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ईमानदारी, प्रेम, प्रसन्नता, सेवा तथा श्रमकी साक्षात् प्रतिमा श्री रामसनेही थे, जो मिशन, प्रेस, मन्दिर, पुस्तकालय तथा बाबूजी के घर में इस तरहसे कार्य करते थे मानों उनका दूसरा art हो । एक पिता अपने पुत्रपर जितना विश्वास करता है, जितना प्रेम करता है और रखता है जितनी सद्भावना ठोक उतना ही सहज स्नेह रामसनेहीको प्राप्त था ।
कम पढ़े-लिखें होने पर पत्रिकाओंसे सम्बन्धित पर्याप्त कार्य वे किया करते थे जैसा उनका नाम था वैसा ही स्नेह भी । ४-६ दिन उबरसे पीड़ित रहने के बाद ही वे परलोक गामी हुये । श्री रामसनेही की मृत्युने बाबूजीकी कमर ही तोड़ दी हो ऐसा लगता है ।
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बाबूजीका स्वास्थ्य गिरता ही चला गया, पर अपनी पीड़ा वे किसीको बताते ही नहीं थे। वैसे उन दिनों उनकी पुत्री तथा अन्य संबंधी भी आ गये थे । रात-रात भर नींद न आती तो उनके प्रिय पुत्र वीरेन्द्र पास बैठकर धर्म और दर्शन पर घण्टों बातचीत किया करते जिससे उन्हें काफी शांति मिलती और कभी कभी तो प्रातः ८-९ बजे सोकर उठते थे. शौच जाना, खाना, स्नान करना, दैनिक उपासना आदि कार्य तो रोज करते ही रहते थे ।
अस्वस्थता के दिनों में कई कई घण्टे स्वाध्याय भी करते । स्थानीय चिकित्सकों की चिकित्सा भी चलती रही, जो दवायें पहले रक्तस्राव रोकने के लिये रामबाण सिद्ध हुई थी उनने भी बिल्कुल कार्य न किया । पं० रूपचन्द्र गार्गीयजीने दवा बाहरसे भेजी इसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ । अतः यही निश्चित किया गया कि कहीं बाहर इलाज कराया जावे । अलीगंज में कोई भी कार नहीं है
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