्वारा रचित है। जिसमें भगवान महावीरकी अहिंसाका विभिन्न राज्योंपर जो प्रभाव पड़ा है उसका वर्णन किया गया है। देशके अनेक लोग यह कहते सुने जाते हैं कि जैन धर्म अथवा बौद्ध धर्म के आगमन से देश में शिथिलता बढ़ने लगी तथा ढोगों में कायरताका श्री गणेश हुआ, पर यह बात पूरी तरहसे निरस्वार है. इसी बात को बाबूजीने इस पुस्तक में सिद्ध किया है। पुस्तक के सम्बन्ध में साहित्याचार्य पं विश्वेश्वरनाथ ही रेड, प्रोफेसर जसवन्त कालेज जोधपुरने भूमिका में लिखा है " श्रीयुन कामताप्रसाद जैनने जैन शास्त्रोंके अवतरण देकर कनक मनाक भावों पर ही हिंसा या अहिंसाको उत्पत्ति सिद्ध का है। साथ ही आपने ऐतिहासिक उदाहरण उपस्थित कर देश और आत्म इस For Personal & Private Use Only O Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) रक्षा आदिके लिये रागद्वेष पर्जित युद्ध तकको धर्म बतलाया है......यह पुस्तक प्रत्येक भारतवासीके, चाहे वह जैन हो या जैनेतर पठन और मनन करनेयोग्य है।" भगवान महावीर और अहिंसाका तो घनिष्ठ सम्बन्ध था पर इनसे भी पूर्व देशमें अहिंसाका साम्राज्य था। गोता, यजुर्वेद, उत्तरपुराण, महाभारत, शतपथ ब्राह्मग, मनुस्मृति, बौद्ध शास्त्र सुत्तनिपात, प्रश्नोपनिषद, मुण्डोकोपनिषद, कठोपनिषद और जैन अन्थोंके आधार पर पूर्वमें अहिंसाके वातावरणको बताया है। आजीबिक सम्प्रदाय, जो ज्योतिषशास्त्र के आधार पर अपनी आजीविका चलाता था,में भी पूरी तरहसे, अहिंसाका बोलबाला देखने में मिलता है। महात्मा बुद्धने भी अहिंसाका प्रचार किया। मौर्य साम्राज्यमें भी अहिंसाका बोलबाला था, मौर्य साम्राज्य के बाद भी अहिंसक वीरों में प्रमुख कलिंग सम्राट, ऐल खारवेल, विक्रमादित्य. कुमारपाल, मोघवर्ष आदि हैं जिन्होंने अपने शासन कालमें अहिंसा तत्वका विस्तार किया। मुगल सम्राट अकबर तक जैनधर्मसे प्रभावित हो गया था, और शासकीय विशेष आज्ञापत्र निकाल कर जीव हत्या बन्द करा दी थी। डाक्टर साहबने भगवान महाबोर की अहिंसाको लोकोपकारी बताते हुवे कहा है-"यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भ० महावीरकी अहिंसा लोक हितकारी है, जीव मात्र उसके आलोकमें आकर सुख शांति को पा सकता है। स्थायी सुख और अमर जीवन इस अहिंसा पालनका सुमधुर फल है। आओ उसको अभ्यर्थना करने का संकल्प कर लें और याद रखें कि लोकहितका अहिंसासे बढ़कर और कोई साधन नहीं है।" For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) पञ्च रत्न सन् १९३३ में प्रकाशित यह ६२ पृष्ठीय पुस्तक “पश्च रत्न" सम्राट श्रेणिक बिंबसार, सम्राट महानन्द, कुरुम्बाधीश्वर, नृप बिज्जलदेव, और सेनापति वैचप्प कहानीके रूपमें है। इसमें सरल भाषामें कथाएं लिखी गई हैं, ताकि छोटे छोटे बच्चे भी इन कहानियोंसे प्रेरणा प्राप्त कर सकें। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्रकुमारके शब्दोंमें भोजन के लिए जो नमकका महत्व है वही जीवन में कहानियों का महत्व है। इसके साथ ही बाबूजीके उद्योगको सत् तथा खासा सफल भी बताया है। इसमें लिखी गई कहानियाँ कोई कल्पनापर ही निर्भर नहीं हैं वरन् ऐतिहासिक तत्वोंको आधार मानकर अपनो भाषामें सबके लिए उपयोगी बनाया है। इन कहानियोंके सम्बन्धमे स्वयं बाबूजीने अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं "प्रस्तुत कहानियाँ ऐतिहासिक घटनाओं का पल्लवित रूप है। उनसे जैन संघकी उदार समाज व्यवस्था और जैनोंके राष्ट्रीय हित कार्यका भी परिचय होता है। पाठक, उन्हें पढ़ें और उनसे अपने मूल्यमय जीवनको अनुप्राणित करें।" सच्चा साम्यवाद और सच्चे साम्यवादी भगवान महावीर यह १० पृष्ठकी छोटीसी पुस्तक है फिर भी थोड़े बहुत कहनेवाली बात चरितार्थ होती है । आज व्यवहारमें जो साम्यवाद है उसे सफल हुआ कैसे कहा जावे ? यह समझमें नहीं आता। भौतिकवादके स्थान पर आध्यात्मवादकी दृष्टिसे साम्यवाद अावश्यक दिखाई पड़ती है और सम्भव भी जान पड़ती है। व्यक्ति बाहरसे भले मासमान हो पर अन्दरसे उनमें समानता For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अन्ध विश्वास और गन्दी बालोचनाको त्यागकर वास्तविक भारतीय साम्यवाद की ओर बढ़ना आवश्यक भी है और कर्तव्य भी। श्री अनन्तप्रसाद जैनने इसकी वास्तविकताको समझकर कहा है "उस आध्यात्मिक साम्यवादको जिसे ढाई हजार वर्ष पहले भगवान महावीर ने प्रकाशित किया, विद्वान मनस्वी लेखकने बड़ी पांडित्यपूर्ण गति पर सीधेसादे और सच्चे रूपमें हमारे सामने अपने इस लेख में बड़ी उत्तमताके साथ उपस्थित किया है जिसे मनन करना और आचरणमें लाना हमारा धर्म है " बाबूजीने भगवान महावीरको सच्चा साम्यवादी बताया है। पशु हों या मनुष्य सभी तो सामाजिक प्राणोके रूपमें हमारे सामने आते हैं फिर स्वयं जीवित रहने और दूसरोंको जीनेमें जात प्राकृत धर्मने अन्तर्गत ही आती है । आपने स्पष्ट हो बताया है कि आज जिस साम्यवादको चर्चा सुनते हैं उसका बाह्यरूप तो बड़ा सुन्दर है पर व्यवहार में जब उसे प्रयोगमें लाते हैं तभी उसका रूप बिगड़ जाता है। पर कर्मसिद्धान्तका जो अटल नियम पुराने समयसे चला आ रहा है उसे किस तरह समाप्त किया जा सकता है। कार्लमार्क्सने धर्मको अफीमका नशा बताया था उसका वास्तविक अर्थ, तथा व्याख्या भी की गई है। मार्क्सने अपने साम्यवादको केवल मानव तक सीमित रखा व जैन धर्म उससे भी आगे बढ़कर प्राणी मात्रमें समताको भावनाके दर्शन करता है। कालमार्क्सवाद भौतिकवाद तथा हिंसा और खून में विश्वास करता है। बाबूजीने स्पष्ट ही कह दिया है " यह ध्रव सत्य है कि महिमा और सत्यका आश्रय लिये बिना वे लोकमें समता, सुख और शांति स्थापित नहीं कर सकते।" तीर्थरों की विभिन्न शिक्षाएं, उनके जीवनके आदर्श तथा भावनिक ग्राम्यबादको सामने रखा है। अपने देश बार्श For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) साम्यवादको छोड़कर बिदेशियोंके साम्यवादको अपनानेकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। कार्लमाक्सके साम्यवाद पर भारतीय साम्यवादका रंग चढ़ावें तो कुछ कारगत होसकता है। लेखकने राजकीय सहयोगकी भी आवश्यकता अनुभव को है सारे समाजको बहकनेसे बचानेके लिये यह करना होगा, "सबसे पहला कदम राज्यको यह उठाना उचित है कि हमारी शिक्षा पद्धति इस माध्यात्मिक साम्यवादके ऊपर निर्धारित की जावे । देशमें ठौर ठौर पर अहिंसा और सत्यकी व्यवहारिक शिक्षा देने की व्यवस्था हो, तभी यह देश सुखी और लोक सुखी हो सकेगा" वीर पाठावलि सन् १९३५ में यह १२७ पृष्ठीय पुस्तक लिखी गई। इसमें १७ लेख व ऐतिहासिक जीवन गाथाएं हैं। पूर्वजों की गाथाओंको बिना सामने रखे वास्तविक रूपसे मूल्यांकन नहीं हो सकता। इस लिए इस पुस्तकमें धर्म भावना और विभिन्न महापुरुषों के यशस्वी जीवनका दिग्दर्शन इतिहासके आलोकसे कराया है। भगवान ऋषभदेव और सम्राट भरत, श्रीराम और लक्ष्मण, श्री कृष्ण और अरिष्टनेमि, भगवान पार्श्वनाथ, भगवान महावीर, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त, सम्राट ऐल खारवेल, बीर संघको बिदूषियां, भगवान कुन्दकुन्दाचार्य, आचार्य-प्रवर उमास्वाति, स्वामी संमतभद्राचार्य और बीर मार्तण्ड चामुण्यगय, तथा श्री महाकलंकदेवका जीवन परिचय तथा प्रभावोत्पादक घटनाओंको समझाकर प्रेरणा उत्पन्न की है। धर्म और वीरता अहिंसा और सैनिक धर्म और पंथ तथा धैर्य नामक चार लेख हैं जिनमेंसे दो लेख 'धर्म और पंथ' तथा 'धैर्य' अन्य स्थानसे उद्धत किये हैं। मात्मविश्वासकी मावश्यकता, दुर्गपनायें सताने पर कार्य में For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) जुट जाने, धर्मकी बीभाषा, धर्मका पालन करने, वीर बनकर उद्योग करने, धर्मको रक्षा करने, हिंसा व अहिंसामें भेद, और वर्तमान कतैव्यके बारेमें भलीभांति समझाया है ताकि कमसे कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी अच्छाइयोंको आत्मसात कर सके। दुर्वासनाओंको जीतते हुवे जीवनके साध्यकी ओर बढ़ने की सलाह कितने सुन्दर शब्दों में दी गई है-"ज्यों ही आपको दुर्वासनाएं सताये त्यों ही सत्कायमें लग जाइये । ऐसा न करेंगे तो दुर्वासनाएं आपके जीवनको निकम्मा करके अन्त में नष्ट कर डालेंगी। अनादिकालसे संसार-वारिधिके विविध विक्राल विपत्ति भावों में चक्कर खाते खाते बडो कठिनाईसे प्राप्त मनुष्य जीवनरूपी चिन्तामणिको फिर दुर्वासना सागर में फिर फेंक देना क्या बुद्धिमता है ? यही बन मूर्खता है और सचमुच ऐसा ही है तो आप मूर्खताके मार्गमें गमन न कीजिये ।" पतितोद्धारक जैन धर्म सन् १९३६ में पं० जुगलकिशोरजो मुख्तारको यह देखकर बड़ा दुःख हुआ कि लोग जाति और कुलको विशेष महत्व दे रहे हैं। जीव तो एक विश्रामगृह या धर्मशालाके समान होता है, बह तो उच्च और निम्न सभी कुलोंमें चक्कर लगाता रहता है पर साधारण जनता इस ओर सोचती ही नहीं। इसलिये मुख्तार साहवने जैन धर्मके पतितोद्धारक स्वरूपको प्रकट करनेके लिए ग्रंथ लिखने हेतु पुरस्कारको योजना रखी। पर आश्चर्य तो यह कि बाबूजीके अतिरिक्त और कोई रचना ही नहीं आयी। और शीघ्र ही यह पुस्तक २०४ पृष्ठोंकी प्रकाशित हुई। इस पुस्तकमें बताया गया है कि महानसे महान पतितों और पापियोंका मी जैनधर्मके माध्यमसे उद्धार किया जा सकता For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) है। जातिके स्थान पर योग्यताको विशेष महत्व दिया गया है। किसी भी जातिका कोई भी व्यक्ति हो धर्मकी ओर बढ़कर अपना कल्याण कर सकता है। शुरूमें तो जैनधर्मकी उदारताका बखान किया है और बादको विभिन्न बीस कथाएं उद्धारसे संबंधित दी गई हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि किस तरहसे पतितोंका उद्धार किया जाता है। अधिकतर कथाएं जैनधर्मसे ही सम्बन्धित हैं। धर्मको सार्वभौमिकता और धर्मके स्वरूपको स्पष्ट करते हुवे पाठकोंको बताया है कि जैनधर्म पतितोद्धारक भी है। चारित्रभ्रष्ट तथा शूद व्यक्तियों के लिये जो धर्मकी व्यवस्था है उसको भी सामने रखा है। मिरे हुओंको उठानेके सम्बन्ध में पं० गोपालदासजीका विचार, अथर्ववेद, पद्मपुराण, मझिमनिकाय, थेरीगाथा, मिलिन्दपण्ह आदि साहित्यके अंचलसे पुष्टि की है। यमपाल चाण्डाल, शहीद चण्ड चाण्डाल, चाण्डाली दुर्गन्धा, हरिकेश बल, सुनार और साधु मेतार्य, मुनि भगदत्त, माली सोमदत्त और अंजनचोर, कार्तिकेय, कर्ण तथा धर्मात्मा शूदा कन्याओं की कहानियाँ हैं जिनसे यह स्पष्ट झलक मिलती है कि उनका जीवन परिवर्तित कैसे हुआ ? पशुतासे मानवताकी ओर उनके चरण कैसे बढ़ सके ? पाप पंकसे निकलकर धमकी गोदमें बैठनेवाले अन्य ५ ब्यक्तियों की कथाएं भी मौजूद हैं जिनके नाम चिलाती पुत्र, ऋषि शैलक, राजर्षि मधु, श्री गुप्त, और चिलाती कुमार है। उपाली, वेमना, चामेक वेश्या, रैदास और कबीरका जीवन भी साधारण स्थितिसे उच्च शिखरकी ओर बढ़ते हुये देखा गया है। जिसने धर्मकी शरण ली, अध्यात्मके रसका पान किया वह क्यासे क्या बन गया। जाति, कुल, वर्ण आदिको पछता ही कौन है ? ईश्वरकी उपासना करनेवाला अन्तमें उसे ही प्राप्त होता For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) है। जैसे जैसे अच्छे गुणों को अपनाने की प्रेरणा दी जावे तो बुरेसे बुरे मनुष्यके जीवनमें परिवर्तन देख सकते हैं। इसी बातकी सार्थकता विभिन्न कहानियों, लेखों, विचारकों और ग्रन्थोंके माध्यमसे बताई हैं। सार रूपमें हम इस तरह कह सकते हैं " मनुष्य मात्रका यह धर्म होना चाहिये कि यह जीव मात्रको आत्मोन्नति करनेका अबसर सहायता और सुविधा प्रदान करे-किसीसे भी विरोध न करे। विश्वप्रेमका मुल मन्त्र ही जगदोद्धारक है। निसन्देह अहिंसा ही परम धर्म है : ” इस ग्रन्थको सर्वप्रिय बननेका श्रेय श्री मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने जैन साहबकी प्रशस्त लेखनीको ही दिया है। पुस्तकके मुखपृष्ठ पर अंकित पद्यकी चार पंक्तियां भी विशेष प्रभावशाली जान पड़ती हैं ऊंचा उदार पावन, सुख शान्ति पूर्ण धारा यह धर्म वृक्ष सबका, निजका नहीं तुम्हारा ।। रोको न तुम किसीको, छायामें बैठने दो। कुल जाति कोई भी हो, संताप मेटने दो ।। सा For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग सन् १९४३ में बाबूजी द्वारा १३७ पृष्ठकी पुस्तक लिखी गई । बाबूजी सुप्रसिद्ध जैन ऐतिहासिज्ञके रूपमें हमारे सामने रहे हैं। आपने जो कुछ भी साहित्य और समाजकी सेवा की है उसमें पूरी तरह से निस्वार्थं वृत्तिके दर्शन होते हैं। जिस तरहसे किसी व्यक्ति के सम्मान के लिए उसके प्रारम्भिक जीवनकी घटनाओंको जानने की उत्सुकता रहती है उसी प्रकार देश, समाज अथवा धर्मकी महत्ता और सम्मान उसके इतिहासपर निर्भर रहता है । जैन धर्म के सच्चे इतिहासकी कमी के कारण विभिन्न प्रकार के भ्रम फैले हुये थे, और किसी मात्रा में आज भी फैले हैं। इन भ्रमपूर्ण कल्पनाओं को दूर करके जैन धर्मका सच्चा गौरव संसार में बढ़ाने की इच्छा से ही इतिहास लिखनेकी आवश्यकता पड़ी। इतिहास की घटनाओंको सत्यताकी कसौटीपर कसने के लिए विभिन्न शिलालेख, मुद्रायें, ताम्रपत्र, पुरातत्व सम्बन्धी खण्डहर, और इतिहासकारों के अमूल्य ग्रन्थोंकी आवश्यकता पड़ती है। विद्वान लेखकने बड़े ही परिश्रम से समस्त सामग्रीका उपयोग करके महत्वपूर्ण बनाया है । साथ ही अपने श्रमकी सार्थकता इसी में समझी गई है कि लोग इस इतिहास से लाभ उठावें । जैनधर्मकी ऐतिहासिक प्राचीनता, ऐतिहासिककालके पहिले जैनधर्म, जैनी भारतके मूल निवासी, जैनियोंका आर्य होना, वेदों में यज्ञ विषयक चर्चा, वेदोंमें गुप्त भाषा के व्यवहार के कारण, आर्य और अनार्यका अन्तर, भारतकी जातियां, भाषाएं, धर्म, आदि अनेक प्रश्नोंका समाधान किया गया है। इतिहासकी आवश्यकता क्यों पडती है ? जैन इतिहास के आधार क्या है ? जैन मृगो में भारतवर्षका क्या स्थान है ? प्राचीन प्रदेश ओर नगर कौनसे हैं ? ऐसे अनेक प्रश्न व्यक्तियोंके मन में उठते हैं For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) उन सबके उत्तर इस पुस्तकमें मिल जाते हैं। भगवान ऋषभदेवके अतिरिक्त अन्य सभी तीर्थंकरोंका संक्षिप्त जीवन भी पढ़नेको मिलता है। उनके जन्मस्थान, परिवारिक परिचय, समाजमें स्थान और साधनात्मक तक परिचय भी साथ ही दिया गया है। ___ जैनधर्मके सातों तत्त्वों जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्षका विस्तृत वर्णन किया गया है। आवागमनके छुटकारेके कौनसे साधन हैं ? आवागमन में देव, नरक, मनुष्य और तियचति होती हैं उनका सम्बन्ध भी स्थापित किया है। भगवान ऋषभ द्वारा विरक्त नरनारियोंके लिये जो साधु संघकी व्यवस्था की थी उसमें चार संघ रखे अर्थात् मुनि संघ, आर्यिका संघ, श्रावक संघ और श्राविका संघ । इन संघोंकी आवश्यकता तथा सिद्धान्त व नियमों का वर्णन भी किया गया है। जैन इतिहास इस पुस्तकके १०० पृष्ठ के लगभग रिप्रिन्टम ही देखनेको मिल सके, इसमें इतिहासकी आवश्यकता, आधुनिक इतिहासकारोंकी दृष्टिमें जैनधर्म और जैन परंपराकी प्रमाणिकताके सम्बन्धमें सैंकडों ग्रन्थोंके स्वाध्यायका सार देखने को मिलता है। कृषिकालको कर्मभूमिका प्रारम्भ बताते हुये समाजवादी रीतिके संस्थापक भ० वृषभदेवको कृषि विज्ञानके आविष्कर्ताके रूपमें समाजके सामने रखा है। ये आत्मज्ञान प्रणेता प्रथम योगी तथा सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमात्मा हे रहैं, इसलिये उनके उपदेश, बिहार, निर्वाण, स्मारक प्रतीक आदि सभीका विस्तृत वर्णन किया है। शिवरात्रिको भगवान वृषभदेवके निर्वाणका प्रतीक माना है। जिनसेनाचार्यने तो उन्हें शिवरूप में मानकर ही स्तुति की है : त्वं ब्रह्मा परम ज्योतिस्तवं प्रभूष्णु रजोऽरजाः । स्वमादिदेवो देनानाम् अधिदेवो महेश्वरः॥ वृष है। ये आत्मज्ञालये उनके उपदेश, है । शिवरा For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) अर्थात-हे वृषभदेव ! आप ब्रह्मा है, परम ज्योति स्वरूप हैं, समर्थ हैं, पाप रहित हैं, मुख्य देव अर्थात् प्रथम तीर्थकर हैं, देवोंके भी अधिदेव और महेश्वर हैं। __ ऋषभदेवकी प्राचीनता पर शङ्का की जा सकती है। पर भारतीय गुरु परम्परानुसार गुरु अपने शिष्यको मौखिक ज्ञान सदैव देता आया है। इस वैज्ञानिक शैलोको ही बाबूजीने प्रमाणिक माना है। वैदिक आर्योंसे भी पहले ऋषभदेवका जन्म हुआ था हिन्दू पुराणों, बौद्ध ग्रन्थों और पुरातत्व के आधार पर ऋषभदेवका बिस्तृत वर्णन किया गया है। यूनान, सायप्रस, अलासिया, सीरिया, मोबियेत, अरमेनिया आदि देशोंमें भी ऋषभदेवको सम्मान प्राप्त हुआ था। तीर्थकर का अर्थ और इस नामकरणके कारणोंको भी स्पष्ट किया गया है। तीर्थंकरों की मान्यताको प्राचीन सिद्ध करते हुये विभिन्न शंकाओंका समाधान किया गया है। इस प्रकार महाभारत काल, द्राविण काल, जैन और बौद्ध काल, उत्तर जैन काल, और संक्रामक कालकी झाँकीका दिग्दर्शन कराया गया है। वाल्मीकि रामायणके आधारपर भगवान कृष्ण व लक्ष्मणको जैन व वैष्णव धर्मके आराध्य देव मानते हुये शिक्षाएं ग्रहण करने का भी अनुरोध किया है। राम और लक्ष्मणके बारेमें बाबूजीने लिखा भी है " गृष्मण दशामे ही भगवान रामबक्ष्मण और सीता एक आदर्श जैन चित्रित किये गये हैं। अपने अंतिम जीवनमें वह जैन जीवनके आदर्शके अनुरूप मुनिब्रत धारण कर के घोर तपश्चरण करते हैं-तीर्थंकरोंके समान ही बह भी ध्यानमें लीन होकर कर्मों को नष्ट करते और तुङ्गीगिरि पर्वतकी शिखिरसे सिद्धपदको पाते हैं। प्रत्येक जैन उनको सिद्ध परमात्मा मानकर पूजता है।" For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास बाबूजी द्वारा लिखित "हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास" प्रथम बार फरबरी सन् १९४७ में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तकसे पूर्व बिभिन्न कालोंका विभाजन किसोसे भी न बन पड़ा था। और न अपभ्रंश साहित्यमें होनेवाले क्रमिक परिवर्तनका उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं हुजा । इस लिये यह पुस्तक अपने ढंगकी प्रथम रचना ही कही जा सकती है। श्रीमान डॉ. वासुदेवशरणजी अग्रवाल एम० ए० डी० लिट्ने प्राक्कथनमें स्पष्ट लिखा है। हिन्दी भाषाका जो प्राचीन साहित्य विस्तार है उसके विषयमें बहुत सी नई सामग्रीका परिचय हमें इस पुस्तकके द्वारा प्राप्त होगा । अपभ्रंश-कालसे लेकर उन्नीसवीं शताब्दि तक जैन-धर्मानुयायी विद्वानोंने हिन्दी में जिस साहित्यको रचना की, लेखकने कालक्रमानुसार उसका संक्षिप्त परिचय इस पुस्तकमें दिया है। यद्यपि भिन्न भिन्न कचियों और काव्यों का मूल्य आंकने में उनके जो विचार हैं, उनसे पाठकों का भतभेद हो सकता है, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि दो दृष्टियोंसे यह नई सामग्रो बहुत ही उपयोगी हो सकती है। एक तो हिन्दीके शब्दभण्डारकी व्युत्पत्तियोंकी छानबीन करने के लिये और दूसरे साहित्यिक अभिप्रायों (मोरिफ) और वर्णनोंका इतिहास जानने के लिये।" हिन्दी साहित्य पर धीरे धीरे शोधकार्य करना प्रारम्भ किया जिसमें सफलता भी मिडी। घर पर अकेले होनेके कारण यह सम्भव न था कि दीर्घकालके लिये बाबूजी बाहर जाते। अतः जयपुर, दिल्ली, आगरा, इन्दौर आदि प्रमुख स्थानोंके पुस्तकालयोंसे पुस्तकें मंगवाकर सैकड़ोकी संख्यामें घर पर ही पढ़ी और इतिहास For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) तैयार किया । सन् १९४४ के प्रोष्मकार में श्री भारतीय विद्याभवन बम्बई द्वारा " सांस्कृतिक- निबन्ध प्रतियोगिता " की सूचना मिली । यद्यपि प्रतियोगिताका समय केवल चार माह ही शेष रह गया था फिर भी रात और दिन एक करके यह इतिहास तैयार कर लिया गया जिसमें २५० पृष्ठ हैं । यह पुस्तक निबन्ध परीक्षकों द्वारा केवल मान्य ही नहीं हुई वरन् रजतपदकका पुरस्कार भी दिया गया। बादको प्रकाशित हुई और अ० भा० दि० जैन परिषद परीक्षाबोर्ड, दिल्लीके पाठ्यक्रम में निर्धारित की गई। विक्रम संवत ७०० से लेखर १९०७ तकका संक्षिप्त जैन साहित्यका इतिहास देखनेको मिलता है। साहित्य श्रवज्ञानका दूसरा नाम बताया है क्योंकि मनुष्योंने जो ज्ञानार्जन किया, मनन किया, तथा मंथन किया है वह एक प्रकारका साहित्य दी है । प्रारम्भ से ही हमें साहित्यिक, परिमार्जित, मातृभाषा हिन्दी के दर्शन होते हैं " साहित्य सुन्दर सुखकर साकार ज्ञान है, इसीलिए साहित्य जीवन साफल्यका साधन है । उसमें मानव अनुभूतिके चमत्कृत संस्मरण सुरक्षित हैं, और जीवन-जागृतिकी ज्योति जाज्वल्यमान है । साहित्य मानबको सर्वतोभद्र, सर्वांगपूर्ण और सुखी स्वाधीन बनानेके लिये मुख्य साधन है । वह मुक्तिका सोपान है । " ऊपरकी थोड़ोसी पंक्तियोंमें किस अलंकारिक भाषाका प्रयोग किया गया है यह स्पष्ट ही है। 