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(५३) अर्थात-हे वृषभदेव ! आप ब्रह्मा है, परम ज्योति स्वरूप हैं, समर्थ हैं, पाप रहित हैं, मुख्य देव अर्थात् प्रथम तीर्थकर हैं, देवोंके भी अधिदेव और महेश्वर हैं। __ ऋषभदेवकी प्राचीनता पर शङ्का की जा सकती है। पर भारतीय गुरु परम्परानुसार गुरु अपने शिष्यको मौखिक ज्ञान सदैव देता आया है। इस वैज्ञानिक शैलोको ही बाबूजीने प्रमाणिक माना है। वैदिक आर्योंसे भी पहले ऋषभदेवका जन्म हुआ था हिन्दू पुराणों, बौद्ध ग्रन्थों और पुरातत्व के आधार पर ऋषभदेवका बिस्तृत वर्णन किया गया है। यूनान, सायप्रस, अलासिया, सीरिया, मोबियेत, अरमेनिया आदि देशोंमें भी ऋषभदेवको सम्मान प्राप्त हुआ था। तीर्थकर का अर्थ और इस नामकरणके कारणोंको भी स्पष्ट किया गया है। तीर्थंकरों की मान्यताको प्राचीन सिद्ध करते हुये विभिन्न शंकाओंका समाधान किया गया है।
इस प्रकार महाभारत काल, द्राविण काल, जैन और बौद्ध काल, उत्तर जैन काल, और संक्रामक कालकी झाँकीका दिग्दर्शन कराया गया है। वाल्मीकि रामायणके आधारपर भगवान कृष्ण व लक्ष्मणको जैन व वैष्णव धर्मके आराध्य देव मानते हुये शिक्षाएं ग्रहण करने का भी अनुरोध किया है। राम और लक्ष्मणके बारेमें बाबूजीने लिखा भी है " गृष्मण दशामे ही भगवान रामबक्ष्मण और सीता एक आदर्श जैन चित्रित किये गये हैं। अपने अंतिम जीवनमें वह जैन जीवनके आदर्शके अनुरूप मुनिब्रत धारण कर के घोर तपश्चरण करते हैं-तीर्थंकरोंके समान ही बह भी ध्यानमें लीन होकर कर्मों को नष्ट करते और तुङ्गीगिरि पर्वतकी शिखिरसे सिद्धपदको पाते हैं। प्रत्येक जैन उनको सिद्ध परमात्मा मानकर पूजता है।"
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