________________
(११५)
कृपण जगावन चरित्र यह ६० पृष्ठीय पुस्तक बाबूजी द्वारा सम्पादित है जो सन् १९४८ में उनके पिताजीकी पुण्य स्मृतिमें प्रकाशित हुई। ऐसे तो यह पुरानो हस्तलिखित पुस्तक थी पर उसकी ऐतिहासिक भूमिका तथा टिप्पणी लिखने का श्रेय बाबूजी को ही है। बाबूजी सदैव यह चाहते थे कि पुराने जितने भी ग्रन्थ पुस्तकालयोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं उन्हें यदि समाजके समक्ष प्रकाशित कर रखा जा सके, तो संसार का बहुत बड़ा हित होगा और साथ ही महानात्माओं के ऋणस्ले थोड़े बहुत उऋग भी हो सकेंगे। ___ यह रचना मौलिकरूपसे कविवर ब्रह्मगुलालजी द्वारा लिखित है इसमें धानिकता और नेतिकताका शिक्षण है। लोमवृत्तिको भयंकर हानियां तथा दान के सरिणामों को बताया है। इस पुस्तकको एक प्रति दिल्ली में तथा दूसरी अलीग्रांज भिन्। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन कर मूल पाठ तैयार किया है। दोनों में जहां अन्तर प्राप्त हुआ वह फुटनोट देकर पाठकोंके समक्ष स्थिति स्पष्ट कर दी है। मूल पाठको समझने में सुविधा हो इस दृष्टिसे प्रारम्भमें राजगृह नगर में वसुपति राजाके राज्यमें रहनेवाले एक सेठ की कहानी संक्षिप्त में लिख दी है।
उस समय सामाजिक और धार्मिक स्थिति कैसी थी ? इसका स्पष्ट विवरण हमें मिलता है। साथ ही कवि ब्रह्मगुलाल का जीवन परिचय तथा साहित्यिक कृतियों के सम्बन्धमें भी उल्लेख किया गया है। साथ हो अपने पिताजीका भी संक्षिप्त जीवन पढ़नेको मिल जाता है । 'कृपण जगावन चरित्र' कविने श्लोक, दोहे और भाषा और चौपाईयोंमें रची है। इसकी भाषा पुरानी हिन्दी अथवा व्रज भाषा है। कवि अलीगढ़ (उ० प्र०) जिलेके रहनेबाले थे इसलिये आसपासकी भाषाका प्रभाव भी उनकी रचना पर पड़ा है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org