'स' कार 'ज' कारकी तो झड़ो मन्त्र मुग्ध कर देती है। विभिन्न जैन आचार्यों और विद्वानोंने जैन साहित्यकी जो सेवा की उसे हो इतिहास के रूपमें जाना जाता है। वैसे तो संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत, गुजराती, कनड़ी, तामिळ आदि अनेक भाषाओंमें साहित्यकी रचना हुई, पर इस पुस्तक में हिन्दी जैन साहित्यके ऐतिहासिक वर्णनको ही प्रधानता For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दी गई है। देशमें प्रकाशित होनेवाले हिन्दी साहित्यके अनेक ऐतिहासिक ग्रंथ देखने को मिल जाते हैं पर उसमें हिन्दी जैन साहित्यको छोड़ दिया है या साधारण का संकेत करके आगे बढ़ गये हैं। अथवा दो चार जैन कवियों के नाम देकर इतिहासकारने अपने कर्तव्यको इतिश्री मान ली है। __जैन साहित्यके साथ यह उपेक्ष वृत्ति डॉ० साहब सहन न सके। अतः साहित्यको परिपूर्ण बनानेके लिये जैन साहित्यके समावेशकी सम्मति प्रकट की गयी। "यह देखकर हमें आश्चर्य होता है कि हमारे हिन्दी इतिहास लेखक विविध हिन्दू सम्प्र. दायोंके कवियों और उनके साहित्यका उल्लेख करते हुये उनमें सम्प्रदायवादको गन्ध नहीं पाते, किन्तु जैन साहित्यमें उन्हें साम्प्रदायिकता नजर आती है। वे यह भूल जाते हैं कि हिन्दी साहित्यकी परिपूर्णता जैनियोंके हिन्दी साहित्यका समावेश किये बिना नहीं हो सकती।" ___ साहित्य जिस उद्देश्यको लेकर चलता है वह आत्मोद्धार ही प्रमुख रूपसे है। साहित्यके अध्ययनसे बुद्धिकी कुशलता रद जावे यह कोई प्रमुख वक्ष्य नहीं है। हां, इसे गौणरूप प्रदान किया जा सकता है, क्योंकि जबतक अपनी आत्माका ज्ञान करानेवाला साहित्य न हुआ तबतक वह कलमकी कसा त मात्र ही रह सकती है। मुक्तिका संदेश देनेवाला साहित्य जेन साहित्य है। यहांसे भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है । बाबूजीने स्पष्ट ही कहा है कि, जैन साहित्यके अध्ययनसे व्यक्तिको अपने भाग्यका निर्माण स्वयं करनेका अवसर, स्वावलम्बनकी शिक्षा, स्वाधीन होकर जीने और दूसरों को जीने देने की हृदयको विशाल और उदार बनाने में सहायक साम्प्रदायिकताकी संकीर्ण गलीसे निकालनेका प्रयाग, अहिंसाभावको जागृति, प्रेम और सेवा जैसी For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) अनेक उच्च कोटिकी विचारधाराओं और शिक्षाओं की प्राप्ति होती है। हिन्दोके प्रथम महाकवि स्वयंभू जैन, जिन्होंने 'हरिवंश पुराण' तथा 'रामायण' की पुरातन हिन्दी में रचनाका विस्तृत वर्णन किया है। जैनियों के हिन्दी साहित्य पर जो यह आरोप लगाया जाता है कि इसमें शृङ्गाररसका वर्णन नहीं किया गया है। अरे भाई ! मेरे शृङ्गाररसका पान तो लोग बिना बताये करने लगते हैं। जैन साहित्य शान्त रससे लबाउब भरा है। भरा मी होना चाहिए क्योंकि मानव शान्तिका पिपासु होता है। सारे जीवनमें शान्तिको कामना ही किया करता है । साहित्य तो व्यक्तियों के विचारोंको परिवर्तन करनेवाला होता है। जब जैसे साहित्यका निर्माग हुआ तभी तो उस समय व्यक्तियोंका दिशाओं में परिवर्तन हुआ। मुगल साम्राज्यमें इश्कको कविताओंने गजपरिवागेका दिवाला निकाल दिया। उस समय अनेक हिन्दी कवि भी शृङ्गार के क्षेत्रमें कूदकर बाहवाही लूटने लगे। कवि भी समाजके माथ चले, कितना अच्छा होता यदि वे ममाजको अपने माथ लेकर चले होते। . श्री देवसन द्वारा रचित 'दर्शनसार' 'तत्वसार' और 'साबयधम्म दोहा', मुनि समविजी द्वारा रचित 'पाहुड दोहा', महाकवि धबलका हरिशपुराण'. मारहवीं शताब्दिके साहित्यकार पुष्पदन्त द्वारा रचित महापुराण' 'यशोधर चरित्र' और नागकुमार चरित्र, कवि धनपाल, मुनि श्रीचन्द्र, श्री हेमचन्द्र, कव लक्खन कृत अणुक्या यशपईव. मुनि यश कीर्ति प्रणीत कृत जगत्पुन्दरी प्रयोग माला, विनय चन्द्र कृत 'उबएममाला-कहाणय-छप्पय, कविवर विबुध श्रोधरकृत 'वडमाणचरिउ' भविष्यदत्त कथा, चन्द्रमचरित, शांति जिन चरित और श्रतावतार, श्वेताम्बर जैनाचार्य मेरुतुङ्ग विचित सिद्धचक्र, श्रीपाल कथा, कवि महाचन्द्र रचित For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) शान्तिनाथ चरित्र, राजमलका पिंगल शास्त्र, ज्ञानसागर द्वारा रचित चौबीस तीर्थंकरोंका गोत, आदि कवियों, लेखकों और उनकी साहित्यिक गति विधियोंका विस्तृत वर्णन छोटीसी पुस्तक में किया है । बाबूजीने इस इतना ही नहीं कवि या साहित्यकारका काल, रचनाएं, भाषा तथा उनकी कविताओंके उदाहरण भी दिये हैं । रचनाओंके 1 प्राप्त होनेका स्थान, उनके रखनेके स्थानों तकका वर्णन किया गया है । हेमविजय नामके एक अन्धे कवि व विद्वान हुये हैं, कई ग्रन्थों की रचना इनके द्वारा हुई है । नेमिनाथ तीर्थंकर की स्तुति करते हुवे हेमविजयजी कहते हैं । घनघोर घटा उनई जुनई, इततै उततैं चमकी बिजली । पियुरे पियुरे पपिहा बितलाती जु, मोर किंगार करंति मिठो ! बिच बिंदु परें हग आंसु झरें, दुनि धार अपार इसो निकली । मुनि हेमके साहिब देखनकू, उग्रसेन उलो सु अकेली चली || इस प्रकार से जिन कवियोंका उल्लेख किया है उनने उदाहरण भी मिल जाते हैं । कविता ही नहीं गद्य लेखकोंने जो प्रगति की है उसके अनेक प्रसंग भी १७ वीं शताब्दो से अब तक देखनेको मिलते हैं । कविवर बनारसीदास, मुनि वैराग्यसागर, जगदीश, दोपचन्द, ज्ञानानंद, धर्मदास, टोडरमल और जयचन्द्र आदि गद्य लेखकों की पंक्तियों और उनकी भाषाओंके नमूने मौजूद हैं। इस पुस्तक में केबल संक्षिप्त रूपसे यही कहा जा सकता है कि अत्यधिक शोध, अध्ययन व परिश्रम के बाद यह पुस्तक लिखी गई है। प्रत्येक पंक्ति बाबूजीकी विद्वत्ताका जोर जोर से बखान करती है। भारतीय ज्ञानपीठ काशीके सम्पादकने पुस्तक के प्रारंभ में निवेदन करते हुवे जो लिखा है उससे आप स्वयं ही पुस्तकका a For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) मूल्यांकन कर सकेंगे। उन्होंने लिखा है, "हिन्दी जैन साहित्यकार संक्षिप्त इतिहास, हिन्दी काव्य परंपराके सम्बन्धमें हमारी जान. कारीको कई गुना बढ़ा देनेवाली है।......इस पुस्तकमें आप पायेंगे कि कैसे अपभ्रंशके माध्यमके द्वारा जैन कवियोंने आजकी इस हिन्दीको अंकुरित किया और उस अंकुरको सींच-सौंचकर कैसे उन्होंने बात वृक्ष बना दिया ।" श्रावस्ती और उसके नरेश सुहल देवराय ८६ पृष्ठीय यह पुस्तक सन् १९५० में प्रकाशित हुई। इसमें बाबूजीने श्रावस्तीकी झांकी, उसके अवशेष, श्रमण संस्कृति, तथा राजवंशोंका वर्णन किया गया है। श्रावस्ती प्राचीन भारत के उन नगरों में से एक है जहाँ हिन्दू बौद्ध और जैन संस्कृतिका विकास हुआ। इसके आसपास जनरल कनिंघम, वेनेट, होप, फोगल, दयारामसहानी, मार्शल आदिने जो खुदाई करवाई, उससे प्राप्त होनेवाले विहार, स्तूप, मन्दिर, प्रतिमाएं, मूर्तियाँ, इंटे, मुहरें, ताम्रपत्र, सिके, लेख आदि प्राप्त हुये हैं जिनसे प्राप्त होनेवाली जानकारीका लेखक महोदयने लाभ उठाया। श्रावस्ती नामकरण होनेका कारण विभिन्न राजमार्गों तथा प्रसेनजित जैसे शासकका वर्णन भी पुस्तकमें मिलता है। श्री कृष्णदत्त बाजपेथी एम. ए. अध्यक्ष पुरातत्व संग्रहालय मथुगने इस पुस्तकके बारेमें अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं"इस महत्त्वपूर्ण नगरीके सम्बन्धमें श्री कामताप्रसादजी जैनने हिन्दीमें प्रस्तुत पुस्तक लिखकर एक कमीको दूर किया है । श्रावस्तीका संक्षिप्त क्रमबद्ध ऐतिहासिक वृतान्त देने के साथ बापने नगरी की स्थापना नामकरण आदि विषयों का भी विवेचन For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) किया है। इस नगरीके स्वनामधन्य राजा हिटदेवरायका शौर्यपूर्ण जीवनवृत्त भी दिया गया है। दुर्भाग्यसे इस शासकके सम्बंध में भारतीय साहित्यमें यथेष्ट विवरण उपलब्ध नहीं होता। __ जेन वीर सुहिलदेव विदेशी शासन चक्रको चलता न देख सके। सैयद सालारने जब देश पर आक्रमण किया तो सुहिलदेवको सहन न हुआ। वह अपने सभी भाइयोंको लेकर युद्ध क्षेत्र में जम गण। देश और धर्मकी रक्षाके लिये किया गया प्रण अत्याचारियों को निकालनेका पूर्ण हुआ, पर दुःखकी बात तो यह है कि ऐसे वीरोंका वर्णन इतिहासकारोंने छोड़ दिया। पर खोज खोजकर ऐसी घटनाओं का वर्णन बाबूजीने किया है ताकि वास्तविक स्थितिसे लोग परिचित हो सकें। बादमें राजा सुहिलदेवने शान्तिपूर्वक धर्म आराधना करते हुये राजकाज संभाला । उन दिनों साहित्यकी उन्नति, व्यापारिक विकास, आपत्तिविपत्ति, विभिन्न उत्पादित वस्तुओं, धार्मिक स्थिति, धनका सार्वजनिक संस्थाओंके लिये प्रयोग, तथा दुर्ग निर्माण जैसे कार्यों का वर्णन भी मिलता है। महेठ और महेठसे जो पुरातत्व सामग्री उपलब्ध हुई है उसकी सूची भी दी गई है। लेखक महोदय पुस्तक लिखनेका श्रम तभी सार्थक हुआ समझना चाहते हैं, जब लोग महिलदेवसे प्रेरणा लें। आह्वान करते हुये कहा है-"श्रावस्ती महान थी और उनके नरेश श्री सुहेलदेव भी महान वीर थे। उन्होंने हिन्दू भारतकी पतन होनेसे बचा लिया, वह हमेशा ही इतिहासमें देशभक्त समाजोद्धारकके रूपमें अमर रहेंगे।.........किन्तु सच्ची कृतज्ञता ज्ञापन तो उनके गुणोंको अपने जीवनमें उतार लेने में ही है। अतः आइए, संकल्प कीजिए कि आप वीरना सुहिलदेव सहश साहसी, बोर और धर्मदेश एवं जातिके संरक्षक और उद्धारक बनेंगे।" For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) भगवान महावीर भगवान महावीर नामक पुस्तक ३६६ पृष्ठकी लिखी गई उत्कृष्ठ पुस्तक है जो प्रथम बार सन् १९५१ में प्रकाशित हुई थी। इससे पूर्व भगवान महावीरका सम्पूण विस्तृत जीवनचरित्रका अभाव था, छुटपुट लेख तथा छोटा छोटा पुस्तकें मिलती अवश्य थी पर प्रमाणिक ग्रन्थकी कमी खटकनेवाली थी। डॉ० कामताप्रसाद जैनने आगे बढ़कर इस कार्यको अपने हाथमें लिया और आशासे अधिक सफलता प्राप्त हुई। जम्मसे लेकर अन्त तकका पूरा जीवन परिचय तो इसमें मिल ही जाता है फिर भी भगवान महावीरके जीवनको प्रमुख शिक्षाओंका विवेचन भी देखने को मिलता है। मानव और पशुमें प्रमुख अन्तर जो हमें दिखाई पड़ता है वह बुद्धि और विवेकका हो है। पशुका मानसिक स्तर निम्न श्रेणीका होता है वह अपनी ही सदैव सोचा करता है पर मनुष्य सोचने और विचारनेको शक्तिसे विभूषित होता है फिर क्यों न अपनी बुद्धिका सदुपयोग करे ? महावीरने अपने जीवन में प्रतिपलका ठीक ढंगसे उपयोग किया । इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना, उदारता, समयानुकूल परिवर्तनके लिये तैयार रहना, नारी हितको लोक-व्यापी बनाना, दृढ़ता और उद्देश्य सिद्धिके लिये एकाग्रता, क्रियावाद और अहिंसा जैसे अनेक गुण भगवानमें थे, इन गुणोंसे सीखनेकी प्रेरणा लेने पर बाबूजीने विशेष जोर दिया है। निस्संदेह भगवान महावीर लोककी एक महान विभूति थे। उन्होंने लोकके सम्मुख उसकी पूर्णताका आदर्श रक्खा । पूर्ण सुख मानवके भीतर हैउसके बाहर नहीं। उसका विकास इन्द्रिय निग्रहसे होता है। टके खर्च करके उसे कोई नहीं पा सकता न वह किसीकी खुशामदसे मिलता है। और न किसी बिरादरी या संबमें सम्मि For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) लित हो जाने से वह मिलता है। वस्तुतः स्वाबलम्बी बनकर - महावीर के समान जब साधना की जाती है तब सफलता के दर्शन होते हैं। तब मानव हृदय कषाय- कलुषतासे विमुक्त सुन्दर शुभ्र शुकु पक्ष के सदृश मोहक बन जाता है, वह सारी परता और -वत्ता भुला देता है । तीर्थंकर किसे कहते हैं ?, तत्कालीन परिस्थितियां, युवावस्था और गृहस्थ जीवन, वैराग्यकी भावना, योग साधना के लिये पर्यटन, धर्म प्रचार और भगवान के मोक्षलाभ जैसे अनेक उपयोगी स्थलों का सांगोपांग वर्णन किया है। उनके निर्मल चरित्रको झांकी तो प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित है ही, इसके अतिरिक्त जैन और बौद्ध धर्मके अन्तरको स्पष्ट किया है। बहुत से लोग जैन धर्मको ही बौद्ध धर्म समझते रहते या उसकी शाखा जाननेका जो भ्रम करते हैं उसका निवारण भी किया गया है । पर दोनों धर्मोंके सिद्धांतों में समता होते हुये भी क्रियात्मक जीवन में अंतर स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने लिखा है " आज चीनी और जापानी बौद्ध होते हुये भी आमिषभोजी हैं, परन्तु संसार में कोई भी जंनी आमिषभोजी नहीं मिलेगा-जैन पूर्ण शाकाहारी हैं। इसीसे जैन और बौद्ध मतोंका मतभेद स्पष्ट हो जाता है । - यथार्थतः जैन और बौद्ध दो पृथक और स्वतंत्र मत थे । बौद्ध धर्मकी स्थापना शाक्यपुत्र गौतमने की, परन्तु जैन धर्म तो उससे बहुत पहले से प्रचलित था । अतः दोनों मत एक नहीं हो सकते न वह एक थे और न अब हैं " अनेक लोग यह समझते हैं कि जैनधर्मके प्रवर्तक भगवान - महावीर ही थे, इससे पूर्व जैनधर्मका प्रचार व प्रसार न हुआ था, इस शंकाका हल भी लेखकने बड़े अच्छे ढंग से किया है। भ० महा-चीरने तो धर्मका प्रचार व उद्धार पुनः किया था, सर्वप्रथम प्रचारका श्रेय तो ऋषभदेवको ही प्राप्त है, वही जैनधर्मके आदि For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) प्रचारक थे। इस तरहकी अनेक शंकाओंका समाधान इस पुस्तकमें मिलता है । सैकड़ों पुस्तकों व धार्मिक ग्रन्थोंके गहन अध्ययन के बाद इस पुस्तकको रचना हुई है। जैन तीर्थ और उनकी यात्रा डॉ. कामताप्रसाद जैन द्वारा लिखित "जैन तीर्थ और उनकी यात्रा” नामक पुस्तक पौने दो सौ पृष्ठों की है। बैसे तो यह पुस्तक भारतवर्षमें दिगम्बर जैन परिषद परीक्षा बोर्ड के लिये ही लिखी गई थी पर केवल उत्कृष्ट पुस्तक छात्र छात्राओंके लिये ही उपयोगी नहीं वरन सर्व साधारण जनता लाभान्वित हो सकती है। जेनधर्मके सभी तीर्थो का ऐतिहासिक उल्लेख किया गया है। ___पुस्तकका प्रारम्भ 'तीर्थ' शब्दकी व्याख्यासे किया गया है, तीर्थका संकुचित और विस्तृत अर्थ भी समझाया गया है। " 'तृ' धातुसे 'थ' प्रत्यय सम्बद्ध होकर 'तीर्थ' शब्द बना है। इसका शब्दार्थ है-'जिसके द्वारा तरा जाय। इस शब्दार्थको ग्रहण करनेसे 'तीर्थ' शब्दके अनेक अर्थ हो जाते हैं। जैसे शास्त्र, उपाध्याय, उपाय, पुण्यकर्म, पवित्र स्थान इत्यादि परंतु लोकमें इस शब्दका रूढार्थ 'पवित्र स्थान' प्रचलित है।" __ बीच बीच में अपनी बातकी पुष्टि करने लिये पुराण, श्रावकाचार, श्री गोमट्टसार, तथा चारित्रसारके उदाहरणोंका भी सहारा लिया गया है। जैनधर्मका उद्देश्य, सच्चे सुखकी प्राप्तिके साधन, महान बननेकी इच्छा, तीर्थक्षेत्रों का महत्व, आत्मोन्नतिके लिये तीर्थ यात्राकी आवश्यकता, तीर्थ बन्दना, तीर्थयात्राके नियम, तीर्थयात्रासे निष्फलताके कारण, सामाजिक उन्नतिमें तीर्थोका योगदान, स्वदेशके गौरवमें वृद्धि, भारतीय इतिहासकी पर्याप्त For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) सामप्रोकी तीर्थों द्वारा उपलब्धि और तीर्थोंकी पवित्रताके कारणोंका स्पष्टीकरण इस पुस्तकमें देखनेको मिलता है। , , देशके सम्पूर्ण तीर्थोंकी जानकारी इस पुस्तकमें करा देना हर किसी लेखकके बराकी बात भो न थी। कौनसा तीर्थ किस प्रान्त में है, जिला, तहसील डाकघर आदिका वर्णन, सड़क, या रेलवे स्टेशनसे दूरी तकका उल्लेख किया है। पूरी सूची दो गई है। संक्षेप में यही बात कही जा सकती है कि अशिक्षित और अज्ञानी व्यक्ति तक इस पुस्तकके मार्गदर्शन से भ्रमण करने में सफल हो सकते हैं । कोई तीर्थ क्यों प्रसिद्ध है, वहां पर किन तीर्थकरों का सम्बन्ध रहा है, कौन से मन्दिर अथवा दर्शनीय स्थल हैं, उन मन्दिरों में किन देवताओं की प्रतिमाएं हैं ? और कहां ठहरे, किस तरह जावें, सभी छोटी छोटी बातें बताई गई हैं। एक बात और भी विशेष है कि सभी तीर्थो का क्रमशः विवरण भी दिया गया है ताकि एक तीर्थ यात्राके बाद पासवाले दूसरे तीर्थमें जाया जा सके। कमसे कम समय, श्रम, और पैसे में अधिक तम लाभ उठाने की ओर ध्यान दिया गया है। जो क्रम तीर्थयात्रा के लिये अपनाया गया है, वह एक सुन्दर योजना हम आपके सामने उदाहरण के लिए लिये प्रस्तुत करते हैं जिससे आप यह समझ जावेंगे कि यात्राको कितना सुगम बनानेका प्रयास किया गया है। आप इलाहाबादसे तीर्थयात्रा के लिये कौशाम्बी ( कौसम ) गये दो आप बहाँ क्या देखेंगे ? प्राचीन कौशाम्बी नगर पफोबाजी से ४ मीठ । है यहां पर पद्मप्रभु भगवानके गर्भ - जन्म - तप और ज्ञान कल्याणक हुये थे । यहांका उदायन राजा प्रसिद्ध था। जिसके समयमें यहां जैन धर्म उन्नतशील था । कोसमकी खुदाई में प्राचीन जैन मूर्तियां मिली | गडबाहा ग्राम में मन्दिरजी और प्रतिमाजी बहुत मनोह हैं। यहांसे बापस इलाहाबाद पहुंचकर लखनऊ- जावे । For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) लखनऊ लखनऊ का प्राचीन नाम लक्ष्मणपुर है। स्टेशनके पास श्री मुम्रालालजी बाबा कागजीकी धर्मशाला है। यहां कुल ६ मन्दिर हैं, जिनके दर्शन करना चाहिए । यहां कई स्थान देखने योग्य हैं। कैसरबागमें प्रान्तीय म्यूजियम में कई सौ दिगम्बर जैन मूर्तियों का संग्रह दर्शन है। जैन मूर्तियोंका ऐसा संग्रह शायद ही अन्यत्र कहीं हो। लखनऊसे हैद्राबाद जावें और जैन धर्मशालामें ठहरें। यहांसे ४ मोल इक्के या तांगेमें अयोध्या जावें। ___ इस प्रकार उपरोक्त वाक्यमें अयोध्या जानेको बात सुझाई गई है इसी परिच्छेदसे मिला हुआ आगे अयोध्या तीर्थको महत्ताको बताया गया है इस तरह तीर्थ प्रेमियों को इस पुस्तकके अध्ययनसे कितनी सुविधा हो जाती है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजपूताना, मालवा, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बम्बई, मद्राम, आदि प्रान्तोंमें समस्त तीर्थों का वर्णन है। आजका व्यक्ति धन, सम्पत्ति के मायाजालमें पूरी तरहसे प्रसित दिखाई पड़ता है । छायाको कितना ही प्रयास किया जावे तो वह पकड़ने में नहीं आती हां यदि उस ओर ध्यान न दिया जावे, उसे पकड़ने का प्रयास न करें नो वह अपने आप पीछे पोछे दौड़ती है ठीक यही व्यक्ति धन सम्पत्ति की है। यदि आप मायासे अपना मन हटालें तो यह भौतिक सम्पदाएं आपके चरणों पर लौटती फिरैगो, अध्यात्म तो नकद धर्म है, त्यागका फल तुरन्त मिलता है फिर जिसे आत्मानन्द, या परमानन्द मिल जाता है उसके लिये यह भौतिक सम्पत्तियाँ फेकी लगने लगती हैं। __ लोगों की रुचि तीर्थोकी ओर अन्ध विश्वास या अन्ध भक्तिके रूपमें जाती है इसका बड़ा महत्व है धर्मका एक आवश्यक For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग बाजीने बताया है " वीर्थ बह विशेष स्थान है जहां पर किमी साधकने साधना कर के भात्मविद्धिको प्राप्त किया है। वह स्वयं तारणतरण हुमा है और उस क्षेत्रको भी अपनी भवतारण शक्तिसे संस्कारित किया है। धर्म मार्गके महान प्रयोग उस क्षेत्रमें किये जाते हैं--मुमुझी जोव तिलतुष मात्र परिप्रह त्याग करके मोक्ष पुरुषार्थके माधक बनते हैं, वे वहां पर आसन मांडकर तपश्ररण, ज्ञान और ध्यानका अभ्यास करते हैं अन्तमें कर्म-शत्रुओंका और राग-द्वेषादिका नाश करके परमार्थको प्राप्त करते हैं।" ___ अतः ऐसे सुसंस्कारित्व पवित्र देव भूमिमें जब हम सब सच्ची भावना, पवित्र आंकाक्षा और निर्मल हृदय लेकर जावें तो अवश्य समार्ग पर चलने की प्रेरणा लेकर आ सकते हैं। शरीरको मलमल कर साबुनसे धोने, सुगन्धित तेल-इत्र लगाने, सुन्दर चटकीले-मटकोले वस्त्र पहनने से शारीरिक सौन्दर्यमें भले ही वृद्धि हो जावे पर ध्यान रहे कि जब तक मानसिक और हार्दिक सौन्दर्य में वृद्धि नहीं होती तब तक कुछ भी बननेवाला नहीं है। . तीर्थों में जाकर अन्तःकरम पवित्रतासे ओत प्रोत हो जाता है, भक्ति और श्रद्धाको तरेंगे हिलोरे लेने लगती हैं, प्रेमका ज्वार उठने लगता है और स्वयं ही अपने मार्गको निश्चित कर अगले तीर्थों की यात्रा जारी रखता हुमा घर लौटता है। तोर्थका माहात्म्य सारांशमें बाबूजीने इस प्रकार बताया है__"यात्री अपना मारा समय धर्म पुरुषार्थकी साधनामें ही लगाता है। वह तीर्थ-स्थानपर रहते हुये अपने मनमें बुरी भावना उठने ही नहीं देवा, जिससे वह कोई निन्दनीय कार्य कर सके। उस पवित्र स्थानपर यात्रीगण ऐपी प्रतिज्ञाएं पड़े हर्षसे लेते हैं जिनको अन्यत्र में शायद ही स्वीकार करते।" For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) बहुत ही मूढ़ लोग आवस्यपश तीर्थोको गन्दा करते देखे पाये हैं, मन्दिरों के पास या तीर्थ-स्थानके निकट ही शौच आदि कर अपवित्रता फेलगते हैं। यह बात भी शायद बाबूजीको स्मृतिसे ओझल न हुई और लोगोंको पवित्रताका जीवन व्यतीत करनेका सुझाव दिया है। तीर्थ करनेसे लाभोंकी प्राप्तिका वर्णन भी किया है। तीर्थयात्रासे धर्ममहिमाको मुहर अपने दृश्यपर अंकित करना, नई वस्तुएं देखना, नये अनुभव प्राप्त करना, चतुरता, क्षमतामें वृद्धि, विशाल दृष्टिकोण बनना, आलस्य और प्रमादके स्थान पर साहसका संचार होना, वर्तमान जैन समाजको परोपकारी उपयोगी संस्थाओंका परिचय, आत्म गौरव बढ़ना, साधु पुरुषोंके दर्शन, सामाजिक रीति रिवाजों और भाषाओं का ज्ञान, भावनामें शुद्धता, घरके मायाजालसे छुटकारा, पिछले इतिहासकी जानकारी शिलालेखों द्वारा, जैसे अनेक क्षणिक व स्थायी लाभ हैं। जिससे जीवन में युगान्तकारी परिवर्तन सम्भव है। यात्रामें ध्यान रखनेवाली बातोंका भी संक्षिप्तमें संकेत किया है। यात्रा करते समय मौसमका ध्यान रखकर ठण्डे और गरम कपड़े साथ ले जाना चाहिये, परन्तु वह जरूरतसे ज्यादा नहीं रखना चाहिये । रास्ते में खाको टिवलकी कमीजें अच्छी रहती हैं, खानेपीनेका शुद्ध सामान घरसे लेकर चलना चाहिये । उपरांत निकटके या किसी अच्छे स्थान पर वहांके प्रतिष्ठित जैनी भाईके द्वारा खरीद लेना चाहिये । रसोई बगैरह के लिये बर्तन परिमित ही रखना चाहिये । थोड़ा सामान रहनेसे यात्रामें सुविधा रहती है। अब आप स्वयं समझ गये होंगे कि यह पुस्तक धर्मप्रेमी तथा देशाटन करनेवालोंके लिये कितनी उपयोगी है। इसी पुस्तकमें एक अन्य परिशिष्ट भी पं० परमानंदजी शाली द्वारा For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) लिखित जोड़ दिया गया है, इस परिशिष्ट में कुछ क्षेत्र स्थानोंका ऐतिहासिक परिचय दिया है। आगरा, अजमेर, गिरिनार, अतिशयक्षेत्र खजुराहा, देवगढ़, जयपुर, राजगिर, सम्मेद शिखर, ऋषभदेव, तारापुर, ग्वालियर और चन्द्रवाड प्रमुख प्रसिद्ध क्षेत्र हैं । कम्पिला - कीर्ति ५६ पृष्ठीय " कम्पिला - कीर्ति नामक पुस्तक सन् १९५२ में प्रकाशित हुई। फर्रुखाबाद जिले ( उत्तर प्रदेश ) में कम्पिला नामक एक ग्राम है। इसे पंचाल देशकी राजधानी बताया जाता है । पुरातनचारसे यह जैन और हिन्दुओंका ऐतिहासिक और तीर्थस्थल रहा है | भगवान विमलनाथका जन्म भी यहीं हुआ था । पुस्तक के नाम से ही यह विदित होता है कि कम्पिल तीर्थकी गौरव गाथा से इसके पन्ने भरे पड़े हैं। सुबझी, सरिस, परिमार्जित हिन्दी की लड़ियां ऐसी लगती हैं मानों हृदयको कागज और आत्माको स्वाही मानकर अंकित की गई हों ! हिन्दीकी एक छटा आप भी देख लीजिए । गंगा आज उसको थपकियां देकर सुख निन्द्राका अनुभव नहीं कराती । वह अधुना कम्पिलासे मानों रूठकर उससे दूर हट गई है— गंगाकी बार अब यहांसे डेढ़ मील दूर है। किन्तु पुरातनकाल में जब कम्पिला समृद्धिशाली था - बाह्य ऐश्वर्य में ही नहीं; बल्कि सांस्कृतिक श्री वृद्धि में थी, तब गंगाकी पवित्र धारा उसके पैर चूमती थी । " कम्पिलाका ऐतिहासिक गौरव, विभिन्न कवि और धर्मग्रन्थों में उल्लेख, महान तीर्थ, धर्म प्रभावनाका शांतिनिकेतन, समान सुधार की संकेत भूमि, ऐश्वर्यका शीर्ष बताते हुवे अन्त में बर्तमान रूपको प्रकट किया हैं । लेखकने छोटीसी पुस्तक में शासकीय और For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशासकीय सभी भवनों तथा स्थलोंका वर्णन किया है। एक ऐसा खाका तैयारकर दिया है जो वहां जाने पर बड़ी सुविधासे सभी कुछ देख सकता है। खंडित प्रतिमाएं, रामेश्वर मन्दिर, सिद्धपीठ, कपिल कुटी, द्रौपदी कुण्ड, कालेश्वरका मन्दिर, कंपिलवासिनी देवीका मन्दिर, आदिका अच्छा वर्णन किया है । सर्वश्री विमलनाथ, महावीर, चन्द्रप्रभु, पाश्वनाथ, आदिनाथ अरहंत, आदि मूर्तियों का आकार और स्थापना समय आदिकी ओर भी संत किया गया है। प्रयाग संग्रहलायके अध्यक्ष श्री सतीशचन्द्र काला एम० ए० ने इस निबन्धको पांडित्य पूर्ण बताकर विद्वत् समाजमें विशिष्ट आदर की कामना की है। कम्पिलाजीकी पूजा यद्यपि यह छोटीसी पुस्तक केवल ८ पृष्ठकी है पर कम्पिला तीर्थस्थली में जानेवाले श्रद्धालु भक्तोंके लिये बड़ी उपयोगी है, वहां जाकर किस तरह पूजा अर्चना की जावे ? इसकी सारी विधि, स्तुति, दोहे, सोरठे, मंत्र और पद हैं। इस पुस्तककी आवश्यकताके सम्बन्ध में बाबूजीने प्रस्तावनामें लिखा है___ "जैन तीर्थों के पूजासंग्रहमें तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथस्वामीके गर्भ-जन्म-तप और ज्ञान कल्याणकोंसे पवित्र हुए कम्पिला तीर्थको पूजा न देखकर जीमें पाया, यह कमी पूरी होनी चाहिए।" फिर इस कमी को पूरा किया गया। अज्ञानान्धकारको नष्ट करके ज्ञान को दिव्य ज्योति जलानेको सामनेसे आरतो सजाते समयका एक पद देखिये : दिव दीप महिमा ज्ञानमय जिन, तेजसे दर्शाईये । अज्ञान तमका नाश होवे, बिमल ज्योति प्रकाशिये ।। जय विमल तीरथ विमठ पद दे, जजडं मन वच कायसे । मम विमल मतिकर विमल, सुखलह सुकृत भाव भराईके। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) काकंदीपुरका देव इस छोटासा ९ पृष्ठका ट्रेक्ट सन् १९५२ में प्रकाशित हुआ। नुनखार रेलवे स्टेशनसे दक्षिण पश्चिमकी ओर दो मील दूर खुखुन्दू नामक प्राम है जो पुरानी काकन्दी अथवा किष्किन्धा नगरीके नामसे जानी जाती है। काकन्दीकी स्थापना, नगरके राजा, मसान, पुष्पदंत, और उनको विभिन्न शिक्षाएं बताई हैं। मानवको सुखी बनानेवाली बिभिन्न शिक्षाएं प्रेम, सत्य, ब्रह्मचर्य, और कम इच्छा रखने, जैसी बताई गई हैं। जो टीले यहां हैं वह जैन मन्दिरोंके मालम पड़ते हैं और विभिन्न मूर्तियां भी हैं। वहां लगभग तीस टीले हैं जो इतिहासके खजाने जान पड़ते हैं। यह प्रमुख तीर्यस्थल है। दिव्य दर्शन यह १३ पृष्ठोय छोटासा ट्रेक्ट सन् १९५३ में प्रकाशित हुआ। यह एकांकी लघु नाटक है, जिसमें सूत्रधार और उसकी पत्नी नालन्दाके दो बटोहो, नरेश और क्षुल्लक पात्र हैं। इसमें भगवान महाबीरके निर्वाण कल्याणक उत्सव का वर्णन किया गया है । सत्य, अहिंसा, धर्म और महावीर के ऊपर पात्रोंसे विभिन्न बातें कहलाई गई हैं। क्षु० संसार में प्रेमका बातावरण फैलानेके लिये प्रतिज्ञा करते हुये कहते हैं-"वैरसे विरोध, वैषम्य बढ़ता है। प्रेमसे प्रेमकी वृद्धि होती है, प्रेम-लोकमें आत्माका अभ्युदय होता है, बात्मा चमकती है, अतः आओ विश्व प्रेम प्रसारित करने की प्रतिज्ञा करें।" For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) पर्वकी कथाएं " पर्वकी कथाएं" नामक ६४ पृष्ठीय पुस्तक बाबूजी द्वारा लिखित है। इस पुस्तकको देखकर पूज्य वर्णोजी महाराजने कहा था " आपके द्वारा जो कथायें लिखी गई हैं, यदि उनका पाठ ठीकसे किया जाय तो अपनेको संसार-जालसे पृथक् रक्खा जा सकता है" । श्रीमान १०८ पूज्य मुनि समन्तभद्रजी महाराजने शुभाशीर्वाद के साथ अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये "जैन सिद्धान्त के रहस्योंको सुलभ रीतिसे सबकी समझ में आवे इस प्रकार से जो आपने सुबोध और सरल हिन्दी भाषा में लिखनेका कष्ट उठाया है, यह अतीच अनुकरणीय हैं । सन् १९५३ में भाई हरिश्चन्द्रने अनन्तत्रतके उद्यापन में व्रतोंकी कथायें छपवाकर जब वितरणकी इच्छा प्रकट की तो बाबूजीने बहुत शीघ्र ही लिखकर उन्हें दीं। इन कथाओंके माध्यम से अध्यात्मवाद और कर्म सिद्धान्तको बताया गया है । साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि इन कथाओं में वास्तविक रूपसे आन्तरिक महत्ता क्या है ! सोलहकारण, दशलक्षण, सुगन्धदशमी, चौबीस्री, और अनन्त व्रत कथाओंका वर्णन किया है। श्रद्धा, विवेक, क्षमा, बीरता, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य जैसे विषयों पर बहुत कुछ लिखा गया है। प्रत्येक बात मननीय एवं अनुकरणीय है । पर्यूषण पर्व क्षमा और वीरताका सन्देश देता है । इस पके सम्बन्ध में महत्ता इस प्रकार है - "गन्ने की पोईको भी पर्व कहते हैं ।" पोईको निचोडिये तो बहुत सारा मोठा रस निकट आवे । ऐसे ही पर्युषण पर्व पर स्व-परका, अपने-परायेका और भीतर बाहरका सारा लेखा-जोखा और सार-संभाल की जाती है । For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) इसीलिए इस अवसर व्यक्ति आत्मशक्तिको विकसित करके वीतराग विज्ञानताकी आराधना करने में लीन हो जाता है। इसी प्रकार सभी पोंको बड़े वैज्ञानिक ढंगमे विवेचना की गई है। बाहुबली गोम्मटेश्वर ___ यह वीस पृष्ठकी लिखी छोटीसी पुस्तक है। इसमें साहित्यक भाषामें बाहुबली गोम्मटेश्वरका ऐतिहासिक वर्णन किया गया है। बाहुबलीका परिचय, उनका भरतसे मम्बन्ध, श्रवणबेलगोलकी बाहुबलि मूर्ति, आदि अनेक प्रसंगों पर प्रकाश डाला है। बाहुबलीकी ५७ फीट ऊंची विशाल मूर्ति है जो विध्यगिरि के शिखरपर शताब्दियोसे खड़ी है। यह मूर्ति केवल आश्चर्यकी वस्तु नहीं है इससे महात्मा गांधोने बहुत कुछ सीखा था। बाबूजीने लिखा है " सत्य और अहिंसा-शिवं और सुन्दरंका यह जीवित विग्रह है जो इससे खिलवाड़ करेगा-सत्य और अहिंसाके प्रेरणा स्रोतकी पवित्रताको भंग करेगा वह सफल मनोरथ नहीं बल्कि लोकके लिये अकल्याणकारी अनिष्ट सिद्ध होगा।" मूर्ति तक पहुंचने विभिन्न सीढ़ियां और द्वागेको पार कर. नेका सारा वर्णन बताया गया है। मूर्ति इतनी प्रेरणादायक है कि उसमें सत्यं शिवं सुन्दरम्के स्वरूपको देखते ही बनता है, उनकी पूजा करके दर्शनार्थी तथा पूजा करनेवाले भक्तगण अपना जीवन धन्य ही मानते हैं। दर्शनों की सार्थकता भावनाको प्रथानतापर निर्भर है। जीवहत्या, नशा न करने, स्वयं जीने तथा दूसरोंके जीवित रहने देने, सदा सच और मधुर बोलने. मानवी कर्तव्योंका पालन करने, रिश्वत और कालेबाजारसे बचने, इन्द्रिय निग्रह करने, फैशनी वस्तुपर धन बरबाद न करने और बचे हुवे धनको पुन्य परोपकार तथा दानमें लगानेकी भावनाबोंसे ओत प्रोत हुदबसे भगवान बाहुलिके चरणों में श्रद्धाके पुष्प चढानेवाले ही दर्शनों की सार्थकता मान सकते हैं। For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) दिव्य-दर्शन सन् १९५३ में लिखित बाबूजी द्वारा 'दिव्य दर्शन' नामक पुस्तक ट्रेक्टके रूपमें वीर निर्वाणोत्सव एकांकी है। जिसमें यद्यपि १२ पृष्ठ ही हैं फिर भी कथोपकथन, चयन तथा विभिन्न कवि. ताओंको सम्मिलित करने में इन्हें पूर्ण सफलता मिली है। दीवाली त्यौहारको सार्थकता तथा उसके महत्वको बड़े ही शिक्षाप्रद ढंगसे लिखा गया है। सूत्रधार तथा उसकी पत्नीके बार्तालापके बाद श्री सुधेशजीको एक कविताका पाठ किया जाता है। भगवान महावीरका तो पार्थिव शरीर ही शेष रह जाता है फिर भी लोग उनसे नूतन उत्साह ग्रहण कर संमार में फैले अज्ञानान्धकारको दूर करने का प्रयास करते हैं। दीपोत्सव मनाकर जनताके सम्मुख प्रकाशका आदश वखा जाता है। इसी प्रकाशसे ज्ञानरूपी साक्षसका अन्त करके ज्ञानरूपी लक्ष्मी को आत्मसात कानेकी सबको प्रेरणा दी जाती है। उत्सव मनाने के बाद अनेक लोटा रनके जीवनसे शिक्षा ग्रहण करते हैं। एक राहगीर मद्यपान न करने, मांस, मछली और अण्डा न खाने, सबसे प्रेम करने, सन्तोष और मत्थताको अपनाने, इच्छाओंको सीमित खने, अनाजकी खत्तियां न भरने, पशुपक्षियों की रक्षा करते हुवे चमडेकी वस्तुओंको त्यागने और दिनमें ही स्वच्छ जल तथा पवित्र भोजन करने की प्रेरणा लेता है और ऐसे अच्छे संकल्पोंको जीवनभर निभाने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध होता है। अन्तमें विश्वप्रेम फैलाने की कविताका सामूहिक गाना होता है और पटाक्षेप हो जाता है। बीजिए उस कविताका एक पद बाप भी देखिये विश्वप्रेमका दीप जलाएं। निर्वाणोत्सब दिव्य दिवालीका शुभ पर्व मनाएं । For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) जैसे हम वैसे सत्र पाणी अतः प्रेम की सीखें वाणी कुत्सित हिंसा दूर भगाकर मैत्री भाव जगायें। जैनधर्म परिचय सन् १९५३ के दिसम्बर मास में पूर्वीय अफ्रीकाके केनिया प्रान्त के अन्तर्गत मोम्बासा नगरमें आर्यसमाज द्वारा एक सर्वधर्म परिषदका आयोजन हुआ जिसमें भारतसे श्री सोमचन्द लाघामाई शाह जेन धर्मके प्रतिनिधि बनकर वहां गये वहीं यह पुस्तक जैन धर्मके परिचषके सम्बन्धमें वहां सुनाई । इसमें जैन धर्मका ठीक स्वरूप सबके सामने रखा है ताकि सभी धर्मों के व्यक्ति यों को इसके बारेमें पूर्ण जानकारी मिल सके। ___ जैन तीर्थंकरोंको वैज्ञानिक और सरल विचारधारा, धर्म तत्वकी सबके लिये समानता, तत्वज्ञान और धर्मके क्षेत्रमें जैन धर्मका स्थान, जैन धर्मकी मौलिक मान्यताएं, प्राचीनता, आदि तीर्थंकर ऋषभ ऋगवेद और पुरातत्व के प्रमाण, तथा अन्य सभी तीर्थंकरों का वर्णन संक्षिप्त में किया गया है। जैन संस्कृति, साहित्य और कलाका देश विदेशमें प्रचार, तथा विभिन्न धार्मिक पर्यों का उल्लेख किया है। जैनियोंकी विशेषता बाबूजीने इस प्रकार बताई है-" जैन बननेके लिये सबसे पहले अहिंसक शाकाहारी बनना पड़ता है। दुनियां में जैन ही वे लोग हैं जिन्होंने कभी मांस, मदिरा और मधु नहीं खाया है। इसीलिये वे सदा शान्तिके रक्षक और सुखके विस्तार करनेवाले रहे हैं। अन्य धर्मोंने भी अहिंसा और दयाका उपदेश दिया, परन्तु उसे अपने धर्मका मूल आधार नहीं माना। " For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) मानव जीवन में अहिंसाका महत्व सन् १९५४ में ४४ पृष्ठीय इस पुस्तकका प्रकाशन हुआ । इसमें मानव जीवनमें अहिंसा के महत्वको स्पष्ट किया गया है । मानबको अहिंसा से सम्बन्ध, अहिंसाका स्वरूप, और जीवन व्यवहार में अहिंसाका प्रभाव बताया गया है। लोकके महापुरुष भगवान महावीर, वैदिक ऋषिगण, भगवान कृष्ण, तुलसी, कबीर, नानक, पिहित गुरु नामक यूनानी तत्ववेत्ता, ईरान के महात्मा जरदस्त, हजरतम्मा, रसूल्लूका, हजरत चौक, शेखसादी, बर्नर्डशा, जर्मन के कवि गेयटे, अमेरिकन तत्ववेत्ता रस्किन, आदि सभी ने अहिंसात्वको भली-भांति समझा और अपनी वाणी तथा व्यवहार के द्वारा सबको उस आदर्श मार्गपर चलने की प्रेरणा दो । बाबूजीने बड़ी बुद्धिमानीसे अनेक विचारकोंकी बात कही है । राष्ट्रीय जीवनको स्वस्थ बनानेके लिये भी अहिंसाकी कसौटी से ही विचार किया है । स्वास्थ्य खराब होने के कारण, शक्तिशाली बनने के उपाय, विभिन्न खाद्य पदार्थ तथा संयम जैसी आवश्यक बातोंको समझाया है। मांसाहारको पूरी तरह से अप्राकृतिक और अग्राह्य बताया है। शाकाहारको बिदेशी चिकित्सकों तथा देशी शरीर शास्त्रियोंके विचार मन्थन से ही उपयोगी सिद्ध किया है । साथ ही राम, कृष्ण और बुद्धके उन उपासकोंको विकारा भी है जो मांसाहार करते हैं । स्वाधारण जनताको जैनियों के जीवन से शिक्षा ग्रहण करने के लिये बाबूजीने कहा है- "जो लोग अच्छा स्वास्थ्य और सुखी बनना चाहते हैं उन्हें अहिंसा धर्मका पालन करके शुद्ध शाकाहार करना चाहिये | जैनोंका जीवित उदाहरण पाठकों के सन्मुखः है, जैन लोग अहिंस्रोपजीवी और दयालु प्रकृति अज्ञात कालसे ही रहे हैं।" For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध इस ८ पृष्ठीय ट्रेक्टमें दोनों पुरुषोंका तुलनात्मक अध्ययन कया गया है। जिस पुस्तकको मैं खोलता हूं उसमें बड़ी अजीब अजीब बातें दिखाई पड़ती हैं। उनका अध्ययन खड़ा गजबका था, सारा जीवन ही साहित्य सेवा, शोध कार्य में लगानेपाला दूसरा व्यक्ति हमें कोई दिखाई ही नहीं पड़ता। इस पुस्तकको देखनेसे यह बात स्पष्ट होती है कि भगवान बुद्ध स्वयं पहले जैन मुनि थे और उनकी दिनचर्या दिगम्बर मुनिकी दिनचर्यासे मिलती जुलती थी। पर जब वे इन कठोर नियमोंका पालन न कर सके तो नया मार्ग ढूढने लगे और बोधि वृक्षकी छायामें ज्ञान प्राप्त कर 'मध्य मार्ग'का हो सबको उपदेश दिया ! एक बड़ी अजीब बात और यह देखने को मिलती है कि दोनों महापुरुष एक ही क्षेत्रमें प्रचार कार्य करते थे, फिर भी आपसमें कभी मिल न सके ! जैन ग्रन्थ प्रवचनसार, योगसार, सूत्रकृतांग तथा दश वैकालिक से बौद्धग्रन्थ धम्मपद, दीधनिकाय, व महावग्गके उपदेशों तथा सिद्धांतोंसे तुलना भी की गई है। अहिंसा और उसका विश्वव्यापी प्रभाव सन् १९५५ में १३२ पृष्ठकी यह प्रभावशाली पुस्तक बाबूजी द्वारा लिखित प्रकाशित हुई जो जनसमाजमें ही नहीं वरन् मानवजातिमें विशेष लोकप्रिय सिद्ध हुई। श्रीमान् १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णो ने इस पुस्तकके बारे में जो लिखा है उससे इसकी महत्ता प्रकट हो जाती है "मेरी सम्मति है कि इस पुस्तक का प्रत्येक मनुष्य अध्ययन करे जिससे उतने काल स्वच्छ उपयोग हे ......इसमें अहिंसातत्वके ऊपर उत्तम विवेचन है For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) और विवेचन में प्रत्येक मतवाले महात्माओं द्वारा अहिंसासत्वको सिद्ध किया है। पुस्तक पढ़नेके बाद अहिंसक आत्मा हो सकता है । ...... प्रत्येक भाषा में अनुवाद होना चाहिये ।" डॉ० दशरथ शर्मा दिल्ली विश्व विद्यालयने भूमिका में लिखा है " ज्यों ज्यों प्राणी अपने हिंसाजन्य विचारों और कर्मोंसे दुःख पाता है त्यों त्यों उसे भान होता है कि अहिंसा में श्रद्धा अहिंसा तत्वोंके ज्ञान और अहिंसाका सम्पर्क आचरण हो विश्वशान्तिका एक मात्र मार्ग है। श्री कामताप्रसादजी इसी अहिंसा के पुजारी और उपदेशक हैं। आपका लक्ष्य अत्युत्तम है और ' अहिंसा और उसका विश्वव्यापी प्रभाव' नामकी इस पुस्तककी रचना उम्रलक्ष्यको साधनाके ढिये आपके बहुतसे उपायों में से एक है । पुस्तक अपने ढंगकी एक ही है। अहिंसा के सिद्धान्तोंके सार्वत्रिक असारको इतना उत्तम तात्विक और ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत कर श्री कामताप्रसादजीने ऐतिहासिक और धार्मिक साहित्य की एक बहुत बड़ी कमी पूर्ण की है। " मानव स्वभावका अहिंसावृत्ति से सम्बन्ध अहिंसा और हिंसाके तात्विक विचार भारतीय संस्कृति में अहिंसाका महत्व, अफगानिस्तान, अरब, ईरान, फिलिस्तीन आदि मध्य रशियावर्ती देशों में, अफ्रोका, अबीसीनियां, इथोयोपिया, मिश्र, तुर्किस्तान, यूनान, यूरुप, अमेरिका, चीन, जापान, तिब्बत, बर्मा, लंका आदि देशों में अहिंसा की प्रगतिको पूर्ण विवेचना की गई है। पुरातत्वको अहिंसा से जोड़ते हुये आजके जीबनमें अहिंसाको आवश्यकता और विश्व शांतिके आधार स्तम्भपर भली भांति विचार प्रकट किया गया है। देश विदेश के महापुरुषों तथा धर्म ग्रंथोंके उद्धरणोंसे यह पुस्तक भरी पड़ी है। मांसाहारका खुले रूपसे ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक तत्वोंके आधारपर विरोध किया गया है । श्री पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ अध्यक्ष दिगम्बर जैन संस्कृत For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) कालेज जयपुरने तो यहां तक लिखा है "प्रस्तुत पुस्तकमें अहिंसाके विश्वव्यापी प्रभावका जो विवेचन है वह पाठकको अपनी बोर खींचता है और अहिंसाके प्रति उनकी आस्था उत्पन्न करता है। इसमें ऐतिहासिक एवं व्यापक दृष्टकोणसे अहिंसाका वर्णन है। न केवल भारतवर्ष में अपितु विदेशोंमें भी अहिंसाकी जो प्रतिष्ठा हुई है उसका ऐतिहासिक विवेचन है। संसारके विभिन्न प्रख्यात धर्मों में अहिंसाको शीर्ष स्थान प्राप्त हुआ है। श्री बाबू कामताप्रसादजीको धन्यवाद है कि उन्होंने भगवती अहिंसाके प्रचार में यह ोगदान देकर दूसरोंको भी इस ओर आकृष्ट होने की प्रेरणा दी है।" गिरिनार-गौरव सन् १९५५ में लिखित ६६ पृष्ठीय पुस्तक गिरिनार तीर्थक्षेत्रको गौरव गरिमाको प्रकट करती है। इस पुस्तकके लिये बाबू कामतापमादजीने बड़े हो अथक परिश्रमसे विदेशी विद्वानोंके संस्मरण, ब लिखत पुस्तके, शिलालेख, श्वेताम्बर व दिगम्बर जैनोंके ग्रंथ, हिन्दू शास्त्र तथा अन्य उपयोगी ग्रंथों का अध्ययन करके इसकी रचना को। इसीलिये इतिहास प्रेमियों, तथा जैन समाजके लिये बहुत बड़ोदेन सिद्ध होतो है। जहां एक ओर इतिहासको झलक है वहीं दूसरी ओर भक्ति, प्रेम और श्रद्धाका खजाना भी है। जिस तरह कोई गूगा व्यक्ति मिठाई खाकर भी उसका वर्णन नहीं कर सकता, वैसे ही धर्म प्रेमी व्यक्ति पढ़कर आनन्दसागर में डूबता और उतराता दिखाई पड़ता है पर उस आनन्दका वर्णन करने में असमर्थ पाता है। प्राचीन तीर्थंकरों तथा पूज्य आचार्य और सन्त महात्माजोंने साधना और तपके दिये प्रकृतिके रमणीय स्थलगेको चुना था, उनमें रहकर ही अपने जीवनको साधना व त्यागका पाठ विश्वको For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) पढ़ाते रहे। यही स्थान आगे चलकर सुसंस्कारित तीर्थ के रूप में हमारे सामने आये। ऐसी बात नहीं कि समाजकी श्रद्धा इन तीर्थोके प्रति न हो, अवश्य है और इसीलिये तन, मन, धन सभी कुछ निछावर भी किया । पर उतनी महिमा, वास्तविकता, तथा पूर्ण स्थितिको सर्व साधारण के समक्ष रखनेका प्रयास नहीं किया । यह धर्मकी बहुत बडो कमी रहती है। इसीलिये लोगों में अन्ध विश्वास बढ़ता है । यह कमी बहुत ही खटकनेवाली थी जिसकी पूर्ति बाबूजीने 'गिरिनार - गौरव' feast की । गिरिनारका वर्णन इतिहास, शिलालेख, जैन साहित्य, व वैदिक साहित्य के अंचल से लिखा गया है। तीर्थको वर्तमान स्थिति, उसके जीर्णोद्धार में विभिन्न दान दातारोंका सहयोग और वेदी प्रतिस्थापनाका वर्णन भी किया है। भगवान नेमिनाथ के गिरिनार में मुनि होने और भगवन् समन्तभद्र स्वामी द्वारा गिरिनार पहुंचनेपर आत्माहादसे विभोर होने का उल्लेख भी मिलता है। केवल तीर्थ स्थढोकी महिमागे उलझ गये हो ऐसा नहीं है. इसी पुस्तक में जैनधर्मकी प्राचीन मौलिक मान्यताओं, प्रारम्भिक स्थितिका वैज्ञानिक वर्णन, २४ तीर्थंकरों, प्राचीन जैनधर्म में दिगम्बरत्वका विशेष महत्व, और धर्म की प्राचीनता पर भी प्रकाश डाला है ताकि तीर्थ महिमा के साथ२ अन्य बातोंकी भी जानकारी मिल सके । भगवान महावीर और अन्य तीर्थंकर बड़े आकारकी १४ पृष्ठीय पुस्तक सन् १९५६ में प्रकाशित हुई। इसमें यह बताया गया है कि जैनधर्म भगवान महावीर से प्राचीन है, तीर्थकर की विशेषताएं आदि कालीन धर्मके सिद्धांतों तथा भगवान महावीरके अतिरिक्त अन्य वीर्थंकरोंके कार्यों, उपदेशों, " तथा विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो जैनधर्मको पुनः प्रकाशमें लाये थे। इन्हें आप्तदेव तो इसलिये माना जाता है कि वे सर्वज्ञ परमात्मा थे । शान्तिका सन्देश सन् १९५६ में १५ पृष्ठको इस पुस्तकका प्रकाशन हुआ। राजीव और उसके पिताके बीच इस पुस्तकमें तीर्थंकर श्री शान्तिनाशके सम्बन्ध में बातचीत करवाई गई है। बेटा राजीव जिज्ञासुकी तरह अपने पितामे मन्त्र कुछ पूछना जा रहा है और पिताजो बड़े प्रेमवे बताते जा रहे हैं। शुरूमें भगवान शान्तिनाथके पुण्यधाम हस्तिनापुरके महत्व तथा ऐतिहासिकता पर प्रकाश डाला है। और बादको भगवान की धमसाधना, मोक्ष, महान बनने का साधन, हस्तिनापुरमें मेला जुड़ने का कारण, जीवात्माका साक्षात्कार, रेशमके कपड़ोंसे हानि, धनरथ नामक राजाका परिचय, लरके पुत्र मेघरथ व दृढ़रथ द्वारा मुगोंको लड़ाया जाना, उन मुर्गों के पूर्व उन्मके संस्कारोंको बताना, आजकल के शासनको हिंसक नीति, राजा धनरथका वैराग्य धारण करना, पशुलिकी कुरीतिको भयंकरता, मेघरथके जीवनका शान्तिनाथ होना, देवों द्वारा शान्तिनाथ तीर्थ करके जन्मोत्सव मनाना, बादको राजकुमार बनने, आदर्श राजाकी स्थापना करने, तपस्याकं लिये बनको जाने तथा अंतमें महान बनकर अमरत्व प्राप्त करने की बातें बताई गई है। तीर्थकरकी जीवनीसे साथ साथ आधुनिक समस्याओं तथा कुरीतियों पर बीच बीच में प्रकाश डाला गया है। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो बाबूजी जहां तीर्थ कर की जीवनीको लेकर चले हैं वहां वर्तमान वातावरणमें पनपनेबाली बुराईयोंको भी उसमें नत्थी करके पाठकोंको छोड़नेकी प्रेरणा दी है। क्रोध और राग द्वेषको बदलेसे नहीं वरन् प्रेमसे जीतने की शिक्षा सीखिये। वैरसे वैर For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) नहीं मिटता, बदलेसे बदला नहीं चुकता, आगसे आग नहीं बुझती। प्रेमकी शीतलधारा ही वैरकी अग्निको बुझाती है। जीव इस सत्यको पहचान कर सीखे और उस पर व्यवहार करे तो जीवनमें शान्ति मिलती है। ___ मोटर में बैठे हुवे चार यात्रियोंसे जो हस्तिनापुरका मेला देखने जा रहे हैं शान्तिनाथकी जीवन झांकीके बीच में ही फैशन पर कटाक्ष करवाया है ?" एक यात्री बोला......आज तो महिलाएं फैशनके पीछे दिवानी हो रही हैं।' 'अजी, धर्म कर्म कौन करे नह तो शृङ्गारके मारे पेटके धन्धेसे भी चुनती हैं। तीसरा बोला 'अरे भाई, क्या कहें ? नहाधोकर क्रीमादि जाने क्या क्या लगाती हैं, जो चर्षी, मछलियों, केपरों, अंडोंकी सफेदी आदि अपवित्र पदार्थोसे बनाई जाती है।' चौथेने कहा-"समयकी बलिहारी है।" वह पहला आदर्श विवाह यह एक बहुत छोटो १२ पेजकी पुस्तक है जिसमें बाबूनीका एक लेख भगवान ऋषभदेवके शुभ विवाह पर है। १ दिसम्बर सन् १९५७ में आयुष्मती सत्यवतो जैन व चिरंजीव सन्तलाल जैनका विवाह संस्कार नई दिल्ली में हुआ था। उस समय विवाह पक्षीय लोगोंके निवेदन पर यह पुस्तक नबम्बर ५७ में लिखी गई थी जिसमें अन्य कवियोंकी कविताएं भी दो तीन संकलित हैं। प्रारम्भमें तो संक्षिप्त जीवन परिचय है और बादको बिवाहकी आवश्यकता तथा उसके आदर्श स्वरूपकी व्याख्या को है। भगवान ऋषभके यह बन्द किसने शिक्षाप्रद है जरा विचारिये For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) तो सही "मानव सन्ततिको बढ़ानेके लिये और परस्पर में संगठित समाज-सहयोगकी सिद्धि के लिये विवाह एक परम धर्म है। नर और नारीको गृहस्थ धमरूपी रथके दो पहिये बनकर अपनेको मिटा देना होगा। विवाह मानव को भोगसे ऊपर उठाकर त्याग धर्मका पाठ पढ़ाता है । एक दूसरेको सुख दुःखको अपना मानना और सेवा करने में आनन्द लूटना नवदम्पतिका जीवन ध्येय होता है।" For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव डॉ. कामताप्रसादजी जैन द्वारा रचित "आदि तीर्थंकर भ० ऋषभदेव” नामक पुस्तकका प्रथम संस्करण सन् १९५९में प्रकाशित हुआ। १७६ पृष्ठकी यह पुस्तक 'आदिनाथ' के जीवन का सांगोपांग वर्णन करती है। इसमें विभिन्न प्रकारका पुरातन साहित्य, शिलालेख, पुरातत्व विभागकी शोध, तथा जनश्रतियोंके आधार पर यह बतलाया गया है कि प्रथम तीर्थकरने अपने चरित्र, साधना तथा वाणीके प्रभावसे जन मानसको किस तरह झाकझोर दिया। श्री कृष्णदत्तजी बाजपेथी एम. ए., अध्यक्ष प्राचीन इतिहास और पुरातत्व विभाग, सागर विश्वविद्यालयके शब्दोंमें "भगवान ऋषभदेवके बहुमुखो जीवनके सम्बन्ध में यह ग्रन्थ निःसन्देह एक नबीन व्यवस्थित प्रयास है।" आदिकालमें मानवताकी झांकी, भगवानका अवतरण, तीर्थंकर बननेको ओर प्रयास, प्रारम्भिक जीवन, समाज कल्याणकी इच्छा, गृह त्यागकर तपस्याका जीवन और जन सुधार जैसे अनेक पहलुओंका विस्तृत रूपसे विवेचन किया है। ऋषभदेव जैनधर्मके अधिष्ठाता रहे हैं ऐसी बात नहीं है, हिन्दु धर्मके प्रमुख ग्रन्थोंके आधार पर वैदिक मान्यताएं मी बनाई हैं। ऋगवेद मंडल ३ के मंत्रों द्वारा वृषभको आदि तीर्थयर सिद्ध किया है । पौराणिककालमें ऋषभदेवको ८ वां अवतार माना गया। उन्होंने लिखा है "भगवान ऋषभ अथवा वृषभ उस प्रागेतिहासिक कालीन अखण्ड भारतके महापुरुष हैं जिसमें श्रमण और ब्राह्मणोंमें कोई भेद न था । यही कारण है कि ऋषभ श्रमणोंके मादि पुरुष हैं। और वैदिक भायोंके ८ वें अवतार" For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) ऋषभ वेदोंके द्वारा आदि देव माने गये। अथर्व वेद (१९, ४२, ४), भक्तामरस्तोत्र भी इसी प्रकारको पुष्टि करते हैं। भागवत पुराण स्कन्ध ५, मार्कण्डेय पुराण, कम पुराण, शिवपुराण, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, लिंगपुराण, ब्राह्मण पुराण, स्कन्धपुराण, बाराह पुराण, वायु महापुराण, प्रभास पुराण, मनुस्मृति और महाभारत के प्रसंग देकर विभिन्न धर्म ग्रन्थोंमें भगवान ऋषभका स्थान बताया है। वैदिक साहित्यके अतिरिक्त प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्ध धम्मपद' 'आर्यमन्जु श्री मूल कल्प', 'न्याय बिन्दु'के नामोल्लेखोंका वर्णन किया है। सिक्खोंके गुरु गोविंदसिंहने अपने 'दसम ग्रन्थ साहिब' में भी ऋषभदेव को सम्मान दिया है। तामिल और कन्नड साहित्य भी इससे अछूता नहीं रह सका। डा० राधाकृष्णन् और डा० ए० पी० कारमारकरने भी ऋषभके आद्वतीय योगी बताया है। __अब तक जितनी मूर्तियों और शिलालेख खुदाईके द्वारा प्राप्त हुये हैं उन शिलालेखोंका वर्णन अच्छी तरहसे किया है। मूर्ति योंको देखनेसे स्पष्ट होता है कि ५-६ इजार वर्ष पूर्वकी ऋषध. देवकी मूर्तियां बनने लगी थी। बिभिन्न प्रकार की पुरातत्व विभाग द्वारा उपलब्ध सामग्रीकी अोरसे भी इतिहासकार लाभ नहीं उठाना चाहते इसीलिये डॉक्टर साहब को कहना पड़ा। ___ "संभव है कि आम आदि भगवानके जीवनचरित्रकी महत्ताको समझकर हमारे इतिहास लेखक अपनी मूलको पहिचान लगे। विदेशी विद्वानों प्रो० डी० हाजिमें नाकामुरा, इट डीके प्रो. ज्योसेफ्टुरशी, डॉ सिल्वालेचीने भी अपने विचार प्रकट किये हैं। विदेशों में जहांसे ऋषभदेवकी मूर्तियां मिली हैं या आज भी मौजूद हैं उनका वर्णन भी किया गया है। भनेक ग्रंथों में भगवान ऋषभ और शिवको ए For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) अहण किया गया है। शिवपुराण, प्रभासपुराण और महाभारतको 'अनुशासन पर्व' सिद्ध भी करता है। दोनों में समता बताते हुये बाबूजीने लिखा भी है " भगवान ऋषभका चिह्न बैल, उधर शिवजीका वाहन मिलता है। जैसे शिव जटाजूट युक्त थे, वैसे ही भगवान ऋषभकी जटाजूट युक्त मूर्तियां बनानेका विधान जैन शाखोंमें है। ____ कहते हैं कि शिवजीके निर्मितसे गंगाजीका अवतरण पृथ्वी पर हुआ, जेन शास्त्र भी बताते हैं कि गंगा जहां भूतल पर अबतीण हुई वहां गंगाकूटमें भ० ऋषभकी जटाजूट मूर्तियां मौजूद हैं । त्रिशूलधारी और अन्धकासुर विध्वंशक शिवजी जैसे कहे गये हैं वैसे ही