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कदम, बारह वर्षोंकी घोर तपस्या, उपसर्गोंकी साधना, अनार्योको अहिंसाका शिक्षण, दलित दासों और तिरस्कृत महिलाओं का उद्धार, केवलज्ञानको महान घटना, उपदेशामृतके चातकोंको स्वाति बून्दकी पूर्ति, अहिंसाका प्रभाव, और अनेकांसमें एकता जैसी अनेक बातोंको बड़े अच्छे ढंगसे समझाया है। बाबूजीने हिंसाको विदेशियोंकी देन मानते हुये लिखा है___"जिस प्रकार आज भारतमें अंग्रेज नहीं हैं। भारतीय स्वाधीन हैं, परन्तु अंग्रेजोंके चले जाने पर भी भारतीय अंग्रेजी सभ्यताकी दासतामें अंधे हुए बहे जा रहे हैं, हिंसा और अपराधको बढ़ा रहे हैं, उसी प्रकार राजा वसुके समयमें आसुरीवृत्तिका प्रभाव भारतमें आ घुसा था। यह भारतीय संस्कृतिकी देन नहीं है।
इस पुस्तकमें भगवान महावीरको अनेक शिक्षाएं हैं जिनमें से यदि एकका भी पालन कर लिया जावे तो कल्याण हो सकता है। भगवानने प्रमादियों को चेतावनी दी है-"जैसे वृक्षके पत्ते पीले पड़ते हुये समय आने पर झड़कर पृथ्वी पर गिरजाते हैं, उसी तरह मनुष्य जीवन भी आयु शेष होने पर समाप्त हो जाता है। अतः हे मानव ! समय भरके लिये भी प्रमाद न कर।"
भक्ति और उपासना यह ७६ पृष्ठीय पुस्तक सन् १९६४ में प्रकाशित हुई । संसारके सभी धर्मों में भक्ति और उपासनाका बहुत महत्व है पर उसका रूप बिगड़ जाने के कारण ही लोगोंमें घृणा और उपेझाकी भावना
आ गई है। बिना इस रूपको भली भांति समझे हुये लोगोंका ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं हो सके। श्री चैनसुखदास जैन आचार्य संस्कृत जैन कालेज जयपुर ( राजस्थान ) ने इम पुस्तकके सम्बन्ध में कहा है-"भक्ति और उपासना पक सुन्दर आख्यान है.........इस पुस्तकका विवेचन मनोवैज्ञानिक है।"
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