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________________ ( ३५ ) सत्य मान लेते हैं, विभिन्न मन्तव्यों तथा विभिन्न प्रमाणित ग्रन्थोंका अवलोकन किये बिना सच्चाईकी चुनौती भी देते हैं। शास्त्रीजी विरोधी ट्रेक्टको देखकर जो शब्द इस पुस्तकमें चाबूजीने लिखे हैं उससे उनकी निर्भीकता और निष्पक्षताकी सहज ही जांच हो जाती है " बड़े नामका काम, बड़ा होगा, यह अन्दाजा लगाना कुछ बेजा नहीं । हमने भी ऐसा ही अनुमान किया और बड़ी उत्सुकतासे इस पुस्तिकाको हमने पढ़ डाला ! लेकिन अफसोस, बड़ी दुकान पर फीका पक्कान पाया। सिवाय साम्प्रदायिक विष उगलने के इसमें कहीं भी सत्यको पा लेनेका प्रयत्न नहीं किया गया है। अपितु जैन मान्यताओं का मजाक उड़ाने के अतिरिक्त इसमें और कुछ है ही नहीं। इतने पर भी लेखक महोदयने अपनी इस कृतिको सत्यका दर्पण प्रकट करते हैं, यदि वस्तुत: यह ऐसा होता तो हमारे लिये बड़े हर्षका स्थान था, क्योंकि इससे भारतीय साहित्यका बड़ा हित सब जाता...... भला उनके इस एकपक्षी निर्णयको कौन बुद्धिमान निखिल सत्य स्वीकार कर लेगा ? " अयोध्याको इन्द्र द्वारा बसाने, ऋषभदेवका गर्भमें आना, जन्मकल्याणक, यौवनकाल, विवाह तथा तपश्चर्या, समवशरण, और निर्वाणसे सम्बन्धित जितनी आपत्तियां उठाई गई हैं उनका खोज और तर्कपूर्ण उत्तर दिया है। शास्त्रीजी को भी जैनियोंको उपदेश देनेकी जल्दबाजी न करने, जैन साहित्यका अध्ययन करके ही कलमको कष्ट देने, गल्ती सुधारने, और सरलहृदयी बनाने का सुझाव दिया है। बाबूजीने दावे के साथ यह सिद्ध किया है " हम दावे के साथ यह घोषित करते हैं कि भगवान ऋषभदेव एक वास्तविक महापुरुष थे और उनकी उत्पत्ति बिल्कुल संभव है । " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003978
Book TitleKamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnarayan Saxena
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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