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________________ (800) प्रकार है- “ योगिराज पूज्यपाद देवनंदिजीकी आत्मानुभूति इसके पद पद में छलछला रही है। इस अमृतका रसपान करके मानव अमरत्वका अनुभव लक्ष्य करता है । इलोकोंका पद्यानुवाद करते हमें जो आत्माह्लाद हुआ वचनातीत है । सच पूछिए तो 'समाधिशतक' का मूल्य शब्दोंके द्वारा आंका ही नहीं जा सकता है । क्षितिजसे भी महान और विशाल अनंत और अद्वितीय गुणशील आत्माका र्णन जो करता है वह तो अनुभव में ही बानेकी चीज है। गुड़ और मिश्री के स्वादको रसना द्वारा जब नहीं कहा जा सकता तो अतीन्द्रिय आत्मा के स्वरूपका बखान कैसे, यह चर्म लपेटो जीभ कर सकती है ?" काशी हिन्दू विश्वविद्यालयके विख्यात प्रो० डा० बी० एड० आत्रेयने इस ग्रन्थको अपूर्व तथा स्वामीजी द्वारा बताये गये आत्मसिद्धि से सम्बन्धित उपायोंका व्यवहारिक बताते हुये कहा है "Shri Katmaprasad jain has made the work more useful to the modern reader by adding a Hindi metrical translation of it, which is indeed very beautifully done-” श्री कामताप्रसाद जैन ने हिन्दी में पद्यानुवाद करनेवालोंके लिये अधिक सरळ बता दिया है जो सचमुच ही बडा सुन्दर है इस पुस्तक में बाबूजीने श्री राबजी शाह तथा श्री पूज्यपादा'चार्यजी की जीवनी पर भी संक्षिप्त में प्रकाश डाला है। इसमें १०५ संस्कृत में श्लोक हैं । ८८ नम्बरका पद आपके सामने रख रहे हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि मद में अन्धे होनेवाले. व्यक्ति जन्म जन्मान्तर तक दुःख ही भोगते रहते हैं । जातिर्देहाक्षिता दृष्टा देहमात्मतो भवः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003978
Book TitleKamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnarayan Saxena
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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