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________________ (४८) जुट जाने, धर्मकी बीभाषा, धर्मका पालन करने, वीर बनकर उद्योग करने, धर्मको रक्षा करने, हिंसा व अहिंसामें भेद, और वर्तमान कतैव्यके बारेमें भलीभांति समझाया है ताकि कमसे कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी अच्छाइयोंको आत्मसात कर सके। दुर्वासनाओंको जीतते हुवे जीवनके साध्यकी ओर बढ़ने की सलाह कितने सुन्दर शब्दों में दी गई है-"ज्यों ही आपको दुर्वासनाएं सताये त्यों ही सत्कायमें लग जाइये । ऐसा न करेंगे तो दुर्वासनाएं आपके जीवनको निकम्मा करके अन्त में नष्ट कर डालेंगी। अनादिकालसे संसार-वारिधिके विविध विक्राल विपत्ति भावों में चक्कर खाते खाते बडो कठिनाईसे प्राप्त मनुष्य जीवनरूपी चिन्तामणिको फिर दुर्वासना सागर में फिर फेंक देना क्या बुद्धिमता है ? यही बन मूर्खता है और सचमुच ऐसा ही है तो आप मूर्खताके मार्गमें गमन न कीजिये ।" पतितोद्धारक जैन धर्म सन् १९३६ में पं० जुगलकिशोरजो मुख्तारको यह देखकर बड़ा दुःख हुआ कि लोग जाति और कुलको विशेष महत्व दे रहे हैं। जीव तो एक विश्रामगृह या धर्मशालाके समान होता है, बह तो उच्च और निम्न सभी कुलोंमें चक्कर लगाता रहता है पर साधारण जनता इस ओर सोचती ही नहीं। इसलिये मुख्तार साहवने जैन धर्मके पतितोद्धारक स्वरूपको प्रकट करनेके लिए ग्रंथ लिखने हेतु पुरस्कारको योजना रखी। पर आश्चर्य तो यह कि बाबूजीके अतिरिक्त और कोई रचना ही नहीं आयी। और शीघ्र ही यह पुस्तक २०४ पृष्ठोंकी प्रकाशित हुई। इस पुस्तकमें बताया गया है कि महानसे महान पतितों और पापियोंका मी जैनधर्मके माध्यमसे उद्धार किया जा सकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003978
Book TitleKamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnarayan Saxena
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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