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अपनी दिव्य किरणोंसे बिना भेदभाव के इस विश्वको आलोकित करते हैं ठीक यही उद्देश्य तो किसी धर्मका होता है।
नहीं,
धर्म वाणीकी वस्तु नहीं, लेखन और कापी किताबों का विषय सच्चा धर्म अथवा अध्यात्म जीवन में ढालने की चीज है. जिसके प्रभाव से हैवान इन्सान बन जाते हैं, नरसे नारायण होते हैं, और पुरुषसे पुरुषोत्तम बनते भी देर नहीं लगती। जिन विचारधाराको लेकर बाबूजी चले यद्यपि वह उनकी नहीं थी, पूर्व ऋष मनोषियोंकी वाणीको रचनात्मक रूप देकर संसारके अज्ञानांधकार में प्रसित व्यक्तियों को जो प्रकाशपुञ्ज दिया उससे सभी धन्य हो गये । यही तो सबसे बड़ी विशेषता थी कि अपनी सच्ची लगन, व्यक्तित्व, चारित्र, सेवा, आत्मविश्वास और प्रतिभा के बलपर अपने जीवन के ६३ वर्षो में जो कुछ कर गये उसे अन्य लोगोंके लिये तो जन्म जन्मान्तर तक प्रयत्न करने के बाद पूर्ण करना सम्भव नहीं था ।
आज देश में अनेक सम्प्रदाय, सामाजिक संस्थाएं, और संघ चल रहे हैं जिनके पास लाखों और करोड़ों रुपये की सम्पत्ति है, फिर भी धनाभावका रोना रोते हैं। जिस उद्देश्य को लेकर संस्थाओंका प्रादुर्भाव होता है उम्र उद्देश्यकी पूर्ति तो दूरकी बात रही जीवन के प्रारम्भिक दो चार वर्षों में ही पदलोलुपता, ईर्ष्या-द्वेष, धनलिप्सा, झूठी वाहवाही लूटनेकी छछोरी आदत, पार्टीबन्दी और फूरके अखाड़े बन जाते हैं। समाज से बाकी आड़ में स्वयंकी सेवा होने लगती है । समाजके श्रमजीवियोंके पसीने की गाढ़ी कमाई जो सेना और जनसुधार के लिये थी अपने काममें आने लगती हैं।
हमने तो एक बात देखी है कि जिन्हें कार्य करने की चाह होती है उनके लिये राह अपने आप बन जाती है। समाजसेवा के
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