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________________ ( १६३) वीर-वाणीके अविश्रान्त प्रचारक : . ... एक समय था जब भारतके परे विदेशों में भी जैनधर्म अपनी जागृतावस्थामें विद्यमान था। ऐतिहासिक परिस्थितियों एवं परिवर्तनोंके साथ वह काल समाप्त हुआ। यों स्वदेशमें हो जैन धर्म । समाजकी स्थिति यह हुई कि हम अपना प्रचार करें, बढ़ें। जन जनमें भ० महावीर के सन्देश, दशलाक्षणिक धर्म, अहिंसा, अपरिगृहकी ओर जनताको आकृष्ट करें। . अणुबमके इस युगमें अणुव्रतकी शक्तिका उद्घोष करें। मन्तोष है कि आज विदेशोंमें भी ऐसे दर्शनवेत्ता मिले जो हमारी ओर लालायित थे। जिनकी बास्था तो वीरके पावन सिद्धांतोंकी ओर थी परन्तु घुटन सहित । आपने उनके संचयन एवं एकत्रीकरणका शुभ-कार्यारम्भ किया। . ख० बैरिस्टर श्री चम्पतरायजीने जिस वृक्षका बीजारोपण विदेशों में जाकर किया था, उसको आपके द्वारा हम विकसित पल्लवित एवं पुष्पित देख रहे हैं। पश्चिमकी अभिशप्त एवं लड़खड़ाती जनताके मध्य अहिंगा संस्कृति एवं मानव-कल्याणकारी मार्गको प्रशस्ति में आपने अभूतपूर्व कार्य किया है। बाज इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, जापान, इटली आदि-आदि देशों में प्रचार-स्रोत स्थापन कर वहांकी जनताके मानसिक परिष्कारके कार्यक्रमों की आपके द्वारा ममय-समय पर जो संयोजना की जाती है वह परमादरणीय एवं अनुकरणीय है। - "अहिंसा-वाणी” तथा “The Voice of Ahinsa" के द्वारा प्रचारका जो माध्यम आपने अपनाया है वह आपकी कर्मठ कार्य-शैलीका द्योतक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003978
Book TitleKamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnarayan Saxena
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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