Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 01
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - maeam -4 . HARIBHASIRLUENTRAPATRAMINATANEvespowerHETARINANIMHARATIEN... a WAVE RA - Me " - .6 नाग पहेलो आ पुस्तकमा सिंदूरकर भल, टीका, भाषा, बालायबोध अने कथाओ महित नया श्री मन्हेमचंद्राचार्यकृत श्रीवीनरागम्तव संक्षप सथ मदिन - - अनं श्रोतमपच्छा पद लायाध नातिक - - तेने श्रांवक, नीमसिंह माणके श्रीमुंबापुरीमध्ये निम!! सपना नामाची प्रसिद्ध कर छे. MIRE DD सरकारना सन १८६७ ना २५ मा आक्टमा छापवानी सर्व हक नांधाव्यो छे. Mummam - - Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8.४ जनस्वारनकोष प्रस्तावना. श्रीजैनकथा रत्नकोष नामना पुस्तकना पत्नर नाग मांहेलो था प्रथ म नाग बबई बाहेर पड्यो , तेमां प्रथम बाल जीवोने नीति तथा वैरा ग्यादि सन्मार्गोनो बोध थवा माटे सिंदूरप्रकर नामा ग्रंथ मूल तथा तेनी टीका, नाषा, बालावबोध अने कथा सहित दाखल करेलो . या ग्रंथ मां नीति वगैरे विषयोनुं एकी रीतें यथातथ्य निरूपण करेलु , के वांच नारा साहेबोने हाबेहूब ते वात तैवाज स्वरूपें परिणम्याविना रहेज नहि. वली एवी रीतें ए.ग्रंथ मांहेला विषयो हृदयमा प्रवेश थया पली वांच नार जनोमां तेवी रीतनी प्रकृति पण अवश्य थवी, जोश्ये, के जेथी ते वांचनारा श्रीवीतराग परमात्मानी नक्ति करवाने योग्य याय, माटे ते पड़ी तुरत बीजो ग्रंथ श्रीमन्महापंमित श्रीहेमाचार्यजी विरचित श्रीवीतरागस्त व अर्थ सहित या ग्रंथमा दाखल करेलो . या ग्रंथ वांच्या नण्या पडी. संसारमा प्राणी. मात्रने सुख उखनी प्रातिना हेतुनूत एवां जे गुनागुन कर्म ले तेनुं स्वरूप जाणीने तेथी विरक्त थवानो उद्यम करवी जोश्य. ते. समजवा माटे श्रीगौतमप्टन्डा नामा ग्रंथने मूल, बालावबोध समर कथा सहित था जागमां बाप्यो . या ग्रंथमां श्रीगौतमस्वामी जीवने सुख उखनी प्राप्तिनां जूदांजूदां घडतालीश प्रश्न पूजवाथी श्रीमहावीर स्वामीयें शुनाशुन कर्मोनां फल दृष्टांतिक कथा सहिंत. कही देखाज्यां . जे वां चवाथी वांचनारा साहेबो संसारथ जय पामता थका मनुष्यनव पामीने धर्म मार्गमा प्रवर्तवाने उजमाल थानअने ते पड़ी वली संसारना विक टपणानी दर्शावनारी एवी एक न्हानी हरियाली अर्थ सहित नापी ले.ते Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. प्रस्तावना: पण तेज विषयने पुष्ट करनारी : एवी रीतें न्हामी महोटा चार ग्रंथे क रीने या प्रथम नाग समाप्त कस्यो . या जांग वांचनाराउने अवश्य गु ए करनारोज थाशे एवी ममे श्राशा . जेम आ प्रथम नाग संपूर्ण उपाए तैयार थयो ने तेम बीजो जाग त था त्रीजो नाग पण संपूर्ण नपाइ तैयार थईगयेलो.जे. अने चोथो नाग पण अडधो बडध पाई गयेलो ले तोमण जी श्री ग्रंथना पूर्वं श्रयेला ग्राहकोनां नाम में दाखल करेला नवी तेनुं कारण ए जे. प्रथमतो था ज दिवसपर्यंत मात्र या संथने आश्रय देनारा सजननी १७५ ने बाशरे सहीयो यावी , तेमां घणी खरी सहीयो तो बाहिर देशावरथीज श्रावे ली, पण महोटा व्यवान धनाढयो तरफथी जे महोटी मदत मलवा नीयाशा , तेवा साहेबोनी पासे माराथी हजी जश्-शकायं.नथी, तेथी हवे ढुंचार पाठ दीवस मदारूं लखकानुं तथा बापवानुं काम बंध राखी ने तेमनीपासें जा विनंती करीने संख्याबंद पुस्तकोनी मदत लश्ने पनी या पुस्तकना चोथां अथवा पांचमा नागमा समस्त नदारता दर्शावनारा महान् जनोनां नाम दाखल करी महारा मनने आनंद पमाडीश. उपर लख्या प्रमाणे महोटी धनाढयो पासे सहीयो.लेवा जवान हाल मोकुफ राखी कदाचित :पोणाबशने पुस्तकोना आश्रय बापनारा देशावर वाला साहेबोनांज नार्म यात्रण जागा दाखल करूं तो कदाच को अज्ञ जनना मनमां एवीज शंका उत्पन्न थाय के जैन दर्शनमां पुस्तको ना वांचनारा तथा आवा पुस्तकोने नापी प्रसिद्ध करनारने.याश्रय थाप नारा अने शास्त्रना रहस्य समजनारा परीक्षक. लोकोनी घणीज न्यूनता . बे, एवी लघुता थवाना जयथी धाश्रय पापनारा स्वल्प संख्यावाला सा हेबोनां नाग या पुस्तकमां दाखल करवानी मारी हिम्मत 'चाली नहि. वली था जैनकथा रत्नकोष नामें पुस्तकना बागलथी ग्राहक थयेला त था थनारा साहेबीने विनंति करवामां आवे जे के या पुस्तकना अगाउ थी ग्राहक थनारा साहेबोनी सहित लेवाना लिष्टमां एम लरव्यु ले के था ग्रंथना ब नाग करवा तेमां सवालद लोक संख्यानो समावेश करवो अ ने जो या ग्रंथना बे हजार पुस्तकनां बागलथी ग्राहक थाय तो वली एक वीश हजार श्लोक संख्यानो एकं सांतमो नाग पण गपीने अगारथी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना.. ग्राहक थनारा साहेबोने एकेक नाग बदीस दाखलं श्रापवो, एवी रीते प्र सिबता करी डे परंतु यांज दिवस सुंधी सुमारे पोणाबसो पुस्तकोना या हक थया ,अने हजी महोटा महोटा इव्यवान श्रीमंत श्रांवको पासेंथी सहीयो डावी नथी तेथी ते साहेबो पासें जती जे सहि मलशे ते ए कती करतां पण एकहजार पुस्तकना ग्राहक थायं एवीयांशा राखी शकाती नथी तो वली. 'बे हजार पुस्तकना ग्राहक. थधानी, वात तो स्वप्नांतरमा पण केम रवाय' यावा कारणथी प्रथम पायेला लीष्टमां लखवा प्रमा णे सातमो नाग बदीस.आपवाथी हुँ मोकलो व शकुं बु. तथापि ते वात उपर लद न आपतां मात्र महारी श्रीजिनधर्म संबं धि पुस्तकोनो उदार थवानी अनिलाषा पूर्ण अवामाटे ए पुस्तकमां जो पण सहारीगरीब अवस्थाने लीधे मनें घणुंज संकट वेठवू पडशे ते संबं घि दरकार न करतां प्रथम.लखेला जाग मध्ये १२५००० श्लोक तथा बदीसना नागमाहेला २१००० श्लोक अने वली श्राइविधि ग्रंथ वधारे दाखल करघानो निरधार करो ,तेमज बीजा ग्रंथोमां पंण 'हाथनी लखे ली प्रतो.कस्तां फरीथी ढुं ज्यारे बाजनी रुढी प्रमाणे वे.वात खूलासापू वक मंदारे दाथें जखं बं तेवारे पूर्वे लखेली संख्यामां वधारो थतो जाय ३. एवीरीतें वधवार्थी या पुस्तकमा लगंजग एक लाख ने सीतेर हजार श्लोक संख्याना ग्रंयोनो सम्प्रवेश करीने वेना. पूर्व लीष्टामां लखेला ड नाग तथा बदीशंनो एक नाग मली सात जागने बदले हवेथी जूदा जूदा पन्नर अथवा सोल नाग करवानो निर्धार कयो . ते मांहेलो आ प्रथम. नाग. उपाशबाहेर पड्यो , अने धारवा.प्रमाणे या चालु सालमा एटले १९४६ नी शालनी धास्वरं सुधी अथवां १ए४७ ना नवा वर्षनी सरुयात थता सुधीमा जोको विघ्न नहि पडशे तो लगनग बधा मली .नाग बग पीने बाहेर पाडीश एवी हुँ उमेद राखु बुं. ए पन्नरे नाग अथवा शोल.नागमा जे जे ग्रंथो यावशे ते, तथा ते सर्वे नागनी अनुक्रमणिका, प्रस्तावना, टाइटलपैज़ अादिक जे जे बाबतो यावशे ते सर्व बाबतोना मलीने जेवा या नाममा ३० टष्टनो हेलो यां क , तेना सुपररायल आठ प्रेजी ३॥ फरमा थया , तेवा अंढारे ना गमां श्रावसो फरमांना ६४०० पेचनी संख्यामां जेटला ग्रंथ श्रावशे तेट Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. क्षमापनाः ला ग्रंथ अवश्व बपाशे, म बात निःसंशय जाणवी, एवी कबुलात हुँ श्रा गलथी ग्राहकथनारा साहेबोने आपुवं, तेमांपणं महाराथी बनशे त्यांसुधी बे फारम वधारे बांपीश पण तेथी डां बापीश नही. माटे.सर्व सुज्ञ ज नोने विज्ञप्ति करुंडं के आवा वृत्तम कार्यमा जो प्रतिदिन मदद करशो तो हुँ निरंतर तेवा कार्यो करवामां नस्सुक रहीशः इत्यलम्. दमापना. वांचनारा साहेबाने धरज करुंबु के श्रीसिंदूरप्रकरनी कथावाली एकज प्रत महारी पासे हती, तेषण एटली अगुम अने यद्वातद्वा लखेली हती के तेनो खुलासो थाही जख्यो जाय नहीं पण हरहमेश जे साहेबो पासें हाथनां लखेला ग्रंथो वांचवामां आवे . ते साहेबो ते ग्रंथो विषे सारीपेठे जाणताज दशे. तेमज टीकावाली प्रत को कथा सहित न होवाथी क थानां लखाण पए यथातथ्य थयेलां न हतां. . तथा श्चीवीतरागस्तवनी अवचूररी उपरथी बालावबोध कत्रो थने ते ग्रंथ श्रीमत्हेमचंशचार्यविरचित कठणविश्यवालों दोवाथी संपूर्ण महोटी टीकाना अनावृथी खरेखरी नाषांतर थयेलो गणाय नही. वली श्रीगौतम टहा ग्रंथ महोटी कथाचालो मंहारीपामें मोजुद हतो परंतु तेनी कथा उ घणीखरी मागधी भाषामांज लखेली दोबाथी तेनुं नाषांतर संपूर्ण मा गधीनापाना जाणकार विना थq अशक्य जाणीने मात्र सारनूत न्हानी कथा वालो सुमारे बावीसो श्लोकनो ग्रंथज या पुस्तकमां दाखल कस्यो डे. ते ग्रंथनी प्रतो पण सर्व एकज पतिनी असलना लखासनी होवाथी शो धन करवामाटे निराधार थर्बु पड्युं तेथी मात्रं जाषामांज. सुथारो करीने सर्व ग्रंथो मप्या , तेमां जे कांइ महाराथी न्यूनाधिक वंचन सिद्धांत विरोध लखायुं होय ते संबंधि महारी नूलनुं सर्व वांचनार श्रीसंघनी सम द हूं मिबाउकड देवं. श्रावक. नीमसिंह माणक. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अस्व.पुस्तकस्यानुक्रमणिका. ---> SO तिहां प्रथम सिंदूरप्रकराज्यग्रंथची अनुक्रमणिका. क्रमांक. विषय.. पृष्ठांक. १ पहेलां श्लोकमा मंगलाचरण तथा सांचलनाराने घाशीर्वाद. १ २ बीजा काव्यमी सङनपुरुषोप्रत्ये. ग्रंथकर्तानी विज्ञप्ति. .... ३ ३ त्रीजा काव्यमा आगमांनुसारें जव्यजिवने हितोपदेश. .... । ४ धर्मने विषे प्रमाद न करवा आश्रयी ललितांग कुमरनी कथा. ५ चोथा काव्यमां मनुष्यनवनुं उर्लनपणुं वखाण्युं . .......... १६ ६ मनुष्यनचना. पुर्जनपणाविषे दश दृष्टांतनी दश कथा. .... १७ ७ पांचमा काव्यमां मनुष्यनवनो सर्वोत्कृष्ट. जय कंह्यो . .... ३१ ण्ड काव्यमांसंसारना विषयमाटेधर्मनो त्याग करनार मूढनुं लक्षण.३५ ए मूढ अमूढ उपर शशी अने सूर वे नाश्वनी कथा.. ... .... ३४ १० सातमा काव्यमां मनुष्यजन्मनुं तथा धर्मसामग्रीमुं. कुर्लनपएं. ११ श्रांउमा काव्यमा ए ग्रंथमां कहेला उपदेशनां हारो कह्यां . ३६ १२ नवमाथी बारमा श्लोकमां श्रीतीर्थकरनी लक्किनु वर्णन ..... ३७ १२ तेरमाथी शोलमा श्लोकोमा गुरुनी जुक्तिनु वर्णन . .... ५४ १४ कुबोधना विदलन करनार श्रीगुरु ले ते उपर सूर्यानदेवनी कथा. ४७ १५ गुरुसेवा. करनार उपर श्रीगौतमस्वामीनी कथा. .... .... १६ सत्तरमाथी वीशमा श्लोकोमा जिनमत तथा सिद्धांतमाहात्म्य. १७ सितश्रवण उपर सेहिणीया चोरनी कथा. .... ... .... १७ एकवीशथी चोवीशमा काव्य पर्यतसंघनो महिमा को बे. १ए श्रीसंघमहिमा उपर जरतचक्रवर्तीनी कथा. ...... .. .... २० पच्चीशथी अजवीशमा श्लोकमां हिंसानो निषेध कह्यो बे..... २१ जीवदयानी उपर दामनकनी कथा कही . .... .... २२ गणत्रीशथी बत्रीशमा श्लोकोमा सामु. बोलवानो प्रनाव..... २३ सत्यवचन उपर वसुराजानी कथा कही . ... .... .... २४ तेत्रीशथी बत्रीशमा श्लोकमां अदत्तादानव्रत स्वरूप ने. .... ७५ . U ७० G ३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम लिका २. २५ प्रदत्तव्रत उपर नांगदत्तनी कथा. ८ ‍ १ • १६ साडत्रीशथी 'चालीशमा श्लोकीमां ब्रह्मचर्यनुं स्वरूप. २७ एकतालीशथी चुम्मालीशमा लोकपर्यंत परिग्रहना दोष कह्या बे. ए६ २० परिग्रह विषे मम्मोवनी, कथा..... १७ पीस्तालीशथी उगएणपञ्चाशमा काव्यमां कोनो . जय कह्यो बे. १०२ ३० क्रोध त्यागनी उपर गजसु कुमारंनी. कां.' ३१ गणपञ्चाथ त्रेपनमां काव्योमा मानना दोष कह्या डे. .... १०० ३२ मानना त्याग उपर नंदीषेानी कथा. १०७ '''' ११२ .... .... ..... .......... १२१ ३३ त्रेपनथी उपन्नमा काव्योमां मायानो त्याग कह्यो बे...... ३४ सत्तावन्नथी शावमा काव्यसुधी लोननो त्याग कह्यो बे. ... ३५ लोचनी उपर सागरशेठनी कथा कही बे. ३६ एकरातथी चोशर्तमा काव्योमां सौजन्यता राखवानो उपदेश बे. १२३ ३७ सौजन्य डंपर विक्रमराजानी कथा कही बे. ३० पांसवयी डशमा काव्योमां गुणीजनता संगनुं वर्णन .....१३१ ३० सारा नरसानी' संगतं उपर बे पोफ्टनी कथा..... ४० उगलोतेरथी बहोंतेरमा काव्यसुधी इंडियजयनी उपदेश. १५७ .... ४१ इंडियदमन पर मात्यकीनी कथा. ४२ होंतेरथी होंतेरमा काव्यसुधी लक्ष्मीनो स्वभाव कह्यो बे...... ४३ लक्ष्मीनी चंचलता विषे सुंदरराजानी कथा. ४४ सत्त्योतेरथी एंशीमा कांव्योमां दानंनो उपदेश बे. ४५ दान पूजा विषे अमरसेन वीरसेननी कथा. ४६ एकाशीथी चोराशीमा काव्योमां तपमो उपदेश बे. ४७ तप लषर वसुदेवना जीव नंदीषेानी कथा. ४० पञ्चाशीमाथी हाशीमां काव्योमां शुननावनो उपदेश बे. ४९ नेष्याशी थी बांस्मा काव्यीमां वैराग्य दर्शाव्यो बे....... ५० वैराग्यनी उपर सनत्कुमारनी कथा कही बे. .... .... ...f ५१ त्राणुथी अणुमा काव्यसुधी सामांन्य उपदेश को बे. ५२ नवीमा काव्यमां ग्रंथनुं समर्थन करयुं बे. ५३ सोमा काव्यमा प्रशस्ति करीने ग्रंथ समाप्त करयो बे..... .... .... .... .... ܐ ܘ ܐ ११३ ११६ १३६ १३७ १४१ १४४ १४ १४७ १५४ ԱԵ १६३ १६३ १६८ १७५ १७७ १८२ १८३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अनुक्रमणिका. श्रीदेमचं प्राचार्यकृत श्रीवीतराग स्तवनी अनुक्रमणिका. • क्रमांक. प्रकाशनाम. काव्य ४० क्रमांक.. प्रकाशनांम. काव्य पृष्ठांक. १८०५. ११० महिमा स्तव. ८ २०५ १८६ १२ वैरास्य स्तव. १५ १८० १३ हेतु निरास. १४१९०० १४ योगंस्तव: ८ २०७ ८ २०८ ८ २१० • ५ प्रातिहार्यातिशय.... . १३१५ नक्तिस्तव. ए २११ ६ प्रतिपनिरास. ए २१३ ७ जगत्कर्तृ निरास. ८ २१५ १० ११६ ८ २१८ २१ १ प्रस्तावना...... २ सहजातिशय, ३ कर्मातिशय. ४ सुरकृतातिशय. .... .... · .... १२ १००५ १६ आत्मगर्दास्तव. ८ १०७ १७ शरषुगमन. ८ एकांतवादनिरास १२ १०० १८ कठोरोक्तिस्तव. ८ २०२ १९ खाज्ञास्तव. कलिकास्तव. • अद्भुत स्तंव. • ८. २०४ २० वीतराग स्तव. .... ..... .... .... ..... .... .... **** そ • गौतमष्टवानी अनुक्रमणिका: १ मंगलाचरण तथा अडतालीश पृवानां नाम: २२१ २ जिनवाणी सांजतां तृषादिक मठे ते उपर मशीनी कथा. २२३ ३ नरकगति पामवा उपर सुजूम चक्रवतीनी, कथा. २२४ .... २३० 8 देवगति पामवा उपर त्र्यानंदश्रावकनी कथा. ५ मनुष्य तिर्यंचगति पामवा, उपर सागरचंद अशोकदत्तनी कथा. २३४ ६ जे कर्मने योगें पुरुष मरी स्त्रीवेद पामे खने. स्त्री मरी पुरुष वेद पामेतेनी उपर पद्म खनेपद्मिनीमीं कथा. ارم . २३६ २३८ ७ नपुंसक वेद पामवानी उपर गोत्रासनी कथा. अल्पायु पामवा खाश्रयी यज्ञदत्त खने शिवकुमारनी कथा..... २३० पामवा उपर दयावान् ऋषिनी कथा. संपूर्ण २४ १ २४२ १० जोगी तथा जोग रहित यांय ते उपर धनसारशेठनी कथा...... ११ सोनागीनगीपणा उपर राजदेव तथा नोजदेवनी कथा. २४५ २४७ १२ सुबुद्ध ने डुर्बुद्धि पामवा उपर सुबुद्धि डुर्बुद्धिनी कथा. १३ पंमितपणुं अने मूर्खपणुं पामवा उपर यांबा लींबानी कथा. २५० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ ५. नाश्ना कथा ..... .... .... .... २५३ अनुक्रमणिका. १४ शूरवीरपणुं धीरपणुं .अने बीहीकणपणुं पामयी उपर अजय सिंह अने धनसिंह ए बे नानी कथा..... १५ नणेली विद्या सफल न थाष, ते उपर नापितनी कथा.. .... २५६ १६ नणेली विद्या सफल पाय,ते उपर श्रेणिक राजानी कथा..... २५७ १७ जेनी प्राप्त थयेली लक्ष्मी स्वल्पकालमांजती रहे तथा जेने लक्ष्मी मलतीज जाय, ते उपर सुधन अनि मदनवनी कया. २५७ १७ घणी लक्ष्मी स्थिर थर रहे, ते नर्पर शालिनश्नी कृथा. .... २६१ १५ जे पुरुषने संतान शप्ति न थाय, तथा,जे पुरुपने घणां संता ननी प्राप्ति थाय ते नपर देशल अने दहानी कथा. .......... २६३ २० जे बहेरो अने जात्यंध थाय, ते उपर वीरमनी कथा. .. २६७ २१ जेने अन्न पचे नहीं, ते उपर रोहिणीना जीव पुगंधानी कथा..२६ए १२ कोढीयापणुं पामवानी नपर गोसलीयानी कथा. .... .... २७६ २३ कुबडापणुं पामवा उपर धनदत्त अने धनश्रीनी कथा..... ५७ २४ दासपणुं पामवानी उपर सोमदत्त पुरोदितनी कथा. .... ......२७० २५ दरिडीपणुं पाभवा उपर श्रेष्ठीपुत्र मनोरथनी कथा. .... २६ घणुं प्रख्यात महर्षि वा उपर पुण्यसारंनी कथा. २७ रोगी नीरोगीपणुं गोमवा उपर अट्टणमन्ननी कथा. ..... २०६ २७ हीण अंगवाला नयर ईश्वरशेतना पुत्र दत्तनी कथा. ...... .... २७ शए मूकपणुं तथा ढूंटापणुं पामवा उपर अनिशर्मानी.कंथा. .... ३० पांगलापणुं पामवा उपर कर्मणहानीनी. कथा. .... .... ३१ रूपतथा कुरूप पामवा नपर जगसुंदर अने असुंदरनी कथा. ए४ ३२ जे घणी वेदना पामे, तेनी उपर लोढानी कथा. ...... .... २९६ ३३ असोहामणी वेदना न पामवा उपर जिनदत्तनी कथा.. .... २ए ३५ एकेंशियपणुं पामवा उपर मोहकनी गाथा. ....... ....... ... ३५ जे घणुं संसार वधारे, संसार परिभ्रमण करे तथा जे अल्पसं * सारीपणुं पामे, तेनी नपर शूर अने वीरनी कथा...... .... ३६ मोद सुख पामवा नपर अनयकुमारनी कथा. .... .... ३०५ १ वैराग्यनावने दर्शावनारी हरियाली अर्थसहित. .... .... A BA0204 ३०० الله .. २०७ الله Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ॥ श्री सिंदूरप्रकरः प्रारभ्यते॥ प्रथम ग्रंथना प्रारंनमा संका पोताना जे इष्टदेव तेना चरण स्मरण रूप मंगलाचरण पूर्वक या ग्रंथ सांजलनाराउने आशीर्वाद कहे . - ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तमम् ॥ . . ॥ सिंदूरप्रकरस्तपःकरिशिरःकोडे कषायाटवी, दा वार्निचयः प्रबोधदिवसप्रारंनसूर्योदयः ॥ मुक्ति स्त्री कुचकुंन (वदनैक) कुंकुमरसःश्रेयस्तरोः पल्लव, • पक्षासः क्रमयोर्नखद्युतिनरः पार्श्वप्रनोः पातु वः॥१॥ यर्थः-( पार्श्वप्रनोः के) श्रीपार्श्वनाथ पंजुना (कमयोः के०) चरण जे तेमना ( नख के०) नख, तेनी (युति के०) कांति, तेनो (नरः के०) समूह, ते (वः के ) तमोने (पातु के) रक्षण करो. हवे ते नखकां तिसमूह केहवो के ? तो के (तपः के०) तपरूप (करि के० ) हस्ती, तेना (शिरः के०) मस्तक,तेनो (कोडे केर) मध्यनाग जे कुंनस्थल तेने विषे (सिंदूरप्रकरः के ) सिंदूरना' पुंज समान ठे, की (कंपाय के ) क्रोध, मान, माया, लोन, ते रूप ('अटवी के ) वनं, तेने बालवा माटे (दा वार्चिर्निचयः के) वनना अभिनी ज्वालाना-समूहनी तुव्य बे. वली (प्र बोध के ) ज्ञान ते रूप जे ( दिवस के) दिवस तेनो (प्रारंन के० ) उदय, तेने विषे (सूर्योदयः के०) सूर्योदय सदृश , वली (मुक्तिस्त्री के०) मुक्तिरूप जे स्त्री, तेना ( कुचकुंन के० ) स्तनकुंज, तेने विषे (कुंकुमरसः के) कुंकुमरसना लेपन समान , तथा ( श्रेयस्तरोः के०) कल्याणरूप जे वृद तेना (पल्लव के०) नवांकुर तेनो डे (प्रोनासः के० ) उत्पत्ति जे थकी, एवो जे. या श्लोकमां नखकांतिसमूहनी रक्तता , माटें सिंदूप्र करनी उपमा पापी . तथा वती या श्लोकमां कोई ठेकाणें (मुक्ति स्त्रीवदनैककुंकुमरसः ) एवो पण पाठ. ले. तेनो अर्थ एवीरीतें डे के मुक्ति रूप स्त्री, शोजायमान जे मुख ते भुखकमल रंगवाने विषे कुंकुमरस लेपन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष माग पहेलो. श्‍ संरखो नखकांतिसमूह बे, तेवो अर्थ जाणवो. माटे हे नव्यजनो ! ए प्रका रेंजाणी मनमां विवेक लावीने श्रीपार्श्वनाथनीं चरणकमलज सेवन क रवां, ते सेवनार सुजनने जे पुण्य उत्पन्न थाय बे, ते पुण्यना प्रसादें करी ने उत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला "विस्तार पामो ॥ १ ॥ ॥ टीका ॥ श्रीमत्पार्श्व जिनं नत्वा, स्तोतॄणां सुरक्कारकम् ॥ सद्यः संस्मृति मात्रेण, प्रत्यूहव्यूहवारकम् ॥ १ ॥ श्री चंकीर्तिसूरीणां सद्गुरूणां प्रसाद तः ॥ सिंदूरकरव्याख्या, क्रियते हर्षकी र्त्तिना ॥ २ ॥ युग्मं ॥ ग्रंथकर्त्ता या दौ इष्टदेवताचरणस्मरणरूपं मंगलाचरणपूर्वकं श्रोदन प्रति श्राशीर्वादवृत्त माह ॥ व्याख्या ॥ पार्श्वप्रनोः श्रीपार्श्वनाथस्य क्रमयोश्चरणयोर्नखद्युतिन रः नखकांतिसमूहोवोयुष्मान् पातु अवतु रक्षतु ॥ कथंभूतो नखद्युतिजरः तपःकरिशिरः कोडे सिंदूर प्रकरः तपएव करी हस्ती तस्य शिरःकोड़े मस्तकम ध्यनागः कुंनस्थलं तत्र सिंदूरप्रकरः सिंदूरपुंजसदृशः नखयु तिजरस्यं रक्तत्वात् सिंदूरप्रकरोपमा पुनः कथंभूतः नखद्युतिनंरः कषायाटवी दावार्थिर्निचयः कषायाः क्रोध, मन, मायालोनास्तएव खटवी अरण्यं वनं तस्याः दावार्श्वि निचयः दावाग्निज्वालासपूंहतुल्यः । पुनः कथं तोनखद्युतिजरः प्रबोध दिवस प्रारंभ सूर्योदयः प्रबोधोज्ञानं 'सस्य दिवसो 'दिनं तस्य प्रारंने उदये सूर्योदय समानः । पुनः कथंतोनखद्युतिनरः मुक्तिस्त्री कुचकुंनकुंकुमरसः मुक्तिरेव स्त्री तस्याः कुचावेव कुन तंत्र कुंकुमरसः काश्मीरंरजोड्वलेपतुल्यः मुक्तिस्त्रीवदनै ककुंकुमरसइति वा पाठः । पुनः कथंभूतः नखद्युतिनरः श्रेयस्तरोः पल्लवप्रो नासः श्रेयः कल्याणमेव तरुस्तस्य पल्लवानां नूतनपत्राणां प्रोल्लासः य ङ्गमः । ईदृशः पार्श्वप्रतोः क्रमयोश्चरणयोर्नखद्युतिनरौवोयुष्मात् पातु रक्षतु न खद्युतिरस्य रक्तवर्णत्वात् रक्ता एवोपमा। जो जव्य. प्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा म विवेकम्पनी श्रीपार्श्वनाथस्य चरणकमलौ एव सेव्यौं सेव्यमानानां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरं मांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ १ ॥ जाषा काव्यः - 'शोजित तप गजराज, सीस सिंदूरपूर बबि ॥ बोधदिवस प्रारंभ, करन कारन उद्योत रवि ॥ मंगल तरु पल्लव, कषाय कंतार हुताशन ॥ बहु गुनरतन निधान, मुक्ति कमला कमलासन ॥ इहविध अनेक उपमा सहित, धरुन वरन संताप हर ॥ जिनराय पाय नख ज्योति वर, नमत बनारसि जोरि कर ॥ १ ॥ C Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः हवे कवि संजन पुरुष प्रत्यें पोतानी विज्ञप्ति करें बे. संतः संतु मम प्रसन्नमनसी वाचां विचारोद्यताः, सू तेऽम्नः कमलानि तत्परिमलं वाता वितन्वंति यत् ॥ किंवाज्यर्यनयातमा यदि गुणस्त्यासां ततस्ते स्वयं, कर्त्तारः प्रथेनं नवेदथ यशः प्रत्यर्थिना तेन किम् ॥२॥ ܪ ܕ > 3 . ' अर्थ:- (. संतः के०) सनो, (. मम के ) मंने, ( प्रसन्नमनसो के ० ) प्रसन्न बे मन जेनुं एवा ( संतु के० ) हो. अर्थात् मारी उपर प्रसन्न चित्त वाला था. एसको केहवा बे ? तोके (ब्राचां के० ) वाणीना (वि चारोद्यताः के० ) सदसद्विचारने विषे सावधाने एवा अर्थात् या वाणी सारी, या वाणी नहिं सारी ए प्रकारना विचारने जाणनारा बे. कवि कहे बे ते घटे बे ( यत् के ० ) जे कारणमाटे ( अंनः के० ) जल जे बे, ते ( क मलानि कै० ) कमलोने ( सूते के० ) उत्पन्न करे बे, परंतु ( तत्परिमलं के० ) ते कमलोनो खामोर जे बे तेने तो ( वाताः के० ) वायु ( वितन्वं ति के० ) विस्तारे बे, तेम हुं पण या ग्रंथने रचीश, परंतु ग्रंथनो विस्तार तो सजन पुरुषोज करशे कोई ठेकाणे केलेलं वे के ॥ श्लोक ॥ पद्मानि बोधयत्यर्कः, काव्यानि कुरुते कविः ॥ तत्सरनं ननस्वतः, संतस्तन्वंति तर्गुणान् ॥ श्रर्थः - कमलने सूर्य विकसित करे . तेम काव्योने कवि करे बे, अने ते कमलीना सुगंधने वायु प्रसार करे बे, तेम ए कविना गुणीने संत पुरुषो विस्तारे बे, माटे सडनंनुं एवं लक्षणज होय बे. ( वा के० ) य युवा जो ते सनोनी अन्यर्थना हुं करूं तो पण ते ( नया के० ) या मारी कवितांनी प्रशंसा करो एवी (अन्यर्थनया के०) याञ्चायें करीने (किं के ० ) कांहीज नहिं. शा कारण माटे के (यदि के० ) जो (आसां के ० ) मारी वाणी मध्ये (गुणोस्ति के० ) गुण बे, ( ततः के०) तो (ते के ० ) ते सनो, (स्वयं के०) पोतानी मेलेंज ( प्रथनं के० ) विस्तारने ( कर्त्तारः के०) करनारा था. अर्थात् या ग्रंथमां कांहिं गुणं हशे तो सनो बे, ते मारी। प्रार्थना करया विनाज विस्तार करंड्रो, (अथन चेत् के०) वली जो या मारी वाणी मां गुण नहिं होय तो ( यशः प्रत्यर्थिना के० ) यशना शत्रुनूत श्र र्थात् अपयशने करनारा एवा (तेन कै०) ते विस्तारें करीने (किं के० ) गुं ? Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. कथा रत्नकोष भाग पहेलो. कांहीज नहि. एटले निर्गुणनो विस्तार करवाथी अपयशज थाय बे ॥२॥ ॥ टीका | अर्थ कविः सजन पुरुषान्प्रति स्वविज्ञप्तिमाह || संतइति ॥ सतना मम 'प्रसन्नमनसः संतु ममोपरि प्रसन्नचित्ताः नवंतु । किं विशिष्टाः संतः । वाचां कधिवाणीनां बिचारे सदसद्विचारे उद्यताः सावधानाः समीची नासमीचीनविचारज्ञाः यत् यस्मात् कारणात् ' यंत्रः पानीयं कमलानि सूते तेषां कमलानां परिमलमामोद वायको, 'विनवति विस्तारयति तह देनं ग्रंथमहं रचयिष्यामि परं विस्तारं सजानाः करिष्यति ॥ यतः ॥ प द्मा बोधयत्यर्कः काव्यानि कुरुते कविः ॥ तत्सौरनं ननस्वतः, संत स्तन्वंतु कुणान ॥ अथवा नया ममान्यर्थनया सतामग्रे प्रार्थनयां किं यपि तु न किमपि । कुतः । यासां ममवालीनां मध्ये गुणोऽस्ति तदा ते संतः स्वयमेव प्रथनं विस्तारं कर्त्तारः नविष्यति ॥ ययस्मिन: शास्त्रे कश्चि यो नविष्यति तदा संतः स्वयमेव अन्यर्थनां विनैव विस्तारं करिष्यति ॥ चेद्यदि व्यासां ममवालीनां मध्ये गुणो नास्ति तदा तेन प्रथनेन विस्तरेण किं न किमपि ॥ कथं जूतेन तेन प्रथनेन विस्तरणेन यशः प्रत्यर्थिना यशः प्रत्य र्थिशत्रुनूतं यत्तत् युशः प्रत्यर्थि तेन यशः प्रत्यर्थिना यशसो विनाशकैन निगुर्णस्य विस्तारणेन यशो नवतीत्यर्थेः ॥ २ ॥ : नापाकाव्यः - जैसें कुभ्रंज सरोवर वासें, परिमल तासुं पौन परगासें ॥ त्यौं कवि जाहि अक्षर जोर, संत-सुजस प्रगटहिं चिदु र ॥ जो गुणवंत रसाल कवि, तौ जगमहिमा होइ ॥ जो कवि अक्षरगुन रहित, तौ व्यादरे न कोइ ॥ २ ॥ हवे करी ने सकल सुरासुरें सेवा जेमनी एवा जे श्रीवीतराग तेमना श्रागमना अनुसारें• नव्यजनना हितने माटे धर्मोपदेश कहे बे.. ॥ उपजातिवृत्तम् ॥ त्रिवर्गसंसाधनमंतरेण, पशोरिवायुर्विफलं न रस्य ॥ तंत्रापि धर्मं प्रवरं वदति, न तं विना यनवतोर्थकामौ ॥३॥ अर्थः- हे नव्यजंनो ! (त्रिवर्गसंसाधनं के०) धर्म, अर्थ अने काम, तेना साधननी ( अंतरे, के ० ) विना ( नरस्य के०) मनुष्यनुं (आयुः के० ) या युष्य (पशोरव के०) बागादिकनी पढें ( (विफलं के० ) निःफल जावं. अर्थात् धर्म, अर्थ, काम ने मोछ ए चार जे पुरुषार्थ तेमां हाल भरतखंममां मोद तो साधवाने शक्य नथी, ए कारण माटे शेष धर्म, अर्थ अने काम, ए त्रण Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिदूरप्रकरः ना उपाजन वना नर ज.मनुष्य तेनुं जीवितव्य,पशुनी परें विफल जाण Q. हवे त्यां आशंका करें ले के ते धर्म, अर्थ अने काभ, एत्रणे समान ने के कां तेमां अंतर जे ? तो त्यां कहे ; के (तंत्रापि के०.) ते त्रण वर्गमां पण (धर्म के०) धर्मने (प्रवेरं के) श्रेष्ठ, ( वदंति के० ) कहे डे. (यत् के०) जे कारण माटे (तं के०) ते धर्म (विना के०) विना (अर्थकामौ के०) अर्थ अने काम (न के) नहिं (नवतः के०) होय . कारण के जेणे पूर्वजन्में धर्म कयो के तेनेज अर्थ,काम,आ जन्ममां प्राप्त थाय ने. तेमाटें त्रणवर्गमां जेधर्म, तेज श्रेष्ठ ने. तेथी हे नव्यप्राणीयो! मनने विषे विवेक लावीने श्रीसर्वप्रणीत धर्मज आचरण करवो. धर्माचरण करनारा सऊनोने जे पुण्य उत्पन्न थाय , ते पुण्यना प्रसादें करीने उत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला विस्तार पामेछे ॥ ३ ॥ टीकाः-अथ विहितसकलसुरासुरसेव्यस्य देवाधिदेवस्य श्रीवीतरागस्यागमा नुसारेण नव्यानां हितहेतवे धर्मोपदेशमाह। त्रिवर्गइति ॥नो जव्याः त्रिव गर्गसंसाधनं अंतरेण नरस्य आयुःपशोरिव विफलं झेयं । धर्मार्थकाममोदाश्च त्वारः पुरुषार्थाश्चतुर्वर्गास्तेषां मध्ये सांप्रतं अस्मिन् नरतदेत्रे मोदः सा धयितुं न शक्यः ॥ अंतः कारणात् शेषस्तिवः धर्मार्थकामरूपः । त स्य त्रिवर्गस्य संसाधनं उपार्जनं अंतरेण विना मरस्य, मनुष्यस्य आयु र्जीवितं पशोरिव विफलं निःफलं वृथेत्यर्थः ॥ येन नरेण धर्मार्थकामानां संसाधनं उपार्जनं न क्रियते तस्य जीवितं पशोरिव बागादेरिव वृथा निः फलं ॥ यतः॥ धर्मार्थकाममोदांगों, यस्यैकोपि न विद्यते ॥अजागलस्तन स्यैव, निःफलं तस्य जीवितम् ॥१॥ इति ॥ ते त्रयोपि किं सदृशाःवा किंचि दंतरं इत्याह ॥ तत्रापि त्रिवर्ग धर्म प्रवरं वदंति श्रेष्ठं कथयंति कुतः यत् यस्मात् कारणात् धर्म विना अर्थकामौ न नवतः। येन पूर्वजन्मनि ध र्मः कृतोनवति तस्यैवात्रार्थकामौ नवतः नान्यस्य ॥ यउक्तं ॥ किं जंपि एण बहुणा, जं जं दीसई समबजियलोए ॥ इंदीयमानिरामं, तं तं धम्म फलं सवं ॥ ॥ अतः कारणात् त्रिवर्गे धमएव श्रेष्ठः ॥ जो जव्यप्राणि नेवं झात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीसर्वज्ञप्रणीतोधमएवाचरणीयः ध चिरतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥३॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जैनका रत्नकोष नाग पहेलो. नापाकाव्य - पुरुष तीन प्रदारथ साधहिं, धरम विशेष जानि श्राराधहिं ॥ धरम प्रधान हैं सब कोई, खरथ काम धरमहीतें होइ ॥ धरम करत संसार सुख, धरम करत निरवान ॥ धरमपंथ साधन विना, नर तिरियंच समान ॥ ३ ॥ माटे धर्म विषे प्रमाद न करवो, धर्मोद्यम करवाने प्रसादें ललितांग कुमर सुख पाम्यो, धने धर्म नहीं करवाथी सतननामा सेवक दुःख पा म्यो ते बेदुनी कथा कहे ले. कथाः - एहज भरत क्षेत्रने विषे श्री चार्ज नामें नगर बे. तिहां नरवाहन नामें राजा राज्य करे बे, तेने. रूप यौवन निधान, सर्वगुणें करी प्रधान, अमृतस मान जेनी वाली बे एवी कमलानामें स्त्री बे. तेनी कूखें जेम बीपने वि षे मुक्ताफल उपजे, तेवा रूपें करी अमर समान ललितांगनामा कुंअर ज न्म्यो, ते अनुक्रमें सर्व कलामां प्रवीण थयो. साक्षात् कंदर्पावतार जेवो ७ विनय विवेक विचार चातुर्यादि गुणें संपन्न थयो, तेने लाजतां पालतां ते यौवनावस्थाने पाम्यो, तेवारें अनेक प्रकारनां सांसारिक सुख जोंगवतो दिवस व्यतिक्रमा लाग्यो. कोइक अवसरें ते कुमरने कोइ सुजन एवे ना में मित्र व मुख्यो, यद्यपि तेनुं नाम तो सकन बे परंतु परिणामें करी ते तिन बे. हवे तेनी. उपर कुमर अत्यंत प्रीति राखे बे, पण ते पो तानुं दुर्जनपणुं धारतो जाय ॥ यतः ॥ शशिनि खेल्लु कलंकं, कंटकं पद्म नाले, जलधिजलमपेयं पंतेि निर्धनत्वं ॥ दयितजन वियोगं, डुर्नगत्वं स्वरूपे, धनपतिकृपणत्वं, रत्नदोषी कृतांतः ॥ १ ॥ जाइये धीमति गएयते व तरुचौ दंनः शुचौ कैतवं ॥ इति काव्यं ॥ शशी दिवसधूसरोग जितयौवना कामिनी, सरोविगतवारिजं मुखमनदरं स्वाकृतेः ॥ प्रनुर्धनपरायणः सतत दुर्गतिः सनो, नृपांगरागतः खभोजवंति सप्त राज्यानि मे ॥ १ ॥ इति ॥ जेम नागरदेलिमां निःफलतानुं कलंक, चंदनमां कटुतानुं कलंक, लक्ष्मीमां चपलतानुं कलंक, सुवर्णने विषे निर्बंधतानुं कलंक बे, तेम ललितांग कुम विषे वार्ता कांइ कार्य प्रमुख करवां तथा गुणज्ञाता, पटुता प्र मुख जे करवां, ते सर्वमां सऊननो मेलापराखवो, ते कलंक रूप बे. अन्यदा ललितांग कुमर राजाने नमस्कार करवा माटे गयो, विनयवं गुणधंत कुमरने देखी राजा संतुष्ट थइने एक बहुमूल्यनो पूर्वहार रा जायें कुमरने दीघो. कुमर राजाने नमस्कार करी पाठो वलतां ते कुमरनी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः . मार्गमा याचकजनायें जयजयारव करी प्रार्थना कीधी, तेथी कुमरें तरत ते हार याचकोने आपी दीधों. ते सर्व वात सऊने जाणी,अनें तेणे आवीराजा नीबागल चाडी खाधी॥ कयुं के॥परविघ्नेन संतोषं, नजते उर्जनोजनः॥ जनेदग्निः परां दीप्ति, परमंदिरदाहतः ॥ ९ ॥राजायें ते वात सांजली को धवंत थ कुमरने तेडावी एकांतें बेसाडी शीखामण आपीने कयुं, के हे पु त्र! तुं अत्यंत द्वान देवाना व्यसबनो त्याग कर ॥प्रतः॥ अतिदानाबली बो, नष्टोमानात् सुयोधनः ॥ विनष्टो रावणोलौंल्या, दतिसर्वत्र वर्जये त् ॥१॥ महाकुःखाय संपये, दतिमेघस्य वर्षणम् ॥ प्राणघाताय जायेत, प्राणिनामतिनोजनम् ॥॥ हे पुत्र! आयपदथी, अधिको व्यय करे तो स मुपण खाली थइ जाय, माटे पनी निईन पुरुष क्यांय आदर न पामे ॥ यतः ॥ शादरं लनते लोको, न क्वापि धनवर्जितः॥ कांतिहीनोयथा चंशे, वासरे न लनेत प्रथां॥१॥ यस्यास्ति वित्तंस नरः कुलीनः इति ॥माटे कुल, शीस, आचार, विद्या, इंडियनुं पटुत्व, ए सर्व धनविना निरर्थक जाणवां. तो हवे हे वत्स! आजथी तारे, आयपद माफक उचित खरच करवो, श्व्य नो संग्रह करवो, जेमाटे राज्यने योग्य तुंफ बो, अंने राज्य पण जो नंमा रमां व्यं सबल हो, तोज चालो, अने वली इंव्य दशे तोज सनासर्व ता हारी आशामा रहेशे. .. .. . एवं पितानुं वचन सांगली, कुमर मनमा चिलवैवा लाग्यो, के जूठ म दारा पितानुं महारी उपर केटलुं हेत ॥ यतः ॥ आकारैरंगितैर्गत्या, चे ष्टया जाषणेन च ॥ नेत्रवऋविकारैश्च, लन्यतेऽतर्गतं मनः ॥ कोक पुण्य वंतनी उपरज माता पितांनी सौम्यदृष्टि पडे. हने कुमर पितानी आका पाम्या पली.स्वल्प स्वल्पदानं धर्म करवा लाग्यो, तेवार याचकंजनो कहेवा लाग्या के हे ललितांगकुंधर ! प्रथम तमें हाथी सरखा दांतार थने हवे गर्दन जेवा कृपण केम थया? अथवा प्रथम तमें कल्पवृद्ध समान थश्ने हवे धतुराप्राय केम थया? अथवा पहेला सिंह समान यंश्ने हवे शीयाली या जेवा केम थया ? एम स्वार्थनष्ट याचक लोको कहेता लाग्या ॥ यतः॥ तावत् प्रीतिर्नवेझोके,यावहानं प्रदीयते॥वत्सः दीरक्ष्यं दृष्ट्वा, स्वयं त्यजति मातरम् ॥१॥ कदापि समुश्मर्यादाथी चूके, राजा हरिचंद सत्य मूक, मेरु कंपायमान थाय, पृथ्वी पातालने चापे, तथापि सत्पुरुष पोतानी वाचा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. चूके नही॥ यतः ॥ चलेनमेऊः प्रचलेत्तु मंदरं, चलेत्तु ताराग्रहचंइनानुः॥ कदापिकाले पथिकी चलेछ, तथापि वाक्यं नचलेदि साधोः ॥ १ ॥ एवां वाक्य सांजली कुमर उ:खितं थयो थको चिंतववा लाग्यो के मने तो वाघ नदीना न्याय समान कष्ट प्राप्त थयु . हवे जो हुँ दानेश्वर था बुं, तो पितानी आज्ञानुं उलंघन थाप में, अने जो दान. नथी आपतो, तो कीर्ति जाय जे ॥ यतः ॥ जय गिर्लई गलइ.जयर, जर न गिलश् गलंति न यणाई॥ अदिविसमा कज गइ,यहि नहुंदरी गहिया ॥१॥ अथवा रुडं करतां मुझने श्यो दोष घे. एवं विचारी कुमर वली पण पूर्वनी पेठे दाता र थको दान देवा लाग्यो, ते वात राजायें सांजली तेवारें कोपायमान थश्ने कुमरने देशवटो दीधो. पनी कुमर पण महामाननो धरनार, साह सिकनो शिरदार ते थोडाएक असवारोने साथें लइ हाघमां हथीयार लश्ने तत्काल परदेशे चाल्यो, केम के तेजी ताजणो खमे नही. पनी ते स माचार लोकोना मुखथी जाणीने सजान पण पालथी नीकलीने कुमरने जर मल्यो. मार्गमां बेदु जण चाल्या जाय , तेवारें सऊनप्रत्ये कुमर पू बवा लाग्यो के हे. सऊन ! कांई चमत्कारिक वात तो कहो. तेवारें सऊन बोल्यो के हे कुमरजी! तमें कहो के पुण्य अने पाप ए बे मांहे कोण रुडं ? के जेनी प्रांता करीये. तेवारें ललितांगकुमर हसीने कहेवा लाग्यो के अरे नूंमा भूरा, एटलुं तो सह कोइ जाणेज , के जिहां धर्म तिहां जय, अने पाप तिहां क्ष्य , ते सांजली अधर्मी सऊन बोल्यो के हे स्वामी ! जो पुण्य रुडं , तो तमें दानपुण्यादिक करतां करावतां शहां आवी अवस्था केम पाम्या? तारे तेने कुंबरें कडं के जे कष्ट पा मीये ते पूर्वरुत पाप कर्मनो उदय जाणवो अने जे शाता .पामीयें, ते पूर्वकत मुल्यकर्मनो उदय जाणवो. तेवारें वली सऊन बोल्यो, के तमारा धर्मनुं फल तो में प्रत्यद दीहुँ, माटे हवे तमें चौर्यादिकें धन उपार्जन करी राज्य पोताने वश करो. ते सांजली ललितांगकुमर बोल्यो के हे दास! तुं एवां सपाप वचन म बोल.कारण के स्वनावें पण पाप वचन बोल्यो थको जीव उःख प्रत्ये पामे . जेम होंशें करी विष खाधु थकुं पण मरण उपजावे , माटे तहारे एवा यहा तहा प्रलाप करवा नही. कारण वली एम करवाथी तारे झुं लान थाय में. जो तुमने एनो निश्चय करवो होय Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ग्रागल तो चालो श्रापणे कोई महंत पुरुषने पूढीयें. धने जो ते पुण्य थकी जय याय एवं कहे, तो तहारे महारेशी सरत ? तें सांजली सन बोल्यो के जो एम कोइ कहे तो हुं या जन्मपर्यंत तमारो दास यइनें र हिंश, अने जो एमं नवरे तो या जन्म पर्यंत में माहारा दास, चने रहो. बच्चे जो एवी प्रतिज्ञा करी, चालतां कोइक गामें जड़ पहोता. तिहां घणामहौटा लोकोनां टोलामांहे ज‍ पूजवा लाग्या के नाइने ! सुखश्रेय प्रामीयें ते पुण्य किंवा पापथी ? ए प्रश्नवचन सांगलीने लोको बोल्यां के जाइ ! हमणां तो पापज सुखहेतु बे, ने पुण्य दय थाय े. पवं. सांगली बेडुजल ग्रागल चाल्या मार्गमां ललितांगकुमरने सन हांसी पूर्वक कहेवा लाग्यो के हो कुमर ! हवे तमें घोडा उपरथी उतरी चाकर थइने महारी खाग़ल चालो. पोतानी प्रतिज्ञा पालो. एवं वचन सांजली कुमर घोडाथी नीचें उतरी सजन प्रत्यें कहेवा जा के मित्र ! हुं सर्वदा बाहरो सेवकज बुं. ए'असार धननी शोना कारमी तैनी को मनेगरज नथी. मने तो एक धर्मज निश्चल था. एम कही सेवक. इागल चाल्यो ते सऊन घोडा उपर चढ्यों. खागल चालतां वली कुमरप्रत्येंकहेवा लाग्यो के हे कुमर ! श्री जिनधर्मना फल जोगवो हवां बे ? हुं तमोने हजी पण कहुं बुं, के तमें तमारो कदाग्रह मूकीने पाप चोरादिक कर्म करो; ते शिवाय बीजो कोइ तमारे जीववानो उपाय मने नासतो नथी. जो एम नहिं करशो तो कष्ट पामशो एवां वचन सां नली रीश चढावीने कुमर बोल्यो के अरे मूर्ख ! तहारामां गुण तो सर्व ऊननाज देखाय बे, पण तहारी फइयें तहारुं नाम सऊन पाड्युं बे, ते मि या. बे. जे मिष्याचपदेश पे ते महापापी जालवो. तेनी उपर एक दृष्टां त कहुं बुं ते सांज़ल. को एक प्राहेडी निरंतर जीवोनो वध करतो अटवीमां से बे.. एकंदा प्रस्तावें ग्राहेडीयें वनमां जइ एक हरणं) दीवी, तेने ह वा माटे कान पर्यंत बाण सांधीने जेवामां बोडवा लाग्यो, तेवामां हर · बोली के हे व्याध! हे बांधव! तुं क्षण एकं सबूर कर: एटलामां हुं महारां न्हानां चांने धवरावी पार्टी खा. तेवारे याहेडी बोल्यो रे बापडी ! तुं या बाथी छूटी जइश तो फरें पाठी' यावीश नही, तेवारें तेने हरणी ये कयुं के जो हुं न खावुं तो महारे, शिर गोहत्यादिकनां पापो बे, 'ते वचन सांगली याहेडीयें कयुं के कष्टमांथी उगरवा माटे तुं एवां वचन बोले बे, २ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. जैनकथा रत्नकोष भाग पहेलो. ते ढुं मानुं नही. तेवारें मृगलीयें कह्यु के हे पाराधी ! आ समयें जेतुं कहे तेवा सम हुँ खावं! तेवारें आहेडीयें कह्यु के शीख पूबतां कुशीख आपे, तेनुं पाप तहारे शिरले, तो ढुंजावाद्यु. तेवारें हरणीये ते प्रतिज्ञा करी, अने पाराधीयें तेने जवा दीधी, पंजी ते पोताना बालकोने धवरावी संतोषी ने पोतानुं वचन पालवा माटे पाबी आहेडी पासें सावीने कहेवा लागी के हे वधक ! ढुंकयी दिशायें नासी ज़ालं तो तदारांबाणथी लूटुं ! ते सां नली बाहेडी विचारवा लाग्यो के हूँ एंने कुशीख आपीश तो मने पाप लागशे, माटें खरूं कहेवु जोश्य, एम चिंतवीने कहेवा लाग्यो के जो तुं जमणी बाजुयें नाशी जा, तो लूटे, एवं वचन सांजली हरणी जमणी बाजु नाती तेथी लूटी. माटे हे सऊन ! शीख आपतां कुशीख आपे तो ते म हापापी कहेवाय. तो हवे तुं महारो मित्र बतां मुझने कुशीख केम आपे ले ? जो कोइ बापडा पामर लोकोयें धर्म नही वरखाण्यो तो झुं तेथी धर्म व्यर्थ थइ गयो रामजवो ? जो अांधले पुरुर्षे सूर्य न दीठो, तो झुं सूर्य नधी नग्यो, एम समजवू? माटे संसारमाहे सारपदार्थ, सर्वलोकनो आधार, सर्व सुखनो नंमार, स्वर्गापवर्गनो दातार, अचिंत्यचिंतामणि समान, सक लकलाप्रधान एवो एक धर्मज में एम जाणवू, वली सहन बोल्यो के अहो कुमर ! तुं तो महा कदाग्रही देखाय , जेमाटे धर्मनां फल देखतो बतो पण हजी मानतो नथी. रासन, पूंन पक डयुं ते मूकबुज नही. एवो तहारो न्याय . जेम कोश्यामीण माता पितायें पुत्रने शीखव्युं जे पांच जर्णमां बेशी जे वात अंगीकार करीयें, ते मूकीयें नही. एवी शिक्षा दीधी. एकदा ते मूर्ख शिरोमणियें एक सांढनाशीजतो हतो तेथी तेणे पांचनी सादीथी तेनुं पूंड पकड्युं पणं मूके नही तारें लोक क हेवा लाग्यां के हे मूर्ख! मूकी आप. पण पेलो मूके नही, तेम तें पण हत लीधो ते बोडतो नथी. हजी पण जो महारुं कर्तुं न माने तो चाल पागल बीजालोकोने पूबीये. एम वाद करतां परस्परें नेत्रनी होड करी.एटले जे हारे ते पोतानां नेत्र काढी आपे. आगल. को गाममां जर लोकोने पूज्युं के धर्म उत्तम के अधर्म? तेवारेंते मूर्योय पण धर्मनीज स्थापना कर।, ते वाणी सांनली सऊन हर्ष पाम्यो. पागल जतां कुमरनी पासेंथी होडमा हारेलां नेत्र माग्यां,कुमरे पण पोतानी चटु बरी वडे काहाडी आपी, तेवारें सऊने Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ११ , } युं के केम कुमारजी धर्मनां फल दीठां के ! ांधला तो थया !!! एम कही न गारेक तिहां बेसी पती कुमरने मूकी घोडे चडीने सन अन्यदेशें जतो रह्यो. हवे पालथी कुमर चिंतववा लाग्यो के श्रापदारूप नदीनों पूर, पूर्व कृतकर्मप्रमाणें महारे वृद्धि पाम्यों के यवा वली आपदा ते गुं? धर्मना प्रसादथी सर्व सारूंज, याशे: एम चिंतवी ज्ञानबलें धर्म उपर निश्चल मन करी जो रह्यो . एवामां सूर्य अस्त पाम्यो. चारे दिशायें अंधकार पस्यो, रात्रिचरं जीवो संचार करवा लाम्या, चोर 'पेसया, एवा अवसरें तिहां वड उपर नारंग पंखी मली मांदोमांहे वातो करवा लाग्या के जेणें जे कौतुक दी होय ते कहो. तेवारें एक बोल्यो के इहांथ । पूर्व दिशें चंपा नगरें जितशत्रु राजा राज्य करे बे, तेने पुष्पवती नामा पुत्री प्राणथी पण व न ब्रे, ते महारूपसौंदर्यनुं निधान बे, यौवनावस्था पामी पण कृतक ने योगें तेने अंधपणुं प्राप्त ययुं से. एकदा प्रस्तावें राजा पोतानी पुत्रीने खोलामा बेसाडी चिंतववा लाग्यो के एक तो दीकरी बे ते स्वनावें चिंता नुंज कार ने वली • एतो कर्मै कलंकित बे ने विवाहयोग्य पण as a. हवे श्यो उपाय करवो ? एम विचारी नगरमां पडद वजडाव्यो जे राजानी दीकरीनी यांखा सारी करे, तेने राजा अर्धु राज्य तथा तेहीज कन्या पे. एवी रीतें राजपुरुष तिहां चछूटे चहुटे ढंढेरो फेरवे बे ए कौतुक में दीतुं दवे श्रागत गुं थाशे ? ते ढुं जाणतो नथी. · एवं सांजली वली एक न्हानो नारंग बोल्यो के हे तात! तमें जाता हो तो कहो, के नेत्र सारां थवानों कोई उपाय बे. ते सांजली वृद्ध नारंग बोल्यो के हे वत्स ! उपाय तो घणाय बे, पण, नाग्य विना मजे नही. "तेवारें लघुजारंग बोल्यो के तमें जाणता हो तो कहो. तेवारें वृद्ध नारंग के हे वत्स ! रात्रियें कहेवाय नहीं ॥ यतः ॥ दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैवच नैवच ॥ संचरंति महाधूर्त्ता, वटे वररुचिर्यथा ॥ १ ॥ वलील घुनारंग बोल्यो के इहां तो कोइ सांजलतो नथी मानें तमें कहो. तेवारें वृद्ध बोल्यो जे ए वृदने जे वेलडी वींदार रही बे, तेने लइने जो यांखे अंजन करे, तो नवां नेत्र खावे, ते सांगली वली लघुनारंग बोल्यो के स्वामी ! तमें प्रातें किहां जाशों ? ते बोल्यो के तेंहीज नगरें हुं जश लघुभारंभ बोल्यो के हुं पण कौतुक जोवाने माटे तमारी साथै श्रावीश. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैनकथा रत्नकोष भाग पहेलो. 