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तैयार किया । सन् १९४४ के प्रोष्मकार में श्री भारतीय विद्याभवन बम्बई द्वारा " सांस्कृतिक- निबन्ध प्रतियोगिता " की सूचना मिली ।
यद्यपि प्रतियोगिताका समय केवल चार माह ही शेष रह गया था फिर भी रात और दिन एक करके यह इतिहास तैयार कर लिया गया जिसमें २५० पृष्ठ हैं । यह पुस्तक निबन्ध परीक्षकों द्वारा केवल मान्य ही नहीं हुई वरन् रजतपदकका पुरस्कार भी दिया गया। बादको प्रकाशित हुई और अ० भा० दि० जैन परिषद परीक्षाबोर्ड, दिल्लीके पाठ्यक्रम में निर्धारित की गई।
विक्रम संवत ७०० से लेखर १९०७ तकका संक्षिप्त जैन साहित्यका इतिहास देखनेको मिलता है। साहित्य श्रवज्ञानका दूसरा नाम बताया है क्योंकि मनुष्योंने जो ज्ञानार्जन किया, मनन किया, तथा मंथन किया है वह एक प्रकारका साहित्य दी है । प्रारम्भ से ही हमें साहित्यिक, परिमार्जित, मातृभाषा हिन्दी के दर्शन होते हैं " साहित्य सुन्दर सुखकर साकार ज्ञान है, इसीलिए साहित्य जीवन साफल्यका साधन है । उसमें मानव अनुभूतिके चमत्कृत संस्मरण सुरक्षित हैं, और जीवन-जागृतिकी ज्योति जाज्वल्यमान है । साहित्य मानबको सर्वतोभद्र, सर्वांगपूर्ण और सुखी स्वाधीन बनानेके लिये मुख्य साधन है । वह मुक्तिका सोपान है । "
ऊपरकी थोड़ोसी पंक्तियोंमें किस अलंकारिक भाषाका प्रयोग किया गया है यह स्पष्ट ही है। 'स' कार 'ज' कारकी तो झड़ो मन्त्र मुग्ध कर देती है। विभिन्न जैन आचार्यों और विद्वानोंने जैन साहित्यकी जो सेवा की उसे हो इतिहास के रूपमें जाना जाता है। वैसे तो संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत, गुजराती, कनड़ी, तामिळ आदि अनेक भाषाओंमें साहित्यकी रचना हुई, पर इस पुस्तक में हिन्दी जैन साहित्यके ऐतिहासिक वर्णनको ही प्रधानता
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