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एक स्थल पर बाबूजी ने लिखा है " बुद्ध स्वयं और अपने अनुयायियों को प्राणी हत्या से दूर रहनेके लिये जैनोंके समान ही सुबिधान रखते थे, किन्तु जब कोई गृहस्थ उनको बह मांस देता था जो उनके उद्देश्यसे नहीं मारे गये पशुकी हत्या से प्राप्त हुआ है, तो वह ले लेते थे...... जैन धर्म में ऐसा कोई संदिग्ध स्थल नहीं है - उनमें मांस भोजनका सर्वथा निषेध है ।"
दूसरे स्थल पर भी भगवान महावीरकी शिक्षा लौकिक और पारलौकिक जीवनको सुधारने वाली बताई है- “बुद्धदेवने लोक और परलोककी ओर ध्यान नहीं दिया। उन्होनें संसारके दुखों और उनसे मुक्त होनेके लिये इस जीवनको संयमित बनाने पर जोर दिया । यह जीवन सुधार लिया तो भविष्य भी सुधर जायेगा | ... महावीरने जीवन विज्ञानका निरूपण किया - मानवको इस जीवन और भावी जीवनका वैज्ञानिक बोध उन्होने कराया। इससे मानव के मन और बुद्धि दोनों को संतोष हुआ और वह इस जीवन के साथ ही भावी जीवनको भी सफल बनाने में समर्थ
हुआ ।” इसी स्मृति ग्रंथ में एक अन्य लेख बाबूजी का भगवान महावीर और महात्मा गांधी " है । इसके पढ़ने से यह मालूम पड़ता था कि महात्मा गांधीका जीवन जैन धर्म और महावीर की शिक्षाओंसे पूरी तरह प्रभावित था। क्योंकि बापू जानते थे कि अहिंसा के सिद्धांत को विश्व में सबसे अधिक विकसित करनेवाले महावीर हो थे । और इसी अहिंसा के गांधीजी पुजारी थे । बिलायत जाते समय गांधीजीको माताने जिन तीन प्रतिज्ञाओंको करवाया था, वे एक बेचरजो जैन साधुके परामशंसे ही हुई थीं । बापूके जीवन में श्रीमद् राजचन्द्रभाई के साहित्यने-बाणीने तथा पत्रोंने बड़ी सान्त्वना दी। भगवान महावीरकी शिक्षाका पूरा परिचय उन्हें श्री राजचन्द्रसे ही हुआ। जिस प्रकार भगवान महावीरने अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म माना और अपने जीवन तथा
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