'एवी बात करीने ते जारं सुइ रह्या. कुमरें बड़हेवल वेगं थकां सर्व वात सांगली विचायुं जे पुयनुं प्रमाण अद्यापि प्रवर्त्ते . पी ते वेलडी ल‍ हाथी घसीने यांखे अंजन की धुं, तेथी नवी चक्कु यावी. पढी वड उपर चढ़ी संपूर्ण वेलडी लइ लोधी. • खने पोतें नारंग पंखीनी पांखमा बेसी रह्यो प्रजातें नारंग 'नडी. चंपायें पहोती कुमर पण पांखमांची नी सरी वस्त्रादिक पहेरी राजारें गयो, दरवाने खावी राजा बागल हकीगत जाहेर कर के हे स्वामी ! कोइक देशांतरी पुरुष व कहे बे, के हुं राज्य कुमरीनी खो सारी कुरीश ? ते वात सांजली राजांयें तेने यादरथी विकिरीने युं के हे महापुरुष ! उपकार करो. पी कुमरें तरत वेलडीनो रस काही थांखे अंजन करी राजपुत्रीने साजी कर. तेवारें राजायें पण महोटा महोत्सव पूर्वक पोतानी पुत्री कुमरने परणावी दीधी. हाथ मेलावडामा हाथी, घोडा, पायदल प्रमुख घणी लक्ष्मी पीने अई राज्य दीधुं. तिहां मनुष्य संबंधी जोग जोगवतो सुखें रहे बे: ● एकदा गवाक्षमां बेतो. बे, एवामां जेनी श्रांखमांथीयां करें बे, रोगें करी ग्रस्त यने फाटेलां वस्तु, बीज-सांग, दुर्निरीक्ष्य, पर्गे पढ़ें पडता एवा सकनने यावतो दीगे. तवारें पापनां फल प्रत्य देखीने कुमरने दया यावी तेथी चाकर मोकली तेडावी बेसाडीने पूजयं के हे सऊन ! तुं मुले लखे बे ? ते बोल्यो हो सत्पुरुष ! तमने कोल नथी उलंख तो. कुमरें साधुं पूयं तेवा बोल्यो रह्यो पढी कुमरें पाउनुं वृत्तांत कही सर्व पोतानी हकीगत संभलावी, तेथी ते सऊन नका पाम्यो. पीनां फलां वस्त्र उतरावी नवां पहेरावी, जोजन करावीने कर्तुं के हे मित्र ! लक्ष्मी सर्व ताहरीज बे, तुं निश्चिंत थको श्रींही सुख जोगव. हवे सऊन बोल्यो के हुं तमने मूकीने चालतो थयो . आागल जतां मने चोर मल्या तेणें लाकडी तथा मुष्ट्यादिकें खूब मायो, अने महारीपासें जे धन हतुं ते सर्व लइ लीधुं. मात्र पाप जोगववा माटेंज जाणे मुने जीवतो मूक्यो हो नहिं ? म जीवतो मूक्यो. तिहांथी हुं अनेक देश जम्यो सर्वत्र दुःख देखतो तमने श्रावी मल्यो बुं. माटे ढुं पापीने तमें दूर जवा द्यो. तमारी पासें म राखो से सांनंती कुमर बोल्यो के हे सजन ! Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः १३ ढुं राज्य कन्यां दिक ऋ पाम्यों, ते सर्व तहारो प्रताप बे. माटे हवे तु या ' राज्यनी चिंता कर एम कंही तेने प्रधान पदवी यापी: ए खबर सर्व कुमरनी स्त्री पुष्पवतीयें सांजली तेवारें तरि प्रत्यें कहेवा लागी हे स्वामिन्! ए तमारो वालपणानो मित्र बे, तो एने कोइ एकाद गांम पी द्यो. पण तम्ाराधी दूर राखों, परंतु पासें म राखो ॥ यतः ॥ डुनः परिहर्तव्यो, विद्यया भूषितोपि सन् ॥ मणिना चूषितः सर्पः, किमसौ न जयंकरः ॥ १ ॥ जेमाटे इर्द्धनने उपकार करतां पण साहामुं कष्ट थाय, जेम aises arrst सरोवरने विषे बग प्रमुखने तरता देखी पोतें पण तेमनी पेठें मत्स्यनक्षण करवा सारु पाणीमां पड्यो, पण तरतां यावडतुं नथी तेथी पाणीमां बुडवा लाग्यो, तिहां तेने कोइ राजहंसीयें दीवो, तेने दया यावी तेवारें राजहंसने कहेवा लागी के हे स्वामी ! वापडो कागडो बूडे बे, माटे तमें उपकार की एने काहाडो. तेनारें हंसहंसिणीयें मली चांचे ताली प कीने बाहेर काढो पर्छ कागडो हंस हंसिणीने पगे लागी कहेवा लाग्यो के है नाग्यवानो ! हुं ज्यां सुधी जीवतो रहुं त्यांसुधी तमारो व पकार मानीश. हवे कृपा करें। तमें बेदु जण याहार न करवा मारा वनमां यावो. तेवारें हंसें हंसिलीने पूयं के केम तहारी शी मरजी बे ? हंसिपी बोली के है स्वामी ! उपकार सुर्वने करीयें पण अजाण्यानी सं गत न करीयें. एम. हंसिपीयें वायो, तो पण क्षयने जीधे हंस, का गडानी सायें वनमां गयो. ते बेदु कोइ लींबडाना फाड उपर बेग, ते वृ नी नीचें कोई राजा यावी व सामाने अर्थे उनो रह्यो बे, तेनी नपर कागो विष्टा करीने तिहांथी डंडी गयो. राजायें चंचुं जोइने हंसनी उ पर बाल मूक्यो, तेथी हंस. तडफडतो तूमियें पड्यो, राजायें विचायुं जे या धवल काग बे, ए कौतुक जेवी वात बे. ते सांजली हंस बोल्यो ॥ नाहं काकोमहाराज ! हंसोऽहं विमले जले ॥ नीच संगप्रसंगेन, मृत्युरेव न संशयः ॥ १ ॥ ए वात स्त्रीयें कहीने कयुं के हे स्वामी! तमें नीचनरनी संगति म करो. कुमर ते हितकारक वचन जापातो यको पण दाक्षिणप तेनो संसर्ग मूके नही. एम केटलोएक काल व्यतिक्रम्यो. यदा प्रस्तावें राजायें सनने पूढधुं के ए कुमरनी साधें तमारे मांहो मांहे गाढ स्नेहनुं कारण नुं है ? तेवारें सकनें विचायुं जे हुं प्रथमथी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेली. A कुमरंनी उपर दूषण चूढावुं, तो पढ़ी महारां द्वैपण ए प्रकाशी शकशे नहीं, एम विमासी. राजा प्रत्यें बोल्यो के हे स्वामिन्! ए बात कहेवा योग्य नथी, केम के कुमरें मुऊने प्रथमथी सोगंद खवराव्या. बे. एवं सांजली राजा वली विशेष आग्रह करी पूढवा 'लाग्यो, तेवारें राजाने सोगंद या पीने सजन कहेतो हवो, के वासपुरी नगरीमें नरवाहन राजानो हुं पुत्र बुं. ने ए महारा घरनी दासीनो पुत्र बे.. कर्मयोगे देशांतरें जमतो थको विद्या पाम्यो, तेवारें नीचजातिथी लंका पामीने घरमा रहे नहीं. देशांत रेंज नम्या करे, ते जमतो जमतो तमारे नगरें श्राव्यो विद्यावंत माटे तमें चादर दीघो. पूर्वकर्मना प्रसादथी राजपदवी पाम्यो, धने हुं पण महारा पिताथी पराभव पाम्यो थको इहां याव्यो. मने एणे उख्यो कार के मर्मनो जाए मर्म जाणे, तेथी एणे मुकने पोतानी पासें राख्यो. हे स्वामी ! एनी वांत में तुमनें कही, पण एमांहे नली बार कांई नथी. एवीवात् सांभली राजा विचारमां पड्यों जे में अविचायुं काम करूं; राज जाये तो जें जाउ, धन जाये तो चलें जान. परंतु माराथी माहारो वंश मलीन थयो ते अत्यंत कार्य सुयुं. एम चिंतवी जमाइने मारवा माटे राजायें अंतरंग पुरुषने तेजावीने कहीं के आजरात्रिये घरमांदेले रस्ते जे यावे, तेने तरत समाधान करि नाखजो. सेवकें पण तेंवीज रीतें राजानी खाज्ञा प्रमाण काँधी, राजाचें रात्रिने समये नलो पुरुष मोकलीने कुम रने मारवा माटें तेडाव्या, तेणें जइ कुमरनें वीनव्यो, जे यापने राजा थ वश्य तेडे बे. कोइ महोद्धुं कार्य बे, तेमा घरमाहेले रस्ते यइनें श्रावो. कुमर पण तेवीज रीतें सऊ थइने जवा लाग्यो, तेवारें स्त्री- बोली हे स्वामी ! नोला थइ रात्रें जाउ हो पण राज्य स्थिति मलीन बे ॥ यतः ॥ काके शौचं द्यूतकारेषु सत्यं, सर्पे दांतिः स्त्रीषु कामोपशांतिः ॥ क्लीवे धैर्य मद्य तत्त्वचिंता, राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ॥ १ ॥ ते सांजली कुमर बोल्यो हे सुनगि! तुं कहे बे, ते सत्य बे, परंतु राजानी श्राज्ञा लोपीयें तो महादोष लागे ॥ यतः ॥ श्राज्ञानंगोनरेंाणां, गुरूणां मानमर्दनम् ॥ पृथक्शय्या च नारीणां शस्त्रवधउच्यते ॥ १ ॥ ते सांगली स्त्री बोली तमें कहो बो ते पण सत्य बे माटे हमणां मित्रने मोकलो, कुमरें पण तेमज क ने सनने मोकल्यों मार्गे जातां राजाना सेवकें पूर्व C c Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः " १५ संकेतथी ने पेंसांज मारी नाख्यो, मरण पामीने दुर्गतियें गयो ॥ युतः॥ मित्रोहिकृतघ्नाश्च ये च विश्वासघातकाः ॥ ते नरा नरके यांति, यावचंद दिवाकरौ ॥ १ ॥ तिहां ते सहनना मरणथी कोलाहल थयौं, तेवारें कु मरी बोली हे स्वामी! जो तंमें तिहीं आतां ती शा हवाल याता ! माटें अ द्यपि में प्रमादी कंटक सक करें। सावधान थका रहो कुमर पल तेमज स थ रह्यो राजा प्रण सर्व वात जाली क़टक लइ युद्ध करवा ने साहामो याव्यो. बेहु सैन्य महिमांहे मल्यां. एवामांहे दीर्घबुद्धिना मंत्रीवर यावी राजाने कहेवा लाग्या के. हे स्वामी ! प्रणविचा युद्ध न करीयें ॥ यतः ॥ अपरीक्षितं न कर्त्तव्यं कर्त्तव्यं सुपरीक्षितं ॥ पश्चान वति संतापते, ब्राह्मणी नकुलं यथा ॥ १ ॥ इत्यादि प्रधानोनां वचन सांगली राजायें युद्ध निवारण करी कुलजाति पूब्वा माटें मंत्रीश्वरने कुमरपासें मोकल्या. मंत्रीश्वरें वी कुमरने विनव्यो जे तमारो कुलवंश प्रकाश करो. कुमर बोल्यो के सत्पुरुष, पोतानुं कुल पोताना मुखथी कहें नही. प्रधान पुरुष बोल्यो तमारा सनमित्रे श्रावीने राजानी यागल' तखारा अवर्ण वाद का ढे, प्रायः डुर्जन होय ले पर विघ्नें संतोषी थायू. ते वचन सां जली कुमरें पोतानुं सर्ववृत्तांत प्रधान ग्रागनं कंयुं. मंत्रीयें जइ राजानी श्रागत निवेदन कर्खु, ते समाचार मूंजयी जाएवा नाणी तत्काल कागल लखीने राजायें कुमरना नगरनणी सेवक. मोकल्यो, ते सेवक पण ललितांग कुमरना पितापासें जर सर्व हकीगत कही. तेवारें राजा पोताना पुत्रनी खबर सांगली घणोज दर्षवंत थयो. अने राजा कहेवा लाग्यो जे ननुं कस्युं जे महारा पुत्रने जितशत्रु राजायें जीवितव्यनी पेरें राख्यो, में मंदनागी तो प्रतिदानं दूषण आपीने सजनना कहेंवाथ पुत्रने परदेशें काहाढ्यों. एम कही ते राजाना सेवकने वस्त्रादिक आप संतो बीने विसर्जन करो. सेवकें खावी राजानी प्रागल सर्व समाचार संज लाव्य, राजा प्रमुदित थयो. जमाइ तथा दौकरीने जड़ पोतानो अपराध खमाव्यो. अनेकयुंके हे ललितांगजी ! बमारां जेवा गुणवंत कोइ नथी, अने • सकन सरखो डुर्गुणी पापी पण कोइ नथी, माटें हवे हे कुम रजी ! तमें राज्यनो अंगीकार करो. एम कही कुमरनैं राज्य श्राप पोतें दीक्षा लइ देवलोकें गयो. " · • • " Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. पाउलथी ललितांगकुमर पण राज्यनी चिंतामा करतार मंत्रीश्वरने सर्व कारनार सोंपी पोतें सैन्य लश् महोटी दिथी पिताने चरणे जश नम्यो. पिता पण नेत्रने आनंदकारक एंवा पुत्रनुं दर्शन पामीने जेम चश्माना दर्शनथकी समुंइने दर्ष थाय, तेम हर्षवंत श्रयो थको पुत्रने कहेवा ला ग्यो के हे वत्स ! हवे अमें परलोक साधन करशुं ! अने तमें ए राज्य अं गीकार करो. ते सांजली ललितांग बोल्यो के हें स्वामी ! दुतमारी सेवामां तत्पर रहीश बने तमें राज्य पालों. 'एम राज्यने अगवांबतां पण राजायें कुमरने राज्य दीधुं. अने पोतें चारित्र तर पस्नवतुं साधन करवा मां मयु. ललितांगकुमर पण पणा वर्ष न्यायपूर्वक राज्य पाली अंत्यावस्थायें चारित्र लश् देवलोकें गयो.. ए ललितांगकुमरखें चरित्र सांगली हे नविज नो! तमें गीतार्थनां वचनने अनुसारें एकमना था श्रीजैनधर्मविषे प्रीति राखो अने दानादिक चार प्रकारनो धर्म पालो, प्रमाद टालो, पाप गालो, आठ मद टालो, शात्मा अजुवालो. तो स्वर्ग मोदनां सुख निश्चय पामो ॥ ३ ॥ इति धर्मविषयिक ललितांगकुमरनी कथा संपूर्ण ॥ हः श्रा नरजवनं उतन "j , ते कहे बे.. इंश्वजावृत्तम् ॥ यः प्राप्य :प्राप्यमिदं नरत्वं, धर्म न मनेन करोति मूढः ॥ क्वेशप्रबंधेन स - लब्धमब्धौ, चिंतामणिं पातयति प्रमादात्॥४॥ अर्थः-(यः के०) जे (मूढः के०) मूढ पुरुष; (इदं के) या (उप्राप्यं के) मुःखें प्राप्त थावा योग्य एवं (नरत्वं के०) मनुष्यपणुं; तेने (प्राप्य केए) पामीने ( यत्नेन के) उद्यमें करीने (धर्म के) धर्मनें ( न करोति के०) न करे हे, (सः के०) ते पुरुष, (क्वेशप्रबंधेन के) अति महेनतें (लब्धं के०) पामेला (चिंतामणिं के०) चिंतामणिने (अब्धौ के०) समुश्मा (प्रमादात् के०) बालस्यें करीने (पातयति के०) नाखे ने. अर्थात् जे मूर्ख पुरुष मोहोटा कष्टें पमाय एवो मनुष्यजन्म पामीने सावधानतायें करीने श्रीवी तरागप्रणीत धर्मने न अंगीकार करे, तेणें अतिउःखें मलेलो एवो प्रत्यद चिंतामणि प्रमादथकी समुश्मा नाख्यो,.. एम जाणवू. ए कारण माटे नरनवें करीने धर्म, उपार्जन करवं. आ ठेकाणे ब्राह्मण रत्नदीपें देवीयें Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः . दोधेला चिंतामणिनुं समुश्मा पातन कयुं, तेतो संबंध जाणवो. माटें दे जव्यजनो! ए प्रकारे मनने विषे विवेक लावीने धर्मज करवो कारण के धर्मने विषे प्रीति करनारा सुजन पुरुषो तेने जे पुण्य उत्पन्न याय. इत्यादि सन पूर्ववत् जाणवो ॥ ४ ॥ ___टीका ॥ अथ नरनवस्यं नखमाहं ॥ यःप्राप्येति ॥ यो मूढो मूर्खः इदं उप्राप्यं नरत्वं प्राप्य यत्नेन नद्यमेन धर्म न करोति.सः क्वेशप्रबंधेन लब्धं चिंतामणिरत्नं प्रमादात् अब्धौ समुझे पातयति ॥ यो मूर्खः पुमान् फुःखेन महता कष्ठेन प्राप्यं ॥ यतः॥चुस्नग १ पासग २ धन्ने ३,जए घरयणेय ५ सुमिण ६ चक्केय ७ ॥ कूर्म युग ए परमाएर १०, दस दिता मषुथ जम्मे ॥१॥ इत्यादिदशनिदृष्टांतैनं दं नरत्वं मनुष्यजन्म प्राप्य लब्ध्वा यत्नेन सावधानतवा श्रीवीतरागप्रणीतं धर्म न करोति उपेक्षते सक्त शप्रबंधेन महता कष्टप्रकारेणातिप्रयासेन लब्धं प्रत्यदं प्राप्तं चिंतामणिरत्नं प्रमादात् अब्धा समुदे पातयति ॥ अत्र ब्राह्मणरत्नदीपदेव्यादत्तचिंतामण रत्नसमुपातनसंबंधोवाच्यः । जो जव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमा नीय यत्नेन धर्मएव कार्यः धर्म च कुर्वतां सतां यत् पुण्यमुत्पद्यते त त्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ ४ ॥ ॥ नाषाकाव्य ॥ कवित्त ॥ जैसें पुरुष कोऽधनकारन, हीमत दीप दीप चढि जान ॥आवत हाथ रतन चिंतामनि, मारत जलधि जानि पारवान ॥ तैसें चमत चमत नवसागर, पावत नरसरीर परधान ॥ धरम जतन नहिं करत बनारसि, खोवत वाहि जनम अज्ञान ॥ ४ ॥ .. तिमांतने विषे मनुष्यनो जन्म पामवो दश दृष्टांतें उलन कह्यो , ते दश दृष्टांतनां नाम कहे हैं. एक चूलकेनो, बोजो पासकनों, त्रीजो धा न्यनो, चोथों द्यूतनो, पांचमो रत्ननो, बो स्वप्ननो, सातसो चकनो, आ उमो कूर्मनो, नवमो युगनो, दशमो परमाणुनो. ए दश दृष्टांतनां नाम कह्यां. हवे एनी उपर संदेपथी कथा कहें :- . प्रथम चुलक ते देशी नाषायें.नोजन कहेवाय ने, नो दृष्टांत कहे जे. कांपिलपुर नगरें ब्रह्मनामें राजानी चुलणी नामें राणी तेने चौद सुपने सूचित ब्रह्मदत्त नामें पुत्र थयो. ते पांच वर्षनो थयो, तेवारें तेनों पिता मरण पाम्यो. हवे राज्यचिंता करवा नगी तेना दीर्घादिक चार मित्र मल्या. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ . जैनकट्या रत्नकोष नाग पदेली. तेमां दीर्घने कोपिलपुरे दाख्यो. अने बीजा त्रण मित्र, पोताने घेर गया. हवे चुलगी राणी इंडियोना चपलपणाथकी दीर्घनी साथै लुब्ध थर. तेवारें धनुनामा मंत्रीश्वरें ते समाचार कुमरने जणाव्या, कुमर पण दीर्घने तथा पोतानी माताने शीर्वामण ऑपवा सारु नानाविध प्रपंच देखा डवा लाग्यो. राजसनामांहे अनाचारी पुरुष देखी राजहंसी| काग सं योग करतो जो ब्रह्मदत्त कहेवा लॉग्यो के ए पापीने अन्य जातिगुं अण मलतां संबंध क्याथी मल्यो. ए अन्यायं दुं सहन करी शकुंएम नथी. तेवारें प्रधानने शंका उपनी जे.नि. ए ब्रह्मदत्ते चुलगीने अनाचार सेवतीजाणी ३. अने दीर्घराजायें पण ते समाचार जाणी चुलणीनी आगल कह्यु के तहारा पुत्र ब्रह्मदत्तें एवां चिन्ह देखाड्यां डे, माटें ते आपण बेदुजणने मारशे, तेथी जो तुरुने महारो खप होय तो प्रथमचीज थापणे एने मारी नाखीयें, तो सारं थाय. तेवारें राणीयें कह्यु के हुँ एना विनाशनो उ पाय करूं टुं. पनी चुलणीयें ब्रह्मदत्तने एक कन्या परणावी. अने नवु ला खनुं गृह कराव्यु. ए चुलगीनो अनिप्राय सर्व जूना पाटनक्त प्रधाने जा एयो,जे ए विषयांधत्वयकी पुत्रने लाख गृहमां बाली नाखशे, तेमाटे प्रधाने पण नगरबाहिर थका प्रबन्नपण लाखना धवलगृह लगें मध्य गर्ना खण वीने पडी ब्रह्मदत्तने कृघु के तहारी मातायें तुमने मारवा माटे लाखनुं गृह बनाव्यं ने, पण ते वात ब्रह्मदत्तें मानी नही. ब्रह्मदत्तें कह्यु के बोरु कु बोरु थाय पण मावतर कुमावतर थाय नही. ते सांजली प्रधानें कह्यु के स्वामी! तमें कहो बो ते सत्य दशे. पण जेबारें था घरमां वसवानुं मुहूर्त होय, तेवारें सूतां थकां सावधान रहेजो. कांश काम पडे तो पाटु प्रहारें सरंग उघाडी नगरनी बाहिर बावजो. अश्व शणगारी पलाण सहित ढुं सज करी राखीश. तमें महारी साथें देशांतर चालजो. " हवे चुलणीयें मुहूर्त जोवरावी पुत्रने कयुं के तमें नवपरिणीत बो, माटें आजे नवा घरमां शंघन करवा जाजो. कुमर तिहां गयो, तेवारें तेने प्रधानें क ह्यु के बाज तुमें सारधान रहेंजो. ते सांजली ब्रह्मदत्तें नक परिणामें चिंतव्यु जे आवा स्थानकमां वली शो उपश्व यवानो डे ? रात्रियें अकस्मात् ते पापबुदि मातायें घरनी चारे बाजु बाग लगाडी दीधी. ते देखी वरधनु मित्रे कुमरने जगाज्यो, ते सुरंगमांथी बेदु जण नाशि अश्वारूढ थर देशां Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ए तर जणी चाव्या. केटलीएक नूमि उन्नंधी गया. ,एकदा वनमांहे कुंधरने तृषा लागी ते सारु मंत्रिपुत्रं पाणी लेवा गयो, ते घणी वार पर्यंत न श्राव्यो तेवारें तेने जोवा माटें कुंअर निकटयो, ते मार्गमां नूलो पज्यो तेवारें तृषायें पीज्यो थको एक एदनी नीचे जइ सुश् रह्यो. एवामां एक देशांतरी वटेमाणु को एक ब्राह्मण पाणीनुं पात्र लइ वृदनी यायें धावी विश्राम.लेवा बेतो. ब्रह्मदत्ते.तेनी पासेंथी पाणी माग्युं. ब्राह्मणे पा णी थाप्युं अवे वली पासें कांक फलादिक हंतां, ते खामने आयां, तेवारें ब्रह्मदत्ते कयुं के मुझने,जे वखत राज्य प्राप्त थयुं तमें सांजलो, ते वखत कपिलंपुर पाटणे आवजो. एम कही ब्राह्मणने विसो . वलीसिहांथीकेटलेक कालें बेनातट नगर नणी जातां मार्गमां एक ब्राह्मण मल्योः तेनर सथवाराथी बार योजननी अटवी कुमरें उल्लंघन करी, जोजननी वेलायें ब्राह्मण पोतें एकलोज जम्यो पण कुमरने आयह मात्र न कीधो. तेम कुंअरे पण याचना कीधी नही. कारण के महांत पुरुष मर णांतें पण याचना करे नही. एम करतां अटवी उतरी प्रांतें. पहोता, ते वारें कुमरें कडं के हे ब्राह्मण ! तसारा पसायथीं दुं अटवी उतस्यो, माटें जेवारें मुंफने कांपिलपुरंगें राज्य प्राप्त थयु सांजली, तेवारे तरत आवजो. एम कही ब्रह्मदत्त बेनातट नगरें गयो. ब्राह्मण चिंतववा लाग्यो के जूठ एर्नु औदार्य धैर्य केहq ? अने महारुं रुपएपणु केहबुं जे? एम चिंतवतो स्वस्थानकें गयो. पबी केटलेक कालें जाग्ययोगें ब्रह्मदत्तने उ खंम 'पृथ्वीनुं राज्य मन्यु. चक्रवर्तीनी पदवी प्राप्त थइ. वरधनुमित्र पण यावी मल्यो, ते मने आपणा नगर नगी आवता जो चुलणीयें देहनो त्याग करयो. ब्रह्म दत्त पोताना पिताना राज्यपाटें बेठो. • हवे जेणे पाणी पीवराव्युं हतुं ते ब्राह्मण पण ब्रह्मदत्तने राज्य मन्यु सांजली नगरमां याव्यो, तेणें राजाने मलवाना घणा उपाय करा पण दरिडीने राजानुं दर्शन थाय नही. एम व मास वही गेया पडी नगरमां को बुद्धिथी नपाय बतावनारांनी शोध करता एक बुदिना थापनारायें कडे के मने लाख सोना मोर ओपो तो हूं उपाय बतावं. तेने ब्राह्मणे कयुं जो मुझने राजानो मेलाप थशे, तो ढुं तुमने लाख सोनामोर था पीश. पनी बुबिना देवा वालायें कयुं के एक महोटो जबरजस्त वांस ल Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० . जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ने तेने रस्तायां हिला जूनां त्रूटेला फाटेलां खासडोंनी माला वलगाडी ते वांसडाने पकडी राजमार्गे उना रहो. जेवारें राजानी स्वारी निकलशे, ते वारें तेना उपर दृष्टि पडवाथी बनिनव आश्चर्य देखी राजा पूग करशे, ते वखत तुं भाशीर्वाद आपजे, ब्राह्मण पण तेज उपाय करी राजाने मल्यो. राजायें दीठो तेवार तस्त लिखी तुष्टान प्रश्न कहेवा लाग्यो के हे विप्र ! माग माग. जे मागे ते आपुं. ब्राह्मणे कयुं के स्वामी घेर ज म हारी स्त्रीने पूर्वी बाबु, राजायें कह्यु. शीघ्र पूबी बाव, ब्राह्मणे घेर आवी स्त्रीने पूयुं के हे प्रिये ! राजा संतुष्ट थयो . मा. हवे हुँ गुं मागं ? तेवारें स्त्रीय विचायुं जे ए गाम. गरास नगर मागशे तो पड़ी मुझने मानशे नही माटें एवं मगाईं के जेथी ए समतुल्य रहे. एवं चिंतवीन कहेवा लागी के आपणे ब्राह्मणजाति बैयें, माटे गाम नगरादिक मागणुं जो रा त्रिदिवस तेनी चिंतामां रहे, पडशे, घणा चाकर नफर राखवा पडशे. अने जो धनधान्य, मागलं, तो व्यापार चलाववो जोशे. व्याजें धंन आपq जोशे. इत्यादि संजाल राखवानी विटंबना करवी पडशे, माटे रा जाना ब खंम टथ्वीमा जेटला चूला . ते प्रत्येक चूला दी एक दिवस आपणा कुटुंबने नोजन मले, अने एक सोनामोर ददाणा मले. एवी मा गणी करो. ब्राह्मणे पहा स्त्रीना कह्या मुजब राजा पासें जश् याचना करी, तेवारें राजा बोल्यो के हैं निजाग्य ! पाबलबुद्धि ब्राह्मण! ढुं तुष्टमान थयो बतां या फरी जीख मागवानुं ते तें शुं माग्युं ? पण ब्राह्मणें तो स्त्रीना क हेवा प्रमाणेज राजाने कह्यु. हे महाराज ! जो तुमें तुष्टमानं थया तो एट लुंज आपो के जेथी हुँ रलीयायत थालं! तेवारें राजायें तेमज प्रमाण कीधुं. अने पदेला दिवसें चक्रवर्तीयें पोताने घेर जमाडीने एक सोना मोर दक्षणा यापी. पबी चक्रवर्तीनी १९२०००) अंतेरीने घेर जम्यो. पनी चक्रवर्तीना पुत्र पौत्रादिकने घेर जम्यो. पण जेवो स्वाद पहेले दिवसें च क्रवर्तीना घरनी रसंवतीनो हतो, तेवो स्वाद बीजा कोइना घरनी रसव तीनो थावे नही. तेथी तेज जमण संजाया करे अने मनमां विचारे के कोई रीतें फरी चक्रवर्तीने घरे जमवानी वारो आवे तो सारूं ! पण वारो आवे नही. ते वारो पण कदापि कोई देवांना सहायथी अथवा प्रबल Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ . सिंदूरप्रकरः थायुष्यवान् पामे. परंतु मनुष्य जन्मथी भ्रष्ट थयो ते फरी मनुष्यावतार न पामे ॥ इति प्रथम चुनकदृष्टांतः ॥१॥ हवे बीजो पासानो दृष्टांत कहे ले. नरतक्षेत्रमा गोल देशने विषे च एकनामें ग्राम . तिहां चणकनामें ब्राह्मण तेनी चिणेश्वरी नामें नार्या ते स्त्री जरतार बेदु अरिहतनी नक्तिनां करनार'. तेमने घरे दांत सहित पुत्र जन्म्यो. मात पितायें दांत घसावी नाख्या. एकदा कृषीश्वरनो संघाडो तेमने घेर आव्यो, तैवारे चिणेश्वरीय नमस्कार करीने पूज्युं के महाराज! अमारे घर आ दांत सहित पुत्र आव्यो, तेनुं गुं फल थाशे? ऋषियो बोल्या के जो तमें एना दांत नही घसत तो ए राजा थात. हवे ए दांत घसी नाख्या माटे बिंबांतरित राजा थाशे. पड़ी ते पुत्रनुं चाणाक्य एवं नाम दीधुं. ते पण आकरो श्रावक थयो, सर्व विद्या नस्यो, यौवनावस्था पाम्यो, रुडा कुलमां परणाव्यो, अन्यदा प्रस्तावें चाणाक्यनी स्त्री नाश्ना विवा ह माटें पीयर गइ. तिहां विवाह उपर बीजो पण बहेनों अम्वी, ते ना ससरा · महाधनवंत ने तेथी ते बहेनो वस्त्रानरण पहेरी जमी तांबूल नक्षण करी.उंची चढी बेती. अने चाणाक्यनी स्त्रीना अंगनां वस्त्र जूनां फाटां देखी हसवा लागी. तेथी ते धोकरी असंतोष धरती विवा ह करी पोताने धेर आवी. चाणाक्ये पोतानी नार्याने बामण दुमणी देखीने पूङयुं जे तुमने शी असमाधि उपनी ? पण ते बोली नही. ते वारें नारें घणो आग्रह करीने पूछु तारें तेणे पण पोताना पीयर संबंधी सर्व वृत्तांत कहूं. ते सांजली चाणाक्य इव्योपार्जन करवानो नपाय चिंत ववा लागो. तेवारें तेने कोक ब्राह्मणें कडं के पागलीपुर नगरें नंदराजा वर्षदिवसने.यांतरे ब्राह्मणने ददाणा आफै . एवं सांजली चाणाक्य पण 'तिहां गयो. राजाने घेर ज वीशामो सेवा माटे नंदराजांना सिंदासन उ पर चढी बेगे. राजानी दासीये कह्यु के हे विप्र! तमें बीजे को वासने बेसो. ते सांजली चाणाक्यें बीजे आसनें कममल मेल्यु. तेमज त्रीजे या सने मंग मूक्यो, चोथे जपमालिका मूकी, एमं चार सिंहासन संध्यां.अने पांचमे आसने जनोइमूकी, तेवारेंदासीयें तेने रीशथी उठाडी मूक्यो. चाणा क्ये पण रीसाइने एवी प्रतिज्ञा करी के हुँ खरो चाणाक्य तोज के ए नंदरा जाने समूलो उन्मूली ना! ए केही सनामांहेथी निकटयो आगल Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेजो. तां विचावा लाग्यो जे मने तो राज्य मलवानुं नथी, माटे हुं प्रधानज थाइश ! पण कोई राजयोग्य कुमर जीवं एम चिंतंवतो मयूरपोषकने गामें गयो. यावत् निकानिमित् तेने घेर गयो, ते अवसरें मयूरपोषकनी दीक ने गर्जने योगें चंडमा पीवानी दोहोलो उपन, पण कोई पूरी शके नही तेना बापें चाणाक्यने परदेशी जाली पूढयुं तेवरें चाणाक्य बोल्यो के ए पुत्र जन्मतांज जो मुफते खापो तो ई. दोहोनो पूर्ण करूं. बायें ते वात कबूल करी तेवारें चाणाक्यें पोतानी मतियें करी विड्युक्त नुं घर कराव्युं ते उपर एक पुरुष as पूरना माटे बानो चढ़ाव्यो. पती विशालथाल डुग्धमि श्रीप्रमुख परमान्नें जरी ते घरमां जिहां चंइमानो उद्योत बे, तिहां मूक्यो तेमां चंडमानुं प्रतिबिंब बे. माटें बायें दीकरीने तेडीने कयुं के व्हे पुत्रि ! ए चंदमा बे तेनुं तमें पान करो. तेवारें ते पुत्रीयें परमान्न पीवा मांग तेम तेम उपर रहेला पुरुष ले बिड् पण पूरवा मांमधुं, जेवारें संपूर्ण पान करी जीधुं. तेवा बि पण पूरी नाख्युं, घरमां अंधकार थयो. एम करीचं मानो दोहोलो पूरी कराव्यो. पूर्ण मासें पुत्र जन्म थयो, तेनुं नाम चंद्रगुप्त, पाड्युं. ( • वे गुप्त तहां मूकी चाणाक्य पोतें सुवविद्या साधवां जणी देशांतरें नमवा लाग्यो, सुवर्णसिद्धि करवानी विद्या पामीने चाणाक्य बार वर्षे पाढो तेज गामें मी. तेवारें चंद्रगुप्तने बोकरा साथें रमतो दीवो. तिहां चंद्रगुप्त पोतें राजा थयो बे, कोइक बोकराने प्रधान करो बे, केटला एकने खिजमतदार सेवक करया बे, एवी देखी चाणाक्य हर्षवंत थयो बोक .राने याशीष यापी कहेका लाग्यो के, हे राजा! श्रमने कांइक दान प्रापो, चं. इगुप्तें कयुं जान तमोने पांच गाम दीधांः एम कही नमस्कार की धो. वली लोकोनी. गाय जंती देखी चंद्रगुप्तें कह्युं के ए गाय पण तमें ल्यो. चाणा क्युं के ए पारक े ते केम लेवाय ! चंदगुप्तें कह्युं "वीरनोज्या वसुंधरा " एवचन सांजली विस्मित थको चाणाक्य पूढवा लाग्यो या बालक कहेनो बे ? तारें बीजा बोल्या ए परिव्राजकनो पुत्र बे. तें सांजली चाणाक्यें कहां, के हे व स! याव तुने राज्य देवरावं. तेवारें चंदगुप्त उठीने चाणाक्यने पगे लाग्यो 4 • ने बेहुजण देशांतरे चाव्या. पढी धातुर्वादादिकने योगें सुवर्णसिद्धिकरी ह स्ती, तुरंगम, गज पायदलादिक सर्व सैन्य एकतुं करी, लइने पामलीपुर नगरें Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः घेरो नाख्यो. नंद राजा पण युद्ध करवा साहामो याव्यो, पुंछ करतां देव योगें चाणाक्यतुं सैन्य नाग्यु. तेवारे ते चाणाक्य, चंगुप्तने साथें लइ जी वतो नाठो. पाउलथी नंद राजायें चाणाक्यने मारवा माटें केटलाएक घो डेसवार मोकल्या अने नंदराजा पाडो घेर व्यो. हवे ते सवारो दोडता दोडता चाणाक्यनी नजीक याव्या. ते जो चाणाक्ये चंगुप्तने कडं के हे वत्स! तुं नाशीने सरोवरमा प्रवेश. कर. ते तेमज कीg अने चाणा क्य पोते ते सरोवरने कांते योगीथ ध्यान धरवा बेतो. एवामां असवा र आवी चाणाक्यने पूबवा लाग्या. स्वामी! तमे इहां बे स्वरूपवंत यौवन वय पुरुषो जाता दीठा? चाणाक्य ध्याननंगना नयनो मोल घालीने संज्ञा थी सरोवरमा रहेलो चंगुप्त देखाड्यो. तेने काढवा माटें असवारें हथीया र धरती पर राख्या अने पोते पाणीमा प्रवेश करवा सांमयो. एटलामां चा शाक्ये उतावलथी उठी लघुलाघवी कलायें करी तेहज हथीयारथी तेनुं मस्तक कापी नारव्यु, पडी चंगुप्तने.पाएगीमाथी कादाढी अश्वत्तथा हथो यार लइ बेतु मार्ग चालता थया. तेवारें रस्तामां चंगुप्तने चाणाक्यें क झुं के हे वत्स ! में तुमने पाणीमां-बताव्यो ते वखतें तुमने महारी उपर ष नपन्यो के केम? ते कहे. तेवारें चंगुप्ते कयुं के इंतो एम समज्यो के जे तमें कयुं दशे, ते गुणने वास्तेज कह्यु हशे. . वली पागल जतां नंदराजानो बोजो असवार श्रावतो देखी फरी चा वाक्ये ते चंगुप्तने तलावमांप्रवेश कराव्यो अने त्यां को धोबी वस्त्र धोतो हतो तेने चाणाक्ये कयुं हे रजक! राजा रीसाणो ने ते लोकोने मारतो आवे , माटे जीवितव्य बांडगे तो पाहींथी नाशीजालं. रजकें पण उघा डे खड़े असवार थावतो दीठो, ते जोर धोबी नाशी गयो. पालथी चा पाक्य ते धोबीनां वस्त्र धोवा लाग्यो. तेने असवारें आवी. पूर्वनी पेठे पू ब्युं, तेने पण चाणाक्ये तेमज पूर्वोक्त बुद्रियें करी मारी नाख्यो. फरी बेहु जण तिहाथी पागल चाल्या. संध्या समय एक गामें गया, तिहां एक मोशीने घेर ज बेग एटलाम ते मोशीनो पुत्र व्यालु करवा बेगे तेने मोशीये उनी राब पीरशी , तेमां ते बोकरे उतावलें वचमां हाथ घाल्यो, तेवारें मोशीयें कयुं के दामो, रे पुत्र दामो. तुं पण चाणाक्यनी पेठे मूर्ख को थयो बो? ते सांजली चाणाक्ये मोशीने पूज्यु के माताजी ! Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. चाणाक्यने मूर्व केम कहो बी ? तेवारें मोशी बोली के चाणाक्ये प्रथमथीज पामलीपुर जरुंध्यं परंतु जो देश पोतांने वश करी पली नगरने घेरो पाल्यो हत, तो शुं बगडी जात? ए बुद्धि सांजली चाणाक्य विस्मयापन्न था हिमवंत पर्वतें गयो.तिहाँ एक गाममांजा पर्वतराजानी साथै प्रीति कीधी. एकदिवस अवसर जो चाणाक्य ते राजानी साथै मसलत करी के आपणे नंदराजानो देश वश करी पामलीपुरमाथी नंदरांजाने उगाडी अर्को अर्थ राज्य वहेंची लेलं, तेणे पण ते वात मान्य करी,पड बेदु एकता भली कटक मेलवी अनु कमें सर्वदेश वश करी नेहेलो पामलीपुरने विले घेरो नाख्यो,नंद राजायें युद्ध कझुं. तेमां नंदराजा हारी गयो,तेवारें धर्मशार माग्युं, तेने चाणाक्ये कह्यु के हे नंदराजा! जेटलु एक रथमां इव्य उपडे, तेटलुं लइ जाउ, तेथी अधिक लेशो मां. नंदराजा पण मणिरत्न सुवर्णादिक रथमांनी, एक स्व रूपवलना दीकरीने रथमां बेसाडी तिहांथी निकल्यो. एवामां चंगुप्त रथमां बेसी गाममां फरवा निकल्यो , तेनी उपर कुमरीनी दृष्टि पडी, तेथी अनुराग उपन्यो, तेवारें नंदराजा पुत्रीनो मनोगत नाव जाणीने बो व्यो के हे पुत्रि ! हुं सुखें ए चंगुप्त नरिने वर. तहारूं कल्याण था. एम कहेतांज ते पुत्री रथ उपरथी उतरीने चंगुप्तना रथ पर चढवा लागी. तेटलामां चंगुप्तना टूथना नव धारा नांगी पड्या तेवारें चंगुप्तें कह्यु के ए कन्या अगुनकारिणी छे माटें जवा द्यो..आपणा कामनी नथी. तेने चा पाक्यें कह्यु के ए गुकन नलु डे,एजें वर्जन म कर. नवारा नांग्या मात्रै तहारी नव पेढी पर्यंत राज चालशे, एम कही कन्या राखी. पडी पर्वतक अने चंगुप्त ए बेदु नंदना घरमां गया, तिहां लक्ष्मीनी वहेंचरण करवा लाग्या, ते घरमां एक कन्या दीठी, तेनी नपरें पर्वतक राजा सानुरागी थयो. तेवारे ते कन्या चाणाक्ये पर्वतकराजाने परणावी. परंतु ते विषकन्या हो वाथी तेना करस्पर्शनथी पर्वतक राजा विपत्ति पाम्यो.ते विषकन्याने योगे चंगुप्तने औषध विना व्याधि गयो ॥ यतः ॥ अर्थराज्यहरं मित्रं, योन हन्यात्स हन्यते ॥ तस्माहिनौषधेनैव, व्याधिबेत्तु गम्यते ॥ १ ॥ चंद गुप्त सर्वराज्यनो धणी थयो, राज्य पालवा लाग्यो. एवामां पामलीपुरनि वासी सर्व लोक मली विनति करवा लाग्या.के यहो स्वामी ! नंदराजा थ मारी पासेंथी स्वल्प कर लेतो हतो, प्रजाने आत्मजनी पेरें पालतो अने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः . हमणां तमारा राज्यमा तोअमें करें करी पीडित बै, मादे केम करीयें क्यां जश्य !!! तेवारें चंगुप्ते चाणाक्यंना मुख साहामुंजोयुं, तेणें विचायुं जे या लोकोने संतोष नहिं थाशे, तो लोक उचालो जरीने जाशे! एम विचारी लोकोने कर रहित कयां, तेने लीधे धायपद थोड़ी अने खरच घणो थवाथी नंमार खाली थतो देखीने 'चाणाक्य कांक नवीन नपाय चिंतववा लाग्यो, तेवारेंत्रण उपकास करी पूर्वना मित्र देवताने आराध्यो. ते देवतायें आवी ज़क्तिने प्रमाणे चाणाक्यने बेअजेय पासांथाप्या. पड़ी चाणाक्य ते शहेरना व्यवहारीयाने तेडी कोड कोड टकानां रत्न नंमारमाथी काहाढी द्यूत रमवा माटे कहेवा लाग्यो के जे. मुझने जुवटुं रमतां जीते, तेने ए रन सर्व आ. अने जे हारे ते ए रत्न माहेला रत्न सरखं एक रत्न आपे. ए रचने संतोष पाम्या थका ते व्यवहारिया रमवा लाग्या, पण दे वताधिष्ठित पासाना बलथी चाणाक्य जोती जाय. को कालें हारे नही. ते पण कदापि दैवयोगें हारी जाय, परंतु मनुष्यनव . हाथमांथी गयो ते फरी पामवो.महा उनन ॥ इति हितीयपासक दृष्टांतः ॥ २ ॥ हवे त्रीजो धान्यनो दृष्टांत कहे . कोइक रांजायें कौतुक माटें सर्व जातिनां नरतदेत्रमा उपजतां धान्यो एकतां करावी तेमां एक पाथो स रशवना दाणानो नाख्यो, ते धान्य साथें मेलवीने पंछी एकशो वर्षनी मो शीने तेडावी कह्यु के आ चोवीश जातिना धान्यनी राशिमांथी सर्व जाति नां धान्य.जूदां करीने वली एक सरशवनो पायो साथै मेलव्यो बे, ते काहा ढी यापो. ते वृक्षा मोशीथी एकोइरीतें जूदा थशकेज नही तेपण कदापि देव सहायथी सस्शव जूदा थऽ शके, पण जे मनुष्यावतार गयो ते फरी वीतरा गनी आशामांव-तोएवोमनुष्यनव पामवो उर्लन ॥इति तृतीय दृष्टांतः॥ हवे चोथी छूतनो दृष्टांत कहे जेः-कोश्क राजानी सचा एकशो आठ थांनायें करी समन्वित ले, ते वली एकेके थंनें एकशो ने आठ हांसो . ते राजा घणो र थयो पण मरण पामतों नथी, तेवारें महोटा बोकरायें विचायुं जे हुँ पण १६ थवा आयो. तो हवे .राजा क्यारें मरशे ने पढ़ी हुं ते राज्य क्यारें जोगवीश ! माटे कोई रीतें राजाने मारी नाखुं तोढुं रा जाथावं. ते लुपी वात प्रधाने जाणीने राजाने संनलावी. राजायें विचायुंजे पुत्र पण जीवतो रहे अने दुं पोते पण जीवतो रहूं! एवी युक्ति शोधुं. पड़ी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. बुद्धिना प्रपंचें कर। पुत्रने तेडावीने कयुं जे दे वत्स !. हुं वृद्ध थयो माटे तुं राज्य ले पण प्रथम आपणा घरनी चाल बे, ते कर. के जे की तुमने राज्य स्थिर थाय. कुमर बोल्यो के हे पिताजी! जे तमें प्रज्ञा प्रापो, ते डुं करूं. राजायें कयुं प्रापणी सचाना एक मंरुपें १०० थांजला बे यांन थांनले १०० हांस बे, माटे तमें मंहारी साथै जुबद्धं रंमो. तेमां एकवार जीतो तो एक हांस जीत्या एम १०७ वार जीतो तो एक थांनो जीत्या एवा १०८ यांना जीतीने राज्य ल्यो; पण जो रमत. रमतां वचमां एक दाव हारी जाशो, तो पाछला दाव सर्व व्यर्थं जाशे. ते वचन सांजली कुमर पण लोजना वशथी रमवा . बेतो. घणा दिवस रमतां पण एके यांनो जीती शकाया नही, तो सर्व सनाना थांजला क्यांथी जीत्या जाय ? कदापि ते पण को देवताना सान्निध्यथी जीत्या जाय, परंतु मनुष्यनवयी नष्ट थयो ते बीजी वार मनुष्यजन्म न पामे ॥ इति चतुर्थ द्यूतदृष्टांतः ॥ ४ ॥ हवे पांचो रत्ननो दृष्टांत कहे ठे:- वसंतपुर नगरें अपार धनंनो धणी गुणवान् धन्नो एवं नामें व्यवहारीयो वसे ले. तेने गुणवंत एवा पांच पुत्रो बे. हवे ते धन्नो शेव रत्नपरीक्षाने विषे निपुण बे, माटें तेनुं पर नाम रत्नपरीक्षक बे. जे जे बहुमूलां रत्न यावे, ते सर्वनो संग्रह करे, पण वेचे नही. तेवारें पुत्रो कहेंवा लाग्या के हे पिताजी ! बमणा त्रम या दाम यावे बे, तेम उतो रत्न कां वेचता नथी ? तो पण ते लोनवरों वेचे नहीं. एकदा ते शेठ ग्रामांतरें गयो, पछी पालथी पुत्रोयें. सर्व रत्न कोइ देशांतरीने वेचतां आपी दीधां. शेठ घेर खाव्यो, अने पोतानां रत्न वेचवाना सर्व समाचार सांजली रोशें करी कहेवा लाग्यो के हे पुत्र ! म हारां जे रत्नों बे, ते रत्नो पाठां यास्याविना मंदारा घरमां तमें आवशो नही. तेवा ते पांचे पुत्र रत्न लेवा माटे परदेश नली निकटया, पण ते सर्वे रत्नो तेवांने तेवांज क्यांथी मजे ? हवे ते पण कदाचित् कोइ देव ताना सहायथी मजी जाय, परंतु मनुष्यावतारथकी चष्ट थयो जे होय, ते फरी मनुष्यनवने पामे नही ॥ इति पंचम रत्नदृष्टांतः ॥ ५ ॥ स्वप्न दृष्टांत कहे बे:- कयणी नगरीयें बहोंतेर कलानो जाए एवो मूलदेव नामें राजपुत्र बे ते कलाकलापें करी सफल लोकने प्रीति उपजावतो रहे बे. एकदा ते उयणीमां देवदत्ता वेश्यानी उपर वे 0 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सिंदूरप्रकरः. २७ आकरो रागातुर थइने तिहांज रह्यो. तेने कोक व्यवहारीवे मानत्रंश करी काढयो. त्यांची निकली परदेश नमवालाग्यो.अनेक पृथ्वीना विनोद देखतो थको कोश्क. गामें मठमांहे जइ सूतो, सिहां स्वप्नमां चश्माने पोताना मु खमा पेसतो देखी जाग्यो, ते सममें तेज़ मनमां एक कापडीये एटल्ने को गुंसांश्ने चेले पण एकुंज स्वप्न दातुं. पी जागीने ते स्वप्नो विचार पोताना गुरु गुंसांपासें जलवा.लाग्यो, तेवारें गुंसांश्यें कह्यु के बाज तुंघृत खांम सहित.रोटलों पामीश! एई.जाणी मध्यान्ह समये ते निदामाटे गयो, तिहां कोक दातार पुरुषे घृत खांम सहित रोटला आप्या, तेल चालतो थयोअने मनमा प्रमोद पाम्यो. हवे मूलदेव तो शास्त्रनो जाण ठे माटे मम्यकी निकली फलफलादिक लइ स्वप्नपाठक आगल मूकी स्वप्न नो विचार पूख्यो. तेवारे पाठक बोल्यो के तमोने महोटुं राज्य मलशे ? ते ने तहत मानीने नगरमांहे निदा पामी कल्माषे करी मासोपवासी सा धुने पारंणुं कराव्यु. ते साधुनी नक्तिना प्रनावथी देवतातुष्टमान.थबोल्यो के हे मूलदेव! तुं एके वचनें जे विचारमा आवे, ते माग. तेवारें मूलदेव बोल्यों के दें स्वामी! हजार हस्ती बंधाय एवं राज्य देवदत्ता गणिका स हित पो. देवता बोटयो के एं सर्व तमें पामशो. तेवरि पनी सातमे दिवसें कोइक नगरें गयो, तिहां अपुत्रीयो राजा मरण :पाम्यो. ते नगरना लो कोयें राजानुं मृतकार्य करी राज्यना अधिकारी पंचने मेलवी पंचदिव्य प्रगट करी मूलदेवने राज्य आंप्यु. ए वात गुंसांना चेलायें सांजली तेवारें पश्चात्ताप करवा मांमयो जे अरे हुँ निर्बुदि मने स्वप्न साधुं ते फोकट हास्युं. पली वारंवार जश् तिहांज सुवे पण स्वप्न देखे नही. कदा चित् दैवयोगें वली ते कापडी. स्वप्न पण देखे, परंतु मनुष्यनवथी भ्रष्ट थयो ते फरी मनुष्यनव पामे नही ॥ इति षष्ठ स्वप्नदृष्टांतः ॥६॥ ___ हवे सातमो चकनो दृष्टांत कहे जे. इंइपुर नगरें इंदत्त राजा ने, तेने बावीश राणीयोना श्रीमाल प्रमुख बावीश पुत्रो बे, सर्व ते बहोंतेर कलामां प्रवीण जे, सर्व सौजाश्यना निधान ने, एकदा वली रा जायें मंत्रीनी पुत्रीने परणी. पाउलथी कर्मयोंगें ते मंत्रीनी पुत्रीने अने राजाने क्षेष थयो, तेथी राजायें तेने त्यागी दीधी, पिताने घेर जई रही. एम करतां घणा दिवस वीत्या, तेवारें एक दिवस राजायें बाहिर जातां ते Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. स्त्रीने गोंखें बेठी दीनी, ते दिवसें ते ऋतुस्नानवाली के.राजायें तेने साक्षात् रतिसमान देखी पोताना मानसोने पूयु के अरे ! ए स्त्री ते कोण जे? तेवारें एक सुनटें कहुं हे स्वामी ! ए मंत्रीनी पुत्री तमारी राणी , तेवारें राजा ते रात्रं तिहांज रह्यो. पनी नारययोगें कोक- पुर्ण्यवंत जीव तेने नदरें आवी उपनो. प्रातःकालें पुत्रीयें पिता आगल सर्व समाचार कह्या. तेवारें मंत्री ते दिवस, वेला, संकेत, इत्यादि सर्व यादी कागलें लखी राखी अने पूर्ण दिवस थये पुत्र जन्म्यो, तेनुं नाम सुरेंइदत्त दीg. पनी नऊल पक्ष्मां जेम चं इमा हर्ष उपजावे, तेम. हर्ष उपजावतो कमें कमें वर्धतो गयो. हवे तेज दिवसें मंत्रीनी दासीयें चार पुत्र प्रसव्या, तेनां नाम कहे . एक अग्नि कर, बीजो पर्वतक, त्रीजो बदुल, चोयो सागर अने पांचमो तेवी साथें सुरेंइदत्त, ए पांचे मली एकज उपाध्याय पासें जणवा लाग्या, तिहां प्रधाने सुरेंदत्तने नणाववा माटे कलाचार्यने सारी रातें ननामण दीधी, ते न परथी कलाचार्य पण घणी मेहेनत करीने नणाव्यो, दासीना 'चारे पुत्र विघ्न करे, पण सुरेंइदत्त विद्यान्यासज करतो रहे. वली राजाना बीजा जे बावीश पुत्रो , ते पण तेज नीशालमांजणे जे, परंतु ते राजमद यौवन मदें करीने उनंत थका गुरुनी साहामा वांकुं बोले, तेवारें कलाचार्य तैमने शीख आपे, तो रुदन करता मा दापनी बागल जाय. अने प्रधान तो अ ध्यापकने एज जलामा करे, के पुत्रने ताडना तर्जना करीने पण जगाच जो. तेथी उपाध्याय पण तेने खांतें करी विशेष जणावे, शास्त्रकला, राधा वेध प्रमुख सर्वकलाउ शीखी दुशीयार यो, नेवारें अध्यापकें सुरेंदत्त कुमरने लावीने प्रधानने सोंप्यो, प्रधाने पण अध्यापकने . सारीखतें दान दक्ष संतोषीने विसर्जन कस्यो. . . . . एवाअक्सरे मधुरानगरीयें जितशत्रुराजानी निवृत्ति नामें पुत्री बे, ते तरुण अवस्थाने प्राप्त थर, तेवारें मातायें सर्व शणगार पहेरावी तेना बाप पासें मोकली, पितायें तेनी सुरत देखी ए कन्या स्वयंवरने योग्य ने. एम चिंतवीने कयुं के हे पुत्रि! मतमानता जरतारने तमें वरो. पुत्री बोली हे पिताजी ! जे राधावेध साधे,तेने ढुं व ! कुमरीनी एवी प्रतिज्ञा जाणी राजाय वाम गम दूत मोकली कहेवराव्युं. अने इंदत्तने घणापुत्र ने माटे तेने तेडवा सारु प्रधान मोकल्यो, तेणे जर राजाने वीनव्यो के स्वामी! Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए सिंदूरप्रकरः तमारा पुत्रो सहित तमैं स्वयंवरने विषे पधारो. राजा पण बावीश पुत्रं परवस्यो थको प्रधान सहित स्वयंवर मंम आव्यो.. हवे जितशत्रुराजायें गुन मुहूर्ते सर्वनगर शणगायुं. पोतें नगर बाहिर सर्व परिवार सहित निकटयो, मंझप' कराव्यो, तेनी वचमां स्तंन उनो कीयो, उपर सृष्टिंसंदारें फरतां आठ आठ चक्र मांमयां, ते उपर पू तली मामी, उधामुखने धारण करनारी ते पूतली ले तेथी तेनुं नाम राधा पाडेलु ने. वली हेतल तेल नरेली एक कडाइमांमी. तिहां कन्या, पंचवर्णी सुगंध युक्त फूलनी माला लइ थंननी पासें यावी उनी रही. अने कहें ले के में पुरुष ए राधावेध साधशे, तेना कंठमां दुं था माला आरोपण करीश. एम कही सावधान थइ उनी रही. . ते.अवसरें इंश्क्त्त राजायें पोतानो महोटो श्रीमाल नामें पुत्र ले तेने दूर लइ जर कयुं के हे पुत्र !. तुं राधावेध साध. अने कन्या सहित ए राज्य लश् ले. ते वात सांजली ते पुत्र कंपवा लाग्यो, धनुष्य मात्र पण उपाडी न राक्यो, तथापि वली कांक साहस आदरी धनुष्य तो प्रयासे करी उपाड्यु, पण ते चढावी शक्यो नही, तेवारें विलखो यश्ने बोल्यो के अरें! या कार्य तो महाराथी थायज नही ! ___ एवामां वली बीजी कुंअर श्राव्यो, ते यावी धुनुभ्य चढावी तुरत पालो वल्यो. पडी त्रीजो कुमर भावी दृष्टियें जो पाडो वव्यो, तथा चोथो पुत्र तो अई रस्तेथीज जो पाडो बल्यो, अने पांचमो तो पोताना स्थान कथी उपयोज नही. एम बावीस कुमर विलखा थइ बेग, तेवारें राजानु मुख विलवाणुं जो प्रधानें कयुं के स्वामी! दुःखी म था. एक पुत्र त मारो हजी.पण डे, तेने राजायें पूब्युं के ते कयो पुत्र ? तेवारें मं त्रीश्वरें सर्व वृत्तांत कही संनलाव्युं अने कागल लावी नामों वंचाव्यां. राजायें पण ते वात संनारीने प्रधानने कयुं के ते पुत्रने तरत तेडीला वो. तेवारें मेहेते पण सुरेंदत्तने स्नान शंणगार करावी तेडी आणी राजाने पगे लगाड्यो. राजा ते पुत्रने देखी हर्षित मन.थयो थको चिंतव वा लाग्यो के ॥ यत्रोदकं तत्र वसंति हंसा, 'यत्रामिषं तत्र पतंति गृध्राः॥ यंत्रार्थिनस्तत्र नवंति वेश्या, यत्रारुतिस्तत्र गुणावसंति ॥ १ ॥ दवे राजा ये कयुं के हे वत्स ! ए राधावेध साधी कन्या सहित राज ल्यो. ते कुम Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनकथा रत्नकोप नाग पहेली. नीमुखात देखी लोक पण चमत्कार पाम्यां कुमर पण राजानो था देश पामी निश्चल मनें गुरुना चरणकमलने नमस्कार करी स्थंजनी नजीक ज धनुष्य नमनं कररी तत्काल धनुष्य चढावी तेलनी कढाइमांहे नीची दृष्टियें मुख जोते के उपर बाल क्यो. ते बारों राधानी यां खमांहेली की की वींधी, जेंवी वींधी के तुरत: यांचक लौकोयें जयजयारव कीधो, ने कन्यायें वरमाला घाली. राजा ने मंत्रीश्वर. ए बे हर्ष पा म्या, तिहां सुइदत्त कन्या सहित राज्यलक्ष्मीना सुख पाम्यो. एवी तें कोइ कदाचित् राधावेध साधे, पण मनुष्यनवथी ऋष्ट थयो, ते वली फरीने नरजव न पामे ॥ इति सप्तम चक्रदृष्टांतः ॥ ७ ॥ 1 हवे खामो कूर्मनो दृष्टांत कहे बे:- कोइक एक लक्ष योजन प्रमाण इह बे, तेमां एक महोटो काचो रहे बे. तेणें एकदा प्रस्तावें वायराने योगें सेवाल फूटे थके व्याकाश मंगलने विषे याशु शुदि पूनमनी रात्रें स कलकलायें संपूर्ण नयनानंदकारी, समग्र नक्षत्रें करी बिराजमान एवो चश्मा दोगे. तेथीं मनमां प्रमोद पाम्यो पढी पोताना कुंटुंबने देखाडवा माटें फरी पाएीमां सुबकी खाइने कुटुंबने तेडी लाग्यो, तेटलामां वायराने प्रसंगें सेवाल मांहोमांहे तेमज मली गई तेथी चं दर्शन थया विना एमज याखा • कुटुंबने प्रातुं फरवुं पड्युं. 'ते काचो वली पण कदाचित् चंडमा देखे, पण नरजव हारी गयो धर्मविना शिथिल थयो ते जीवं, फरी मनुष्यजन्म न पामे ॥ इत्यष्टम कूर्मदृष्टांतः ॥ ८ ॥ हवे नवमो युगनो दृष्ठांत कहे बेः तिर्यग् लोकमांहे लवण स मुखा दे गए मणां करतां असंख्याता द्वीप समुइ के, तेमां बे हलो स्वयं रमण समु राज्य प्रमाण भूमि संधी रह्यो बे, तेनों पू वैदिशियें घरेंसर नाखीयें घने पश्चिमदिशियें खीजी समील नाखीयें तो कहो तें पाठी केम मले ? अथवा ते समील धोंसराना बिमांहे केवी रीतें प्रवेश करे? कदाचित् 'देव प्रजावथी ते पण धोंसरमांदे खीली मले, पण जे जीव नरजवथको चष्ट थंयो, ते वली फरीने नरजव न पामे ॥ इति नवम युगदृष्टांतः ॥ ९ ॥ *" . ( वे दशमो परमाणुनो दृष्टांत कहे बेः- एक देवतायें महोटा पाषां ना यंजने वजें कर चूर्ण करों तेने अत्यंत पीशी वाटी मेरुपर्वतें Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः चढी वांसनी नलीमांजरी..फूंक साथें उडाव्यो, ते परमाणुधा पाना ए का करवा महा उर्लन ने तो पण कदाचित् देवना प्रनावें ते पण ए का मेलवी सकाय, पण मनुष्यनवथकी ब्रुष्ट थयेला जीवने ते मनुष्यजन्म पालो पामवो अति उनन ॥ इति परमाणुदृष्टांतः॥ ए दश दृष्टांत कह्या॥ ___ हवे मनुष्यगंवनो सर्वोत्कृष्ट जय कहे . ॥ मंदाक्रांताटत्तम् ॥ स्वीस्थाले दिपति स रजः पा दशौचं विधत्ते, पीयूषेण वरकरिणं वाहयत्यधनार म् ॥ चिंतारत्नं विकिरति कराहायंसोमायनार्थम्, यो.छुःप्रापं गमयति मुधा मय॑जन्म प्रमत्तः ॥५ ।। अर्थः-(मः के०) जे पुरुष, (प्रमत्तः के० ) मद्य, विषय, कषाय, निश,वि कथारूप. प्रमांदने वश थयो को (ःप्रापं के०) चोराशी लाखजीवयो निने विषे नमता जीवें महाकप्टें पामवा योग्य एवं (मर्त्यजन्म के०) मनु ष्यजन्म तेने, जिनधर्मविना (मुधागमयति के०).व्यर्थ गमावे , (सःके०) ते पुरुष, (स्वर्णस्थाले के०) सुवर्ण स्थालने विर्षे ( रजः के०)धूल एटले कचरादिक तेने (दिपति के) नाखे ले. अर्थात् सुवर्णस्थाल समान मनु ष्यजन्म जाणवू, तथा रजसमान प्रमाद जागवा. एटले प्रमादवशे मनु ष्यजन्म व्यर्थ जाय जे. वली पण ते पुरुष झुं करेंछे! तो के, (पीयूषेण के०) अमृतें करीने ( पादशौचं के० ) पादप्रदालनने (विधत्ते के०) करे , अर्थात् जे अमृतना बिंउमात्रनुं पान करवाथी अजरामरत्व प्राप्त थाय , ते.अमृतने पादप्रदालनने माटे वृथा गमावq ते अयुक्त जाणवू. तेम वली ते पुरुष मुकरे ? तो के (प्रवरकरिणं के०) उत्तम हस्तीप्रत्ये (ऐंधनारं के०) काष्टनारने (वाहयति के० ) वहन करावे . अर्थात् जे. हस्तीने पोताना हार आगल बांधे बते चारनी शोना थाय दे, तो ते हाथीएं काष्ठ लाववां, ते अयुक्त बे. वली ते पुरुष गुं करे ने तो के (वायस के०) कागडाने (मायनार्थम के०) उकाडवाने अर्थ. (चिंतारत्नं के०) चिंतामणिने (करात् के०) हाथथकी (विकिरति के०) फेंकेले. अर्थात् मनो वांडित अर्थने देना5 एवं चिंतामणि रत्न तेनुं कागडाने माडवाने माटे फें कवु ते अयोग्य , तेम धर्मसाधक पुरुषं मर्त्यजन्में करी प्रमाद करवो ते Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. अयुक्तज जे. तेथी हे नव्यजतो! एम जाणीने मनमां विवेक लावी प्रमादनो त्याग करीने धर्मे करीने मनुष्यजन्म सफल करवो धर्म आचरता एवा सऊन पुरुषोंने जे पुण्य ॥ इत्यादि पूर्ववत् ॥ ५ ॥ टीकाः-अथ भनुष्यनवस्य सर्वोत्कृष्टत्वमाह ॥ स्वर्ण स्थाल इति॥यः पुमान प्रमत्तः सन प्रमादस्य वशं पतितः सन् मद्य विषय कायनिश विकथारूप प्रमादवशं गतः सन् ःप्रापं चतुरशीतिलदजीवयोनिषु चमति जीवेन दुःखेन महता कटेन प्राप्यं यत् मर्त्यजन्म मनुष्यनवं तत् मुधा वृथा श्रीजिन धर्म विना निःफलं गमयति।स पुमान् स्वर्णस्थाले रजोधूलि कचवरादि विपति। वर्णस्थालतुल्यं मर्त्यजन्म रजःसदृशाः प्रमादाः॥पुनःसः पुमान पीयूषेण अ मृतेन कृत्वा पादशौचं चरणप्रदालनं विधत्ते करोति । पीयूषस्य बिमात्रपा नेनाजरामरत्वं स्यात् तत्पादप्रदालनार्य मुधावृथा गमयतीत्युक्तं ॥ पुनःसः पुमान् प्रवरकरिणं प्रधानहस्तिनं ऐंधनारं इंधनकाष्ठसमूहं वाहयति ॥ यस्मि न गजे हारिबऽऽपि सति शोजा नवति । तेन इंधनानयनमयुक्तं ।। पुनः संः पुमान् वायसोफयिनार्थ काकस्य उगायननिमित्तं चिंतामणिरत्म करात् ह स्तात् विकिरति विदिपति ॥ यथा मनोयां बितार्थदायकस्य चिंतामणिरत्नस्य काकनायनार्थ विदेपणमयुक्त तथा धर्मसाधकेन मर्त्यजन्मना प्रमादसे वनमयुक्तं । जो जव्यप्राणिन् ! एक ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय प्रमादं त्य तवा धर्मेण कृत्वा मनुष्य जन्म सफल कार्य ॥ धर्ममाचरतां सतां यत्पु. एयमुत्पद्यते तत् पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ ५ ॥ नापाकाव्यः-सवैया ठेवीशा॥ज्यौं मतहीन विवेक विना नर, साजि मतंगज इंधन ढोवै ॥ कंचन नाजन धूलि नरे सन, मूढ सुधारसस्र पुग धोवै ॥ बोहितकाग उमावन कारन, मारि महामनि मूरख रोवै ॥ त्यौं नरदेह उतंभ बनारसि, पाश् अजान अकारथ खोवै ॥ ५ ॥ हवे जे संसारना विषय माटे धर्मनो त्याग करे ले, ते मूढ पुरुषजाणवातेकहेले. ॥ शार्दूलविक्रीडितसत्तम् ॥ ते धचूरतरं वपंति नवने प्रो न्मूल्य कल्पजुमम्, चिंतारत्नमपास्य काचशकलं स्वीकुर्व ते ते जडाः॥विक्रीय घिरदं गिरीसदृशंक्रीति ते रासनं, ये लब्धं परिहत्य धर्ममधमा धावति नोगाशया ॥६॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ___३३. अर्थः- (ये के ) जे.(अधमाः के०) मूर्ख पवा पुरुषों (लब्ध के०) प्राप्त थयेला एवा (धर्म के०) धर्म जे तेने (परिहृत्य के ) त्याग करीने (जोगाशया के ) जोगविषय वांबनाने अथै, (धावंति के ) दोडे डे, अर्थात् विषयार्थमा प्रवर्ने , (ते के) ने नरो, (जवने के०) पोताना गृहनेविषे उत्पन्न थयेला (कल्पमं के०) कल्पवृक्ने (प्रोन्मूख्य के०) काढी नारखीने (धत्तूरतसै केय) धतुरांना वृक्षने (वपंति के०) अारोपण करे , वली (ते जडाः के०) ते जड पुरुषो गुं करें ? तोके (चिंतारत्नं के०) चिंतामणि रत्नने (अपास्य के०) त्याग करीने (काचशकलं के०) काचना कटकाने (स्वीकुर्वते के०) स्वीकार करे . वली.(ते के०) तेजड पुरुषो, (गि रीसदृशं के) पर्वतसमान उंचीकायावाला (वरदं के०) हस्तीने (विक्रीय के०).वेचीने (रासनं के०) गर्दनने (क्रीणंति के०) मूल्ये करीने ग्रहण करे .आकाणे कल्पवृदसदृश धर्म जाणवो,तथा धंतुराना वृदसमान विषय जाणंवा, तैवी रीतें सर्वत्र सारां दृष्टांतो धर्मने लगाडवां तथा अन्य दृष्टांतो विषयने लगाडवां. माटे हे जव्यजनो ! एम मनने विर्षे विवेक लावीने कल्पवृक्ष तथा चिंतामणि समान; श्रीजिनेश्वरना धर्मनुंज आराधन कर. आराधन करनार, जे पुण्य ॥ इत्यादि पूर्ववत् ॥ ६ ॥ टीकाः- ये तु अंसाराणां .विषयाला कते धर्म त्यति ते मूढा एवं त्याह ॥ ते धत्तूर इति ॥ये अधमा मूर्खाः पुरुषाः लब्धं प्राप्तं धर्म परिहत्य त्यक्त्वा जोगाशयां . विषयवांबया धावंति । विषयार्थ प्रवर्तते, ते नरा जवने स्वगृहे प्रोगतं उत्पन्नं कल्पवृदं प्रोन्मूख्य उत्खाय धत्तूरतरं वपंति थारोपयंति । पुनस्ते जडाः मूर्खाः चिंतामणिरत्नं अपास्य त्यक्त्वा दूरीकत्य काचशकलं काचरखं; स्वीकुर्वते गृएहंति ॥ पुन स्ते जडा गिरीसदृशं पर्वत प्रायकायं उच्च हिरदं हस्तिनं विक्रीय रासनं गर्दनं क्रीएंतिमूल्येम गृएहति ॥ अत्र कल्पवृदसदृशोधर्मः । धत्तूरसदृशा नोगाः एवं सर्वत्रोपनयः। जो न व्यप्राणिन् ! एवं झात्वा मनसि.विवेकमानीयं कल्पदावितामणिसदृशः श्री जिनधर्मएवाराध्यः आराधयतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरो तर मांगलिक्यमालाविस्तरंतु ॥ ६॥ . ॥ जाषाकाव्यः-ज्यौं नरमूल उखारि कल्पतरु, बोवन मूढ कनकको खेत ॥ ज्यौं गजराज वेचि गिरिवरसम, क्रूर कुबुद्धि मोल खर लेत ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ . जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. जैसे बांमि रतन चिंतामनि, मूरख काच खंझ मन देत ॥ तैसे धरम विसारी बनारसि, धावत अधम विषय सुख हेत ॥ ६ ॥ ___ कथाः-ए अर्थ उपर शशी सूरनो दृष्टांत कहे जेः-श्रा नरत देवमांहे शुक्तिमती नामा नगरीने विषे शशीनामा राजा राज्य करे ,तेमाहाप्रतापी जे, तथा तेनो लघुनाइ सूर एवं नामें जे. ते बैदु भाई एक दिवस रयवा डीयें चढया, वनमांदे उदनी नीचें साधुने बेंग दीग, तेवारें अश्वथी . उतरी बेहुनायें साधुने वांद्या, साधुये पण धर्मलान, आपी उपदेश देवा मांमयो ॥ गाथा ॥ माणुस्स खित्त जाई, कुज रूवारोग आउयं बुदि॥ सवा पुग्गह सिदा, संजम लोगंमि मुनहो लहियं ॥१॥ माटे तमें सत्पु रुष बो, ते धर्मने विषे प्रमाद म करो ॥ गाथा ॥ चिकणघडेण साचिय, ढलीकणं पाणियं जाई॥ कोरं कुंनं च दश, तहावि नवजीवाणं ॥ १ ॥ श्त्यादि उपदेश सांजली सूरराजा दीदा ला पुष्कर तप करवा तैयार थयो. अने शशीप्रत्ये नाइपणांना हितने माटें कहेवा लाग्यो के है बांधव ! या जीवें जन्मो जन्म नोग नोगव्या, समुन्नी जेटलां पाणी पीधां, मेरु जेटलां धान्य आरोग्यां, तो पण तृप्ति न थ. तैने शशी कहेवा लाग्यो के हे बांधव ! एवो कोण मूर्ख होय के जे नला राज्यनोग, ललित लो चना स्त्री, पान, फूल नंबोलादि उत्तम प्रकारना जोग इत्यादि सामग्री संबंधी सुख तेने त्यागीने परलोकना सुखने अर्थे उपवासादिक कष्ट करे, पर लोक में के नथी ते कोणें जोयो ? माटें तमें माह्या हो, तो आ बता जोग नोगवो, पोताना जीवने शाता आपो, अंतराय म करो, यौवन पा मेलु फोकट म गमावो; एवा नाश्नां वचन सांजलीने सूरराजा खिन्न थयो. पनी गुरुपासेंथी चारित्र ग्रहण करी सर्वपरिग्रह बांमी चारित्र पा लवामां तत्पर थयो. अंत्यावस्थायें अपसण बाराधी स्वर्ग गयो. अने शशी राजा विषयासक्त थको मरण पामी नरकें गयो. सूरराजायें देवलो कमे विषे अवधिज्ञानने बलें करी पोताना नाइने नरकनां कुःख जोगवतो दोतो, तेवारें देवलोकथी निकली नरकमां जर आपणां रूप तेज शक्ति प्र गट कीधां, ते देखी शशी बोल्यो के हे बांधव ! अद्यापि ते महारो देह पज्यो डे, माटें तुं जश्ने ते देहनी यत्ना करके जेम हुँ नरकथकी निकली सुखी था ! ते सांजली सूर बोल्यो के अरे मूर्ख! जीवरहित देह पज्यो जे ते छं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ३५ • सुकृत करशे ? प्रथमथीज. तें कोई कष्ट करयुं हृत तो या नरकमां तुं त . नही. हवे तुं तहारुं मन गम राखी कर्म खपाव, करेला कर्मनो पश्चात्ताप कर, मागले नवें सुखी थाइश एवं कही सूर पोतार्ने स्थानकें प होतो. एम कोइक जीव राशीनी पेरें मनुष्यनंवमां धर्म न करे, ते बागल पश्चात्ताप पामे. मांटे. सर्वको धर्म करो ॥ ६ ॥ हवे मनुष्य जन्मनुं तथा धर्मसामग्रीनुं दुर्जनपणुं कहे बे. || शिखरिणीवृत्तमं ॥ पारे संसारे कथमपि संमा साद्य नवम, न धर्म यः कुर्याद्विषयसुखतृष्णातर लितः ॥ ब्रडन् पारावारे प्रवरमपंदाय प्रवहणम्, स. मुख्योमूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ॥ ७ ॥ अर्थः- (यः के०) जे पुरुष, (विषय के०) शब्द, रूप, रस, स्पर्श, गंध, तेमनी (सुख के०) सुख तेनी (तृष्णा के० ) वांडा ते करीने ( तर लितः के० ) व्याकुल थयो थको ( पारे के० ) अनंत एवा ( संसारे के० ) सं सारने विषे ( कथमपि कै० ) महाकष्टें करीने (नृजवं क्रे० ) नरजवत्वने ( समासाद्य के० ) पामीने ( धर्म के० ) धर्मने ( न के० ) नहिं ( कुर्यात् के० ) करे, (सः के० ) ते पुरुष, ( पारावारे के ) समुड्ने विषे (ब्रुडन् ho ) बूडतो तो ( प्रवरं के०) उत्तम एवं ( प्रवहणं के० ) वाहाणने (अ पहाय के० ) त्याग करीने तरवाने माटे ( उपुलं के० ) पाषाणने ( उप धुं के ० ) ग्रहण करवाने ( प्रयतते के० ) प्रयत्न करे बे, एटले उद्यम करे. ले. ते पुरुष कहेवो जाणवो ? तो के ( मूर्खासां के० ) मूर्खोना मध्यें ( मुख्यः के० ) मुख्य जाणंवो. अर्थात् ते पुरुष, मूर्खोमां मोहोटो मूर्ख जा rat. या ठेका संसार ते समुड् जाणवो ने धर्म, ते वाहाण जावं. विषयो ते पाषाण समान जाणवा. माटे हे नव्यजनो ! या प्रकारें जालीने मनमां विवेक लावीने संसार समुड्तारक एवा धर्मनुंज आराधन करो. आराधन करता एवा सनोने जे पुण्य नृत्पन्न याय के ते पुण्य ॥ इत्यादि पूर्ववत् जाणवुं ॥ ७ ॥ · टीका:- अथ नरनवस्य धर्मसामुय्याश्च दुर्लभत्वमाह ॥ पारे संसा रेति ॥ यः पुमान् विषयसुखतृष्णातर जितः सन् विषयाणां कामजोगानां शब्द Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष माग पहेल्लो. रूपरसस्पर्शगंधानां सुखस्य तृष्णा बांडा तया तरलितो वाहितो व्याकुली कृतः सन् अपारे अनंते संसारे कथमपि महता कष्टेन नृनवं मनुष्यजन्म स. मासाद्य प्राप्य धर्म न कुर्यात् न करोति । सः पुमान पारावारे समुझे ब्रुड न निमऊन प्रवरं उत्तमं प्रवहणं पोसं अपहार्य त्यक्त्वा तरणार्थ उपलं पाषाणं उपलब्धुं गृहीतुं प्रयतते यत्नं करोति उद्यमं करोति ॥ कथंनूतः सः। मूर्खाणां मुख्यः मुर्वेषु वृधमूर्ख यत्र संसारःसमुः। धर्मः प्रवहणं। विषयाः पाषाणसदृशा इत्युपनयः॥नी जव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय संसारसमुस्तारकः श्रीधर्मएव आराध्यः।आराधयतां च स तां यत्पुल्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु॥७॥ नाषाकाव्यः-सोरतो॥ज्यों जल बूडत कोइ, तजि वाहन पाहन गहै। त्यौं नर मूरख होइ, धरम बमि सेवत विषय ॥ ७ ॥ हवे आ ग्रंथमा जेटलां उपदेशनां धारो कहेवानां ने ते उपदेश झारें । .. . करी सर्वहारो कहे ले. ॥शार्दलविक्रीडितरत्तत्रयम् ॥ नक्ति तीर्थकरे गुरौ जिन मते संघे घहिंसानृतं,स्तेयाब्रह्मपरिग्रहाद्युपरमं क्रोधाय रीणां जयम्॥ सौजन्यं सुणिसंगमिडियदमं दानं तपोनाव . नां, वैराग्यं च कुरुष्व निर्वतिपदे यद्यस्ति गंतुंमनः॥७॥ . अर्थः हे नव्यप्राणीयो ! ( यदि के ) जो तमाळं.( निवृतिपदे के०) मोपदने विषे ( गंतुं के०) जावानुं ( मनः के) मन ( अस्ति के० ) बे, तो तमें १ (तीर्थकरे के) तीर्थकरने विषे एटले श्रीवीतसगने विषे (नक्ति के०') गुणोत्कीर्तनरूप भावपूजाने ( कुरुष्व के०) करो. वली २ (गुरौ के) धर्मोपदेशक गुरुने विषे नक्तिने करो. नक्ति अने कुरुष्व एबे पदो, सर्वत्र योजवां. वली ३ (जिनमते के०) श्री जिनशासननेविषे नक्तिने करो. वली ४ (संघ के०) चतुर्विध श्रीसंघने विषे नक्तिने करो. (च के०) तथा ५ ( हिंसा के०) जीववध प्राणातिपात, ६ (अनृतं के०) असत्य ते मृषावाद तेने तथा ७ (स्तेय के०) अंदत्तादान एटले परवस्तुनुं ग्रहण करवं. ७ (अब्रह्म के०) स्त्रीसेवा, मैथुन, तथा ए (परिग्रहादि के०.) धन धान्यादि नवविध परिग्रहादि ते थकी (उपरमं के०) निवर्तन जे तेने Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , सिंदूरप्रकरः ३० करो. तथा (क्रोधाद्यरीणां के० ) १० क्रोध, ११ मान, १७२ माया, १३ लोन, ते रूप शत्रुनो (जयं के०) अयने करो. तथा १ (सौजन्यं के) सुजननाव ते. सर्व जोवोने विषे मैत्रिनाक तेने करो. तथा १५ ( गुणिसंगं के ) गुणवान मनुष्योनो संग जे संगति तेने करो. तथा १६ (इंडि यदमं के०) पांच इंडियोनु दमन करो: वनी १७ (दानं के०) सुपात्रादि पांच प्रकारना दानने करो: वली १७ (तपः के०),तप ते अनशन कनो दर्यादि बाह्य अने अन्यंतर मली बार प्रकारनुं तेने करो. तथा .१ए (जावनां के०) गुनचित्त नावने करो. (च के०) वली २० वैराग्यं के०) संसारथकी जोगादिकथकीजे विरक्तनांव तेने करो. एटलांवानां मोदपददायक जाणीने रूडे प्रकारें बाराधन करवां. बाराधना करनार सुजनोनुं जे पुस्य । इत्यादि पूर्ववत जाण ॥॥ ए प्रकारे या काव्यमां सर्व मली वीशहार जे आ ग्रं थमा हवे कहेवारो, ते धारनां नाम कह्यां. .. . टीकाः अथास्मिन् शास्त्रे एतान्युपदेशहाराणि कथयिष्यंते ॥ इत्युपदेश हारेण धारवृत्तमाह ॥ नक्तिमिति ॥ जो नव्यप्राणिन् ! यदि तव नितिपदे मोदे गंतुं मनोऽस्ति । तदा त्वं तीर्थकरे श्रीवीतरागे नक्तिं नावपूजां गुणोत्कीर्तनरूपां कुरुष्व ॥ १ ॥ पुनर्गुरौ धम्मपिदेशके नक्तिं कुरुष्व ॥२॥ पुनः जिनमते जिनशासने नक्तिं कुरुष्व. ३ ॥ धुनः चतुर्विधसंघे नक्तिं कुरुष्व ॥ ४॥ हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहाद्युपरभ कुरुष्व ॥ ए॥ हिंसा जीववधः प्राणातियातः ॥ १॥ अनृतं, असत्यं मृषावादः ॥ २ ॥ स्तेयं चौर्य अदत्तादानं अदत्तपरस्ववस्तुग्रहणं ॥३॥ ब्रह्म मैथुनं स्त्रीसेवा ॥३॥ परिग्रहो धनधान्यादि नवविधः ॥५॥ एन्य उपरमं निवर्त्तनं कुरुष्व ॥॥ त्रव्युपरमोऽपि पाठोनवति पुनः क्रोधादरीणां क्रोध, ॥१०॥ मान, ॥११॥ माया, ॥१२॥ लोन, ॥१३॥रूपारीणां जयं कुरुष्व । पुनः सौजन्यं सुजनना वं सर्वजीवेषु मैत्रिनावं कुरुष्व ॥ १४ ॥ पुनः गुणिसंगं गुणानां गुणवतां मनुष्याणां संगं.संगतिं कुरुष्व ॥ १५ ॥ पुनः इंडियदमं पंचेंड्रियाणां द मनं कुरुष्व ॥ १६ ॥ पुनर्दानं सुपात्रादि पंच प्रकारं कुरुष्व ॥१७॥ पुनस्त पोऽनशनमूनोदर्यादि बाह्यं न्यंतरं च छादश विधं कुरुष्व ॥१७॥ पुनर्नाव नां शुनचित्तनावं कुरुष्व ॥ १५॥ पुनर्वैराग्यं संसारात् नोगादिन्यश्च विरक्त जावं कुरुष्व ॥२०॥ एतानि मोदपददीयकानि ज्ञात्वा सम्यक् प्रकारेणाराध Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. नीयानि ॥ आराधयतां सतां यत्पयते पुण्यं तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमां गलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ ७ ॥ जाषाकाव्यः-उप्पय ॥ जिन पुऊहि गुरु नमहि, जैनमत बैन बखानहि ॥ संगनगति आदरहि, जीवहिंसा नहि जानहि ॥ फूठ कुसील अदत्त, त्याग परिग्रह परिमानहि ॥ क्रोध मान बंल लोन, जीति सङन थिति गगनहि ॥ गुन संग करहि इंघिय दमहि, देहि दाम तप जीव जुत ॥ गहि मन वि राग इह विधि रहहि, ते जगमें जीवन मुकृतं ॥ ७॥ , हवे जेवो उद्देश तेवों निर्देश एवं वचन माटें प्रथमना श्लोकमां कहेला जे चारो तेने यथाक्रमें विवरे , तेमां प्रथम चार ___श्लोकें करी श्रीतीर्थकरनी चक्तिनुं हार कहे . , पापं लंपति उति दलयति व्यापादयत्यापदम्, पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम्॥ सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः, . स्वर्ग यति निवृतिं च रचयत्पर्धाऽर्हतां निर्मिता अर्थः- हे नव्यजलो'! (अहला के०) जिननगवंतोनी (निर्मिता केस) करेली एवी (अर्चा के) गुणोत्कीर्तन, वंदना, पर्युपास्त्यादि एवी नाव पूजा जे , ते (पापं के०) पापने (लुंपति के) दूर करे . वली ते नाव पूजा, (उर्गतिं के) उर्गति एटले नरकादिकं जे उष्टगति तेने (दलयति के०) खंमन करे , अर्थात्. निवारण करे . वली ते नावपूजा, (आपदं के० ) कष्टने ( व्यापादयति के०) विनाश करे . तथा वली ते नाव पूजा, (पुणं के० ) पुण्य जे धर्म तेने ( संचिनुते के०) वृद्धि पमाडे ले. तथा तें जावपूजा, (श्रियं के०) लक्ष्मीने (वितनुते के) विस्तारे , वली ते नावपूजा, (नीरोगतां के०.) शरीरने विषे जे आरोग्यता तेने (पुमाति के० ) पोषण करे , वली ते नावपूजा,( सौनाग्यं के०) सर्व जनोमां जे श्लाघनीयता, तेने (विदधाति के०) करे . वली ते नावपूजा, (प्रीति के०) प्रीतिने (पन्नवयति के०) उत्पन्न करे . वली ते नाव पूजा, ( यशः के) यशने (प्रसूते के० ) प्रसवे ने एटले विस्तारे . तथा ते नाव Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ३ए पूजा, (स्वर्ग के० ) देवपीने (यति के०) पे ले(च के०) तया ते नावपूजा, (निवृति के०)नितिने (रचयति के०) रचे जे नत्पन्न करे . माटें हे नव्यजनो! ए प्रकारे विवेक लावीने मनने विषे जाणीने रुडा प्रकारे नि मल पणाने आपनारी एवी. अने या लोक तथा परलोक, तेने विषे सर्व सौ ख्यने देनारी एवी वंदनादि गुणस्तुति रूंपश्रीजिननी नावपूजा, करवा योग्य बे. ते नावपूजा, करनार सङनने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥९॥ ____टीकाः-अथ यथोदेशस्तथैव निर्देश इति वचनात् अनुक्रमेण धाराणि विवृणोति ॥ तत्र प्रथमं चतुर्वित्तैः श्रीतीर्थकरलक्तिधारमाह ॥ पापं चुप तीति ॥ जो नव्याः! अर्हतां जिनानां नावपूजा, गुणोत्कीर्तनवंदना पर्युपास्त्यादि निर्मिता कृता सती पापं झुंपति दूरीकरोति । पुनर्गतिं नर कादिष्टगति: दलयति खंम्यति निवारयति । पुनः आपदं कष्टं व्या पादयति विनाशयति । पुनः पुण्यं धर्म संचिनुसे वृद्धि प्रापयति । पुनः श्रियं लक्ष्मी वितनुते. विस्तारयति पुनर्नीरोगतां शरीरे आरोग्यं पुष्णाति पोष यति । पुनः सौजाग्यं सर्वजनेषु श्लाघनीयतां, विदधाति करोति । पुनः प्रीति पल्लवयति उत्पादयति । पुनर्थशः प्रसूते.यशोविस्तएयति । पुनः स्वर्ग त्रिदिवं देवपदं यति ददाति । पुनर्निर्वृतिं रचयति ददाति । जो नव्यप्राणि न ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय सम्यनिर्मलविधायिनी श्ह लोके परलो के च सर्व सौख्यदायिनी वंदनादि गुणस्तुतिः श्रीजिनभावपूजा कार्या । कुर्वतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ए नाषाकाव्यः-मात्रात्मक कक्ति लोपै फुरित हरै फुःख संकट, आपैं रोग रदिवनर देह ॥ पुन्न नंमार नरै जस प्रगटैं, मुगतिपंथसों करै सनेह ॥ रचै सुहाग देहि सोना जग, परनवे पहुंचा सुरगेह ॥ कुगति बंध दल बलैं बनारसि, वीतराग पूजा फल एह ॥ ७ ॥ वली पण श्रीजिनवरनी जावपूजाना फलने कहे जे. स्वर्गस्तस्य गृहांगणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुना, सौभाग्यादिगुणावलिर्विलसति स्वैरं वपुश्मनि ॥ संसारः सुतरः शिवं करतलकोडे लुउत्थंजसा, यः । श्रधानरनाजनं जिनपतेः पूंजां विधत्ते जनः॥१०॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४० जैनकथा रत्नकोषनाग पदेलो. अर्थः- (यः के०) जे (जनः केश) पुरुष, (.अक्षा के०) पूजा रुचि तेनो. (जर के) नार एदने प्रचुरता तेनुं (नाजनं के०) पात्र थयो तो अर्थात् गुन नावना युक्त थयो बतो.(ज़िनपतेः के०).श्री वीतरागनी (पूजां के) नावपूजाने (विधत्ते के०) करे, (तस्यं के०) ते पुरुषने (स्वर्गः के०). दे वलोक ते, ( गृहांगणं के० ) गूहना थांगणानी पेठे निकट थाय . वली (शुजा के० ) मनोहर.एवी ( साम्राज्यलक्ष्मीः के०) साम्राज्यनी शकि, ते पुरुषने ( सहचरी के ) साथें वर्सनारी थाय . तथा ( वपुः के०) श रीर तेज (वेश्मनि के) घर तेने विषे ( सौन्नाग्यादि के ) सौजाग्य, धैर्य औदार्यादि (गुणावलिः केर) गुणोनी पंक्ति, ते (स्वैरं के०) पोतानी इलायें ( विलसति के०) आवीने.विलास करे बे. अर्थात् रहे बे. वली (संसारः के ) संसार ते (सुतरः के० ) सुखें करीने तरवाने शक्य. थाय . वली (शिवं के० ) मोद, ते (अंजसा के ) अनायासें करी शीघ्र, ते पुरुषना ( करतलकोडे के.) हस्ततलमध्ये ( जुतति के० ) हस्तगोचर थांय . मोटे हे नव्यजनो! एम जाणीने मनने विषे विवेक लावीने, जिनप्रनुनी नावपूजा करो, ने पूजा करनारने जे पुण्य ॥ इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥१०॥ ____टीकाः-पुनः श्रीजिनस्य नावपूजायाः फलमाह ॥ स्वर्गस्तस्येति ॥ यो जनः श्रधानरत्नाजनं सन् श्रुदारुचिः तस्या जरः प्रचुरता तस्य नाजनं स्वानं नाजनशब्दस्यांजहानिंगत्वान्नपुंसकत्वं गुजनावनायुक्तः सन् जिन पतेः श्रोवीतरागस्य नावपूजां विधत्ते करोति तस्य जनस्य स्वर्गो देवलोको गृहांगणं गृहस्यांगणवन्निकटो नवति । पुनः गुना मनोहरा साम्राज्यल क्ष्मीः राज्यविस्तस्य सहचरी सार्थवर्तिनी नवति । पुनर्वपुर्वेइमान व पूरेव शरीरमेव वेश्म गृहं तस्मिन् सौंलाग्यधैर्यौदार्यचातुर्यादिगुणानां आवलिः श्रेणिः स्वैर स्वेचया विलसति आगत्य विलासं करोति तिष्ठतीत्यर्थः। पुनः संसारः सुतरः सुखेन तीर्यते इति सुतरः सुखेन तरीतुं शक्योनवति । पुनः शिवं मोक्षः अंजसा शीघ्रं तस्य करतलकोडे हस्ततलमध्ये खुति हस्तगोच रोनवतीत्यर्थः ॥ अतोनांवाईतः नत्पन्नकेवलझानाश्वतस्त्रिंशदतिशयैर्विरा जमानाः समवसरणस्थाः इति ॥ यतः ॥ उसरणमवसिरित्ता, चउत्तीसं अश् सए निसेवित्ता ॥ धम्मकहं च कहंता, अरिहंता ढुंतु मे सरणं ॥ १ ॥ इति वचनात् ॥ लो नव्यप्राणीन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, सिंदूरप्रकरः अर्हतां नावपूजा कार्यो । कुर्वतां च यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्त रोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ १०॥ नाषाकाव्यः-वृत्त उपर प्रमाणे ॥ देवलीक ताको घर अंगन, राजरिधि सेवें तस पाइ ॥ ताके तन सोनाग आदि गुन केचि विलास करें नित था॥ सो नर तुरत तरै नबसागर, निरमलं हों। मोपद पाइ ॥ दरव नाव विधि सहित बनारसि,जों जिनवर पूजे मन लाइ.॥ १० ॥ __ वली पणं जावपूजा, फल कहे जे. ॥शिखरिणीटन्तम् ॥ कदाचिन्नातंक कुपितश्व पश्य त्यनिमुखम्, विदूरे दारिद्र्यं चकितमिव नश्यत्यनुदि नम् ॥ विरक्ता कांतेव त्यजति कुंगतिः संगमुदयो, न मुंचत्यन्यर्ण सुहृदिव जिनार्चा रचयतः॥११॥ • अर्थः-( जिनाचा के०) श्रीवीतरागनी वंदनादि नावपूजाने (रचय तः के०) करता एवा पुरुषोने (आतंकः के०.) नय, ते (कदाचित् के०) को वखत पण (अनिमुखं के०) सन्मुख (न पश्यति केए)जोवे .ते केनी पेठे ? तो के जेम को (कुपितश्व के०) कोश्नी उपर कोपायमान थयो होय ते तेनी सामुं न जोवें, तेनी पेठे याही पण जागी बु. तथा (दारियं के०) दारिजे जे ते तेनाथी (अनुदिनं के०) निरंतर (विदूर के०) घणेज दूर (नश्य ति के०) नासे ,अर्थात् तेनाथी दारिद्र्य दूर जाब ने, केनी पेठे ? तो के (च कितमिव के०) ते दारिश्य जाणीचे नयनीत थयुं होय नहिं ? तेनी पेलें. वली (कुगतिः के०) नरकादि मुगति, ते पुरुषना (संगं के०) समीपपणाने (त्यज ति के०) त्याग करे जे. एटले तेने मकी देने, केनी पेठे? तो के (विरक्ता के०) विरक्त थयेली एवी (कांतेव के०) स्त्री जेम होय तेनी पे. अर्थात् जेम विरक्त स्त्री, स्वामीना संगनो त्याग करे , तेनी पेठे. वली ( उदयः के०) अन्युदय, जे प्रताप, ऐश्वर्या दिक. ते (अन्यर्ण के!) ते पुरुषना समीपपणाने (नमुंचति के) न मूके डे, केनी.प्रेजें ? तो के ( सुदिव के०) मित्रनी पेठे. ए कारण माटें अर्हत्प्रनुनी नावपूजा जे वंदनादिक ते करवा नोग्य बे, माटे हे नव्यजनो ! ए प्रकारे जाणीने मनमां विवेक लावीने श्रीजिन वरनी नावपूजा करवी. करताएवासुजन पुरुषोने जेपुण्या इत्यादि पूर्ववत् ११ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. टीका:- पुनर्जात पूजायाः फलमाह ॥ जिनाची श्रीवीतरागस्य वंदना दिना वपूजां रचयतः कुर्वतः पुरुषस्य यातंको जयं कदाचित् यनिमुखं सन्मुखं न पश्यति न विलोकयति । क इव ? कुंपित इव । यथा कश्चित् कुपितोरुष्टोनवति स यथा तस्य सन्मुखं न पश्यति तथेत्यर्थः । पुनर्दारिद्र्यं दरिइत्वं श्रनुदि नं निरंतरं तस्य दूरे नश्यति दूरें याति किमिव ? चकितमिव । जयजीत मिव । पुनर्नरकादिकुगतिस्तस्य संगं समीपं त्यजति । मुंचलि का इव ? वि रक्ता कुपिता रुष्टा कांता व स्त्री इव । यथा विरक्ता स्त्री नर्तुः संगं त्यज ति तथेत्यर्थः । पुनः उदयान्युदयः प्रतापैश्वर्यादिबुद्धिस्तस्य प्रयर्ण समीपं न मुंचति न त्यजति । क इव ? सुहृदिव मित्रमिव ॥ श्रतोऽर्हतां नावपूजा वंदनादि कार्या । जो नव्यप्राणीन! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्री जिनस्य जावपूजा कर्तव्या । कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुप्रसा दात् उत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ ११ ॥ नापाकाव्य :- वृत्त उपरप्रमाणे ॥ ज्यौं नर रहे रिसाय कोप करि, ज्यों चिंता जय विमुख बखानि || ज्यों कायर संके रिपु देखत, त्यों दारिद्द नजैं जय मानि ॥ ज्यौं कुमार परिहरे संदपति, त्यों डरगति मे पहिचानि ॥ हित ज्यौं विनौ तजैं नहि संगति, वीतराग पूजा फल जानि ॥ ११ ॥ वली पण श्रीर्जिन परमेश्वरनी नावजानुं माहात्म्य कहे बे. शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्॥ यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलो चनैः सोऽर्च्यते, यस्तं वंदति एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वं यते ॥ यस्तं स्तौति परत्र वृत्रदमनस्तोमेन स स्तूयते, यस्तंध्यायति क्लृप्तकर्म्मनिधनः स ध्यायते योगिनिः ॥ १२ ॥ अर्थः - ( यः के०) जे पुरुष, (पुष्पैः के० ) पुष्पोयें करीने ( जिनं के० ) जिननगवानने (अति के०) पूजन करे. बे, (सः के० ) ते पुरुष, (स्मित ho) विकसित एां (सुरस्त्री के० ) देवताउंनी स्त्रीयोनां (लोचनैः के० ) नेत्रायें करी ( ते के० ) पूजाय बे, अर्थात् जिन पूजन करनारो पुरुष, देवलोकने विषे उप्तन्न थाय बे, अने तेने देवलोकनी स्त्रीयो विकसितनेत्रें करी पूजे बे, एटले राग सहित तेनुं अवलोकन करे बे. वली ( यः के० ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः. ४३. जे पुरुष, (एकशः के) एकवार (तं के) ते जिनप्रजुने (वंदति के०) वंदन करे , (सः के०) ते पुरुष, (अंदर्निशं के) रात्रि दिवस, (त्रिजगता के) त्रण जुवनें करि (वंद्यते के०) वंदन कराय ले. अर्थात् जे जगवानने वंदन करे, ते त्रिजगतने वंद्य थाय. वली (यः के०) जे पुरुष, (तं के०) ते श्री जिनवरने (स्तोनि के) स्तवे , वर्णन करे , (सः के०) ते पुरुष, (परत्र के०) स्वर्गने विषे (सत्रदमन के०) इंशे, तेना (स्तोमेन के०) समूहें करीने (स्तूयते के०) स्तवार्य ,स्तुत कराय एटले पोतानी गुणस्तुतियें करीने वर्णन कराय . .वली (यः के०) जे पुरुष, (तं के०) ते परमेश्वरने (ध्यायति के) पिंमस्थपदस्थरूपस्थ रूपातीतन्नेदें करीने ध्यान करे , ए टले हृदयने विषे जगवानने ध्यानगोचर करे . (सः के) ते पुरुष, (यो गिनिः केप):योगीश्वर जे महामुनियो तेमणे (ध्यायते के०) ध्यानगोचर कराय बे. हवे ते पुरुष कहेवो ? तो के (कृप्त के०) रचना कस्यो जे (अष्ट कर्म के०) आठ कर्मनो (निधनः के०) विनाश जेणे एवो ले. अर्थात् सिक्षावस्थाने प्राप्त थाय ॥ १२ ॥ या प्रकारे या सिंदूरप्रकर ग्रंथमां चार श्लोकें करी जावपूजानो प्रथमवक्रम. कह्यो ॥ इति प्रथमप्रक्रमः ॥१॥ ए परमेश्वरनी पूजा उपर नलराजा अने दमयंतीनी कथा जाणवी, ते सर्वत्र प्रसिह ने ॥ ए श्री तीर्थकरक्तिनुं प्रथमहार संपूर्ण थयुं ॥१॥ • इति पूजायाः प्रस्तावः ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्थ, व्याख्यायां हर्षकीर्त्तिना ॥ सूरिणा विहितायां तु, पूजायाः प्रक्रमोऽ जनि ॥१॥ इतिजिनवर प्रक्रमः ॥ टीकाः- पुनः श्रीजिननावपूजायाः माहात्म्यमाह । यः पुरुषः पुष्पैः रुला जिनं श्रीवीतरागं अर्चति पूजयति स पुरुषः स्मितसुरस्त्रीलोचनैः य॑ते पूज्यते । स्मितानि विकसितानि यानि सुरस्त्रीणां देवांगनानां लोच नानि नेत्राणि तैः । देवलोके देवत्वेनोत्पन्नः स देवांगनानिर्विकसितने त्रैः अय॑ते पूज्यते । सरागं अवलोक्यते इत्यर्थः । पुनर्यः पुमान एकशः ए कवारं श्रीजिनं वंदति स अहर्निशं दिवारात्री त्रिजगता त्रिनुवनेन वंद्यते । यो जिनं वंदति स त्रिजगइंद्यो नवतीत्यर्थः । पुंवर्यः पुमान् तं श्रीजिनं स्तो ति वर्णयति स पुमान् परत्र परलोके स्त्रदमनस्तोमेन, स्त्रदमनानां श णां स्तोमेन समूहेन स्तूयते ! गुणस्तुत्या कृत्वा वर्ण्यते । पुनर्यस्तं श्रीजि नं ध्यायति पिमस्थपदस्थरूपस्थरूपातीतनेदैर्हृदये ध्यानगोचरं करोति Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. सम्मान योगिनियोगीश्वरैर्महामुनि निर्ध्यायते । ध्यानगोचरः क्रियते । कथं नूतः सः । लृप्तकर्म्म निधनः कृतं रचितं कृतं अष्टानां कर्म्मणां निधनं विनाशो येन सः कृतकर्म निधनः॥ सिावस्थां प्राप्त इत्यर्थः॥ १ ॥ इतिपूजायाः प्रस्तावः जाषा काव्यः - वृत्त उपर प्रमाणें ॥ जो जिनंद पूजें मूलनसों, सुर नैन नि पूजा तिसु होइ ॥ वंदें जाव सहित जो जिनवर, वंदनीक त्रिवन में सोइ ॥ जो जिन सुजस करें जन ताकी महिमा इंड् करें. सुर लोइ ॥ जो. जिनध्यान क रंत बनारसि, ध्यावै मुनि ताके गुन जोइ ॥ १२ ॥ f वे चार लोकें करी गुरुन किनुं द्वार कहे बे. ॥ वंशस्थवृत्तम् ॥ अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्त्तते, प्रव र्त्तयत्यन्यजनं च निःस्टदः ॥ स एव सेव्यः स्वदि तैषिणा गुरुः, स्वयं तरंस्तारयितुं क्रमः परम् ॥ १३ ॥ + 4 अन्य अर्थ : - ( स्वहितै प्रिया के ० ) पोताना हितना वांढक पुरुष (सएव के० ) तेहीज ( गुरुः कें० ) गुरु ( सेव्यः के० ) सेवन करवा योग्य बे. ते केवा गुरु सेववा योग्य, बे ? तो के ( अवद्यमुक्ते के० ) अवद्य जे पाप तेथकी मुके एटले मुकायेला एटले सत्य एवा (पथि के०) मार्गने विषे ( यः के० ) जे गुरु (प्रवर्तते के०) प्रवर्त्ते बे (च के० ) वली ( धन्यजनं के जनने शुद्ध मार्गने विषे ( प्रवर्तयति के० ) प्रवत्तवे बे. वली (निःस्पृहः के० ) परिग्रहादि वांबारहित बता जे गुरु ( स्वयं के० ) पोतें (तरन् के ० ) संसारसमुड् तरा बता ( परं के० ) अन्यने ( तारयितुं के० ) तारवाने (मः के० ) समर्थ होय बे. ये गुरु शब्दनो अर्थ गुंबे ? तो के (गृणाति एटले कहे बे तवने ते गुरु कहियें. अर्थात जे तत्त्वोपदेशक शुद्ध प्ररूपक ते गुरु जावा. ए माटे जे शुद्धप्ररूपक तथा जिनाज्ञाराधक होय, ते गुरु से ववा योग्य बे. परंतु जमाव्यादिक कुगुरु सेववा योग्य नहिं, कुगुरु केवा होय बे ? तो के उत्सूत्रना प्ररूपक, स्वछंद, पोतानी मतियें कल्पित एवा मत करनारा तथा जिनाज्ञाना विराधक घने मायावी होय बे. माटें हे नव्य जीवो ! ए प्रकारें जालीने मनने विषे विवेक लावीने जे गुंड प्ररूपक तथा जिनाज्ञाऽराधक एवा गुरु होय, तेने सेववा. सेवन करनारने० ॥ १३॥ टीकाः - अथ चतु निर्वृत्तर्गुरुन तिहारमाह ॥ श्रवद्यमुक्तेति ॥ खात्महितवां Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. सिंदूरप्रकरः . केन पुरुषेण स एव गुरुः सेव्यः । कः सः? यः अवद्यमुक्ते पापवर्जिते सत्ये पथि धर्ममार्गे स्वयं प्रवर्त्तते प्रचलति । च पुनः अन्यजनं अन्यलोकं शुक्ष्मार्गे प्रवर्तयति । गुरुर्निःस्टहः परिग्रहादिवांबारहितः सन पुन यः स्वयं संसार समुई तरन् सन् परं अन्यं . तारयितुं दमः समर्थः ॥ गृणाति कथयति तत्त्वमिति गुरुः तत्त्वोपदेशकः शुक्ष्प्ररूपकश्त्यर्थः ॥ यतः ॥ हीणस्स वि सुम परू, वगस्स नाणाहियस्त्र कायव्वं ॥ जणचित्नग्गहणवं, करंति लिंगा विसेसं तु ॥ १ ॥ अन्यच्च ।। दस जो नहो, दंसण नहस्स नजि नि वाणं ॥ सिऊंति चरण रहिया, दसण रहिया नसिऊंति ॥ १२ ॥ अतः कारणात् यः शुक्ष्प्ररूपकः जिनाझाराधकः स गुरुः सेव्यः नतु जमाव्या दयः कुगुरवः सेव्याः। अहाहदाः उत्सूत्रप्ररूपकाः स्वमतिकल्पितमतक रिः.जिनाझाविराधकाः मायाविनस्ते तु कुगुरवः ॥ एवं नो नव्यप्राणिन! इति ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय सुक्ष्प्ररूपकोजिनाझाराधकोगुरुः सेव्यः॥ सेव्यमानानां यत् पुण्य मुत्पद्यते . तत्पुण्यप्रसादात् नत्तरोत्तरमांगलि क्यमाला विस्तरंतु ॥ १३॥ जाषाकाव्यः-आनानक बंद ॥ पाप पंथ परहरहि,धर दि गुन पंथ मग ॥ पर उपंगार निमित्त, वखानहि मोख मग ॥ सदा अवंलित चित्त जु, तारन तरन जग ॥ ऐसे गुरुंकों सेवत, नागहिं फर्म खग॥१३॥ वली फरीने पण गुरुसेवानुं फल कहै ले. ॥मालिनीटत्तम्॥ विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थम्,सुग तिकुगतिमाग्र्गों पुण्यंपापे व्यनक्ति ॥ अवगमयति कृत्याकृत्य नेदं गुरुयो, जवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित्॥१४॥ अर्थः-हे नव्यजनो ! (तं विना के० ) ते गुरु विना बीजों (कश्चित् के० ) को पण, (जवजलनिधि के०) संसाररूप जे समुह तेने विषे (पो तः के०) नावसमान (नास्ति के० ) नथी. अर्थात् संसारसमुह तरवामां नावसमान गुरु विना बीजो कोइ नथी. ते गुरु कहेवा वे ? तो के (यः के०) जे (गुरुः के०) गुरु, (कुबोधं के०) कुत्सित बौध ते कुत्सितझान जे मिथ्यात्व, तेने (विदलयति के०) विशेषे करी नाश करे . वली जे गुरु (आगमा थै के०) सिद्धांतोना अर्थने (बोधयति के०) जणावे . तथा जे गुरु Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ( पुण्यपापे के ) पुण्य अने पाप ते धर्म अने अधर्म ए बेने पण ( व्यन क्ति के०) प्रगट करे जे. एटले आ'पुण्य ने अने आ पाप , ए प्रकारे प्रकट करे .. ते पुण्य अने पाप' कहेवां जे? तो के ( सुगतिकुगतिमाग्र्गों के) पुण्य ते देवनरादि सुगतिमार्ग, पांप ले नरकतिर्यग्रुप कुगतिमार्ग जाणवो. वली पण जे गुरु, ( कत्याऽकृत्य के) करवाने योग्य ते कृत्य अने न करवाने योग्य, ते अकृत्य, तेना (नेर्दै केप) विवेक एटले विचा र तेने ( अवगमयति के०) जणावे . जेम प्रदेशी राजा माहानास्तिकम ति हतो, तेने केशीगणधर गुरुये प्रतिबोध करीने तत्त्वमार्ग विषे स्थापन कयो. माटे हे नव्यप्राणीयो ! ए प्रकारे जाणीने मनमां विवेक लावीने सं सारसमु तरवाने माटें नावसमान एवा श्रीगुरुनी सेवा करवा योग्य , अने गुरुनी सेवा करनार सुजनोने जे पुण्य । इत्यादि सर्व पूर्ववत् जाणवू १४ टीकाः-अथ पुनरपि गुरुसेवायाः फलमाह॥ विदलयतीति॥जोनव्याः!तं गुरुं विनाऽन्यः कश्चित् जवजलनिधिपोतःप्रवहणं नास्ति । नव एव संसार एव जलनिधिः समुश्स्तत्रपोतःप्रवहणं संसारसमुश्तारणेप्रवहणसमानं गुरुं विनाऽन्यः कश्चिन्नारितायोगुरुः बोधं कुत्सितज्ञानं-मिथ्यात्वं विदलयति । पु नर्यो गुरुः आगमार्थ सिद्धांतानां अर्थ बोधयति झापयति। पुनर्यो गुरुः पुण्य पापे पुण्यं च पापं च पुस्यपापे ते धौधौ अपि व्यनक्ति प्रकटयति । इदं पुण्यमिदं पापमिति । कथंनूते पुण्यपापे सुगतिकुगतिमार्गों सुगतिश्च कु गतिश्च सुगतिकुगती तयोर्मागौ पुण्यं देवमरादि, सुगतिमार्गः पापं नरकति र्ययूपं कुगतिमार्गः। पुनर्यो गुरुः कृत्याऽकृत्यनेदं अवगमयति कर्तुं योग्यं कृत्यं कर्तुमयोग्यं अकृत्यं । कृत्यं च अकृत्यं च कृत्याकत्ये तयोर्जेदो विवेको विचार स्तं झापयति ॥ यथा प्रदेशी नृपः महा नास्तिकमतिः केशिगणधरगुरुणा प्रतिबोध्य तत्त्वमार्गे स्थापितः॥जो नव्यप्राणिन् ! इति ज्ञात्वा मनसि विवेक मानीय संसारसमुश्तारणाय प्रवहणसमान श्रीगुरोः सेवा कार्या । गुरोः सेवां कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत् पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांग लिक्यमालाविस्तरंतु ॥ १४ ॥ नाषाकाव्यः-हरिगीतबंद ॥ मिथ्यात दलनसिक्षांत साधक, मुगति मारग जान ए ॥ करनी अकरनी सुगति उर्गति, पुन्न पाप बखान ए॥संसारसा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः მე गर तरन तारन, गुन जिहाज विसेखियें ॥ जगमांहि गुरु सम कहि बनारसि, और कोन न जेखियें ॥ १४ ॥ कथाः - कभीगुरु, कुबोधना विदलन करनार बे, तेनी उपर सूर्याजदेवनी कथा कहे बेः- एकदा श्रीमहावीर देव श्रमजकप्पा नगरीयें समोसखा, तिहां सूर्यानविमान की सूनिदेवता वांदवा खाव्या. प्रभु आागल बत्रीशबद ना टक करी स्वस्थानकें गया. पं । गौतमस्वामी यें भगवाननें पूजयं के महाराज ! एवीए के मामी? तेवा जगवान कहता हवा के श्वेतंत्रिका न मां प्रदेशी राजा, तेनी सूरिकांता नार्या तेनो चित्रनामें सारथी हतो, ते एकदा सावत्री नगरी गयो. तिहां केशी कुमारने देखी वांद्या, यने धर्मकथा सांजली. श्रावकधर्म पडिवज्यो. पी ते चित्र सारथी यें पोताना राजाने प्रति बोध झापामा श्वेतंबीयें पधारवा विनति करी त्यारे गुरुयें कयुं के अन्नोदक संबंधें जाशे. पीकेटलेक दिवसें गुरु श्वेतंबीयें याव्या, तेनी चित्र सार खबर पड़ी. तेवारें गुरुने वांदवा गया, उतारो आापी सारथीयें कयुं के हे स्वामी ! राजा नास्तिक बे, तेने प्रतिबोधजो. हुं पण कोइ उपाय करी तेने इहां जावी. अन्यदा घोडा फेरववाने मिझें राजाने चित्रसारथी तिहां तेडी लाग्यो. तिहां गुरुने दूकडाज व्याख्यान करता देखीने चित्रसारथी प्र त्यें राजा कहेवा लाग्यो के, जो खलु मुंम पशुवासंति ? अपायरिया खजु जोपायरियं पकुवासंति ? तेवारें सारथीयें. कयुं के हे स्वामी ! चालो श्रापणे जर पुढीयें.. राजा पणं तिहां गुरुपासें जइ पूजवा लाग्यो, हें मूंग ! शरीरमां आत्मा तो नथी तो धर्म करेलो कोण जोगवे ? गुरु कहे तमारा कवा प्रमाणें प्रत्यक्ष देखाय ते प्रमाण ने जे प्रत्यक्ष न देखाय, ते अ प्रमाण. तो. तमासं माता पिता पण देखातां नथी, माटें प्रमाण थयां ? राजा बोल्यो जो धर्म अधर्मादिक बे, तो महारो पिता अनेक जीवोनो सं हार करनार हतो माटे नरकें गयो हशे ? अने महारी माता धर्मिष्ठ हती माटें स्वर्गे गइ हशे ? तो हे निद्दाचर! हुं तो तेनो अत्यंन्तं वल्लन पुत्र हतो तेमने यावीने धर्मनो प्रतिबोध खापे तो परलोकं पण बे तथा पुण्य पाप पण बे, इत्यादि सर्व वात हुं सत्य करी मानुं ! 'तेवारें प्राचार्य बोल्या के हेरा जन्! बंधीवाननी पेठें तहारो पिता कर्मपारों करी बंधाणो बे, ते शी रीतें या तहारी पासें यावी शके ? राजां बोल्यो तो महारी माताजीने स्वर्ग Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैनकया रत्नकोष नाग पहेलो. थी आवतां शी हरकत नड़े बे ? सूरि बोल्या के ते तो संपूर्ण वांबित सुख जोगवे बे, तेथी नही यावे. तथा वली मनुष्यलोकनो दुर्गंध उंचो उबजे बे, ते तेनाथ सहन याय नही. त्यारे राजा बोल्यो के में एक चोरने पक डी पथरानी कोठीमांहे नाख । हार ढांकी दी, पछी केटलेक दिवसें खोजी जोयुं तो चोरनुं शरीर तिल तिलनी पेठें दीतुं, परंतु मांदे जीव तो दीठो नही ? माटें जीव नथी, तथा एक चोरने तोजीने पंढी फांसी यापी मारी नाखी फरी तोल्यो- तो कां पण बध्यो घट्यों नहीं ? माडे शरीरमांहे जीव नथी, तेवारे सूरि बोल्या के निःब कोठीमांहे पेसी कोइक शंख वजावें, ते शंख नो शब्द बाहिर केंम संनजाय बे, तेम जीवनो पण एज स्वनांव जाणवो. तथा रणीना लाकडामाहे फाडी जोतां थकां अनि देखातो नयी पण उपाय योगें अनि पामीयें बैयें. इत्यादि अनेक दृष्टांत आप) राजाने प्र तिबोध्यो राजा श्रावक थयो, समक्त्वमूल. बार व्रतनो उच्चार करो, याव तू एनी स्त्री सूरिकांतायें निःस्वार्थ जाणी विष दीधुं राजा अनशन लेइ-सू रियाजविमानने विषे सूरियाजनामें देव थयो. तिहांथी व्यवी महाविदेहें वतरी मोक्ष सुखु, पामशे ॥ इति प्रदेशी राजानो दृष्टांत ॥ १४ ॥ aal गुरुसेवानुं फल कहे ते. || शिखरिणीवृत्तम् ॥ पिता माता भ्राता प्रियसहच री सूनुनिवदः सुहृत्स्वामी माद्यत्करिनटरयाश्वः परिकरः ॥ निमतं जंतुं नरककुहरे रक्षितुमल गुरोर्धर्माऽधर्म्मप्रकटनपरांत्कोऽपि न परः ॥ १८ ॥ . म्, अर्थः- ( नरककुहरे के ० ) नरकविवरनी मध्यें (निमतं के०) मूबता एटले पड़ता एवा (जंतुं के०) जीवनें ( गुरोः के० ) गुरुथंकी (परः के० ) बीजो ( कोपि के ० ) कोई पण ( रक्षितुं के०) रक्षण करवाने (न के०) नहि (अलं के० ) समर्थ होय. केम के ? (पिता के०) पिता ते पण तेनुं रक्षण कर वाने न समर्थ होय बे, तथा ( माता के ० ) जननी ते पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय. तथा ( चाता के०) सहोदर ते पण तेनुं रक्षण करवाने न स म होय. तथा (प्रियसहचरी के० ) अत्यंत वल्लन एवी स्त्री पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय . तथा ( सूनुनिवहः के० ) पुत्रसमूह पण तेनुं र Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ४९. क्षण करवाने न समर्थ होय बे. तथा (सुहृत्. के ० ) मित्र पण तेनुं रक्षणक रवाने न समर्थ होय बे. तथा ( स्वामी के० ) नायक पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय . ते नायक केहवो बे ? ती के. (माद्यत् के०) मदोन्मत्त एवा ( करि के० ) हस्ती, ( ट ० के ० ) सुनट ( रथ के० ) रथं तथा ( श्रश्वः ho) घोडा जेमने एव बे अर्थात् एव सर्व सामग्री सहित एटजे बज वान् एव स्वामी पण रक्षण करवाने समर्थ थायु महि. तथा (परिकरः ० ) होने सेवकादिवर्ग, ते पण रक्षण करवाने समर्थ न होय बे. य र्थात् नरकमा पडता जीवाने ऐ पूर्वोक्त सर्व, रक्षण करवाने समर्थ न होय बे, पण मात्र एक गुरु जे बे, तेज नरकमां पडता: जंतुने रक्षण करवाने समर्थ थाय बे. गुरु विना कोइ पण नरकमां पडता. जीवने रक्षण करवाने सम नथी, ते गुरु कहेवा बे ? तो के ( धर्माधर्म के० ) पुण्य ने पाप, तेनुं ( प्रकटन के० ) प्रकाशन तेने विषे ( परात् के० ) तत्पर एवा बे. वली गु रु जे बे, ते धर्म धर्म ए बेने बतावे बे. ते जेम के: - जे प्राणी धर्मने अं गीकार करे. बे, ते नरकने विने पडता नथी, अर्थात् संगतिने नजनारा थाय बे ने जे अधर्मने अंगीकार करे बे, ते प्राणी • नरकमां पडे बे, अर्थात् कुगतिने नजारा थाय बे. माटे हे नव्यजनो ! एम जालीने मन विषे विवेक लावीने नरकपानथकी रक्षण करवाने समर्थ गुरु बे, ते से वैवा योग्य बे, बाकी सर्व पूर्ववत् जावं ॥ १५ ॥ * टीका:- पुनः गुरुसेवायाः फलमाह ॥ पितामातेति ॥ नरककुहरे नरक विवरमध्ये निमतं यूतं पततं संतं जंतुं जीवं गुरोः परोऽन्यः कोपि रक्षितुं नंन। कोपि न समर्थः । कथं ? पिता जनको रक्षितुं नालं । माता जननी रक्षितुं नानं । चाता सहोदरोर किंतुं नालं । प्रिया अत्यंत वल्लना सहचरी स्त्री रक्षितुं नातं । सूनुनिवहः पुत्रगणोऽपि रक्षितुं नावं । सुहृत् मित्रमपि रक्षितुं नानं न समर्थः । स्वामी नायकोऽपि रक्षितुं नालं । किं नूतः स्वामी ? माद्य तक रिटरथाऽश्वः । माद्यंतो मदोन्मत्ता करिएगो गजाः 'भटा सुनटाः रथः अ श्वाश्व यस्य स एवंविधो बलवान् यःस्वामी स रहितुं नानं । पुनः परिकरः प्रनू तसेवादिवर्गोऽपि नरके पतंतं संतं रक्षितुं नं समर्थो न । किंतु एको गुरु रेव नरके पतंतं जीवं रहितुं समर्थः । गुरोः परः कोऽपि नरके पतंतं जीवं रक्षितुं न समर्थः । किंविशिष्टात् गुरोः । धर्माधर्म्मप्रकटनपरात् । धर्म्मश्व अ 19 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. धर्मश्च धमाधम्ौं पुण्यपा. तयोः प्रकटने प्रकाशने परस्तत्परोयः सः तस्मात्। गुरुधूम्माऽधौ छावपि दर्शयति । ततश्च यः प्राण। धर्ममंगीकरोति स नरके न पतति । किंतु ? सुगतिनाग्नवति ॥ यतः॥नरय गय गमण पडिह, बए कई तह पएसिणा स्ना ॥ अमरनिमाणं पत्तं, तं आयरिय प्प नावेणं ॥१॥ जो जव्य प्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय नरक पतनात् रणीयः समर्थो गुरुरेव सेव्यः ॥ सेव्यमानानां चं यत्पुण्यमुत्प द्यते तत् पुरस्यप्रसादात उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ १५॥ नाषाकाव्यः-सवैय्यात्रेवीशामात पिता सुत बंधु सबी जन, मीत-हितू सुख कामिनी फीके ॥ सेवकराजि मतंगज वाजि, महा दल साजि रथी रथ नीके ॥ उर्गति जाइ वी विललाइ, परै सिर आइ अकेलहि जीके ॥ पंथ कुपंथ गुरू समुजावत, और सगे सब स्वारथहीके ॥ १५ ॥ हवे गुरुनी आज्ञानुं माहात्म्य कहे ले. ॥शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ॥ किं ध्यानेन नवत्वशेषविषयत्या गैस्तपोनि कृतम्, पूर्ण नावनयाऽलमिडियदमैः पर्याप्तमाप्ता गमैः॥ किं वेकं भवनाशनं कुरु गुरुप्रीत्या गुरोःशासनम्, सर्वे येन विना विज़ायबलवत् स्वार्थाय नाऽलं गुणाः॥१६॥ इति क्तिीय गुरुसेवनप्रक्रमः॥२॥ अर्थः-हे नव्यप्राणी ! गुरुनी थाझा विना ( ध्यानेन के० ) ध्यान क रवाथी (किं के०) गुं? तो के काहिं नहिं. तथा (अशेषविषय के० ) समस्त विषयो, तेना (त्यागैः के० ) त्यागें करीने (नवतु के० ) हो एट ले संपूर्ण थयुं, अर्थात् समस्त विषयत्यागें करीने पण काहिं नहिं. वली गुरुनी बाझी विना (तपोनिः के० ) तप जे षष्ठ, अष्टम, दशम, हाद शादि, पदपण, मासपण, सिंहनिकोडितादिक तप तेणे करीने पण गुं (कतं के०) कडें? एटले पूर्ण थयु,अर्थात् तेणें करीने पण काहि नहिं. तथा (जावनया के०गुननाकरीने पण, ( पूर्ण के) पूर्ण थयुं, अर्थात् तेणें करीने पण काहिं नहिं. वली (इंडियदमैः के०) इंडियोना दमने क रीने पण (असं के०) परिपूर्ण, अर्थात् तेणें करीने पण काहिं नहिं. वली (आप्तागमैः के०) सूत्रसिक्षातना पठने करीने पण (पर्याप्तं के) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२.. सिंदूरप्रकरः . पूर्ण थयु. अर्थात् तेणे करीने पण काहिं नहिं.. त्यारे (तु के०).वली (किं के) गुं करवू ? के जे थकी ते पूर्वोक्त सर्व सफल थाय? तो के (गुरुप्रीत्या के०) अत्यंत प्रीतियें करीने ( एकं के०) एक, (गुरोःके) गुरुनु ( शासनं के०) शासन जे शीखामणवंचन तेने (कुरु के०) हे न व्यजीव ! तुं कर. अर्थात् गुरुनीज शुरू याझाने पालन कर. ते गुरुनु शास न कहे जे ? तो के (नवनाशनं के) संसारत्रमाणने नाश करनारुं . कारण के (येन के०) जे (एकेन कैप) एक गुरुंशांसन (विना के०) विना (सर्वे के०) सर्व (गुणाः के०).पूर्वोक्त ध्यानादिक.मुणो पण (स्वार्थाय के) पोतपोतानां फल साधनने माटें (अलं न के०.) समर्थ थता नथी. अर्था त् सर्व निष्फल थाय . केनी पढ़ें ? तो के (विनायबलवत् के० ) सैन्या धिपति रहित सैन्यनी पो. अर्थात् जेम निर्मायक सैन्य, जयसाधक थतुं नथी, तेम गुरुनी आज्ञा विना क्रियानुष्ठानाडिक सर्व, निःफल थाय . गोशालक, जमालि कुलबालक निह्नवादिकनी पढ़ें. आहीं गोशालकादिकनो दृष्टांत लेको, माटें एवी रीतें जाणीने गुरुनी आज्ञा सहित सर्व कर्म, करवा योग्य जे. तेथी हे नव्यप्राणी एप्रकारे जाणीमनमा विवेकलावीने श्रीगुरुसे वा करवी. गुरुसेवा करनार एवा सुजनने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥ १६ ॥ ए गुरुसेवा'नामा बीजं हार संपूर्ण थयुं ॥ २ ॥ • टीकाः- अथगुरोराज्ञायाःमाहात्म्यमाह। किंध्यानेनेति ॥ जो जव्याः! गुरोः आज्ञा विना चेत् ध्यानं कृतं ? तर्हि तेन ध्यानेन किं । अपितुं न कि मपि फलं । पुनःअशेष विषयत्यागैर्नवतु पूर्ण जातं । समस्त विषयाणांत्यागेपि किमपि म फलं. पुनः गुरोराज्ञां विना तपोनिः कृतं । षष्ठाष्टमदशमहादशा दि पदपणमासपणसिंहनिक्रीडितादि निस्तपोनिः कृतं संपूर्ण जातं ॥ अर्थान्न किमपि । पुन वनया शुननावेनापि पूर्ण जातं ! पुनः. इंडियद मैः पंचेंझ्यिाणां दमनैः कृत्वा अलं पूर्ण जातं । पुनः आप्तागमैः सूत्रसि शांतपठनैरपि पर्याप्तं पूर्ण जातं । तर्हि किं? किंतु गुरुप्रीत्या गरिष्टवात्स . व्येन अधिकादरेण एकं गुरोः शासनं कुरु । गुरोरेवाझा गुहां पालय । किंजूतं गुरोः शासनं ? नवनाशनं । संसारपरिचमणवारकं । यतो येनैकेन गुरोः शासनेन बाझ्या विना सर्वेऽपि गुणाः पूर्वोक्ता ध्यानादयः स्वा र्थाय स्वस्वफलसाधनाय अल न । समर्था न । किंतु निःफला इत्यर्थः॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. किंवत् ? विनार्थबलवत् । नियकसैन्यवत् यथा निर्मायकं सैन्यं जयसाधक न तथा गुरोराज्ञां विना क्रियानुष्ठानादिकं सर्व निःफलं । गोशालक जमा लिकुलबालक निह्रवादिवत् ॥ एवं ज्ञात्वा गुर्वाझासहित सर्व कर्त्तव्यं ॥ यउक्तं श्रीकल्पसूत्रे ॥ असणवा. याहारेसए .॥ उच्चार पासवणं वा प रिवेत्तए ॥ सजायं वा करित्तए ॥ धम्मजागरियं वा जागरित्तए ॥ णो से कप्पर अणापुडित्ता र निरकू श्या अन्नायरं तवो कम्मं नवसंपजित्ताणं विहरित्तए ॥ तं चेव सत्वं जणियत्वं ॥नी नव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीगुरुसेवा कर्त्तव्या ॥ कुर्वतां च सतां यत्पुस्य मुत्पद्यते, तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥इति ॥ १६॥ सिंदूरप्र कराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्त्तिना ॥ सूरिणा विहितायां तु, गुरुसेवन प्रक्रमः ॥ ५ ॥ इति गुरुसेवनप्रक्रमः ॥ २ ॥ नाषाकाव्यः-वस्तुबंदध्यान धारनं ध्यानधारन, विषै सुख त्याग ॥ करु ना रस बादरन, नूमिशयन इंडिय निरोधन ॥ व्रत संयम दान तप नगतिजा व सित सोधन ॥ ए सब काम न आवही, ज्यों बिनु नायक सैन ॥ सि वसुख हेत बनारसी, कुंरु प्रतीत गुरु बैन ॥ १६ ॥ ___ कथाः-इहां गुरु सेवानो करनार मोदें जाय. तेनी नपर श्रीगौतमस्वामी नी कथा कहे :-एकदा प्रस्तावें श्रीवर्षमान स्वामीयें व्याख्यान करतां करतां उपदेश दीधो, जै अंष्टापदपर्वत उपर जरतचक्रवर्तीनी करावेली मा नोपेत चोवीश तीर्थकरनी प्रतिमा ने, तेने जे पोतानी लब्धिना बलें जश् वांदे, ते प्राणी तभवें मोदें जाय. ते सांनती श्रीगौतम स्वामी पो ताने मोद जावानो निर्णय करवा माटें प्रनुनी आज्ञा मागी अष्टापद जणी चाव्या, तेमने कौडिन्यादिक तापसोयें आवता दीठा, तेवारें ता पसो, माहोमांहे कहेवा लाग्या के आ महोटा मुनीश्वर आवे , पण योजन प्रमाण पावडी शी रीतें चडी सकशे? अमें महा तपस्याना करनार • पांचशे एक जण वे एक उपवास करी सूके पत्रे पारणुं करी एक पावडी चढया, पण बागल जश् शंकता नथी. एवो विचार करे डे, एवामां गौतम स्वामी चढया. यावत् दर्शन करी पाना फस्या, तेवारें श्रीगौतमस्वामी पा सेंथी सर्व पन्नरों ने त्रण तापसोयें दीक्षा लीधी, शासनदेवी साधुनो वेश आणी बाप्यो, पडी मार्गे धावतां सर्वने पूब्यु के तमारे बाजे शेर्नु Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ सिंदूरप्रकरः पारएं करवू डे ? तेवारें तापस बोल्या के खीर खांम घृतर्नु पार| करीयें तो सारं. पढ़ी गौतमस्वामी पाउँ जरी वहोरी लाव्या. अदीपमहानिशि लब्धिने बलें, करी सर्व तापसोने पारणुं कराव्यु. एवी चमत्कार देखी पोताना मनमांहें गुरुतत्वनी नायना,जावतां जावतां पांचशेने एक तापसोने केवलज्ञान नपर्नु: अने पांचशे ने एकने समोसरण देखतां केवलज्ञान उपमुं. तथा पाँचशे ते एकने श्रीवीरती वाणी सांजलतां केवलज्ञान उपमुं. ते सर्व १५०६ तापस केवली थया थका श्रीवीरने वांदीने केवलीनी संनामां बेटा, ते जो श्रीगौतमस्वामीने शंका उपनी जे आजना दीक्षितने केवलज्ञान नपर्नु हशे?. जगवान् बोल्या के केवल झान उपर्नु , अने दुं निर्वाण पामीश तेवारें 'तुमने केवलज्ञान उपजशे. . ते सांजली श्रीगौतम स्वामी संतोष पाम्या. अनुक्रमें केवल ज्ञान पामी मोद सुखं पाम्या. अने तापस पण मोद सुरव पाम्या. एवं गुरु सेवार्नु फल जाएंगी हे नव्यलोको ! तमें धर्मना दायक एवा गुरुनी सेवा करो, के जे थकी संसार तरो॥१६॥ इति गुरुसेवाधिकारे श्रीगौतमस्वामी कथा समाप्ता॥ हवे चार श्लोकोयें करीने जिनमत जे जिनोक्त सिक्षांत, तेनुं माहात्म्य कहे जे. ॥शिखरिणीटत्तम् ॥न देवं नादेवं न शुनगुरुमेवं नकुगुरुम,न धम्मै नाधर्मनगुणपरिणईन विगुण म्॥न कृत्यं नाऽकृत्यं न हितमदित नाऽपिनिपुणम्, . विलोकंते लोकाजिनवचनचक्षुर्विरदिताः ॥ १७॥ अर्थः-( जिनवचन के० ) जिनशास्त्र रूप ( चदुः के० ) चहु जे नेत्र तेणें करी (विरहिताः के०) रहित एवा (लोकाः के०) लोको जे , ते हवे कहेवाशे ते एवी वस्तुने (नविलोकंते के०) न देखे , अर्थात् नहिं जाणे ले. गुं शुं नथी जाणता? तो के (देवं के०) सर्वज्ञ, जितंरागादि लक्षणोयें युक्त जे सुदेव, तेने न जाणे . वली ते (अंदेवं के० ) कुदेव एटले स्त्री, शस्त्र,अद, सूत्रादि लक्षणोपेत जे कुंदेव तेने.पण (न के०) न जाणे . वली ते (एवं के०) ए प्रकारे (गुनगुरुं के०) सुगुरु जे जे तेने एटले शुक्ष्मार्गप्ररूपक एवा सुगुरुने (न के) न जाणे . वली (कुगुरुं के०) पंचा चाररहित एटले उत्सूत्रप्ररूपक एवा कुंगुरुने (न के०)न जाणे . तथा (ध Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनकथा रत्नकोष भाग पदेलो. मैं के०) धर्मने न के०) नहिं जाणे , तथा(अधर्म के०) अधर्मने न जाणे ले. अर्थात् धर्माधर्मनां अंतरने ते पुरुष जाणता नथी. वली (गुणपरिण के०) गु णे करीने परिपूर्ण अर्थात् गुणवानने (न के०) न जाणे बे, तथा (वि गुणं के० ) गुणरहित एटले निर्गुण तेंने ( नं के० ) नहिं जाणे . अ र्थात् गुणवान अने निर्गुण जनने समानज देखें जे. वंली (कत्यं के०) करवा योग्य कार्य तेचे (न के०) न जाणे में तथा (थरुत्य के०) जे करवाने अयोग्य कार्य तेने ( न के.) न जाणे जे अर्थात् कृत्याकत्यविवे कने जाणे नहिं. वली (निपुणं के० ) चातुर्य जेम रुडे प्रकारें होय तेम ज ( हित के०) पोतानुं हित जे सुख तेनुं कारण, तेने (न के०) नहिं जा णे . तथा (अहितमपि के०) अशुजनुं जे कारण तेने पण (न के०) नहिं जाणे. अर्थात् ते लोको जिनवचन श्रवण विना शुनाशुजना अंतरने जा पता नथी. इहां विलोकंते ए क्रियापद सर्व नकारनी साथें लगाडवू. माटें है जव्यजीव ! ए प्रकारे जाणीने श्रीजिनप्रणीत सिक्षांतोनुं श्रवण करवं. नि नवचन श्रवण करता एवा सुजनने जे पुस्य । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥१७॥ टीकाः-अथ चतुर्निवत्तैर्जिनमतस्य जिनोक्तसिद्धांतस्य चमाहात्म्यमाह॥ नदेवमिति ॥लोकाः जिनवचनमेव चकुर्नेत्रं तेन रहिताः संतः एतानि वस्तूनि न विलोकंते। न पश्यति । न जानंतीत्यर्थः ॥ किं किं न विलोकंते। ते देवं सर्व झोजितरागादिरित्यादिलक्ष्णोपेतं न विलोकंते । पुनः अदेवं कुदेवं ये स्त्री शस्त्रादसूत्रादतिलहणोपेतं कुदेवं न विलोकंते। पुनः शुनगुरुं सुगुरुं शुरू प्ररूपकं गुरुं न जानंति । पुनः कुगुरुं पंचाचारहितं उत्सूत्रप्ररूपकं न जानंति। पुनः धर्म अधर्म च न जानति । धर्माधर्मयोरंतरं न विदंतीत्य र्थः ॥ पुनः गुणपरिण गुणैः परिपूर्ण गुणवंत नजानंसि ॥ पुनर्विगुणं गुण रहितं निर्गुणं च न जानंति । गुणवंतं निर्गुणं च सदृशमेव पश्यंति।पुनः कृत्यं करणीयं कर्तुं योग्यं वस्तु न जानंति । पुनः अकृत्यं कर्तुमनुचितं अयोग्यं च न जानंति । कयाऽकृत्य विवेकं न जानंतीत्यर्थः॥पुनर्निपुणं सचातुर्य च सम्यग यथास्यात्तथा आत्मनोहितं सुखकारणमपि न जानति । पुनः थ हितं च अशुनकारणं च न जानति । जिनवचनश्रवणं विना गुनाऽगुजयोरं तरं न जानंति ॥ यतः ॥ सुच्चा जाग कनाणं, सुच्चा जाण पावगं ॥ उ नयंपि जागई सुचा, ज सेयं तं समायरे ॥ १ ॥ जो जव्यप्राणिन ! Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः एप एवं ज्ञात्वा श्रीजिनप्रणीतसिखातानां श्रवणं कर्तव्यं । कुर्वतां च सततं य पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तुरंतु ॥१७॥ नाषाकाव्यः- कुंमलियाबंद ॥ देव अदेवहिनही लव, सुगुरु कुगुरु नहिं सूफ ॥ धर्म अधर्म गिनें नही, कर्म अंकर्म न बूज ॥ कर्म अकर्म न बूज गूऊ, गुन अगुन न जानहि ॥ हित अनहिंत न सदहै, निपुन मूरख नहि मानहि ॥ कहतं बनारसि ज्ञान, दृष्टि नहि अंध अधेवहि ॥ जैन बचन हग हीन, लबै नहि देव अदेवहि १७ ॥ ॥शार्दूलविक्रीडितरत्ताष्टकम् ॥ मानुष्यं विफलं वदंति हृदयं व्यर्थ तथा श्रोत्रयो, निर्माणं गुणदोषनेदकलनां तेषामसं नाविनीम्॥ उर्वारं नरकांधकूपपतनं मुक्तिं बुधाउझनाम्, सार्वज्ञः समयोदयारसमयोवेषां न कर्णातिथिः ॥ १७ ॥ अर्थः-(सार्वज्ञः के०) सर्वज्ञदेवप्रणीत अर्थात् श्रीवीतरागदेवें कहेलो एवो ( समयः के० ) आगम, ( येषां के० ) जे पुरुषोने (कर्णातिथिः के० ) कर्णगोचर (न के) नथ) थातो, अर्थात् जेणें जिनागम श्रवण कस्यो नथी, हवेते कहेवो जिनागम ? तो के (दयारसमयः के० ) कपाजे तेज ने रस जेमां एवों बे. हवे ने जिनागमश्रवण न करनारा जे पुरुषो (तेषां के० ) ते पुरुषोनुं (मानुष्यं के०) मनुष्यजन्मजे ले तेने(बुधाः के०) जे पंमितो, ते (विफलं के०) निःफल (वदंति के) कहे जे. अर्थात् पंमि तो ते पुरुषोने मनुष्यजन्म प्राप्त थयुं, तो पण न थया जेवू कहे . तथा ते पुरुषोनुं (हृदयं के०) चित्त तेने ( व्यर्थ के०) निरर्थक अर्थात् शून्य क हे . वली ते पुरुषोने ( श्रोत्रयोः के० ) बेदु कान, (निर्माणं के० ) निर्माण जे करंतुं तेने ( वृथा के०) निःफल कहे . तथा तेमने (गुण के) गुणो तथा (दोष के०)दोषोतेनोजे (नेद के०)नेद तेनी(कलना के०)विचार णाजे तेने (असंनाविनी के०) फूलन एवी कहे दे, तथा ते पुरुषोनुं (नरकां धकूप के ) नरक तेज अंधकूप एटले घांस अने वेलायें बाबादित कूप तेने विषे (पतनं के) पडवु, ते (वारं के० ) वारवाने अंशय कहे . थने ते पुरुषोने (मुक्ति के०) मुक्ति ते (कुलनां के०)उर्जन कहे जे. अर्थात् जिनागम श्रवण विना जोवो मोक्ने पामता नथी. ए कारण मा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. सर्वजन जिनागममुं श्रवण कर. कदाचित नाव न होय तो पण जिनागमश्रवण तिने माटें थाय छे. या श्लोकमां वदंति ए क्रियापद स वें पदोने जोड़वं. ए प्रकारें जालीने जिनवचन श्रवण कर: करनार एवा जे सुजनो तेमने जे पुष्प । इत्यादिक पूर्ववत् जाणवुं ॥ १८ ॥ टीका:- मानुष्यमिति । जो नव्यप्राणिन् ! सावैज्ञः सर्वज्ञप्रणीतः श्रीवीतराग देवेन जाषितः समयः खागमो येषां पुरुषाणां कर्णातिथिः करीगोचरो न जातोयै श्रुतः । किं विशिष्टः समयः दयारसमयः कंपाएव रसः स्वरूपं यस्य । बुधाः पंमितास्तेषां मनुष्याणां नानुष्यं मनुष्यजन्म विकलं निःफलं वदंति । लब्ध मयलब्धं कथयति । तेषां हृदयं चित्तं व्यर्थ निरर्थकं शून्यं वदंति । पुनस्ते षां श्रोत्रयोः कर्णयोर्निर्माणं करणं वृथा निःफलं वदंति । पुनस्तेषां गु पानां दोषाणां च योनेदो अंतरं तस्य कलनां विचारणां संज्ञादिनीं य र्थात् नां वदंति । पुनः नरकमेव अंधकूपस्तृणवल्ली वितानाञ्चादितः कूपस्तत्र पतनं वारं वारयितुमशक्यं कथयति । पुनस्तेषां मुक्तिं नां कथयति । जिनांगमश्रवणं बिना मुक्तिं मोक्षं न प्राप्नुवंति । थतः श्रीजि नागमश्रवमेव कर्त्तव्यं । नावं विनाऽपि श्रुतं हिताय नवंति ॥ यथा ॥ द्वेषेऽपि बोधकवचः श्रवणं विधाय स्याशैहिणेय इव जंतुरुदारजानः ॥ क्वाथोऽप्रियोऽपि सरुमां सुखदो रविर्वा, संतापकोऽपि जगदंगनृतां हिताय ॥ १ ॥ किं तद्वचः ? यतः || अणिमिस नयलामण क, ऊ साहणाः पुप्फदीम मिलाणा ॥ चनरंगुलेल ज्यूमिं न बिबंति सुरा जिला बिंती ॥ १ ॥ इति ज्ञा त्वा निवचनस्य श्रवणं कर्त्तव्यं । कुर्वतां च संतां यत् पुष्यमुत्पद्यते तत्पु एयप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ १८ ॥ " " भाषाकाव्यः - मात्रात्मक कविता | तांको मनुज जनम सब निःफल, निःफल मन बिफल जुग कान ॥ गुन अरु दोष विचार जेद विधि, तांहि महान यह ज्ञान | ताक़ों सुगम नरक दुःख संकट, यागम पंथ पद निरवान || जिनमत बचन दया रस गर्जित, जे नहिसुनत सिद्धांत बखान ॥ १८ ॥ कथाः - एनी उपर रोहणीया चोरतो दृष्टांत कहे बे:- राजगृही नगरीने पावती वैभारगिरि पर्वतनी गुंफामांहे लोहखरो चोर वसे बे, ते सर्वदा पाप कर्मन करनार, नगरमiहे चोरी करे, सात व्यसन सेवे, चोरीनो विधि सं पूर्ण जाले, धर्म उपर लगारमात्र वांडा नही, तेने रोहिणिनक्षत्रने योगें Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः . ५७ पुत्र थयो, तेनुं नाम रोहपीयो एवं स्थाप्यु. अनुक्रमें यौवनावस्था पाम्यो. तेवारें अनेक विद्यानो अन्यास कीधो. सर्व कलाठमां निपुण थयो. एक दा तेना फिताने. मरणर्नु कष्ट व्यु, तैवारें पुत्रने कहेवा लाग्यो के हे वत्स ! तुं महारुं वचन अंगीकार करं, तोढुं मरूं! जे माटे तुं केवारें पण श्री महावीर देवनी वाणीसांन्लीश मां. रोहणीये तेमज कबूलक युं. तेवारेंलो हखुरो. मरण पाम्यो तेनां मृतकार्य करी नगरंमां चोरी करतो फस्या करे. हवे एकदा श्रीमाहावीरस्वामी विहार करता तिहां समोसस्या, देव तायें समोसरणनी रचना करी, ते समोसरणमां बेशी नगवान् देशना देवा लाग्या, ते समयें रोहणीयो पण पर्वतमांभी निकली राजगृही नगरी तरफ जातां मार्गमां समोसरण देखी चिंतववा लाग्यो जे ए मार्गे जतां महागथी वीरवचनजरूर संजनाशे,तो पितानी आझामो नंग थाशे? अने बीजे मार्गे जाइश तो वखत घणो लोगशे. तेम गयाविना पण चालशे नही. तेथी वे कानमा अांगलो घाली वेहु पगरखां हाथमा लइ एकदम दो ड्यो अने समोसरण नजीक श्राव्यो, तेवारें परामां कांटो लागो, तेने का हादवा माटे कानमांयीं आंगली काढीने नीचो नभ्यो, ते. वखत सर्व संदे हनी हरनारी अमृततुल्य एवी श्रीवीरनी वाणी श्रवणें सांजली. ते वाणीमां देवताना स्वरूपनुं वर्णन ते समय आवेj हतुं, वे जेम केः- ॥ गाथा ॥ केसति मंस नह रो, म रुहिर वस चम्म मुत्त पुरिसेहिं ॥ रहिया निम्मल देहा, सुगंध नीसास गयलेवा ॥ ॥ अंतमुटुतेणंचिय, पऊत्ता तरुणपु रिस संकासा । सवंग नूसण धरा, अजरा निरुया समा देवा ॥ ॥ णिमिस नयणा मणक, साहणा पुप्फ दाम अमिलाणा ॥ चरिंगुलेग नूमिं, न बिंतिः सुरा जिंणा बिति ॥ ३ ॥ कांटो काहाडतां ए गाथा सांजलीने ते वचनने घणां ए वीसारवा मांमयां, पण कोश्रोते वीसरे न ही पनी गाममां जा चोरीकरी लोकोने संतापीने चोर स्वस्थानकें गयो. एकदा तिहांनी सर्व प्रजायें राजानी बागल विनति करी के स्वामी ! या गाममां चोरनी आगल अमाराथी रही शकाय नही ? ले सांजली राजायें सेवकोने बोलावी कह्यु के अरे ! तमें चोरनों निग्रह केम नथी करता !!! ते सांजली सेवको बोल्या के स्वामी! अमें तो घणाय प्रपंच कस्या, परंतु ए चोर दणमां देखाय अने क्षणमां न देखाय, तेथी अमारा हाथमांज था Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4G जैनकथा रत्नकोष नाग पहेली. वतो नथी. तेवारें राजा अजयकुमारने का अनयकुमार कोटवालने कह्यु के नगरता दरवाजामां को नवीन माणस प्रवेश करे, अथवा बाहिर नीकले, तो उसखीने जवा देजो, कोटवाले पण गुप्त पणे दरवाजे रही चोकसी करतां एकदा रात्रिने दखत रोहणीयाने नगरमा प्रवेश करत्नां अंगित कारें चोर जाणीने पकड्यो. बांधीने, राजा आगल आण्यो. रा जायें अनयकुमारने पूनयुं के एने कहेवी शिक्षा करीयें ! तेंवारें कुमरें कह्यु के चोरेली वस्तु दाथ लाग्या विना शिदा थ६. शके नही, राजायें चोरने पूज्युं के तुं क्या गामनो रहेवासी बी अने तहारुं नाम गुंडे ? त था धंधो गुंडे ? ते कहे. घोर बोल्यो महारुं नाम जुर्गचंग डे जातें कुमंबी डं अने शालिग्राममा रहुँ डं, कोई काम विशेषे थाही आव्यो . यावतां असुर थइ तेथी तलारें मने पकड्यो. ते सांजलीराजायें प्रबन्नपणे ते वात नो निश्चय करवा माटे शालीग्रामें माणस मोकल्यो, पण चोरें तें ग्रामना सर्व माणसो साथै प्रथमथी संकेत करेलो हतो माटे तिाना रहेवासी तेमज तेनुं नाम गम सर्व ते माणसने कही संनलाव्युं. तेवारें माणसे फ रीआवी राजा बागल सर्व समाचार कह्या ते सांजली अनयकुमार विचायं जे ए चोर ले पणमहाकपटी बे. पड़ी तेने दिलासीपी.पोतानी पासें राख्यो. जेबारें अनयकुमार सामायिक पोसह यमुख करे, तेवारे ते पण तेमज अनयकुमारनी साथै श्रावकमी करणी करे, तेना मनोगत नाव कोइ जाणे नही॥ यतः॥ रामनवाच ॥ पश्य लक्ष्मण पंपायां,बकः परमधार्मिकः॥ शनैश्च मुंचते पादौ, जीवानामनुकंपया ॥ १ ॥ मत्स्य-वाच ॥ सहवास्येवजाना ति, सहवासिविचेष्टितम् ॥ प्रशंस्यते च रामेण, तेनाहं नकुलीकृतः ॥ २ ॥ मुखथा मिष्ठवचनबोले अने संसारमा तो मिष्टवचन वन लागे तेथी कोय लनी ऐसें अक्गुण ढंकाइजाय॥यतः ॥ पिकस्तावत् कृष्णः, परमरुणया प श्यति दृशा ॥ परापत्यपी स्वसुतमपिनो,पालयति यः ॥ तथाऽप्येषोऽमीषां, सकलजगतां वननंतमो ॥ नदोषा गण्यते, मधुरवचनानां कचिदपि ॥१॥ हवे अनयकुमारे एक आवास कराव्यो, तेमां विचित्र चित्रामण क राव्यां, नानाप्रकारना चंडुवा बंधाव्या, आवासनी नपर अत्यंत सुंदर ध्व जान बंधावी माहे सेलारस, अगरवंदनदेपन कराव्यां, धूपपरिमल वि स्तास्या, हारमा तोरण बंधाव्यां, अपूर्व शय्या पथरावी, फूल पगर जरा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः Ար व्या, तथा शोलवर्ष नावयवाली अत्यंत रूपवंत एवी या गणिकाउने . शोल सणगार करावीने तेना हाथमां मृदंग थापी तिहां नी राखीयो पढी ते यावासमां जयकुमारें ते चोरने साधर्मीचाइना नातांथी जमवा बोला व्यो. जमाडतां जमाडतां वचमां चंद्रहास्य मंदिरानुं पान कराव्युं, तेथी वि व्हल थयो. तेवारे ते यांवासनी शय्या उपर तेने सुवाडी मूक्यो. चार घडी वीत्या पढी सचेतन थयो. तेवारें. ते गणिकाउ" जयजयनंदा जयजयजद्दा” एवा शब्द बोलती की बत्रीशब नाटक करवां लागी. अने ते चोरने पूयं के तशी पुण्याई काधी के जेथकी अमास स्वामी यया ? खने दे वलोकनी पदवी पाम्या ? ते वखतें तिहां रोहणीयो चोर विचारवा लाग्यो जे या ते शी वात ! जे में तो जन्मांतरने विषे कांइ पण पुएय करूं नथी, तो हुं देवता •शी रीते थयो ! वली विचाखुं जे वीरवचन तो एवं बे के दे वता होय तेने तो 'मिसनयणा' इत्यादि चिन्ह होय, ते तो ए देवां नामां देखतां नथी. माटें देव श्यो ! या सर्व प्रपंच अजयकुमारें कस्यो दशे ! एम. जाएंगी विचारे बे के दवे यपणे पण इहां कपट चावज नजवो. कपटकथा करवी ! एम विचाराने कहेवा जाग्यों के है स्त्रीयो ! में पाबजे न वें दान, पुण्य, धर्म, सात व्यसन रहित कां नियम, व्रत, जीर्णोद्धारादि पुण्यकरणी करेली ने तेथी तमारो स्वामी ढुं थयो ! तेवारे देवांगनाने मुं रूपें वेश्या बोली के मनुष्यनवमां कांइ पाप क होय तो ते पण थमने कहो. वारे रोहणीयो बोल्यो के में मनुष्यनवें केवल धर्मज कीधोबे, पण पाप कर्म को कीधुं नथी. ए. वात सर्व प्रखन्नपणे सांगलीने अजयकुमारें जाएयुं जे या महोटो बुद्धिमान् बे एना जेवा बुद्धिमान् तो कोई विरलाज हशे ! प राजाने पूढीने अजयकुमारें ते चोरने विसर्जन करो, रोहणीयो पण घेर जइ विंचारखा लाग्यो के मरवानुं कष्ट महोटुं दुतुं तेथी हुं नग रत नही, परंतु में पगमांथी कांटा काढतां जे श्रीवीतरागनी थोडें । शीवा सांजली ते पण मुने गुणकारी थइ, वांडतां कां पण जिनवाणी मेंसांनी ते मुने वाडी यावी. माटें वीतरागने शुरणे जवुं तेज उत्तम बेपी तिथी श्री ईमानस्वामी पाखें यावी नमस्कार करी कहेवा लाग्यो के हे प्रनो! तमारी थोडीशी वाणी मने नासतां नासतां श्रवणें पडी, तेथी हुं उगलो. माटे हवे हैं महाराज! कृपा करी महारा बेडु Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकया रत्नकोष भाग पदेलो. नव सुधरे, तेवो चूपाय रूहों, तेवारें परमेश्वरें तेने धर्मोपदेश कस्यो, ते सांन ली चारित्र लेवा माटें सावधान थयो. पनीनगवाननें वीनव्यो के हे महारा राज!श्रेणिकराजाने मली आवीने पढ़ी चारित्र लश ! एम कही राजानी पासें आवी कहेवा लाग्यो के हे. स्वामी! 'दुं रोहणीयो नामक चोर, मढ़ा पापी बलं, परंतु श्रीवीरनां वचन साजलता हुँ गयो बूं. हवे मुने चारित्र लेवानो नाव , माटें दैनारगिरिनी गुफामांहे में चोरी लावेलु धनराखेनुं , ते तमें महारी साथै तिहां पधारीने सर्वप्रजाने उलखाची उलखावीने जे जेध णोनु होयते तेधणीने तमें हवाले करो, राजाय पण तेमज कयुं. सर्व प्रजानेजे नुं जेनुं धन हतुं तेने तेने उचखावी उत्लखावीने दीधुं. पनीरोहणीये स्वकुटुंब प्रतिबोधी तेमनी आझापामीचारित्रलीधुंअंत्यावस्थायें अणसण करीदेवलो के देवताथयो.ए रोहणियानी पेठेजे जिनवचनने सद्दहे, ते सुख ने पामे॥१७॥ पीयूषं विषवकलं ज्वलनवत्तेजस्तमःस्तोमव,न्मित्रं शात्रववत् स्त्रनुजगवत् चिंतामणिं लोष्ठवत्।।ज्यो स्त्रां ग्रीष्मजघर्मवत् स मनुते कारुण्यपण्यापणम्, जैनें मतमन्यदर्शनसमं योऽमतिर्मन्यते ॥४॥ अर्थः-( यः के जे (धर्मतिः के०) मूर्ख पुरुष, (जैनेंमतं के० ) जिनेंशासन, तेनें (अन्यदर्शनसमं के० ) अन्यदर्शन जे बौछ, नैयाधि क, सांख्य, वैशेषिक, जैमिनीयादिक दर्शनो तेनीसमान जो (मन्यते के०) माने , तो (सः के०) ते मूर्ख पुरुष, के, माने जे ? तो के (पीयूषं के०) अमृत जे तेने ( विषवत् के०) विष समान (मनुते के०).माने जे. तथा ते मूर्ख पुरुष, ( जलं के) परमशीतल जल जे तेने ( ज्वलनवत् के) अ निसमान माने जे. तथा ते मूर्ख पुरुष, ( तेजः के० ) तेज जे तेने (तमः स्तोमवत् के ) अंधकार समूहनी पेठे माने बे. तथा वली ते मूर्ख पुरुष ( मित्रं के०) सवाश्ने (शात्रंववत् के०) वैरीसमान मामे बे. वली ते मू र्खपुरुष (मृज के.) पुष्पमालाने (नुजगवत् के०) सर्पसमान माने , वली ते मूर्ख पुरुष, (चिंतामणि के) चिंतामणि रत्नने (लोष्ठवत् के० ) पाषाण समान माने , वली ते मूर्ख पुरुष, (ज्योत्स्ना के० ) चंकांति ने (ग्रीष्मजधर्मवत् के०) नष्कासना तडका जेवी माने .या ठेकाणे Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः अमृतादि सरखं जिनमत जाणवू, अने विषादि समान अंन्यदर्शन जाण वां. हवे ते जैनेश्मत कहेवू तो के कारुण्य के.) दयापणुं ते रूप ( पण्य के० ) वेचवाने लायक वस्तु तेनुं (आपणं के ) हॉट बे. याहिं मनुते ए क्रियापदं सर्व ठेकाणे योजन करवु. एवी रीतें मानीने श्रीजिन मत अंगीकार कर: अंगीकार करनारने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् ॥ १५ ॥ ____टीकाः-पीयूषमिति ॥ योर्मतिमूर्खः पुमान जैनेंमतं श्रीजिनशास नं अन्यदर्शनसमं । अंत्यदर्शनेबाद तैयायिक सांख्य वैशेषिक जैमिनीया दिनिः समं सदृशं मन्यते गणयति स मूर्खः पीयूषं अमृतं विषवत् विषे ण तुल्यं मनुते गणयति । पुनर्जलं परमशीतलं पानीयं ज्वलनवत् अग्नि तुल्यं गणयति। पुनः तेजः नद्योतं तमःस्तोमवत् अंधकारपुंजवत् मनुते । पुनर्मित्रं सखायं . शात्रववत् वैरिसदृशं मनुते जानाति । पुनः सृजं पु ष्पमाला नुजगवत् सर्पतुल्यां, गणयति । पुनः स चिंतामणिं लोष्ठवत् पाषाणसदृशं गणयति । पुनः स ज्योत्स्ना कौमुदीं चंकांतिं ग्रीष्मज धर्मवत् उष्णकाल आतपवत् मनुते । अत्र पीयूषादिसमं जिनदर्शनं । विषा दिसदृशान्यदर्शनानीत्युपनयः । किंनूतं जैनेंमतं कारुण्यपस्यापणं । दयारूपक्रय्यस्य पुढें ॥ एवं मत्वा श्रीजिनमतमेवांगीकर्त्तव्यं कुर्वतां च सतां यत् । शेषं प्राग्वत् ॥ १ ॥ • नापाकाव्यः-उप्पय ॥ अमृत कहं विष कहें, नीर कहं पावक मानें ॥ तेज तिमिर सम गिनै, मित्त कहं शत्रु बखानै ॥ पुहपमाल कर्ह नाग, रतन पर सम तुल्नै ॥ चंद किरन यातप सरूप, इह नांति जु चुन्ने ॥ करुना निधान अमलान गुन, प्रगट बनारसि जैन मत ॥ पर मत समान जो मन धरत, सो. अजान मूरख अपत ॥ १५ ॥ धर्म जागरयत्यघं विघटयत्युबापयत्युत्पथम, नि ते मत्सरमुचिनत्ति कुनयं मथ्नाति मिथ्यामतिम् ॥ वैराग्यं वितनोति पुष्यति कृपां मुष्णाति तृष्णां च य, तनं मतमर्चतिप्रथयति ध्यायत्यधीते कृती ॥२॥ अर्थः-( कृती के ) पंमित पुरुष ( यत् के०) जे (जैनंमतं के) जैनेंमत जे जिनशासन, एटले जिनप्रवचन तेने (अर्चति के०) पूजे . Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. जैनकथा रत्नकोप नाग पदेलो. जे, (. प्रथयति के) विस्तार जे. वली ( ध्यायति के) ध्यान करे . एटले चितवन करे . वली (अधीते के०) पठन करे डे. (तत् के०) तो ते पूर्वोक्तरीते करेलु एवं जिनशासन झुं करे ले ? तो के ( धर्म के० ) धर्मने (जागरयति के ) जागरणजे नदीपन तेने, करे . वली ( अघं के) पापजे तेने ( विघटयति के०) दूर करे . वली (नृत्पथं के०) नन्मार्ग जे अनाचार तेने (नबापयति के०) निवारण, करे . तथा ( मत्सरं के०) गुणी पुरुषोने विषे वनावने (नित्ते के ) नाश करे . वली ( कुनयं के० ) कुत्सित नय जे अन्याय, तेने (नबिनत्ति के०) नन्द करे . वली (मिथ्यामति के०) कूटबुद्धिजे तेने (मथ्नाति के०) सर्वथा दूर करे ले. वली (वैराग्यं के०) वैराग्यने ( वितनोति के० ) विस्तार करे जे. वली (रूपां के०) दयाने (पुष्यति के०) पोषण करे . (च के०) वली (तृष्णा के०) स्टहा एटले लोनने मुष्णाति के०) टाले . अर्थात् जेणें जिनमत अाराधन कयं, तेणें पूर्वोक्त सर्व वानां कस्यां, एम जाणवू.ए प्रकारे जाणी ने श्रोजिनमत ज जिनप्रणीत सिहांत तेनुं आराधन कर.. आराधन करनारने जे पुण्य याय । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥ २० ॥ एत्रीजो जिनमत प्रक्रम थयों ॥ ३ ॥ ___टोकाः-धर्ममिति ॥ कृती पमितः जैन मत जैनेश्मतं श्रीजिनशासनं जि नोक्तप्रवचनं अर्चति पूजयति । पुनः प्रथयति विस्तारयति । पुनायतिचिं तयति । पुनः अधीते पति । तत् धम्मै जागरयतिधर्मस्य जागरणं नदी पनं करोति । पुनः अघं पापं विघटयति. दूरीकरोति । पुनः उत्पथं उ न्मार्ग अनाचारं उबापयति निवारयति । पुनः मत्सरं गुणिषु क्षेषनावं नि ते नेदयति विनाशयति । पुनः कुनयं कुत्सितनयं अन्यायं. उहिनत्ति । पुनः मिथ्यामति मध्नाति कूटबुकिं विलोज्य दूरीकरोति । पुनः वैरा ग्यं वितनोति विस्तारयति । पुनः रूपां दयां पुष्यति पोषयति । पुनः तृ ष्णां स्टहां लोनं मुष्णाति निराकरोति । अर्थात् येन · जिनमतमाराधितं. तेन एतानि वस्तूनि कृतानीत्यर्थः ॥ इति ज्ञात्वा श्रीजिनमतं जिनप्रणीत सिक्षांतश्च सम्यगाराधनीयः । आराधयतां च सतां यत्पुण्यं ॥ २० ॥ इति ॥ सिंदूरप्रकराव्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिना॥ विहितायां जिनमत,प्रक मः पूर्णतामितः ॥ ३ ॥ इति तृतीयं जिनमतप्रस्तावः ॥३॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः . नाषाकाव्यः-महरा बंद । गुन धर्म विकासे, माप विनासे, कुपथ नथा पन हार ॥ मिथ्या मत खमैं, कुनय विहमैं, मैं दया अपार ॥ तिस्ना मद मारें, राग विमारें, यह जिन आगम सार ॥ जो पूजै ध्यावें, पढ़ें पढावे, सो जगमांहि उदार ॥ २० ॥ हवे चारं श्लोकोयें करीने संघनां महिमाने कहे . रत्नानामिव रोहदितिधरः खं तारकापामिव, स्वर्गः क रूपमहीरुहामिवं सरः पंकेरुंदाणामिव ॥ पायोधिः पयसा मिवेंजमहसां (शशीवं महसां) स्थानं गुणानामसा,वित्या लोच्य विरच्यतां नगवतः संघस्य पूजाविधिः॥२१॥ अर्थः-हे जव्य जनो! (इति के०) आ प्रकारें (बालोच्य के० ) जो इने अर्थात् विचार करीने (जगवंतः के० )पूजन करवा योग्य एवा (सं यस्य के०) संब जे जे, तेनो (पूजाविधिः के० ) पूजानो विधि, (विरच्य तां के ) करीयें, अर्थात् करो. हवे शा प्रकारें. विचार करीने ? तो के, (असौ के०) या साधु, साध्वी, श्रावक, श्राधिका रूप चतुर्विध संघ जे , ते (गुणानां के०) शान, दर्शन, चारित्र अने विनयादिक जे सर्व गुणो ते नुं (स्थानं के) निवासस्थानक डे, केनी पेढ़ें ? तो के (रत्नानां के० ) र नौनुं स्थानक ( रोहणादितिधरः के०) रोहमाचलपर्वत ( श्व के०) जे म , तेम. तथा (खं के ) आकाश, ते (तारकाणां के० ) तारान्नु निवासस्थान (श्व के०) जेम छे, तेम. तथा ( कल्पमहीरुहां के०) क पदोनुं निवासस्थानक (स्वर्गः के०) स्वर्ग (श्व के ) जेम जे, तेम. तथा (पंकेरुहाणां के०) कमलोनुं निवासस्थानक ( सरः के० ) तलाव (श्व के) जेम , तेम. वली (पायोधिः के० ) समु.जे जे, ते ( पय सां के) जलोतुं निवासस्थानक (श्व के०)जेम, तेम. हवे ते जल केह वां ? तो के (इंउमहसां के०) चश्मा समान निर्मल ले. अथवा (शशीव महसां के०) शशीव महसांएवो पाठ जो होय तों,(महसां के०) तेजनुं निवा स स्थानक ( शशी के०) चश्मा (श्व के) जेम होय, तेम. अर्थात् पू क्ति वस्तु जेम बीजी कहेलो वस्तुनुं निवास स्थानक बे, तेम आ श्री चतुर्विध संघ पण ज्ञान, दर्शनं, चारित्रने रहेवानुं निवासस्थानक . या Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ . जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. प्रकारें विचार करीने चटुर्विध संघर्नु पूजन कर. एज नावार्थ जे. बाही (स्थान) ए पद,सर्वत्र योजन करवू.माटें एमजाणीने श्रीसंघनीनक्ति करवा योग्य ले.अने ते नक्ति करवानु.जे पुण्य थाय । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥ २१ ॥ टीकाः-अर्थ चतुर्निवृत्तः संघस्य महिमानमाह ॥ रत्नानामिवेति ॥ जो नव्याः। इत्यालोच्य इति विचार्य नगवतः पूज्यस्य संघस्य पूजाविधिविरच्य तां क्रियतां । इतीति किं ? थतः असौ संघः साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूपश्चतुर्विधसंघः गुणानां झान दर्शन चारित्र विनयादीनां स्थानं निवासः। कः केषा मिव ? रोहणदितिधरः रोहणश्चासौ दितिधरश्च पर्वतो रत्नानामिव । यथा रोहणाचलोरत्नानां स्थानं तथेत्यर्थः। पुनः खं आकाशं तारकाणामि व । पुनर्यथा स्वर्गः कल्पमहीरुहां कल्पवृक्षाणां स्थानं तथेत्यर्थः। पुनर्यथा सरस्तडागः पंकेरुहागां कमलानां स्थानं तया । पुनर्यथा पाथोधिः समुहः पयसां पानीयानां स्थानं तथा। किंजूतानां पयसां । इंसुमहसां इंज्वन्निर्मला नां। अथवा शशीव महसां इति पाठः। यथा शशी चंशे महसां तेजसां स्थान तथाऽसौ संघो गुणानां स्थानं । अथ वा किंनूतानां गुणानां महसांई वित् महो एषां तानि महांसि तेषां । एवं श्री चतुर्विधसंघः सर्वगुणानां स्थानं । इति छात्वा श्रीसंघस्यक्तिः कायो। कुर्वतां च सतां यत्पुण्यं ॥२१॥ नापाकाव्यः-कवित्त मात्रात्मक ॥ जैसे नजमंगल तारागन, रोहन सिखर रतनकी खान ॥ ज्यों सुरलोक नारे कल्पम, ज्यों सुरवर अंबुज बन जान ॥ ज्यों समुइ पूरन जल मंमित, ज्यों ससि बवि समूह सुखदा नि ॥ तैसें संग सकल गुन मंदिर, सेवहूं नाव जगति मन आनि ॥ २१ ॥ यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठते, यंती र्य कथयंति पावनतया येनाऽस्ति नाऽन्यःसमः॥य स्मैतीर्थपतिनमस्यतिसतां यस्माबुनंजायते,स्फूर्ति र्यस्य परावसंतिचगुणायस्मिन्ससंघोऽर्च्यतां॥॥ अर्थः-हे नव्यजनो! तमोयें ( सः के.) ते चतुर्विध संघ (अयंतां के) पूजाय. अर्थात् तमें चतुर्विध संघने पूजो. ते कहेवो संघ डे ? तो के (यः के) जे संघ, ( संसार के०) संसार तेनो ( निरास के०) निराकर ण एटले त्याग तेने विषे ( लालसमतिः के) इलावाली बुदि जेनी एवो बतो ( मुक्त्यर्थ के०) मुक्तिना साधन माटे ( उत्तिष्ठते के०) साव Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः ६५ • धान थाय बे. तथा (धं के० ) जे संघने ( पावचतया के ० ) पवित्रपणायें करीने (तीर्थ के० ) तीर्थनूत एवाने ( कथयंति के०) कहे बे. तथा ( येन के० ) जे संघनी संघातें ( समः के० ) समान, ( अन्यः के० ) बीजो कोइ ( नास्ति ० ) नयी वली ( यस्तै के०) जे संघने ( तीर्थपतिः ० ) तीर्थकर पोते ( नमस्यति कें०) नमस्कार करे बे. एटले व्याख्या नावसरने विषे "नमोतिबस्स” एवं जणे बे. तथा . ( यस्मात् के० ) जे संघकी ( सतां के०) सनोनुं ( ( गुनं के० ) कल्याण ( जायते के० ) उत्पन्न थाय बे. (च के०) वली ( यस्य के० ) जे संघनी ( स्फूर्त्तिः के० ) महिमा ( रा ० ) उत्कृष्ट वर्ते बे. वली ( यस्मिन् के० ) जे संघने विषे (गुणाः के०) गांनीर्य, धैर्य, औदार्यादिक मूलोत्तर गुणो (वसंत के ० ) वसे बे. या श्लोकमा सात विनक्तिनो अनुक्रमें समावेश करेलवे बे. ते जेम के यारं मां (य) ए पद लइने ( यस्मिन् ) ए पद पर्यंत जोइ जेवुं. माटे ए प्र सा जांलीने हे नव्यप्राणीयो ! मतमां विवेक लावीने श्रीसंघनी पूजा न क्ति करवी; ते पूजा भक्ति करनारने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जावं ॥ २२ ॥ टीका :- यः संसारेति ॥ जो नव्याः ! नवद्भिः सः श्री चतुर्विधसंघो तां "पूज्यतां । सः कः ? यः संघः संसार निरासलालसमतिः सन् सं सारस्य निरासे निराकरणे त्याने लालसां इवा यस्यासा. ईदृशी मतिर्बुद्धि यस ईदृशः सन् मुक्त्यर्थ मुक्तिसाधनार्थ उत्तिष्ठते सावधानोजवति । पुनर्य संघ पावनतया पवित्रत्वेन तीर्थभूतं कथयंति, पुनर्येन संघेन समः सह शोऽन्यः कोऽपि नास्ति । पुनर्यस्मै संघाय तीर्थपतिः तीर्थकरः स्वयं नम स्यति नमस्कारं करोति । व्याख्यानावसरे नमोतिबस्से तिनणनात् । पुनर्य स्मात् संघात् सतां सकनानां शुनं कल्याणं जायते उत्पद्यते । पुनर्यस्य सं घस्य स्फूर्त्तिर्महिमा परा वकृष्टा वर्त्तते । पुनर्यस्मिन् संघे गुणा गां नियेधैयदा र्यादयः मूजगुणोत्तरगुणाश्च वसंति तिष्ठति । एवं ज्ञात्वा जो नव्यप्राणिन् ! मन सि विवेकमानीय श्री संघस्य पूजा नक्तिश्च प्रकर्त्तव्या । कुर्व्वतां च सतां ॥ २२ ॥ जाषाकाव्यः - वृत्त उपर प्रमाणें ॥ जे संसार नोंग यासा तजि, गनत मुकति पंथी दौर ॥ जाकी सेव करत सुख उपजत, जिन समान उत्तम नहि और ॥ इंशादिक जाके पद वंदत, जो जंगम तीरथ सुचि ठौर ॥ जाने नितं नि वास सुख संपति, सो सिरि संघ जगत सिर मोर ॥ २२ ॥ ९ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. लक्ष्मीस्तं स्वयमन्युपैति रनसा कीर्त्तिस्तमालिंगति, प्रीतिस्तं चंजते मतिः प्रयतते तं लब्धुमुत्कंठया ॥ स्वः श्रीस्तं परिरधुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते, यः संघ गुणराशिकेलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ॥ १३ ॥ अर्थः- ( यः के० ) जे पुरुष, ( श्रेयोरुचिः के० ) श्रेय एटले कल्या तेने विषे वा धर्मने विषे बे रुचि जेनी एवो तो ( संघं के० ) चतुर्विध सं घ जे तेने ( सेवते के० ) सेवन करे बे, ( तं के० ) ते पुरुषने ( लक्ष्मीः के० ) संपत्ति, ते ( रजसा के०) वेगें करीने अर्थात् शीघ्रताथी ( स्वयं के ० ) पोतानी मेलें (न्युपैति के० ) सन्मुख खावे बे. वली (कीर्त्तिः के० ) की र्त्ति जे बे, ते ( तं के० ) ते पुरुषने (खालिंगति के० ) आलिंगन दे दे, र्थात् कीर्त्ति प्राप्त थाय बे. तथा वली ( प्रीतिः के० ) स्नेह जे बे. ते ( तं ho) ते पुरुषने (ज्ञते के० ) नजे बे, एटले सेवे बे. वली (मंतिः कें० बुद्धि जे बे, ते (उत्कंठया के० ) उत्सुकतायें करीने ( तं के० ) ते पुरुषने (ल धुं के० ) प्राप्त सवाने ( प्रयतते के० ) प्रयत्न करें बे. वली (स्वः श्रीः के० ) स्वर्गनी लक्ष्मी, ( तं के० ), ते पुरुषने ( मुदुः के० ) वारंवार (परिरब्धुं के ० ) लिंगन देवाने (इति के०) इछा करे ले. वली (मुक्ति: के०) मोद, (तं के०) ते पुरुषने (लोकते के ) जुवे बे. हवे ते संघ केहवो बे ? तो के ( गु राशि के ० ) गुणनो जे समूह तेनुं ( केलिसदनं के० ) क्रीडागृह बे. अ र्थात् ते सर्व गुणोने रमवानुं स्थानक वे. माटे एम जालीने मनने विषे विचार करीने चतुर्विध संघ जे बे ते सेववा योग्य बे. ते सेवन करता सुजनोने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जावं ॥ २३ ॥ J टीका:- लक्ष्मीति ॥ यः पुमान् श्रेयोरुचिः सन् श्रेयसि कल्याणे धर्मे वा रुचिर जिलापोयस्य स श्रेयोरुचिः। ईदृशः सन् श्रीसंघं सेवते । तं पुरुषं ल मी: संपत् रजसा वेगेन स्वयमात्मना धन्युपैति सन्मुखमायाति । पुनः कीर्त्ति स्तं पुरुषं प्रागिति आलिंगनं ददाति । पुनः प्रीतिः स्नेहस्तं जजते सेवते । पुनर्मतिर्बुद्धिः उत्कंठया उत्सुकतया कृत्वा तं नरं लब्धुं प्राप्तुं प्रयतते यत्नं करोति । पुनः स्वः श्रीः स्वर्गलक्ष्मीस्तं मुदुर्वारं वारं परिरब्धुं श्रालिंगितुं इति । मुक्तिर्मोहस्तं पुरुषं खालोकति पश्यति । किं विशिष्टं संघं ? गुणराशि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः . केलिसदनं गुणसमूहस्य क्रीडागृहं । एवं ज्ञात्वा.संघ सेव्यः शेषं पूर्ववत्॥२३॥ जापाकाव्यः-वृत्त उपरं प्रमाणे ॥ताको आइ मिलै सुख संपति, कीरति रदै तिहूं जग बाई ॥ जिनसौं प्रीति बढे ताके घद, दिन दिन धरम बुद्धि अधि काई॥ बिन लिन ताहि लखै शिव सुंदरि, सुरग संपदा मिल सुनाई ॥ वा नारसि गुनरासि संघकी, जो नर जगति करें मन लाइ ॥ २३ ॥ कथाः-अयोध्या नगरीये नस्तचक्रवर्ती अन्याय वर्जतो राज्य पाले .ए कदा श्रीआदिनाथने केवलज्ञान उपने थके चोराशी गणधर सहित विहार करता अयोध्याना उद्यानमा समोसस्या, उद्यानफालकें वधामणी दीधी, तेने साडीबार कोडनुं दान दीधुं. पड़ी जरतराज़ायें विचाघु जे बाज रुष जदेव पधाया , तेने सपरिकर नोजन करावं ! एम चिंतवी घणा गाडां पक्कासादिकें भरी समोसरणे आवी नगवानने वांदीने विनति करी के महाराज! आज सर्व कुटुंब सहित आप महारुं नोजन करो. तेवारें जगवान बोल्या के हे जरत ! साधुने राज्यपिंक अग्राह्य . वली आधा कर्मी तथा साहामो आण्यो ने पण अग्राह्य जे. एवी वाणी सांजली नरत पश्चातापं करवा लाग्यो, नेवारें लगवान् बोल्या के हे राजे ! तुं अ संतोपं म कर, पहेलु पात्र वीतराग, बीजूं पात्र साधु, त्रीजुं पात्र अषु व्रतधारी अने चोथु पात्र दर्शनभर, माटें तुं अणुव्रतधारी श्रावकनी नक्ति कर, जेथकी संसाररूप समुइ.चुचूक समान थाय. एवं सांजलीजरत राजा हर्ष पाम्यो थको स्वस्थानकें आव्यो. श्रावक मात्रने जमवा माटें नो तरां दीघां. निरंतर सर्वलोक जमवा आवे. केम के ते वखतें लोक सर्व रुजु जड हता. माटें हरहमेश आववा लाग्या, तेवारें रसोइ करनारायें राजाने विनव्यो के महाराज! प्रजा सर्व उलटी पडी ने, केहने जमाडीयें अने के हने न जमांडीये! तेवारें राजायें परीक्षा करी शुरू श्रावकने ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप त्रण रेखा कांगणीरत्नथी कीधी. एम करी अवतार स फल करवा लाग्यो. तथा श्रीशत्रुजयनो प्रथम उदार कस्यो, संघवीनी प दवी पाम्यो. वली अष्टापद पर्वत पर रुपनदेव प्रमुख आगामी कालें थ नारा चोवीश तिर्थकरनां प्रासाद करी मांनोपेत प्रतिमा जरावी. ए रीतें श्रीसंघनी नक्ति करी अनुक्रमें प्रारीसानवनमां रूप जोतां अनित्यनावना जावतां मनमां वैराग्य वृद्धि करता था संसारमा सार ते एक धर्मज . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. एम कहेतां कहेता केवलज्ञान पाम्या. तेनो देवतायें महोत्सव कयो. चो राशी साख पूर्वनुं श्रायु जोगवी मोदें गया. तेमनो पुत्र श्रीसूर्ययश थयो, तेणे पण नरतेश्वरनी पेलेंज श्रीसंघनी नक्ति करी. उर्वशी प्रमुख देवांगनायें परीक्षा कीधी पण चलायमान थयो नंही. तेमने पण आरीसामां रूप जोतां केवलज्ञान उपन्युं अर्ने मोदे गयो.' तेमनो पुत्र महायश, ते मनो पुत्र अतिबल, तेमनों पुत्र बलन, तेमनो पुत्र, बलवीर्य, तेमनो पुत्र कृतवीर्य, तेमनो पुत्र जलवीर्य, तेमनो पुत्र आतमे पाटें दमवीर्य. ए सर्वत्र ण खंमना नोक्ता थया, चतुर्विध श्रीसंघनी नक्तिना करनार थया. इहां न रतनी पाउल न कोडी पूर्व वर्ष गयां, तेवारें सौधर्म अवधिज्ञानने प्रमाणे स्तवना करी पोतें अयोध्यामांहे आवी झानादिक गुण जणाववा माटें य झोपवित धारी बार व्रतनां बार तिलक कस्यां. ते अवसरें दमवीर्य सजायें इंइने श्रावकरूपें दीठो, ते देखीने हर्षवंत थयो. पड़ी जमवानी निमंत्रणा कीधी, रसोश्याने कर्वा के साधर्मिकने रूडी रीतें जोजन करावों. इंश पल श्रावकरूप धरतो घरमांहे आव्यो, पचरकाण पारी श्रावकोनी, पंक्तिमां ज मवा बेतो. एक कोड. श्रावकने अर्थे जेटनुं अन्न निपजाव्यु हवं तेटलुं ते एकलो जम्यो. वली रसोश्याने कह्यु के हुँ नुख्यो , माटे अन्न आप. र सोश्यायें राजानी यांगत सर्व वौत कही. राजा तिहां व्यो, तेने श्राव करूपधारक इंई कह्यु के ए रसोइ करनार सर्वने नरख्या राखे . राजायें वली सो मूडा अन्न रंधावी पीरइयुं, ते तत्काल जमीने वाली कहेवा लाग्यो के महारी नूख गइ नथी. एरीतें राजानुं अपमान करवा लाग्यो के हुँ तृप्तथा तो नथी.तेवारें राजायें मनमां खेद कस्योजे महाराथीसंघनी पूर्ण नक्ति थाती नथी, माटें मुने धिक्कार . सेवक बोल्यां महाराज! ए कोई देवस्वरूपीछे, तेवारें राजायें धूपादिकें संतोषी नमस्कार करी पूयुं के हे स्वामी ! प्रसन्न था.साधर्मीनी नक्ति महाराथी केम थशके ? एवं सांजली इंपोतार्नु प्रगट रूप कीg. दमवीर्यनी प्रशंसा करवा लाग्यो ने कह्यु के हे दमवीर्य ! ते युगादि देवनो वंश उजाल्यो, धन्य बे तुमने जे तुं आवी रीतें साधर्मीनी नक्ति करे जे. नक्तं च ॥ ते पुत्राये पितुर्नता, स पिता यस्तु पोषकः ॥ तन्मित्रं यत्र विश्वासः, सा नार्या यत्र निर्वृतिः ॥१॥ इत्यादि स्तवना करी इंश देवलोकें गयो. दंमवीर्य पण संघनक्ति करी जन्म सफल करी मोद पहोतो. एम Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः . जाणी संघनक्ति करो. सात दैत्रे धन वावरी अवतार सफल करो ॥ २३ ॥ यमक्तेः फलमईदादिपदवीमुख्यं कृषः सस्यवत्, चक्रित्वं त्रिदशेस्तादि तृणवत् प्रासंगिकं गीयते ॥ शक्तिं यन्म हिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपिवाव॑स्पतेः,संघःसोऽघहरः पुनातु चरणन्यासैः सतां.मंदिरम्॥४॥संघप्रक्रमः॥४॥ अर्थः-(सः के० ) ते ( संघः केर) चतुर्विध संघ (चरणन्यासैः के०) पोताना पदस्थापने करीने (सतां के०) नक्तियुक्त मनुष्योनुं ( मंदिरं के) मंदिर जे घर तेने (पुनातु के ) पवित्र करो. ते संघ केहवो के ? तो के ( यन्नक्तेः के) जे संघनी नक्तिनुं (अर्हदादि के) तीर्थकरादि एवी (पदवी के०) पदवी जे पदनी प्राप्ति तेज (मुख्यं के० ) मुख्य एवं (फलं के० ) फल , ते केनी पते ? तो के (कृपेः के० ) देवादिना (स श्यवत् के०) धान्यनी पर्नु अर्थात् जेम कृषि करनार .मनुष्यने धान्य प्राप्ति रूप मुख्य फल दे तेम बाहिं श्रीसंघनी जक्तिनुं मुख्य फल अर्ददादि पदवी ज, अने (चक्रित्वं के०) चक्रवर्तीपणुं तथा ( त्रिदशेइतादि के० ) देवेंशादेपदपणुं तो (प्रासंगिकं के० ) प्रसंगयीज आव्यु. एम (गीयते के०) कहेवाय जे. केनी पड़ें ? तो के..(तृणवत् के) देना घासनी परें. अ र्थात् जेम कृषि करनारने विना प्रयासें देवयी धासनी प्राप्ति थाय ले. तेम आहिं संघनक्तिकारक पुरुषने चक्रवर्तित्व देवेंश्त्व पदवी ते विना प्रयासेज प्राप्त थाय . वली ( यन्महिमस्तुतौ के०) जे संघना प्रनाववर्णनने विपे (वा चस्पतेः के० ) बृहस्पतिनी ( वाचोऽपि के०) वाणीयो पण (शक्ति के०) सामर्थ्य जे तेने ( नदधते के०) धारण करी शकती नथी. वली ए संघ केहवो के ? तो के (अघहरः के०) पापने हरण करनारो . माटे ते सं घ अघहर ने, एम. जाणीने श्रीसंघने पोताने घेर थामंत्रण करीने पूजन करवु अने तेनी पूजानुं जे पुण्य थाय । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥२४॥ आ चतुर्थ संघनक्तिनो प्रस्ताव थयो ॥ ४ ॥ टीकाः-यनक्तरिति॥सः श्रीसंघश्चरणन्यासैः स्वपादस्थापनैः कृत्वा मतां सत्पुरुषाणां साधुमनुष्याणां मंदिरं गृहं पुनातु पवित्रयतु। सः कः? यजक्ते र्यस्य संघस्य नक्तेः अर्हदादिपदवी मुख्यं तीर्थकरादिपदप्राप्तेर्मुख्यं फलं वर्त Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ go जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ते ॥ किं वत् ? कपेः देत्रादेः सस्यवत् धान्यवत् । चकिंत्वं त्रिदशेंतादि । चक्र वर्त्तित्वं पदत्वादिकं च प्रासंगिकं प्रसंगादागतं फलं गीयते कथ्यते । किं वत् । कृपेस्तृणवत् पलालादिवत् । पुनर्यन्मद्विमस्तुतौ यस्य, संघस्य प्रना ववर्णने वाचस्पतेरपि वाचो वरण्यः शक्तिं सामर्थ्य न दूधते न धारयति । किंविशिष्टः संघः? अघहरः अयं पापं हरति यः सः अत्रहरः । इति ज्ञात्वा श्री संघः स्वगृहे श्राय सम्यकं पूजनीयः । शेषं प्राग्वत् ॥ २४ ॥ सिंदूरप्रकरा ख्यस्य, व्याख्यायां दर्षकीर्त्तिना ॥ सूरिया विहितायां तु, श्रीसंघप्रक्रमोऽजनि ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ संघन क्तिप्रस्तावः ॥ ४ ॥ . जाषाकाव्यः - वृत्त उपर प्रमाणें ॥ जाके जगत मुगति पद पावत, इंड्रादिक पद गनत न कोई ॥ ज्यों कृषि करत धान फल उपजत, सहज प्रयास घास उस होई ॥ जाके गुन जस संपन कारन, सुरगुरु थकित होत गढ़ खोइ ॥ सो सिरि संघ पुनीत बनारसि, इरित हरन विचरत अ लोइ ॥ २४ ॥ हवे हिंसाना निषेधें करीने सर्व प्राणीयोने विषे स्वसमानतानुंध्यान करो, तेंकहे: क्रीडानूः मुकृतस्य ङःकृत रजः संहारवात्या नवो, दन्वन्नौव्यसनानिमेषपटली संकेतदूती श्रियामं ॥ निःश्रेणिस्त्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगत्यर्गला, सत्वेषु क्रियतां कृपैव नवतु क्लेशैरशेपैः परैः ॥ २५॥ अर्थ :- हे नव्यप्राणीयो ! (सत्त्वेषु के०) जीवोने विषे ( रूपैव के० ) कृपा जे दया तेज ( क्रियतां के० ) कराय. अर्थात् करो. बली ते कृपा ( परैः के० ) बीजा ( अशेषैः के० ) समस्त एवा ( क्लेशः के० ) कायाना कष्टें करीने पण (जवतु के० ) हो. अर्थात् पोताना देने कष्ट पीने पण जीवदया पालवी. ए जीवदया केहवी बे ? तो के ( सुकृतस्य के० ) सुकृत जे तेनी ( क्रीडानूः के० ) क्रीडानुं स्थानक बे. तथा वली केवी बे? तो के ( ० ) पाप तेज ( रजः के० ) रज जे धूड, तेना ( संहार के० ) हरण करवामां ( वात्या के० ) वायुना विटोलीया समान d. अर्थात कर्मरजने नमाडवामां जीवदया विटोलीया जेवी बे. पापने धूडनी उपमा केम यापी ? तो के ते पापज कर्ममनुं कारण बे. वली hal बे ? तो के ( नवोदन्वन् के० ) संसाररूप जे समुड् तेमां (नौः के० ) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ७१ नावसमान अर्थात् संसारसमुड् तरवामां नावसम्मान बे, वली के हवी बे ? तो के ( व्यसनानि के० ) कंष्टरूप जे मि तेने विपे ( मेघप टली के० ) सेघघटा तुल्य अर्थात् श्रनिंने काववामां जेम मेघ बे, तेम 5. खानि बुकाववामां जीवदवा छे, माटे मेघ संरखी कही. वली केवी बे ? तो के ( श्रियां के० ) - संप चियोनी ( संकेतदूती के० ) संकेतस्थानमा पो चाडनारी दूतीसमान बे. वली केन्हवी बे ? तो के (त्रिदिवौकसः के० ) स्वर्ग 'रूप जे घर तेन। उपरचंडवानी ( निःश्रेणिः के० ) निसरणी जेवी बे, वली ते केवी बे ? तो के ( मुक्तेः कै० ) मुक्ति रूपस्त्रींनी ( प्रियसखी के० ) वा ली सखी बे, बली केवी बे ? तो के ( कुगत्यर्गला के० ) दुर्गतिना हारने खाडी देवानी जोगल समान बे, एम जालीने जीवोने विषे दया करवी २५ • टीका:-थ हिंसा निपेधेन सर्वसत्त्वेषु दयैव क्रियतामित्याह ॥ क्रीडानू रिति ॥ जो व्याः ! सत्त्वेषु जीर्वेषु कृपा एव दया एव क्रियतां । परैरन्यैरशेषैः 'समस्तैः क्लेशः कायकष्टकरणैः जवतु पूर्णतया क्रियतामित्यर्थः ॥ कथंनूता कृपा ? सुकृतस्य पुष्यस्य क्रीडानूः क्रीडास्थानं । पुंनः कथंभूता ? डुः कृतरजः संहारवाट्या । दुःकृतं पापं तदेव कर्ममलर्हेतुत्वात् रज इव रजस्तस्य संहारे संहरणे वाल्या वायुसंमूहतुल्या । पुनः कथंभूता ? जंबोदन्वन्नौः नव एव सं सार एव उदन्वानिव उदन्वान संमुः तत्र नौः मौका । पुनः कथंजुता ? व्यसनानिमेघपटली व्यसनानि कैष्टान्येव तापहेतुत्वात् श्रग्नयो वन्हयः तत्र मेघपटली मेघघटासमाना । पुनः किंनूता ? श्रियां संपदां संकेतदूती संकेत स्थानप्रापका संकेतिका दूती । पुनः कथंभूता ? त्रिदिवौकसः निःश्रेणिः । त्रिदिवं स्वर्ग एव को गृहं । तस्य सोपानपंक्तिः । पुनः कथंभूता ? मुक्तेः प्रियसखी वल्लनं वयस्या । पुनः कथंभूता ? कुगत्यर्गला कुगतेर्गतेः र्गला द्वारपरिघः । इति ज्ञात्वा जीवेषु कृपा क्रियतां ॥ २५ ॥ जाषाकाव्यः - सवैय्या इकतीसा ॥ सुकृतकी खानी इंं पुरीकी निसानी जानी, पाप रज खंमनकों पौनरासि पेखियें ॥ चंवडुःख पावक बुकायवे कों मेघमाला, कमला मिलायवेकों दूती ज्यों विशेषियें ॥ मुगतिवधूसों प्रीति पालवेकों खाली सम, कुगतिके द्वार दिढ खागलसी देखियें || ऐसी दया कीजें चित्त तिहुं लोक प्रानीं हित, और कर तृति कादु लेखे में न लेखियें || Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. ॥शिखरिणीटतम् ॥ यदि ग्रावा तोयें तरति तरणि र्यादयति, प्रतीच्यां सप्ताचियदि नजति शैत्यं कथ मपि ॥यदि मापी स्याउपरि सकलस्याऽपि जग तः,प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधःक्वाऽपि सुकृतम् ॥२६॥ अर्थः-( यदि के) जो (ग्रावा के०) पाषाण ते (तोये के ) ज लने विषे ( तरति के ) तरे , वली (यदि के०)जो ( तरणिः के सू . र्य ते, (प्रतीच्यां के) पश्चिम दिशाने विषे ( उदयति के) नगे , वली ( यदि के) जो ( सप्तार्जिः के० ) अनि, ते (शैत्यं के०) शीतपणाने (नजति के०) नजे . वली ( यदि के०) जो (कथमपि के०) को पण रीतें (क्ष्यापी के) पृथ्वीमंमल, ते (सकलस्यापि के०) समय एg पण (जगतः के०) जगत जे तेनी (उपरि के०) उपरने विपे (स्यात् के०) थाय, ( तदपि के० ) तो.पण (सत्त्वानां के०) जीवोनो (वधः के०) नाशरूप जे. हिंसा ते (क्कापि के०) इव्स, क्षेत्र, कालादिकने विपे कांश पण (सुकृतं के०) पुण्यने (न प्रसूते के ) अत्पन्न करतुं नयी. अर्थात् ते पूर्वोक्त सर्व अघ टित घटना कदाचित् थाय, तो पण जीवहिंसा को रीतें पुण्यकारक थाय नही. माटे हे नव्यजनतो! सर्व जननोयें जीव हिंसानो त्याग करवो ॥१६॥ टीका:-यदिग्रावेति ।। यदि ग्रावा पाषाणः तोये जले तरति । पुनर्यदि त रणिः सूर्यः प्रतीच्या पश्चिमायां दिशि उदयति । पुनर्यदि सप्तार्चिः अमिः शैत्यं शीतलत्वं जजति । पुनर्यदि कथमपि मापी पृथ्वीमंमलं सकलस्या पि जगतोविश्वस्य नपरि नवेत् ॥ तदपि सत्त्वानां वधः हिंसा क्वापि इव्य क्षेत्र कालादौ सुकृतं पुण्यं न प्रसूते न जनयति । शेषं प्राग्वत् ॥ २६ ॥ नापाकायः-थानानक बंद ॥ जो पश्चिम रवि नगै, तिर पापान जल ।। जों उलटें नुथ लोक, होइ शीतल अनल ॥ जो सुमेरु मगमगै, सिह क हं लगनमल ॥ तबहूं हिंसा करत, न उपजे पुन्न फल ॥ २६॥ . ॥ मालिनीरत्तम् ॥ स कमलवनमग्नेर्वासरं नास्वदस्ता, दम तमुरगवात्साधुवादं विवादात् ॥ रुगपगममजीर्णाजीवितं कालकूटा, दनिलपति वधायः प्राणिनां धर्ममिवेत् ॥ २॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ७३ अर्थः-(यः के)पुरुष, (प्राणिनां के) जीवोना (वधात् के०)वधजे हिंसा तेथकी (धर्म के) धर्मने (इछेत् केप) ले ,अर्थात् माने , (सः के०) ते पुरुष, झुं ले ले ? तो के (अग्नेः के०) अमिथकी (कमलवनं के) कमलोना वनने (अनिषति के०) अनिताप करे . अर्थात् ते पुरुष, निमांथी कमलवनने.जोवानी ना करें .तथा (जास्वदस्तात् के०) सूर्य अस्त थया पली (वासरं के०) प्रनांतने बेले. वली ते (स्गवक्रात् के०) सर्पना मु खथकी (अमृतं के०)अमृतने छे ,तथा ते पुरुष, (विवादात् के०) कलह थकी (साधुवादं के०)कीर्तिनेश्ले ले. वली ते पुरुप,(अजीर्णात् के०) अजीर्ण थकी (रुगपगमं के०) रोगना नाशनी ना करे . वली ते पुरुष, (कालकूटात् के) विष थकी (जीवितं के०) जीवितव्यने श्छे ले.अर्थात् जे पुरुष,जीवहिंसा थकीधर्म मामे ,ते पुरुष,आश्लोकमांकहेलाअनि वगेरे पदार्थोथकीकमलव न वगेरे पदार्थोने श्छे ,एम जरगवं. एटले ते पुरुष अज्ञानी जावो.आ श्लो -कमा अनिलपति, ए क्रियापद , ते जे जे.एवा अर्थमा सर्वत्र योजन करवू. टीकाः-सकमलेति ॥ यः पुमान् प्राणिनां वधात् धर्म श्लेत् सः अग्नेः सकाशात् कमलवनं अंनिलषति वांगति । तथा नास्वदस्वात् सूर्यास्तगमना त् वासरं अनिलपति । तथा उरगवक्रात् सर्पमुखात् अमृतं पीयू पं अनिलपति । पुनः विवादात कलहारं साधुवाद कीर्ति अनिलषति ॥ तथा अजीर्णात् रुगपगमं रोगस्य अपगमं विनाशं अनिलषति । पुनः का लकूटात् विपात् जीवितं प्राणधारणं अनिलषति । शेषं पूर्ववत् ॥ २७॥ नापाकायः- सवैय्या इकतीसा ॥ अगनिमें जैसे अरविंद न विलोकि यत, सूर अथमत जैसे वासर न मानियें ॥ सापके वदन जैसे अमृत न नपजत, कालकूट खाये जैसे जीवन न जानियें ॥ कलह करत नहि पा श्यें सुजस 'जेसे, बाढत रसांस रोग नासन बरखानियें ॥ प्रानी वधमांहि तैसे धर्मकी निसानी नाही, याहीतें बनारसि विवेक मन आनीयें ॥२७॥ ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तक्ष्यम् ॥ आयुर्घतरं वपुर्वरतरं गोत्रं ग . रीयस्तरम्, वित्तं नूरितरं बलं बहुतरं स्वामित्वमुच्चैस्तरम् ॥आरो ग्यं विगतांतरं त्रिजगतः श्लाघ्यत्वमपेतरम्, संसारांबुनिधि करो ति सुतरं चेतः कृपातिरम् ॥ ॥ इत्यहिंसाप्रक्रमः ॥५॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. __ अर्थः-( कपा.के), जीवदया तेणें करीने ( आई के०) नीनो ने (अं तरं के० ) मध्यनाग जेनो एबुं मनुष्यनुं (चेतः के०) चित्त जे , ते झुं करे ने ? तो के (आयुः के) जीवितने (दीर्घतरं के) अधिकाधिक (करोति के०) करे . तथा वली ते चित्त, (वपुः केर), शरीरने (वरतरं के०.) अतिश्रेष्ठ एवाने करे बे. तथा ते चित्त, ( गोत्र के०.) नाम अने कुल ते ने ( गरीयस्तरं के० ) अत्यंत गरिष्ट ते. उच्चगोत्ररूप एवाने करे . तथा वली ते चित्त, (वित्तं के०) धनने (जूरितरं के० ) अत्यंत गितने करे , वली ते चित्त, (बलं के) बलने (बदुतरं के) अत्यंतात्यंत एवाने करे जे, तथा वली ते चित्त, (स्यामित्वं के० ) प्रभुत्व, तेने (उच्चैस्तरं के० ) अ त्यंत उत्कृष्ट एटले सर्वोत्कृष्ट एवाने करे . वली ते चित्त, (आरोग्यं के०) नीरोगपणाने (विगतांतरं के० ) अंतररहित एवाने करे , अर्थात् को दिवस रोग न आवे, एवी रीतें करे . तथा वली ते चित्त, (त्रिजगतः के०) त्रण जगतने एटले त्रिनुवनने ( श्लाध्यत्वं के०) वखावापणाने (अल्पेतरं के०) घणुंज करे . तथा वजी ते चित्त, ( संसारांबुनिधि के ) संसाररूप-समुने (सुतरं के० ) मुखथी तरवाने शक्तिमान् करे डे. अर्थात् जे पुरुपर्नु चित्त, हिंसा विरहित , ते पुरूपने सर्व पदार्थ प्रा प्त थाय डे, (करोति) ए.क्रियापद जे जे ते करे , एवा अर्थमां सर्वत्र योजन करवं. मा काणे मेंघरथ राजानो, अने हरिबल पाराधिनो दृष्टांत ग्रह ए करवो ॥ २७ ॥ आ पांचमो अहिंसाप्रक्रम संपूर्ण थयो ॥ ५ ॥ टीकाः-आयुर्दीर्घतर मिति ॥ कृपया आई अंतरं मध्यं यस्य ईदृशं चेतः आयुर्जीवितं दीर्घतरं अधिकं करोति । तथा वपुः शरीरं घरतरं अतिप्रधा नं करोति । तथा गोत्रं नाम कुलं वा गरीयस्तरं अति गरिष्टं नच्चैर्गोत्र रूपं करोति । तथा वित्तं धनं नरितरं अतिप्रचुरं करोति । तथा बलं बहुत रं प्राज्यं करोति । तथा स्वामित्वं प्रनुत्वं उच्चैस्तरं सर्वोत्कृष्टं करोति । तथा यारोग्यं नीरोगत्वं विगतांतरं अंतररहितं करोति। तथा त्रिजगतः त्रिभुवनस्य लाध्यत्वं श्लाघनीयत्वं अल्पेतरं प्रचुरं करोति । तथा संसारांबुनिधि न वसमुई सुतरं सुखेन नुत्तरितुं शक्यं करोति ॥ अत्र मेघरथराज्ञः हरिबलधी वरस्य च दृष्टांतः॥ २७ ॥ सिंदरप्रकराव्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिना सूरि या विहितायांतु, हिंसायाःप्रक्रमोऽजनि ॥ ५॥ इति अहिंसाप्रस्तावः॥५॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ७५ नाषाकाव्यः-कवित्त मात्रात्मक बंद॥दीरघ आउ नाम कुल उत्तम, गुन संपति आनंद निवास ॥ उन्नत विनौ सुगम नव सागर, तीन जुवन महि मा परगास ॥ नुज बलवंत अनंतरूप वि, रोगरहित नित नोग विलास ॥ जिनके चित्ते दया तिन्हके रुख, सब सुखं होत बनारसि दास ॥२०॥ कथाः-एज नरंतदेत्रमा गजपुरनगरें सुनंद एवे नामें कुलपुत्र रहे . तिहां धर्मवंत प्राणी जिनदोसनी साथें तेने महा प्रीति जे. एकदा ते बेद्ध मित्र वनमां गया, सिंहां सुराचार्य समान धर्माचार्यने देखी नमस्कार क रो, तेणें दयामूल धर्मनो उपदेश दीधो, ते उपदेश सांजली गुरुने कह्यु के हुँमांस नणर्नु पञ्चरकाण तो करुं पण माहाराथी महारो कुलाचार केम नकाशे ? गुरुयें कह्यु के धर्माचार खरो समजवी. धर्मनी वेलायें कां या लंबन न करयु. ते सांजली सुनंदें तरत जीवदयावत यादयुं. मांसनक्षण नो नियम लीधो, सर्व जीव पोताना आत्मा. सरखा जाणतो बतो सुखें बत पाले जे. एम करतां घणो काल थयो. एकदा उर्जिक पडद्यु, सर्वत्र धा न्य मोडुं अयुं, ते अवसरें सुनंदनी स्त्री कहेवा लागी के है स्वामी ! स्वकुटुं व पालवा माटें माउला पकडील आवो. तेथे सुंनंदें कडं के हे गंमी! महारी आगल एवी वातज करवी नही. गमे तेवं कष्ट प्राप्त थशे, तो पण ढुं हिंसा आदरीश नही, तेनी स्त्रीयें कलुं के तुं महानिर्दयी बो, कुटुंबने कष्ठ करवाथी लोकमां अपयश थाशे. एम कही. तेनो सालो बलात्कारथी तेने माउला पकडवा माटें लश् गयो. तिहां जाल नाखी तेमां मालां था व्यां, पण व्रत साचववा माटें ते पाबां पाणीमां नाखी दीधां, घरे खाली हा थे आव्यो. वली बीजे दिवसें स्त्रीनी प्रेरणाथी गयो, ते दिवसें पण तेमज माबलां मेजी घेराव्यो, त्रीजे दिवसें स्त्रीनी प्रेरणाथी गयो पण तिहां मालां पकडंतां मालांनी पारख नांगा, तेथी त्रास पाम्यो, पंबी सगांने कहीअनशन करी मरण पामीराजगृही नगरीयें नरवर्मराजा राज्य करे, तिहां मणीयार नामा शेठनी सुयशा नामें नार्या तेनी-कूखें आवी सुनंद नो जीव पुत्रपणे नपनो. तेनुं दामनक एवं नाम पाडयुं.ते आठ वर्षो थयो, तेवारें शेठने घेर माहामारीनो नपश्च'थयो, तेथी घरना माणस सर्व मरण पाम्यां. आयुने योगें एक दामनक जीवतो रह्यो. राजायें तेने घेर चोकी राखी, दामन्नक दुधातुर थको घर घर नीख मागवा लाग्यो. एकदा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनकथा रत्नकोष भाग पहेलो. सागरपोत नामा व्यवहारीयाने तिहां भीख मागवा माटे याव्यो, एवामां ते व्यवहारी याने घेर साधु बहोरवा याव्या, तेमां एक वडेरायें सामुकि ज कण जोड़ने कयुं के श्री नीखारीए शेठना घरनो मालीक थाशे ? एवी रीतनी वाणी सागरशेतें जीतने अंतरे सांगली दुःखाकांत थइने विचारयुं जे गुं म हारा घरनो ए धणी याशे ? तो हवे हुं कोइक उपाय करीने एने मारी न खावुं. एटले महारी लक्ष्मी महारा पुत्र पौत्रादिक जोगवे ? एम विचारी कोइ क चांगालने घणुं व्याप कबूल करीने कयुं के दामन्नकने मारी नाखजे. ते चंमाल पण मोदकनी लालच देखाडी ठगीने दामन्नकने बाहेर जंग मां लइ गयो, पण तहां ते मुग्ध बालने देखीने चंमाल मनमां चिंतववा ला यो के बालकें केवो शेठनो अपराध कस्यो ले के जेथकी शेठें मने याने मारवानो यादेश दीधो ! अथवा महारा जेवो बीजो महा. पापी पण कोण हशे जे इव्यनी लालचें यावा बच्चाने मारवानी कबुलात यापे. तो हवे ए काम कर महारे युक्त नथी ! एवो निश्चय करी बालकने कयुं के हे मूर्ख ! तुं इहांथी नाशी जा. जो इहां रहीश तो तुमने सागरयोत मारी arat ! एवो य देखाड्यो, तेथी दामन्नक नाशी गयो, केम के संसारमां जीवितव्य सर्वने वलन बे ॥ यतः ॥ मरणसमं नबि जयं, दारिद्द संमो प रिवो नवि || यसमा नबि जंरा, खुहा समा वेयणा नवि ॥ १ ॥ चं मानें दामन्नकनी यांगली कापी नीसानी जेइ शेठने आवी दीधी. दामन्नक पण लोहीयें जरती यांगली लइ तिहांथी नागे, ते सागरपोतना गोकुलमांहे गयो. कर्मयोगे तिहां नंदगोकुलपति पुत्रीयो हतो, तेणें तेने पोताने घरे पुत्र करी राख्यो. दामन्नक अनुक्रमें यौवनावस्था पाम्यो, शूरवीर ययो. एकदा प्रस्तावें ते सागर श्रेष्ठी स्वगोकुलमांहे याव्यो, तिहां. दामन्नकने दी, नंदगोकुलीयाने पूढयं के ए को बे? ते जेटलुं वृत्तांत दामन्नकनुं जा तो हतो तेनुं तेणें सर्व कयुं; ते सांजली शेठ विचारवा लाग्यो के रखे ने साधु वचन अन्यथा न थाय ! एम चिंतवी जेवो याव्यो तेवोज पाठो घेर जली जवा लाग्यो, तेवारें नंद बोल्यो के तमें शीघ्रपणें केम जाने बो ? शेतें कह्युं घरे काम ले, नंदगोवालीयायें कयुं के महारा पुत्रने घेर मोकलो, ते तमारुं कार्य करी यावशे, ते सांगली शेतें कागल लखी खाप्यो ने कयुं केए कागल महारा पुत्रने व्यापजे. दामन्नक पण कागल ले चाल्यो. वाटें या Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः वतां थाकी गयो, 'तेवारे गाम नजीक कामदेवना देहरामां जा सूतो. एवा मां तेज शेनी विषा एवे नामें पुत्री , ते पण तिहांज कामदेवनी पूजा करवा ावी .तेणें दामन्नक सूतेलो दोतो,अने तेना अंगरखानी कमें कागल बांधेलो दीगो,तै लश्ने वाचवा.मांमयो.' तेमां स्वस्तिश्री गोकुलात् समुदत्तयो ग्यं सानंद लिख्यते. ए. दामनकने अपीत पाणीयें शीघ्र विष देजो एमां कां विमासण करशो नही. एवो काग़ल वांची कन्यायें विचायुं जे महारो पिता का गल लखतां निवेथी एक कानो चूकी गयो बे, केम के विषा महारुं नाम ने ते स्थानकें विष देजो, एवं जूलथी लखा गयुं . पड़ी आंखनुं काजल काढी सलीयें करी कानो दाविषने स्थानकें विषा करी पाबो कागल तेनी कसमां बांधीने कन्या पोताने घरे बावी. पालथी दामन्नक पण जाग्यो,ते चालतो चालतो अनुक्रमें शेठने घरे आव्यो, पुत्रने कागल दीधो, तेणें कागल वांची तत्काल महोत्सव पूर्वक पोतानी बहेन विपा तेने परणावी दीधी. केटलेकदिवसें सागरदत्त पण गोकुलथी. घेर याव्यो. वात सांजली मनमां वि पाद उपन्यो अने चिंतववा लाग्यो जे में झुं विचायं बने शहारे नीपy ॥ यतः॥ अनं. चिंतिऊर अनं दुश्, अन्न विढवा यन्नं खाइ॥ऊचालु ते थिर थया, थिरवासो ते जा ॥ १ ॥ में लानने माटे मूल पण खोयो ! तथापि हजी का उपाय तो करूं के जेम ए विपत्ति पामे ? एम चितवी शेठ वली चांमालने घेर गयो, अने कह्यु के अरे पापी चांमाल!आते तें झुं कयुं ? जे तें दामनकने जीवतो मूक्यो? पण अद्यापि जो बाटर्बु काम करे तो जेटलुं व्य तुं. माग, तेटलुं हुँ आपुं. तेवारें चांमल बोल्यो के हे स्वामी ! तमें देखाडो, तेने हणुं. तमारी बा सफल करूं ? शेवें संकेत कीधो के संध्यानी वेलायें दुं जेने मांतरने देहरे मोकलुं, तेने हजे. एम कही घेर आवी शेत कहेंवा लाग्यो के अरे मूर्यो ! हजी सुधी तमें मातंरनी पूजा नथी कीधी ? काम तो पूजाथी सराडे चडे. ते सांजली पुष्पादिकें बाब जरी मातर पूजवा माटें संध्या समयें जमाने मोकल्यो. तेने मार्गे जातां रस्तामां सालो मल्यो,तेणें पोताना बनेवीने तिहांज उनो राख्यो,धने पोतेमा . तर पूजवा तेनी पासेंथी बाब लश्ने गयो. ते जेटले देहरामांहे प्रवेश करे ले, तेटले जे खंगिलें तेने खङ्गे करी मारी नाख्यो, ते वखतें महोटो कोलाहल थयो. लोकें उत्तख्यो जे या शेठनो पुत्र . ते वात शेवें सांजली शेग्ने Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IG जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. हृदयस्फाट पुःख थयुं, नेथी मरण पाम्यो. पड़ी राजाना आदेशथी दाम नक घरनो धणी थयो. पुण्यानुसारें “लक्ष्मीवान थयो, साते देवें धन वा वरवा लाग्यो, अने त्रिवर्ग साधन करतो सुखमां रहे .. एकदा कोई एक नाटें यावीने दामनक आगल गार्थी कही ते आ प्रमाणे:- तस्स न हव उरकं, कावि जस्तनि निम्मंलं पुष्मं ॥ अस्मय रवं दवं, जंजयलो जो जेण ॥१॥ इति । ए गाथा सांजली दामनके ते नाटने त्रण लद इव्य आप्युं, ते देखी लोकोने महोटो शेष उपज्यो. तारें राजायें तेडी पूज्युं के एटलु महोटुं दान तें कम दीर्छ ? तेवारें राजा आगल सर्व पोतानी वातनी उत्पत्ति कही. ते सांजली राजायें दामनकने नगरशेत कस्यो. अनुक्रमें दामनक दयाधर्म आराधी देवलोके गयो, माटें हे नव्यजीवो ! तमें दामनकनी पेठें दया दान द्यो. जेम सुखश्रेय पामो ॥ २७ ॥ इति जीवदया उपर दामन्नक कथा ॥ हवे चार श्लोकें करीने सत्यबोलवाना प्रनावने कहे जे. . विश्वासायतनं विपत्तिदलनं देवैः कृताराधनम, मुक्तेः पथ्यदनं जलानिशमनं ध्याघ्रोरगस्तंननम् ॥ श्रेयःसंवननं समृदिजननं सौजन्यसंजीवनम्, कीर्तेः केलिवनं प्रनावनवनं सत्यं वचः पावनम् ॥ २॥ अर्थः- हे नव्य जीवो! तमो ( सत्यं के० ) सत्य. एवं अने प्रियकारी तथा हितकारी एवं (वचःके० ) वचनने बोलो: ए सत्यवचन केहवं ? तो के ( विश्वासायतनं के० ) विश्वासनुं आयतन एटले. घर बे. अर्थात् जे पुरुष सत्यवचन बोले ,ते जगतमा विश्वासपात्र थाय छे,वली केहq ले ? तो के (विपत्तिदलनं के) आपत्तिने नाश करनाऊँ , अर्थात् जे पुरुष सत्यवक्ता होय, ते आपत्तिने पामे नहिं. वली ते केहईं ले ? तो के (देवैः के०) देवतायें (कृताराधनं के) कयुं आराधन एटले सेवन जेनुं एवं ने, अर्थात् सत्यवक्ता पुरुपर्नु देवता पण सेवन करे . तथा ते स त्यवचन केहबुं ? तो के (मुक्तेः के० ) मुक्ति जे सिदि तेना (पथि के) मार्गने विपे (अदनं के०) संबल ने, अर्थात् जेम को पुरुष, ग्रामां तरें जाय, तेने रस्तामां नातुं वगैरे संबल जोश्ये तेम मुक्तिमार्गमां जना Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः ୨୯ रने सत्यवाक्य तेज संबल-संमान जावं. एटलेजे सत्यवक्ता याय, तेने मुक्तिप्राप्ति याय. वली ते सत्यवचन केहबुं बे ? तो के ( जलाग्रिशमनं के० ) जल ने नितेने उपशमन करनारुं बे, अर्थात् सत्यवक्ता पुरुषने जल अमिनो जय मटे बे. वत्ती ते सत्यवचन केहं बे ? तो के ( व्याघोरग स्तंननं के०) व्याघ्र जे सिंह तथा नरग जे सर्प तेने (स्तंननं के० ) स्तंनन करनारंबे, अर्थात् सत्यवक्ता, पुरुष, सिंह यने सर्प तेनो स्तंननकारक थाय वे. तथा वली ते सत्यवाक्य केहवं 'बे ? तो के ( श्रेयः के० ) कल्याण जे मोह तेनुं ( संवननं के० ) वशीकरण बे. अर्थात् सत्यवोलनार पुरुषने मोह जे बे, ते वश थाय बे. वली ते सत्यवचनं केहवुं बे ? तो के ( समृ विजननं के० ) संपत्ति उत्पन्न करनाएं बे, अर्थात् सत्यवाणीवालाने. संपत्ति स्वतः प्राप्त थाय बे. वली ते सत्यवचन, केहवं बे ? तो के ( सौजन्य के० ) सुजनपणानुं ( संजीवनं के० ) उत्पन्न करनारुं बे, अर्थात् सत्य वक्ता पुरुषने सुजनता प्राप्त थाय बे, वली ते सत्यवचन केहवं बे ? तो के (कीर्त्तः के०.) यशनुं (के लिवनं के०) क्रीडा करवानुं वन . अर्थात् सत्य वक्ता पुरुष जे बे, ते यशस्वी थाय बे. वली ते सत्यवचन केहवं बे ? तो के (प्रजावनवनं ० . ) प्रजाव जे महिमा तेनुं गृह से अर्थात् सत्यवक्ता पुरुपनो महिमा पण अधिक होय बे, वली ते सत्यवचन केह ले ? तो के (पावनं के० ) पवित्र करनारुं बे अर्थात् सत्यवक्ता पुरुष, निरंतंर पवि जगणाय बे, माटें ए सत्यवचन सर्वथा सर्व मनुष्योयें बोलकं ॥ २५ ॥ टीका:- अथ सत्यवचनस्य प्रजावं कथयति ॥ विश्वासायतनमित्यादि ॥ जो व्याः सत्यं वच हितं प्रियं वचनं वदंत्विति शेषः ॥ कथंभूतं सत्यं वचः ? विश्वासायतनं विश्वासस्य श्रायतनं स्थानं । पुनः कथंनृतं सत्यं वचः वि पत्तिदलनं । विपत्तीनां पदानां फेटकं । पुनः कथं देवैः सुरैः कृताराधनं । कृतं याराधनं सेवनं यस्य तत् । पुनः मुक्तेः सिद्धेः पथि मार्गे प्रदनं संबलं । तथा जलाग्निशमनं । जलायोउपशामकं । पुनः व्यात्रोरगस्तंननं व्या प्राणां सिंहानां उरगाणां सर्पाणां च स्तंननकारकं । पुनः श्रेयसोमो स्य कल्याणस्य वा संवननं वशीकरणां । पुनः समृद्धिजननं समृद्धीनां संपद संपादकं । पुनः सौजन्यसंजीवनं सुजनतायाः संजीवनं समुत्पादकं । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेंलो. तथा कीर्यशसः केलिवनं क्रीडारामं । पुनः पनांवननं प्रनावस्य महि नोगृहं । पुनः पावनं पवित्रकारकमित्यर्थः ॥ २ ॥ नाषाकाव्यः-उप्पय बंद ॥ गुननिवास विश्वास, वास दारिद उख खं मन ॥ देव आराधन जोग, मुगति मारग मुख सुमन ॥ सुजस केलि आ राम, धाम सजन मन रंजन ॥ नाग वाघ सिकरन, नीर पावक नय नंजन ॥ महिमा निधान संपति सदन, मंगल नीति पुनीत मग ॥ सुख रासि बनारसि दास ननि, सत्य वचन जयवंत जा ॥ २ ॥ ॥शिखरिणीटत्तम् ॥ यशोयस्माजस्मीनवति वनवढे रिव वनम्, निदानं पुःखानां यदवनिरुदाणां जलमि व ॥ न यत्र स्याबायातप व तपःसंयमकथा, ' कचित्तन्मिथ्यावचनमनिधत्ते न मतिमान् ॥३०॥ अर्थः-(मतिमान के०) बुद्धिमान पुरुष, (कथंचित् के०) को वखत कष्ट आवे बते पण (तन्मिथ्यावचनं के) ते मिथ्यावचन एटले असत्य वचन तेने (नयनिधत्ते के० ) नहिं बोले . ते केम नथी बोलता? तो के ( यस्मात् के०) जे मिथ्यावचनमकी.( यशः के०) कीर्त्ति, ते (नस्मीनवति के०) जस्म थाय , अर्थात् नाश पामे . केनी पड़ें ? तोके (वनवन्हेः के.) दावामिथकी ( वनमिव के० ) वनज जेम. अर्थात् दनानि थकी जेम वन दाह पामे ले तेम मिथ्यावचनथकी कीर्ति नाश पामे दे. वली ते मतिमान् पुरुष क्यारे पण केम मिथ्या वाक्य नथी बोलता? तो के (यत् के०) जे मि थ्यावचन ( दुःखानां के०) मुखोनुं (निदानं के०) कारण ने, केनी पेठे? तोके (अवपिरहाणां केए) वृदोनुं (जलमिव के०) जल जेम कारण डे. अर्थात् जेम वृदोनुं कारण जलले तेम दुःखोनुं कारण असत्यज ने. वली ते मतिमान पुरुष क्यारे पण केम मिथ्यावाक्य नथी बोलता? तो के (यत्र के०) जे मिथ्यावचनने विषे (तपःसंयमकथा के०) तपनी अने चारित्रनी कथा पण (न के०) नहि (स्यात् के०) होय. केनी पेठे ? तो के ( आतपे के) सूर्यना तडकाने विषे (बायाश्व के०) बाया जे जे तेज जेम. अर्थात् असत्यवाक्यथकी आ श्लोकमां कहेला कीर्त्यादिकनो नाश थाय ने केनी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः, . पढ़ें ? तो के आ श्लोकमां. कहेला वनाग्नि वगेरेनी पसें जाणवू. माटें हे न व्यजनो ! सत्यज बोलवू, परंतु असत्य नज बोलवु ॥ ३० ॥ टीकाः-यशोयस्मादिति ॥ मतिमान बुद्धिमान पुमान् कथंचित् कटेऽपि सति तत् मिथ्यावचनं असत्यवचनं न अभिधत्ते न जल्पति। तत् किं ? यस्मा मिथ्यावचनाद्यशः कीर्तिनम्मीनवति विनश्यति । कस्मात् किमिव ? वन वन्हेवाग्नेर्वनमिव यथा दावानलान्त वनं नस्मीनवति। तथा पुनर्यन्मिय्या वचनं खानां निदान कारणं । केषां किमिव ? अवनिरुहाणां वृदाणां कारणं जलमिव । यथा जसं दाणां कारणं तथा पुनर्यत्र मिथ्यावचने त पःसंयमकथा तपश्चारित्रयोर्वार्ताऽपि न । कस्मिन केव? आतपे सूर्यातपे बाया इव यथाऽतपे बाया न स्यात तथा ॥ ३०॥ नापाकाव्यः-कवित्त मात्रा ॥ नोज समान करै निज कीरति, ज्यौं वन अगनि दहै वन सो॥ जाके संग अनेक फुःख उपजत, वढे विरख ज्यों सींचत तो ॥ जामें धरमकथा नहिं सुनियत, ज्यौं.रविबीच बांह न हिं होइ ॥ सो मिथ्यात वचन वानारसि, गहत म तांहि विचलन कोइ ३० • चंशस्थत्तम्॥असंत्यमप्रत्ययमलकारणम्,कुवा सनासद्म संमृध्विारणम् ॥ विपनिंदामं परवंच नोर्जितम्, कृतापराधं कृतिनिर्विवर्जितम् ॥३१॥ अर्थः-( कतिनिः के ) पंमितो जे तेमणे (असत्यं के) असत्य बोलवू ते ( विवर्जितं के) त्याग करेलुं . ते शा माटें त्याग करेलु ने ? तो के ते असत्य वाक्य जे ते (अप्रत्यय के० ) अविश्वास तेनुं (मू लकारणं के) .मूलकारण ले. वली केहबुं ? तो के (कुवासना के०) माठी वासना जे पापबुद्धि तेनुं (सद्म के० ) घर बे. वस्ती केहबुं ? तो के ( समृद्धि के) लक्ष्मी तेने (वारणं.के० ) वारनारुं . वली के हवं ? तो के (विपनिदानं के० ) कष्टनुं करनारुं . वली केहबुं ले ? तो के (परवंचनोर्जितं के०) अन्यजनने गवामां अति बलवान् ले. वली केहबु बे ? तो के (कतापराधं के ) कस्यो चे अपराध जेणे एवं ले ? ते माटे सुझजनोयें अति निंद्य एवू असत्य वाक्य बोलवू नहिं ॥३१॥ टीकाः-पुनरसत्यवचनस्य दोषानाह॥असत्यमिति ॥इति कारणात् कति Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. निः पंमितैः असत्यं कूटं विशेषेण वर्जितं परिहत। यतोऽसत्यं अप्रत्ययमूलका रणं अविश्वासस्य मूलके हेतुः । पुनः कुवासनायाः पापबुद्धेःसद्म गृहं । पुनः समृदिवारणं समृलदम्याः वारणं निराकरणं । पुनर्विपनिदानं विपदा क ष्टानां निदानं कारणं । पुनः परवंचनोर्जित परेषां वंचने विप्रतारणे कर्जितं बलिष्टं। पुनः कृतापराधं कृतागसं कृतोऽपराधोयेनअसत्येन तत्कतापराधंथ त एव असत्यवचनं कृतिनि:पंमितैर्न वक्तव्यं ॥ ३१ ॥ नापाकाव्यः-रोडकबंद ॥ कुमति कुरीति निवास, प्रीति परतीति निवारन ॥रिति सिदिसुखहरन, विपति दारिपुःख कारन ॥ परवंचनि उतपत्ति, सह ज अपराध कुलनन ॥ सोयह मिथ्यात वचन, नहिं आदरत विचलन॥३१॥ वली पण सत्यवचननो प्रनाव कहे . शार्दूल विक्रीडितवृत्तम् ॥ तस्याऽग्निर्जलमर्णवः स्थलमरिमित्रं सुराः किंकराः, कांतारं नगरंगिरिर्गदमदिर्माल्यं मृगारिमंगः॥ पातालं बिलमस्त्रमुत्पलदलं व्यालः शृगालो विपम्, पीयूपं वि पमं समं च वचनं सत्यांचितं वक्ति यः ॥३॥ अनृतप्रक्रमः॥६॥ अर्थः- ( यः के० ) जे पुरुष, (सत्यांचितं के० ). सत्ययुक्त एवं (वच नं) वचन जे तेने ( वक्ति के ) बोले , ( तस्य के ) ते पुरुषने (य निः के० ) अनि जे हैं, ते (जलं के०) जल सरखो थाय . वली ते पुरुषने ( अर्णवः के० ) समुह, ते ( स्थल के ) दीप थाय . वली ते पुरुषने (अरिः के० ) शत्रु ते ( मित्रं के०) मित्रतुल्य थाय . तथा ते पुरुषने ( सुराः के० ) देवता ते ( किंकराः के० ) किंकर तुल्य थाय . वलीते पुरुषने ( कांतारं के० ) वन ते (नगरं के०) नगर तुल्य थाय ठेली ते पुरु पने (गिरिः के०) पर्वत, ते ( गृहं के०) घर समान थाय जे. वली ते पुरु पने (अहिः के०) सर्प, (माव्यं के०) पुष्पमाला तुल्य थाय . वली ते पुरुषने (मृगारिः के०) मृपनो अरि जे सिंह ते (मृगः के०) हरिण समान थाय . तथा ते पुरुषने ( पातालं के०) रसातल, ते ( बिलं के० ) नि तुल्य थाय ने. वली ते पुरुषने (यस्त्रं के०) अस्त्र ते, (उत्पलदलं के०) कमलपत्र स मान थाय बे. वली ते पुरुषने ( व्यालः के० ) मदोन्मन हस्ती ते ( शृगा लः के०) शीयाल जेवो थाय . वली ते पुरुषने ( विषं के ) विष ते Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः ८३ ( पीयूषं के० ) अमृततुल्य थाय बे. तथा ते पुरुषने ( विषमं के० ) विषम स्थानक ते ( समं के० ) सरखं थाय बे. ( च के० ) चकार पादपूर्णार्थ बे. एटले या श्लोकमां नाव एटलोज बे के सत्यवक्ता पुरुषने सर्व सुखरूप याय बे, माटे सत्यजे बोलवु ॥ ३२ ॥ श्रा बहुं मिष्यावचन प्रकरणं संपूर्ण थयुं ॥ टीका:-यथ सत्यप्रनावं दर्शयति ॥ तस्या निरिति ॥ यः पुमान् सत्यांच तं सत्ययुक्तं वची वचनं वक्तिं ब्रूते । तस्य पुंसोऽग्निर्वन्हिः सत्यप्रनावाजलं । तथाऽर्णवः समुङ्गः स्थलं स्यात् । तथा व्यरिः शत्रुर्मित्रं स्यात् । पुनः सुराः देवाः किंकराः सेवका यादेशकारिणः स्युः । पुनः कांतारमरएयं नगरं स्यात् । तथा गिरिः पर्व्वतगृहं स्यात् । पुनरहिः सप्र्पोमाव्यं स्त्रक् स्यात् । तथा मृ गारिः सिंहोमृगो हरिण श्व स्यात् । तथा पातानं रसातलं बिलं बिलरूपं स्यात् । तथाऽस्त्रं शस्त्रं उत्पलदलं कमलपत्रसदृशं स्यात् । तथा व्यालो ट गजः शृगांल श्वस्यात् । पुनर्विषं हालाहलं पीयूपं अमृतं स्यात् । तथा विपमं संकट स्थानं संपडूपं स्यात् सत्यप्रनावतः । यतः सत्यं वक्तव्यं यत्र वसु राज्ञः दीरकदंब कोपाध्यायपुत्रपर्व्वतकनारदयोर्दृष्टांतः ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां दर्षकीर्त्तिना । सूरिणा विहितायां तु मिथ्यावचनप्रक्रमः ॥ ३२ ॥ इति षष्ठों मिथ्यावचनप्रक्रमः ॥ ६ ॥ " नापाकाव्यः - सवैया इकतीसा ॥ पावकंतें जल दोई वारिधितें यल होइ, शस्त्रतें कमल होइ ग्राम होइ वनतें ॥ कांतार नंगर होइ पर्वततें घर हो, वासवतें दास होइ हेतू पुरजनतें ॥ सिंहतें कुरंग होइ व्यान स्याल अंग हो, विष पियूष होई माला यहि फनतें ॥ विषमतें समहोइ संकट न व्यापै को, एते गुन होइ सत्यवादी दरसनतें ॥ ३२ ॥ कथाः - शुक्तिमती नगरीयें अनिचं नामा राजा तेनो वसु नामें पुत्र बे, ते न्हानपथी सत्यवचननो बोलनार बे, ते नगरीमां कीरकरंबक उपाध्या सर्व शास्त्रनो जाए बे, तेनो पुत्र पर्वतक नामें बे, ते स्वनावें कुटिलाश वालो ने, एक पर्वतक बीजो वसुराजा यने त्रीजो नारद ए त्रणे कीरकदं as उपाध्याय पासें न ले. अन्यदा तेत्रो शिष्य अगासी मां सुताबे उपा ध्याय अगासीमां वेगे जागे बे एवामां श्राकाशमार्गे वे चारण मुनियो वातो करता चाव्या जाय बे, तेमांथी एक मुनि बोल्यो के या त्रणमां वे तो नरकगामी बे ने एक स्वर्गगामी बे. ए वाणी सांजली उपाध्याय उद्दे " Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. ग पाम्या. पड़ी कोण स्वर्गगामी अने कोण नरकगामी जे ? तेनी परी दा करवा माटें जूदा जूदा लोटना त्रण कुर्कुट बनावीने त्रणे शिष्यने दीधा, अने कह्यु के जिहां कोई देखे नहिं, तिहां एने हणी आवजो. तेमां वसुराजा अने पर्वतक ए वे जण तो जंगलमा जइ कोइ एकांत ज ग्यायें कुकडानो विनाश करीने आव्या. अने नारदें तो घणा स्थानक जोयां पण क्यांहि कोई न देखे एवं स्थानक.दीतुं नहिं. तेवारें कुकडाने पालो आण्यो. उपाध्यायें पूब्यु के केम पाडो लाव्यो? तेवररें नारद बोल्यो के देव, दानव, निगोद अथवा ज्ञानी जिहां तिहां देखी रह्याने तेमज महारो आ त्मा पण देखतो हतो, माटें शी रीतें तमारी आझानो नंग करी एनो वि नाश करूं! ते सांजली उपाध्यायें चिंतव्यु के ए स्वर्गगामी डे अने प हेला वे नरकगामी चे. अनुक्रमें उपाध्याय आयुष्य पूर्ण करी देवलोकें.गया. पड़ी तेने पाटें पर्वतक वेगे धने वसुने राज्य मन्यु, नारद पोतानें घेर गयो. एकदा एक आहेडीयें वनमा जइ कोई मृगनी उपर बाण नारख्यो, आगल ज जोयुं तो मृगने स्थानकें स्फाटिकनी शिला दिली, तेणें रा जाने आवी कहां के तरत राजायें ते शिला बानी मगावी, पीतिका मंझावी, नपर सिंहासन थापी पोतें बेसवा मांमधु, लोक सर्व जाणवा लाग्या के वसुराजा सत्यवचनने बलें करी अधर बेसे डे, तेथी सिमाडीया राजा प्र मुख सेवामा रह्या, महोटी प्रतिष्ठावंत सत्यवादी एवो वसुराजा कहेवाण. ___ एकदा पर्वतकने मलवा माटें नारद कोई ग्रामांतरथी तिहां आव्यो, पोतपोतामां मलीने वेग, ते समय शिष्यने नणावतां अज शब्दनो अर्थ बागनो होम करवोएवो पर्वतें कह्यो, तेवारें नारद बोल्यो के गुरुयें तो आप गने जणावतां अज शब्दनो अर्थत्रण वर्षनी जूनीव्रीहिकही ,तो तमें अज शब्दनो अर्थ नाग केम कहो ?पर्वतेंना कही. एमपोत पोतामा विवाद करतां मोटो तरे, तेनी जीन नेद। नाखवा. एवी प्रतिज्ञा करी. ते वखत पर्वतकनी मातायें जाएयुं जे नारद कहे ,ते वात खरी ने माटे ढुंज वसुराजानी पासें थीपुत्रनिदा मागीलेलं.कारण के सादी दाखल बे जण वसुराजा पासें जवा ना , एवं विचारी वसुराजा पासें जश्ने कालावाला कीधा, अनुक्रमें ते बेतु जण वाद करतां वसुराजा पासें अर्थ पूबवा याव्या. राजायेंपण मिश्र वचन बोलीने कयुं के अज शब्दनो अर्थ बोकडो पण थाय ने, अने नेदांतरें व्रीहि Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EU सिंदूरप्रकरः, पण यायचे. एबुंसानलातांस तत्दण देवतायें पाटुप्रारें करी वसुराजाने सिंहासनथी नीचे पाडी मारी नाख्यो, विपत्ति पामी मरीने नरकें गयो, पा बल पर्वत पण बायु पूर्ण थये नरकें गयो. नारद शील पाली सत्यवचनना प्रना देवलोकें गयो. ए सत्यवचन उपर वसुराजानो दृष्टांतं कह्यो ॥३२॥ ___• हवे अदत्तादान व्रत कहे . मालिनीटत्तम् ॥ तमनिलपति सिद्धिस्तं गुणीते समृद्धि,स्त मनिसरति कीर्तिर्मुच्यतेतंनवार्तिः॥स्पृहयति सुगतिस्तं ने दतेजगतिस्तम्, परिहरति विपतंयोन गृह्णात्यदत्तम्॥३३॥ अर्थः-(यः के०) जे पुरुष, (अदत्तं के०) नदीधेळुएजे पारकुं वित्त तेने (नगृह्णाति के० ) न ग्रहण करे , ( तं के०) ते पुरुषने ( सिदिः के०) मुक्ति, ( अनिलपति के० ) हा करे . वली (तं के०) ते पुरुपने (स मृदिः के०) चक्रित्वादि संपत्ति ते (पीते के०) वरे बे. तथा (तं के०) ते पुरुषप्रत्ये ( कीर्तिः के०) यश ते (अनिसरति के०) आवे . तथा वली (तं के) ते पुरुषने (नवार्तिः के०) संसारव्यथा (मुच्यते के० ) मूके बे. एटले त्याग करे . तथा ( सुगतिः के) देवमनुष्यरूपगति, ते (तं के०) ते पुरुषने (स्टहयति के)स्टहा करे . एटले वांडा करे . तथा (उर्गतिःके०) नरकतिर्यगादिक गति (तं के०) तेपुरुषने (नेदते के०) नथी जोती. तथा (विपत् के०) आपत्ति ते (तं के०) ते पुरुषने (परिहरति के.) त्याग करे . अ र्थात् अदत्त वस्तुनेजेजीव-ग्रहणकरतोनथी, तेने सर्वसुख प्राप्तथायः॥३३॥ टीकाः-अथादत्तादानव्रतमाह।तमनीति॥ यः पुमान् अदत्तं अवितीर्णप्रस्ता वात् परवित्तंकिंचिछस्तु वा न गृह्णाति तं पुरुषं सिदिर्मुक्तिरनिलषति वांति। पुनस्तं समृद्धिश्चक्रित्वादि संपत् वृणीते । तथा कीर्तिर्यशस्तं अनिसरति प्रत्या गति । नवार्तिः संसारपीडा तं मुच्यते त्यजति । तथा सुगतिर्देवमनुष्यरू पा तं स्टहयति वांदति । तथा उर्गतिर्नरकतिर्यग्रूपा तं पुरुष नेते न पश्य तिळ विपद् आपद् तं परिहरति त्यजति ॥तं कं? यो अदत्तं न गृह्णाति ॥३३॥ नाषाकाव्यः-रोडकबंद॥ताहि रिदिअनुसरे, सिदिअभिलाष धरे मन॥ वि पति संग परिहरे, जगतविस्तरे सुजसघन ॥ नव आरति तिहिं तजै, कुग ति वं न एकदिन ॥सो सुरसंपति लहे, गहै नहिं जो अदत्त धन ॥ ३३ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पदेलो. वली पण अदत्तादानना परम गुणो कहे जे. शिखरिणीटत्तम्॥अदत्तंनादत्तेकृतसुकृतकामः किम पि यः, शुनश्रेणिस्तस्मिन् वसति कलहंसीव कम ले॥विपत्तस्मादूरं व्रजति रजनीवांबरमणे, विनी तं विद्येव त्रिदिवशिवलदमीनजाते तम् ॥ ३४ ॥ अर्थः- (यः के०) जे पुरुष, (कृतसुकृतकामः के०) कस्यो सुकृत विषे अनिलाष जेणे एवो तो (किमपि के०) कांहींपण (अदत्तं के०) न दीधेला एवा पदार्थने ( नादत्ते के.) न ग्रहण करे , (तस्मिन् के०) ते पुरुषने विपे ( शुनश्रेणिः के०) कल्याणनी पंक्ति (वसति के० ) वसे डे, केनी पढ़ें ? तोके ( कमले के) कमलने विपे (कलहंसीव के राजहंसीनी पढ़ें रहे बे. वली ( तस्मात् के० ) ते पुरुषथकी (विपत् के०) विपत्ति यो ते ( दूरं के० ) दरने विषे (व्रजति के.) जाय केनी पेठे ? ती के - (अंबरमणेः के०) सूर्यथकी ( रजनीव के० ) रात्रिज जेम नाश पामे के तेम.