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बहनें भी हिन्दोका सामान्य ज्ञान प्राप्त कर सकी थीं और धर्मज्ञ हुई थीं। खेद है उनमें से दो दिबंगत हो चुकी हैं। वहांके बाद पेशावर, रावळपिंडी, बाहोर, मेरठ, हैदराबाद, सिंध आदि स्थानों में उन्होंने व्यापार किया था। सन् १९२० में हम भी अपने इस फर्म में कार्य करने लगे थे । हैदराबाद सिंधके अतिरिक्त करांची दिल्ली और बरेली में भी फर्म की शाखाएं थीं। किन्तु सन् १९३० के बगभग फौजी विभागने भारतीय बैंकरों को फौज में न रखनेका निश्चय प्रगट किया तथा ठेकेदारी भी विषम हो गई। अतः पिताजीने इस कार्यको करना उचित न समझा । घरपर आकर जमीनदारी आदि कार्यको सम्भाल लिया |
आसामियोंके प्रति उनका व्यवहार इतना सरल था कि वह कठोर शब्दों में रुपयोंका तकाजा नहीं करते थे। आसामीकी खुशी में उनकी खुशी थी। दुकानोंके किरायेदारोंसे किराया इस तरह मंगवाते मानों उनके उपकार में दबे हों । कुटुम्बी और मित्रजनों के आपत्तिकाल में उन्होंने निस्वार्थ भाव से सहायता की। - स्थानीय मंदिरजीका प्रबन्ध सुचारू रीति से वर्षों किया और मंदिरजीकी कायापट दी उन्होंने साहू श्यामलालजी और बेनीरामजी के सहयोग से कर दो। संगमरमरकी वेदियां संगमरमर के फर्श और स्वर्णखचित चित्रकारीसे मंदिरजी चमकने लगा । श्री शिखरजी, गिरिनारजी, जैनबद्रोजी आदि स्थानोंकी उन्होंने एक से अधिक बार यात्रा की। इस प्रकार उनका जीवन सुखमय बीता था। अब्बत्ता अन्तिम जीवन में सन् १९४० से बणबेतगोलकी यात्रा से लौटने पर उनको पथरी रोगकी पीढ़ाने घेर दिया था जिसको उन्होंने साहससे सहन किया। इसी रोग में उनका शरीरान्त ता० २० मई १९४८ के प्रातः हो गया ।
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