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है। पानी सदैव नीचेको बहता है और वैसे ही मानव बुरी प्रवृत्तियों की ओर अपने आप बढ़ने ढगता है । पानीको ऊपर चढ़ाने के लिये कठिनाइयाँ होती हैं वैसे ही मानबीय प्रवृत्तिको सरमार्ग पर मोड़नेके लिये बाधाओंका सामना करना पड़ता है। सबको अच्छाइयोंकी ओर बढ़ना है, पश्चिमी सभ्यता के स्थानपर अपने अध्यात्मवादको हो टटोलना अच्छा रहेगा ।
बाबूजीने इसका कारण भी बताया है – “स्वयं पश्चिमीय देशों को उसके षटुक फलोंसे भय लग रहा है । वे उससे असंतो षित हैं। किंचित् अध्यात्मवादकी ओर नेत्र फेर रहे हैं। ऐसे समय में हम भारतीयों को अपने प्राचीन ऋषियोंके वाक्यों में श्रद्धा लाना हितकर है ....... अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप में विश्वास करके जब शाश्वत सुखकी ओर हम भारतीय दृढ़ बद्ध परिकर होंगे, तभी हमारा कल्याण होगा। हमारा सच्चा आत्मज्ञान और आत्मश्रद्धान हमारा उद्धार करेगा ।
जैनधर्म और सम्राट् अशोक
सन् १९२९ में लिखित ४८ पृष्ठीय पुस्तक "जैनधर्म और सम्राट अशोक" को देखने से यह ज्ञात होता है कि अशोकका नाम इतिहास में अमर है उठका प्रमुख कारण जैनधर्मका प्रचार है । यदि अशोक महानकी भांति आजके शासक अपना जीवन व्यतीत करें तो वह दिन दूर नहीं जब पुनः सुख और शांति की भागीरथी प्रवाहित होने लगे। इसमें मौर्यवंश और अशोक के पूर्वजों के राज्याभिषेक तथा धर्म प्रचारके कार्यका वर्णन किया है। जनत्ता में एक धारणा हजारों वर्षोंसे चली आ रही है कि अशोक कलिंग विजयके बाद बौद्ध धर्मका अनुयायी बना, पर डा० फ्लीट, प्रो० मैकफैल, मि० मानइत, मि० हेरस, डॉ० कर्नल साहब, इल्स साहब, इस कथन के विरोध में मत प्रकट करते हैं ।
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