अहंतदेव ऋषभ हैं। ऋषभदेबको प्रायः सब बातें शिवजीसे मिलती हैं। अतः उन्हें अभिन्न समझना चाहिए । ऋषभ ही प्रतीकरूपमें शिव कहे गये हैं। इस तरहसे यह बात विदित होती है कि यह पुस्तक बड़ी ही तथ्यपूर्ण तथा अत्यधिक प्रयासके बाद संसारके समस्त धर्म ग्रन्थोंके अध्ययनके बाद लिखो गई है। सर्वोदयका सार्वभौम स्वरूप सन् १९५९ में प्रथमबार प्रकाशित ८ पृष्ठीय ट्रेक्ट सर्वोदय विचारधारा पर बाबूजी द्वारा लिखा हुआ है। इसमें यह बताया गया है कि आज जो सर्वोदयका रूप महात्मा गान्धीने समाजके मामने रखा और आचार्य विनोबा जिसे आगे प्रसारित करने में लगे हैं उसमें भ्रमकी प्रधानता ही स्पष्ट झलकती है। वैसे पुराने इतिहासके आधार पर वह जाना जाता है कि भगवान ऋषभदेव कृषि आदि कर्मोंका आविष्कारकर जनताको श्रमका पाठ पढ़ाया For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) था । और प्रत्येक क्षेत्रमें प्रकाश दिखानेवाला प्रमुख व्रत अहिंसा ही सबको दिया । अहिंसा के विकासके लिये लोगों में शाकाहारका प्रचार किया गया अहिंसाका साम्राज्य चहुंओर फैला इसीलिये भगवान महावीर के तीर्थ स्थलको समन्तभद्राचार्यने 'सर्वोदय' कहकर पुकारा क्योंकि वहां बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक 1 जीवको सुख शान्ति देने की कोशिश की जाती थी । पुरातन सर्वोदय तीर्थसे आज के सर्वोदय आन्दोलनकी विशेषताओं में समानता बताते हुये, सर्वोदय तीर्थजी अन्य अनेक विशेषताएं भी समझाई हैं । प्रत्येक नागरिकको ७ बातें माननेके fer कहा गया है जिसमें प्राकृतिक भोजन, समताका व्यवहार, प्रिय बच्चन, शोषण न करना, इन्द्रिय निग्रह, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग और आत्मशक्ति में विश्वास प्रमुख है । बाबूजीने स्पष्ट ही कहा है- " मैं भगवान महावीरके सर्वोदय तीर्थकी तरह जीवमात्रके प्रति कल्याण भावना रखकर मानव आगे बढ़ें और विवेकसे काम ले तो महान लोककल्याण हो ।" हिंसाको तात्विक विवेचना इस २३ पृष्ठकी पुस्तक में जिनेश तथा राकेशके बातचीत के माध्यम से बाबूजीने अहिंसाको तात्विक विवेचना की है। राकेश afarst मखौल उड़ाता है और नई नई शंकाएं सामने उपस्थित करता है । मैं तो यही समझता हूं कि समाज के उन लोगों का जो अहिंसा में विश्वास नहीं करते, उसका उपहास करते हैं, आलोचक तथा व्यर्थकी बकवाद करनेवाले हैं, राकेश प्रतिनिधित्व करता है। तथा ऊटपटांग की हुई बातों का जिनेश बड़े शांतता और धैर्यता से उत्तर देता है । और बीच बीचमें तुलसी, कबीर, हजरत मुहम्द, कन्फ्यूशस, कवि फरदौशी, सकन्दर, पिथागोरस For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) और प्रो० ब्लान्क आदिके उदाहरण भी दे देकर दकियानूसी विचारधाराओंको पनपानेवालोंकी आंखे ही खोल दी हैं। ____ अहिंसा भाव बढ़ाने, अभक्ष्य वस्तुएं न खाने और लोक हितकारी बननेको माह दी गई है ! साथ२ उन व्यक्तियोंको जो शक्तिबद्धकके लिये मांसाहार आवश्यक मानते हैं, अण्डेको शाकाकार बताते हैं, डॉ० बोसके आधार पर शाकाहारको भी हिंसक कहते हैं, मुंहतोड तकसे जवाब दिया है। सारी शंकाएं मिटातो हैं, कुतर्कको एक ओर ताकमें रख दिया है। साधुओं को उनके आदर्श जीवनका बोध भी कराया है। और कुतर्की भी अन्त में शंका-समाधान के बाद यही कहता है-"समझमें आ गया कि अहिंसा और हिंसाका मापदण्ड मानवके हृदयगत भाव हैं । दयासे अनुरंगित भाव जिस व्यक्तिके होंगे उसमें सदा मानवता जागृत रहेगी, वह इन्द्रिय बासनाका दाम नहीं बन सकेगा।" अहिंसामें कायरता नहीं है सन् १९५९ में २४ पृष्ठोय पुस्तक प्रकाशित हुई। इसमें अहिंसाको जीवन तथा परमार्थ और हिंसाको मरण तथा स्वार्थ बताया गया है। मानव जीवन भी निरन्तर बहनेबाली नदीके समान है, जो बराबर कठिनाइयाँ उठाते रहने के बाद अपने लक्ष्यको पहुंच जाता है। जैसे नदी दो किनारोंको बांधकर आगे बढ़ती है वैसे मानव जीवनके दो किनारे सत्य और अहिंसा है। मानव जीवन इन्हीं दो किनारोंके बीच रहकर सुरक्षित रह सकता है। पश्चिमी देश अातंक फैलाने में उगे हैं। आजके लोग अहिंसाके बाह्य रूपको देखकर उसमें कायरताको गन्ध पाते हैं पर आन्तरिक शक्तिको जो बिरले देख पाते हैं, उनका अज्ञानांध For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) कार ही छुमन्तर हो जाता है। अरे भाई अहिंसा तो एक ईश्वरीय शक्ति है। ___ स्वामी समन्तभद्राचार्य, अंग्रेज कवियत्री इलाव्हीतर बिल. कॉक्स, शेक्सपियर, जीसस, भगवान ऋषभ, राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, सुकरात, ईसा, और सन्त दानियालने अहिंसाका महत्व नहीं समझा वरन् उसे अधिकतर अपने जीवन में भी स्थान दिया। हिंसक जीव जन्तुओंमें अहिंसक तत्वोंको रखा गया है। अहिंसाकी व्यवहारिक उपयोगिता और परिमाण बताकर इतिहासके आलोकसे अहिंसाकी विशेषता स्पष्ट की है। जो लोग अहिंसाके सम्बन्ध में जानते नहीं हैं वही आलोचना करते समय कायरता बताते हैं। बाबूजीने स्पष्ट ही लिखा है “अहिंसामें निष्क्रियताके लिए कोई स्थान नहीं है- वस्तुतः अहिंसा तो वह सक्रिय शक्ति है जो हताश हृदयों में नवजीवनका संचार करती है और उनको अभय बना देती है।" विवाह-सुमनोजलि सन् १९६० में बाबूजीने अपनी सुपुत्री सौ० सुमनलताके विवाहोत्सव पर इस "विवाह सुमनांजलि'का सम्पादन किया था। इसमें ९० पृष्ठ हैं। इस अभूतपूर्व ग्रन्थमें श्री वर्णीजी, ब्रह्मचारिणी चन्दाबाई, महात्मा भगवानदीन, स्वामी शिवानन्द, स्वामी आर० पी० अनुरुद्ध, डा० राधाकृष्णन, श्री बी० बी० गिरी मूतपूर्व राज्यपाल उत्तर प्रदेश, श्री दशरथ जैन उपमन्त्री म०प्र०, श्री सौभाग्यमल जैन राजस्वमन्त्री मध्यभारत, प्रो० तानयून-शान अध्यक्ष चीन भवन, उपन्यासकार श्री कार फ्रांस, अमेरिकन प्रस्थात लेखक श्री वेयन ऐच० स्टील, अमेरिकामें शाकाहारकी For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ ) अनन्य प्रचारिका डा० कैथेरीन निम्मो, प्रो० अर्नोल्ड कोसर सिंग जर्मनी, प्रो० ढोथर बेन्डेल पिलानी, श्री यूजेन जैसिर्याना वारसा पोलेण्ड, डा० नाग कलकत्ता, डा० गुलाबराय श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, डा० बासुदेवशरण अग्रवाल, डा० हीरालाल जैन, श्री अगर चन्द नाहटा, डा० हरदेव बाहरी, श्री महेन्द्र, डा० पदमसिंह शर्मा जैसे सैकडों विश्वविख्यात, सन्त महात्माओं, विद्वानों, और साहित्यकारोंके शुभ सन्देश तथा वैबाहिक जीवनपर महत्वपूर्ण विचार हैं दूसरे भाग में प्रिय पुत्री सुमनसे सम्बन्धित ही अनेक कविताएं हैं, जिनमें श्री मिलफोर्ड अमेरिका, पद्मश्री विभूषित डॉ० लक्ष्मीनारायण साहू, श्री हरिशंकर शर्मा, गुंजन, शशि, सुवेश, पुरन्दर, भास्कर, कुसुम, रूपचन्द्र गार्गीय, ठा० लोकपालसिंह एम. एल. ए, बीरेन्द्र, सुरेन्द्रसागर प्रचण्डयाकी प्रमुख रूप से पठनीय हैं। इस तरहसे हम प्रत्येक कवि व विचारकक शब्दोंसे बड़ी प्रेरणा प्राप्त करते है। छ मूल्य बातों व सुभा पतों का इसमें समावेश किया गया है। विवाह पावनता तथा जीवनके लक्ष्यको भुलानेवाले व्यक्ति सुखी नहीं रह सकते। जो व्यक्ति कामवासना की पूर्तिमात्र समझते हैं उनसे पतित और नीच शायद ही कोई हो। बबूने ही कर दिया है – “विवाह पुरुष और कन्या के लिये त्यागमय जीवनकी साधनाका प्रतीक है। वह अंग सोमत आनन्दकी परिधि मानबको ऊँचा उठाकर शाश्वत् स्नेह और सुखके द्वारपर पहुंचा देता है "" For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीर और आधुनिक युगमें उनकी शिक्षाका महत्व यह २४ पृष्ठीय ट्रेक्ट सन् १९६३ में प्रकाशित हुआ। इसमें भगवान महावीरका संक्षिप्त जीवन चरित्र तथा उनके द्वारा बताई गई विभिन्न शिक्षाओं का आजके युगमें महत्व पर प्रकाश डाला है। अंतिम दो पृष्ठों में महावीर वचनामृत हैं। गागर में सागर भरनेकी कहावत चरितार्थ हई दिखती है। महाबीरकी शिक्षाओं पर लोग शंशा करने लगते हैं और यहो सोचते रहते हैं कि इन बातोंसे भला क्या देश, जाति और विश्वका कल्याण होगा? ऐसे शंकाग्रस्त व्यक्तियों के लिये डाक्टर साहबने लिखा है " हम स्वयं इनका उत्तर कुछ नहीं देना ठीक समझते हैं क्योंकि इसका उत्तर बड़े बड़े महापुरुष यही देते हैं कि भगवान महावीरका आदर्श जीवन और उनके सिद्धान्त आज भी जीवन में आगे बढ़ानेके लिये मार्गदर्शन करनेमें समर्थ हैं.........। डॉ० राधाकृष्णनने कहा था कि “ यदि मानवता को बिनाशसे बचाना है और कल्याणके मार्ग पर चलना है तो भगवान महावीरके सन्देशको और उनके बताये हुये मार्गको ग्रहण किए विना कोई रास्ता नहीं है। भ० महावीर वर्द्धमान यह ३३ पृष्ठीय ट्रेक्ट भगवान महावीरके जीबनसे सम्बन्धित है । इसमें भगवानके जीवनसे सम्बन्धित समस्त घटनाओंका संक्षिप्त रूपमें वणन किया है। जन्मसे लेकर निर्वाण तककी बातों का संकेत किया है। भगवानका अपूर्व ज्ञान, अनूठा चरित्र, निर्भयता, प्रेमका प्रभाव, विवाहका प्रसंग, वैराग्यकी ओर बढ़ते For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम, बारह वर्षोंकी घोर तपस्या, उपसर्गोंकी साधना, अनार्योको अहिंसाका शिक्षण, दलित दासों और तिरस्कृत महिलाओं का उद्धार, केवलज्ञानको महान घटना, उपदेशामृतके चातकोंको स्वाति बून्दकी पूर्ति, अहिंसाका प्रभाव, और अनेकांसमें एकता जैसी अनेक बातोंको बड़े अच्छे ढंगसे समझाया है। बाबूजीने हिंसाको विदेशियोंकी देन मानते हुये लिखा है___"जिस प्रकार आज भारतमें अंग्रेज नहीं हैं। भारतीय स्वाधीन हैं, परन्तु अंग्रेजोंके चले जाने पर भी भारतीय अंग्रेजी सभ्यताकी दासतामें अंधे हुए बहे जा रहे हैं, हिंसा और अपराधको बढ़ा रहे हैं, उसी प्रकार राजा वसुके समयमें आसुरीवृत्तिका प्रभाव भारतमें आ घुसा था। यह भारतीय संस्कृतिकी देन नहीं है। इस पुस्तकमें भगवान महावीरको अनेक शिक्षाएं हैं जिनमें से यदि एकका भी पालन कर लिया जावे तो कल्याण हो सकता है। भगवानने प्रमादियों को चेतावनी दी है-"जैसे वृक्षके पत्ते पीले पड़ते हुये समय आने पर झड़कर पृथ्वी पर गिरजाते हैं, उसी तरह मनुष्य जीवन भी आयु शेष होने पर समाप्त हो जाता है। अतः हे मानव ! समय भरके लिये भी प्रमाद न कर।" भक्ति और उपासना यह ७६ पृष्ठीय पुस्तक सन् १९६४ में प्रकाशित हुई । संसारके सभी धर्मों में भक्ति और उपासनाका बहुत महत्व है पर उसका रूप बिगड़ जाने के कारण ही लोगोंमें घृणा और उपेझाकी भावना आ गई है। बिना इस रूपको भली भांति समझे हुये लोगोंका ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं हो सके। श्री चैनसुखदास जैन आचार्य संस्कृत जैन कालेज जयपुर ( राजस्थान ) ने इम पुस्तकके सम्बन्ध में कहा है-"भक्ति और उपासना पक सुन्दर आख्यान है.........इस पुस्तकका विवेचन मनोवैज्ञानिक है।" For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) इस तरह नाटकीय ढंगसे लिखा गया है। राकेश आजकी सभ्यताके चकाचौंधसे प्रभावित युवक है उसकी जीवन साची श्रद्धा विवेकशील नारी है। दोनोंके विचारोंमें भिन्नता है फिर भी सुखी दाम्पत्य जीवनका आनन्द ले रहे हैं। साकार उपासनाका महत्व, मूर्ति स्थापनाकी आवश्यकता, सच्चे ज्ञान और श्रद्धाको महत्ता, अपूर्व आदर्श और भक्तिके विभिन्न चमत्कारोंका वर्णन किया है। राकेश अपनी पत्नीसे बड़ी अजीब अविश्वाससे भरी हुई शंकास्पद बातें पूछता है और पत्नी उसका बड़े प्रेमसे और सहृदयतासे उत्तर देती है। झुंझलाहट तो नाम मात्रको भी दिखाई नहीं पड़ती, उपहास करनेपर भी चेहरा बिलकुल भी खिन्न नहीं होता। प्रश्नोत्तर ढंगसे समझाने की प्रणालीके कारण पुस्तकमें चार चाँद लग गये हैं। पत्थरकी मूर्तिको देखकर राकेश अपनी पत्नीको मजाक उड़ाता है उस समयकी स्थिति संक्षिप्त में देखिये राकेश-छिः पत्थरको भगवान कहती हो। श्रद्धा-पत्थरको भगवान नहीं कहती। निस्सन्देह पत्थर भगवान नहीं होते। राकेश-तो फिर ? श्रद्धा-तो फिर क्या ? सच्ची श्रद्धा, सच्चे ज्ञान और सच्चे कर्मसे पत्थर भी भगवान हो जाते हैं। चापकी आवश्यकता, शिक्षाके प्रमुख दोष, समयका दुरुपयोग, और कालेज जीवनके खिलवाड़ोंकी ओग्से सचेत करते हुये, आदर्श बनने, धार्मिक श्रद्धाको जनता तक रखने, आध्यात्मिक विकामकी रूपरेखा, और प्रभुनामके अपार बलको समझाया है। सबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि जब कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति श्रद्धालु उपासक बन जाता है तो उसके मित्र उसका खूब उपहास करते हैं। पर आगे चलकर एक बात वह भी दिखाई पडतो है For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) कि अपने विचारों पर दृढ़ रहनेसे विरोधो या मजाक उड़ानेवाले साथी या साधकके रूपमें सामने आते हैं। बीच में कविताएं तथा पद भी दिये गये हैं जैसेसोचा करता हूं भोगोंसे बुझ जावेगी इच्छा जाला । परिणाम निकलता है लेकिन मानों पावक में घी डाला ।। तेरे चरणोंकी पूजासे इन्द्रिय सुखकी ही अभिलाषा । अबतक न समझ पाया प्रभु, सच्चे सुखकी परिभाषा ।। विभिन्न संस्कृताचार्यों, वैज्ञानिको तथा सन्त महात्माओंके उद्धरण उपदेशात्मक ढंगमें पढ़कर जीवन की दिशा बदलती हुई दिखाई पड़ती है। राफलेंड, हडसन, मैथलीशरण गुप्त, स्वामी रामतीर्थ, और डॉ. कैरें- जैसे अनेक देशी विदेशी विद्वानों के विचार भो दिये गये हैं। लीजिए बाबूजीने राकेशके मुंहसे अपनी बात किस तरह कहलवाई है। राकेश अपने मित्रों को विनयकी आवश्यकता समझा रहा है " बीजिए आप अधिक 'बोर' न होइये। मैं संक्षेपमें ही आपको बताता हूं। विनयभाव मनुष्यमें स्वभावसे है--विनयसे मनुष्यमें पात्रता आती है। विनयभाव जगते ही मानवके अन्तरमें अनुशासन, सत्यता, श्रद्धा और भक्ति उमड़ पड़ती है जिसका परिणाम यह होता है कि वह व्यक्ति गुरुजनोंकी संगति में रहकर अपने जीवनको शुभ परिणति में लगा लेता और सुखी होता है।" For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) मानवका प्राकृतिक भोजन फल, शाक और अन्न है २४ पृष्ठीय छोटो पुस्तक जिसका नाम "मानवका प्राकृतिक भोजन फल, शाक और अन्न है ।" बाबूजी द्वारा लिखित यथा नाम तथा गुणके अनुरूप ही दिखाई पड़ती है । लोगों में शुरू से यह धारणा चली आ रही है कि आदिकाल में मानव हिंसक प्रकृतिका था पर इस मान्यताको गलत बताकर यह सिद्ध किया है, "प्रारम्भ में मानव हो नहीं, पशु पक्षी भी अहिंसक थे और प्रेमसे रहते थे ।" पुरातन कालके प्राणी प्रकृति के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करते थे । बागे अदनमें आदम और हव्वा तथा बहिश्त में जन्मनेवाले पुण्यात्मा सभी जलाहार पर जीवन व्यतीत करते थे। सुमेरिया के ३६०० वर्ष पुराने लेख, अमेरिका के रिसर्च विश्व विद्यालय के प्राध्यापक श्री एशले भानटेगूके प्रयोग, महात्मा गांधी के विभिन्न परीक्षण के आधार पर बाबूजीने व्यक्तियोंको शाकाहारी बननेका परामर्श दिया है । वेद, मनस्मृति, महाभारत, ईसाई, इस्लाम, पारसी, कन्फ्यूशस, शिन्टो, जैन, बौद्ध और लाडसे धर्म तथा विभिन्न ग्रन्थोंके उन प्रसंगों को स्पष्ट रूपसे खोल खोलकर उन धर्म-प्रेमियोंके लिये - रखा है जो अन्ध विश्वासी तथा ढोंगा हैं और धर्मके नाम जीवों की हत्या में लगे हैं। मांसाहारको समाजोन्नति में बाधक बताते हुये वैज्ञानिक, शारीरिक और आर्थिक दृष्टिसे आवश्यक घोषित किया है। दीर्घायु और खानन्दका जोवन व्यतीत करनेके ढिये तो शाकाहार महत्वपूर्ण है ही, साथ ही उन बुद्धिहीन व्यक्तियों को जो खाद्य की समस्या हल करनेकी हामी मांसाहारसे भरते हैं उन्हें उत्पादन तथा खाद्य समस्याको पूर्णता के लिबे - शाकाहारी बनने तथा उसका प्रचार करनेके लिये कहा है । For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) "मांस और मछलीसे अन्न संकटकी दशा दूर नहीं हो सकती थी। फिर भी मांस खानेको प्रोत्साहन देना जानबूझकर अपने पैरमें कुल्हाड़ी मारना है । आवश्यकता तो जगह२ पर शाकाहारी क्लब और होटल खुलवानेकी है।" सरकार द्वारा मत्स्य व्यापारको प्रोत्साहन देने की स्थितिसे बाबूजी बड़े दुःखो थे। उनको हार्दिक पीड़ा इन शब्दोंसे प्रकट होती है-"खेद है कि भारत सरकार उल्टे बांस बरेलोको लाद रही है। उसने मत्स्य व्यापारादिको प्रोत्साहन ही नहीं दिया है बल्कि मांस खानेका प्रचार भी कर रही है जो घातक है। वस्तुतः खाद्य समस्याका हल खेतकी उपज बढ़ानेसे ही होगा।" दिवा भोजन दिवा भोजन ट्रेक्ट के रूपमें लिखी गई २४ पृष्ठीय छोटीसी पुस्तक है जिसके अबतक कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। दिवा भोजनका संस्कृति एवं स्वास्थ्यके लिये क्या महत्व है इसका पूरा वर्णन शिक्षाप्रद और उपदेशात्मक ढंगसे किया गया है। विद्वान लेखकने कुसुम और मनोज को पात्र बनाकर बड़े नाटकीय ढंगसे सर्वसाधारणको उपयोगिताको ध्यान में रखकर लिखिी है। प्रायः मनमें जो शंकाएं दिवा भोजनके सम्बन्धमें लोगोंमें उठा करती हैं वह मनोजके मुंहसे कहलनायी गई हैं और उनका समाधान कुसुमसे कराया गया है। ___ यजुर्वेद आ'हक, वसुनन्दि श्रावकाचार, सुभाषित रत्न सन्दोह, चंद्रप्रभपुराण, 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय', योगवाशिष्ठ, महाभारत ( शान्तिपर्व ), माकण्डेय पुराण, पद्मपुराण, मनुस्मृति, आयुर्वेद शास्त्र, चरकके आयुर्वेद सूत्र नेसे अनेक उपयोगी और प्रचलित अन्धों के आधार यह सिद्ध किया है कि प्रत्येक व्यक्तिको अपना भोजन शामको, सूर्यास्तसे पूर्व ही कर लेना चाहिए। अध्यात्म वादियके लिए जहां एक ओर भगवान मह For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६) और स्वामी शिवानंद सरस्वतीका विचार दिया है वहां भौतिकबादके संगीत अलापनेवालोंको आल्ट्रावायलेट किरणोंसे संबंधित वैज्ञानिक तथ्य उपस्थित किये हैं। अन्तमे धर्मको व्यवहारिकता पर लिखा है-" जैन धर्म महान व्यावहारिक धर्म है वह ठोक कहता है कि जीवनरूपी कारको ठीकसे चलानेके लिये व्रत और नियमका ब्रेक जरूर लगाओ। ब्रेकके विना जीवन संकटमें पड़ सकता है।" जैन धर्मः उसकी विलक्षणता और विश्वको देन ___ यह २० पृष्ठीय छोटीसी पुस्तक है। इसमें बुद्धिजीवी व्यक्तियोंके लिए ऐसी सामग्री प्रस्तुत की गई है जो तककी कसौटीपर खरी उतर सके। आज दैनिक जीवनसे लेकर राष्ट्रीय जीवन तकमें ऐसी ही अनेक समस्याएं विद्यमान हैं जिनका निराकरण जैब धर्मके माध्यमसे हो सकता है। इसमें जैनधर्मकी झांकी प्रस्तुत की गई है। मानवको पुरुषार्थी बनने, अपने आपको पहिचानने, इन्द्रियवासनाको आसक्तिको त्यागने, अपना ही मनन करने, ईश्वर बनने के लिए अज्ञान और अश्रद्धाके परदेसे बाहर निकलने. विवेकसे काम लेकर प्रत्यको पहिचानने और सबसे प्रेम करने की अनूठी शिक्षाएं इस पुस्तकमें भरी पड़ी हैं । दुःखका कारण और उससे छुटकारा मिलने के उपाय, अणुवाद, अपरिग्रहवाद तथा अनेकांतवाद जैसे प्रमुख सिद्धांतोंको स्पष्ट रूपमें समझाया है। __ जैनधर्मके प्रमुख आधार स्तम्भ अहिंसाको वलवानोंका शृङ्गार और शक्ति बताते हुये अपने समान सबको समझने, अंडा और मांसके प्रति घृणाको दृष्टि रखते हुए शाकाहारी बने रहनेकी बात सुझाई गई है। इसकी विलक्षणताके संबंधमें बाबूजीने लिखा भी है-"जैनधर्मके सिद्धांत विलक्षण होते हुए भी तर्क सिद्ध तथा बद्धि ग्राम हैं। सर्वोपरि उनका ठीकसे पालन करके मानव For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७) अपना तथा ढोकका हित साध सकता है। वह बाद अथवा राष्ट्रवादसे ऊपर उठकर ढोक सकता है तथा हिससे अहिंसक हो सकता है ।" X x X नव रत्न पत्र बाबूजी द्वारा रचित इस पुस्तक में अरिष्टनेमि, चंद्रगुप्त, खारवेल, चामुण्डराव, मारसिह, गंगराज, हुन्छ, सावियदे और सवी शतकी नौ ऐतिहासिक कहानियां हैं। ये जैनधर्मके डी नहीं है वरन् विश्वके विभिन्न रत्नोंमें प्रसिद्ध हैं। अतिमायें आस्था रखनेवाले जैन बोरोंकी वीरता, साहस, धैर्य, पाकम, राज्य संचालनको कुशल और युद्ध में बड़े गनबकी इन कहानियों प्रकट होती है। मजबूरी ओर व्यासाना लंड लगानेवालोंके लिये बाबूजी की यह पुस्तक सुट्टी चुनी है संकीर्ण समुदायकल्याणवादी बन SANTOS 43 स्वामी कुन्दकुन्दाचार्यकी सूक्तियां १४० प्रीय पुस्तकका प्रकाशन सन् १९६२ में हुआ । ३५ पृष्ठ स्वामीजीके जीवन के सम्बन्ध में बताया गया है। तीर्थकरीकी महत्ता भी बताई है। दोकानेके बाद ज्ञानका प्रकार जिन जिन सन्त महाराओं द्वारा हुआ उनका भी विवरण दिया हुआ है। श्रीनने अन्य संघ सम्मेलन करके बचे हुये अंगज्ञानको लिपिबद्ध करनेका प्रस्ताव रखा। क्यों श्रुतज्ञान धीरे धीरे लुप्त होने लगा है अतः आगे आनेवाली पीढ़ियोंको ज्ञानार्जन के लिये लिपिबद्ध करनेकी अत्यन्त आवश्यकता अनुभव की गई । उसी समय स्वामी कुन्दकुन्द महाराज अवतरित हुये । For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८ ) पंचमकाल में स्वामीजी पूज्यनीय माने गये और आज भी दिगम्बर सम्प्रदाय ही नहीं वरन् पूर्ण जैन समाज उन पर गर्व करता है। विभिन्न पट्टावलियोंके द्वारा लेखकने उनके जन्म तथा अन्य जीवन से सम्बद्धित घटनाओंको बताया है। स्वामीजीके चरित्र पर 'पुण्यास्रव तथा 'कुन्दकुन्दाचार्य चरित्र' के आधार पर बताया गया है। स्वामोजो पूर्वजन्म के संस्कारोंके प्रभाव से आचार्य, महाज्ञानी, और तपस्वी बनकर सामने आये। विभिन्न हस्त बिखित ग्रन्थों, शिलालेखों, जनश्रुतियों और गाथाओंके आधार पर स्वामीजीका व्यक्तित्व लिखा गया है। स्वामीजी द्वारा रचित अब तक जितने ग्रन्थ उपलब्ध हुवे हैं उन १४ ग्रन्थों के नाम भी दिये हैं। सूक्तियोंको प्रकाशित करनेका प्रमुख उद्देश्य बाबूजीने यह बताया है कि जैन परम्पराके जो महान प्रकाश स्तम्भ रहे हैं और जो महान योगिराज एबं सन्त होनेके साथ साथ सर्वज्ञतुल्य वाणी के अधिष्ठाता रहे, उन परमपूज्य प्रातःस्मरणीय भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य स्वामोको अमूल्य श्रुत सूक्तियां उपस्थित करना, भानव मानवको सम्यग्ज्ञान के आलोक में ले आना है। इस लिये उनके 'पाहुड़ एवं 'अनुपेक्जा' ग्रन्थोंसे सूक्तियोंका संग्रह किया जा रहा है । प्रस्तुत सूक्तियां रत्नत्रय धर्मको लक्ष्यकर संग्रह की गई हैं ।" इसमें संस्कृतको सूक्तियोंको बाबूजीने अंग्रेजी में अनुवाद किया है ताकि स्वामीजीकी वाणोका लाभ केवल संस्कृत व हिंदीबाले ही न उठाकर अंग्रेजी बाले भी ले सकें। पहले एक संस्कृत की सूक्ति ही है, बादको हिन्दी पद्यमें श्री बीरेन्द्र जैनका अनुवाद है और नीचे अंग्रेजीमें अनुवाद है। इसमें १०३ सूक्तियोंका संकलन है । एक सूक्तिको उदाहरण स्वरूप आपके सामने रख रहे हैं " For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९) नियमन्तिये महाजस भत्तीराएण निश्चकालम्मि | तं कुण जिणमप्तिपरं बिल्लाबच्चं दसवियप्पं ॥ निज बल अनुसार महायश हे । रह भक्ति राग रत दिन प्रति दिन ॥ कर तू परम जिनेन्द्र भक्तिकोदशविध वैयावृत्य सुमुनि -- जन ॥ 