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आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव
डॉ. कामताप्रसादजी जैन द्वारा रचित "आदि तीर्थंकर भ० ऋषभदेव” नामक पुस्तकका प्रथम संस्करण सन् १९५९में प्रकाशित हुआ। १७६ पृष्ठकी यह पुस्तक 'आदिनाथ' के जीवन का सांगोपांग वर्णन करती है। इसमें विभिन्न प्रकारका पुरातन साहित्य, शिलालेख, पुरातत्व विभागकी शोध, तथा जनश्रतियोंके आधार पर यह बतलाया गया है कि प्रथम तीर्थकरने अपने चरित्र, साधना तथा वाणीके प्रभावसे जन मानसको किस तरह झाकझोर दिया।
श्री कृष्णदत्तजी बाजपेथी एम. ए., अध्यक्ष प्राचीन इतिहास और पुरातत्व विभाग, सागर विश्वविद्यालयके शब्दोंमें "भगवान ऋषभदेवके बहुमुखो जीवनके सम्बन्ध में यह ग्रन्थ निःसन्देह एक नबीन व्यवस्थित प्रयास है।"
आदिकालमें मानवताकी झांकी, भगवानका अवतरण, तीर्थंकर बननेको ओर प्रयास, प्रारम्भिक जीवन, समाज कल्याणकी इच्छा, गृह त्यागकर तपस्याका जीवन और जन सुधार जैसे अनेक पहलुओंका विस्तृत रूपसे विवेचन किया है।
ऋषभदेव जैनधर्मके अधिष्ठाता रहे हैं ऐसी बात नहीं है, हिन्दु धर्मके प्रमुख ग्रन्थोंके आधार पर वैदिक मान्यताएं मी बनाई हैं। ऋगवेद मंडल ३ के मंत्रों द्वारा वृषभको आदि तीर्थयर सिद्ध किया है । पौराणिककालमें ऋषभदेवको ८ वां अवतार माना गया। उन्होंने लिखा है "भगवान ऋषभ अथवा वृषभ उस प्रागेतिहासिक कालीन अखण्ड भारतके महापुरुष हैं जिसमें श्रमण और ब्राह्मणोंमें कोई भेद न था । यही कारण है कि ऋषभ श्रमणोंके मादि पुरुष हैं। और वैदिक भायोंके ८ वें अवतार"
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