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पढ़ाते रहे। यही स्थान आगे चलकर सुसंस्कारित तीर्थ के रूप में हमारे सामने आये। ऐसी बात नहीं कि समाजकी श्रद्धा इन तीर्थोके प्रति न हो, अवश्य है और इसीलिये तन, मन, धन सभी कुछ निछावर भी किया । पर उतनी महिमा, वास्तविकता, तथा पूर्ण स्थितिको सर्व साधारण के समक्ष रखनेका प्रयास नहीं किया । यह धर्मकी बहुत बडो कमी रहती है। इसीलिये लोगों में अन्ध विश्वास बढ़ता है । यह कमी बहुत ही खटकनेवाली थी जिसकी पूर्ति बाबूजीने 'गिरिनार - गौरव' feast की ।
गिरिनारका वर्णन इतिहास, शिलालेख, जैन साहित्य, व वैदिक साहित्य के अंचल से लिखा गया है। तीर्थको वर्तमान स्थिति, उसके जीर्णोद्धार में विभिन्न दान दातारोंका सहयोग और वेदी प्रतिस्थापनाका वर्णन भी किया है। भगवान नेमिनाथ के गिरिनार में मुनि होने और भगवन् समन्तभद्र स्वामी द्वारा गिरिनार पहुंचनेपर आत्माहादसे विभोर होने का उल्लेख भी मिलता है।
केवल तीर्थ स्थढोकी महिमागे उलझ गये हो ऐसा नहीं है. इसी पुस्तक में जैनधर्मकी प्राचीन मौलिक मान्यताओं, प्रारम्भिक स्थितिका वैज्ञानिक वर्णन, २४ तीर्थंकरों, प्राचीन जैनधर्म में दिगम्बरत्वका विशेष महत्व, और धर्म की प्राचीनता पर भी प्रकाश डाला है ताकि तीर्थ महिमा के साथ२ अन्य बातोंकी भी जानकारी मिल सके ।
भगवान महावीर और अन्य तीर्थंकर
बड़े आकारकी १४ पृष्ठीय पुस्तक सन् १९५६ में प्रकाशित हुई। इसमें यह बताया गया है कि जैनधर्म भगवान महावीर से प्राचीन है, तीर्थकर की विशेषताएं आदि कालीन धर्मके सिद्धांतों तथा भगवान महावीरके अतिरिक्त अन्य वीर्थंकरोंके कार्यों, उपदेशों, " तथा विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर
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