SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७३) दिव्य-दर्शन सन् १९५३ में लिखित बाबूजी द्वारा 'दिव्य दर्शन' नामक पुस्तक ट्रेक्टके रूपमें वीर निर्वाणोत्सव एकांकी है। जिसमें यद्यपि १२ पृष्ठ ही हैं फिर भी कथोपकथन, चयन तथा विभिन्न कवि. ताओंको सम्मिलित करने में इन्हें पूर्ण सफलता मिली है। दीवाली त्यौहारको सार्थकता तथा उसके महत्वको बड़े ही शिक्षाप्रद ढंगसे लिखा गया है। सूत्रधार तथा उसकी पत्नीके बार्तालापके बाद श्री सुधेशजीको एक कविताका पाठ किया जाता है। भगवान महावीरका तो पार्थिव शरीर ही शेष रह जाता है फिर भी लोग उनसे नूतन उत्साह ग्रहण कर संमार में फैले अज्ञानान्धकारको दूर करने का प्रयास करते हैं। दीपोत्सव मनाकर जनताके सम्मुख प्रकाशका आदश वखा जाता है। इसी प्रकाशसे ज्ञानरूपी साक्षसका अन्त करके ज्ञानरूपी लक्ष्मी को आत्मसात कानेकी सबको प्रेरणा दी जाती है। उत्सव मनाने के बाद अनेक लोटा रनके जीवनसे शिक्षा ग्रहण करते हैं। एक राहगीर मद्यपान न करने, मांस, मछली और अण्डा न खाने, सबसे प्रेम करने, सन्तोष और मत्थताको अपनाने, इच्छाओंको सीमित खने, अनाजकी खत्तियां न भरने, पशुपक्षियों की रक्षा करते हुवे चमडेकी वस्तुओंको त्यागने और दिनमें ही स्वच्छ जल तथा पवित्र भोजन करने की प्रेरणा लेता है और ऐसे अच्छे संकल्पोंको जीवनभर निभाने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध होता है। अन्तमें विश्वप्रेम फैलाने की कविताका सामूहिक गाना होता है और पटाक्षेप हो जाता है। बीजिए उस कविताका एक पद बाप भी देखिये विश्वप्रेमका दीप जलाएं। निर्वाणोत्सब दिव्य दिवालीका शुभ पर्व मनाएं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003978
Book TitleKamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnarayan Saxena
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy