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(१४) अब सो जमाने के प्रभाव से विधवा जीवन में कुछ अंतर भी हुमा है। विधवाओंके जीवन सुधरे भी हैं, किन्तु सौ वर्ष पहले के समाजमें विधवाके लिये कोई स्थान न था। घर कुटुम्ब में यह अनादर की बात समझी जाती थी। कुछ हवा ही ऐसी चल रही थी। हमारी पितामही उस संकट कारसे ज्यों त्यों निकली थीं।
पितामहीजी देवता थीं। उनकी गोदमें पळकर पिताजीने भी देवरूप पाया था। शांति और स्वावलम्बन उनके स्वभावमें रमा हुआ था। कुमारावस्थामें वह मांसे दूर लखनऊमें रहे और वहां ही विद्याध्ययन किया था । किन्तु मांकी ममताने उनको आगे पढ़ने न दिया । वह घर पर आ गये और अपने पैरों पर खड़ा होनेका साहस उन्होंने प्रकट किया। विधवा मांने जो कुछ दिया उस थोडीसी पंजीसे उन्होंने नमकका व्यापार प्रारम्भ कर दिया था ! किन्तु शीघ्र ही उनके भाग्यने पलटा खाया। ___ उनके अभिन्न मित्र बनारसीदासजीने उनको बुला लिया। वह फौजमें बैंकर कोन्ट्रेक्टर थे। उन्हें साझेकी दुकान के लिये एक विश्वनीय साझीदार चाहिये था। पिताजीको उन्होंने साझीदार बना लिया। श्री बनारसीदासजी धर्मात्मा थे। उन्होंने सं० १९५७ में भौगांव जिला मैनपुरोमें एक विम्ब प्रतिष्ठोत्सव कराया था। सन् १९४० में पिताजीने अपना निजी फर्म 'मेसर्स मागदास एन्ड सम्स' नामसे स्थापित किया था। और अंग्रेजी तोपखाना फौजके साथ भारतकी विविध छावनियों में बह गये थे। अफगान युद्ध में भी हमारे धर्मके प्रतिनिधि फौजके साथ मोर्चे पर गये थे। जब सन् १९०१ में पिताजी पश्चिमोद्वार पीमा प्रांतकी छावनी कैम्प वेळपुरमें थे, तभी वहां हमारे शरीरका अवतरण हुआ था। "हमसे आयुमें बडी दो बहनें थीं और दो बहनें हमसे छोटी थीं। __उस कारमें भी पून्य पिताजीने यह व्यवस्था की। हमारी
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