5 Oh the great fortunate soul ! imbibe ( the spirit of) love and devotion according to your strnegth, Absorb your self in the devotion of Jinas (spiritual conquerors) and perform ten kinds of selfless service (callas) vaiyavratya ( सूक्ति नं० १०१ ) समाधि-शतक यह ८२ पृष्ठीय पुस्तक “समाधि शतक" आचार्य श्री पूज्यपाद (देवनन्दि ) स्वामी कृत है। इसका अंग्रेजी अनुवाद वाङ्गमय प्रदीप श्री रावजी नेमचन्द शाह सोढापुर निवासीने किया है । तथा हिन्दी में अनुवाद बाबू कामताप्रसादजी जैनने किया है। इस पुस्तक में मानवको परमात्माकी ओर जानेके लिए प्रेरित किया गया है । योगी अपने मन, मस्तिष्क, आत्मा और हृदयको इतना विकसित कर लेता है कि उसे बाह्य साधनोंकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वह तो दूर बैठे बैठे भी बड़े से बड़ा ज्ञानार्जन कर सकता है । अणुशक्तिके आविष्कार पर विश्वास करनेवाले व्यक्तियोंके far आध्यात्मिक सत्यकी पहचान करानेके लिए इस पुस्तकका बड़ा ही महत्व है । बाबूजी के शब्दोंमें इस पुस्तकका महत्व इस For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (800) प्रकार है- “ योगिराज पूज्यपाद देवनंदिजीकी आत्मानुभूति इसके पद पद में छलछला रही है। इस अमृतका रसपान करके मानव अमरत्वका अनुभव लक्ष्य करता है । इलोकोंका पद्यानुवाद करते हमें जो आत्माह्लाद हुआ वचनातीत है । सच पूछिए तो 'समाधिशतक' का मूल्य शब्दोंके द्वारा आंका ही नहीं जा सकता है । क्षितिजसे भी महान और विशाल अनंत और अद्वितीय गुणशील आत्माका र्णन जो करता है वह तो अनुभव में ही बानेकी चीज है। गुड़ और मिश्री के स्वादको रसना द्वारा जब नहीं कहा जा सकता तो अतीन्द्रिय आत्मा के स्वरूपका बखान कैसे, यह चर्म लपेटो जीभ कर सकती है ?" काशी हिन्दू विश्वविद्यालयके विख्यात प्रो० डा० बी० एड० आत्रेयने इस ग्रन्थको अपूर्व तथा स्वामीजी द्वारा बताये गये आत्मसिद्धि से सम्बन्धित उपायोंका व्यवहारिक बताते हुये कहा है "Shri Katmaprasad jain has made the work more useful to the modern reader by adding a Hindi metrical translation of it, which is indeed very beautifully done-” श्री कामताप्रसाद जैन ने हिन्दी में पद्यानुवाद करनेवालोंके लिये अधिक सरळ बता दिया है जो सचमुच ही बडा सुन्दर है इस पुस्तक में बाबूजीने श्री राबजी शाह तथा श्री पूज्यपादा'चार्यजी की जीवनी पर भी संक्षिप्त में प्रकाश डाला है। इसमें १०५ संस्कृत में श्लोक हैं । ८८ नम्बरका पद आपके सामने रख रहे हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि मद में अन्धे होनेवाले. व्यक्ति जन्म जन्मान्तर तक दुःख ही भोगते रहते हैं । जातिर्देहाक्षिता दृष्टा देहमात्मतो भवः । For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) न मध्यन्ते भवान्तस्माते ये जातिकृताग्रहाः ॥ " ब्राह्मण आदि जाति मदमाते हैं देहाश्रित वे मति हीन । ये मद केवल भवके कारण, करें आत्म संसृति लीन ॥ हो नहिं पाते मुक्त कभी वे जो रहें सदा मदमें लवकीन | जाति बडप्पनके आग्रहसे जन्म मरण करते नित्य नवीन ॥ 3 ★ तीर्थङ्कर महावीर यह ३४ पृष्ठकी अंग्रेजी में लिखी पुस्तक है, जून ६१ में इसका प्रकाशन हुआ । इसे दो विद्वानोंने मिलकर लिखा है, एक तो बाबूजी स्वयं ही हैं और दूसरे श्री जय भगवान जैन हैं । इसके आधे भाग में भगवान महावीरका परिचय है तथा शेष भाग में मानवता के लिए उनके जो जो संदेश हैं वह बताये गये हैं। इसके सम्बन्ध में विचारक श्री वुडलेन्ड फाइबर (The Marquis of st. Innocent and the Preident of the international vegetarian union) ने लिखा है This brochure about Lord Mahavira, The last of the Tirthankars, has been written with such admirable clearness and simplicity, it needs no prefaee......May this brochure find its way into other countries where Mahavira's name is yet to be known. ८८ ( 'तीर्थंकर महावीर' नामक पुस्तक, जोकि अन्तिम तीर्थंकर के विषयमें लिखी गई, वह ऐसी प्रशंसनीय स्पष्टता एवं सरलता से लिखी गई है कि इसके लिए किसी भूमिका की आवश्यकता नहीं । मैं कामना करता हूं कि यह पुस्तक अन्य देशों में भी For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) अपना स्थान सुरक्षित कर सकें, जहांपर कि महावीरका नाम अभी भी जानना आवश्यक है । ) मेरी भावना इस छोटी सी पुस्तक में २२ हिन्दी के पद हैं जो पं० जुगलकिशोरजी द्वारा रचित है। इन हिन्दी पदका अनुबाद अंग्रेजी में बाबूजीने सन् १९४९ में किया था। हिन्दी के पदोंको लाखों व्यक्तियोंने पसन्द किया । इसलिये यह आवश्यकता अनुभव हुई कि इसे अंग्रेजी में लिखकर और अधिक प्रसारित किया जावे । श्री अजितप्रसादजी सम्पादक जैन गजटने अंग्रेजी में अनुवादकी प्रेरणा दी और बाबूजी द्वारा बादको पूर्ण हुई। इसमें व्यक्तिकी ईश्वर के प्रति आदर्श प्रार्थना है जो एक भक्त सच्चे हृदयसे नित्य सुबह शाम कर सकता है। सत्संग, सन्तोष, शान्त स्वभाव, सत्य व्यवहार, जीवों पर दया, न्यायमार्ग और सहनशीलता की प्रार्थना की भावना इन पदों में है। मधुर वाणीके लिये मेरी भावना के स्वर देखिये : फैले प्रेम - परस्पर जगमें, मोह दूर पर रहा करे । अधिक कटुक कठोर शब्द नहिं, कोई मुखसे कहा करे | May Universal love pervade the world and may ignorance of attachment remain far away. May no body speak unkind, bitten and harsh word! [ अहिंसा-संसार की समस्याओं का सही निदान ] ★ For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३) Abimsa Right Solution of World Problems सन् १९५०में ४० पृष्ठकी अंग्रेजी में यह पुस्तक प्रकाशित हुई। इसमें सांसारिक समस्त समस्याओंका समाधान अहिंसा द्वारा सुलझाने के उपायों पर ही प्रकाश डाला गया है। अहिंसाके द्वारा खाद्य, युद्ध समस्याका निराकरण कैसे हो ? आदर्श समाजमें अहिंसाका महत्व विश्वशंतिके लिये अहिंयाका योगदान और भयभीत लोगों में अहिंसा द्वारा सान्त्वना जैसी अनेक व्यक्तिगत और राष्ट्रीय समस्याओंके विषयमें बताया गया है। विश्व भारती चीन भवन शांति निकेतनके संचालक श्री तान यून शान (Tan yun shan)ने इस पुस्तकके बारे में लिखा है " Shri Kamtaprasad Jain" fonnderconvener of The World Jain Mission, needs no introduction to the Indian pablic. He is a devoted follower of Lord Mahavira and a staunch votary of the cult of Ahimsa......In this paper"Ahimsa : Right solution of World Problems" -Shri Jain has diseussed the subject in all its vartous aspects and told us how the gospel of Ahimsa could be applied in every phase of human life.” [श्री कामताप्रसाद जैनसे पालक अखिल विश्वजैन मिशनका भारतीयोंके लिये परिचय देनेकी बावश्यक्ता नहीं। वे महावीर स्वामीके सच्चे अनुगामो और अहिंसाके विश्वासपात्र भक्त थे। इस पत्र "अहिंसा-संसारकी सदस्याओं का बही निक्षान में श्री अबवे. For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) विषयके विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है और बताया है कि बहिंसा जीवनके प्रत्येक भागमें डागू की जा सकती है।] Life Story of Shri Parshvanatha श्री ज्योतिषमाणण्ड मुनि हर्षविमलजीको पुस्तक 'श्री पाश्व. नाथका जीवनचरित्र'का अंग्रेजी अनुवाद इस ४६ पृष्ठीय पुस्तकों है। मुनि हर्ष विमलजी यह चाहते थे कि इसका अंग्रेजी अनुवाद हो और सभी लोग लाभ उठा सकें। बाबूजोने लिखा भी है As such the life story of Lord Parshva is a fine piece of narrative literature which inparts à right lesson to erring humanity and so we hope that a perusal of the present brochure will prove instrcetive and beneficial to the reader.” [इस प्रकार पाश्र्वनाथकी जीवन गाथा वर्णनात्मक माहित्यका महत्वपूर्ण अंश है। जो कि भयभीत मानवताको सच्चा माग प्रशस्त करती है। इस लिये हम आशा करते हैं कि उक्त पुसमका निरीक्षणात्मक अध्ययन पाठकोंके लिये शिक्षाप्रद एवं लाभद यक सिद्ध होगा] Mahavir and Buddha ( महावीर और बुद्ध) यह २८ पृष्ठीय अंग्रेजी में लिखी पुस्तक भगवान महावीर बोर बुद्धका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करती है। दोनों महा. पुल्चोंका प्रारम्भिक जीवन, वैराग्यकी प्रवृत्ति, भगवान महावीरके बीपनका विशेष परिवर्तन, धर्म चक्रका महत्व, राजा बिम्बसार, For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) भगवान महावीरके उपदेश, भगवान बुद्ध द्वारा मध्यमार्गका प्रचलन । दोनों धर्मके तुलनात्मक सिद्धान्त, दोनों धर्मों के द्वारा जनसेवा कार्य आदि बातों पर प्रकाश डाला है। और यह भी स्पष्ट किया है कि जैनधर्म भी बौद्धधर्मकी तरह एक विश्वधर्म है। दोनों महापुरुषोंने समाजको जिन नियमों और शिक्षाओं पर चलनेके लिये आदेश दिया है उन्हें भी तुलना करके बताया है। इस पुस्तककी Dr. Miss Eharlotte Krause Ph. D. (Geipsig) ने मूरि२ प्रशंसा की है। LORD MAHAVIRA The greet Saviour of the world. यह ३४ पृष्ठीय पुस्तक अंग्रेजी में लिखी हुई है। जो महावीर जयन्ती १९६३ को प्रकाशित हुई। इसमें भगवान महावीर का प्रारम्भिक जीवन, त्याग और तपस्याकी कहानी, उनके उपदेश, अन्य तीर्थकर. महाबीरका निर्माण और भारतीय संस्कृतिको जैन धमकी देन जैसे उपयोगी अंगोंको लेकर पुस्तकको सुन्दर बनाया गया है। अनेकांत और अपरिग्रहका महत्व भी बताया है। जैनधर्मको प्रमुख विलक्षणताएं और सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है। अपने शत्रुओं पर विजय कैसे प्राप्त की जाये ? महाबीर जयन्तीका क्या महत्व है ? उसे कैसे मनाया जावे ? और महावीर जयन्ती पर हम क्या सीखें ऐसे अनेक प्रश्न व शंकाओंका समाधान भी किया है। प्रत्येक देशमें शांति स्थापनाकी समस्याका हल ब बूजी ने इस प्रकार बताया है "May His Sacred memory inspire in us the spirit of Ahinsa, the vision of Anekanta and the hamanitarian feeling of Aparigraha, so that we For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) may be succesful in establishing peace on earth peace in every country and peace every home.” [उनकी पवित्र स्मृति हममें अहिंसाकी भावना प्रेरित करे, भनेकान्त, अपरिग्रह तथा मानव धर्मको पालन करनेको भावना पैदा करे, ताकि हम पृथ्वी पर प्रत्येक देशमें, तथा प्रत्येक घरमें शान्ति स्थापित कर सकें] (जैन धर्म और संस्कृति पर विचार ) Reflections on Jains Religion and Culture. सन् १९५३ में पेरिसमें २२ वां स्थायी विश्वधर्म सम्मेलन हुआ जिसमें यह निबन्ध प्रस्तुत किया गया। इसमें धर्मकी व्याख्या सत्यका विज्ञान करके की है। विभिन्न धर्मों के साथ जैनधर्मकी महत्ता, तथा प्रमुख ५ सिद्धांतों की व्याख्या भी की है। जैन सभ्यता और संस्कृतिका अहिंसासे सम्बन्ध स्पष्ट किया है। समस्त प्राणियोंको आह्वान करते हुये लिखा है Love all and serve all under the light of Truth and Ahimsa in our motto and we invite you all cordially to cooperate with us in its aehievement. (हमारा उद्देश्य सत्य और अहिंसाके प्रकाशसे सबको प्रेम करने तथा सबकी सेवा करने का है तथा इस उद्देश्यकी प्राप्तिके लिए हम सबके सहयोगकी हृदयसे कामना करते हैं।) Vira Nirvana Day वीर निर्वाण दिवस __ यह १६ पृष्टीय अंग्रेजी भाषामें लिखा गया ट्रेक्ट है जो सन् १९५०में प्रकाशित हुआ। २२ अक्टूबर सन् १९४९को भगवान For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ महावीरका निर्वाण दिवस इंग्लैण्डके जैन समाज द्वारा Caxtone Hall. भवन बन्दनमें मनाया गया। प्रोफेसर बाई.जे. Padma. rajiah उसके अध्यक्ष बनाये गये । मिस्टर जालफ्रेड मास्टर C. I. F.. का व्याख्यान "भारतमें जैनियों की स्थिति" विषय पर हुआ था। वह भाषण भी लोगोंको जानकारीके लिये इस ट्रक्टमें दिया गया है। बीच बीच में बाबूजीने संक्षिप्त नोट देकर अपने विचार प्रकट किये हैं। जिससे पद ज्ञात होता है कि विदेशों में भी जैन धर्मकी स्था कितनी है। और प्रचारकार्यमें कितनी रुचि लेते हैं। आत्मसिद्धि (Self-Realization) ४८ पृष्ठीय यह पुस्तक श्रीमद् राजचन्द्र द्वारा रचित है पर' इसका संस्कृत रूपान्तर पं० बेचरदासजी, हिन्दी रूपान्तर श्री बीरेन्द्रप्रसादजी और अंग्रेजी रूपान्तर कविताके रूपमें ब्रह्मचारी श्री गोवरधनदासने किया है । जिसका परिचय प्रारम्भमें २७ पृष्ठोंमें अंग्रेजीमें सितम्बर सन् ५२ में बाबूजीने लिखा है। वैसे इसका प्रथम संस्कारण ५७ में निकाला था जिसमें लेखकका प्रमुख उद्देश्य, लेखककी जीवनी, प्रमुख शिक्षाएं, सादा जीवन और उच्च विचारकी भावना, महात्मा गांधी और कषि राजचन्द्रजीकी भेट तथा प्रेरणाप्रद प्रसंगोंका वर्णन किया है। जब महात्मा गान्धी दक्षिणी आक्रोका गये वहां उन्हें अपना जीवन सुचारू रूपसे चलाने में कठिनाई हुई तो उन्होने कवि राजचन्द्रको पत्र लिखकर अपनी शंकाएं समाधान करवाई। लगभग २७ प्रश्न पूज्य बापूने कविराजसे पत्र व्यवहार द्वारा पूछे थे। - सपा प्रश्नोंका उत्तर जो कविराजने पापूको दिया। उनके उत्ता भी For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) बाबूजीने प्रकाशित किये हैं। वास्तव में बापूने अपने प्रारम्भिक जीवनमें कविराजसे काफी प्रेरणा भी प्राप्त की थी। ___ आत्मा, कर्मका बन्धन, ईश्वर, मोक्ष, मोक्षकी सम्भावना, मृत्युके बाद जन्म लेनेकी स्थिति, आर्य धर्मकी व्याख्या, वेदोंकी महिमा, भगवद्गीता, ईसाई धर्म, बाईबिल और क्रिस्ट, पिछले और अगले जन्मकी बातें, प्रलय, भाग्य, भक्ति, राम, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु और महेशका परिचय, अहिंसाकी समस्या आदि विषयों पर प्रश्न और उत्तर भी दिये हैं। साथ ही आत्मसिद्धि "शन्दकी व्याख्या करके भी विचारोंको स्पष्ट किया और आशा “ Though the book is small but it will certainly prove a guide and solace to many a forlorn wayfarer of the rough road of life.” [यद्यपि पुस्तक छोटी है फिर भी जीवनके ऊबड़ खाबड़ मार्गसे विचलित व्यक्तियों के लिये निश्चित रूपसे मार्गदर्शक तथा सान्तवनाकारी सिद्ध होगी। Bahubali बाहुबली And his wonderful colossal statue और उसकी आश्चर्यजनक तथा विशालकाय मूर्ति । सन् १९५९में ८ पृष्ठीय इस ट्रेक्टका अंग्रेजी में प्रकाशन हुआ। “इसमें प्राचीन संत श्री बाहुबली (जो भुजबली और कामदेवके नामसे भी विख्यात हैं)का जीवन चरित्र दिया है, साथ ही इनके भाई भातका भी वर्णन है दोनोंके गा कार्यका हाल भी इसमें दिया है। साथ ही बाहुबलीकी विशालकाय और आश्चर्यमें For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९) डालनेवालो ५७ फोट ऊंचो मूर्तिका वर्णन भी मिलता है जो आज भी Sravanabelagola श्रवणबेळगोल (मैसूर ) में स्थित है। इस ट्रेक्टके सम्बन्धमें Matthew Mekay ( Brighton Sussex ) ने लिखा है My Dincere wish is that all readers of this tract will investigate the truth contained in the Jaina Scriptures. By so doing they will find that which convlys all that is necessary for the purification of soul and progress of Mankind. मेरी उत्कृट आकांक्षा यह है कि इस पुस्तिकाके पाठक पायेंगे कि इसमें जैन शाखोंमें निहित सत्यका वर्णन है। ऐसा करनेसे वे पायेंगे कि इसमें आत्माकी पवित्रता और मानव जातिको प्रगतिको सभी माश्यक बातें उपलब्ध हैं। [महावीर स्वामोके कथन] The Sayings Lord Mahvira यह १२ पृष्ठीय अंग्रेजीका ट्रेक्ट महावीर जयन्ती १९५४को प्रकाशित हुआ। भगवान महावीर जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर हुवे थे जिनका जीवन समाजके सुधार के लिये ही समाप्त हुआ। उनका जीवन एक आदर्श जीबन था। जिसके जैन धर्मको या भारतवर्षको ही नहीं वरन् विश्के प्रत्येक नागरिकको बहुत कुछ सीखनेको मिल सकता है। प्रारंभ के ८ पृष्ठोमें भगवान महाबीरका जीवन चरित्र लिखा गया है। शान्ति और सत्यके इस पुजारीका जीवन ही न पढ़ा जावे वरन् उन्होने समाजके लिये जो भी कहा, अथवा बताया उसे प्रत्येक व्यक्ति पढ़े, समझे, विचारे और करै इसलिये बाबूजीने १२ पृष्ठों में भगवान महावीरके उपदेश संकलित कर बिखें हैं। For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०) डॉ. रवीन्द्रनाथ टैगोर और डॉ. बी. मी. लाके जो विचार भगवानके सम्बन्धमें रहे उनका उल्लेख भी किया गया है। लगभग ५० सुभाषित इसमें संकलित है। बाबूजीने कहा है I hope that the readerr will appreciate my humble attemptand benefit by the healing and soothing words of the great teaeher. मैं आशा करता हूं कि पाठकगण मेरे नम्र प्रयामोंका मूल्याकंन करेंगे और महान उपदेशकके सान्तवना प्रदायक शब्दोंसे लाभान्वित होंगे। Lord-Mahavira and Some other teaehers of his time. ३८ पृष्ठोय इस अंग्रेजोकी पुस्तकका प्रकाशन सन् १९२७ में बाबूजीकी धर्मपत्नीको स्मृतिमें हुआ। इसमें भगवान महावीरके जीवन और उनके उपदेशोंका तो वर्णन है ही, साथ ही साथ समकालीन अन्य ६ शिक्षक निम्न लिखित हैं (1) Gotam Bnddha .(2) Purana kassapa (3) Makkhli-Gosala (4) Ajita Kesa Kambali (5) Pakuda Katyayana (6) Sanjava Vairathiputra जैनधर्म और बौद्ध धर्मके प्रमुख सिद्धांतोंमें कहांतक समानता और कहांतक अन्तर है ? उसे भी स्पष्ट किया गया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालयके प्रोफेसर डॉ० बेनीप्रसाद एम. ए. पी. एच.डी. ने प्रस्तावनामें लिखा है For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ । In this brief dissertation Mr. Kamtaprasad Jain M. R. A. S. has attempted to give a lucid account of Mahavira, the twenty-fouth jains Tirthankara and other teachers who revolted against the dominont Brahmanie system and chalked out or re-fashioned other lines of thought and conduct." (डॉ० कामताप्रसाद जैन एम. आर. ए. एस. ने चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के बारेमें तथ्यपूर्ण वर्णन किया है और समकालीन अन्य प्रबल शिक्षकोंका भी वर्णन किया है जिन्होंने ब्राह्मणवादके विरोध नूतन विचार एवं व्यवहारोंको जन्म दिया।) Some Historical Jaina Kings and Heroes (कुछ ऐतिहासिक जैन रागी और वीर) १०८ पृष्ठवाली इस पुस्तकका प्रकाशन १९५१में हुआ था। विभिन्न जैन राजाओं, वीरों ओर सेनापतियों का वर्णन इस पुस्तकमें हैं। जो लोग जहिंसाका गलत अर्थ निकालते हैं तथा जैन धर्मके सिद्धान्तों को बिना समझे बूझे आलोचनाका विषय बना देते हैं उन्हें इस पुस्तकके अध्ययनसे अपनी शंकाको समाधान करने में काफी सुविधा मिलती है। जैन धर्मका अहिंसाका सिद्धांत यह नहीं बताता कि युद्धभूमिमें शत्रुओंको पीठ दिखाकर घर वापिस चले आओ। अहिंसा सैद्धांतिक ही नहीं वरन् व्यवहारिक रूप भी हमें जैन बीर और राजाओं में देखनेको मिलता है। महावीर वर्धमान, श्रेणिक बिंबसार, चन्द्रगुप्त मौर्य, राजा बीजल, राजपूत राजाओं, विभिन्न सेनापतियों, रानी चेलना और भैरवदेवी आदिकी गौरव-गाथाओंसे यह पुस्तक भरी पड़ी हैं। जिनके जीवनकी शिक्षा हमें वीर और बहादुरीकी ओर For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) प्रेरित करती है : Miss Elisabeth Praser ने अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं: “The object of the book has been achilved and it is open to all to see that once Jainism was a real force and power in India.” । पुस्तका उद्देश्य प्राप्त हो चुका है और यह सभी लोगोंके देखनेके लिए खुला है कि एक समय जैनधर्मकी प्रबल शक्ति और प्रवाह भारत में मौजूद थे] The Religion of Tirthankaras. रह अंग्रेजी भाषा का ५१४ पृष्ठमा विशाल प्रन्ट १९६४ में प्रकाशित हुआ: इख अन्धके प्राधा पद समूचे जैनधर्मश मूल्यांकन किया जा सकता है। जीजन का आदर्श, धमकी व्याख्या, धर्म जीवन का आधार स्तम्भ, जैन सिद्धांत, जैनधर्मको स्वतंत्रता, जैन और बुद्ध धर्माशी तुलना, व्यक्ति की महाना, खमयका चक्र, स्थाहिंसा संस्कृति और कम भूमिका पारा, तीर्थ कर का अर्थ, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, भरत और बाहुबलि, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, सावान महाबोर बर्द्धमान, भाजाद महावीर के बाद जैन धर्म की स्थिति, शिशुनाग और जैन धर्म, मौर्य, कलिंग व अन्य राजा, मध्यदेश, आन्ध्र और मालवामें जैन धर्मको स्थिति, दक्षिण भारतमें जैनधर्म, धमका विज्ञान-जैनधर्म, अनेकांत सिद्धान्त, शरीर और यात्माका सबन्ध, मनुष्य और ईश्वर. प्रकृति के सार्वभौतिक सिद्धान्त, कर्म सिद्धान्त, जैन संस्कृतिका विश्लेषण, राष्ट्रीय कल्याण और आंतर्राष्ट्रिय शांतिकी स्थापना, प्रतिक्रमण, जैनधर्म में मोक्षका महत्व, जैनके मुख्य विभिन्न तीर्थस्थान, विभिन्न पर्व और और जैनधर्मका प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, तामिल, कन्नड़, For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में साहित्य, जैन कलाकी व्याख्या, जैनधर्मका सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिकोणसे कल्याण हेतु मुल्यांकन, गुप्रकालमें जैन धर्म, गुमकालों पुरातत्व पृथ्वीराज और अन्य राजपूतों के शासन कालमें जैनधर्मका प्रचार, गुजरात, सौराष्ट्र, काठियावाड़ और दक्षिणी भागमें जैन धर्म और मुसलिम व अंग्रेजी शासन काल में धर्मका महत्ह जले अनेक आवश्यक विषयोंपर घरलता तथा उपदेशात्मक शैलोये विस्तृत प्रकाश डाला है : सेकड़ों प्रन्यों के अध्ययन क शोधोपरांत लिखा गया यह विउ अन्य अधिक महत्वपूर्ण है। इसे बाबूज के जोबनको नाम से बड़ो कृति का जा सकता है। (Chapter V) (Extract from B. C. law's Buddhistic Studics) Mahavira & Buddha यह ६६ पृष्टीय सन् १९३१में प्रकाशित अंग्रेजी की पुस्तक है। जिसमें प्रामान महा और बुद्ध का विस्तृत विवेचन है। दोनोंको साडीमला, होगी बन तुलनामा बर्गर, विभिन्न शिक्षाएं और विभिन्न घटनाओं का उल्लेख किया गया है। . श्री दशलाक्षणिक धर्म जयमाला १६ वीं शताब्दी के अपभ्रंश साहित्यके महाकवि श्रो स्यधूको प्रसिद्ध कृत्ति 'दशलक्षणिक धर्म जयमाला' का प्रकाशन तो वैसे बहुत पहले हो चुका था, पर बाबू नीकी यह इच्छा थी कि इसका हिन्दी पद्यानुवाद तथा अंग्रेजी में अनुवाद हो तो यह कृति अधिक लोकप्रिय हो सकती है। अस्वस्थताके दिनों में बाबूजी द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद चल रहा था, थोड़ा अंश शेष रह For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) गया था जिसकी पूर्ति उनके पुत्र बीरेन्द्रप्रसाद जैनने की । जो इच्छा बाबूजी की थी वह तो पूर्ण हुई पर बाबूजो स्वयं अपनी इच्छाको खाकार होते देख न सके, यह एक दुःखका विषय है । क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संग्रम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य जैसे धर्मके दशलक्षगों का वर्णन सभी हिन्दी अंग्रेजी पढ़े लिखे व्यक्तियोंके लिये बहुत ही महत्वपूर्ण है । अगस्त ६४ में प्रकाशित हुई, कवि श्री पद है जिनका हिन्दी पद्यानुवाद श्रीमती किया है तो अंग्रेजी में अनुवाद बाबूजीने इस पुस्तक में जो धू अपभ्रंश भाषा सरोजनीदेवी जैन ने किया है। * प्रतिमा लेखसंग्रह } वि० स० १९९४में सम्पादित की हुई ४० पृष्ठकी तक है। इसमें मैनपुरी उ० प्र० के दिगम्बर जैन पंचायी वडा, कटरा, लोहिया अग्रवाल, भगतजी के मन्दिरों जो मूर्तियां हैं, उन सभी मूर्तियां, जिनमें लिंग और चिह्न प्रकट नहीं होते, का वर्णन किया है। मूर्तियों का रंग, विभिन्न चिह्न, आकार, ऊंचाई, स्थापना समय, और पाषाणकी किस्म आदि के बारे में विस्तार में दिखा गया है। ताम्रपत्रको प्रशस्तियों, डिंग, चिह्न साइत प्रतिमायें, यंत्रो की प्रशस्तियों, यंत्रके लेखसंग्रहों, कुटुम्ब श्रावक-श्राविकाओं, पंडित, राजा-महाराजाओं, नगरों बडडी, अटेर, अजमेर, आरा, इष्टिकापथ, अखरो, कसिमीग्राम, जोधपुर, बनारस, विलसो, महिदपुर, मैनपुरी आदि २२ नगरों ], और जातियों [ अंग्रेोत क्रकेश, खंडेलवाल, गोळानार, गोलसिगारा, जेसबाट, धाकौ, चोरबाड, वुते जाति, माहिमवंश, राहत, और श्रीमाल आदि १८ जातियोंका वर्णन भी किया गया है। * For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) कृपण जगावन चरित्र यह ६० पृष्ठीय पुस्तक बाबूजी द्वारा सम्पादित है जो सन् १९४८ में उनके पिताजीकी पुण्य स्मृतिमें प्रकाशित हुई। ऐसे तो यह पुरानो हस्तलिखित पुस्तक थी पर उसकी ऐतिहासिक भूमिका तथा टिप्पणी लिखने का श्रेय बाबूजी को ही है। बाबूजी सदैव यह चाहते थे कि पुराने जितने भी ग्रन्थ पुस्तकालयोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं उन्हें यदि समाजके समक्ष प्रकाशित कर रखा जा सके, तो संसार का बहुत बड़ा हित होगा और साथ ही महानात्माओं के ऋणस्ले थोड़े बहुत उऋग भी हो सकेंगे। ___ यह रचना मौलिकरूपसे कविवर ब्रह्मगुलालजी द्वारा लिखित है इसमें धानिकता और नेतिकताका शिक्षण है। लोमवृत्तिको भयंकर हानियां तथा दान के सरिणामों को बताया है। इस पुस्तकको एक प्रति दिल्ली में तथा दूसरी अलीग्रांज भिन्। