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(९२) इस तरह नाटकीय ढंगसे लिखा गया है। राकेश आजकी सभ्यताके चकाचौंधसे प्रभावित युवक है उसकी जीवन साची श्रद्धा विवेकशील नारी है। दोनोंके विचारोंमें भिन्नता है फिर भी सुखी दाम्पत्य जीवनका आनन्द ले रहे हैं। साकार उपासनाका महत्व, मूर्ति स्थापनाकी आवश्यकता, सच्चे ज्ञान और श्रद्धाको महत्ता, अपूर्व आदर्श और भक्तिके विभिन्न चमत्कारोंका वर्णन किया है। राकेश अपनी पत्नीसे बड़ी अजीब अविश्वाससे भरी हुई शंकास्पद बातें पूछता है और पत्नी उसका बड़े प्रेमसे
और सहृदयतासे उत्तर देती है। झुंझलाहट तो नाम मात्रको भी दिखाई नहीं पड़ती, उपहास करनेपर भी चेहरा बिलकुल भी खिन्न नहीं होता।
प्रश्नोत्तर ढंगसे समझाने की प्रणालीके कारण पुस्तकमें चार चाँद लग गये हैं। पत्थरकी मूर्तिको देखकर राकेश अपनी पत्नीको मजाक उड़ाता है उस समयकी स्थिति संक्षिप्त में देखिये
राकेश-छिः पत्थरको भगवान कहती हो।
श्रद्धा-पत्थरको भगवान नहीं कहती। निस्सन्देह पत्थर भगवान नहीं होते।
राकेश-तो फिर ?
श्रद्धा-तो फिर क्या ? सच्ची श्रद्धा, सच्चे ज्ञान और सच्चे कर्मसे पत्थर भी भगवान हो जाते हैं।
चापकी आवश्यकता, शिक्षाके प्रमुख दोष, समयका दुरुपयोग, और कालेज जीवनके खिलवाड़ोंकी ओग्से सचेत करते हुये, आदर्श बनने, धार्मिक श्रद्धाको जनता तक रखने, आध्यात्मिक विकामकी रूपरेखा, और प्रभुनामके अपार बलको समझाया है। सबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि जब कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति श्रद्धालु उपासक बन जाता है तो उसके मित्र उसका खूब उपहास करते हैं। पर आगे चलकर एक बात वह भी दिखाई पडतो है
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