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________________ ( ११२ ) प्रेरित करती है : Miss Elisabeth Praser ने अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं: “The object of the book has been achilved and it is open to all to see that once Jainism was a real force and power in India.” । पुस्तका उद्देश्य प्राप्त हो चुका है और यह सभी लोगोंके देखनेके लिए खुला है कि एक समय जैनधर्मकी प्रबल शक्ति और प्रवाह भारत में मौजूद थे] The Religion of Tirthankaras. रह अंग्रेजी भाषा का ५१४ पृष्ठमा विशाल प्रन्ट १९६४ में प्रकाशित हुआ: इख अन्धके प्राधा पद समूचे जैनधर्मश मूल्यांकन किया जा सकता है। जीजन का आदर्श, धमकी व्याख्या, धर्म जीवन का आधार स्तम्भ, जैन सिद्धांत, जैनधर्मको स्वतंत्रता, जैन और बुद्ध धर्माशी तुलना, व्यक्ति की महाना, खमयका चक्र, स्थाहिंसा संस्कृति और कम भूमिका पारा, तीर्थ कर का अर्थ, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, भरत और बाहुबलि, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, सावान महाबोर बर्द्धमान, भाजाद महावीर के बाद जैन धर्म की स्थिति, शिशुनाग और जैन धर्म, मौर्य, कलिंग व अन्य राजा, मध्यदेश, आन्ध्र और मालवामें जैन धर्मको स्थिति, दक्षिण भारतमें जैनधर्म, धमका विज्ञान-जैनधर्म, अनेकांत सिद्धान्त, शरीर और यात्माका सबन्ध, मनुष्य और ईश्वर. प्रकृति के सार्वभौतिक सिद्धान्त, कर्म सिद्धान्त, जैन संस्कृतिका विश्लेषण, राष्ट्रीय कल्याण और आंतर्राष्ट्रिय शांतिकी स्थापना, प्रतिक्रमण, जैनधर्म में मोक्षका महत्व, जैनके मुख्य विभिन्न तीर्थस्थान, विभिन्न पर्व और और जैनधर्मका प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, तामिल, कन्नड़, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003978
Book TitleKamtaprasad Jain Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivnarayan Saxena
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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