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन कर मूल पाठ तैयार किया है। दोनों में जहां अन्तर प्राप्त हुआ वह फुटनोट देकर पाठकोंके समक्ष स्थिति स्पष्ट कर दी है। मूल पाठको समझने में सुविधा हो इस दृष्टिसे प्रारम्भमें राजगृह नगर में वसुपति राजाके राज्यमें रहनेवाले एक सेठ की कहानी संक्षिप्त में लिख दी है। उस समय सामाजिक और धार्मिक स्थिति कैसी थी ? इसका स्पष्ट विवरण हमें मिलता है। साथ ही कवि ब्रह्मगुलाल का जीवन परिचय तथा साहित्यिक कृतियों के सम्बन्धमें भी उल्लेख किया गया है। साथ हो अपने पिताजीका भी संक्षिप्त जीवन पढ़नेको मिल जाता है । 'कृपण जगावन चरित्र' कविने श्लोक, दोहे और भाषा और चौपाईयोंमें रची है। इसकी भाषा पुरानी हिन्दी अथवा व्रज भाषा है। कवि अलीगढ़ (उ० प्र०) जिलेके रहनेबाले थे इसलिये आसपासकी भाषाका प्रभाव भी उनकी रचना पर पड़ा है। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) श्री महावीर स्मृति ग्रन्थ बाबूजीके सम्पादन में "श्री महावीर स्मृति ग्रंथ" सन् १९४९ में प्रकाशित हुआ जिसमें ३३६ पृष्ठ हैं । इस ग्रंथके लिये देशविदेशके कितने ही विद्वानोंसे लेख एकत्रित कर प्रकाशित किये गये हैं। वैसे तो डॉ. विमलाचरण साह, प्रो० आदिनाथ नेमनाथ उपाध्ये, श्री रावजी नेमचन्द्र शाह भी सम्पादन मण्डलमें रहे हैं पर बाबूजीने विशेष उदाता दिखाई है। श्री मैथ्यू-मैकूके माहब बाइटन इंग्लेण्ड, डॉ. विलियम हेनरी टॉस्बोट, फेशर हाम, इंग्लैण्ड, और श्री हर्बट बरम साहब त्रिदेशी विचारकों तथा श्री हरिसर, भट्टाचार्य एम. ए. पी. एच. डा. हाबड़ा, बाहुल सांकृत्यान प्रयाग, डॉ. गजलि पांडेय काशो, पी. के. गोडे पूना, प्रो० बलदेव उपाध्याय, श्री चल्दा हाम जी न्यायतीर्थ, डॉ. सासुद्देवशाण अग्रवाल, श्री इजाप्रसाद द्विवेदो, डॉ. बनारसीदाम आदि आरती गण्य-मान्य विद्वानोंके ओ तथा प्रभावपूर्ण लेख हैं। कुछ मिलाकर ७१ लेख व कविताएं हैं। डॉ० कामताप्रसाद जैन का "ऋषभदेव और महावीर शीर्षक: लेख तुलनात्मक अध्ययन के लिये आवश्यक है। दोनों तीर्थंकरोंके विचारों में समता और भिन्नता प्रकट की। अन्त में लिखा है"ऋषभदेव आर्य सभ्यता और अहिंसा संस्कृति के प्रतिष्ठापक और जैन धर्मके संस्थापक हुये तो महावीर अहिंसा संस्कृति के शोधक उन्नायक और जैन धर्मके पुनरोद्धारक हुये । ___ दूसरा लेख 'महाबीर और बुद्ध' शोर्षक है। इसमें तीर्थंकर ब तथागत शब्दोंकी व्याख्या की गई है। इस लेख में वुद्ध और महावीरको जीवनगाथाओं को लेकर तर्क पूर्ण विचारोंसे भगवान महावीरको उच्च स्थान प्रदान किया है। विभिन्न ग्रन्थों तथा अनेक विदेशी विचारकोंके विचारोंको भी काममें लिया है। For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) एक स्थल पर बाबूजी ने लिखा है " बुद्ध स्वयं और अपने अनुयायियों को प्राणी हत्या से दूर रहनेके लिये जैनोंके समान ही सुबिधान रखते थे, किन्तु जब कोई गृहस्थ उनको बह मांस देता था जो उनके उद्देश्यसे नहीं मारे गये पशुकी हत्या से प्राप्त हुआ है, तो वह ले लेते थे...... जैन धर्म में ऐसा कोई संदिग्ध स्थल नहीं है - उनमें मांस भोजनका सर्वथा निषेध है ।" दूसरे स्थल पर भी भगवान महावीरकी शिक्षा लौकिक और पारलौकिक जीवनको सुधारने वाली बताई है- “बुद्धदेवने लोक और परलोककी ओर ध्यान नहीं दिया। उन्होनें संसारके दुखों और उनसे मुक्त होनेके लिये इस जीवनको संयमित बनाने पर जोर दिया । यह जीवन सुधार लिया तो भविष्य भी सुधर जायेगा | ... महावीरने जीवन विज्ञानका निरूपण किया - मानवको इस जीवन और भावी जीवनका वैज्ञानिक बोध उन्होने कराया। इससे मानव के मन और बुद्धि दोनों को संतोष हुआ और वह इस जीवन के साथ ही भावी जीवनको भी सफल बनाने में समर्थ हुआ ।” इसी स्मृति ग्रंथ में एक अन्य लेख बाबूजी का भगवान महावीर और महात्मा गांधी " है । इसके पढ़ने से यह मालूम पड़ता था कि महात्मा गांधीका जीवन जैन धर्म और महावीर की शिक्षाओंसे पूरी तरह प्रभावित था। क्योंकि बापू जानते थे कि अहिंसा के सिद्धांत को विश्व में सबसे अधिक विकसित करनेवाले महावीर हो थे । और इसी अहिंसा के गांधीजी पुजारी थे । बिलायत जाते समय गांधीजीको माताने जिन तीन प्रतिज्ञाओंको करवाया था, वे एक बेचरजो जैन साधुके परामशंसे ही हुई थीं । बापूके जीवन में श्रीमद् राजचन्द्रभाई के साहित्यने-बाणीने तथा पत्रोंने बड़ी सान्त्वना दी। भगवान महावीरकी शिक्षाका पूरा परिचय उन्हें श्री राजचन्द्रसे ही हुआ। जिस प्रकार भगवान महावीरने अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म माना और अपने जीवन तथा For Personal & Private Use Only "" Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) समाज में प्रतिष्ठापित किया ठीक वैसे ही महात्मा गांधी अहिंसा व्रत पर जीबनके अंत तक डटे रहे । एक अन्य लेख अंग्रेजीका है जिसका शीर्षक है-" The Significance of the Name Mahavir." इसमें बाबूजीने यह बताया है कि अंतिम तीर्थंकर का नाम वैसे तो बर्द्धमान था पर महावीरके नामसे वे क्यों विख्यात हुए ? इसका कारण यही मालूम पड़ता है कि वे बोर थे, बीर ही नहीं वरन् महावीर थे। उनमें बीरता थी, बीरबकी भावना थी, इसलिये महावीर नामसे विख्यात हुए। संगमदेव ने परीक्षा के बाद उन्हें 'महावीर' कहा। रुहने तो उनको अतिवीर महावीर कहा था। इस प्रकार इस लेख में भगवान महाबीर के नामकी विस्तृत व्याख्या की गई है 1 मंगल प्रभात सन् १९५२ में जब डो० कामताप्रसाद जैन के सुपुत्र श्री वीरेन्द्र जैनका शुभ विवाह संस्कार हुआ तभी ६० पृष्ठीय इस काव्यका सम्पादन स्वयं बाबूजीने किया था। यह विशुद्ध काव्य ही नहीं है, वरन् देश विदेशके विद्वानोंकी सम्मतियां आशीर्वाद तथा वैवाहिक जीबनसे सम्बन्धित विचार हैं I श्री सुधेश, श्री शशि, श्री गुञ्जन, सुरेन्द्र प्रचंडिया, तन्मय बुखारिया, वीरेन्द्रप्रसाद जैन, हरिऔध, आदि कितने ही कवियोंकी सुन्दर कविताएं हैं। हरिऔध की कविता 'किसीका दिल काहे छोले ' तन्मय बुखारियाको 'चाहता जीवन किसीके प्यारी पहिचान', गुञ्जनकी 'जहां पूजा जाता नारीत्व वहीं पर अमरोंका घर है' और सुवेशकी 'प्यार पानेकी पिपासासे किसीको प्यार मत दो' आदि कविताएं बड़ी मर्मस्पर्शी हैं। For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) " महात्मा भगवानदीन, श्री जैनेन्द्रकुमार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, गुरुदयालजी मल्लिक, श्री रिषभदासजी रांका आदि भारतीय विद्वानों तथा सन्त योनोसुके ताकानोजी (जापान), डा० रिचर्ड डेलो (लन्दन), श्री तानयून शान (चीन), प्रो० दुश्शी (इटली) और डा० विलियम हेनरी ( इंग्लैण्ड) आदि विदेशी विद्वानों के गृहस्थ धर्म, तथा वैवाहिक जीवनसे सम्बन्धित पत्र भी प्रकाशित है । डा० रिचर्डने विवाहको यथार्थ प्रेम, सन्त योनोकेने 'पवित्र संस्कार', जैन जगत के सम्पादकने 'प्रवेशद्वार', श्री मलिकने 'विवाह दो स्वर मिलकर समरस होनेका संगीत' तथा 'द्विवेदी आशाका संदेशवाहक' बताया है इस प्रकार यह पुस्तक मनोरंजक, प्रेरणादायक और शिक्षाप्रद है । यद्यपि इस पुस्तकका प्रकाशन साहित्यिक प्रेमोपहार के रूपमें हुआ था, पर अब भी सबके लिये समानरूपसे उपयोगी सिद्ध हो सकती है ✩ तत्वार्थ सूत्र सार्थ यह गुटका साइज की ११४ पृष्ठवाली बाबूजीद्वारा सम्पादित तथा अनुवादित की हुई है जो १९५० में प्रकाशित हुई । ईसाई धर्म में बाइबलको जो महत्व है तथा आयें संस्कृतिको माननेवालों की जितनी आस्था भगवतगीता पर है ठोक उतनी ही आस्था जैन धर्मवाले संस्कृत भाषा के प्राचीन जैन ग्रन्थ 'तत्वार्थसूत्र' पर रखते हैं। ईसाकी प्रारंभिक शताब्दियों में जब संस्कृतका विशेष प्रचार हुआ तो जैनियोंने भो संस्कृत भाषा में ग्रन्थ रचनाका बिचार किया। इस कार्यका प्रारंभ सौराष्ट्रके गिरिनगर नामक शहर के द्वैपायक नामक जैन गृहस्थने किया और दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग : " नामक सूत्र रचकर घरके खंभे पर लिख दिया । जब उनकी अनुपस्थित में उमाखाति आचार्य आहार लेने घर गये For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० तो उस सूत्रका देखा और 'सम्यक' शब्द बढा दिया। गृहस्थ जब घर लौटा तो बड़ा प्रसन्न हुआ और आचार्यकी खोज कर 'तत्वार्थसूत्र' ग्रन्थकी रचनाके लिये उनसे प्रार्थना की, लो बाद में पूर्ण हुई। इसमें चारों अनुयोगों अर्थात् प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोगका समावेश किया गया। इसमें १० अध्याय हैं। पहले अध्याय में तत्वबोध पाने योग्य ज्ञानकी विवेचना को गई है तथा मोक्षमागकी सिद्धि के लिये जिन सात तत्वों, रत्नत्रय धर्म, नय निक्षेप, तथा पांच ज्ञानका वर्णन किया है जो इसके अन्तर्गत है द्वितीय अध्यायमें जीवके औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदायक और परिणामक भावोंकी विवेचना की है। तीसरे अध्यायमें सात भूमियों उनकी नदियों पर्वतों देवी, देवताओं, रंगों तथा बिभिन्न दिशाओंका वर्णन है। चौथे अध्याय में देवताओंके चार निकाय भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक बताये हैं। __ पांचवें अध्यायमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल चार द्रव्योंकी व्याख्या, छठे अध्यायमें आसक्तत्वकी व्याख्या करते हुवे कर्म सिद्धांतकी वैज्ञानिकताको, सातवें में व्रतोंकी य ख्या नधा आदर्श जीवन व्यतीत करने के तरीके, आठवें में कर्मों के बधसे सम्बन्धित, नवमें आस्रबोंका निरोध तथा अंतिम अध्य यम केवलज्ञानकी चर्चा की गई है। पहले प्रत्येक मंत्र संस्कृत में लिखा है और फिर सरल भाषामें हिन्दी में अनुवाद किया गया है। बाबूजीने 'तत्वार्थ सूत्र' की महत्ताके सम्बन्धमें लिखा है, "भान इस पर विश्वास लाये और ज्ञान पाये और शक्तिको न छिपाकर इसका पालन करे। वह स्वयं सुखी होगा और डोकको सुखी बनावेगा। For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ जैनधर्म और तीर्थंकरोंकी ऐतिहासिकता एवं प्राचीनता विदेशी विद्वान प्रो० डॉ० गुस्टाफ शेठके अंग्रेजी निबन्धका हिन्दी में अनुवाद बाबूजीने किया जिसमें केवल २२ पृष्ठ हैं। फिर भी यह छोटी पुस्तक बड़े महत्वकी है। प्रत्येक पंक्तिसे परिश्रम और अनुसन्धानकी आमा प्रकट होती दिखाई पड़ती है। जो व्यक्ति भगवान महावीरसे पूर्व किसी भी तीर्थंकरको नहीं मानते उनके लिये बड़ी जबदस्त फटकार तथा चुनौती है और अपनी भूल स्वीकार करने के लिये विवश करती है। जैनधर्मको एक ऐसा निराला धर्म बताया है जो मूल निवासियों द्राविड, असुर आदिके समयमे प्रचलित है। इसमें जैनधर्म और उसके सिद्धान्तोंकी मौलिकताको ऐतहासिक कसौटी पर कसकर खरा उतारा है। मैं जैनी क्यों हुआ ! यह तीस पृष्ठकी पुस्तक बाबूजी द्वारा अंग्रेजीसे हिन्दी में अनुवादित तथा सम्पादत है। इसमें की हवट वैरन मा० रन्दनकी "मेरी श्रद्धा जंन सिद्धान्तमें कैसे हुई ?" श्रीमती ई० एस० क्लीन'स मट अमेरिका, का "मेरा वक्तव्य", डबल्यू० जी० ट्रार साहब इंगलंण्डका "सच्चा धम", श्री मैथ्यू मैके साहब लन्दन का "मैं जैन को हुआ ?” श्री फ्रेंक आर० मैनसेल, इंगलैण्डका "सत्य और आनन्दकी खोजमें", श्री एन० जे० स्टीवर्ट चेडबर्न लन्दन का सच्चा धर्म" श्रीमती मिस कौमकी यनीका "जैन धर्मकी विशेषता" स्वर्गीय मि० अलेक्जेण्डर गार्डन इंग्लैण्डका "सच्ची रथयात्राएं" श्री लुई डी० सेन्टर इंग्लैण्डका "मैं जैन क्यों हुषा" प्रो. लोथर वेन्डेल जरमनीका “जैनधर्म में मेरा साक्षात्" और वुडलेण्ड काहलर अमेरिकाका "हम शाकाहारी For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) जेन कैसे हुये" जैसे उच्च कोटिके ११ लेखोंका संकलन है। इन लेखोंका अंग्रेजीसे हिन्दी में बड़ी परल भाषामें अनुवाद किया गया है जिससे हिन्दी पढ़ेलिखे व्यक्ति धमकी विशेषताओं तथा विदेशी व्यक्तियोंका जैन धर्मके प्रति झुकावके कारणोंको भलीभांति जानकर लाभान्वित हो सकें। प्रयास करनेके बाद भी भगवान महावीर, प्राचीन जैन लेख संग्रह, जैन जातिका ह्रास, संक्षिप्त जेन इतिहासके विभिन्न खंड, भ० पार्श्वनाथ, विशाल जैन संघ, भगवान महावीर और उनका उपदेश, गांधीजी, बिचार और बितक, अरिष्टनेमि और कृष्ण, मुनिसुव्रत और यज्ञवाद, जैनधर्म सिद्धांत, असहमत संगम, सनातन जैनधर्म, जैनधर्म सिद्धांत, अमर जीवन और सुख, बात्मिक मनोविज्ञान, श्रद्धा ज्ञान चरित्र, ध्यानकी एकाग्रता और निर्वाणकी कुञ्जी आदि पुस्तकें उपलब्ध न हो सकी हैं। अतः उनकी आलोचनात्मक विवेचना करना संभव न हो सका है। For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) महान नेताका महा प्रयाण विश्वकी महान विभूति, विश्व में अहिंसा सिद्धान्तको फंडानेकी इच्छा रखनेवाले और निस्वार्थ समाज सेवक "डॉ० कामताप्रसादजी जैन" पिछले ३० वर्षोंसे अर्श रोग से पीड़ित थे । सितम्बर-अक्टूबर ६४ से रक्तस्राव भी अधिक हो रहा था । बीच में कुछ स्वास्थ्य अच्छा जान पड़ा तो फरवरी ६४ में वेदी -- प्रतिष्टोत्सव व जैन मिशन कार्यालयका उद्घाटन और अहिंसा सम्मेलनका आयोजन किया। कुछ स्वास्थ्य सुधर पाया था स्थिति में सम्मेलनके कार्य में दौड़ धूर करते रहे। सम्मेडन के बाद फिर उनका स्वास्थ्य खराब होता गया । बीच में कुछ स्वरा भी उसीमें सभी कार्य करते है। मई के दूसरे सप्ताह में शारीरिक दुर्बकता बढ़ती ही चली गई । धर्मपत्नी मृत्यु हुई तबसे भी एक चोट पहुंची, अपने आत्मीय परिजनका जो प्रत्येक कार्य में सहायता देनेवाली हो, का विछोद असहनीय रहा। धर्मपत्नीको धार्मिक प्रवृत्ति, उदार स्वभाव, मधुरभाषा, अतिथिसत्कार, और प्रेमभावसे घरसे लेकर बाहर तक सभी प्रभावित थे। उधर प्रिय पुत्री श्रीमती सुमनकीमानसिक स्थिति बहुत बिगड जाने से भी बाबूजी बहुत दुःखी रहने लगे, उसकी चिकित्सा में काकी रुपया तो व्यय करना ही पड़ा तथा समय और श्रमको आहुति भी दी। उन्होंको वास्तविक रूपसे दुःख तो इस बातका था । सुमनकी अस्वस्थताको अनेक लोग बहानेबाजी समझते थे । समयकी गतिको कौन जानता है । २४ अप्रैल ६४ का दुर्भाग्य पूर्ण दिन आया हो। मिशन कार्यकर्ता तथा प्रेस कर्मचारी श्री रामसनेही शाक्यको अपनी जीवनलीला समाप्त करनी पड़ी। विनय, सदाचार, चfत्र, For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) ईमानदारी, प्रेम, प्रसन्नता, सेवा तथा श्रमकी साक्षात् प्रतिमा श्री रामसनेही थे, जो मिशन, प्रेस, मन्दिर, पुस्तकालय तथा बाबूजी के घर में इस तरहसे कार्य करते थे मानों उनका दूसरा art हो । एक पिता अपने पुत्रपर जितना विश्वास करता है, जितना प्रेम करता है और रखता है जितनी सद्भावना ठोक उतना ही सहज स्नेह रामसनेहीको प्राप्त था । कम पढ़े-लिखें होने पर पत्रिकाओंसे सम्बन्धित पर्याप्त कार्य वे किया करते थे जैसा उनका नाम था वैसा ही स्नेह भी । ४-६ दिन उबरसे पीड़ित रहने के बाद ही वे परलोक गामी हुये । श्री रामसनेही की मृत्युने बाबूजीकी कमर ही तोड़ दी हो ऐसा लगता है । - बाबूजीका स्वास्थ्य गिरता ही चला गया, पर अपनी पीड़ा वे किसीको बताते ही नहीं थे। वैसे उन दिनों उनकी पुत्री तथा अन्य संबंधी भी आ गये थे । रात-रात भर नींद न आती तो उनके प्रिय पुत्र वीरेन्द्र पास बैठकर धर्म और दर्शन पर घण्टों बातचीत किया करते जिससे उन्हें काफी शांति मिलती और कभी कभी तो प्रातः ८-९ बजे सोकर उठते थे. शौच जाना, खाना, स्नान करना, दैनिक उपासना आदि कार्य तो रोज करते ही रहते थे । अस्वस्थता के दिनों में कई कई घण्टे स्वाध्याय भी करते । स्थानीय चिकित्सकों की चिकित्सा भी चलती रही, जो दवायें पहले रक्तस्राव रोकने के लिये रामबाण सिद्ध हुई थी उनने भी बिल्कुल कार्य न किया । पं० रूपचन्द्र गार्गीयजीने दवा बाहरसे भेजी इसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ । अतः यही निश्चित किया गया कि कहीं बाहर इलाज कराया जावे । अलीगंज में कोई भी कार नहीं है I For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५) अतः कारके लिये एटा फर्रुखाबाद आदि जगहों पर दौड़ना पड़ा जिसमें भी लगभग १ दिन निकल गया। तब फर्रुखाबादसे ऐम्बुलेंस कार मंगवाई गई जिससे दि. १७ मई -४ दिन रविवार तिथि वैशाख शुक्ल पक्ष ६ सम्बत् २०२१ को शामके ६ बजे फरुखाबाद प्रस्थान किया लेकिन अलीग से १६ मील दूर मागम हो समाजके दुर्भाग्यस्से सह महान विभूति खदेवके लिये चिदा हो गई। नहरके किनारे सापके घने दृश्रा, चंदाकी खिली हुई शीतल चांदनी थी, वहां कार रोककर स्ट्रेचरखे उतारा गया । मृत्यु के समय भी वे मुस्करा रहे थे। बेचैनी अवश्य थो, या उनकी और उनका ध्यान ने गमा, लाणा 'छत को हो थी। बाबू चौने समाधि जाने की इच्छा प्रकट की। उनके पुत्रने समझाते हुये कहा, "आप स्वयं विद्वान है अत्मा नहीं मरती है, बरूर बदलने के समान जोबारमा बोका बदलता है " उभर पास में ही बैठो बड़ी पुत्री श्रीमती सरोजिनी जमोकार मंत्रों का उच्चारणा कर दी थी। उनके दामाद श्री सुसलेमन्त व कायमगंज विलासी श्री इन्द्रसेनजी, सेवक मोती, और पौत्र चि० ऋषम सेवामें जुटे थे। अन्त में जमो सहे...' मंन्त्रका सञ्चारण किया और ऐसी नींद सो गये जो क्रमो उठने की आशा ही नहीं। चेहरा परम शान्तिमय था। और भी क्या चाहिए जिसने जीवनभर सेना, सत्य, संयम, साधना, और स्वाध्यायको अपने जीवन का अंग बना विया था, फिर उसे शांत्ति तो मिलनी ही चाहिए थी। रात्रिके लगभग दो बजे एक ट्रक द्वारा उनका शब अलीगंज लाया गया और रात्रिके अंतिम प्रहर में ही जिसने सुना दौड़ा गया और शव यात्रामें सम्मिलित होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी तथा दाह संस्कार किया गया। उस समय ऐसा लगा मानों अलीगंज अनाथ हो गया। प्रातः होते ही मैं भी उस महान तपस्वीके घर For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) गया पर उनके दर्शन प्राप्त करनेका सौभाग्य न मिठा । समाजको बाबूजी द्वारा दी गई सबसे बड़ी भेट योग्य पुत्रके रूपमें श्री वीरेन्द्र नेत्रोंसे गंगा-यमुना प्रवाहित कर रहे थे । वे यही बोले" मेरी छत्र छाया आजसे उठ गई... मुझे तो कल ही फरूखाबाद जाते समय ऐसा लग रहा था कि बाबूजी मंजिल तक न पहुंच पायेंगे पर समय किसने देखा है " उस समय बाबूजीके कार्योंसे सबका जी भर आता था, न तो श्री बीरेन्द्र कुछ बतानेकी सामर्थ्य में थे और न उपस्थित लोग कुछ भी सुनने की सामर्थ्य में । 3 फर्रुखाबाद जानेसे पूर्व मन्दिरजीके बाहर से दर्शन कर भगबानको मस्तक नवाया था। एक दिन 'तत्वानुशासन' नामक ग्रन्थका स्वाध्याय भी करते रहे। अनेक दवायें बाई पर अंग्रेजी दवाओंको दो उन्होंने प्रयोग ही नहीं किया। आयुर्वेदिक और होम्योपेथिक दवाओं को ही प्रयोग में लाये अंग्रेजी दवाओंमें पशुओं के अंश होने के कारण उन्हें कभी भी प्रयोग में नहीं छाये लगाने की दवा Preparation " H” बताई थी पर उसमें H" शार्क मछली का तेल होनेके कारण लगाने से मना कर दिया । वैसे मैं स्वयं उनकी मृत्युके एक सप्ताह पूर्व घर पर मिलनेके लिये गया | उस समय स्थानीय एक सज्जन औषधि बता रहे थे, जब वह सज्जन औषधियों के नाम लिखाकर चले गये तब वे मुझसे यो बोले- "इन औषधियोंके बारे में जानकारी जब करूंगा कि आखिर इनमें कोई ऐसा तत्व तो नहीं जो विपरीत हो ।" धन्य थे बाबूजी और उनकी अहिंसा तथा उदारताकी वृत्ति 'जिसके कारण 'जिओ और जीने दो' के मूलमन्त्रको उन्होंने अपने जीवन में पूरी तरहसे उतार लिया था। और आचरण के द्वारा ही मिलनेवालोंको शिक्षा दिया करते थे । For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) बाबूजीके निधन पर शोक व श्रद्धांजलियां जैन समाज के अखिल विश्वना बाबू कामताप्रसाद जैन जैन समाजके प्रमुख व्यक्तियों में से थे। साम्प्रदायिक भाननासे दूर रहकर 'अखिल विश्व जैन मिशन' के रूपमें उनके द्वारा की गई जैन धर्मको सेवायें अपना महत्व रखती हैं। बैरिस्टर चम्पतरायके बाद विदेशों में जैन धर्मका प्रसार करनेवाले वे पहले व्यक्ति थे मेरे और तेरापन्थ संघके साथ उनका विशेष सम्पर्क था। जब भी प्रसंग आया, वे मुक्त भावसे मिले और अन्य व्यक्तियों को भी उन्होंने प्रेरणा दी। उनके प्रति श्रद्धा, सम्मान तथा सौजन्यभाव रखनेवाले व्यक्तियों का कर्तव्य है कि जैन धर्मको प्रभाबनाके लिये उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये उन वद्य कार्यको वे रुकने न दें, आगे बढ़ाएं। -- आचार्य श्री तुलसी संचालक अणुव्रत आन्दोलन दिल्ली योग्य कल्याण भजन हो । श्री बाबू कामताप्रसादजीके अभावसे जैन समाजको बहुत क्षति पहुंची है और मुख्यतया विदेशोंमें धर्म प्रभावनाकी दिशामें बहुत क्षति पहुंची है। अब तो यही आशा है कि आप अपने साथियों सहित उद्यम द्वारा इस अभावको न खटकने देंगे। मनोहरजी वर्णी अध्यात्म प्रबक्ता, भिण्ड। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) "मुझे यह जानकर अत्यन्त खेद हुआ कि श्री कामताप्रसाद. जीका स्वर्गवास हो गया है। अभी कुछ ही माह पूर्व जब उन्होंने बहुत आग्रहपूर्वक मुझे अलीगंज बुलाया था तब कार्य के पति उनकी दिलचस्पो देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई थी। इस असामयिक निधनले निश्चय ही जो क्षति हुई है वह पूरी होना मुश्किल है। काशचन्द्र शेठी उपमंत्री केन्द्र. स्यात और भारी उद्योग भारत सरकार नई दिल्ली २५ ५-६४ For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९) विश्वकी दृष्टिमें-डा० कामताप्रसादजी डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल शास्त्री, एम० ए०, पी० एच०डी० जैन माहित्य शोध संस्थान जयपुरसे लिखते हैं-वे जैन साहित्यके उत्कृष्ट विद्वान थे जैन इतिहासकार थे और अपने लेखों एवं पुस्तकोंके द्वारा जो मूल्यवान साहित्य उन्होंने देश व समाजको दिया वह सदा उनके अमरगीत गाया करेगः ।......