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वस्तु नहीं है वह तो अपनी आत्मामें ही है। आत्म निरीक्षण, आत्मध्यान और बात्माकी भक्तिसे ही सब कुछ प्राप्त हो सकता है । आदर्श गृहस्थ जीवन व्यतीत करनेवालोंको देवपूजा, गुरुदेवकी सेवा, स्वाध्याय करना, आत्मसंयम, तप व दान देना चाहिए । नशीली वस्तुओंसे बचना, मांसाहार न करजा, सत्य बोलना, दूमरेकी सम्पत्ति देखकर मनोविकार उत्पन्न न होने देना, दूसरेकी मां बहिनोंमें भी मातृत्वकी भावना रखना, आवश्यकतासे अधिक वस्तुओंका संचय न करना, जैसे आदर्श गुण सन्त महात्माओंने गृहस्थ जीवन के लिये अनिवार्य बताये हैं इन बातोंका पालन करनेवाला गृहस्थ आदर्श जीवन व्यतीत कर लोक और परलोक दोनों ही सुधार सकता है।
श्री ब्र० शीतलप्रसादजी सम्पादक 'जैनमित्र' सूरतने इस पुस्तकके बारेमें लिखा है-"पुस्तकमें अहिंसा और मांसाहार निषेधका कथन हिन्दू, ईसाई, मुसलमान, पारसीकी पुस्तकोंके वाक्य देकर इतना बढ़िया किया गया है, यदि ये लोग अपने२ धर्मग्रन्थों के वाक्यों पर श्रद्धा रखके चलना चाहे तो उनके लिये यह अनिवार्य हो जायगा कि वे एकदम पशु हिंसा और मांस खाना छोड़ दें। वास्तवमें गृहस्थोंको सत्य मार्ग दिखाने में इस पुस्तकने एक आदर्श रख दिया है।"
लाला फूलजारीलाल जैन जमीदार करहल जि० मैनपुरी (उ० प्र०) की यह तीव्र इच्छा थी कि सभी गृहस्थोंको सत्य मार्गपर प्रेरित करनेके लिये एक ऐसी पुस्तक लिखवाकर प्रकाशित करवाई जावे, जिससे मानव जातिका बड़ा उपकार हो, पर लालाजीकी इच्छाको पूर्ण करनेके लिये कोई भी जैन विद्वान तैयार न हुआ, तब उनकी यह इच्छा बाबूजीने ही पूर्ण की।
और शीघ्र ही इतनी बड़ी पुस्तक विखकर उन्हें भेंट कर दी। बाबूजीने इस पुस्तकमें अपनी भावना भी इस प्रकार प्रकट की
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