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(८२) तो सही "मानव सन्ततिको बढ़ानेके लिये और परस्पर में संगठित समाज-सहयोगकी सिद्धि के लिये विवाह एक परम धर्म है। नर और नारीको गृहस्थ धमरूपी रथके दो पहिये बनकर अपनेको मिटा देना होगा। विवाह मानव को भोगसे ऊपर उठाकर त्याग धर्मका पाठ पढ़ाता है । एक दूसरेको सुख दुःखको अपना मानना और सेवा करने में आनन्द लूटना नवदम्पतिका जीवन ध्येय होता है।"
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