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साहित्य सेवाके क्षेत्र में
बाबूजी की धार्मिक पुस्तकोंके स्वाध्यायकी रुचि वृद्धि करने का श्रेय स्वर्गीय श्री देवेन्द्रप्रसादजोको है जिन्होंने अपने यहांसे प्रकाशित होनेवाली सारी पुस्तकें एकबार में ही भेज दीं। धीरे धीरे साहित्य के प्रति अभिरुचि बढ़ने लगी और धर्मके प्रति निष्ठा भी गतिशील हुई तो 'जैनमित्र' और ' दिगम्बर जैन ' पत्रों ग्राहक भी बन गये तथा इनमें लेख लिखकर भी भेजने ढगे । बाबूजीने स्वयं ही एकबार कहा था." जैनभित्र के सम्पादक श्री ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने उत्साह बद्धनार्थ किन्हीं किन्हीं को मित्रमें स्थान दिया । फलतः लिखना न छूटा, लिखता रहा तो लिखना आ गया । " नियमित अभ्यास करने से कठिन से कठिन कार्य भी सुलभ बन जाते हैं। और दैनिक लेखन कार्यसे बाबूजीका स्थान विश्वके उच्च कोटिके साहित्यकारोंके बीच स्वतः ही बन गया ।
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प्रसिद्ध साहित्यकार श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकरने बाबूजीके सम्बन्ध में ठीक ही कहा है- " जैन साहित्य उनका विषय है, जैन इतिहास उनकी विचारधारा है और उनका मिशन है समय के प्रभाव से जैन धर्मके दिव्य दिवाकर पर छाये हुये वादोंको हटाकर विश्वको उसके प्रकाशसे आलोकित करना ।
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बाबूजीका कृतित्व
बाबूजी ने अपने जीवन में लगभग १०० पुस्तकें हिन्दी न अंग्रेजी भाषा में इतिहास, धर्म, दर्शन एवं साहित्य पर लिखी हैं जिनका हम यहाँ विहंगावलोकन करेंगे ।
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