SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५१ ) संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग सन् १९४३ में बाबूजी द्वारा १३७ पृष्ठकी पुस्तक लिखी गई । बाबूजी सुप्रसिद्ध जैन ऐतिहासिज्ञके रूपमें हमारे सामने रहे हैं। आपने जो कुछ भी साहित्य और समाजकी सेवा की है उसमें पूरी तरह से निस्वार्थं वृत्तिके दर्शन होते हैं। जिस तरहसे किसी व्यक्ति के सम्मान के लिए उसके प्रारम्भिक जीवनकी घटनाओंको जानने की उत्सुकता रहती है उसी प्रकार देश, समाज अथवा धर्मकी महत्ता और सम्मान उसके इतिहासपर निर्भर रहता है । जैन धर्म के सच्चे इतिहासकी कमी के कारण विभिन्न प्रकार के भ्रम फैले हुये थे, और किसी मात्रा में आज भी फैले हैं। इन भ्रमपूर्ण कल्पनाओं को दूर करके जैन धर्मका सच्चा गौरव संसार में बढ़ाने की इच्छा से ही इतिहास लिखनेकी आवश्यकता पड़ी। इतिहास की घटनाओंको सत्यताकी कसौटीपर कसने के लिए विभिन्न शिलालेख, मुद्रायें, ताम्रपत्र, पुरातत्व सम्बन्धी खण्डहर, और इतिहासकारों के अमूल्य ग्रन्थोंकी आवश्यकता पड़ती है। विद्वान लेखकने बड़े ही परिश्रम से समस्त सामग्रीका उपयोग करके महत्वपूर्ण बनाया है । साथ ही अपने श्रमकी सार्थकता इसी में समझी गई है कि लोग इस इतिहास से लाभ उठावें । जैनधर्मकी ऐतिहासिक प्राचीनता, ऐतिहासिककालके पहिले जैनधर्म, जैनी भारतके मूल निवासी, जैनियोंका आर्य होना, वेदों में यज्ञ विषयक चर्चा, वेदोंमें गुप्त भाषा के व्यवहार के कारण, आर्य और अनार्यका अन्तर, भारतकी जातियां, भाषाएं, धर्म, आदि अनेक प्रश्नोंका समाधान किया गया है। इतिहासकी आवश्यकता क्यों पडती है ? जैन इतिहास के आधार क्या है ? जैन मृगो में भारतवर्षका क्या स्थान है ? प्राचीन प्रदेश ओर नगर कौनसे हैं ? ऐसे अनेक प्रश्न व्यक्तियोंके मन में उठते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003978
Book TitleKamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnarayan Saxena
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy