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________________ ( ६२ ) लित हो जाने से वह मिलता है। वस्तुतः स्वाबलम्बी बनकर - महावीर के समान जब साधना की जाती है तब सफलता के दर्शन होते हैं। तब मानव हृदय कषाय- कलुषतासे विमुक्त सुन्दर शुभ्र शुकु पक्ष के सदृश मोहक बन जाता है, वह सारी परता और -वत्ता भुला देता है । तीर्थंकर किसे कहते हैं ?, तत्कालीन परिस्थितियां, युवावस्था और गृहस्थ जीवन, वैराग्यकी भावना, योग साधना के लिये पर्यटन, धर्म प्रचार और भगवान के मोक्षलाभ जैसे अनेक उपयोगी स्थलों का सांगोपांग वर्णन किया है। उनके निर्मल चरित्रको झांकी तो प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित है ही, इसके अतिरिक्त जैन और बौद्ध धर्मके अन्तरको स्पष्ट किया है। बहुत से लोग जैन धर्मको ही बौद्ध धर्म समझते रहते या उसकी शाखा जाननेका जो भ्रम करते हैं उसका निवारण भी किया गया है । पर दोनों धर्मोंके सिद्धांतों में समता होते हुये भी क्रियात्मक जीवन में अंतर स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने लिखा है " आज चीनी और जापानी बौद्ध होते हुये भी आमिषभोजी हैं, परन्तु संसार में कोई भी जंनी आमिषभोजी नहीं मिलेगा-जैन पूर्ण शाकाहारी हैं। इसीसे जैन और बौद्ध मतोंका मतभेद स्पष्ट हो जाता है । - यथार्थतः जैन और बौद्ध दो पृथक और स्वतंत्र मत थे । बौद्ध धर्मकी स्थापना शाक्यपुत्र गौतमने की, परन्तु जैन धर्म तो उससे बहुत पहले से प्रचलित था । अतः दोनों मत एक नहीं हो सकते न वह एक थे और न अब हैं " अनेक लोग यह समझते हैं कि जैनधर्मके प्रवर्तक भगवान - महावीर ही थे, इससे पूर्व जैनधर्मका प्रचार व प्रसार न हुआ था, इस शंकाका हल भी लेखकने बड़े अच्छे ढंग से किया है। भ० महा-चीरने तो धर्मका प्रचार व उद्धार पुनः किया था, सर्वप्रथम प्रचारका श्रेय तो ऋषभदेवको ही प्राप्त है, वही जैनधर्मके आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003978
Book TitleKamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnarayan Saxena
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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