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काभेष प्रारम्भ करना पर अवश्य है, पर उन्हें पूर्णता तक पहुंचाना सबके बूते की बात नहीं होती। शुरूमें अपने सम्पपी सफ उपहास करते हैं, मनौट पड़ाते हैं, कुछ नहीं होता तो बाद में स्वयं विरोष करते हैं और दूसरोंसे करानेका प्रयास करते हैं। सांसारिक उपहास और विरोधका जो साहपसे सामना कर लेते हैं जन्तमें विजयश्री नहीको बरण करती है। बाधक साधक बन जाते हैं, विरोधी सिर झुकाते हैं और सारा मंमार अपना माथा टेकनेके रिये तैयार होता है।
जिप बखित विध जैन मिशनको लेकर वाचूजी आगे बढ़े उसकी विचारधारा बड़ी ही प्रौद, परिमार्जित, नादर्श व उदात्त है। इसी लिए ईसाई धर्मकी तरहसे उसके द्वारा अपनी विचारधारा न हो किसी पर जबरन ना दी गई और न धन, बम, भोजन, सर्षिय अथवा इन्द्रिय विमाका प्रलोभन देकर मसानी, अशिक्षित, असमर्थ और पिछड़ी जातियों के लोगोंको धर्म परिषवनके रिये मजबूर किया गया।
इस मिशनने वास्तविकता सपके सामने अपने साहित्य प्रकाशन द्वारा रखी है, जिसके प्रभावमें बाकर भारतवासियोंने ही नहीं विदेशियोंने तक अपनेको जैन घोषित किया। धार्मिक साहित्यका पठन पाठन कर वे मंत्रमुग्ध हो गये और जिस शान्तिकी उमाशमें अपने जीवन के बनेक वर्ष खोये थे वह वहांसे बात की। इंग्लैण्डके केंषमैनवेठ माहब, जर्मनीके वेण्डेड साहब, अमरीकाके बाहर माहस तथा एनके मैके पाहपकी गणना ऐसे ही महानुभावों में की जाती है।
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