बाबू साहब इतने महान होते हुवे भी लन जैसी सादगी, मान्यता एवं महृदयना मिलना बड़ा मुश्किल है। यद्यपि वे मिशन के सर्वोपरि नेता थे लेकिन उन्हें अभिमान तो छू भी नहीं गया था। वे अपने साथियों एवं शिष्यों में बैठकर अपना अस्तित्र खो बैठते थे। ३०-५-६४ श्री गुरूबचन्द जैन बोलोम० ए० एल० बी० लेखा निरीक्षक दिल्लीसे "उनके दर्शन करके ऐस्ट! लगता कि एक देवना पुरूषके दर्शन कर रहा हूं। हृदयको शान्ति मिलती, उनके सान्निध्यमें बैठकर चची करने में । अपी बाबू जयभगछानजी जैन व श्री सिद्धसेनजी गोयलीयके आकस्मिक निधनको क्षति पूर्ति हो हो नहीं पाई थो कि उनकी क्षति पुतिका साधन जुटानेबाले स्वयं भी चले गये।" २२-५-६४ ___ गांधीझे पद-चिह्नों पर प्रो० पृथ्वीराज जैन सम्पादक । विजयानन्द अम्बाला (पंजाब) ___ "श्री कामताप्रसादजी जैन धर्म व इतिहासके मर्मज्ञ विद्वान, अनुभवी, एवं दूरदर्शी पत्रकार, प्रसिद्ध लेखक, तथा जैन शासनके अनथक सेवक थे। विदेशमे जैन धर्म और अहिंसाके प्रचारार्थ उन्होंने श्री बीरचन्द राघव, श्री गांधी, बैरिस्टर चम्मतरावजी, . For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) श्री जे० एल० जैनी के पदचिह्नोंका अनुकरण करते हुवे सराहनीय कार्य किया । २६-५-६४ ★ डॉ० महेन्द्रसागर प्रचण्डिया एम० ए० पी० एच० डी० सह सम्पादक अहिंसा बाणी अलीगढ़ से लिखते हैं-" उनके द्वारा बच्चे मार्गका प्रतिपादन हुआ है हमें उसी पंथका अनुकरण कर आत्म कल्याण करना है | " २३-५-६४ श्री हीरालालजी पांडेय प्राचार्य शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय विलहा, जि० बिलासपुर से लिखते हैं- "बाबू कामताप्रसादजीने 'जैन विश्व मिशन' के माध्यम से तथा 'अहिंसा बाणी' एवं 'बायस ऑफ अहिंसा' के द्वारा जैनधर्म, जैन दर्शन, जैन साहित्य और विश्वशान्ति तथा विश्व प्रेमको दिशामें जो बहुमुखी सेवा और श्रीबृद्धि की है वह 'जैन विश्व मिशन' और 'भारत के इतिहास' में स्वर्णाक्षरोंमें लिखी जावेगी । बाबू कामताप्रसादजी समुझत विचारक, सुधारक, प्रगतिशील, उच्च लेखक, स्पष्ट मित एवं मधुर भाषी, कुशल शासक एवं उच्च समाज-सेबी थे ।” २०-५-६४ ★ अन्तर्राष्ट्रीय क्षति "आदरणीय बाबूजीकी छत्रछाया हम लोगोंके ऊपर से उठ जानेपर हम सब लोग सभी भांति अपनेको असमर्थ पा रहे हैं । उनका सहसा निधन अलीगंज तथा राष्ट्रकी ही क्षति नहीं किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय क्षति हुई ।" श्री मंशीकाल सकसेना एम० ए० बी० एन्ड आचार्य, बी० ए० बी० इन्टर कालेज, अलीगंज (पता) For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १३१ कामताप्रसादजी एक अध्ययनशील, कर्मठ, समाज सेवक रहे......मैं जानता हूं उनका मारा जीवन साहित्यसेवामें ही बीता है।...... कामताप्रसादजीको जैन धर्म पर अटर श्रद्धा रही। के० मुजवली शास्त्री, सम्पादक-गुरुदेव । मुडबिद्री "जैन समाजके एक ही नि:स्वार्थ निर्भीक एवं उत्साही कार्यकर्ताका अभाव समाजके किस सहृदय व्यक्तिके लिये दुःखदायी न होगा? धर्म प्रचारके लिये बाबूजीने अपना सर्वस्व समर्पित कर समाजके सामने एक आदर्श उपस्थित किया था। ऐसा कर्मठ कार्यकर्ता निकट भविष्यमें प्राप्त हो सकना असम्भव है।" प्रकाश शास्त्रो हितैषी"-संपादक, सन्मति सन्देश, ५३५ गांधीनगर-देही ३१. हमें ऐसी आशा नहीं थी कि बाबूजी हमें अनाथ करके इतनी जल्दी महाप्रयाण कर जायेंगे । मेरी लेखनी थर्रा रही है, कुछ लिख नहीं सकता। रतनेशकुमार जैन-रांची, - सम्पादक-अहिंसक जीवन । अहिंसा तथा जीवदयाके प्रचार क्षेत्रमें उससे हमें शुभ-प्रेरणा मिठी थी। वे जैन शास्त्र तथा इतिहासके प्रकांड विद्वान थे। महेशदत्त शर्मा-पम्पादक, गोरक्षण-वाराणसी। देश समाज और धर्मकी महान विभूति उठ गई। इस महाअसने बजे मारी बाहिस्य और धर्मकी सेवा की। अखिल विश्व For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) जैन मिशनको संचालित कर बड़ा भारी परोपकार किया । इन्द्रलाल शास्त्री - जयपुर, सम्पादक, अहिंसा | श्रद्धेय बाबू कामताप्रसादजीके चार पढ़कर हृदयको असहनीय विचित्र है उनके सामने हम मनुष्योंकी सत्ता ही क्या ? २०४, दरीबा, दिल्ली असामयिक देहावसानका समाआघात पहुंचा। कर्मोंकी गति उन्हें तो अभी जीना था और काम करना था, कितना काम उन्होंने अपने जीवन कालमें किया है पर यह तो उस कामकी भूमिका थी, जो उन्हें आगे करना था... मुझे विश्वास है कि उनके चले जानेले उनके काम रुकेंगे नहीं, बल्कि आप लोग रहें और अधिक उत्साह और परिश्रम से आगे बढ़ायेंगे वही उनका सर्वोत्तम श्राद्ध होगा । यशपाल जैन दिल्ली संपादक 'जीवन साहित्य' ★ भाई कामताप्रसादजी से मेरा ४० वर्षका परिचय था और वे जैन समाज के एक माने हुए विशिष्ट विद्वान लेखक, समाजसेवी तथा पत्रकार थे । उनकी सज्जनता तथा हंसमुख चेहरा सब मित्रोंको याद रहता था । 1 'नवभारत टाइम्स' उन जैसा कर्मठ सेवक निस्वार्थ सेवक धर्मका प्रचार करनेवाला व्यक्ति अब हमें मिल सकता । सूरत युगेश सम्पादक 'वीर' For Personal & Private Use Only माईदयाल जैन एवं विश्व में जैन समाज में नहीं स्वतंत्र जन सहसंपादक 'जैन मित्र Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) वसुन्धराका महान नररत्न बाबूजी अखिल विश्व जैन मिशनके संस्थापक व संचालक तो थे ही किन्तु उनकी धर्म समाज सेबासे भी सारा जैन व अजैन जगत भलो प्रकार परिचित है। निःसन्देह वसुन्धराका एक महान नररत्न सदाके लिये आंखोंसे ओझल हो गया । ...... उनकी धर्म प्रचारको लगन गजबकी थी । दि० जैन माळवा प्रां० सभा, बड़नगर | फूलचन्द्र अजमेरा, महामंत्री । ★ अल्प साधनसे महान कार्य आज राष्ट्र और समाजको विश्वशांति में, योग दान देते रहने के लिये अहिंसा धर्मका ध्वज विश्व में फहरानेके लिये उनकी अत्यन्त आवश्यकता थी । इतिहास इस बात को कभी नहीं भूल सकता कि उन्होंने अल्प साधनसे वो महान कार्य किया है जो कि करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी नहीं हो सकता था । मानवता के लिये किये गये महान कार्यों के प्रति मानव समाज बाबूजीका चिर ऋणी रहेगा। यह उनकी लेखनीकी ही महान शक्ति थी कि जिसने अनेकोंका जीवन ही पलट दिया, सत्य मार्ग प्राप्त करा दिया । मिशन म० प्र० प्रादेशिक शाखा, भोपाल | गुलाबचन्द्र पाण्ड्या ★ निष्ठावान सद्गृहस्थ उन्होंने जैनधर्म, समाज और साहित्यकी अनवरत सेवा की है और अपने जीवनको भी उन्हीं आदर्शों के अनुरूप ढालनेका प्रयत्न किया । अनेक तरुणों में उन्होंने सेबाकी प्रेरणा जगायी, ਹੋਰ साहित्यके प्रति निष्ठा पैदा की। उनका स्वभाव तो सरलता, For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) सात्विकताकी सीमा ही पार कर गया था ।... वे निष्ठावान सद्गृहस्थ थे, उनकी आत्मा हमें हो शांतिको प्रेरणा देगी, हम उनकी शांति के लिये क्या कामना करें ? सर्वसेवा संघ वाराणसी जमनालाल जैन | ★ कर्मठ सेवक वे एक कर्मठ सेवक थे, जिन्होंने अथक रूपसे जैन धर्म प्रचारका देश और विदेशमें बिगुल बजाया व युवकों में धर्मभावनाएं पैदा कीं । जैन मिशन आज अनाथसा हो गया है । दिगम्बर जैन समाज उज्जैन सत्यंधर कुमार सेठी । ★ आप कुशल बक्ता, सफल लेखक योग्य सम्पादक एवं महान नेता थे | आप मिलनसारिता तथा सज्जनताकी तो मूर्ति थे । हम अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानके निधन से स्वयं दुखी हैं ।" जैन पुस्तकालय (मिरजापुर) गुलाबचन्द जैन मंत्री * वे समाज के पुराने लेखक, पत्रकार एवं कर्मठ कार्यकर्ता थे । इतिहास सामग्री के प्रखर जानकार थे। अखिल विश्व जैन मिशन उनके सतत लगन एवं उद्योगका प्रतीक है । मा० दिगम्बर जैन महासभा अजमेर चौधरी सुमेरमल महामंत्री ★ समाजमें उनके कार्य लेख आदि अमर रहेंगे, लेखक कभी भी मरते नहीं हैं वे आज भी जीवित हैं और रहेंगे......समाज. उनकी सेवाओंका ऋणी है।" दिगम्बर जैन अयोध्यातीर्थ कमेटी ★ कामताप्रसाद जैन For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) जेन श्रमण संस्कृतिके विश्वव्यापी प्रचारक एवं प्रचारक, उद्भट विद्वान, सम्पन्न साहित्यकार, इतिहायके मर्मज्ञ, अहिंसाके अटल पुजारी, कर्मठ कार्यकर्ता, समन्बय करूणा और सरलताके अडिग तपस्वो आदि आदि गुणों के धारी परम पूज्य बाबूजो श्री कामताप्रसादजीका बाकस्मिक निधन सुनकर मैं ही नहीं यहांका जैन जैनेतर समाज शोक-पागरमें निमग्न हो गया। ......बाबूजीने सदैव समाजको दिया ही है।......समाज बाबूजीका सदेव हो ऋणी रहेगा। मिशनशाखा (पिडाबा) कोमचन्द्र जैन संयोजक बे-एक उबल रत्न थे......वे अत्यन्त उदार तथा सहृदय व्यक्ति थे। उनमें श्री ब्र. शीतलप्रसादजी जैसी कर्मठता तथा श्री बैरिस्टर चम्पतरायजी जैसी कठिनसे कठिन विषयका सरल शब्दों में कहने की क्षमता विद्यमान थी। जैन विद्वत्समिति-देही। हीरालाल जैन कौशल, माहित्यरत्न-न्यायतीर्थ अध्यक्ष । उनके पत्रोंमें अपार प्रेम, भावना प्रकट रहती थी, लिखनेके लिए उत्साहित करते रहते थे। उन्होंने कभी अपने विरोधियोंकी भी निंदा नहीं की, यह एक उनका मुख्य गुण था। जब समाज अंधेरे में पड़ा हुआ था तब जागृतिका बिगुल बजानेवाले बाबूजी ही थे......आज समाज में से अच्छा इतिहास और जैन धर्मका मर्मज्ञ चला गया है ।......परन्तु जबतक संसारमें उनका साहित्या जीवित है तबतक वे भी जीवित ही हैं। . गुणभद्र जैन । श्रीमद्राजचंद्र भाश्रम, अगास-(गुजरात) For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) निष्पक्ष ठोस विद्वान समाजसेवी श्री कामताप्रसादजीका देहावसान वस्तुत: जैन जगत के लिये ही नहीं बल्कि अखिल विश्वके लिए एक असाधारण क्षति है...... अपनी अपार विभूतिको तृणवत त्यागकर जिनवाणी प्रचार तथा अहिंसा प्रचार में वे इतने तल्लीन थे कि परोपकार और आत्मीयता में सहज ही अंतर नहीं परखा जा सकता था । वस्तुतः वे एक कर्मठ लगनशील, साहित्यिक, जिनवाणी भक्त, इतिहास वेत्ता तथा नवीनतम दृष्टिकोणवाले एक विज्ञान वेत्ता थे । समाज सेबी होते हुवे भी वे एक निःस्पृह तथा निष्पक्ष ठोस विद्वान थे। जिन्हें नामसे नहीं कामसे प्रयोजन था । D म०प्र० शाखा खुरई (सागर) मानकचंद बड़कुल अध्यक्ष 'प्रादेशिक शाखा' ★ वे सच्चे चारित्रशील श्रावक थे। जिन प्रोक्त सिद्धान्तोंके गम्भीर अभ्यासी एवं अंतरंग श्रद्धालु थे । उन्होंने इन अकाट्य सस्य एवं परमानन्दमय तत्वोंको स्वयं जीवन में आचरित कर अपनी आत्माको तो धन्य, उज्ज्वल एवं रचसे उच्चतर बनाया ही पर साथ साथ जन-समाज भी इस अमृतपान से वंचित न रहे इसका जी जान से जीवनभर प्रयत्न किया। उनके सारे आचार विचार एवं क्रिया कलाप इस बातके पुरावे हैं। इस मान आत्मा के जीवनका एक मात्र उक्ष्य यह था कि स्वयं परमानन्द वा मोक्षमार्गका चारी बनना एवं औरोंको भी, उस पक्षका पथिक बनाना परमानन्दका भागी बनाना । धन्य है ऐसा पवित्र जीवन । श्वेताम्बर दिगम्बर पक्षोंकी एकता की दिशा में मैं भी उनकी सद्भावना एवं चेष्टा विशेषतया उल्लेखनीय है । कलकत्ता हरखचन्द्र बोथरा For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७). वर्तमान युगमें बाबूजीके निधनसे मानव कल्याण ही नहीं बरन् मानव व प्राणी समालको अत्यन्त संशप्त होना पड़ेगा। इस समय विश्वको सत्य व अहिंसाके सिद्धान्तोंकी उपयोगिता बतलानेकी अत्यावश्यकता है बाबूजी यह कार्य अधूरा छोड़ गये हैं...... धन्य है उन्हें जिन्होंने जीवनको जैन धर्म प्रचारमें उगा दिया। अपने शरीर व स्वास्थ्यकी किंचित मात्र चिन्ता नहीं की। खुरई प्रेमचन्द्र दिवाकीर्ति एक रोशनी सचमुच हमारे चोचसे एक रोशनी जिसका उजाला हम देशवासियों को ही नहीं न ममुद्र पार दूर दूर तक पहुंच रह। था गुल हो गई, बुझ गई । मृत्यु मनको आती है मगर अकाल मृत्यु यानी अपने बत्त से पहले की मौत एक गहरा दाग छोड़ जातो है जिसे मरनेके लिये कुछ वक्त चाहिए। साथ हो साथ यह बक्त है हमारी आजमाईशका ऐमा न हो कि हमारी भावनाएँ विद्रोह कर बैठे उस परम परमात्मासे जिसकी प्रत्येक आज्ञाके सामने इम नत सातक हैं।। मानपुरी ___ प्रभुदयाल श्रीवास्तव । जैनधर्म और जन साहित्य के जो कार्य किये हैं वह उनकी एक अ'द्वतीय और निष्काम महा मेवा थी।...भारतवर्ष मे ही नहीं अपितु पूरे संसार में अहिंसामयी जैनधर्मका प्रचार हो ऐसी उनको उत्कृष्ट इच्छा थी।...आज अहिंसाका एक महान प्रचारक कर्मठ वीर पुरुष असमयमें दुनियांसे उठ गया, सामाजिक कार्यक्षेत्रमे हम अपनको आज असहाय महसूस कर रहे हैं। बांदरी . मवेन्द्र कुमार जैन । For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८) जैन समाजके जवाहर यह दुसही नहीं शोक ही नहीं परन्तु कमर तोड और दिल बिठानेवाला एक रोग है। जो हमेशा सताता रहेगा। एक सच्चे प्रेमी, अहिंसा भक्त, जैन समाजका सूर्यास्त हो जानेसे मैं ही नहीं समाज ही अंग हीन हो गया है। जैन समाजका रत्न, जैन समाजका सुधारक, प्रचारक, जैन मिशनका संचालक, जैन अहिंसाका देवता और ज्ञानका सितारा, बल्कि सूर्यको स्वर्गके ठण्डे बादलोंने हमेशाके लिये अपनी गोदमें छिपा लिया है । जिसको कभी न देख सकेंगे। लेकिन यह जरूर आशा है वो इन बादडोंको अपनी ज्ञानकी शक्तिसे चीरता हुआ हम तक प्रकाश फेंकता ही रहेगा और रास्ता दिखाता रहेगा।... जिम जैन समाजके जवाहरने भारतके ही नहीं राष्ट्रके जवाहर के लिये रास्ते में भागे आगे चलकर जवाहारात बिछाने के लिये अपने आपको जवाहरके लिये बलिदान कर दिया उन जवाहारातोंकी महान मात्माओंको मेरा मस्तक झुकाकर बार बार श्रद्धांजलि स्वीकार हो। धनबाद (बिहार) रामप्रसाद जैन "बाबूजीने अचिन्त्य कार्य करके दिखाया और भारत के अलावा विश्व में अहिंसाका डंका बजा दिया और जैनधर्म व अहिंसाका प्रभाव लाखों प्राणियोंपर फैला दिया । बाबूजीकी शोधखोज गजब की थी। हमारे तीर्थंकरोंकी वाणीको विशेषांकों द्वारा कैसे विस्तृत ढंगसे सर्व साधारणके हाथमें पहुंचाई। लक्ष्मीला सेठी। मंदसौर, बाबूजी व्यक्ति नहीं थे एक संस्था ही थे, बड़ी लगनवाले धुनी व्यक्ति थे। एक अनमोल रत्न चला गया। पटना सिटी, बद्रीप्रसाद पराकमी For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९) आजके इस युगमें धर्मनिष्ठ, सेवाभावी, नि:स्वार्थी, सज्जनोंकी समाजको अत्यावश्यकता है। समाजमें धामिक वातावरण एवं साहित्य जागृतिकी जो नवचेतना फैलायी उसका श्रेय-श्रद्धेय बाबूजीको ही है। इन्दौर, नन्दलाल टोंग्या। "समाजकी एक अमूल्य निधि सदाके लिये विलीन हो गई। जिसने जैन समाजका ही नहीं अपितु देश-विदेशोंमें भारतवर्षका मस्तक गौरवान्वित किया, जिसकी प्रेरणासे सहस्रों सेवाभावी कर्मठ कार्यकर्ता समाजमें तैयार हुये। समाजके इस महान निःस्वार्थ सेवाभावी लेखकके साहित्यिकका आम वियोग हो गया।" वजबज हीराचन्द बोहरा क्या जो प्रचार और सेवा वह कर रहे थे और कोई कर सकेगा असम्भवसा प्रतीत होता है। बाहरे भगवान जो तेरी बाणीका प्रचार तन मन धनसे कर रहा हो उसीको तुर्त उठा डिया ।...... बह बड़े ही पुण्यात्मा जीव थे। भगवान उन्हें पुन: ऐसा ही जीवन दें जिससे वह जन्म जन्म समाजकी सेवा करते रहें और धर्मवृद्धि होती रहे। कासगंज गिरीश जैन भाई कामतापसादजीने जैसी प्रभावना व प्रचार जैन शासनका देश व देशान्तरमें किया वैसा करना बहुत दुर्लभ है। साहित्यकी तो आपने अनुपम सेवा की है। वात्सल्य गुण तो बापमें कूट कूट कर भरा था। ऐसा मान होता है कि आप अपने मन्दिरजीकी प्रतिष्ठाकी ही इन्तजारी कर रहे थे। जैन बाँच कम्पनी, दिछो प्रेमचंद जैन For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४०) .. किन शब्दोंसे दिवंगत आत्माकी उदारता पर प्रकाश किरणे डालें यही एक चिन्तन है...... जिनके बात्सल्य और प्रेरणाओंसे जन समुदाय "अहिंसा पर श्रद्धा रखता आया। अब समाजके हित चिन्तकोंके चरण डगमगाने लगे हैं। सीमेन्ट फेक्टरी, सवाई माधौपुर वीरेन्द्रकुमार बन्धु समाजने और विशेषतया मुझ जैसे बहुतोंने एक ऐसे रत्नसे विछोह पाया है जो अमूल्य था और जैसा शायद ही अपने जीवनमें पासके......सब ही वस्तुतः अनाथ हो गये-एक छाया उठ गई परन्तु धीरज की छायामें सबको हो सोना पड़ता है। लखनऊ कामताप्रसाद जैन आप मेरे करीब २५-३० वर्ष पुराने मित्र थे। आप इति. हासके माने हुये विद्वान थे। आप जैनधर्मके एक सच्चे कार्यकर्ता, लेखक व पंडित थे। ललितपुर विशनचंद्र जैन आँवरसियर __ भाई कामताप्रसादजी श्री वीरभगवान के सच्चे उपासक थे। उनका जीवन मादा और उदार था। उन्होंने संसारभर में जैनत्वका प्रचार ऐसी सच्ची लगन और भक्ति तथा अपूर्व ढंगसे किया जो सदाके लिये अमर रहेगा। और जैन समाज ही नहीं किन्तु -सारा संसार उनकी सेवा तथा कार्योंके लिये ऋणी रहेगा। रोहतक लालचन्द्र जैन एडवोकेट होंने अखिल भारतीय जैन मिशनके लिये जो कुछ भी किया है, उन कार्योको हम भुला नहीं सकते। उनकी जैनसमाज For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) तथा जैनधर्म सम्बन्धी आस्था तथा कार्यको देखते हुवे हमें उनकी आवश्यकता और भी अधिक महसूस होती है । इन्दौर राजकुमार सिंह एम० ए०, एड० एड० बी० एफ० आर० ई० एस० - ★ आपके खोजपूर्ण लेख, अकाट्य युक्तियों और श्रद्धापूर्ण भावों से भरे रहते थे। अब हमें उनसे वंचित होना पड़ेगा । रोहतक जिनेन्द्रप्रसाद जैन एडवोकेट वे स्वयं एक मिशन थे, पिछले अनेक वर्षोंसे मेरा उनसे सम्बन्ध था और बहुत ही स्नेहिल दृष्टि से वे देखते रहे। उनकी कार्यक्षमता, लगन और तत्परता के साथ प्रबुद्ध शैली और विचार सभी के लिये अनुकरणीय रहे और हैं। मैंने उनसे अनेक बातें सीखी हैं। रीठी (कटनी) म० प्र० ★ अद्भुत निष्ठा तथा शक्तिके धारक संसार के रेगिस्तान में एक नखलिस्तानकी तरहसे बाबूजी बीतराग मार्ग संखारी दुःखी जीवोंको सुलभ करनेमें लगे थे । किन्तु संसार अभागा है । संसारकी अमित्यताको मूर्तिमती बनाकर बाबूजीने पर्याय असमय में ही परिवर्तन कर डी.अहो ! कितनी अद्भुत निष्ठा तथा शक्तिके धारक थे। ...... उनके सामने तो मैं क्या सब ही प्रमादी थे, क्योंकि वे कोटीभर के सूर्यास्त के पश्चात् दीपकों से ही काम चलाना पड़ता है । सुखमालचन्द्र जैन बी. ए. सिविलियन स्टाफ आफीसर नई दिल्ली - १ प्रो० भागचन्द्र जैन 'मुनेन्द्र' For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) पित विहीनोंके पिता मुझ जैसे अनेकों पितृ बिहीनोंके वे पिता थे, किस प्रकार उन्होंने मुझे निराशाके क्षणों में उत्साहित प्रेरित कर साहस बंधाया था। उनकी स्मृति में मैं जी खोडकर एकांत में बैठकर रोना चाहता हूं मैं सोचता हूं कि उनके बिना मैं कैसे रहूंगा? लेकिन रोने कलपनेसे सम्भवतः उनको महान आत्माको ठेस लगेगी। अतः अब तो साहस बटोरकर उनके आदशों एवं कार्योंको आगे बढ़ाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आरा प्रो० राजाराम जैन अप्रकाशित घटना स्व० कामताप्रसादजी ज्ञानपीठ लेखक परिवार के सदस्य थे हो, जैन समाजके कर्मठ कार्यकर्ता और जैन संस्कृति के एक निष्ठ प्रचारक थे। वाबूजी नहीं रहे, यह समाचार भारतमें ही नहीं विदेशों में भी अप्रकाशित घटना सा सुना जावेगा । भारतीय ज्ञानपीठ, काशी गोकुठचन्द्र आचार्य हमारी समाजका जवाहर पूज्य बाबूजी समाजका पूग बिदेशी प्रचार कार्य ही नहीं संभालते थे, अपितु समाजके अलावा जैन सिद्धांत और अहिंसाके प्रचारमें वे शिरोमणि पुरुष थे। राजेन्द्रकुमार जैन, एम. ए. एक एल. बी. विदिशा, "डॉ० कामताप्रसाद भारतीय जैन समाजके कर्मठ कार्यकर्ता. समाज सुधारक एवं जैनधर्म तथा संस्कृतिके महान विद्वान थे। For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरठ, (१४३) अपनी बहुमुखी प्रतिभा एवं लेखनीके द्वारा हिन्दी साहित्यके नवरत्नोंसे विभूषित किया। सुरेन्द्रकुमार जैन, बी० कॉम०, एल एल० बी० उनका श्रम, धर्मसेवाकी लगन तथा कार्यकी क्षमता अद्भुत थी। जैनधर्मको विश्वमें प्रभावनाके क्षेत्रमें उनका प्रयत्न परिश्रम तथा अध्यवसाय अतुलनीय रहा है। जीवनभर जिस भाग्यशाली व्यक्तिने श्रेष्ठ संस्कृति और धमकी उच्च सेवा की उस महानात्माके पदचिह्नों पर चलने का आपको पुण्य संकल्प करना चाहिए । सिवनी ( म०प्र०) सुमेरचन्द्र दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री, बी० ए० एल० एल० बी० उन्होने जैन समाज व जैन दर्शनकी जो सेवाकी वह अद्वितीय एवं प्रेरणास्पद है। टोंक (राजस्थान) भागचन्द्र जैन एम० ए० एल० एल० बी० बाबूजीने जैन साहित्यकी रचना और जैन धर्मके प्रचार के लिये जो विश्वव्यापी कार्य किये हैं, निःसन्देह वे उनके अमर स्तम्भ हैं, जिन्हें आन्धी और तूफान भी कभी नहीं गिरा सकते । शामली (उ० प्र०) सुलतानसिंह जैन एम० ए० (हिन्दी-राजनीति विज्ञान) सदस्य राज्य स्काउट परिषद उ०प्र० पाबूजी जैन जाति शिरोमणि, समाजसेवी एवं उच्च कोटिके विद्वान थे। उन्होने समस्त विश्वको भारतीय संस्कृतिके सार तत्व For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) अहिंसाका सन्देश देनेका जो आजीवन पुण्य कार्य किया है वह उनके यश शरीरको अमर रखने के लिये पर्याप्त है। डिग्री कालेज उरई मक्खनलाल पाराशर, लेक्चरार दुःख केवल उनके व्यक्तिगत मित्रों को ही नहीं हुआ, तथा देश विदेशके सकल जैन समाजको है। वह जैन समाजकै एक प्रतिष्ठित विद्वान तथा कर्मठ सेवकों और आदरणीय कार्यकर्ताओं से थे : रोहतक लग्रसेन जैन, एम० ए० एल० एल० बी० डॉ. कामनाप्रसाद जैसी प्रशान्त एवं प्रगतिशील संस्थाकी प्रतिमूर्ति स्त्रोकर हम सभी अनाथ हो गये हैं।...... डॉ. साबने विश्व जैन धर्मकी पताका फहरानेमें कितना योगदान दिया है, इविवाह का प्रति पुरण बताएगा। मेरा नम्र सुझाव है बैरिस्टर इम्पतरायजा एवं डा० कामताप्रसादजी का स्मारक बनाया जावे। कटनी (जबलपुर ) तोलाल जैन 'विजय', एम० ए० सत्य और अहिंसाके सम्राट बाबू साइबने जैन विश्व मिशनको समृद्धशाली बनाकर अपना समस्त जीवन सत्य अहिंसाकी ज्योतिमें जलाया जो आनेवाली पीढ़िया स्मरण करेंगी। वे जैन समाजके सेवक बनकर सत्य और अहिंसाके सम्राट थे। उनका जीवन भी विश्वहितके लिये गांधी, पूज्य वर्णी आदि महान आत्माओंके समान था जो अनवरत और अटूट सेवायें देकर जैनाबोकमें अमर नाम कर गये। मदिया-(जबलपुर ) पं० बाबूलाल फणोश शाबी For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) 66 हाय ! यह क्या हो गया ? ऐसा लगा जैसे पानोंके नीचे हो पृथ्वी खिसक रही हो, हृदय पर अझ चोट लगो सिर चकरा गया, आँखों से आंसू निकलने लगे... बाबू जोकी सौम्यमूर्ति आँखो के आगे आ गयी ।... जिस त्याग और तपसे जैन जगतकी सेना की है, समाज शायद ही ऋण चुका सकेगा। किसी अन्य देश में होते या ईसाई धर्मके प्रचारक होते तो देवताकी भांति पूजा होती । पूज्य बाबूजी जैन जगतके प्रखर तेजस्वी मार्तण्ड थे, जिनके विशिष्ट गुणोंकी दिव्य रश्मियों में जैन जगत आलोकित होता रहा | हाय ? अब वह अस्त हो गया । ... " ऋषभदेव मार्तण्ड विश्वके अद्वितीय विद्वान बाबूजी जैन समाज के सर्वमान्य श्रद्धास्पद तो थे ही, साथ ही विश्वके अद्वितीय विद्वानों में से भी एक थे। जिन्होंने एक मर्तबा भी बाबूजी के लेख पढ़े हैं, उनके हृदयमें बाबूजीकी अमिट विद्वत्ताकी छाप अवश्य घर कर गयी ।" राघौगढ़, ( गुना ) रावत ऋषभलाल 'आदीश' ★ साहित्यको मेरे प्यारे जैन धर्मके एक सच्चे निस्वार्थ भावी प्रचारक कर्मठ कार्यकर्ता और जैन प्रचलित करनेवालें इस नर पंगबको हमारे बीच अब नहीं देखकर एक बहुत बढो कमी महसूस हो रही है। ... बाबूजीका जन्म जैन साहित्य के प्रसार, जैन सिद्धान्त प्रसार और तीर्थकरों की बाणोका निनाद जन जन तक भास्कर, बीर, जैन सिद्धान्त पत्रिका, अहिंसा वाणी और दी बॉयस ऑफ अहिंसा तथा छोटे छोटे गागर में बागर भरनेवाले ट्रेक्टों बड़े बड़े अंकों और पुस्तकों अहिंसा सम्मेलनों १० For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) सर्व धर्म सम्मेलनोंके माध्यमसे जनजनमें पहुंचाने के पुण्य कार्यकी चेतनाके लिये हुआ था। कलकत्ता ६. मानक चन्द्र छावडा "जैन समाजके दीपक, मिशन के संस्थापक बाबू कामताप्रसाद. जीके आकस्मिक निधनसे समाजको बहुत गहरा आघात पहुंचा है। जिन मिशनको लेकर वह भागे चढे उसके लिये अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया ऐसे महान पुरुषको श्रद्धाजलि हम किन शब्दों में अपित करें, यह हमें स्वयं नहीं समझ आता। जिस मिशन को उन्होंने आगे बढाया उसे हम भी तन, मन, धनसे आगे बढ़ाने में अपना सहयोग देते हैं