________________
(६७) बहुत ही मूढ़ लोग आवस्यपश तीर्थोको गन्दा करते देखे पाये हैं, मन्दिरों के पास या तीर्थ-स्थानके निकट ही शौच आदि कर अपवित्रता फेलगते हैं। यह बात भी शायद बाबूजीको स्मृतिसे ओझल न हुई और लोगोंको पवित्रताका जीवन व्यतीत करनेका सुझाव दिया है।
तीर्थ करनेसे लाभोंकी प्राप्तिका वर्णन भी किया है। तीर्थयात्रासे धर्ममहिमाको मुहर अपने दृश्यपर अंकित करना, नई वस्तुएं देखना, नये अनुभव प्राप्त करना, चतुरता, क्षमतामें वृद्धि, विशाल दृष्टिकोण बनना, आलस्य और प्रमादके स्थान पर साहसका संचार होना, वर्तमान जैन समाजको परोपकारी उपयोगी संस्थाओंका परिचय, आत्म गौरव बढ़ना, साधु पुरुषोंके दर्शन, सामाजिक रीति रिवाजों और भाषाओं का ज्ञान, भावनामें शुद्धता, घरके मायाजालसे छुटकारा, पिछले इतिहासकी जानकारी शिलालेखों द्वारा, जैसे अनेक क्षणिक व स्थायी लाभ हैं। जिससे जीवन में युगान्तकारी परिवर्तन सम्भव है। यात्रामें ध्यान रखनेवाली बातोंका भी संक्षिप्तमें संकेत किया है।
यात्रा करते समय मौसमका ध्यान रखकर ठण्डे और गरम कपड़े साथ ले जाना चाहिये, परन्तु वह जरूरतसे ज्यादा नहीं रखना चाहिये । रास्ते में खाको टिवलकी कमीजें अच्छी रहती हैं, खानेपीनेका शुद्ध सामान घरसे लेकर चलना चाहिये । उपरांत निकटके या किसी अच्छे स्थान पर वहांके प्रतिष्ठित जैनी भाईके द्वारा खरीद लेना चाहिये । रसोई बगैरह के लिये बर्तन परिमित ही रखना चाहिये । थोड़ा सामान रहनेसे यात्रामें सुविधा रहती है।
अब आप स्वयं समझ गये होंगे कि यह पुस्तक धर्मप्रेमी तथा देशाटन करनेवालोंके लिये कितनी उपयोगी है। इसी पुस्तकमें एक अन्य परिशिष्ट भी पं० परमानंदजी शाली द्वारा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org