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(२०) दान धर्मके प्रति निष्ठा 'योग्य पिताजीकी योग्य सन्तान' बाली लोकोक्ति हमने बहुत सुनी है, पर उसके दर्शन हमें बाबूजी में मिलता है। बाबूजीके पिता, पितामह आदि सभी दान धर्मकी निष्ठाको भली भांति जानते थे। निर्धनों की सेवा करना उन्होंने खूब सीखा था। डॉ० साहबके पिता सन् १९४८ में जब अस्वस्थ होगये तो, उन्होंने अपने पितासे कुछ दान पुण्य करने के लिये निवेदन किया । बह तो पहलेसे ही तेयार थे, अत: १००१) की व्यवस्था उन्होंने कर दी। वैसे वाबूजीकी माताके व्रतोद्यापन प्रसंगमें पिताजीने एक वेदी लगवाकर वेदी प्रतिष्ठोत्सव करवाया था। अतः उस १००१) की दानकी धनराशिको मन्दिर या वेदीप्रतिष्ठामें लगाना उचित नहीं समझा।
जब देशमें इजारों की संख्यामें मन्दिर हों, लोग धर्मकी ओरसे विमुख हो रहे हों, चारों ओर पाप कर्म बढ़ रहे हों, अज्ञानांधकार छा रहा हो और वर्तमान मन्दिरोंकी रक्षाका प्रश्न मुह बायें सामने खड़ा हों, उस समय बाबूजीने यह सर्वश्रेष्ठ कार्य समझा कि जिन व्यक्तियों को धर्मके रुचि कम हैं, भौतिकवादकी मोर दौड़ते जा रहे हैं, अज्ञान और अविवेकी हैं, ऐसे लोगों में ज्ञानकी ज्योति जलाना उन्होंने पवित्र कर्तव्य समझकर उस पैसेको निर्धन व्यक्तियों तथा साहित्य प्रचार में लगाया !
उस समय शरणार्थियों की समस्या अपने देशमें बहुत बड़ी थी, अत: 'शरणार्थी फण्ड' में २२१), गांधी स्मारक निधि १११) तथा १०१) कुन्थुनागर ग्रन्थमालाको प्रदान किये। १०१) उन मन्दिगेको दे दिया जिनकी स्थिति अच्छी नहीं थी। शेष लगभग पौने पांचसौ रु० ट्रेक्ट छपवाकर देश, विदेशमें वितरित करवाने के लिये सुरक्षित रखा।
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