तब ही उनकी आत्माको सच्ची शांति हम प्रदान कर सकते है।" -राजेन्द्रकुमार जैन एडवोकेट __बासोदा (मसा प्र०) " अभी तीन मास पूर्व ही हम लोगोंके साथ अल्प भ्रमयके लिये सम्पर्क हुआ था इतने थोड़े समयमें मैंने देखा कि वे वास्तबमें धार्मिक विचार के एवं शान्त तथा सरल स्वभावी थे। इसके अतिरिक्त उनमें और भी बहुतसे गुण एवं विशेषताएं थीं। __आज समाजका वह नररत्न उठ गया है, जिसकी पूर्ति होना अति असम्भव है प्रतीत होती है। बाबूजी सेवा भावी थे, सेवा रूपी साधनाके कठोर मार्गपर अविरल गतिसे चलते रहे, मागमें मुसीबतें आयीं किन्तु उन्होंने उसका सामना किया ! बाबूजी मरनेके पश्चात भी अमर हैं क्योंकि मरनेके पश्चात् जिसकी कीर्ति संसार में रहती है वह मानव जिन्दा ही है।" श्री जैन जूनियर हाईग्कूल लक्ष्मीचन्द्र जैन 'विशारद' देवबन्द सहारनपुर) प्रधानाध्यापक For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) "उनकी अमूल्य रचनाओं द्वारा जैन साहित्यका मस्तक गवैखे उन्नत है। साहित्य, इतिहास और संस्कृतिके क्षेत्र में प्रस्तुत किये गये बाबूजी के अबदानों को जैन समाज कभी नहीं मुला सकेगा । उनका शान्त गंभीर एवं निस्वार्थ व्यक्तित्व कभी नहीं भुलाया जा सकता है। बबूजीके कृतित्व और व्यक्तित्वको पाकर जैन समाज और जैन साहित्य बहुत ही समृद्ध हुआ है। वास्तव में ऐसी महान आत्माएं किसी समाज विशेष के पुण्यसे ही अवतरित होती हैं।" एच० डी० जैन कालेज, आरा (मगध विश्वविद्यालय) नेमीचंद्र शास्त्री एम. ए. पी एच. डी. संस्कृत प्राकृत विभागाध्यक्ष " उनके समान सुजन निस्पृह विद्वानका मिलना अत्यन्त कठिन है। पिछले बोस वर्षो से मेरा उनके साथ साहित्यक ही नहीं आत्मीय संबंध रहा । साहित्य और समाज के प्रति उनकी बहुमुखी सेवाओंका आकलन सहज नहीं है । ऐसे उदार चेता मनोषी अत्यन्त दुर्लभ है । सागर विश्व विद्यालय श्री कृष्णदत्त बाजपेयी Ancient इतिहास ★ जिस विभूति पर हम गर्व करते हैं आज केवल उनका नाम ही नि:शेष है। यह क्षति सांस्कृतिक क्षेत्र में वही स्थान रखती है । जो नेहरूजी की क्षति राजनैतिक क्षेत्र में " ज्ञानपुर ( उ० प्र० ) डॉ० प्रद्युम्न कुमार जैन ★ "मैं कितना बदकिस्मत हूं कि मैं अपने आदरणीय पंडितजी के दर्शन भी न कर सका जिन्होंने मेरे विदेश जाने पर मुझे अलीगंज विश्व जैनका प्रतिनिधि नियुक्ति करते हुये बां For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) इटली इंग्लैण्डके व्यक्तियोंसे परिचय कराते हुये सहयोग प्रदान किया। इसके साथ ही जैन समाज जैन धर्मके प्रति जितना भी अमूल्य दान दिया वह अविस्मरणीय रहेगा।" ८-६-६४. -राजेन्द्र जैन मंत्री युवक कांग्रेस, जबलपुर, “ मैंने महात्मा गान्धी व ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीके बाद बाबूजीको ही ऐसी लगनका व्यक्ति पाया जो अपने स्वास्थ्यकी पर्वाह न कर अपने ध्येयमें सलंग्न रहे और अपना जीवन समर्पित कर दिया। २६-५-६४. नाथूलाल शास्त्री, इन्दौर " उन जैसे लगनशील व धार्मिक व्यक्तिका अमरत्व जैन समाजमें आसानीसे पूरा हो सकना कठिन है।" २५-५-६४. -सुभद्रकुमार पाटनी मंत्री ___ महावीर भवन, श्रीमहावीरजी उनके हृदयमें जैन धर्म के प्रचारकी सच्ची लगन थी। उनका जीवन हर समय समाज कार्यमें ही लगा रहता था। भारत हो नहीं समस्त संसारमें अहिंसा तथा जैन धर्मका प्रचार है। आपके हृदयमें हर समय लगन लगी रहती थी।" २५-५-६४. भगतराम जैन मंत्री अ० मा० दिगम्बर जैन परिषद, देहली उन जैसा समाजका सच्चा कार्यकर्ता मिडना बड़ा दुर्लभ है । वे सच्चे कलमवीर और सच्चे अहिंसावादी थे। २४-५-६४. सेठ गचंद बी० सेठी विनोद मिल्म, उज्जैन For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९) उन्होंने अपने जयपुर प्रवास के दो दिन मेरे यहां ठहरनेकी कृपा की थी जिसकी स्मृति आज भी ताजी बनी हुई है। उस समय जो खुलकर बातचीत हुई थी उससे मैंने जाना कि वे महिला प्रधान संस्कृतिको जनजन तक पहुंचाने के कितने नागयित हैं और प्रयत्नशील भी। यह उनकी प्रतिभा और अध्यवसाय ही था कि अलीगंज जैसे रेल मार्गसे दूर नगरमें रहकर भी उन्होंने विश्चके कोने कोने में अहिंसा और जैन सिद्धान्तोंका प्रचार किया और यही कारण है कि आज विश्वके विद्वानोंके लिये जैन धर्म अपरिचित शब्द नहीं रहा। संक्षेपमें वे व्यक्ति नहीं अपने आपमें एक संस्था थे। एक व्यक्ति क्या कर सकता है बाबू कामताप्रसादजीका जीवन उसका एक श्रेष्ठ उदाहरण है। गुमानमल जैन सहसम्पादक "ज्वाला" साप्ताहिक जयपुर " उनके परलोक गमनसे जैन समाजका एक अमूल्य रत्नका वियोग होगया। अखिल विश्व जैन मिशन के तो वे प्राण ही थे।" रतनलाल जैन बिजनौर "बाबूजीकी सौम्यमूर्ति, सरल व्यवहार, धर्म प्रेम, साहित्य सेवा कैसे भूल सकते हैं। ...हमें प्रति क्षण याद आती रहती हैं।...हा। जैन जगतका सूर्य अस्त होगया...षाबूजी मिशनके साथ ही अमर रहेंगे" मार्तण्ड संयोजक-ऋषमदेव " आपका निधन जैन समाजके सूर्यका अस्त है और वह भी इस प्रकारका अस्त जिसका अगले प्रातःमें उगनेका प्रश्न ही नहीं है। ...उनके लिये समस्त संचार ही उनका कुटम्ब For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) था। जो क्षण इस फरवरी मासमें मैंने उनके सामीप्यमें व्यतीत किये थे। वह क्षण मेरे जीवन के बहुमूल्य क्षण थे।...हमें उनकी स्मृति में कुछ क्रियात्मक कार्य करना है।" आदीश्वरप्रसाद जैन एम० ए० मंत्री जेन मित्रमण्डल-दिल्ली उन्होंने जैन समाजकी जो सेवा की है वह भुलाई नहीं जा सकती। उनके निधनसे जो समाजकी हानि हुई है उसकी पूर्ति होना सम्भव नहीं है। जे० एल० जैनी ट्रस्ट इन्दौर श्री. जी० ला० मित्तल पुरातत्व एवं पुराने शिलालेखों की खोज करके उन्होंने अनेक बार जैन धर्मकी प्राचीनताके सम्बन्धमें अपनी लेखनीके चमत्कार से विश्वको चकित कर दिया । बढेडवाल जैन संघ चन्द्रकुमार जैन मैनपुरी अध्यक्ष जैन इतिहासके खोजपूर्ण साहित्यके सृजन में आपने जो कार्य किया है वह अपूर्व है। आप जैन इतिहास के महान पंडित थे।" राजस्थान जैनसभा रतनलाल जैन छाबडा जयपुर मंत्री भारतका एकमात्र प्रकाशित नक्षत्र अहिंसाका पुजारी, भारतका एकमात्र प्रकाशित नक्षत्र आजसे एक हफ्ते पूर्व स्वर्गगामी हुआ...इस महान वज्रपातको सहन For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ करनेवाले शत शत भारतीयों में आप तथा आपके प्रियजनों को किस तरह सान्त्वना प्रदान की जा सकती है ? मा. शाकाहारी संघ म. प्र. गेबा, पन्नालाल जैन मंत्री उनकी कमठता तथा श्रद्धाशोलता भावी पीढ़ीके लिये सर्वदा अनुकरणीय रहेगी। जेन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा दिल्ल. सोहनलाल बाफणा रामपुर जैन समाजकी यह सभा, जैन समाजके अद्वितीय विद्वान अथक निस्वार्थ समाज सेवक जैन जगतके दैदीप्यमान नक्षत्र अपने प्रिय नेता डाक्टर कामताप्रमादजी जैन अलीगंज (एटा)की असामयिक मृत्यु पर हार्दिक शोक प्रकट करती है। जैन समाज रामपुर (उ० प्र०) विमलचन्द्र जैन एडवोकेट मुख्यमंत्री श्री डाकटर साहब द्वारा की गई अनेक सेवायें जैन समाजके इतिहासमें स्वर्णाक्षरों में लिखो जायेंगी जैन धर्म एवं जैन समाजका महान उपकार आपके द्वारा देश एवं विदेशो में हुआ है वह अपनीय है। वात्सल्यपूर्ण स्वभाव भाई साहबका स्वभाव बड़ा सरल शान्त और वात्सल्यपूर्ण था, धर्म प्रभावना और परोपकार भावनासे ओतप्रोत रहता था, ऐसे भाव तो कर प्रकृति के बन्ध में सहायक होते हैं। पानीपत रूपचन्द गार्गीय जैन प्रिन्सीपल For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) प्रचारके दृढ़ स्तम्भ सचमुच में बाबूजी इस युगमें जैन धर्म प्रचारके दृढ़ स्तम्भ थे खासकर विदेशों में जैन धर्म प्रचार बाबूजीके ही निमित्तसे वर्तमानमें चल रहा था...... वर्तमान युगमें जैन धर्मके प्रचारका चमकता हुमा सूर्य नष्ट हो गया। निवाई (जयपुर) पं० इन्द्रजीतसिंह जैन आयुर्वेदाचार्य, न्यायतीर्थ - शत्रुओं तकके मित्र जैन मन्देशका पहला सफा देखकर ही अखबार हाथसे छूट पड़ा। स्वाबमें भी यह ख्याल न था कि जैन समाजके परम हितैषी इतिहासके सूर्य जिनवाणी व बायस आफ अहिमाके विद्वान सम्पादक बाल बड़े जैन मिशनके डायरेक्टर शत्रु कों सकके मित्र श्री कामताप्रसादजीको जालिम मल्कुल मौत विना कहे इतनी जल्दी हमारे बीचसे खींचकर ले जायेगा ।...... समाजसेवा देश विदेशों तक धर्मभावना, देशभक्तिका सिका न केपल मेरे बल्कि मेरे मित्रों पर बैठा हुआ था। महारनपुर दिगम्बरदास मुख्तार उत्कृष्ट श्रद्धा उनमें अमृत उत्साह शक्ति थी। धर्म प्रचारकी उत्कृष्ट श्रद्धा थी, जिनवाणीकी असीम भक्ति थी। साहित्य प्रचारकी बकोटिकी हगन थी। जैन इतिहासका परिशीलन मनन उनका मन चाहा विषय था। घर-घरमें जन जनमें कैसे बीतराग शासनका रहस्य पहुंचे यह उनकी भावना थी। उदीयमान । For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) युवकोंमें प्रगतिशील तरुणों में उदित हुये नक्षत्रोंकी भांति विद्यार्षि योंके अन्तस्तलमें भगवान महावीरका मंगलकारी संदेश फैले यह उनकी तीव्र कामना था। दिल्ली, सुमेरचन्द्र जैन शास्त्री। बह दीप बुझ गया जो अपनी बुद्धिमत्ता, चतुराई एवं अद्भुत धर्म प्रचारकतासे विश्वको आलोकित करता रहा है। बाबूजीमें जैन धर्म एवं अहिंसा सिद्धांतको फैलानेकी उत्कट भावना थी। मैंने उनके जीवनसे बहुत प्रेरणा ही है। कलकत्ता, देवेन्द्रकुमार जैन, बी० कॉम० श्री बाबू कामताप्रसाद जीके अभावखे जैन समाजकी बहुत क्षति पहुंची है और मुरूपतया बिदेशों में धर्म प्रभाषनाकी दिशामें बहूत क्षत पहुंची हो। frog क्षु० मनोहरजी वर्णी। बैीटर चम्यतरायनीके बाद बबूजी ने ही विदेशोंमें जैन शब्द गुजागा । बाबूजी का जीवन प्रचार-रत रहा है व लेबिलधारी जैनों की अपेक्षा विदेशी विद्वानोंने उनका सही मूल्यांकन किया इससे वह कई ख्याति प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओंके सदस्य मनोनीत रहै। गंजबासौदा केशरीमल जैन-विशारद बर्तमान अहिंसक संसारकी बड़ी क्षति हुयी है, और वह बहुत कुछ सोचने पर भी समझ नहीं आ रहा है कि इस कमीकी पूर्ति कहांसे होंगी ? उनकी निस्वार्थ सेवासे समाज चिरऋणी For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१५४) रहेगा। सहज सरल भव्य मूर्ति आंखोके सामने है, ऐसा लगता है कि वे कुछ मेरे व समाज के हितमें कह रहे हैं। विदिशा (म० प्र०) राजमल गुलाबचन्द । कविको कल्पनाएं भी जाग उठी "वही फूल झर गया" %3D - वैसे एक फूल झरजाना, कोई वैसी बात नही है। आनी जानीमें दोदसकी, कोई बडी बिसात नहीं है ।। फिरभी हर बगियामें ऐसा, कोई फूल हुआ करता है । जिसकी पांखोंसे परिमल का, अक्षय कोष चुआ करता है ।। जिसके रहनेसे बगियाको, रौनक दूनी हो जाती है। जिसके झर. जानेसे बगिया, सचमुच सूनी हो जाती है ।। चन्द्रसेन जैन विसेनपुरी जि. खिरी लखीमपुर काम तो करते सभी अपने लिये हैं। मगर कितने कर रहे परके लिये हैं। तारको, शशि, सूर्य गाओ गीत उसके प्रमुद मन जो जी रहा सबके लिये है ।। मादगीका बाण तो सबने किया है। दव द्वेष कालुषसे मगर जलता हिया है ।। जैन ही क्या अखिल जग है बन्धु जिनका नर-रत्न, भारत देश मेरेको मिला है। कोलारस (म. प्र.) प्रकाशचन्द्र जैन सर्वलेन्स इन्स्पेक्टर मात्मसुप्रनको सुषमासे, सुरभित जिसने जगकर डाला । उसी महापुरुषों चरणों में, सादर श्रद्धांजलि माला ।। For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) गहन विषाद है, आज कि, वह ज्योतिमय आभा छिप गई। जो कलतक मार्ग दिखाती थी, ज्योति थी प्रज्वलित दीपकी ।। वह जीवन धनका पारखी, सद्गुण रत्न एकत्रित कर । जीवन गंगा बहा सरस बना, चला गय! दूर-बहुत दूर ।। वीर, अहिंसावाणी, बाइस ऑफ अहिंसाका सम्पादन कर । 'अखिल विश्व जैन मिशन' की अक्षुण ज्योति जला ॥ केशरिया ध्वज को और ऊंचा फहराकर । ऐसी दुन्दभी बजाई कि विश्वका हर प्राणी ॥ क्या भारतीय अंग्रेज अमेरिकन, नमैन और जापानी । झूम उठे-जैनोंदेश्य समझकर ।। बहुतोंने त्याग दिया मांस भक्षण और रात्रि भोजन । विश्व की प्रमुख भाषाओं में ।। हर देश जातिकी गाथाओं में । उन्होंने वीर का वह अमर संदेश भेजा कि ।। विश्वमें शांति, अहिंसा बिग्वे पनप उठे। विनाशकारी शक्तियों के मार्ग मुड़े ।। पंचशीटके सुरभित सुमन खिले ॥ वह कर्मठ, वीर, साहस श्रम को गले लगा। जीवनके हर क्षणको पसीनासे नहला । गहरी मीठी नींदमें खो गया ।। घनमें शशि मुदित हुआ। अजर अमर हो गया ।। सुधीर जैन विश्व तुम्हारी सेवाओं को, सदा रखेगा याद । साहित्य उपवन उजड़ा, तुम बिन कामताप्रसाद ।। रामपुर कल्याणकुमार 'शशि' For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) स्व० - प्रवतसी सुनी बात जब । का - बिराट रूप के आय महत पुरुष था जो जैनोंका । ता - हि उठाने आया है ॥ प्रपंचोंसे सदा दूर जो । सादा जीवन था जिसका ॥ द-या भावका भरा समंदर । जी - ब दया प्रण था जिसका || अ-ब वह कोसों दूर हुबा हमसे । मर कर भी नाम अमर पाया || रटा " णमो अर्ह " अन्तमें । हो- सुखी सदा उनकी कला || सवाईमाधोपुर बाढीप्रसाद जैन 'नवीन' * आज धरती और नभमें छा गया कोहरा धना है । आज रोता है हिमालय, भूक जड़ चेतन बना है ।। लुप्त प्रायः हो गई गम्भीर, सरिताकी खानी । आज कि 'प्रसाद' के चहुं ओर, तम है वेदना है || " बिदिशा ' लक्ष्मीचन्द्र जैन ' रसिक ' ⭑ याद आवे आपकी पंचशील के आराधक हो शाश्वत जीवन बिश्वासी । हम कभी न भूलेंगे तुमको संस्थापक मिशन सुगुण राखी ॥ जीवन में जो जो कार्य किये, क्या कभी भुलाये जा सकते । साहित्य और जन सेवाके, क्या कार्य गिनाये जा सकते || नि किन कार्योंका कथन करूं, कब परिचय पूरा हो पाता । - For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग युग तक नाम अमर होवे, यहां है मेरे मनको माता ॥ लश्कर मिश्रीलाइ पाटनी । ७ ) ★ कविका नमस्कार तुम जैन धर्म चमकाने को, आगरा आगमका पाठ पढ़ाते थे । तुम ग्रन्थकार सम्पादक थे, लेखक बन सबको माते थे । तुम नाटकलार निराले थे, सबको ही मुग्ध बनाते थे । तुम चले गये हो बाबूजी, धर्मात्माको फैड़ाते थे || तुमने जगका उपकार किया, तुमको अति भाया करते थे, कर "अहिंसा - वाणी" का प्रचार | तुम अन्तरा में चले गये. विद्वान प्रचारकके बिचार || चलना होगा इन मार्गों पर, तुमको है कविका नमस्कार । जितना तुम करते थे प्रसार । राजाबाबू जैन "राज" * बच्चे भी रो पड़े बाबूजी मेरे जैसे छोटे बच्चे को नवीन मार्गदर्शन देनेके पूर्व बिना साक्षातकार किये ही इस भौतिक शरीरको छोडकर चले गये ।... पूज्य बाबूजीकी पूर्ण कृत्तियोंसे तो मैं अजान हूं किन्तु मुझ जैसे छोटे बच्चेको वास्तविकताकी ओर छानेके लिये For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८) उनका जो प्रयास था वह मेरे लिये अकथनीय है। . प्रेमचन्द जैन पापड़ीवाल. चौमू “ मैं श्रीमान कामताप्रसादजीको सच्चे हृदयसे श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं क्योंकि वे समाज और धर्म के सम्मानित व्यक्ति थे उनके न होने से समाजको बडी क्षति हुई है " जयपुर - विजयकुमार जैन पांड्या । He was a beacon light to the Samaj. It is feared that the gap came up as a result of his death will be gulfed in the near future. [वह समाजके लिए मार्ग-दर्शक थे, यह भय है कि उनकी मृत्युके कारण जो अभाव उत्पन्न हुआ है वह निकट भविष्यमें ही पूर्ण हो सकेगा ?] जैन सभा दक्षिण नई-दिल्ली, सुरेन्द्रकुमार जैन, मंत्री। His deep insight and study of Jainism, his profund love for the cult nou-violance, and sincerity of purpose, he carried out successfully, the work of the World Jain Mission not only in India but in far off nations. [उनका जैन धर्मके प्रति गूढ अध्ययन और अहिंसामें तीव्र आस्था तथा लक्ष्यके प्रति सच्चाई के साथ उन्होंने अखि विश्व जैन मिशनका कार्य केवल भारत में ही नहीं किन्तु सुदूरके देशोंमें भी सफलताके साथ सम्मन्न किया ] गुडबगै वी. पी. कोठारी उच्चतम न्यायालय Senior Advocate For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५९ ) Doctor Saheb devoted his full life to the upliftmant of the principles of Jain religion and has done great spade work in other countries to saw their seeds. | डेक्टर साहबने अपना पूर्ण जीवन जैन धर्मके सिद्धातोंकी उन्नति के लिये अर्पित किया और इन सिद्धान्तोंके बीजारोपन हेतु अन्य देशों में महान कार्य किया ] बम्बई रतनचन्द हीराचन्द जबेरी ★ He had devoted the best part of his life to the cause of Jainological studies. Though he is no more with us physically, he lives in the world of Scholarship through his numerous works. उन्होंने अपने जीवनका महत्वपूर्ण भाग जैन धर्मके अध्ययन हेतु समर्पित किया । यद्यपि वे शारीरिक रूपसे हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनके असंख्य कार्यों के कारण वे विद्वतजनों में अभी भी स्मरणीय हैं ! कोल्हापुर श्रो : डा० ए० एन० उपाध्याय * We have lost in him a true saint and a perfect Jentleman. [ हमने उन्होंको खोकर एक सच्चे सन्त और पूर्ण आदर्श पुरुषको खोदिया है । ] बी० डी० अर० एम० इन्टर कालेज राजा जगदीशकुमार निगम एम० काम० एम० एड० प्रिन्सीपल 1 ⭑ For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६०) I have lost a friend who was deeply interested in spreading knowledge on Jainism. Since the conference of Jain scholars in Ujjain in 1961, whan I came into close contact with him, I has regarded Dr. Kamta Prasad as stalwart among jain scholars.......The continuvation of the good work he was doing will be only fitting tribute it can pay to his memory. Germany Embassy. Dr. W. Nolle मैंने एक ऐसे मित्रको खो दिया है जो जैन धर्मके ज्ञान प्रसारमें विशेष रुचि रखते थे। सन् १९६१ के उज्जैनके जैन विद्वानोंके अधिवेशन में, जब मेरा उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध हुमा तबसे मैंने डा० कामताप्रसाद जैनको जैन विद्वानों में सबसे अधिक साहसी समझा। उनकी स्मृति में उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये कार्यों को ही आगे बढ़ाना सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जरमन दूतावास, डॉक्टर ड० ल्यू० नोगी। - - समाप्त । For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नकल अभिनंदनपत्र - विद्वद्प्रवर श्रीमान कामताप्रसादजी जैन अधिष्ठाता अ० वि० जैन मिशनके कर-कमलोंमें सादर-साभिनन्दन ! For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) परम तत्वज्ञ: आज हम आपको अपने बीच पाकर पलाधिक हर्षित एवं गौरवान्वित हैं। आज जैन धर्म एवं वीर-चाणोकी जागरूक प्रसारक संस्थाके संचालकके रूपमें आपने जो अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है वह आधुनिक जैन इतिहासमें परम उल्लेखनीय सन्दर्भ है। अपने विद्वत्तापूर्ण लेखों, ट्रेक्टों एवं ग्रन्थों में जो खोजपूर्ण एवं गहन सामग्री आपने प्रस्तुत की है वह न केवल जैन धर्मके विशद तत्वोंका बिवेषन है वरन उनसे जनसाधारणको ग्राह्य अनूठे दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विषयों की प्राप्ति होती है। उद्भट् साहित्य-सृजेता : - अपने सहन निगूढ अध्ययन, चिंतन एवं तत्वज्ञानके द्वारा आपने जो जैन साहित्य-सामग्रो प्रस्तुत की है वह आज भी पूंजी प्रमत्त जनताके मध्य जैनदर्शन एवं अध्यात्म ऐसे गूढ विषयों को बोधगम्य करने में पूर्ण सफल है। - अ० वि० जैन मिशनका संस्थापन कर जैनधर्मके सर्वभौम सिद्धांतों एवं दर्शनके प्रचार-प्रसारका जो जटिल कार्य आपने अपनाया है वह आज पीड़ा एवं क्रन्दनके इस युगमें शांति एवं सगहनाका प्रदायक है। यू० एन० ओ०, मास्को, न्यूयार्क, लंदन, पेरिस, नई दिल्लो सम आधुनिकता एवं ऐश्वर्य में डूबे बाजके इस प्रताड़ित युगमें अलीगंज (एटा)के शांत, नीरव ग्राम्य वाता. वरणमें एकांत पथिककी मूक साधना-रत होकर आपने जो विश्वके आध्यात्मिक एकीकरण सहित विश्वबन्धुत्व तथा विश्वमैत्री सदृश्य मानव कल्याणकारी अमर संदेशोंको जागरूक रखनेका : घोड़ा उठाया है वह बापकी जीवन्त कर्मशीलताका उदाहरण है। For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३) वीर-वाणीके अविश्रान्त प्रचारक : . ... एक समय था जब भारतके परे विदेशों में भी जैनधर्म अपनी जागृतावस्थामें विद्यमान था। ऐतिहासिक परिस्थितियों एवं परिवर्तनोंके साथ वह काल समाप्त हुआ। यों स्वदेशमें हो जैन धर्म । समाजकी स्थिति यह हुई कि हम अपना प्रचार करें, बढ़ें। जन जनमें भ० महावीर के सन्देश, दशलाक्षणिक धर्म, अहिंसा, अपरिगृहकी ओर जनताको आकृष्ट करें। . अणुबमके इस युगमें अणुव्रतकी शक्तिका उद्घोष करें। मन्तोष है कि आज विदेशोंमें भी ऐसे दर्शनवेत्ता मिले जो हमारी ओर लालायित थे। जिनकी बास्था तो वीरके पावन सिद्धांतोंकी ओर थी परन्तु घुटन सहित । आपने उनके संचयन एवं एकत्रीकरणका शुभ-कार्यारम्भ किया। . ख० बैरिस्टर श्री चम्पतरायजीने जिस वृक्षका बीजारोपण विदेशों में जाकर किया था, उसको आपके द्वारा हम विकसित पल्लवित एवं पुष्पित देख रहे हैं। पश्चिमकी अभिशप्त एवं लड़खड़ाती जनताके मध्य अहिंगा संस्कृति एवं मानव-कल्याणकारी मार्गको प्रशस्ति में आपने अभूतपूर्व कार्य किया है। बाज इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, जापान, इटली आदि-आदि देशों में प्रचार-स्रोत स्थापन कर वहांकी जनताके मानसिक परिष्कारके कार्यक्रमों की आपके द्वारा ममय-समय पर जो संयोजना की जाती है वह परमादरणीय एवं अनुकरणीय है। - "अहिंसा-वाणी” तथा “The Voice of Ahinsa" के द्वारा प्रचारका जो माध्यम आपने अपनाया है वह आपकी कर्मठ कार्य-शैलीका द्योतक है। For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) देश एवं विदेशों में जैन दशन एवं अहिप्सा संस्कृति का प्रचार, सम्पूर्ण विश्वमें शाखाओंकी स्थापना, प्लेटफार्म, प्रेम साहित्य प्रकाशन, फिल्म तथा आकाशवाणी द्वारा अहिंसाके मूलभूत सिद्धान्तोंका प्रचार, अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्यापीठके द्वारा जैन दर्शनके विभिन्न अंगों पर शोध कार्य, ज्ञानप्रसार, निबन्ध एवं प्रबन्धों द्वारा परीक्षायें, अहिंसा-सांस्कृतिक सम्मेलनों एवं वाचना. टयों की स्थापना, विद्वद्गोष्ठियोंका संयोजन, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में जैन साहित्यका समावेश, शाकाहार समारोह आदि बादि आपके सर्वतोमुखी कार्यक्रमोंकी कुछेक क्रियात्मक एवं प्रभावनापूर्ण गतिविधियां हैं जिन पर आज जैन-जगत पूर्ण आस्थामय दृष्टियोंसे निहार रहा है। ___ अन्ततः आजके इस प्राधुनिक वैज्ञानिक युगमें हम आपमें भ० महाबीर के गणधरके विषदरूपमें आपके दर्शन करते हैं। और महान उल्लासका अनुभव करते हुए आपका हार्दिक अभिनंदन करते हैं। हम हैं आपके आस्थावान सदस्यगण, जैन मंडल, कानपुर । दि. १९-४-६१. For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० डॉ० कामताप्रसादजी कृत प्राप्य ग्रन्थ वीर पाठावली (20 कथायें) संक्षिप्त जैन इतिहास-६ भाग / भगवान महावीर भ० महावीर और बुद्ध-भाग 1- 23) नव-रत्न 2) पंचरत्न / ) महारानी चेलनी कुन्दकुन्दाचार्य चरित्र और भी सब जा के प्रकार के 1000 दि० जैन प्रन्थ मिलते है। एक काई / लिखनेपर सूचीपन्न मुफ्त्र भेजा जाता है। URAT. 112516 For Personal & Private Use Only www.jainelibray ong