अर्थात् जेम्म रात्रि सूर्ययकी नाश पामे के तेम जाणवू. तथा (तं के०) ते पुरुषने (त्रिदिवशिवलदमी के ) स्वर्गापवर्गनी लक्ष्मी जे जे, ते (नज ति के ) सेवे बेः केनी पेठे ? मेके ( विनीतं के०) नम्रपुरुषने ( विद्ये व के० ) विद्याज जेम आवे , अर्थात् विद्या जेम विनयसंपन्न पुरुषनेप्राप्त थाय ने, तेम स्वर्गापवर्गनी लक्ष्मी पण ते पुरुषने प्राप्त थाय ने ॥३॥ टीकाः-नूयोप्यऽदत्तादानस्य परमगुणानाह ॥ अदत्तमिलि ॥ यः पुमा न रुतः सुरुते पुण्येऽनिलापो येन ईदृशः सन् अदत्तं परकीयं किमपि वस्तु न आदत्ते न गृह्णाति तस्मिन् पुंसि शुनश्रेणिः कल्याणपरंपरा वसति निवासं करोति । कस्मिन केव ? कमले कलहंसीव । यथा कमले राज हंसी वसति तथा । पुनस्तस्मात् पुरुषात् विपत् कष्टं दूरं व्रजति दूरे याति कस्मात् केव ? अंबरमणेः सूर्यात् रजनीव । यथा सूर्याज्ञात्रिर्दूरे व्रज ति तथा । पुन स्त्रिदिवशिवयोः स्वर्गापवर्गयोलक्ष्मीः श्रीस्तं नजति सेवते । के केव ? विनीतं विद्येव यथा विद्या विनीतं विनयान्वितं पुरुषं नजति विद्या बागबति तथा ॥ ३४ ॥ जापाकाव्यः-कवित्त.मात्रा० ॥ ताकों मिलें देवपद शिवपद, ज्यौं वि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ច១ द्याधन लहै विनीत ॥ तामें श्राइ रहै गुन पंकलि, ज्यौं, कलहंस कमल सो जीत ॥ तांहि विलोकि उरै मुख दारिद, ज्यौं रवि आगम रयनि वितीत ॥ जो अदत्त धन तजत बनारसि, पुनवंत सो पुरुष पुनीत ॥ ३४ ॥ हवे जे बुद्धिमान् पुरुष अदननो त्याग करे , ते पण कहें . ॥शार्दूलविक्रीडितलुत्तम् ॥ यन्निवर्तितकीर्तिधर्मनिधनं स वांगसां साधनम्, प्रोन्मीलध्धबंधनं विरंचितक्लिष्टाशयो बोधनम् ॥ दौर्मत्यैकनिबंधनं कृतसुगत्याश्लेषसंरोधनम्, प्रोत्सर्पप्रधनं जिघृदति न तछीमानदत्तं धनम् ॥३५॥ अर्थः- (धीमान के०) विधान् पुरुष, (तत् के०) ते (अदत्तं के० ) पर कीय (धनं के) वस्तु जेतेने (नजिघृदति के०)ग्रहण करवाने श्ता नथी. ते के अदत्तं ? तो के ( यत् केप)जै (निर्वर्तित के०) कांबे ( कीर्तिधर्म निधनं के) कीर्ति, अने धर्मनो नाश जेणे एवं . वली (सर्वागसां के ) सर्वअपराधोनुं (साधनं के०) साधन एट्ले हेतुरूंप . वली (प्रो न्मीलत् के.) प्रगट २ ( वधबंधनं के० ) वध'जे लाकडी.वगेरेथी ताडन तथा बंधन जे रज्ज्वादिकथी बंधन ते जेनेविषे. वली के ? तो के ( विरचित के) कयुंडे ( क्लिष्टाशय के) उष्ट्र अंतःकरणY (उद्दो पनं के० ) प्रगटपणुं जेणे अर्थात् उष्टविचारनुं करवावालुं . वली ते केहबुं ? तो के ( दौर्गत्य के) उर्गतिपणुं तेनुं ( एकनिबंधनं के० ) अहितीय कारणनूत . वली केहंदुं ? तो के (कत के ) करेलु ले (सुगति के०) सारी गति तेनुं जे (आश्लेष के०) मलq तेनुं (संरोधनं के०) निवारण जेणे एवं बे. वली केहबुं ? तो के (प्रोत्सर्पत् के०) प्रसरतुं डे (प्रधनं के०) मरण जे थकी एवं बे. अर्थात् एतादृश .उखकारि जे अदत्त तेनी पंमितो इवा करता नथी ॥ ३५ ॥ टीकाः- व्यतिरेकेणाह ॥ यन्निवर्तितेति ॥ धीमान विधान् पुमान् तत् अदत्तं धनं परकीयं वस्तु न जिघृक्षति ग्रहीतुं नेति। तत् किं ? यत् अदत्तं निर्वर्तितकीर्तिधर्मनिधनं स्यात् निवर्तितं कृतं कीर्तिधर्मयोर्नि धनं विनाशो येन तत् । तथा सागसां साधनं सर्वाणि च तानि बागां सिच सर्वागांसि तेषां सर्वापराधानां साधनं हेतु स्यात्। पुनः प्रोन्मीलक्ष्य Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेंलो. GG बंधनं वधो लकुटादिताडलं बंधन रज्ज्वादिना बंधनं प्रोन्मीनंति प्रकटीन afa arora यंत्र तं । पुनर्विरचितक्लिष्टाशयस्य पुष्टानिप्रायस्य नहो धनं प्रकटनं येन तत् । पुनदौर्गत्यैक निबंधनं दौर्गत्यस्य दारिड्स्य एकं यधि तीयं निबंधनं कारणं । पुनः कृतसुगत्या श्लेषस्रोधनं कृतं सुगतेराश्लेपस्य लिंगनस्य संरोधनं निवारणं येन तत् । पुनः प्रोत्सर्पत् प्रधनं प्रोत्सर्पत् प्रसरत् प्रधनं मरणं यस्मात् तंत्तथा । ईदृशं दत्तं धीमान् न जिंवृति ॥ ३५ ॥ जापाकाव्यः - मरहठा बंद || जो कीरति गौपै, धरम विलोपै, करै महा अपराध | जो गुन गति तोरे, डरगति लोरे, जोरै युद्ध उपाधि ॥ जो संकटा, रमति नै, वध बंधनको गेह ॥ सब जंगुन मंमित, गहै न पंमित, सो अदत्त धन एह ॥ ३५ ॥ " वेली पण प्रदत्तना दोषो कहे बे. ॥ दरिणीवृत्तम् ॥ परजनमनः पीडाक्रीडावनं वधना. वना, नवनमवनिव्यापिव्यापल्लताघनमंगलम् ॥ कुग तिगमने मार्गः स्वर्गापवर्गपुरार्गलम्, नियतमनुपादेयं स्तेयं नृणां दितकांक्षिणाम् ॥३६॥ इतिस्तेयप्रक्रमः ॥७॥ अर्थः- ( नियत के" ) निश्चयें ( हितकांक्षिणां के० ) हितनी वांधाना करनारा एवा (नृणां के० ) पुरुषोने ( स्तेयं के० ) चौर्य एटली चोरीनु कर्म ते ( अनुपादेयं के० ) ग्रहण करवा योग्य नथी. से प्रदत्त केहवुं बे ? तो के ( परजनमनः के ० ) अन्यजनोनां मन जे चित्त तेमनी (पीडा के०) बा धा तेमनुं ( क्रीडावनं के० ) रमण करवानुं उद्यान बे. वली ( वधनावना ho ) हिंसानी जे जावना एटले चिंतवन तेनुं ( नवनं के० ) घर बे. ली ( यवनि के० ) पृथ्वी तेने विषे ( व्यापि के० ) व्यापी रहेली एवी जे ( व्यापत् के० ) यापत्तियो तेज (लता के०) लता जे वलीयो, तेनुं (घन ini o ) मेघमंगलरूप बे. वली ( कुगतिगमने के०) माठी गतिने वि पे गमन करवानो ( मार्गः के० ) मार्ग बे. वली (स्वर्गापवर्गपुर के ० ) स्वर्ग मोते रूप जे नगर तेने (अर्गलं के० ) जोगल सरखं बे. माटे या श्लोकनो नावार्थ एबे जे दुःखदायक एवं जे चौर्य तेनो सर्वथा सर्व जनोयें त्याग करवो ॥ ३६ ॥ या सातमो चौर्यप्रक्रम थयो ॥ ७ ॥ व Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः नए टीका:- पुनरदत्तदोषमाह ॥ परजनेति ॥ नियतं निश्चित हितकांक्षि पां हितवांबितां नृणां पुरुषाणां स्तेयं चौर्य अनुपादेयं अग्राह्यं नव ति अदत्तं अग्रहणायं स्यात् । किंत अदत्तं ? परे च ते जनाश्च तेषां मनांसि चित्तानि तेषां पीडर बांधा तस्याः क्रीडावनं रमणायोद्यानं । पुनः वधनावनाजवनं वधूस्य हिंसायाः नावना चिंतनं तस्याः गृहं । पुनः अवनिव्यापिव्यापन्नताघनमंमलं अवन्या व्यापिनी प्रसरणशीला या व्यापत बापत सैव सता वनी तस्वाः घनमंमल मेघपटलं । पुनः कुमति गमने मार्गो अध्वा । पुनः• स्वर्गापवर्गपुरार्गलं स्वर्गापवर्गावेव देवलो कमोदावेव पुरं नगरं तत्र अर्गला परिघः॥ईदृशं स्तेयं हितकांदिणां नृणां थयाह्यं स्यात् ॥३६॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, टीकायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनि विहितायां तु, संपूर्णः स्तेयप्रक्रमः ॥ ७ ॥ इति सप्तम स्तेयप्रक्रमः॥ ७ ॥ नाषाकाव्यः-कवित्त मात्रात्मक ॥ जो परजैन संताप केलिवन, जो वध बंध कुबुद्धि निवास ॥ जो जग विपलि वेलि घनमंमल, जो उरगति मारग परगास ॥ जो सुरलोक बार दिढ अर्गल, जो अपहरन मुगति सुखवास॥ जो अदत्त धन तजत साधु जन, निज हित हैत बनारसि दास ॥३६॥ ___ कथाः- एज नरतदेवमांहे वाणारसी नगरीयें माहाविरख्यात पराक्रम नो धणी जितशत्रु रांजा राज्य जोगवे में, तिहां एकं धनदत्तनामें व्यवहा री अत्यंत धनवंत रहे बे. तेनी धनश्री नामें स्त्री , तेनो पुत्र नागदत्त करी ने , ते गुणरूप रत्ननो नंमार बे, तेना हृदयरूप सरोवरमांहे राजहंसनीपे में दया रमे : हवे ते नगरमां बीजो को प्रिय मित्र एवे नामें व्यवहा रीयो वसे , ते सौनाग्यसुंदर चातुर्यकलासागर , तेने नागवसु एवे नामें पुत्री.जे. एकदा नागदत्त देवंगृहमांहे देव वांदतो हतो, तेने नागवसु कन्यायें दीठो, तेवारें विचायुं जे पुरंदर समान ए पुरुष कोण हशे ? एवा कंदप्पावतार नर्त्तार विना स्त्री, यौवन बकरीना गलाना स्तननी पेठे निः फल जाणवू, माटें महारे तोला नवें एहज नार करवो, नही कां चारित्र ले, पण बीजो नार न करवो! एम चिंतवी नागवसु कन्या पोताने घेर थावी पण को स्थानकें रति पामे नही, जोजन निश मूकीने रात्रि दि वस नागदत्तनुज ध्यान कस्या करे. एवी पुत्रीनी अवस्था जोश्ने तेना मा ता पितायें बलात्कारथी वारंवार पूज्युं, तेवारें तेनी सऊन सखीयें कह्यु १२ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ un जैनकथा रत्नकोष जाग पहेला. जे ए नागदत्तनी प्रार्थना करे बे. पितायें पुत्रीमो नांव जाली नागदत्तने घेर जर विवाह मेलववानी वात करीने कयुं के सरखे सरखी जोडी बे माटें बेडु जन्म सफल करे, ए युक्त बे. नागदत्तना पितायें मान्युं, परंतु नाग दत्ते ते वात सांजलीने पिताने वालो ने कत्युं के स्वामी ! महारुं सगपण करशो नही, डुं तो चारित्र लश. ए संसार अंसार बे माटे विषयसुखथी सयुं ! कन्यायें ते वचन सांजल्युं खने ते कन्या तो मन वचनथी एनी उप रज मोहित थयेली बे ॥ यतः ॥ संसारे ते नंरा धन्या, ये मोहें नैव मो हिताः ॥ मोहमोहित चित्तानां, न जने न वने रतिः ॥ १ ॥ एकदा ते कन्याने मार्गे जाती कोटवालें देखीने तेना पिता पासेंथी मा गणी करी. तेवा पितायें कयुं के ए कन्या नागदत्त उपर रागिणी बे माटे तेने दीधी बे. ते सांभली नगरनो कोटवाल, नागदत्तनां बि जोता लाग्यो. प्रायः पापी जे होय बे, ते पोताना स्वार्थ माटै सजननां बिए जोतोज रहे बे ॥ यतः ॥ मृगमीनसनानां, तृणजलसंतोष विहितवृत्तीनाम् ॥ लुब्धकंधीवरपिगुना, निःकारणवैरियोजगति ॥ २ ॥ ( एवा समयमा राजानुं रत्नजड़ित कुंमल गयुं, ते वखतें नागदत्तने पोषध शालामा व्यावश्यक करतां कोटवालें दीवो, अने रहकें मार्गमां कुंमल पड्युं पण दीव्रं. ते उपाडी पोतानी पार्श्वे राख्युं, पढी बल करीने रात्रिने समये कोटवालें ते कुंमल लावी नागदत्तना कानमां घाल्युं. प्रजातें नाग दत्तने ' पकडी राजा यागल लइ गया. कुंमलनी चोरीनुं चाल दीधुं. राजायें तत्काल मारवानी श्राज्ञा दीधी, तेने कोटवालें मुख कालुं करी रासन उपर चढावी अनेक जातिनी विटंबना करी नगरमां फेरवी शूलारोपणने स्थानकें (मसाणें) थाल्यो. ते वात नागवसु स्त्रीयें सांजली, तेवारें महाडुःख धरती थकी तेनुं कष्ट निवारण करवा माठें शासनदेवीनुं स्मरण करी काउस्सग्ग कस्यो खने विचायुं के जेवारें ए नागदत्त मूकाशे, तेवारें हुं काउस्सग्ग पारीश ! एम निश्व ल ध्यानमा थिर रही ते अवसरें नागदत्तने शूलियें दीधो के शूली नांगी पडी, पण नागदत्तने यंगें न लागी, तेवारें कोटवालना यादेशथी नागदत्तने खङ्गे करी हल्यो, ते खड्ग पण फूलमाला जेवुं तेने लाग्युं, तेवारें राजपुरुषं विस्म य पामी ते वात राजा बागल कही, राजा पोतें तिहां खाव्यो ते विचार प्र स्यक्ष देखी नागदत्तने सर्व विचार खरेखरो पूढवाची नागदत्ते यथास्थित वा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए सिंदूरप्रकरः त कही. ते सनिली राजा महोटा महोत्सव पूर्वक नागदत्तने नगरमा ला आव्यो अने पोतानो अपराध खमावी कोटवालने देश बाहेर काढयो, ते ना घरनुं सर्वस्व ल लीधुं. जेमाटें अति उग्र पुण्य पापनां फल तत्काल प्राप्त थाय २ ॥ यतः ॥ त्रितिवत्रिनिर्मास,स्त्रिनिःपदैस्त्रिनिर्दिनैः ॥ अत्यु गपुण्यपापाना, मिदैव जनतें फलम् ॥ ३ ॥ पली नागदा नागवसुनां काउस्सग्गनुं सर्व वृत्तांत सांजली तेनो घणोज पोतानी नपर स्नेह जागीने ते कन्या पाणिग्रहण कडे. अने चिरकाल तेनी साथै विषयसुख जोगवी वृक्षावस्थायें वैराग्य पामी दृढचित्तें चारित्र ल ३ देवलोकें पहोतो. माटें जे नाग्यवंत पुरुष अदत्तवस्तु न लीये, ते नागद तनी पेठे इहलोकें परलोकें मनोवांडित फलने पामे ॥३६॥ . . हवे मैथुनव्रत याश्रय करीने उपदेश कहे . ॥शार्दूलविक्रीडितवृत्तध्यम् ॥कामार्तस्त्यजति प्रबोधयति वा स्वंस्त्री.परस्त्रीं न यो, दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटदोगोत्रे मषीकूर्चकः ॥ चारित्रस्य जलांजलिगुणगणारामस्य दावान लः, संकेतः सकलापदांशिवपुरक्षरे कपाटोदृढः । पागंतरं॥ शीलं येन निजं विलुप्तमखिलं त्रैलोक्यचिंतामणिः ॥३॥ . अर्थः-( यः के० ) जे पुरुष, ( कामातः केप) कामें करी पीडितथको (स्वस्त्री के०) पोतानी स्त्रीने (नप्रबोधयति के०) न बोलावे डे (वा कें)अने (परस्त्री के०) पारकी स्त्रीने (नत्यंजति के) न त्याग करे .अर्थात् पोतानी. स्त्री बतां परस्त्रीनो संग करे ने, परंतु परस्त्रीनो त्यागकरतो नथी, (तेन के०) ते पुरुषे (जगति के०.) विश्वने विषे ('अकीर्तिपटहः के० ) पोतानी अपकीर्ति रूप ढोल, ( दत्तः के० ) दोधो, एटले वजाड्यो. अर्थात् तेनी विश्वमा अपकीर्तिज थाय. वली ते पुरुषं निर्मल एवा पोताना (गोत्रे के०) गो त्रने विषे ( मषीकूर्चकः के०).मशनो कूचो दीधो. अर्थात् पोताना निष्क लंक कुलने लांबन लगाडयु. वली ते पुरुषे ( चारित्रस्य के०) देश विरति सर्वविरतिरूप संयमने ( जलांजलिः के० ) जलनो अंजलि दीधो, अर्थात् तेणे चारित्रनोपण नाश कीधो. वली ते पुरुषे (गुणगणारामस्य के० ) गुणना गण जे समूह ते रूप आराम जे बगीचो तेने ( दावानलः के०) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए जैनकथा रत्नकोष नाग पहेली. वनानि दी. अर्थात् तेणें गुणोने पण नाश करया, वेली (सकलापदां के० ) समयमापत्तियोने (संकेतः के०) मलवाने स्थानक दीधुं. अर्थात् तेणें या पत्तियाने श्राववानो मार्ग पूरतो कस्यो. वली ते पुरुष ( शिवपुरद्वारे के० ) मोक्षपुरना हारने विषे (दृढः के० ) मजबूत प्रतिकठीन ( कपाटः के० ) कमाड दीघां. अर्थात् ते जीवें मोहंमां जवानी रस्तो अत्यंत बंध कीधो, वली पाठांतरमां ( येन के०) जे पुरुष (त्रैलोक्य चिंतामणिः के०) त्रणलो कने विषे चिंतामणिरूप एवं (निजं के०) पोतानुं ( शीलं के० ) ब्रह्मचर्य, ते (खिलं के० ) संपूर्ण ( विलुप्तं के० ) जोपयुं बे, तो ते पुरुषे पूर्वोक्त सर्व वस्तु करी. एटले या श्लोकमां नाव ए बे जे शील रहित पुरुषनुं जे कां कर्म, ते सर्व व्यर्थ थाय बे ॥ ३७ ॥ टीका:- मैथुनव्रतमाश्रित्योपदेशमाह ॥ दत्त इति ॥ यैः घुमानं का मार्त्तः कामपीडितः स्वस्त्री न प्रबोधयति वांइति तर्फे परस्त्रीं परनारी न त्यजति तेन पुंसा जगति विश्वे प्रकीर्त्तिपटहो दत्तः वादितः । निर्मले गोत्रे स्वकीये वंशे मषी कूचैकोदत्तः । पुनः चारित्रस्य देश विरति सर्वविरतिरूपसंयमस्य जलांजलि दत्तः । गुणानां गणः समूहः सएव रामस्तस्य दावानलो वनदवः वनदवा निर्द तः। पुनस्तेन सकलापदां समस्त कष्टानां संकेतोदत्तः । मजिनस्थानं कथितं । पुन स्तेन शिवपुरद्वारे मुक्तिनगर द्वारे दृढः कपाटोदत्तः । शीलरहितस्य मुक्तिगमना योगात् ॥ पाठांतरे तु ॥ शीलं येन निजं विलुप्तमखितं त्रैलोक्य चिंतामणिः । येनत्रैलोक्य चिंतामणिः निजं शीलं विलुप्तं तेन एतानि वस्तूनि कृतानि ॥ ३७ ॥ भाषाकाव्यः - अथ शीलको अधिकार ॥ सो अपजसको मंक बजावत, जावत कुलकलंक परधान ॥ सो चारितकों देत जलांजलि, गुनवनकों दावा नल दान !! सो शिवपंथ के बार बनावत, प्रापत विपति मिलनको स्थान || चिंतामनि सम्मान जग जो नर, सीलरतन निज करत मलान ॥ ३७ ॥ वली पण शीलना गुणो कहे बे. व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदस्तेषां व्रजंति दयम्, कल्याणानि समुल्लसंति विबुधाः सान्निध्यमध्यासते ॥ कीर्त्तिः स्फूर्त्तिमियर्त्ति यात्युपचयं धर्मः प्रणश्यत्यघम्, स्वर्निर्वाण सुखानि संनिदधते ये शिलमा बिभ्रते ॥ ३८ ॥ ❤ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः अर्थः- (ये के०) जे मनुष्यो ( शीलं के०) ब्रह्मचर्यने (याबिनते के०) धारण करे , ( तेषां के०) ते मनुष्योने ( व्याघ्र के०) वाघ, ( व्याल के०) उष्टगज वा सर्प, (जल के) नदी समुशदि, (अनलादि के०) अग्नि था दिक जे (विपदः के०) विपत्तियो ने ते (दयं के० ) दय प्रत्ये (व्रजंति के) पामे वे. वली. ते पुरुषोने (कल्याणानि के ) कल्याणो ( समुन्न संति के०) रुडे प्रकारे प्राप्त याय: बे. वली ते पुरुषोने (विबुधाः के०) देवता ( सानिध्य के) संनिधिपणा प्रत्ये (अध्यासते के०) प्राप्त थाय में, एटले तेनी देवता सहाय करे . वली ते पुरुषोनी (कीर्तिः के) कीर्ति ते ( स्फूर्ति के० ) विस्तारने ( इयर्ति के०) पामे बे. वली ते पुरुषोनो (धर्मः के०) धर्म ते ( उपचयं के०) पोषणने ( याति के०) पामे जे. वली ते पुरुषोंन (अघं के०) पाप ते (प्रणश्यति के) नाशने पामे . व ती ते पुरुषोने (स्वर्निर्वाणसुखानि के०) स्वर्गमोदनां सुखो (सान्नदधते के०) समीप थावे .अर्थात् जे शीलनेधारण करे , तेमने एटलां वानां थाय ॥ टीकाः-शीलगुणानाह॥ व्याघेति ॥ ये नराः शीलं ब्रह्मचर्य आबिनते धरंति तेषां पुंसां व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदः दयं यांति व्याः प्रसिदः । व्या लो उष्टंगंजः सर्पोवा । जलं पानीयं । नदी समुशदि । अनलो वन्दि स्तेषां विपदः कष्टानि । तैःकताविपदः दवं व्रजति द्वयं यांति । पुनः कन्या शानि श्रेयांसि समुन्नसंति वृर्मि प्राप्नुवंति पुनस्तेषां विबुधा देवाः सान्निध्य अध्यासते साहाय्यं कुर्वति । पुनस्तेषां कीर्तिः स्फूर्ति इयर्ति विस्तारं या ति । पुनस्तेषां धर्मोदानादिविधिरुपचयं पोषं याति । पुनस्तेषां अघं पापं प्रणश्यति नाशं याति । पुनस्तेषां स्वर्निर्वाणसुखानि स्वर्गाऽपवर्गसुखानि संनिदधते समीपमायांति । ये शोल आवित्रते तेषां एतानि नवंति ॥३॥ नाषाकाव्यः-रोडकलंद । कुल कलंक दल मिटै, पापदल पंक पखारै ॥ दारुन संकट हरै, जगत महिमा विस्तारै ॥ सरग मुगति पद रचै, सुकत संचै करुनारसि ॥सुर गृन वंदहि चरन, शील गुन कहत बनारसी ॥ ३० ॥ ॥मालिनीटत्तम् ॥ हरति कुलकलंकं लुपते पापपंकम, सुक तमुपचिनोति श्लाध्यतामातनोति ॥ नमयति सुरवर्ग हंति ौपसर्गम्, रचयति शुचिशीलं स्वर्गमोदी सलीलम् ॥ ३॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए जैनकथा रत्नकोष नाग पदेली. __ अर्थः-( सुचिशीलं के०) निर्मल एवं ब्रह्मव्रत ते ( कुलकलंकं के० ) कुल, कलंक जे मलिनता तेने (हरति के० ) नाश करे . वली (पाप पंक के० ) पापरूप कचराने (लुपते के०) बेदे दे. वली ( सुकत के०) मुकत जे तेने ( उपचिनोति के ) बंधारे .. वली ( माध्यता के.) प्रशंसाने (आतनोति के०) विस्तारे . वली ( सुरवर्ग के ) देववर्गने (नमयति के०) नमाये..तथा (ोपसर्ग के०) नयंकर उपवने (ई ति के०) हणे . वली ( स्वर्गमोदी के० ) स्वर्ग अने मोद तेने ( सलीलं के० ) लीलामात्रमांज (रचयति के) आपे से, ए माटें सर्व सुखनुं देवा वालुं एवं जे शीलवत, तेने कदापि 'बोडवू नही ॥ ३५ ॥ ____टीकाः-पुनश्च हरतिकुलेंति ॥ शुचिनिर्मलं शीलं ब्रह्मव्रत कुलस्य कलंक मलिनतां हरति नश्यति । पुनः शीलं पापमेव पंकं कर्दमं लुपते बिनत्ति । पुनः शुचिर्निर्मलं शुई शीले सुकृतं पुण्यं उपचिनोति वयति । पुनः श्ता घ्यतां प्रशस्यतां तनोति विस्तारयति । पुनः शीलं सुरवर्ग 'नमयति । देवसमूहं नम्रीकरोति । पुतः शीलं उर्गोपसर्ग रौशेपसर्ग उपवं हंति । पुनः शीलं कर्तृ सलीलं यथास्यात्तथा लीलयैव हेलामात्रेण स्वर्गमोदी रचयति ददातीत्यर्थः ॥ ३५ ॥" नाषाकाव्यः-सवैया त्रेवीसा + तांहि न वाघ जुर्यगमको जय, पानि न बोरै न पावक जालै । ताके समीप रहै सुर किन्नर, सो सुन रीति करे - घ टाले ॥ तासु विवेक बढे घट अंतर, सो सुरके शिवके सुख नाले ॥ ता कि सुकीरति हो तिहूं जग, जो नर शीत अखंमित पालै ॥ ३ ॥ ॥ 'शार्दूलविक्रीडितवृत्तक्ष्यम् ॥ तोयत्यग्निरपि सजत्यहिरपि व्याघ्रोऽपि सारंगति, व्यालोऽप्यश्वति पर्वतोप्युपलति वेडो . ऽपि पीयूषति ॥ विनोऽप्युत्सवति प्रियत्यरिरपिकीडातडागत्यपां नाथोपि स्वगृहत्यटव्यपि नृणां शीलप्रनावाध्रुवम् ॥४०॥ अर्थः-(नृणां के०).मनुष्योने (ध्रुवं के) निचे (शीलप्रनावात्के) शीलना प्रनावथकी (अग्निरपि के०) अग्नि पण ( तोयति के०) जल नी समान थाय जे. वली (अहिरपि के०) सर्प पण ( स्त्रजति के०) पु पमाला समान थाय . तथा शीलना प्रत्लावथी (व्याघ्रोपि के०) सिंह Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए सिंदूरप्रकरः पण (सारंगति के०) हरिण समान थाय .' तथा (व्यालोपि के०) उष्ट गज पण (अश्वति के०) अश्वतुल्य थाय जे. तथा (पर्वतोऽपि के०) पर्वत पण (उपलति के० ) पर सदृशं थाय ले. अने ( वेडोपि के० ) विष पण (पीयूषति के.) अमृत तुल्य थाय . तथा ( विघ्नोऽपि के०) अंतराय पण एटले आपत्रियो पण (उत्सवति के) उत्सव तुव्य थाय ने तथा (अरिरपि केए) शत्रु पण (नियति के०)प्रिय समान थाय . तथा (अपांनाथोपि के०) समुश् पंण (कीडातडागति के०) कीडाना तलावनी तुल्य थाय . ( अटव्यपि के) अरस्य पण (स्वगृहति के०) पोताना घरसमान थाय . अर्थात् मनुष्यने शीलप्रनावथकी पूर्वोक्त फुःख सर्व सुखरूप थाय ॥ ४० ॥ था ठेकाणे दृष्टांतमा सुदर्शनश्रेष्ठीनी तथा वंक चूलनी तशा रावणनी कथा जाणवी ते प्रसिद ने मात्रै बाहिं लखी नथी. या पाठमो शीलनो प्रक्रम संपूर्ण थयो ॥ ॥ इति ॥ टीका:-पुनः शीलप्रनावात् इह लोकेपि कष्टानि योतीत्याह ॥ तोयत्य निरिति ॥ मृणां मनुष्याणां ध्रुवं निश्चितं शीलप्रनावात् अभिरपि तोयति तो यमिवाचरति जलवत् शीतलं स्यात् । तथा अहिरपि सप्र्पोऽपि जति । स्त्रक इंच पुष्पमालेव आचरति । पुनः शीलप्रनावात् व्याघ्रोऽपि सिंहोऽपि सारंगति सारंग व हरिण श्वाचरति । पुनालोऽपि उष्टग जोपि अ श्वति अश्व वाचरति । विषमः पर्वतोऽपि उपलति उपलश्वाचरति, सामा न्यपाषाणश्वाचरति । क्ष्वेडोपि विषमपि पीयूषति अमृतं नवति । विघ्नोप्यं तरायोपि आपदपि उत्सवति उत्सव श्वाचरति । विघ्नोप्युत्सव एव नवति । तथा अरिरपि शत्रुरपि प्रियति प्रियश्वाचरति । शत्रुरपि प्रिय एव नवति । तथा अपांनाथोऽपि समुशेऽपि क्रीडातडागति क्रीडातडागश्वाचरति खेल नसरोवरमिवाचरति । अटव्यपि अरण्यमपि स्वगृहति स्वगृहमिवाचरति । तृणां शीलप्रनावादेतानि वस्तूनि नवंति ॥ अत्र सुदर्शन श्रेष्ठिकथा १ वंक चूलकथा श्रावणकथा ३॥४०॥ सिंदूरप्रकाराख्यस्य, व्याख्यायांहर्ष कीर्ति निः । सूरिनिर्विहितायांतु, शिलस्य प्रक्रमोऊनि ॥७॥ इत्वब्रह्मप्रक्रमः॥॥ नाषाकाव्यः-उप्पयबंद ॥ अगनि नीर सम होइ, माल सम होइड थंगम ॥ नाहर मृग सम होइ, कुटिल,गज हो तुरंगम ॥ विषपीयूष स म हो, सिखर पाषान खंग मित ॥ विघन उलटि आनंद, दो रिपु प Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. लटि होश हित ॥ लीला तलाव सम उदधि जल, गृह समान अटवी वि कट ॥ श्ह विध अनेक उख हो सुख, शीलवंत नरके निकट ॥ ४० ॥ . हवे परियहंना दोषो कहे . कालुष्यं जनयन जडस्य .रचयन् 'धर्मजुमोन्मूलनम्, क्लिश्यन्नीतिकृपादमाकमलिनीलॊनांबुधिं वईयन् ॥ मर्यादातटमुजन् शुनमनोदंसप्रवासं दिशन्, किं न क्लेशकरः परिग्रदनदीपूरः प्ररहिं गतः॥४॥ अर्थः-(परिग्रह के०) धन, धान्य, क्षेत्र, गृह, रूप्य, सुवर्ण, कूप्य, हिपद, चतुःपद, ए नवविध परियहरूप जे (नदीपूरः के०) नदीनो प्रवाह, ते (प्रवृद्धिंगतः के०) अति दिने पामतो. बतो (किं के०) गुं (क्लेशकरः के०) क्लेशने करवावालो (न के०) नथी थातो ? अर्थात् थायज . हवे परिय हने नदीना पूरन्दी सादृश्यता कहे जै. ते परिग्रहरूप नदीपूर युं करतो बतो वृद्धिंगत थाय जे.? तो के (जडस्य के) जडपुरुषोना (कालुष्यं के०) क्लिष्ट अध्यवसोयने ( जनयन के०) उत्पन्न करतो बतो वृद्धिंगत थाय डे. अने नदीनो पूर पण (जडस्य के) जलन (कानुष्यं के०) कलुषित पणा ने (जनयन् के०) उत्पन्न करे .. "जडस्य" ए पदमां डकार , तेथी जल एवो अर्थ न थाय, परंतु व्याकरणने नियमें करी डकारने लकारनुं ऐक्य में तेथी थाय. वली (धर्मामोन्मूलनं के) धर्मरूपसदनु जे उन्मूलन तेने (र चयन के०) करतो बतो वृद्धिंगत थाय अने नंदीपूर पण पृथ्वीगत वृदोने नखेडी नाखतो बतो वृद्धिने पामे बे. वली (नीतिपादमा के०) न्याय, दया, अने दांति ते रूप (कमलिनी के०) कमलिनी जेतेने (क्लिश्यन् के०) क्लेश पमाडतो तो वृद्धि पामे बे. अने नदीनो पूर पण कमलिनीने पीडा पमाडे बे. वली (लोनांबुधिं के०) लोनरूप समुने (वयन के०) वधारतो बतो वृद्धि पामे , अने नदीनो पूर पण समुज्ने वधारनारो ने. वली (म र्यादातटं के० ) धर्मरूप मर्यादानुं तट जे चारित्रादिक तेने (उजन के०) पीडा पमाडतो बतो वृद्धि पामे ,अने नदीनो पूर पण वृद्धि पामतो बतो नदीना तटने पाडी नाखे . तथा (गुनमनोहंसप्रवासं के०) धर्म ध्यान युक्त जे मन, ते रूप हंस तेने परदेश गमन प्रत्यें (दिशन् के०) देतो तो Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः ए . वृक्षिपणाने पामे हैं. अने नदीनो पूर पण सोने नमाडतो थको वृधिने पामे ने. माटें मू रूप परिग्रह जे , तेनो सर्वजीवें त्यागं करवो ॥४१॥ टीकाः-अथपरिग्रहदोषमान्॥ कालुष्यमिति । परिग्रहो धन धान्य देत्र गृह रूप्य कूप्य विपद चतुःपदानां संग्रहो मूर्खा स्व एव नदीपूरः। संरित्प्रवाहःप्रव विंगतः उपचर्य प्राप्तः सन् कि क्लेशकरः कष्टदायी न स्यात् ? अपितु स्यादेव । किं कुर्वन् जडस्य परिग्रहं संग्रहं कर्तु. मूर्खजनस्य कानुष्यं क्लिष्टाध्यवसाय त्वं जनयन उत्पादयन् । अन्योऽपि नदीपूरो वृक्षःसन् जलस्य पानीयस्य कालुष्यं जनयति । डलयोरक्यं अडस्य जलस्य । पुनः किं कुर्वन् ? धर्म एव मोरदस्तस्योन्मूलनं उत्पाटनं रचयन् कुर्वन् । अन्योऽपि नदीपूरः प्रक्षो वृदाणां नत्पाटनं करोति । पुनः किं कुर्वन् ? नीति क पादमाकमलिनीः । नीतिया॑यः। कृपा दया । दमा दांतिः । ता एव कमलिन्यः ताः क्लिश्यन् पीडयन् । अन्योपि नदीपूरः कमलिनीः पी डयति । पुमः किं कुर्वन् ? लोनांबुधिं वईयन् । लोजएव अंबुधिः समु इस्तछईयन् वृदि नयन् ॥ जहा लाहो तहा. लोहो, लाहानोहो पव डुई ॥ दोमासा कणयं कंचं, कोड़िएवि न नियट्टियं ॥ १ ॥ इति ॥पुनः किं कु वन ? धर्मस्य मर्यादा एव तटं चरण विधिरूपं तटं नुजन् पीडयन नं जयन् । अन्योऽपि नदीपूरः प्रतः सन् संटं पातयति। पुनः किं कुर्वन् ? शुनमनोहंसप्रवासं दिशन् । गुनं धर्मध्यानसहितं यन्मनस्तदेव हंसस्तस्य प्रवासं परदेशगमनं .दिशन आदिशन् । अन्योऽपि नदीपूरोहंसान उका पयति । ईदृशोमू परिग्रहः क्वेशंकरः स्यात् ॥ ४१ ॥ नाषाकाव्यः-कावत्त मात्रा ॥ अंतर मलिन होइ निज जीवन, वि नसै धरम • तरूवर मूल ॥ किसलयलता नीतिनलिनीवन, धरै लोन सा गर तन थूल ॥ वाद मरजाद मिटै सब, सुजन हंस नहिं पावहिं कू ल ॥ बढत पूर पूरें उख संकट, यह परिग्रह. समता सम तूल ॥ ४१ ॥ वली पण परिग्रहना दोषो कहे जे. मालिनीटत्तम् ॥ कलहकलनविंध्यः क्रोध,श्मशानम्, व्यसननुजगरंधं इषदस्युप्रदोषः ॥ सुकृतवनदवाग्निर्माई . वांनोदवायु,नयनलिनतुषारोऽत्यर्थमर्थानुरागः ॥ ४२ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. अर्थः- ( प्रत्यर्थ के ० ) अत्यंत ( अर्थानुरागः के० ) धननो अभिलाष जे बे, ते केहवो बे? तो के ( कलहकलनविंध्यः के० ) क्लेशरूप जे बाल हस्ती तेने रहेवाने माटें विंध्याचल जेवो बे. अर्थात् जेम बालहस्ती ने क्रीडा क रवानुं स्थानक विंध्याचल बे, तेम क्लेशने क्रीडा कुरवानुं स्थानक अर्थानुराग बे. वली कहेवो बे ? तो के ( क्रोधमशानं के०) क्रोधरूप जे गिद्ध प यो तेने रहेवाने श्मशानतुल्य, अर्थात् गिद्ध पंक्तीयो जेम श्मशानमां रहे बे, तेम क्रोध पण अर्थानुरागमां रहे बे. वली (व्यसनुजगरंधं के०), व्यसन जे कष्ट ते रूप जे सर्प तेना राफडा लरखो बे, अर्थात् जेम सर्पने रहेवानुं स्थानक राफडो बे, तेम कष्टने रहेवानुं स्थानक इव्यानुराग बे. वली (द्वेष दस्युप्रदोषः के० ) द्वेषरूप चोरने चोरी माटे संध्यासमय समान बे, अर्थात् जेम चोरनुं जोर संध्या समयमां वधे बे, तेम ज्यां अर्थानुराग होय त्यां द्वेषरूप चोरनुं जोर बधे दें तथा (सुकृतवनदवाग्मिः के०) सुकत एटले पुएय ते रूप जे वन, तेने वनना मिसमान, अर्थात् जेम वननो अनि 'वनने बाम ए र्थानुराग़ पण सुकतने बाली नाखे बे, वली (मार्दवां जोदवायुः के०) मृडपणारूप जे मेघ तेने विषे वायुं समान बे अर्थात् वायुथ की जेम मेघ नाश पामे बे, तेम अर्थानुरागथकी मृडत्व जे विनयपशुं ते नाश पामे बे: वेल) ( नयनजिनतुषारः के०) न्यायरूप जे कमल तेने हिम समान बे. अर्थात् कमलनो जेम हिम नाश करे बे, तेम न्यायनो नाश अनुराग करे बे. माटें सर्व जीवें अत्यंत अर्थ एटले इव्य तेनी उपर अनुरागनो त्याग करवो ॥ ४२ ॥ : 1 टीका:- नूयोपि परिग्रहदोषानाह ॥ कलहेति ॥ श्रत्यर्थ अर्थानुरागः । परिग्रहोपरि मूरागः ईदृशोऽस्ति । कथंभूतः ? कलहएव कलनो बालहस्ती त स्य विंध्यों विंध्याचलः । यथा विंध्याचले कलनः क्रीडतिं तथाऽत्यर्थ य र्थानुरागे इव्यरागे कलहोजवति । तथा क्रोधगृधश्मशानं क्रोध एव गृध्रः पछि विशेषस्तस्य श्मशानं प्रेतवनं । गृध्रः श्मशाने रमते तथात्र क्रोधः । पु नः व्यसनमेव कष्टमेव जुजगःसर्पस्तस्य बिलं । पुनर्देष एव दस्युश्चौरस्तस्य प्रदोषः संध्यासमयः प्रदोषे चौराणां बलं नवति तथा । पुनः सुकृतमेव पुष्यमेव वनं तस्य दावाग्निर्दावानलः । पुनर्मार्द्दवांचोदवायुः मार्दवं मृदुत्वं कोमलत्वं तदेव अंनोदोमेघस्तत्र वायुः । पुनर्नयो न्याय एव नलिनं कम Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः एए लं तत्र तुषारश्च तुषारोहिमं । अत्यर्थ इव्यानुरागो लोनः इदृशोऽस्ति । थ तो न कर्तव्यः ॥ ४ ॥ नाषाकाव्यः-सवैया इकतीसा ॥ कलह गयंद उपजायवेको विंध गिरि, कोप गिधके अघायवेकों सुमसानं है ॥ संकट'नुजंगके निवास करवेकों बिल, वैरनाव चोरकों. महा निसा समान है ॥ कोमल सुगुन धन खंम वेकों महा पौने, पुन्नवन दाहवेकों दावानल दान.है ॥ नीति नय नीर ज नसायवेकों हिमरालि, ऐसी परिग्रह राग कुःखको निधान है ॥ ४२ ॥ वली पण परिग्रहता दोषो कहे . शार्दूलविक्रीडितवृत्तत्रयम् ॥ प्रत्यर्थी प्रशमस्य मित्रमधृतेर्मों दस्य विश्रामनूः, पापानां खनिरापदां पदमसध्यानस्य ली लांवनम् ॥व्यादेपस्य निधिर्मदस्य सचिवः शोकस्य हेतुः क ले, केलीवेश्म परिग्रहः परिहतेोग्योविविक्तात्मनाम् ॥४३॥ अर्थः-(विविक्तात्मनां के०) विवेकवान पुरुषोने (परिग्रहः के०) परिग्रह जे, ते (प्ररिहतेः के०) परिहार करवाने (योग्यः के०) योग्य बे. अर्था त् विवेकी जनोयें परिग्रहनो त्याग करवो. ते परिग्रह केहवो में ? तो के (प्र शमस्य के.) उपशमने (प्रत्यर्थी के०) शत्रु समान.. वली (अकृतेः के०) असंतोषने (मित्रं के) मित्र समान ने. वली (मोहस्य के०) मूढनुं एटले मोहनीयकर्मनुं (विश्रामः के०) विश्रांति स्थानक एटलें मोहने रहेवार्नु विश्रामस्थानक . तथा वली (पापानां के) अशुनकर्मोनी (खनिः के०) खाण . वली (बापदां के) आपत्तियोk (पदं के) स्थानक ले. वली (असध्यानस्य के०) आर्तरोऽध्यानचें (लीलावनं के०) क्रीडावन ले. वली (व्यादेपस्य के०) व्याकुलपणानो (निधिः के) नंमार ले. वली (मदस्य के०) अहंकारनो (सचिवः के०) मंत्री जे. वली (शोकस्य के०) शोक- ( हेतुः के०) कारण . वली (कले के०) कलह जे जे तेनुं (केलीवेश्म के०) क्रीडागृह बे. माटें परिग्रहनो त्याग करवो ॥४३ ॥ टीकाः-पुनः परिग्रहदोषमाह॥नो नव्याः! अयं परिग्रहोमू धिक्यं वि विक्तात्मनां विवेकवतां पुंसां परिहतेः परिहारस्य योग्यः। परिग्रहः कीदृशः? प्रशमस्योपशमस्य प्रत्यर्थी शत्रु।पुनःअते असंतोषस्य मित्रं सुहृत् । पुन Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. मोहस्य मूढस्य मोहनीयकर्मस्यैव विश्रामस्थानं । पुनः पापानां अशुन कर्मणां खनिः खानिः । पुनरापदां कष्टानां पदं यास्पदं । पुनरसद्ध्यानस्य वातरौ ध्यानस्य लीलावनं कीडावनं । पुनर्व्यादेपस्य व्याकुलत्वस्य निधि निधानं । पुनर्मंदस्याऽहंकारस्य सचिवो मंत्री पुनः शोकस्थ हेतुः कारणं। पुनः कलेः कलहस्य केलीवेश्म क्रीडागृहमित्यर्थः ॥ १३ ॥ नापाकाव्यः-वृत्त कपरप्रमाणे ॥ प्रसमको अहित अधीरंजको बाल मि त, माहामोहराजकी प्रसिद राजधानी है ॥ चमको निधान उरध्यानको विलासवन, विपत्तिको थान अनिमानिकी निसानी है ॥ उरितको खेत रोग सोग उतपति हेत, कलह निकेत उरगतिको निदानी है। ऐसो परिग्रह नोग सबनको त्याग जोग, आतमगवेषी लोग याकी जांति जानी है ॥५३॥ वली पण परिग्रहना त्यागने कहे . . वन्दिस्तुप्यति नेधनैरिद यथा नांनोनिरंनोनिधि, स्त घन्मोदघनोघनैरपि धनैर्जतुर्न संतुष्यति ॥ न त्वेवं मनुते विमुच्य विनयं निःशेषमन्यं नवम्, यात्यात्मा तदहं मुधैव विदधाम्येनांसि नूयांसि किम् ॥४४॥ अर्थः-( वन्हिः के० ) अग्नि (शह के) आलोकने विषे (यथा के०) जेम (घनैरपि के०) घेणा एवां पण ( इंधनैः केप) काष्ठोयें करीने (न के.) नहि (तृप्यति के०) तृप्ति पामे . वली (अंनोनिः के) जलोयें करी ने ( अंनोनिधिः के० ) समु जेम ( न के० ) नथी तृप्ति पामतो (त इत के०) तेनी पेठे (जंतुः के०) जीव, (घनैरपि के०) घणा एवा पण ( धनैः के० ) धनें करीने (न के० ) नहि ( संतुष्यति के० ) सं तुष्ट थाय . ते प्राणी केहवो ले ? तो के ( मोहघनः के०) मोहें करी व्याप्त जे. (तु के०) वली ते जीव ( एवं के०) ए प्रकारें (नमनुते के०) नथी मानतो के (यात्मा के०) जे जीव , ते (निःशेष के०) समस्त (वि नवं के०) व्यने ( विमुच्य के०) मूकीने (अन्यं के०) बीजा (नवं के०). जन्मने ( याति के० ) पामे ले (तत् के०) ते कारणमाटे (अहं के०) हुँ (मुधैव के०) तृयाज (नूयांसि के०) घणांक (एनांसि के०) पापोने (किं के०) शामाटें ( विदधामि के) करूं ? एम प्राणीजाणतो नथी. माटें परिग्रहनो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १०१ त्याग करवो. अहिं नंदराजा तथा मुम्मणनी कथानो दृष्टांत जाणवो ॥४॥ टीकाः-वन्हि रिति ॥ यथा वन्दिरग्निः घनैरपि इंधनैः समिनि तृप्यति न तृप्तिं याति । पुनर्यथा अंनोनिधिः समुः अंनोनिर्जलैः कृत्वा न तृप्यति । तहत् यो जंतुः प्राणी कदाचित् धनैरपि बहुभिर्धनैव्यैः कृत्वा न संतुष्यति कथंनतो जंतुः ? मोहेन घनो निबिडः । तु पुनः जंतुः एवं न मनुते न जानाति । यदयं आत्मा जीवो निःशेषं समस्तं विनवं व्यं विमुच्य त्यक्त्वा अन्यं नवं अपरं जन्म परनवं याति । तत्तस्मात् कारणात् अहं मुधैव तथैव नृयांसि प्रचुराणि एनांसि पापानि किमर्थं विदधामि करोमि ? एवं न जानाति ॥ ४४ ॥ सिंदूरप्रकसरख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, प्रक्रमोयं परिग्रहे ॥ ॥ इति पिरिग्रह प्रक्रमः॥ ए ॥ अत्र.नंदराज मम्मकथा ॥ नापाकाव्यः-उप्पय बंद ॥ ज्यों नहिं अगनि अघाय, पाय इंधन बनेक विधि ॥ ज्यों सरिता घननीर, तृपति नहिं होय नीरनिधि ॥ त्यों असंख धन बढत, मूढ संतोष न मानै ॥ पाप करत नहिं मरहिं, बंध कारन मन आ नै ॥ परतरक विलोकि जनम मरन, अथिर रूप संसार क्रम ॥ समुफै न पाप परताप गुन, प्रगट बनारसि मोहनम ॥ ४ ॥ ___ कथाः- मगधदेशे राजगृहीनगरीमां श्रेणिकराजा ले लेनी चेलणा नामें राणी, एकदा प्रस्तावें नाइपद मासें चेलणाराणी राजानी साथें गोखमा वेग थकां वैनारगिरि साहामुं जोवा लाग्यां. तिहां अनेक निर्धारणां वहे बे, वाम गम. दर्डर स्वर थइ रह्यो बे, बप्पैया बोली रह्या , मोर नृत्य करे बे, पाणीना प्रवाह वहेता नदीमां समाता नथी. ए अवसरें कोई एक पुरुषने नदीप्रवाहनी माहेथी महोटी महेनतें काष्ठ काढतां चेलणायें दोतो, तेथी मनमा विषाद करती राजा प्रत्ये बोली के हे स्वामी ॥ नरि याने सदु को नरे, वूठां वरसे मेह ॥ सधन सनेहा सदु करे, निर्धन दाखे बेह ॥ १ ॥ ए उखाणो जे जगमां कहेवाय डे, ते साचो बे. राजायें पूज्यु के केम ? तेवारें राणीयें कडं के हे स्वामी.! ए एक दरिड़ी पुरुष के तेने उदर नरवु दोहेलु , एणे परनवें पुण्य कयुं नथी मानें तमें सर्वने दान आपो नो पण एवा उःखीने कां देता नथी? तेवारें राजायें सेवक मोक ली तेने तेडाव्यो, ते पण बाजी नमस्कार करी उनो रह्यो. राजायें कडं के Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. हे पुरुष ! तुं दुःखित थको काष्ठ कापे , माटें फुःख नही जोगव. तुमने जोश्य ते हूँ आपुं. तेणें कहूं के स्वामी! दं मम्मणनामें वाणीयो ,मु ऊने बे बलद जोश्यें बैयें. तेमां एक तो मेलव्यो जे पण बीजाने मेलववा माटें उद्यम करुं बुं. राजायें कडं के अमारे घरे हजारो बलंद डे, तेमांजे सारो होय, ते तुं ले. वणिक बौदयों के महारा बलदीया अन्य जातिना जे, तमारा तेहवा नथी. अने मने तो महारत बलद जेवोज बलद जोश्यें! ते सांजली तेना बलदने जोवा माटे राजा ते वणिकने घेर आव्यो, घरमां अत्यंत दिदीती, तथा सुवर्णमय रत्ने जडित एक बलद पण दीठो. ते जो राजा विस्मयने पाम्यो अने ते सर्व समाचार राणीने जइ कह्या. चिन्नया पण तिहां बलद जोवा सारु आवी, बलद देखीने मम्मण प्रत्यें बोली. एवा लाकडां कापवायी तहारे एवो पन केम प्राप्त थाशे ? ते बोल्यो के एवा वृषनने अर्थे में समुश्मांहे प्रवहण पूस्यां , ते परदेशमा ए लाकडी वेचीने तेनां नाणानां रत्न लश्यावशे. तेवारें वृषन नीपजशे. ए काष्ठ जे बे, ते बावनाचंदन डे, एनो मर्म जे परीक्षक होय, तेज जाणे. ढुं पण बीजा कोइने शीखवतो नथी. पनी राजा राणी तेना लोननो विचार देखी विषाद धरतां पाबां घेर अाव्या. हवे ते मम्मण शेठ अतिलोजना वशथकी थार्तध्यान धरतो विपत्ति पामतो अपूर्ण सनोरथेंज मरण पामी तिर्यचा दिकने विषे घणा घणां नवं पर्यंत नम्यो. एम जाणी नविकजीवें परिय हनी विरति करवी ॥ इति परिग्रहविषे मम्मण कथा समाप्ता ॥ ४ ॥ हवे क्रोधजयने माटें उपदेश कहे . . योमित्रं मधुनोविकारकरणे संत्राससंपादने, सर्प स्य प्रतिबिंबमंगददने सप्तार्चिषः सोदरः ॥ चैतन्य स्यनिषूदने विषतरोः सब्रह्मचारी चिरं,स क्रोधःकु शलानिलाषकुशलैः प्रोन्मूलमुन्मूल्यताम् ॥४॥ अर्थः- हे लोको ! (कुशलानिलाषकुशलैःके०) पोताना जीवना श्रेयनी वांबामां चतुर एवा पुरुषोयें (सः के) ते (क्रोधः के०) क्रोध, (प्रोन्मूलं के) समूलथीज जेम होय तेम (उन्मूख्यतां के० ) उल्छेदन करवो. ते क्रोध केहवो के ? तो के ( यः के) जे क्रोध, (विकारकरणे के०) चित्तादि Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २०३ ने विकारना करवामां (मधुनः के०) मद्यनो ( मित्रं के०) मित्र . वली जे क्रोध, (संत्राससंपादने के०) संत्रास मेलववामां एटले नय उत्पन्न करवामां (सर्पस्य केप) सर्पनो (प्रतिबिंब के) प्रतिबिंबरूप अथवा सर्पसमान . वली जे क्रोध, (अंगदहने के०) शरीरं दहनमा (सप्तार्चिपः क) अमिनो(सो दरः के०) चातावली क्रोध, (चैतन्यस्य के)ज्ञानना (निषूदने के०) नाश करवामां (चिरं के०) अतिशयपणायें करी (विषतरोः के०) विषवृक्ष नो (सब्रह्मचारी के०) साधर्मिक ले. अर्थात् ज्ञानना नाश करवाने विषे विष समान जे. माटें ते कोधनो त्याग करवो ॥ ४५ ॥ टीकाः-अथक्रोधजयार्थमुपदेशमाह।।योमित्रमिति॥नोलोकाः! कुशला जिलाषकुशःयात्मनः श्रेयोवांगचतुरैनरैः सः क्रोधः कोपोनिर्मूलं संमूलं यथास्यात्तथा उन्मूल्यतां नबिद्यतां । सः कः? यः क्रोधः विकारकरणे चित्ता दिविकारविधानेमधुनोमद्यस्य मित्रं सुहृत्। पुनर्यः क्रोधःसंत्राससंपादने जय जनने सर्पस्य प्रतिबिंब सर्पसदृशं । पुनर्यः क्रोधोंऽगदहने शरीरप्रज्वालने सप्तार्चिपोमेः सोदरः अग्नेाता । पुनर्यः क्रोधश्चैतन्यस्य ज्ञानस्य निषूदने नाशने विनतरोविषवृदस्य चिरमतिशयेन सब्रह्मचारी सार्थी ॥ ४५ ॥ नीषाकाव्यः-गीताबंद॥ मात्रा बच्चीश ॥ जो सुजन चित्त विकार कारन, मनहूँ मदिरा पान । जो नरम जय चिंता बढावन, असित सरप समान॥ जो जंतुजीवन हरन विषसम, जग दहन दवदान ॥ सो कोपरासि विनासि नवि जन, लहत शिवसुख थान ॥ ४५ ॥ __ . वली पण क्रोधंजयने माटें कहे जे. ॥ दरिणीदत्तम् ॥ फलति कलितश्रेयः श्रेणिप्रसूनपरं परः, प्रशमपयसा सिक्तोमुक्तिं तपश्चरणमः ॥ यदि पुनरसौ प्रत्यासत्तिं प्रकोपहविर्नुजो, न जति लनते नस्मीनावं तदा विफलोदयः॥४६ ।। 'अर्थः-(तपश्चरणमः के०) तप चारित्ररूप जे वृद्द ते (मुक्तिं के०) मोदने ( फलति के०) निष्पादन करे . ते केहवो वृद ? तो के (क लितश्रेयःश्रेणिप्रसूनपरंपरः के०) उत्पन्न करी जाणे कल्याणनीज पंक्ति होय नही तेम पुष्पनी पंक्ति,जेणे. वली ते वृद्ध केहवो के ? तो के (प्रशम Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. पयसा के० ) उपशमरूपजलें करी ( सिक्तः के०) सिंचेलो . तो पण (पुनः के० ) वली (असौ के० ) ए वृद, ( यदि के ) जो (प्रकोपदवि र्नुजः के० ) प्रकोपामिनी (प्रत्यासत्तिं के० ) समीपताने (जजति के ) आश्रय करे . ( तदा के०') तो (जस्मीनावं के ) नत्मनावने (ल नते के०) प्राप्त थाय बे. ते केहवो बतो प्राप्त थाय ? तो के (विफलो दयः के०) गयो ने फलनो उदय जे थकी सर्थात् फलोदय रहित बतो जस्म जावने प्राप्त थाय बे. माटें क्रोधनो त्याग करंवो ॥ ४६॥ • टीकाः-फलतीति ॥ तपश्चारित्ररूपा व सुमो वृदः मुक्तिं मोदं फलति निष्पादयति । कथंनूतः ? कलिताश्रेय :श्रेणिप्रसूनपरंपरः । कलिता नुत्पादि ता श्रेयसां पुण्यानां कल्याणानां श्रेणिः राजिरेव प्रसूनानां पुष्पाणां परंपरा पंक्तिर्येन सः। पुनः कथंनूतः? प्रशमपयसा उपशम एव जलं तेन सिक्तः सेकं प्रापितः यदि पुनः परंतु असौ तपश्चरणमःप्रकोपहविर्नुजःक्रोधवन्हेः प्रत्या सत्तिं समीपं नजति आश्रयति, तदानस्मीनावं नस्मरूपतां जनते प्राप्नोति। कथंनूतः? विफलोदयः। विगतः फलस्य उदयो यस्मात् फलोदयरहितः॥४६॥ जाषाकाव्यः-कवित्त मात्रा० ॥जब मुनि को बोइ तप तरुवर, नपसम जल सींचत चित्त खेत ॥ उदित ज्ञान सारखा गुन पनव, मंगल पुहप मुगति फल हेत ॥ तव तहिं कोप दावानला उपजत, महा मोह दल पवन समेत सो जसमंत करत लिन अंतर, दाहत विरख सहित मुनिचेत ॥ ४६ ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तध्यम् ॥ संतापं तनुते निनत्ति विनयं सौदाईमुत्सादय, त्युगं जनयत्यवयवचनं सूते विधत्ते क लिम्॥कीर्ति कुंतति उर्मतिं वितरति व्यादंति पुण्योदयम् , दने यः कुगतिं स दातुमुचितो रोषः सदोषः सताम् ॥४७॥ अर्थः-(संः के०) ते ( रोषः के) क्रोध, ( सतां के०) सत्पुरुषोने ( दातुं के० ) त्यागवाने ( उचितः के० ) योग्य . ए केहवो क्रोध ? तो के ( यः के०) जे रोष, (सदोषः के० ) अनेक दोषोयें सहित . तथा ( संतापं के०) चित्तोगने (तनुते के०) विस्तारे ने. वली (विनयं के०) विनयगुणने ( निनत्ति के०) नेदे दे. वली (सौहाई के०) मित्रनावने ( उत्सादयति के०) विनाश करे , वली (नईगं के० ) उगने ( जन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १०५ यति के० ) उत्पन्न करे . · वली (अवद्यवचनं के) असत्यवचनने ( सूते के० ) उत्पन्न करे . वली ( कलिं के०) कलहने ( विधत्ते के०) धारण करे . वत्ती ( कीर्ति के०). यशने. ( कंतति के) दे जे. व ली ( उमति के ) उष्टबुझिने (वितरति के) विस्तारे . वली (पुण्यो दयं के०) धर्मना उदयने (व्याहंति के) विनाश करे , वली (कुगतिं के०) नरकतिर्यग्गतिने.( दत्ते के) आपे . माटें ते क्रोध सऊनें त्याग करवा योग्य ॥ ४॥ . ___टीकाः-पुनः क्रोधस्य दोषमाह ।। संतापमिति ॥ स रोपः क्रोधः सतां सत्पुरुषाणां दातुं त्यक्तुं नचितो योग्यास्ति । कथंनूतः रोषः ? सदोषः अनेक दोषैः सहितः । सः कः? यो रोपःसंतापं चित्तोहगं तनुते विस्तारयति । पुन योरोपो विनयं विनयगुणं निनत्ति विदारयति विनाशयति । पुनर्यः सौहाई मित्रनावं उत्सादयति विनाशयति । पुनर्यः नहगं नजाटं जनयति । पुनर्यः अवद्यवचनं असत्यवचनं सूते उत्पादयति । पुनर्यः कलिं कलहं विधत्ते क रोति। पुनौरोषः कीर्तिर्यशः कृतति बिनत्ति । पुयोर्मति उष्टबुधि वितरति दत्ते । पुनयों पुण्योदयं धर्मस्य नदयं व्याहंति विनाशयति । पुनर्यः कुगतिं नरकतिर्यग्गतिं दत्ते । स रोषः सतां हातुं उचितः ॥ ४ ॥ । नापाकाव्यः-वस्तुबंद ॥ कलह मंमन कलह मंझन रन उदवेग, ज स खंझन हित हरन फुःख विलाप संताप साधन ॥ उरवैन समुच्चरन ध रम पुन मारग विराधन ॥ विनय दमन उरगति गमन, कुमति हरन गुन लोप ॥ ए सब लबन जांनि मुनि, तजहिं ततबन कोप ॥ ४ ॥ वली पण क्रोधना दोषो कहे जे. योधर्म ददति जुमं दवश्वोन्मथ्नाति नीति लताम् ॥ दंती वेज्कलां विधुतुदश्व क्तिनाति कीर्ति नृणाम् ॥ स्वार्थ वायुरिवांबुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदम्,तृष्णां धर्मश्वोचितः कृतकपालोपः स कोपः कथम् ॥४॥ अर्थः-(सः के०) ते (कोपः के०) क्रोध, (कथं के०) कये उपायें करी टालवाने (उचितः के०) योग्य ? अर्थात् कोई उपायथी टालवा लायक नथी. ( यः के०) जे कोप (धर्म के०) धर्मनें ( दहति के०) जस्म करे डे १४ . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनकथा रत्नकोषनाग पहेलो. केनी पवें ? तोके (जुमं के) वृदने (दवश्व के०) दावानल जे तेज जेम. अर्थात् जेम दावानल वृक्ने बाले के तेम. वली ( नीति के० ) न्यायने (उन्मथ्नाति के०) उन्मूलन करे . केनी पढ़ें ? तो के (दंती के०) हस्ती (जतामिव के०) लतानेज जेम. अर्थात् हाथीजेम लताने उखेडी नाखेडे तेम. वली जे क्रोध (नृणां के) मनुष्योन, (कीर्ति के०) कीर्त्तिने (क्लिभाति के०) क्लेश पमाडे ले. अर्थात. कीर्निनो नाश करे है. केनी पेठे ? तो के ( विधुतुदः के०) रादु, (इंउकलामिव के०) चंकलानेज जेम, वली जे क्रोध, (स्वार्थ के०) स्वार्थने (विघदयति के०) नाश करे . केनी पढ़ें ? तो के (वायुः के०) वायु जे , ते ( अंबुदमिव के०) मेघनेज जेम. वली जे क्रोध, (आपदं के०) कष्टने (नलासयति के) विस्तारे जे. केनी पढ़ें ? तो के (धर्मः के०) गरमी, (तृष्णामिव के०) तृषानेज जेम, अर्थात् जेम तापमां तृषा वधे ने तेम. वैली ते कोपं केहवो ? तो के (कृतकपालोपः के० ) कस्यो के कपानो नाश जेणे एवो ने ॥ ४ ॥ क्रोधप्रक्रम संपूर्ण ॥ ___टीकाः-यो धम्ममिति ॥ सः कोपः क्रोधः कथं केनोपायेनोचितोयोग्यः स्यात् ? अपि तु न कथमप्युचितः। सः कः ? यः कोपोधर्मं श्रेयोदहति जस्मीकरोति । कः कमिव ? दवो दावानलो डुममिव । यथा दावानलो पुमं वृदं दहति । पुनर्योनीति न्यायं नन्मथ्नाति उन्मूलयति । कः का मिव ? दंती हस्ती लतामिव । यथा हस्ती लतामुन्मूलयति । नृणां मनु ष्याणां कीर्ति विभाति पीडयति गमयति । कः कामिव? विधुंतुदो रादुरि उकलां चंइलेखामिव । पुनर्यो रोषः स्वार्थ विघटयति स्फेटयति । कः क मिव ? वायुरंबुदमिव । यथा वायुर्मेधं विघटयति । पुनर्यः आपदं कष्टं नाना सयति विस्तारयति । कः कामिव ? धर्मः ग्रीष्मः तृष्णामिव । यथातपे स्तृषां वर्षयति । कर्थनूतः कोपः ? कृतः कृपायाः लोपो विनाशो येन सः॥४७॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विदितायां तु, क्रोध स्य प्रक्रमोऽजनि ॥ १० ॥ इति दशम क्रोधप्रक्रमः ॥ १० ॥ जाषाकाव्यः-उप्पयनंद ॥ कोप धर्म धन दहै, अगनि जिम विरख वि नासै ॥ कोप सुजस आवरै, रादु ज़िम चंद गिरासै ॥ कोप नीति दलम से, नाग जिम लता विहंमै ॥ कोप काज सब हरे, पवन जिम जलधर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिदूरप्रकरः २०७ खंमै ॥ संचरत कोप उख रुपजै, बढै तृषा जिम धूपमहं ॥ करुना विलो प गुन गोप जुत, कोप निसिह महंत कह ॥ ४ ॥ कथाः- क्रोधत्याग उपर गजसुकुमारनी कथा ॥ सौराष्ट्र देशे झारिका नगरी , तिहां कृष्णवासुदेव राज्य करे. जे: एकदा देवकीजीयें गवाहें बेग थकां कोई स्त्रीने पोताना बालकने रंमाडती दीती, ते जोड्ने मनमां चिंतव्युं जे मुफने पुत्र होय तो हुँ पण दुलरावं ? एम धारी चिंतातुर थइ रही. तिहां श्रीकृष्ण चिंतानुं कारण पूब्यु. देवकीजीयें बलात्कारथी पोतानुं अनिलषित कह्यु. पडी माताने संतोषी पोषधशालायें आवी अ हम तप करी हरणीगमेषी देवता आराध्यो, ते प्रसन्न थश्ने कहेवा लाग्यो के तमारी माताने पुत्र थाशे, पण ते यौवनावस्थामां दीक्षा लेशे, पंजी देवप्रनावें नवमासें देवकीजीने पुत्र थयो, गजसुकुमार नाम दीधुं. अनुक्रमें सकलकला नण्यो, यौवनावस्था पाम्यो, सोमिल ब्राह्मणनी पुत्री परम्यो, एवामां श्रीनेमिनाथ समोसस्या, तेमनी पासेंथी उपदेश सांजली माताने समजावी दीक्षा लीधी. विविध शिदा पामीने प्रजुने पूंडयुं के महाराज! शीघ्र मोद थापो. प्रनु बोल्या के स्मशानमां कानस्संग्ग करीयें, दमाथी उ पसर्ग सहन करीयें, तो तरत मोदप्राप्ति थाय, ते सांजली प्रनुनी याज्ञा मागी मसाणमा जकानस्सग्ग कसो, तेवारें गामथी बावतां सोमिल ब्राह्मणें जमाइने दीगे. के तरत क्रोध उपनो जे एणे महारी पुत्रीने फुःखी करी तो हूं पण एने फुःखी करूं? एम विचारी रीशथी मस्तक सूची माटीनी पाल बांधी, मांहे खेरना अंगारा नखा. गजसुकुमार चिंतव्युं के ए महारो नपकारी थयो , एना उपसर्गथी महारां कर्म क्य थशे ? एम निश्चल ध्यान धरी केवलज्ञान पामी मोर्दै गयो. प्रजातें श्रीकृष्ण जगवान ने पूब्युं के महारो लघुबंधव क्यां ने ? ते कहो. जगवाने सर्व वृत्तांत कह्यु तेवारें श्रीकृष्णें पूज्यु के मारनार कोण ? जगवानें कह्यु के हमणां मार्गे जातां तुऊने देखशे के तरत तेनुं हृदय फाटी जाशे अने मरण पामशे! श्रीकृष्ण पण जगवानने वांदी पाढा वव्या अने. मार्गम् तेमज दीतुं, ते वारें मनमा खेद पाम्या. ए रीतें गजसुकुमार क्रोध जीतवाथी मोड़ें गयो. अने सोमिल ब्राह्मण मरी उर्गतियें गयो. ए माटें क्रोधनो जय करवो ॥ इति क्रोध जयोपरि ाजसुकुमारकथा ॥ ४ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०G . जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. हवे.अहंकारना दोषो कहे में: ॥मंदाक्रांताटत्तम्॥यस्मादाविर्नवति विततिठस्तरा पन्नदीनाम्, यस्मिन् शिष्टानिरुचितगुणग्रामनामा पिनास्तिायश्च व्याप्तं वदति वंधधीधूम्यया क्रोधदा वम्, तं माना िपरिदर रारोहमौचित्यत्तेः॥४॥ अर्थः-हे नव्य प्राणी ! (औचित्यत्तेः के०) नधित आचरण करवाथी, अर्थात् योग्यविनय करवाथी (तं के) ते (माना िके० ) अहंकाररूप पर्वतने (परिहर के० ) त्याग कर.. ते मानादि एटले मानरूप पर्वत कहेवो ? तो के (यस्मात् के०)जेथकी( उस्तरा के०) न तराय एवी (आ पन्नदीनां के०) विपत्तिरूप नदीनी (विततिः के) पंक्ति, ते (आविर्नवति के०) प्रगट थाय जे. जेमतीजा पर्वतोयकी पण नदीनी श्रेणि नत्पन्न थाय ने तेम. वली (यस्मिन के०) जे मानरूप पर्वतने विपे (शिष्टानि रुचित गुणग्रामनामापि के०) उत्तम पुरुषोने प्रीतिदायक एवा जे ज्ञानादिक गुणो अथवा औदार्यादिक जे गुणोत्तेनो जेसमूह, तेनुं जेमांनाम पणा (नास्ति के०) नथी. (च के०) वती(यः के०) जे मानादि, (क्रोधदावं के) कोधरूप-दावा नलने (वहति के) वहन करे .. ते क्रोधदावानल केहवो ले ? तो के (वध धीधूम्यया के) हिंसाबुद्रिरूप धूमें करीने (व्याप्तं के०) व्याप्त वे. वली (उरारोहं के०) उपर चडवाने अशक्य अर्थात् जेनो पार पामवाने पण अशक्य थवाय . अथवा बीजो अर्थ करवो, ते जेम के ( औचित्य वृत्तेः के०) नचिताचरण करनारने ( उरारोहं के ) ते मानादि चडवाने अशक्य ने. अर्थात् नचिताचरण करनारने मानाश्निो अनाव ले ॥४॥ टीकाः-अथ मानस्य अहंकारस्य दोषानाह॥ यस्मादिति। जो नव्यप्राणि न ! औचित्यत्तेः नचिताचारकरणात् । तद्योग्यविनयविधानात् तं मानादि मानएव अहंकारएव अस्तिं अहंकारपद्धतं परिहर । त्यज मुंच । तं कं ? यस्मान्मानास्तरा तरीतुं अशक्या आपन्नदीनां कष्टरूपनदीनां विततिःश्रे णिराविनवति प्रकटीनवति । अन्यस्मादप्यरेदीविततिः प्राऊनवति। तथा पस्मिन्मानाझै शिष्टानिरुचितगुणयामनामापि नास्ति । शिष्टानां उत्तमानां अनिरुचिताः प्रीतिदायिनोये गुणा ज्ञानादयः औदार्यादयो वा तेषां ग्रामः Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १०ए समूहस्तस्य नामापि नास्ति । गुणानां लवलेशोमि न । पुनर्यो मानादिः क्रोधदावं क्रोधदावानलं वहति धत्ते सः। कथंनूतं क्रोधदावं? वधधीधूम्य या व्याप्तं हिंसाबुधिधूमसमूहेनालीढं । पुनः कथंभूतं क्रोधदावं? मुरारोहं आरोढुमशक्यं । अथवा औचित्यवृत्तेः योग्यटनेः उरारोहं ॥ ४ ॥ जाषाकाव्यः-कवित्त मात्रा० ॥ जातें निकसि विपति सरिता सब, जग में फैलि रही चिहुं और ॥ जाके ढिग गुन गाम नाम नहिं, माया कुमति गुफा अति घोर ॥ जहवध बुद्धिधूमरेखा सम, नदित कोप दावानल जोर ।। सो अनिमान पहार पटतर, तजत तांहि सर्वज्ञ किसोर ॥ ४ ॥ शिखरिणीदत्तम् ॥शमालानं नजन् विमलमतिनाडी विघटयन, किरन् फुर्वाक्पांशूल्करमगणयन्नागमश ‘णिम् ॥ भ्रमन्ना स्वैरं विनयनयवीथीं विदलयन् , . जनः कं नानर्थ जनयति मदांधोदिपश्व ॥ ५॥ अर्थः- (मंदांधः के० ) अहंकारें करी गयां नावरूप नेत्र जेनां एवो (जनः के) प्राणी (कं के०) कया (अनर्थ के०) अनर्थने ( न जनयति के० ) नथी उत्पन्न करतो? अर्थात् सर्व अनर्थने नत्पन्न करे जे. केनी पढ़ें ? तो के (दीपश्व के०) मदोन्मत्त हाथीज जेम. शुं करतो बतो अनर्थने उत्पन्न करे ? तो के, (शमालानं के) शमतारूप आलान एटले गजबंधन स्तन तेने (नंजन के०) नांजतो बतो. वली रॉ करतो तो? तो के (विमलमतिनाडी के०) निर्मलबुद्धि रूप नाडि जे बंधनरकु तेने (विध टयन के) तोडतो बतो, वली (उर्चाक्पांशूत्कर के०) उर्वचनरूप जे धूड तेनो जे समूह तेने (किरन के०) विदेपण करतो बतो. वली (बागमशृषि के०) सिद्धांत रूप अंकुशने (अगणयन के०) न गणतो बतो क्ली (का के) पृथ्वीने विषे ( स्वैरं के०) स्वेचायें करी (चमन् के०) जमतो बतो, वली (विनयनयवीथीं के०) विनयरूप न्यायणि तेने (विदल यन के) विनाश करतो तो अनर्थने उत्पन्न करे ले. अर्थात् जेम अहं कार मदांध पुरुष उपर कहेली वात करतो तो अनर्थ उत्पन्न करे जे, तेम मदांध हाथी पण एटली वस्तु उत्पन्न करतो बतो अनर्थने करे ने ॥५॥ टीकाः- नूयोऽपि मानदोषानाह । शमालानमिति ॥ मदेन अहंकारेण Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो अंधो गतनावेक्षणो जन के कं अनय न जनयति नोत्पादयति ? अपि तु सर्व अनर्थ जनयति । क व ? पि इव । मत्तगज इव । यथा मदांधो हिपोऽनर्थ उपश्वं जनयति। किं कुर्वन् ? शमालानं नजन शमएव उपशम एवालानः गजबंधनस्तंनस्तं नंजन उन्मूलयन् । पुनः किं कुर्वन् ? विमल मतिनाडी निर्मलबुद्धिमेव नाडी बंधनरंकुं विघयन् त्रोटयन् । पुनः किं कुर्व न् ? डाक् पांशूत्करं जागेव उर्वचनसेव पांशुधूलिस्तस्याः 'नत्करं समूह किरन् विदिपन् । पुनः आगमएव सिहांतएव शृणिः अकुशस्तं अगणयन् । अविचारयन् अवमानयन् । कया एव्यां स्वैरं स्वेचया चमन् विचरन् । पुनर्विनयनयवीथीं । विनय एव नरावीथीः न्यायश्रेणिस्तं विदलयन् विध्वं सयंन् । अन्योऽपि मदांधोहस्ती एतानि वस्तूनि करोति ॥ ५० ॥ नाषाकाव्यः- रोडकहंद ॥ नंजै उपसम थंन, सुमति जंजीर विहंमै ॥ कुवचन रज संग्रहै, विनय वन पंकति खमै ॥ जगमें फिरै सुबंद, वेद अं कुश नहिं मानै ॥ गज ज्यौं नर मद अंध, सहज सब अनरथ तानै ॥५०॥ वली पण मानना दोषो कहे.. शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ शौचित्याचरणं विलुपति पयोलाई ननस्वानिव, प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणस्टशां जीवि तम् ॥ कीर्ति .कैरविणी मतंगजश्व प्रोन्मूलयत्यंजसा, मानोनीचश्वोपकारनिकरं दंति प्रिवर्ग नृणाम् ॥ ५॥ अर्थः-(मानः के०) अहंकार, (नृणां के) मनुष्यना (त्रिवर्ग के०) धर्म, अर्थ, काम, ए त्रण वर्ग जे तेने (हंति के०) नाश करे . केनी पतें ? तो के ( नीचः के० ) नीच पुरुष, ( उपकारनिकरमिव के० ) उपकारसमू हनेज जेम हणे ले तेम. वली ते मान, (औचित्याचरणं के०) योग्य एवा आचरणने (विद्युपति के०) नाश करे . केनी पढ़ें ? तो के ( ननस्वान् के० ) वायु (पयोवाहमिव के) मेघनेज जेम, वली (प्राणस्टशां के०) प्राणीना (विनयं के०) अन्युनानादिक विनयने (प्रध्वंसं के०) क्ष्यप्रत्ये (नयति के०) पमाडे जे. केनी पढ़ें ? तो के (अहिः के०) सर्प, (जीवित मिव के०) जीवतरनेज जेम क्य पमाडे जे, तेम. अर्थात् जेम सर्प जीवि तने क्य पमाडे जे तेम ते मानी पुरुष विनयनो नाश करे बे. वली (अं Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १२१ जसा के० ) वेगें करी (कीर्जि के) कीर्त्तिने (प्रोन्मूलयति के०) उन्मू लन करे जे. केनी पढ़ें ? तो के ( मतंगजश्व के०) मंदोन्मत्त हस्ती (कैर विणी के०) कमलिनीनेज जेम. अर्थात् हस्ती जेम कमलिनीने उन्मूलन करे ने तेम कीर्तिनुं नन्मूलन मान करे ॥५१॥ टीकाः-औचित्येति ॥ पुनराह॥मांनोऽहंकारो नृणां पुंसां त्रिवर्ग धर्मार्थ कामरूपं हंति नाशयति । कः किमिव ? नीचः मनुष्यः नपकारनिकरमिव । यथा नीचः उपकारसमूहं हंति तथा। पुनर्मानः औचित्याचरणं योग्याचारं विलृपति स्फेटयति । कः कमिव ? नलस्वान् वायुः पयोवाहमिव । पुनर्मानः प्राणस्टशां प्राणिनां विनयं अन्युबानादिकं प्रध्वंसं दयं नयति । कः किमि व ? अहिः सो जीवितमिव यथा सोजीवितं दयं नयति । पुनरंजंसा वेगेन कीर्ति यशः प्रोन्मूलयति । कः कामिव ? मतंगजो हस्ती कैरविणी कमलिनीं यथा प्रोन्मूलयति ॥ ५५ ॥ . जाषाकाव्य:-कडखा बंद ॥ मान. सवि उचित आचार नंजन कर, प वन संचार जिम घन विहंमै ॥ मान आदरत, जय विनय लोपै सकल, नु जग विष नीर जिम मरन मंमै.॥ मानके उदित जगमांहि विनसै सुजस, कुपितं मातंग जिम कुमुद खमै ॥ मानकी रीति विपरीत करतूति जिम, अधमकी प्रीति नर नीति मै॥५१॥ . वली पण मानना दोषो कहै . वसंततिलकादृत्तम् ॥.मुष्णाति यः कृतसमस्तसमी हितार्थ, संजीवनं विनंयजीवितमंगनाजाम् ॥ जात्या दिमानविषजं विषमं विकारम्, तंमाईवामृतरसेन नय स्व शांतिम् ॥ ५ ॥ इति मानप्रक्रमः ॥११॥ अर्थः-(यः के० ) जे अहंकार, (अंगनाजां के०) प्राणीना (विन यजीवितं के०) विनयगुणरूप जीवितने (मुष्णाति के०) उल्छेदन करे ने. एकेहq विनयजीवित जे? तो के (कतसमस्तसमीहितार्थसंजीवनं के०) कह्यु बे समस्त वांबितार्थनुं संजीवन जेणे एवं बे. माटे (तं के०) ते (जात्या दिमानविषजं के) जाति, लान, कुल, ऐश्वर्य,बल, रूप, तप, श्रुत, तेनो जे अहंकार ते रूप जे विष, तेथकी उत्पन्न थयेला एवा (विषमं के०) घोर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ , जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. एवा (विकारं के०) विकारने (मार्दवामृतरसेन के) मृउतारूप अमृतरसें करी (शांति के०) उपशमप्रत्यें (नयस्व के०)पमाडो अर्थात् मानने नम्रता रूप रसें करी शांतिप्रत्ये पमाडो ५॥ इति एकादश मानप्रक्रमः ॥११॥ ____टीकाः-नूयश्चाह ॥ मुष्णातीति ॥ योमानोंडानाजां प्राणिनां विनय जीवितं विनयगुणरूपं जीवितं मुष्णाति उन्निनत्ति। कथंनूतं विनयजीवितं? कृतसमस्तसमीहितार्थसंजीवनं । कृतं समस्तानां समीहितार्यानां वांबितार्था नां संजीवनं येन तत् । तं जात्यादिमाम विषजं जातिलानकुलैश्वर्यबलरूपतपः श्रुतानां मानोऽहंकार स एव वितस्मात्समुनवं नत्पन्नं विषमं घोरं विकारं मा ईवाऽमृतरसेन मृतासुधारसेन शांतिनपशमं नयस्व प्रापय॥ मानत्यागे बादु बलि नंदीपेण दृष्टांतः ॥५२॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः॥ सूरिनिर्विहितायां तु: मानस्य प्रक्रमोऽजनि ॥११॥ इति मानप्रक्रमः॥२१॥ नाषाकाव्यः-चोपाई ॥ मान विषम विष तन संचरै, विनय विनासै वं बित हरै ॥ कोमल गुन अमृत संयोग, विनसै मान विपम विष रोग ॥५॥ कथाः- मगधंदेशे राजगृहनगरीयें श्रेणिकराजाले तेनो नंदिषेण नामें पुत्र गुणें करी पवित्र , तिहां गुणशैलचैत्ये श्रीमहावीर समोसस्या, नंदी पेणे नगवानने वांद्या, धर्मदेशना सांजलीने दीदा लेवानो नांव थयो. तेवारें शासन देवतायें कयुं के हंजी तमारे नोगावली कर्म शेप रह्यां ने, ते जोगव्या पड़ी चारित्र लेजो. कारण के अवसरें सर्व रूडं कहेवाय अने अवसरेंज फल दायक थाय, एम शासन देवतायें समजाव्यु: तेमनुं वचन अप्रमाण करी नवितव्यताने वशे तेणें दीक्षा लीधी. ते घसा वर्ष पाली, घणी लब्धियो उपनी. एकदा पारणें वहोरवा माटें वेश्याने घेर अावीने धर्मलान दीधो, वेश्यायें अर्थलान कह्यों. तेवारें नंदीपेणें तर| ताणीने साडी बार क्रोह इव्यनो वरसाद वरसाव्यो, यावत् जोगावली कर्मथी तिहां रह्यां. वेश्या साथें लोग जोगववा लाग्या. तिहां बार वर्ष वही गया. नित्य प्रत्ये दश दश माणसने प्रतिबोध पमाडी श्रीवीरनी पासें दीदी लेवा मोकले. एकदा नोगावली कर्मनो क्ष्य थवाथी उपदेश देतां नव जणने प्रति बोध पमाडी श्रीवीर पासें मोकल्या पण दशमो सोनी प्रतिबोध न पाम्यो. तेणें कह्यु के जेम मुझने उपदेश आपो हो, तेम तमें केमादरता नथी? एवामा नोजनवेला थवाथी स्त्री आवीने रीशथी जोजन करवाने बोलाव्या. तेवारें , Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १२३ नंदोषेण बोल्यो के दशंमो हुँ, एम कही श्रीवीरपाले चालवा मांमधु. स्त्रीय घणी रीतें समजाव्यो, परंतु तेने पण प्रतिबोंधी दीदां लइ सजतियें गयो. एम नंदीषेणें यहंकार कस्यो, तो चारित्रथी पज्यो. इति मानत्याग ऊपर नंदीषेणनी कथा ॥ ११॥ माटे मान त्याग, ॥ ५५ ॥ . हवे मायांत्यागनो प्रक्रम कहे . मालिनीवृत्तम् ॥ कुशलजननवंध्यां सत्यसूर्या - स्तसंध्याम, कुगतियुवतिमालां, मोदमातंगशा लाम् ॥शमकमलहिमानी पुर्यशोराजधानीम्, व्यसनशतसहायां, दूरतौमुंच मायाम् ॥५३॥ अर्थः-हे नव्यजन ! (मायां के ) कपटने ( दूरतो के०) दूरथकी (मुंच के०) मूक. ए माया केहवी ? तो के (कुशल के०) देमना (जनन के०) नत्पन्न करवामां ( वंध्यां के०') वंध्या स्त्री समान, तथा ( सत्यस् स्तिसंध्या के०) सत्यवचनरूप जे सूर्य तेना आस्तने माटें संध्यासमान बे, वली (कुगतियुवतिमालां के). कुगतिरूप जे स्त्री तेने पहेरवानी माला समान. वली (मोदमातंगशालां के०) मोहरूप हस्तीने बांधवानी शाला समान , वली (शमकमलहिमानी के ) नुपशमरूप में कमलों तेनी क पर पडावामां हिमसमान वली (पुर्यशोराजधानी के०) अपकीर्तिने रहेवाने निवासनगरी, वली. (व्यसनशतसहायां के०) सहस्त्र गमे कष्टोनी सहायनूत , माटें मायानो दूरथीज त्याग करवो ॥ ५३॥ टीकाः-अथ मायात्यागमाह ॥ कुशलेति ॥नो नव्यजन! मायां कपट दूरतोमुंच त्यज । कथं नूतां मायां ? कुशलस्य देमस्य जनने उत्पादने वंध्यां वंध्यास्त्रीरूपां । पुनः सत्यमेव सूर्यस्तस्याऽस्तमनाय संध्या तां । पुनः किं जूतां ? कुगतिरेव युवतिस्तस्याः वरमाला तां। पुनः किंनूतां ? मोहएव मातंग स्तस्य शाला बंधनस्थानं तां । पुनः किंनूतां ? शमएव उपशम एव कम लानि तेषां हिमानी हिमसंहतिः तां । पुनः किंनूतां? ऽर्यशसः अपकीर्तेः राज धानी निवासनगरी तां । पुनः किंनूतां ? व्यसनानां कष्टानां शतानि तेषां सहायो यस्याः सा तां । ईदृशीं मायां दूरतो मुंच ॥ ५३ ॥ १५ . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ . जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. नाषाकाव्यः-रोडकवंद ॥ कुशल जनन कडं वांफ, सत्त रवि हरन सांग थिति ॥ कुगति जुवति तर माल, मोह कुंजर निवास निति ॥ शमवा रिज हिमरासि, पाप संताप सहायिनी ॥ अजस खानि जग जानि, तज हुँ माया उख दायिनी ॥ ५३ ॥ वली पण मायाना दोषो कहे . . उपेंश्वजारत्तम् ॥ विधाय मायां विविधैरुपायैः, परस्यये वंचनमा चरंति,तेवंचयंति त्रिदिवापवर्ग,सुखान्महामोहसखाः स्वमेव॥५॥ __ अर्थः-(ये के०) जे जनो ( विविधैः के०) अनेक प्रकारना ( उपा यैः के०) उपायोयें करीने (मायां के० ) कपटने ( विधाय के०) करीने ( परस्य के० ) बीजा जननुं ( वंचनं के०) वंचनने एटले अन्य जनोने उगवानुं (आचरंति के० ) आचरण करे बे. (ते के) ते जनो ( महा मोहसखाः के) महामोह ले सखाइ जेनो एवा बता अर्थात् अज्ञानयुक्त बता, (त्रिदिवापवर्गसुखात के ) देवलोक तथा मोदसुखथकी, (स्वमेव के०) पोतेंज पोताना आत्माने (वंचयंति के०) तरे जे ॥५४ ॥ ___टीकाः-पुनराह ॥ विधायेति ॥ये जनाः विविधैर्नानाप्रकारैरुपायैर्मायां कपटं विधाय कृत्वा परस्यान्यजनस्य वंचनं आचरंति कुर्वति ते जनाः। म हामोहसखाः महदज्ञानयुक्ताः संतः त्रिदिवापवर्गसुखात् देवलोकमोदसु खात् स्वयमेवात्मानमेव वंचयति विप्रतारयंति ॥ ५ ॥ नाषाकाव्यः-वेस रिवंद ॥ मोह मगन माया मन संच, करि नपान और नकों वंचै॥अपनी हानि लरखे नहि सोइ, सुगति हरे उर्गतिःख हो ॥५४॥ वली पण मायाना दोषो कहे . . इंवंशाटत्तम् ॥ मायामविश्वासविलासमंदिरं, उराशयोयः कुरुते धनाशया॥ सोऽनर्थसार्थ न प तंतमीहते, यथा बिडालो लगुडं पयः पिबन्॥५॥ अर्थः- (यः के) जे (उराशयः के०) उष्टचित्तयुक्त एवो जीव, (धना शया के ) इव्यनी आशायें करी अर्थात् इव्यलोनें करी ( मायां के) कपटने (कुरुते के०) करे . (सः केए) ते प्राणी, (पतंतं के०) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १२५ आवता एवा (अनर्थसार्थ के०) कष्टना समूहने (नईदत के०) नथी जोतो. केनी पढ़ें ? तो के (बिडालः के०) बिल्लाडो ते (पयः के०) दूधने (पिबन् के०) पीतो बतो (लगुडं के०) दंमप्रहारने (यथा के०) जेम जोतो नथी! ते केवी माया ? तो के ( अविश्वास विलासमंदिरं के०) अविश्वास जे अंप्रतीति तेने रमवानुं गृहले. माटें मायानो त्याग करवो ॥ ५५ ॥ ____टीका:- पुनर्मायादोषमाह ॥ यो उराशयीउष्टचित्तोजनो धनाशया व्यस्य वांब्या लोनेन मायां कपटं कुरुते विदधाति । स जनः आत्म नोऽनर्थसार्थ कष्टानां समूहं पतंतं आगतं नेहते नालोकते । कथं ? यथा बिडालो मार्जारः पयो उग्धं पिबन् सन् लगुडं दंम्प्रहारं नेदते ना लोकते कथंभूतां मायां ? अविश्वासस्य अप्रतीतेः क्रीडागृहं । मंदि रशब्दस्याजहनिंगत्वं ॥ ५५ ॥ लाषाकाव्यः-पछडीबंद ॥माया अविसास विनास गेह, जो करैमूढ जनध न सनेह॥ सोकुगति बंध नहिं लवैएम, तजिनय बिलाउ पय पिवैजेम॥५५॥ • वली मायाना दोषो कहे जे. ॥ वसंततिलकाटत्तम् ॥ मुग्धप्रतारणपरायणमुक्ति हीते, यत्पाटवं कपटलंपटचित्तवृत्तेः ॥. जीर्यत्युप प्लवमवश्यमिदाप्यकृत्वा, नापथ्यनोजनमिवामय मायतौ तत् ॥ ५६ ॥ इति मायाप्रक्रमः ॥१२॥ अर्थः-( कपटलंपटचित्तवृत्तेः के० ) मायाने विषे वांडायुक्त ने चित्त त्ति जेनी एवा पुरुषy ( यत्पाटवं के०) जे चातुर्य ( झिहीते के०)प्र काश थाय., (तत् के०) ते चातुर्य, (अवश्यं के०) निचे करी (आय तौ के०) श्रावता समयने विषे (इहापि के ) बाहिं पण (उपप्लवं के०) उपवने (अकृत्वा के ) न करीने ( नजीति के) परिणाम पामतुं नथी. अर्थात् ते मायाकत चातुर्य, कांइ पण उपश्व कस्या शिवाय परिणा म पामतुं नथी. केनी पढ़ें ? तो के (अपथ्यनोजनं के).कुपथ्यनुं नोजन, (बामयं श्व के०) रोगनेज जेम. अर्थात् कुपथ्यनोजन, आगामिकालने. विषे रोगने उत्पन्न कस्या शिवाय परिणाम पामतुं नथी तेम मायारूत चातु र्य पण जाणवू. हवे ते मायाकत चातुर्य केहबु ले ? तो के (मुग्धप्रतारणप Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. रायणं के० ) मूर्वजनने 'तरवाने तत्पर ले ॥ ५६ ॥ इति माया प्रक्रमः ॥ १२ ॥ ए माया उपर श्रीमन्निनाथजीना पूर्वनवनी कथा जाणवी ते प्रसिह ने माटें थाही लवी नथ ॥ १२ ॥ . टीकाः-पुनराह ॥ मुग्धप्रतारणेति ॥ कंपटे मायायां लंपटा वांबायुक्ता चित्तवृत्तिर्मनोव्यापारो यस्य तस्य पुरुषस्य यत्पाटवं चातुर्य उलिहीते नना सति । तत्पाटवं अवश्यं निश्चयेन आयतौ धागामिनि काले उपप्लवं उ पश्वं अलवा अविधाय न जीर्यति परिणामं न याति । किं कुतः?, तस्य विपाकोनवत्येव । किमिव ? अपथ्यनोजनं आमयमिव । यथा अपथ्यं नोज नं जेमनं आमयं रोगं अकृत्वा बायतौ न जीर्यति । कथंभूतं पाटवं? मु ग्धानां मूर्वानां प्रतारणे वंचने परायणं तत्परं ॥ अत्र मल्लीनाथजीवमहा बलदृष्टांतः ॥ ५६ ॥ इति ॥ सिंदूरप्रकारख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, मायायाः प्रक्रमोऽजनि ॥ १२ ॥ इति हादशोमाया प्रक्रमः॥ १२ ॥ . नाषाकाव्यः-आनानकहंद ॥ ज्यौं रोगी करि कुपथ, बढावै रोग तन ॥ स्वाद लंपटी जयो, कहै मुफ जनम धन ॥ त्यौं कपटी करि कपट, मूढ को धन हरै ॥ करै कुगतिकों बंध, हरष मनमें धरै ॥ ५६ ॥ हवे लोनत्यागनो उपदेश करे .. शार्दूलविक्रीडितटत्तध्यम् ॥ यदुर्गामटवीमटंति विकटं कामंति देशांतरम्, गादंते मदनं समुश्मतनुक्वेशां कृषि कुर्वते ॥ सेवंते कृपणं पतिं गजघटासंघःसंचरम्, सर्पति प्रधनं धनांधितधियस्तरोनविस्फूर्जितम् ॥५॥ अर्थः-(धनांधितधियः के०) धनें करी बंध थयेली ने बुधि जेनी एवा पुरुषो, अर्थात् लोजी जनो ( यत् के०) जे धनने माटें (उर्गा के०) न ज वाय एवी (अटवीं के०) अरस्यप्रत्ये (अटंति के) अटन करे . एटले अरण्यमा फरे . वली (विकटं के०) विस्तीर्ण एवा (देशांतरं के०) देशां तर प्रत्ये (कामंति के०) चमण करे . वली (गहनं के०) कोथी न अवगाहन थाय एवा (समुई के०) समुश्प्रत्ये (गाहंते के०) अवगाहन करे . वली (अतनुक्लेशां के०) बहु कष्टें करी साध्य थाय एवी (कृषि के०) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २२० खेतीने कुर्वते के०) करे . वली (कपणं के०)अदाता एवा (पति के०) स्वा मीने (सेवंते के०) सेवे , वली (गजघटासंवःसंचरं के) दस्तिसमूहनायू थे करी जेमौन जवाय एवा (प्रधनं के०) युद्धप्रत्ये (सर्पति के०) जाय . (तत् के) ते पूर्वोक्त सर्व (सोनविस्फूर्जितं के०)लोन- विचेष्टित जाणवू. अ र्थात् लोनवशे करी प्राणी सर्व चेष्टा करे , माटें लोननो त्याग करवो ॥५॥ ____टीका:-बंथ लोनत्यागोपदेशमाह ॥ यदुर्गामेति ॥धनेन वित्तेनांधिताचं धप्रायकता धीर्बुध्र्येिषां ते ईशाः पुरुषाः । यत् उग्ी विषमां बटवीं अरण्यं अटंति कामेति । पुनर्यत् विकटं विस्तीर्ण देशांतरं कामंति चमंति। पुनर्यत् गहनं उरवगाहंगाहंते उल्लंघयंति। पुनर्यन् यतनुक्वेशांबदुकष्टसाध्यांकृषिकर्ष णं देत्रादि कुर्वते विदधते । पुनर्यत् कपणे अदातारं पतिं स्वामिनं सेवंते । पुनर्थत् गजघटानां हस्तिसमूहानां संघेन दुःसंचरं गंतुमशक्यं प्रधनं युदंप्र ति सप्पैति गळंति । तत् सर्व लोनस्य विस्फूर्जितं । लोनस्य चेष्टितं जानीहि । सोनवशादेतात्ति वस्तूनि कुर्वति । अतःकारणालोनः संत्याज्यएव ॥५॥ । नाषाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥ सहै घोर संकट समुश्की तरंगनिमें, कंपै चित नीत पंथ गाहै वीज. वनमैं ॥ गनै कृषिकर्म जामें शर्मको न ले श कंदुं, संकलेश रूप व्हैके फूकि मरै रनमें ॥ तजै निज धामकों विराम परदेश धावै, सेवै प्रनु कपन मलीन रहै मनमें ॥ मोलै धन कारज अना रज मनुज.मूढ, ऐसी करतूति करै लोनकी लगनमें ॥ ॥ ५७ ॥ · वली पण लोनना दोषो कहे जे. मूलं मोहविषमस्य सुकृतांनोराशिकुंनोभवः, को धाग्नेररणिः प्रतापतरणिप्रबादने तोयदः ॥ क्रीडा सद्म कलेविवेकशशिनः स्वर्नाणुरापन्नदी, सिंधुः की र्तिलताकलापकलनोलोनः पराञ्यताम् ॥ ५॥ अर्थः-हे नव्यलोको ! (लोनः के०) लोन जे जे ते (परानूयतां के०) परानव करीयें, एटले लोननो त्याग करीये. ते लोन केहवो के ? तो के (मोहविषमस्य के०) अज्ञानरूप जे विषतरु तेनु (मूलं के०) मूल वली (सुकतांनोराशिकुंनोभवः के०) पुण्यरूप समुश्ना शोषणने विषअगस्ति ऋषि समान , वली (क्रोधानेः के०) क्रोधरूप जे अनि तेनुं (अरणिः के० Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. काष्ठ ने, एटले क्रोधाग्निनु उत्पत्तिस्थानक ले. वली (प्रतापतरणिप्रजाद ने के०) प्रतापरूप सूर्यने ढांकवामां (तोयदः के०) मेघसमान , वली (कलेः के०) कलहनु (क्रीडासद्म के ) लीलागृह , वली ( विवेकशशिना के०) पु त्यापुण्यरूप चंमा जे तेने (स्वर्नाः के) रादुसमान , वली (आपन्नदी सिंधुः के०) आपत्तिरूप नदीयोज ले तेने धारण करवामां समुश्वे. अर्थात् आपत्तिनुं स्थानक डे वली (कीर्तिलताकलापंकलनः के० ) कीर्तिरूप जे वनी तेनो जे समूह तेना नाशने विप्ने हस्तीना बंचा समान वे ? एवो पूर्वोक्त दुर्गुण युक्त जे लोन तेनो त्याग करवो ॥ ५ ॥ टीकाः-पुनराह ॥ मूलमिति ॥ जो जव्याः! लोनः परानूयतां निराक्रिय तां त्यज्यतां । मोहएव अज्ञानमेव विषमोविषतरुः तस्य मूलं जटारूपं ।मू लशब्दस्याऊहल्लिंगत्वं । पुनः कथंनूतो लोनः? सुकृतमेव पुण्यमेवांनोराशिः समुस्तस्य शोषणे कुंनोभवोऽगस्तिरिव। पुनः क्रोधानेः अरणिः क्रोधएव अग्निस्तस्य अरणिः काष्ठं उत्पत्तिस्थानं । पुनःप्रतापएव तरणिः सूर्यस्तस्या बादने तोयदो मेघोऽनं । पुनः कलेः कलहस्य क्रीडासद्म लीलागृहं । पुन विवेकएव पुण्यापुण्यविचारएव शशीचंइस्तस्य स्वर्नाणुः राहुः। पुनः आप नदीसिंधुः आपदः कष्टान्येव नद्यस्तासां सिंधुः समुस्तासां स्थानरूपत्वा त । पुनः किंनतोलोनः? कीतिरेव-लता वनी तस्याः कलापः सम्रहस्तस्य विनाशे कलनो हस्तिंशावः । ईदृशोलोलोजीर्यतां ॥ ५७ ॥ - जापांकाव्यः-वृत्त उपरप्रमाणे ॥ पूरन प्रताप रवि रोकवेकों धाराधर, मुकत समु शोषवेकों कुंजनंद है ॥ कोप दव पावक जननको अरनि दारु, मोह विष नूरुहको महा दृढकंद है ॥ परम विवेक निसिमनि ग्रसि वेकों रातु, कीरति लता कलाप दलन गयंद है ॥ कलहको केलि नौन आपदा नदीको सिंधु, ऐसो लोन याहिको विपाक उख दंद है ॥ ५ ॥ फरीने पण लोजना दोषो कहे जे. वसंततिलकाटत्तम् ॥ निःशेषधर्मवनदादवि जंनभाणे, उःखौघनस्मनि विसर्पदकीर्तिधू मे ॥ बाढं धनेंधनसमागमदीप्यमाने, लो नानले शलनतां लनते गुणोघः ॥५॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १२ए अर्थ:-( लोनानले के.) लोनरूप अग्निने पेि ( गुणोघः के०) ज्ञाना दिकगुणोनो समूह, ( शलनतां के०) पतंगपणाने (लनते के०) प्राप्त थाय . अर्थात् अमिमां जेम पतंग पडीने बले ,तेम गुणसमूह, ते लोनरूपथ ग्निमां पडीने बखे दे. हवे ते लोनानल कहेवो के ? तो के ( निःशेष धर्मवनदाद विजृनमाणे के) समस्त धर्मरूप जे वन तेने बालवे करी वि स्तार पामेलो एवो वली (पुःखौघनस्मनि के) रखना समूहरूप ले जस्म जेमां एवो, वली (विसर्पदकीर्तिधूमे के०) प्रसरती जे अपकीर्ति ते रूप में धूम जेमा ऐवो, वली (बाढं के०) यतिशयें करी (धनेंधनसमागमदीप्यमाने के०) धनरूप जे काष्ठ तेना समागमें दीप्यमान अर्थात् अत्यंत धनरूप इंधनें करी जाज्वल्यमान एवो ने तेमां सर्वे गुणो पतंगनी पढ़ें बली जाय ॥५॥ टीकाः-पुनराह ॥ निःशेपेति ॥ लोनएवानलोऽनिस्तस्मिन् लोनानले गुणोघोझानादिगुणानां उघः समूहः शलनतां पतंगत्वं लनते । पतंगवज्ज्व लति । कथंनते लोनानते ? निःशेषं समस्तं यक्ष्मएव वनं तस्य दाहेन विजूं जमाणः विस्तारं प्राप्नुवन् तस्मिन् । पुनः कथंनूने? ःखानां उघः समूह एव जस्म रदा यत्रं स तस्मिन् । पुनः कथंनते? विसर्पत् प्रसरत् अपकीर्ति रेव धूमो यस्मात् सः तस्मिन् । पुनः कथंनूते ? बाढं अतिशयेन धनान्ये व इव्याण्येव इंधनानि एधांसि तेषां समागमेन आगमनेन दीप्यमानोऽ त्यंतं प्रज्वलत् वृदिं प्राप्नुवत् तस्मिन् । सर्वे गुणाः पतंगवत् नवंति ॥५॥ जापाकाव्यः-उप्पयबंद ॥ परम धरम वन दहै, उरित अंबर गति धारै॥ कुजस धूम उजिरै, नूरि जय जस्म विदारै ॥ दुःख फुलिंग फूंकरै, तरल तिस्ना फल कहै ॥ धन इंधन आगम, संयोग दिन दिन अति वड़े॥ लह लहै लोन पावक प्रबल, पवन मोह नहत वहै ॥ दजहिं उदारता आदि बहु, गुन पतंगको दाव है ॥ ५ ॥ संतोपें करी लोज़ निवारण करवा योग्य , माटें संतोषना गुणो कहे जे. शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ जातः कल्पतरुः पुरः सुरगवी तेषां प्रविष्टा गृहम्, चिंतारत्नमुपस्थितं करतले प्राप्तोनिधिःसंनिधि म्॥विश्वं वश्यमवश्यमेवसुलनाः स्वर्गापवर्गश्रियो, ये संतोष मशेषदोषदहनध्वंसांबुदं बिभ्रते॥६॥ लोनप्रक्रमः॥१३॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो.. __ अर्थः- (ये के) जे मनुष्यो (संतोषं के०) तृष्णानो जे निरोध कर वो तेने (बिनते के०) धारण करे बे; (तेषां के०) ते पुरुषोना (पुरः के०) अपने विषे (कल्पतरुः के०) कल्पद, (जातः के०) उत्पन्न थयो बे. वली ते पुरुषोना (गृह के०) गृहप्रत्ये (सुरगवा के०)कामधेनु, (प्रविष्ठा के०) प्रवेश थयेली. अर्थात् यावेली . वली तेना (करतले के०) हस्ततलने विषे (चिंतारत्नं के०)चिंतामणि रत्न (उपस्थितं केप)प्राप्त थयुं . वली ते पुरुषोने (निधिः के०) व्यनंमार,(सन्निधिं के समीपताने (प्राप्त के०) प्राप्त थाय ने.व ली ते मनुष्यने(विश्व के०)जगत्, (अवश्यं के०)अवश्य (वश्यमेद के०)वराज थाय ने. अने वली ते पुरुषोने, (स्वर्गापवर्गश्रियः के०) देवलोकनी अने मो क्नी.संपत्ति ते(सुलनाः के) रुडे प्रकारे प्राप्त थाय बे. हवे ते संतोष क हेवो के ? तो के ( अशेषदोषदहन के०) समग्र दोषरूप जे अग्नि तेना (ध्वंस के०) नाश करवाने माटें (अंबुदं के०) मेघ समान वे. अर्थात् मेघ जेम अनि बुझाववामां प्रचुर बेतेम दोपोना नाश करवामां संतोष ले ते भाटें संतोषज कर्त्तव्य जे ॥ ६० ॥ आहीं सागरश्रेष्ठीनी कथा जाणवी ॥१३॥ टीकाः-संतोषेण लोनोनिवार्यः स्यादतः संतोषगुणानाह। जातइति॥ये जनाःसंतोषं तृष्णानिरोधं विनते धारयति । तेषां पुरोऽये कल्पतरुः कल्पवृदो जातः प्रत्यदोऽनूत् । पुनस्तेषां गृहं सुरगवी कामधेनुः प्रविष्टा आगता। पुन स्तेषां करतले चिंतामणिरत्नं उपस्थितं आगतं । पुनस्तेषां निधिः इव्यस्य निधिः सन्निधिं समीपं प्राप्तः । पुनः विश्वं जगत् अवश्यं निश्चितं तेषां व श्यं जातं । पुनस्तेषां स्वर्गापवर्गश्रियः देवलोकमोदसंपदः सुलनाः सु प्राप्याः स्युः । कथंनूतं संतोषं ? अशेष दोपदहनध्वंसांबुदमशेषाश्च ते दो पाश्च अशेषदोषाः तएव दहनः अशेपदोपदहनस्तस्य ध्वंसाय अंबुदं । अतः संतोषएव कर्तव्यः । अत्र सुनूमचक्रवर्त्ति सागरश्रेष्ठि कथा ॥६॥ सिंदूरप्रकराव्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः॥ सूरिनिर्विहितायांतु, लोनस्य प्रक्रमोऽजनि ॥ इति त्रयोदशोलोजप्रस्तावः ॥१३॥ जापाकाव्य-कवित्त मात्रात्मक ॥ विलसै कामधेनु ताके घर, पूरे कलप वद सुखपोप ॥ अखय नँमार नरै चिंतामनि, तिनकों सुगम सुरग अरु मोख ॥ ते नर वश्य करै विनुवनकों, तिनसों विमुख रहै उख दोष ॥ वसै निधान सदा तिनके ढिग, जिनके हृदय वसत संतोष ॥ ६ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २२ कथा:-लोजनपर सागरश्रेष्ठीनी कथा कहे जे. या जंबुद्धीपने विषे न रतक्षेत्रमा पद्मपुरनामा नगर , त्यां अतिधनाढय सागरनामा श्रेष्ठी वसे बे. ते एवो कपण जे के एवे.हाथे कागडांने पण उमाडे नहिं. ते एम जाणे के.जो उहिष्टहाथे कागडानेनमाडीश तो महारा हाथमा लागेला अन्ननुं एवं कागडाउने मलशे! एवो ते कदरी जे. तेने सुशीला गुणवती नामा स्त्री बे. तेना एक सोमदत्त, बीजो जयदत्त,त्रीजो धनदच, चोथो अमरदत्त. एवा चार पुत्रो ने. ते यौवनास्थाने पाम्या; तारें तेना पितायें परणाव्या. ते चारे पुत्रो पोतपोतानी स्त्रीयो साथै विषयसुख जोगवता बता काल गमावता हता. अनुक्रमें शेनी स्त्री गुणवती मरण पामी तेथी सागरश्रेष्ठी :ख पामवा लाग्यो, तेवारें तेना सगां वालायें दिलासो आपी शोकमुक्त करो. ___एक दिवसें ते सागरश्रेष्ठीना चारे पुत्रो बापना आदेशथी वाहाणमां वेसी वेपार माटे देशांतरें गया. पालथी सागरश्रेष्ठीने बोकरानी वहूरो नो विश्वास न ववाथी पोतें घर बागल खाटलो ढाली हाथमां लाकडी तर बेसे. एक दिवसें ते सागरंश्रेष्ठीने राजायें रत्नोनी परीक्षा करवा माटें बोलाव्यो, तेवांमां फरतो फरतो कोश्क रोगी तेने घेर आव्यो. तेने बोक राऊनी वस्यें मिष्टान्नपाने करी तृप्त करखो. तेवारें जोगीयें संतुष्ट थई ते स्त्रीयोने एक मंत्र थाप्यो. अने कह्यु के तमें कोइ पण लाकडा उपर वेसीने या माहारो आपेलो मंत्र जणी ते लाकंडा उपर अडदना दाणा बांटीने पढ़ी तमारें ज्यां जq होय,ते स्थलनुं नाम लश्ने कहेशो जे अमने तुं या स्थानकें पोहोंचाई! तो ए लाकडं ज्यां जवा श्वशो, त्यां पहोंचाडशे. एम सर्व मंत्रनो प्रनाव कहिने ते योगी गयो. पनी चारे स्त्रीयोयें मली एक मोहोटुं लाकडं घरने विषे राख्यु. पण ते वातनी सा गरश्रेष्ठीने कांइ पण खबर नथी. हवे सागरश्रेष्ठीनी पग चंपी धगेरे चाकरी करवा माटें एक हजाम निरंतर आवे. एक दिवस ते हजामें घरमां पडेलु ते मोहोटुं लाकडं नजरें जो. तेवारें विचारवा लाग्यो के बा लाकडं आहींथी बीजे स्थलें लइ जवाने कोइ समर्थ न थाय एवं महोटं . ते आ ही घर आगल पडयुं डे, माटे आमां का चमत्कार तो नहिं होय ? एम विमासणमां ते हजामने शेठनी चाकरी करतां ते दिवसें घणो वखत था गयो. घणी रात्रि गया पली शेने निश आववा लागी त्यारें नापितने Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ जैनकथा रत्नकोष नाग पर्छेलो. रजा श्रापी के तुं जा, तो पण ते नापित त्यां बानो मानो शेवना ढोली यानी नीचें सुइ गयो. शेठें नापित गयो जालीने घरनां कमाडो बंध कखां ने पोतें सुतो. ते ज्यारें घोर निंशुमां याव्या, ते वखत चारे स्त्रियो ते लाकडा उपर बेसीने मंत्रनां जोरथ रत्नदीप मां जइ पोताना मनोरथ पूर्ण कपाली रातें पाठी घेर यावीयो. तेने जोड़ने हजाम विचारवा लाग्यो के, रे! या स्त्रीयो कहां गयो हो ! या स्त्रीयोनुं के साहस बे !! एम चिंतवतो पोताने घेर गयो. बीजे दिवसें पण पूर्वोक्तरीतें ते नापितें क. ने शेठने सुवा वखत था, त्यारे ते लाकडाना पोलारामा पेठगे ॥ क े के ॥ नराणां नापितोधूर्त्तः, पक्षिणां धूर्तवायसः ॥ वर्णानां वणि कोधूर्तो, नारीणां गणिका मता ॥ १ ॥ सागर श्रेष्ठीयें हजाम गयो जाणी बारा बंध करयां. पूर्वोक्तरीतें स्त्रीयो पण लाकडा पर बेसीने रत्नदीपें गइ. त्यां लाकडाथी उतरीने पोत 'ना मनोरथ पूर्ण करा. ते सर्व नापितें जोयुं. ने पोतें लाकडानी पोलमांथी नीकलीने रत्नद्वीपमांथी घणांक मूल्य रत्नो लइ पाठो लाकडामां पेणे. ने स्त्रीयोनी साथै पाठो घेर याव्यो. स्त्रीयो लाकडा उपरथी उतरी घरमा गयो. पाटलयी नापित पण लाकडामांथी बाहेर निकली पोताने घेर गयो. पण बीजे दिवसें धनवान् थवाथीं साग श्रेष्ठ चर्य करवा खाव्यो नहिं. एक दिवस ते शेठ पासें नापितें या ala नमस्कार करी पोतानुं दर्पण शेठने बताव्युं. ते वखतें शेठें घणे दि वसें वेला नापितने जोड़ने ठबको खाप्यो. त्यारें खोटा साचा जबाप या पीने पोतानी पासें रत्नद्दीपमांथी खाणेनुं जे रत्नं हतुं, ते बताव्युं. ते जोईने शेठें कयुं के रेट ! या रत्न देवतानुं, घणाज मौल्यवालुं, सकल नूमंमला धिपतिने पण न मजे तेवुं, तुने क्यांथी मल्युं ! ते मने कहे ! ! ! तेवारें तेणें कयुं के तमाहराज घरमांची मने ए रत्न मलेलुं बे. शेठें कयुं के हे मूर्ख ! तुं खोटं बोल नहिं. मारा घरमां श्रावुं रत्न होय क्यांथी ? ते सांजलीने हजामें यथास्थित जेवी वात बनी हती तेवी सविस्तर कही संजलावी. त्यारें शे ठेंकयुं के मने पण तेम करवुं बे. तो ते नापितनी प्रमाणें शेठें पण रत्न ६ीपमां गमन करूं ने लाकडामाथी नीसरीने पोतें लोनी तो बेज माढें घांज रत्नो लइ गांसडी बांधीने गाठो लाकडामां पेतो. पालथी स्त्रियो पण यावी बेठी लाकडं चड्युं. परंतु घणां रत्नोनो तथा शेठनो नार हो Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २२३ वाथी लाकडं हलवे हलवे चालवा मामयु. तेने जोक्ने स्त्रियो विचारवा लागी के अरे ! आज काष्ठ बराबर चालतुं नथी ने नमतुं जाय , माटें जो घेर जवा वखत लागशे तो आपणने सासरो. खीजशे ? माटे हवे शो उपा य करवो ? एम परस्पर कहेला लागियो. त्यारे लाकडाना कोतरमा रहेलो श्रेष्ठी कहेवा लाम्यो के तमें लगार पण नंय राखशो नहिं. जेनो तमने जय , ते तो दुं सागर श्रेष्ठी तमारी सार्थेज बं! आ वात सांजली सर्व स्त्रियो आश्चर्य पामी विचारवा लागी जे अरे ! आ क्याथी आपणी साथें आव्यो!!: आटें हवे जो ते पाडो घेर श्रावशे तो आपणने फजेत करशे. तेथी तेने आ समुश्मांज नाखी द्यो. एम विचारी काष्ठने हलावीने ते शेग्ने रत्न सुधां समुश्मा नाखी दीधो. 'त्यां शेठ मूबी मरण पाम्यो, माटें अति. लोन करवाथी सागरश्रेष्ठी जेवा हवाल थाय तेथी लोन करवो नहिं ॥ ए लोनने विषे सागरश्रेष्ठोंनी कथा कही ॥ ६ ॥ हवे सौजन्यता राखवाविषे उपदेश करे बे. ॥शिखरिणीटत्तम् ॥ वरं दिप्तः पाणिः कुपितफ णिनोवत्रकुहरे, वरं ऊंपापातोज्वलदनलकुंमे वि रचितः॥वरं प्रासप्रांतः सपदि जठरांतर्विनिहितो, नजन्यं दौर्जन्यं तदपि विपदांसद्म विषा॥६॥ अर्थः-(कुपित के०) कोपायमान थयेला एवा (फणिनः के०) सर्पना (वक्रकुहरे के) मुख विवरने विपे (पाणिः के०) हाथ (दिप्त के०) नाख्यो होय ते (वरं के०) श्रेष्ठ, वली (ज्वलदनलकुंके के०)प्रज्वलित एवा अनि कुंमने विषे (कंपापातः के०)कंपापात (विरचितःके०) कस्यो होय ते (वरं के०) श्रेष्ठ, वली (प्रासप्रांतः के०) कुंतणानो अग्रनाग ते (सपदि के) तत्काल, (जठरांतः के०) उदरना मध्यनागने विषे (विनिहितः के०) नाख्यो होय ते (वरं के०) श्रेष्ठ. (तदपि के०) तो पण (विषा के०) पंमितजने (दौर्जन्यं के) पैशुन्य, (नजन्यं के०) न करवू. ते केहq दौर्जन्य छे ? तो के (विपदां के०) आपत्तिनुं ( सद्म के०) गृह डे अर्थात् विपत्तिनुं स्थानक ले ॥६१॥ टीकाः-अथ सौजन्यविधानोपदेशमाह ॥ वरमिति ॥ कुपितस्य फणिनः कुवस्य सर्पस्य वक्रकुहरे मुखविवरे पाणिर्हस्तः दिप्तोनिदिप्तः सन् वरं Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेली. श्रेयान् । पुनवलदनलकुंभ प्रज्वलत् अग्निकुंके ऊपापातविरचिटः कृतो वरं श्रेष्ठः । पुनः प्रासस्य कुंतस्य प्रांतो अयं जठरांतः उदरमध्ये सपदि दिप्तोवरं श्रेष्ठः । तदपि विजुष्ण पंमितेन दोर्जन्यं पैगुन्यं नजन्यं न कर्त्तव्य मेव । किंनूतं दोर्जन्यं ? विपदां आपदां कंष्टान्हां सन गृहं स्वानमित्यर्थः । अतःकारणात् सौजन्यमेव विधेयं ॥६१ ॥ . . नाषाकाव्यः-चौपाबंद ॥ वरु अहिवदन हब निज मारहिँ, अगनि कुंममहि तन परजारहिं ॥ दारहिं उदर करहिं विष नबन, पैं उष्टता न गहै विचलन ॥ ६१ ॥ वली पण सौजन्यने माटें उपदेश करे ले. वसंततिलकाटत्तम् ॥ सौजन्यमेव विदधाति यशश्चयं च, स्वश्रेयसंच विनवं च नवदयं च ॥ दौर्जन्यमावदसि यत् कु मते तदर्थम्, धान्येऽनलं दिशसि तऊलसेकसाध्ये ॥६॥ अर्थः-(यत् के०)जे (सौजन्यमेव के०) सुजनपणुं तेज (पुंसां के०) पुरुषो ना (यशश्चयं के०) कीर्त्तिसमूहने (विदधाति के)धारण करे . (च के०) वली (स्वश्रेयसं के७) स्वकल्याणने करे . (च के०) वली (विनवं के०) व्यवैनवने करे डे. (च के०) वली (नवदयं के०) संसारनो क्य जे मोद तेने करे बे, तेमाडे (कुमते के०) हे कुमतिजन ! (तदर्थ के०) यशश्चयादि कने माटें (दौर्जन्यं के०) पिशुनताने (यावहसि के०) तुं वहन करे ने, तो (धान्ये के०) धान्यना देवने विषे (अनलं के) अमिने (दिशति के०)आपे वे. (तत् के०) ते धान्य के, जे.? तो के (जलसेकसाध्ये के०) जलसिंचनें करी साध्य , तेवा धान्ययुक्त क्षेत्रने विषे दवामि देवानी तुंश्वा करे ॥६॥ टीकाः-पुनराह । सौजन्यमेव सुजनतैव पुंसां यशश्चयं कीर्तिसमूहं विद धाति करोति । पुनः स्वश्रेयसं स्वकल्याणं विदधाति । पुनर्विनवं व्यं विदधा ति । पुनर्नवक्ष्यं संसारक्ष्यं मोदं विदधाति । ततो हे कुमते! हे कुबुधे ! यत् तदर्थ यशश्चाद्यर्थ दौर्जन्यं पिशुनतां आवहसि धरसि । तत् धान्ये धान्य देत्रेऽनलं अग्निं दिशसि ददासि । कथंजूते धान्ये ? जलसेकसाध्ये जलस्य सेकेन सिंचनेन साध्ये निःपादनीये । तत्र दवं ददासि ॥ ६ ॥ नाषाकाव्यः-सवैया तेश्सा ॥ ज्यौं कृषिकार नयो चित चातुल, सो क Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २३५ • पिकी करनी श्म ठगनें ॥ बीज बवै न करै जल-सिंचन, पावकसों फलकों थल नानै ॥ त्यौं कुमती निज स्वारथके हित, उर्जन नाव हियेमह आने ॥ संपति कारन बंध विदारन, सजनता सुख मूल न जाने ॥६॥ दारिद्यमां पण सुजनताज श्रेष्ठ , ते कहे . पृथ्वीवत्तम् ॥ वरं विनववंध्यता सुजन(स्वजन)ना वनांजांनृणा, मसाधुचरितार्जिता न पुनरूर्जिताः मंपदः॥कशत्वमपि शोनते सहजमायतो सुंदरम्, विपोकविरसा न तु श्वयथुसंनवा स्थूलता ॥३॥ अर्थः-(सुजननावनाजां के०) सौजन्यसहित एवा (नृणां के०) मनु ष्योने (विनव के०) वैनवनी (वंध्यता के०)नि व्यता तेज (वरं के०) श्रेष्ठ बे (पुनः के०) परं तु (असाधुचरितार्जिताः के) उर्जनपणायें करी संपादन करेली एवी (संपदः के०) संपत्तियो ते (वरं के०) श्रेष्ठ,( न के०) नथी. ते केवी संपचियो ? तो के (कार्जिताः के०) अति बलिष्ठ जे. त्या दृष्टांत कहे जे. के (सहजं के०) स्वानाविक, (कशत्वमपि के०) दौर्बल्यत्व पण (शोनते के०) शोने डे, (तु के०) परं तु (श्वयथुसंनवा के०) शरीरमां सोजो उत्पन्न थवाथी थयेली जे (स्थूलता के०) पुष्टता ते (न के०) नथी शोजती. ए केर्बु कृशत्व ? तो के (आयतौ के०) उत्तरकालने विषे (सुंदरं के०) शोनायमा न ले. अने ते स्थूलता केहवी ? तो के (विपाकविरसा के०)परिणाममां दारुण बे. माटें सौजन्यरहितः एवा धनवानने पण धिक्कार २ ॥ ६३ ॥ ___टीकाः-दारिश्येपि सुजनतैव श्रेष्ठेत्याह ॥ वरमिति ॥ सुजननावनाजां सौजन्यसहितानां अत्र स्वजननावनाजामपि पातोऽस्ति नृणां पुंसां विनव स्य वंध्यता निःफलता नि व्यता दारिद्यमेव वरं श्रेष्ठं । परंतु अंसाधुचरिते नाऽर्जिताः दौर्जन्येन उपार्जिताः संपदः श्रियोऽपि वरं न श्रेष्ठाः । न श्ला घ्याः। कथंभूताः संपदः? कर्जिताः बलिष्टाः प्रचुराः । तत्र दृष्टांतमाह । सहजं स्वानाविकं कशत्वं दौर्बल्यमपि शोनते । तु पुनः श्वयथुसंनवा शोफा जाता स्थूलता पीनताऽपि न वरं न श्रेष्ठा । कथं नूतं कशत्वं? आयतौ उत्त रकाले आगामिकाले सुंदरं शोननं । कथं नूता स्थूलता ? विपाके परिणाम अंत्ये विरसा दारुणा ॥ ६३॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. नाषाकाव्यः-नानकचंद ॥ वर दारिश्ता होन करत सझमकला, पुराचारसों मिलै राजं सो नहिं जला ॥ ज्यौं शरीर कश सहज सुशोना दे तु है, सूजै थूलता बढे मरनको हेतु है ॥ ६३.॥ हवे सुजनता युक्तजनोना गुणो कहे . . शार्दूलविक्रीडितरत्तध्यम् ॥न.ब्रूते परदूषणं परगुणं वक्त्यल्पम प्यन्वहम्, संतोषं वहते परईिषु पराबाधासु धत्ते शुचम्॥ स्वश्ला घां न करोति नोति नयं नौचित्यमुलंघय, त्युक्तोप्यप्रियमद मां न रचयत्येतच्चरित्रं सताम् ॥६० ॥ इति सुजनप्रक्रमः॥१४॥ अर्थः-( सतां के० ) सङनपुरुषोनुं (एतच्चरित्रं के०) या चरित्र एटले चेष्टित . आ चरित्र ते कयुं चरित्र ? तो के सजनजन जे जे,'ते (परदूषणं के०) पारका दोषने ( न ब्रूते के०) बोलता नथी. अने (अल्पमंपिके०) थोडा एवा पण (परगुणं के प) पारका गुणने (अन्वहं के०) निरंतर ( व क्ति के०) कहे . वली (परर्दिषु के०) परसंपत्तिने विपे (संतोषं के०) अननिलाष एटले अमत्संरने (वहते के०) धारण करे . वली (पराबाधाम के) परपीडाने विषे ( गुचं के० ) शोकने (धत्ते के०) धारण करे जे. तथा (स्वश्लाघां के.) आत्मप्रशंसाने (न करोति के०) न करे जे. वली (नयं के) विनयने ( नोति के ) त्याग करता नथी. वली (औचि त्यं के०)योग्यताने (नोल्लंघयति के) उल्लंघन करता नथी. तथा (अप्रियं के०) अहितप्रत्ये ( उक्तोपि के०) कह्या दोय तो पण ( अकमां के०) कोधने (न रचयति के०) रचना करता नथी. माटें सौजन्ययुक्तजनना एवा गुणो जे ॥६४ ॥ ए चौदमो सुजनप्रक्रम संपूर्ण थयो ॥ १४ ॥ टीकाः-सौजन्यनाजां गुणानाह ॥ न ब्रूतइति ॥ सतां साधूनां सङना नां एतच्चरित्रं चेष्टितं अस्ति । एतदिति किं ? सऊनः परदूषणं परदोषं न ब्रूते । पुनरल्पमपि तुबमपि परगुणं अन्यगुणं अन्वहं निरंतरं वक्ति कथ यति । पुनः परेषां रुधिषु संपत्सु संतोषं अननिलाषं अमत्सरं वहते ध ते । पुनः परबाधासु परपीडासु गुचं शोकं धत्ते । पुनः स्वश्लाघां आत्मप्रशं सां न करोति । पुनर्नयं न्यायं नोज्जति न त्यजति । पुनरौचित्यं योग्यता नोल्लंघयति । नातिकामति । पुनरप्रियं विरूपं अहितं उक्तोऽपि नापितोपि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १२७ अक्षम क्रोधं व रचयति । सतां एतच्चरित्रं वर्त्तते ॥ ६४ ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकीर्त्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, सौजन्यप्रक्रमोऽजनि ॥ १४ ॥ जापाकाव्यः - उप्पयनंद ॥ नहिं जपै पर दोष, अल्प पर गुन बहु मा नहिं ॥ हृदय धरहिं संतोष, दीन लेखि करुना गनहि ॥ उचित रीति यादरहिं, विमल नय नीति न कहिं ॥ निज जसलहन परहरहिं, राम रचि विषय विहिं ॥ मंमहिं न कोप दुर्वचन सुनि, सहज मधुर धुनि उज्ञरहिं ॥ कहि कवर पाल जंग जाल वस, ए चरित्र सकन करहिं ॥ ६४ ॥ कथाः - जनता उपर कथा कहे बे. नऊयणी नगरीयें विक्रमादित्य राजाने घरे शीलालंकाररूप कमलावती नामें जार्या बे. एकदा राजा सामहे विराजमान थइ खजाना लोकोनें कहेवा लाग्यो के संसारमा एवं कोई ज्ञान प्रवर्त्तमान बे, के जे महारा राज्यने विषे नज - होय ? ते सांजली एक कलावंत देशांतरी पुरुष वोल्यो के हे राजा ! त मारी राज्यमां लक्ष्मीवान् विद्यावान, गुणवान्, एवा अनेक पुरुषो बे, में पोतें पण लक्ष्मी ने विद्यायें करें! सहित बो. तमारी स्त्री सर स्वती सहराबे, दातार शिरोमणि बे, परंतु एक परकाया प्रवेशकारिणी विद्या तमापासें नथी. ते सांजली राजा ससंचम थइ बोल्यो के ते विद्या क्यां बे? ते बोल्यो के स्वामी ! गिरनार पर्वतंनी उपर एक सिद्देश्वर बे तेनी पासें ए विद्या बे. ते सांगली विक्रमादित्य पोताना प्रधानने राज्य ननावी ए काकी ते पर्वत सी चाल्यो. अनुक्रमें घणां कष्ट सहन करी तें पर्वत न पर गयो. तिहां सिद्धेश्वर योगी ने देखी मनमां हर्ष पामी योगीने नमस्कार करी सेवा नक्ति करवा लाग्यो. योगी पण राजानी शुद्ध मनथी सेवा नक्ति देख तुष्टमान थयो | यतः ॥ विष सासणे मूलं, विउ संजमो तवो ॥ वियाई विप्यमुक्कस, कर्ज धम्मो कर्ज तवो ॥ १ ॥ हवे ते. अंवसरें तिहां सिश्वनी पासें बीजो पण परकाया प्रवेशकारिणी विद्यानो अर्थी एक ब्राह्मण प्रवर्त्तमान बे, तेने पण घणा दिवस सेवा नक्ति करतां थया बे. ते पण घणो विनय करे बे, पण तेने कुपात्र जाएगी योगी विद्या या पतो नथी ॥ यतः ॥ विद्यया सह मर्त्तव्यं, न तु देया कुशिष्यके ॥ विद्यया लालितो मूर्खः, पश्चात्संपद्यते रिपुः ॥ १ ॥ माटें ते सिवेश्वर विक्रमादित्यने तत्काल तुष्टमान थयो, पण घणी सेवा करनार एवा विप्रने तुष्टमान न Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ - जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. थयो. विक्रमादित्यने कहेवा लाग्यो के हे वत्स! तुं गुणा बे, राजा जेवो देखाय डे, दूरदेशांतरथी आव्यो देखाय डे, ढुं तहारी करेली नक्तिथी संतोष पाम्यो j! माटें परकाया प्रवेशकारिणी विद्या ले. ते वचनो सां नली राजा बे हाथ जोडी बोल्यो के हे स्वामी ! ए विप्रने पण आपनी सेवा करतां घणा दिवस थया, माटें जेम महारी उपर तुष्टमान थया, तेम एनी उपर पण तुष्टमाने थइ विद्या आपो. तेवारें सिंदेश्वर बोल्यो के हे परफुःखनंजक सत्पुरुष ! सपने दूध पीवराववाथी शो फायदो थाय ? तो पण राजायें घणी प्रार्थना करी प्रणिपत्य करीने ब्राह्मणने पण विद्या अपावी. पली राजा तथा ब्राह्मण बेदुने विद्या साधवानो विधि कह्यो, ते प्रमाणे विद्या साधी; विदा सिह करी गुरुनी आज्ञा मागी राजा अने ब्राह्मण वेदु उऊयणीनी बाहेर याव्या, ते वखत राजांयें ब्राह्मणने त्यांज बेसाड्यो अने पोतें राज्य स्थिति जोवा नणी नगरीमांहे आव्यो, तिहां. प्रथम प्रजाना समाचार जो पबी राज्यमंदिरमां आव्यो. तिहां पट्टहाथीना मरणथी राजलोक भाकुल येला दीठा. राजा फरी ब्राह्मण पासें याव्यो. विद्यानी परीक्षा करवा सारु पोताना शरीरमांहेथी जीव काहाडी निर्जीव काया करी ते कलेवर विप्रने नलावी अने पोतानो जीव हाथीना खोलिया माहे जई घाल्यो, तेथ। हाथी तत्काल उनो थयो. राजलोक सर्व हर्ष पाम्या. एवामां दुष्ट बुद्धिथी विप्र विचारवा लाग्यो के जो हूं हमणां महारो जीव राजाना शरीरमांहे प्रवेश करावं, तो राजा बनी राज्यपालुं ? एम विमासी तत्काल विद्यानुं स्मरण करी राजाना शरीरमांहें पोतानो जीव घाल्यो, पो तानी काया प्रज्वन करीने नगरमांहे आव्यो. लोकोयें राजा थाव्यो देखी वधामणां करयां, राज्यमंदिरमा जइ सनामांहे बेठो, परंतु जातें ब्राह्मण ने माटें राज्य स्थितिनी रीत जात कांइपण जाणतो नथी. तेने जंगली हरणना जेवो देखी प्रधान प्रमुख चिंतववा लाग्या के ए शुं राजानुं चित्त चलाचल थयुं ने! अथवा कोई व्यंतर विशेष राजानुं रूप करी आव्यो के के गुं थयुं ! एम विचारवा लाग्या. पली जेवारें अंतेउरमां ते ब्राह्मण आव्यो, तेवारें पट्टराणी तो तेने देखतांज मूळ पामी तेने घणा नपचार करी दासीयें उठाडी बेठी कीधी, तेवारे कत्रिम राजा बोल्यो के अहो देवि ! मुझने देखी तमें मूळ केम पाम्यां? ते सांजली राणीने पण तत्काल बुद्धि उपनी, तेथी एवं बोली Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः १२० के स्वामी! तमें. जेवारें देशांतरे चाल्या हता, तेवारें में गोत्रदेवीने कयुं हतुं के जो राजा कुशल देमें घरे खावशे, तो हे कुलदेवि ! हुं तमारी पूजा करया विना नेत्रे करी राजा साहामुं जोइशू नहीं. ते वरांसे में हमलां तमारी सा ह्यमुं जोयुं तेथी मद्वारी उपर देवीनो कोप थयो माटें हवे देवीनी पूजा करवा विना तमारुं मुख जोश नही. एम सांजली कर्त्रिम राजा पाढो सनायें ज‍ aai. तेने हाथीयें दीवो, तेवारें हाथी मनमां चिंतनवा लाग्यो जे या पापी ब्राह्मणें महारी सायें विश्वासघात कीधो बे, पण एनुं नलुं न थाय, मने पण गुरु आज्ञा उल्लंघननुं पाप लाग्युं, गुरुयें मने वास्खो तो पए में एने विद्या देवराव तेनुं फल हुं एनो विश्वास करवाथी पाम्यो ॥ यतः ॥ मित्र शेही कृतघ्नश्च यश्व विश्वासघातकः ॥ ऋयोपि नरकं यांति, यावचं दिवा करौ ॥ १ ॥ हुं पंति मूर्ख थयो, अथवा दैववक यवार्थी मनें कुबुद्धि उप नी, नुं करतां मातुं ययुं ॥ यतः ॥ दैवे वे जवेत्पुंसां, सुकृतं दुःकृतोपम मन सिध्ध्यंति स्वकार्याणि विधिना रचितान्यपि ॥ १ ॥ सर्व लोकने पुत्र मित्र कलत्रादिक परलोकें गया पढी परायां यय, पण हुं तो या जन्ममांज पुत्रादिक सर्व विपर्यास पाम्यो, एवं विमासी लानस्तं ने उन्मूली ने हांथ वन जणी निकल्यो, लोक तेनी पडवाडे चाव्यां घणा उपाय कीधा, पण हाथी पांचो बढ्यो नही, वमंमां जतो रह्यो लोक पाठां फरी घेर खाव्यां हाथी याक्यो तेवारें एक वटवृक्ष नीचें जइ उनो रह्यो ति हां एक पुरुष गोली-यी सूडाने मारतो हतो. ते देखी पोतानो जीव सूडा ना शरीरमा घालीने बोल्यो. खरें ! बापडा वराक जीव मारवाथी तुमने गुंजान थवानो बे ? माढें तुं मुकने नकयणी लइ जा. अने बजारमां ज २ सहस्र दिनानुं मूल्य करजे. तें तुमने पीने कोइ पण लइ जाशे. एवं सांनी खाडी हर्षवंत यइ सूडाने लइ नऊयणीयें श्रावी राजमार्गे ज‍ " जो रह्यो जो कोइ मूल्य पूबे, तो तेने सहस्र टका सुवर्ण कहे, ते व सरें कमलावती राणीनी दासी तिहां थावी, तेणें ते सूडो दीगे. तेणें "केटला एक श्लोक पूढया, तेवारें सूडे पण तत्काल अनेक श्लोक नएया. दासीयें जइ राणीनी खागल सूडाना समाचार कह्या. राणीयें पण दासीने कल्युं के तमें तरत जइने ते सूडो लइ. यावो. दासीयें खावी मूल्य यापी सूडो लीधो. वधक, पैसा लड़ पोताने घेर गयो. दासी सूडाने राणी पासें १७ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो.. ल आवी राणी ते सूडानै देखी अत्यंत हर्ष पामी सुवर्मना पंजरामां तेने राख्यो. राणी पोताने हाथे स्नान नोजनादिक कराववा लागी. हवे प्रस्तावें , सूडो सहसात्कारें अनेक अनेक प्रश्नोत्तरादिक श्लोक जणे. ते जेम के ॥ अयुक्तः प्राणदोलोके, वियुक्तः साधुक्न्ननः ॥ प्रयुक्तः सहि विशेषी, केवलः स्त्रीषु वन्ननः ॥१॥ तस्योत्तरं ॥ हार ॥ नावार्थःआकार अदरें युक्त होय तो जे पदनो अर्थ लोकने विर्षे प्राणनो दे नारो एवो थाय. तथा वि अदरें जो युक्त होय तो जे पदनो अर्थ साधु ने वजन एवो थाय डे. प्रयदरें करि युक्त जो होय तो जे पदनो अर्थ विशेषी थाय ने, अने जो केवल एकलुज पद राखीयें तो तेनो अर्थ स्त्रीने वल्लन एम थाय ॥ तेनो उत्तर (हार) हवे हारनी पहेलां आ मेलवीयें तो याहार थाय , तो तेथी जगत जीवे डे अने हारथी प्रथम वि मेलवी यें तो विहार थाय ने तो विदार साधुनेज घटे ने, ने जो हारनी प्रथम प्र मेलवीयेंतोप्रहार थाय ने तेविषीनेज होय . अने केवल हारज राखीयें तो स्त्रीने वन्नन एवो पुष्पनी हारज कहेवाय ने ॥ वली सूडो कहे जे ॥ किं जीवियस्स चिह्न, का नका म्यण रायस्स ॥ का पुप्फाणपहाणं, पर पीया किं कुण बाला ॥ उत्तरं ॥ सास रह जाय॥ नावार्थ:-जीवतरनु चिन्ह गुं? तो के (सास) मदनराज जे कामदेव तेनी स्त्री कोण तो के (रई) एटले रति ॥ अने उत्तम पुष्प कयुं? तो के (जाइ) एटले जाश्नां पुष्प, अने परणीने बाला झुं करे ? तो के (सास र जाइ) इत्यादिक प्रश्नोत्तर करतां राणी तथा सूडो बेदु पोताना दिवस निर्गमन करे ने, एकदा राणीप्रत्यें सूडे प्रख्यं के तमें ए राजानी साथे बो व्यांज नही ते शामाटें ? तेवारें राणी बोली के हे शुकराज! एने देख वाथी महारं चित्त हिसतुं नथी. न जाणुं को रूप परावर्त करी आव्यो बे, के केम ? माटें ज्यां सुधी महारं मन साही आपतुं नथी, त्यां सुधी एनी साथें दुं संनाषण मात्र पण नही करीश ? एम सांजली राणीनुं मन निश्चल जाणी सूडो हर्ष पाम्यो. __ एकदा को घरोलीने मूवेली देखी सूडायें तेना शरीरमा पोतानो जीव घाल्यो, तेवारें सूडो मरण पाग्यो. ते देखी राणी मूर्जा पामी. तेने दासीय वायुथी सावधान करी, तेवारें राणी कहेवा लागी के ए सूडानी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १३१ साथै हुँ पण काष्ठमां बली. मरीश ! कत्रिम राजायें .ते वात सांजलीने रा पीनी पासें आवी पूब्युं के तुं कांसूडानी साथै काष्ठनदण करे ? राणी ये कह्यु के महारा जीवनो एनी साथै मोहसंबंध डे, ते माटें एनी गति ते महारी गति : तेवारें कमि राजा बोल्यो के तुं काष्ठनदण म कर. ढुं शुकने सचेतन करुं बुं. एम कही पोतें पर्यकमा पोढ्यो, राणीनुं मनमना ववा सारु पोतानुं चेतन काहाढी शुकना शरीरमा प्रदेप्यु. अने पोतें सू डो थयो. ते जो विक्रमराजायें तत्काल पोतानो जीव घरोलीना शरीर मांथी काहाढीने पोताना मूल शरीरमा प्रदेप्यो, अने पोताना देहमां आवी पोतें राजा थयो. तीने राणी पासें गयो. राणी पण राजानुं मूल शरीर देखी हर्ष पामी. पडी राणी राजा प्रत्ये सर्व वृत्तांत पूयुं. राजायें कह्यु के ए वृत्तांत आ सूडो कहेशे. तेवारं सड़े मूलथी सर्व वृत्तांत संनला वीने कडं के जे मित्रशेह करशे, ते महारी पेठे कुःखी थाशे, अने जे प रोपकार करशे, ते राजानी पेठे सुख पाम ते सर्व वात सांजली राणी हर्षवंत थ३. अने मननीनांति गश्. एवामा एक व्यवहारीयो मरण पामतो दीतो तेवारें रांजायें ते सूडानो जीव व्यवहारीयानी खोल मांहे राखी सुखी यो कस्यो. एवा सऊन उर्जननां लक्षण जाणी सङनता आदरवी ॥६॥ हवे गुणिजनना संगनुं वर्णन करे.जे. धर्म ध्वस्तदयोयशश्युतनयोवित्तं प्रमत्तः पुमान् का व्यं निःप्रतिनस्तपः शमदयाशून्योऽल्पमेधाः श्रुतम्॥ वस्त्वालोकमलोचनश्चलमनाध्यानं च वांग्त्यसौ,यः सं गंगुणिनां विमुच्य विमंतिः कल्याणमाकांदति ॥६॥ अर्थः-( यः के०) जे ( विमतिः के०) निर्बुद्धि ( पुमान के ) पुरुष (गुणिनां के०) गुणवान् पुरुषना (संगं के) संगने (विमुच्य के) मूकीने (कल्याणं के०) कल्याणने (आकांति के०) ले ले. (असो के) ए विमति पुरुष, ( ध्वस्तदयः के) गइले रुपा जेने एवो बतो (धर्म के० ) पुस्यनी ना करे ले ? एम जाणवू. तथा ते ( च्युतनयः के०) गतन्याय एवो तो ( यशः के.) यशनी ना करे ? अर्थात् अन्यनो अपकारक बतो कीर्तिनी ना करे जे ? वली (प्रमत्तः के०)आ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. लसु बतो (वित्तं केए) धननी इच्छा करे ले ? वली (मिःप्रतिनः के०) निर्बुदि बतो ( काव्यं के ) काव्य करवानी श्वा करे ? वली ( शमद याशून्यः के).नपशम अने दयायें रहित बतो (तपः के०) तपनी का करे . वली (अल्पमेधाः के०) अल्पबुद्धिमान तो ( श्रुतं के०) शास्त्रने जणवानीचा करे . वली (अलोचनः के०) नेत्र रहित बतो (वस्त्वालोकं के) घटपटादिक वस्तुने जोवाने हे जे. (च के०) वती (चलमना के०) चंचल चित्त एवो बतो (ध्यानं के०) एकायध्याननी ना करे . अर्थात् पूर्वोक्त वस्तुविना प्रथम कहेला पदार्थो ते प्राणीने प्राप्त थाय नही तेम गुणिना संगविना कल्याण प्राप्त थाय नहीं ॥ ६५ ॥ __टोकाः-अथ गुणिसंगं वर्णयसि ॥ धर्ममिति ॥ यो विमतिः निर्बुदिषु णिनां गुणवतां मनुष्याणां संग संसर्ग विमुच्य त्यत्का कल्याणं श्रेय आ कांदति । असौ विमतिः पुमान् ध्वस्तदयोगतकपः निर्दयः सन् धर्म पुण्यं वांति । पुनश्श्युतनयोगतन्यायः अन्यायनाक् सन् यशः कीर्ति वां बति । पुनः प्रमत्तः प्रमादी सन् वित्तं धनं वांदति । पुनर्निःप्रज्ञःप्रझारहितः सन् काव्यं कर्तुं वांति । पुनः श्यमेन नपशमेन दयया च हीमोरहितः पु मान् तपोवांबति। पुनरल्पमेधास्तुबबुर्बुिदिरहितः सन् श्रुतं शास्त्रं पतितुं वां बति । पुनरलोचनो नेत्ररहितः सन् वस्तूनां घटपटादीनां विलोकनं दर्शनं वांति पुनश्चलमनाः चलचित्तः सन् ध्यानं वांबति । तथा गुणवतां संगं विना कल्याणं न ॥ ६५ ॥ _नापाकाव्यः-सवैया तेश्सा ॥ सो करुना विनु धर्म विचारत, नयन वि ना लविवेकुं नमाहै ॥ सो उरनीति चहै जस हेतु, सुधी बिनु आगमकों अवगाहै ॥ सो हिय सुन्न कवित्त करै, समता बिनु सो तपसों तन दाद ॥ सो थिरता बिनु ध्यान धरै सन, जो सतसंग तजै हित चाहै ॥ ६५॥ वली पण गुणीना संगनुं वर्णन करे बे. दरिणीटत्तम् ॥ दरति कुमति नित्ते मोदं करोति विवेकि ताम्, वितरति रतिं सूते नीति तनोति गुणावलिम् (वि नीततां)॥प्रययति यशोधत्ते धर्म व्यपोदति उर्गतिम्, जनयति नृणां किं नानीष्टं गुणोत्तमसंगमः॥६६॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १३३ र्थ: - (नृणां के० ) मनुष्योने (गुणोत्तमसंगमः के१) गुणें करी उत्तम ज नोनो संग, ( किं के०) गुं (नीटं के० ) इतिने (नजनयति के०) नथी उत्पन्न करतो ? अर्थात् सर्व खीष्टते उत्पन्न करेज बे. हवे ते गुणोत्तमसंग ष्ट करे ? ते कहे ले के ( कुमतिं के०) कुबुद्धिने ( हरति के० ) हरे बे. तथा ( मोहं के० ) प्रज्ञानने (जित्ते के ० ) नेदे बे. वली (विवेकितां के० ) तत्त्वातत्त्वविज्ञानपणाने (करोति के० ) करें बे. वली (रति के०) सं तोपने ( वितरति के० ) थापे बे. वली ( नीति के०) न्यायने ( सूते के ० ) प्रसवे बे. तथा ( गुणावलिं के० ) गुणश्रेणिने ( तनोति के० ) विस्तारे ले. (नीतिलत) एवो पाठ होय तो नीतिजताने विस्तारे के अने ( यशः के० ) कीर्त्ति (प्रथयति के० ) विस्तारे बे. जी ( धर्म के०) धर्मने ( धत्ते के. ) धारण करे बे. वली ( दुर्गतिं के० ) नरक तिर्यग्गतिने ( व्यपोहति के० ) टाले बे. एम गुणोत्तम जननो संग ते अनीष्ट पदार्थने यापे बे माटें उत्तम जननोज संग करवो ॥ ६६ ॥ 0 टीका:- पुनर्गुणिसंगं वर्णयति ॥ हरतीति ॥ नृणां पुंसां गुणैः उत्तमाः गुणोत्त मास्तेषां संगमनृणां किं किं नीष्टं वांबितं न जनयति न करोति ? अपि तु सर्व्वमनीष्टं जनयति । गुणोत्तम संगमः कुमतिं कुबुद्धिं हरति दूरीकरोति । पुनर्मोहं ज्ञानं जिते विदारयति । पुनर्विवेकितां तत्त्वातत्त्वविज्ञत्वं करो ति । रतिं संतोषं वीतरति ददाति । पुननिति न्यायं सूते जनयति । पुनर्गु लिंगुश्रेणीं तनोति । पाठांतरे तु 'विनीततां तनोति' पुनर्यशः कीर्त्ति प्रथयति विस्तारयति । पुनर्धम्मै धत्ते धरति । पुनईर्गतिं नरक तिर्यग्गतिरूपां व्यपोहति विस्फोटयति । एवं गुणोत्तमसंगमः सर्व्वमनीष्टं जनयति ॥ ६६ ॥ नाषाकाव्यः सवैया इकतीसा ॥ कुमति निकंद होइ महा मोह मंद होइ, . जगतमें सुजस विवेक जग हियसों | नीतिको दिढान होइ विनैको बढान हो २, उपजै उवाह ज्यौं प्रधान पद लियेसों ॥ धर्मको प्रकाश हो दुर्गतिको नाश हो, वरते समाधि ज्यों पीयूष रस पियसों ॥ तोष परि पूर होई दोष दृष्टि दूर हो, एते गुन होइ सतसंगतिके कियसों ॥ ६६ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. वली, पण गुणीना संगनो उद्देश कहे जे. शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ॥ लब्धं बुद्धिकलापमापदमपाकर्तु विहर्तुं पष्ट्रि, प्राप्तुं कीर्तिमसाधुतां विधुवितुं धर्म समासे वितुम् ॥रोदु पापविपाकमाकलयितु स्वर्गापवर्गश्रियम्, चे त्वं चित्त समीहसे गुणवतां संगं तदंगीकुरु ॥६५॥ अर्थः-(चित्त के०) हे चित्त ! (चेत् केप) जो (त्वं के०) तुं (बुद्धिक लापं के० ) बुद्धिसमूहने (लब्धुं के०) प्राप्त थवाने (समीदसे के०) श्ना करे ? वली जो (आपदं के०) आपत्तिने (अपाकर्तु के.) टालवाने शक्षा करे , तथा जो (पथि के०)न्यायमार्गमां (विहर्नु के०) विचरवानी इजा करे , तथा जो (कीर्ति के) कीर्त्तिने (प्राप्तुं के० ) प्राप्त थवानी इला करे , वली जो (असाघुतां के) असौजन्यने (विधुवितुं के०) टालवानी ना करे , तथा जो (धर्म के०) पुण्यने (समासेवितुं के०) से ववानी ना करे में वली जो. (पापविपाकं के०) अगुनकर्म फलने (रोएं के०) रोकवानी इला करे तथा जो (स्वर्गापवर्गश्रियं के०) देवलोकनी अने मोदनी लक्ष्मीने (आकलयितुं के०) अनुभव करवानी ना करे (तत् के०) तो (गुणवतां के०) गुणवान् पुरुषोना (संगं के) संगने ( अंगीकुरु के) अंगीकार कर. अर्थात् गुणिजनना संगथी सर्व प्राप्त थाय ने ॥६॥ टीकाः पुनराह॥लधुं बुद्धिरिति ॥रे चित्त! चेद्यदि त्वं बुद्धिकलापं बुझिस मूहं लब्धं प्राप्तुं समीहसे वांबति। तत्तदागुंगवतां गुणिनां संगं संसर्ग अंगीकुरु विधेहि। पुनर्यदि विपदं यापदं अपाकर्तु दूरीकर्तुं समीहसे । पुनर्यदि पथिन्याय मार्गे विहर्तु विचरितुं वांबसि। पुनः कीर्ति प्राप्तुं वांबसि । पुनरसाधुतां असौज न्यं विधुवितुं स्फेटयितुं समीहसे। पुनर्यदि धर्म पुण्यं समासेवितुं कर्तुं समीहसे। पुनर्यदि पापविपाकं अशुनकर्मफलं रोदुसमीहसे। पुनः स्वर्गापवर्गश्रियं देवलो कमोदलदशी याकलयितुं अनुनवितुं समीहसे। तदा गुणवतां संगं कुरु॥६॥ नाषाकाव्यः-कुंमलियाबंद ॥ कौरा ते मारग गहै, जे गुनिजन सेवंत ।' झानकला तिनके जगै, ते पावहिं नव अंत ॥ ते पावहिं नव अंत, समरस ते चित धारहिं ॥ ते अघ आपद हरहिं.धर्मकी रति विस्तारहिं ॥ होहि सहज जे पुरुष, गुनी वारिजके नौरा॥ते सुरसंपति लहै, गहै ते मारग कौरा॥६॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १३५ हवे निर्गुणना संगना दोषो कहे ने. दरिणीटत्तम्॥ दिमति महिमांनोजे चंमालनिलत्युदयांबुदे, घिरदति दयारामे (दमारामे) दमदमानृति वचति ॥समि धति कुमत्यंग्नौ कंदत्यनीतिलतासु-यः, किमनिलषता श्रेयः श्रेयः स निर्गुणसंगमः॥६नाइति गुणिसंगप्रक्रमः॥१५॥ अर्थः-(सः के) ते (निर्गुणसंगमः के०) निर्गुणिजननो संगम, ( श्रेयः के०) कल्याणने (अनिलषता के) वा करनार एवा पुरुचे (किं के०) झुं (श्रेयः के०) आश्रय करवा योग्य ? ना आश्रय करवा योग्य नथीज. ते केहेवो निर्गुणनो संगम ले ? तो के ( यः के०) जे (महिमांनोजे के०) महत्त्वरूप कमलने विषे (हिमति के) हिसनी पेठे आचरण करे . वली (नदयांबुदे के०) धन, धान्य,प्रताप वृदिरूपजे मेघ तेने विषे (चंमानिलति के०) प्रचंमवायुनी पेठे आचरण करे . वली ( दयारामे के०) दयारूप आराम जे वन तेने विषे (दिति के०) हत्तीनी पे आचरण करे . अथवा (दमारामे) एवो पाठ होय तो इंडियदमनरूप वन तेने विषे हस्ती समान आचरण करे ने वली (देमदमानृति के०) कल्याणरूप पर्वतने विपे ( वजाति के०) वजनी पेठे आचरण करें . वली (कुमत्यग्नौ के०) कुम तिरूप जे अनि तेने विषे (समिधति के०) काष्ठनी पेठे आचरण करे . तथा (अनीतिलतासु के०) अन्यायवन्निने विषे (कंदति के०) कंदनी पेठे या चरण करे ..माए अनीतिनों मूलरूप एवो जे निर्गुणसंगम तेने श्रेयने श्ता करनार पुरुषं न आश्रय करवो. आंहिं गिरिशुक अने पुष्पगुकनी कथानो दृष्टांत जाणवो ॥ ६७ ॥ ए गुणिसंगप्रक्रम थयो. ॥ १४ ॥ __टीका:-निर्गुणसंगमदोषमाह ॥ हिमतीति ॥ स निर्गुणसंगमः किमपि श्रेयः कल्याणं अनिलषता वांडता पुरुषेण। किं श्रेयः किं आश्रयणीयः ? नाश्रयणीयः। सकः? योमहिमाएव महत्वमेवांनोजकमलं तस्मिन् हिमति। हिमश्वाचरति तहिनाशकत्वात । पुनर्यो निर्गुणसंगमः उदयएव धन धान्य प्रतापदिरेवांजोदो मेघस्तत्र चंमानिलति प्रचंमवायुरिवाचरति । पुनर्दया एव आरामो वनं अथवादमाराम इनिपाते दमएव आरामो वनं तत्र रदति हिरदवद् गजवदाचरति तउन्मूलकत्वात् । पुनर्यः देममेव कुशलमे Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. व मानृत् गिरिस्तत्र वर्जति वजवदाचरति । तछेदकत्वात् । पुनर्यः कुम तिरेवानिस्तत्र समिंधति । समित् इंधनश्वाचरति । तदृविहेतुत्वात् । पुनर्यः अनीतिलतासु अन्यायव निषु कंदति कंदश्वाचरति । तन्मूलनूतत्वात् । ई. शोनिर्गुणसंगमः । श्रेयोवांबता.पुरुषेण न यः नाश्रयणीयः ॥ यत्र गिरिशुकपुष्पगुकयोः कथा ॥ यतः॥ माताप्येका पिताप्येको, मम त स्य च परिणः ॥ अहं मुनिनिरानीतः, सच नीतो गवाशिनिः॥१॥गवा शिनां तु स वचः शृणोति, अहं तु राजन् मुनिपुंगवानाम् । प्रत्यक्षमेतनव ताऽपि दृष्टं, संसर्गजादोषगुणा नवंति ॥ इति वचनात् ॥ २॥ ६ ॥ सिंदूरप्रकर ग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः॥ सूरिनिर्विहितायांतु, गुणिसंग मप्रक्रमः ॥ इति पंचदशो गुणिसंगमप्रक्रमः ॥ १५ ॥ नाषाकाव्यः-उप्पय बंद ॥ जी महिमा गुन हने, तुहिन जिम वारिज वारे ॥ जो प्रताप संहरै, पवन जिम मेघ विमारै ॥ जो सम दम दलमले, रिद जिम उपवन खंमै ॥ जो सुजेम बय करे, वज जिम शिखर विहंमै॥ जो कुमति अग्मि इंधन सरिसं, कुनयलता दिढ मूल जग ॥ सो उष्ट संग सुःख पुष्टकर, तजहिं विचबन तासु मग ॥ ६७ ॥ कथाः- सारा नरसानी संगत उपर सूडानी कथा कहे जेः-को एक पोपटनी नार्या बे बच्चा जंग्यां. तेमां एकनुं नाम गिरिशुक अने बीजानुं नाम पुष्पगुक. ते बेदु महोटा थया. एकदा तेने मूकीने सूडी चणवा गइ. पालथी बच्चांने पाराधी पकड्यां. गिरिशुकने निन्नपासें वेच्यो, अने पुष्पगुकने कृषि पासें वेच्यो॥ यतः॥ जो जाहिस्सं संगं, करे सो तादिसो हो ॥ कुसुमेहिं सुवसंता, तिलावि तग्गंधिया हुँति ॥ १ ॥ पुनर्यथा ॥ निर्गुणेनापि सत्त्वेन, कर्तव्योगुणसंगमः ॥ शशांकसंगतो मूर्तीि, तोरुक्षेण वातमी ॥ २ ॥ एकदा एक राजा घोडा उपर चडी य सवार थयो ते घोडायें अपहरो थको अटवीमां निनना घर आगलथी निकल्यो तेवारें गिरिशुक बोल्यो के हे निल्न ! ए लाखीणो माणस जाय बे, तेने लूंटी न्यो. ते सनिली राजा जयनांत थयो थको नासतो नासतो अनुक्रमें तापसना आश्रम पासे आव्यो, तेने देखीने पुष्पगुक बोल्यो के हे ऋषि ! आ राजा आवे ने तेनी नक्ति करो. ते सांजली तापसें सर्वविधि सा चवी राजानी नक्ति करी, पडी राजायें सूडाने हाथमां बेसारी पूब्युं के हे Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २३७ शुक ! में तहारां वचन पण.सांनल्यां, अने निहनना.गुडानां वचन पण सांजव्यां, परंतु तुफमां अने तेनामां घणोज अंतर ? ते सांजली शुक बोल्यो ॥ यतः॥ माताप्येका पिताप्येको, मम तस्य च परिणः ॥ अहं मु निजिरानीतः, सतु नीतोगवाशिनिः॥१॥ गवाशिनां वै स गिरः शृणोति,अहं च राजन् मुनिपुंगवानाम् ॥ प्रत्यक्षमेतभवतापि दृष्टं, संसर्गजा दोषगुणा न वंति ॥२॥ सर्पाः पिबंति पवनं न च उर्बलास्ते, शुष्कैस्तृणैर्वनगजाबलिनो नवंति ॥ कंदैः फलैर्मुनिगणागमयंति कालं, संतोषएव पुरुषस्य परं निधा नम् ॥३॥ एक वचन सानली हर्ष पामी सर्व सैन्य सहित घेर थावीने ते राजा ते दिवसथी सत्संगति करवा लाग्यो. तेम सर्व नव्यजीवोयें सत्संगतिज करवी ॥ इति गिरिशुक पुष्यगुकनो दृष्टांत ॥६॥ इति सत्संगप्रक्रमः॥१६॥ हवे इंडियजय करवा पाश्रयी उपदेश कहे जे. शार्दूलविक्रीडितं उत्तम् ॥ आत्मानं कुपथेन निर्गमयितुं यः शूकलाश्वायते, कृत्याकृत्यविवेकजीवितहतौ यः कृष्णस पोयते ॥ यः पुण्यमखंमखमनविधौ स्फूर्जत्कुगरायते, तं लुप्तव्रतमुमिज्यिगणं जित्वा शुनंयुर्नव ॥ ६॥ अर्थः-हे साधुपुरुष ! (तं के) ते (इंयिगणं के०) पंचेंडियसमूहने (जि वा के०) जीतीने (गुनंयुः के०) गुनयुक्त (नव के) था. ते पंचेंश्यि गण केवो जे? तो के (य:के०)जे(आत्मानं के) पोताना यात्माने (कुपन के०) कुमार्गे करी निर्गमयितुं के०) लजवाने (शूकलाश्वायते के०) यडियल अश्वनी पेठे आचरण करे . कारण के ते इंडियरूप अश्वनी कुमार्गने विषेज गमन करवानो स्वनाव जे. वली (यः के०) जे (कत्यासत्यविवे कजीवितहतौ के०) कृत्य बने अकृत्य तेनो विवेक जे विचार ते रूप जीवि तव्य जे जीवतर तेना हरण करवाने विष (कषणसयते के०) काला सर्पनी पेठे आचरण करें . वली (यः के०) जे (पुस्यमखमखमन विधौ के०) पुस्यरूप जे वृद तेनुं जे वन तेना खंमन विधिने विषे (स्फूर्जत्कुठारायते के)प्रकाशमान कुगरनी पेठे याचरण करे . वली(लुप्तव्रतमुके) बेदी व्रतनी मर्यादा जेरों एवो बे. माटें ते इंडियगणनो जय करवो ॥६५॥ टीकाः-अथेंझ्यिजयोपदेशमाह ॥ आत्मानमिति ॥ हे साधो! तं इंडिय Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेतो. गणं पंचेंश्यिसमूहं जित्वा विनिर्जित्य शुनंयुः गुनसंयुक्तो. नव । तं के ? यः इंडियगणः स्पर्शनरसनघांणचदुःश्रोत्रसमूहः यात्मानं स्वं कुपथेन कुमार्गेण निर्गमयितुं नेतुं शूकलावायते ऽर्विनीत अश्वश्वाचरति । तस्य कुमार्गगामिस्वनावत्वात् । पुनर्यः इंडियगएंः सत्यं च असत्यं च कृत्यासत्ये तयोविवेकएव विचारएव जीवितं जीवितव्यं । तस्य हतौ हरणे कृष्णस प्य ते कृष्णसर्पश्वाचरति । पुनर्यः इंडियगणः पुण्यमेव उमस्तेषां खं व नं तस्य खंमनविधौ छेदने स्फूर्जत्कुमरायते कुठारश्वाचरति । कथंनूतं इंडि यगणं? लुप्तवतमुई लुप्ता बिन्ना व्रतानां मुज्ञ मर्यादा येन सः तं ॥ ६॥ नाषाकाव्यः-गीताबंद ॥ जे जगत जिवकों कुपथ मारहिं, वक शिष्य त तुरगसें ॥ जे हरहिं परम विवेक जीवन, काल दारुन उरगसें ॥ जे पु न विरख कुठार तीखन, गुपत/बत मुज्ञ करै ॥ ते करन. सुनट प्रहार न वि जन, तव सुमारग पग धरै ॥ ६ ॥ बली पण इंडियजयंनो उपदेश करे . . . शिखरिणीवृत्तम्॥ प्रतिष्ठां यनिष्ठां नयति नयनिष्ठां विघटय, त्यकृत्येष्वाधत्ते मतिमतपसि प्रेम तर्नु । ते॥विवेकस्योत्सेकं विदलयति दत्ते चं विपदम्, पदं तदोषाणां करणनिकुरुंबं कुरु वशे ॥ ७० ॥ अर्थः-हे नव्य ! तुं (तत् के०) ते (करणनिकुरंबं के ). इंझ्यिसमूहने (वशे के) वशमां (कुरु के०) कर. ते इंडियनिकुरुंब कहेवो के ? तो के (यत के०)जे (प्रतिष्ठां के०) महत्त्वने प्रतिष्ठाने (निष्ठां के०) अवसान ते दयप्रत्यें (नयति के०) पमाडे जे. वली जे इंख्यिकुरंब, (नयनिष्ठां के०) न्यायनी स्थितिने (विघटयति के०) स्फोटन करे . वली (अकत्येषु के०) नहि कर वा योग्य जे अनाचार तेने विषे (मति के०) बुद्धिने (बांधत्ते के०) धारण करे . वली (अलपसि के०) अविरतिने विषे ( प्रेम के०) स्नेहनें (तनुते के०) विस्तारे जे. वली (विवेकस्य के०) कृत्याकृत्य एटले आ करवा योग्य के अने था करवा योग्य नथी एवा विचारना (नत्सेकं के०) उन्नतपणाने (विदलयति के०) नाश करे .(चके०) वली (विपदं के०) विपत्तिने (दत्ते के०) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २३ थापे ने. माटें. ते इंडियसमूह पोताने वश करवो. ते इंडियसमूह कहेवो ने ? तो के ( दोषाणां के० ) सर्व दोषोनुं (पदं के०) स्थानक डे ॥७॥ टीकाः-पुनराह ॥ प्रतिष्ठामिति॥जो नव्य! तत्करणानां इंड्रियाणां नि कुरंबं समूह वझे कुरु वश्यतां नंया यात्मायत्तं विधेहि । तत्किं ? यत् कर गनिकुरंबं प्रतिष्ठां महत्त्वनिष्ठां अवसानं दयं नयति प्रापयति । पुनर्यत् नय निष्ठां न्याय स्थिति विघटयति स्फेटयति । पुनर्यत् अरूत्येषु अनाचारेषु मतिं बुद्धिं आधत्ते स्थापयति । पुनः अतपसि अविरतौ प्रेम तनुते स्नेहं कुरुते । पुनर्यत् विवेकस्य कृत्याऽकृत्यविचारस्य नत्सेकं उन्नतत्वं विद लयति विध्वंसयति । पुनर्यत् विपदं आपदं कष्टं दत्ते । तत् करणनिकुरवं .इंख्यिसमूहं स्ववशे कुरु । कथं नूतं इंडियनिकुरंबं? दोषाणां पदं स्थानं ॥७॥ लाषाकाव्यः-सवैया इकतीसा ॥ एही है कुगतिके निदानी उःख दोष दानी, नहिकी संगतिसों संग नार वहियें ॥ इनकी मगनतासों विनोंकों विनास हो, इनहीकी प्रीतिसों अनीति पथ गहियें ॥ येही तप नावकों विमारै उसचार धारै, इनहीको तपत विवेक नूमि दहियें ॥ एही इंडि सु नट इनही जीतै सोइ साधु, इनको मिलापीसोमहा पापी कहियें ॥७॥ वली पण इंघियसमूहना जयनो उपदेश करे . शार्दूलविक्रीडितत्तत्रयम् ॥ धत्तां मौनमगारमुज्जतु विधि प्रागल्भ्यमन्यस्यता, मस्त्वंतर्गण(स्त्वंतर्वण) मागमश्रममुपा दत्तांतपस्तप्यताम्॥श्रेयः पुंजनिकुंजनंजनमहावा नचे दिस्यि,वातं जेतुमवैति नस्मनि दुतं जानीत सर्व ततः॥७॥ अर्थः-हे साधु ! ( मौनं के०) मौनने (धत्तां के०) धारण कर. वली (अगारं के०) घरने (उज्जतु के०) त्याग कर. वली (विधिप्रागल्भ्यं के०) सर्व थाचारनुं जे चातुर्य तेने (अन्यस्यतां के० ) अन्यास कर. वली (अंतर्गणं के०) गढवासमां अथवा (अंतर्वण) एवो पाठ होय तो वनने विषे (अस्तु के०) हो. वली (भागमश्रमं के) सिद्धांतना पठनने (उपाद तां के०) अंगीकार कर. तथा (तपः के०) तपश्चर्याने (तप्यतां के०) तप. परंतु (चेत् के०) जो वली (इंडियवात के०) इंडियसमूहने (जेतुं के०) जीतवाने एटने वश करवाने ( नावैति के० ) न जाणे ले ( ततः Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. के०) तो (सर्व के०), पूर्वोक्त सर्व, (जस्मनि के०) राखने विषे (हुर्त के० ) होमेनुं हुतव्य जेवुं होय तेम वृथा (जानीत के०) जाण. ते केहवो बे इंडियात? तो के ( श्रेयःपुंज निकुंजचंजन के १) पुण्यसमूह रूप जे वन तेना जंजनने विषे ( महावात के० ) विटौलीवा जेवो बे ॥ ७१ ॥ टीकाः- धत्तामिति ॥ हे साधों ! जंवान मौनं धत्तां कुरुतां । पुनः गारं गृहं वज्तु त्यजतु । पुनर्विधिप्रागल्भ्यं सर्व्वाचारचातुर्य अन्यस्यतां कुर्वतु अंतर्गणं वासमध्ये अथवा अंतर्व्वणमितिपाठे वनमध्ये रक्त नवतु । पुनरागमश्रमं सिद्धांत पठनं नपादत्तां अंगीकुरुतां । पुनस्तपस्तप्पतां करोतु । परं चेद्यदि इंडिया इंडियसमूहं जेतुं वशीकर्तुं नावैति न जानाति । तदा सर्व्व पूर्वानुष्ठानं स्मनि रक्षायां दुतं वृथा जानीत । कथंभूतं इंडियव्रातं । श्रेयसां. कल्याणानां पुंज एवं निकुंनं तस्य जंजने महावात वातूलसमानं ॥ ७१ ॥ भाषाकाव्यः - वृत्त ऊपर प्रमाणें ॥ मौनके धरैया, गृह त्यागके करैया, विधि रीति सधैया, परनिंदासों पूते हैं । विद्या के अन्यासी, गिरिकंदरा के बासी, गुचि अंगके खाचारी, हितकारी बैन वूठे है । यागमके पाठी, मन लाय महा काठी, नारी कष्टके सहनहार, रमासों रूठे है ॥ इत्या दिक जीव, सब कारज करत रीतें, इंड्नि के जीते, बिना सरवंग झूठे हैं ॥ ७१ ॥ वली कां विशेष कहे बे. धर्मध्वंसधुरीणमभ्रमरसावारीणमापत्प्रथा, लंकर्मीणम शर्मनिर्मितिकलापारीणमेकांतनः ॥ सर्वान्नीनमनात्मनी नमनयात्यंतीनिमिष्ठे यथा, फांमीनं कुमताध्वनीनमज यन्त्रौघम मनाक् ॥ १२॥ इतीदियदमप्रक्रमः ॥ १६ ॥ यर्थः - ( यौघं के० ) इंडियाना समूहने ( अजयन के० ) नहि वश करतो एवो प्राणी, ( श्रदेमनाक् के० ) थकल्याणनो नजनारो थायले. ते केहवो ने इंडिया ? तो के ( धर्मध्वंसधुरीणं के० ) ध मैना नाश करवामां मुख्य बे, वली ( अमरसावारीणं के० ) सत्य ज्ञानने यावादन करनार बे, वली (यापत्प्रथानंकर्मी के० ) कष्टना विस्तारमां पूर्ण कर्म करनार ले तथा ( शर्मनिर्मितिकलापारी के० ) कल्याणना निर्माणने विषे चतुर बे, वली ( एकांततः के० ) निश्चयें करी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २४१ ( सर्वानीनं केए) सर्वान्ननदक , वली (धनात्मनीनं के० ) आ त्मानो अहितकारक डे, तथा (अनयात्यंतीनं के०) अन्यायने विषे अत्यंत गामी तथा ( श्ष्टे के ) इलित वस्तुने विषे.( यथाकामीनं के ) स्वेबायें वर्तनारो छे, तथा (कुमलाध्वनीनं के०) कुत्सितमतरूपं जे मार्ग तेने विषे पांथीजनसमान ने तेने जिंत्या शिवाय प्राणी कल्याणनो नजनारो थाय नही ॥ ७२ ॥ इति षोडश इंडियदमप्रक्रमः॥ १६ ॥ टीकाः-पुनर्विशेषमाह ॥ धर्मध्वंसेति ॥अक्षाणां इंडियाणां उघं समूहं अजयन् अवशीकुर्वन जनः अदेमजाक् अकल्याणनाग नवति । कथंनूतं अदौघं । धर्मध्वंसे धुरीणः मुख्यस्त । पुनरनमरसस्य सत्यज्ञानस्य आवा रीणं आवरणाय समर्थ आवारीपस्तं पाहादकं । पुनः कथंनतं ? आपदा कष्टानां प्रथायां विस्तारणे अलंकीणः कर्मक्ष्यस्त । पुनः किंजूतं ? अशर्म णां अकल्याणानां सुखानां निर्मिती निर्माण करणे कलापारीणश्चतुरस्त । पुनःकिंनूतं? एकांततोनिश्चयेन सर्वान्नीनः सन्निनदकस्त । पुनः किंनूत? न आत्मने हितोऽनात्मनीनः तं आत्मनोऽहितं । पुनः किंजूतं ? अनया न्यायेऽत्यंतीनोऽत्यंतगामी त । पुनः किंनूतं ? श्ष्टे इष्टवस्तुनि यथाकामं स्वे बया वर्तते इति यथाकामिनस्तं । पुनः किंनूतं ? कुमते कुत्सितमते अध्व नीनः पांथस्तं । ईदृशं इंडियसमूहं अजयन् सन् यदेमनार नवति ॥७२॥ यतः॥ कुरंगमातंगपतंगगूंग, मीना हताः पंचभिरेव पंच ॥ एकः प्रमादी स कथं न हन्यते, यः सेवते पंचनिरेव पंच ॥१॥ इति ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ,व्या ख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, इंडियप्रक्रमोऽजनि ॥ १६ ॥ नाषाकाव्यः-वृत्त कपरप्रमाणे ॥ धर्म तरु जनकों महामत्त कुंजरसें, आपदा नमारके जरनकों करोरी हैं ॥ सत्य शील रोकवेकों पौत्रै परदार जैसें, उर्गतिको मारग चलायवेकों धोरी हैं। कुमतिके अधिकारी कुनय पथके विहारी, नश्नाव इंधन जरायवेकों होरी है ॥ मृषाके सहाइ उनी वनाके नाइ, ऐसे विषयानिलाषी जीव अपके अघोरी है ॥ ७ ॥ कथाः-इंडियदमन उपर कथा कहे जे. जरत विशालानगरमां चेडो नामें राजा राज्य करे . ते परमजिनधर्मी डे, तेने सातपुत्रीमा सुज्येष्ठा तथा चेलणा एवे नामें बे पुत्री ले. तेने मांदोमांहे घणो स्नेह , ते जेम के शयन,नोजन, स्नान, दान सर्व एकां करे. ते गाममां कोई परिवाजिका Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. आवीने पोताना शौचमूल धर्मनां वखाण करती फरे. एकदा ते पारिवाजिका कन्याना अंतेनरमा गइ. तिहां तेने सुज्येष्ठायें वाद करी जीती निर्गुबीने काहाडी मूकी, ते वखत पारिवाजिकायें रोष करीने एवो निश्चय कस्यो के ए बालिकाने दुं महोटा संकटमा नाखुं ! जेथी महारं वैर वली यावे. एम चितवी पनी सुज्येष्ठान रूप पाटीयामांहे तादृश चितराव्युं ते रूप श्रेणिक राजाने जई देखाडयुं. ते जो श्रेणिक राजायें काम विह्वल थइने चेडाराजा नपर दूत मोकली कन्यानी मागणी करावी, पण चेडायें नाकारो कस्यो. तेवारें अनयकुमार पोतें श्रेणिकराजानुं तादृश रूप पट्ट उपर चित्रा वी, तेजा विशाला नगरीयें यावी. अंतेनरनी पासें सुगंधीवस्तुनी हु कान मांगी बेठो. जेवारें अंतेउरमांथी सुज्येष्ठानी दासी सुगंधी वस्तु लेवा आवे, तेवारें तेने बंदुमूली वस्तु अल्पमूव्ये आपे. अने ते दासीने श्रेणिक राजानुं रूप पण देखाडे. दासीय रूपने वखाणतां सुज्येष्ठानी थांगल वात करी, ते रूप अणावी सुज्येष्ठाने देखाड्युं. ते जोइ मोह पामीने एकांतें श्रेणिक राजा नपरं रागिणी थइ.ते वात अजयकुमार जाणीने एक सुरंग खोदावी ते मांहेथी श्रेणिकने तेडाव्यो, तेनी बागल सुज्येष्ठा पण या वी. पडी जेटलामां सुज्येष्ठा अनरण लेवा पाडी गइ, एटलामा सुज्ये ठाने जोवा सारु चेलणा ते सुरंगमां आवीने राजाश्रेणिक आगल उनी रही. राजा तेनेज सुज्येष्ठा जाणी तत्काल घोडा उपर चडावीने चालतो थयो. पालथी सुज्येष्ठा पण बाजरुणनो करंमीयो लइ सुरंगमां आवी, श्रे णिक राजाने जोवा लागी पण राजाने चेलणा सहित दीठो नही, तेवारें पोकार कसो, ते चेडाराजायें सांजल्यो, तेवारे वाहार करवा दोड्यो, तेने सुरंगमाहे श्रेणिकराजायें आवतो दीठो, ते वखतें सुलसाना बत्रीश पुत्र श्रावी ऊना रह्या. राजा श्रेणिक चेलणाने लश्नीकली गयो. चेडाराजायें एक बाण मास्यो ते वागवाथी पुत्र पडी गया. समुदाय कर्म लागुं. पनी सु ज्येष्ठायें विचायुं जे में एक चिंतव्युं अने बीजुं थयुं ! एम चिंतवी वैराग्यरंग वासित थश्रीवीरनी पासें जश् दीक्षा लश्तेने निरतिचारपणे पालवा लागी. एवा अवसरमा कोइक पेढाल नामें विद्याधर अनेक विद्यानो निधान जे, ते वृक्षपएं पाम्यो, तेवारें विद्या देवा योग्य पात्र शोधवा लाग्यो, पण तादृश पात्र कोइ मले नही. जे सुशील कामरहित स्त्री होय वली ब्रह्मचा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः १४३ रिली होय, तेना. उदरथी जे पुत्र उत्पन्न थाय ते उत्तम जावो. तेवा पात्रने विद्या दीधी थकी बहु फलदायक थाय. एम निर्धारी तेवी स्त्री जोवा माटें पेढाल विद्याधर फया करे, तेणें एकदा दीक्षानी पालनारी शीलवत धरनारी सुज्येष्ठाने दीवी, :तेवारें विद्याने बसें अंधकार करी जेम सुज्ये छाना जाणवामां न यावे, तेवी रीतें तेनी योनिमां भ्रमरानुं रूप करी वीर्य प्रक्षेपयुं. पढी थोड़े थोडे. तेने गर्जनां चिन्ह प्रगट थवा लाग्यां, पण श्रीमहावीरें तेने निर्विकारी कही तेथी सज्यातर श्रावकें तेने घरमां राखी तिहां पूर्ण मासें पुत्र प्रसव्यो, तेनुं सात्यकी एवं नाम दीधुं. ते साध्वीयोने उपासरे महोटो थवा लाग्यो. तिहां जे जे साध्वीयो नणे, ते सर्व सांजलतां थकां तेणें सर्व शास्त्र कंठें करी लीधां. • एकदा कोई कालसंवर विद्याधर ने सात्यकी श्रीवीरना समोसरणमां बेठा का उपदेश सांजले बे. तिहां सात्यकीयें भगवानने कयुं के महारा ज!' हुं मिथ्यात्वने परढुं करी समुइमां नाखी दश. तेने जगवानें कयुं के तहाराथी तो उलढुं विशेष मिथ्यात्व प्रचलित प्रशे. तेटलामां कालसंवर विद्याधरें पूधुं के हे जगवन्! मुकने कोनाथी जय थशे ? ते वारें जगवाने कह्युं के एं सात्यकी थकी तुमने नय थशे ! ते सांजनी विद्याधरें विचा जे ए बालकनुं माहारी खागल गुं गजुं ! एम चिंतवी सात्यकीने पगनी वेश मारीने जतो रह्यो, ते देखी सात्यकीना मनमां महोटो विषाद उपन्यो. पी सात्यकी. जेवायें महोटो थयो, तेवारें पेढालें तेने रोहिणी प्रमुख वि and शीखवी. ते विद्यान साधतों कालसंवर विद्याधर तेने अंतराय करवा लाग्यो. परंतु पूर्वजन्मना वचनथी ते विद्या देवी थोडे थोडे अनुक्रमें प्रसन्न 5. केम के पूर्वज विद्यादेवीयें एं सात्यकीने पांच जव पर्यंत विणास्यो हतो, परंतु पांचमे नवें कयुं हतुं के बहे नवें तुमने उपक्रमें विद्या सिक शे. तेमाटें विद्या तत्काल सिद्ध थइ. पण ते वखतें सात्यकीयें पोतानुं मा त्र ब महीनानुं श्रायुष्य रहेनुं सांजली फरी विद्यादेवीने कयुं के हे स्वामि नि ! तमे महारी उपर कृपा करी सातमे नवें वहेलां सिद्ध यजो. ते व चनथी सात्यकीने सातमे नवें ते विद्या तत्काल सिद्ध यइ. ते विद्यादेवी नो यत्यंत प्रेम सात्यकी उपर उपन्यो अने कहेवा लागी के ताहारा शरी रमांहे एवं कोइ स्थानक देखाड के जिहां में षोडश विद्यादेवीयो श्रावी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ने वसीयें ! सात्यकी पोतानुं मस्तक देखाड्यु, तेवारे देवीयोयें ललाटमां बिए पाडी मांहे प्रवेश कीधो. तिहां बिड्ने स्थानकें त्रीजं नेत्र कीg. एकदा सात्यकीय विचायुं जे महारा पिता पेढालें महारी माता सा ध्वीनी निंदा करावी ? एवी रोष लावीने पेढालने मारी नाख्यो. ते.स माचार कालसंवर विद्याधरें सांजव्या, तेथी तेणे पण त्यांथी पलायन की धुं. सात्यकी तेनी पाउल दोड्यो, कालसंदरें आकाशमांत्रण नगरीनी रचना करी घणा काल पर्यंत सुरू क. तो पण सात्यकीये तेने माखो. पठी सात्यकी मदोन्मत्त थइ पोतानी बायें अनेक परस्त्रीयोने जोगववा लाग्यो. साधुने योगें मिथ्यात्व तजी दायिक सम्यक्त्व पाम्यो. त्रिसंध्या जिना या करे. एकदा उड़यणी नगरीयें चंप्रद्योतनराजाना अंतेतरमा प्रवत्र्यो राजायें क्रोध आणीने कयुं के को सात्यकीने मारनार ले ? तेवारें तमया गणिकायें राजा बागल सात्यकीने मारवानी कबुलात आपी. विश्वासघात करी मारी नखाव्यो॥ एप्रमाणे इंशियलोलुप्तपणुं करवाथी ते बलवान् एवो सात्यकी नाश पाम्यो. माटें इंडियो वश राखवी ॥ ७ ॥ हवे लक्ष्मीनो स्वनाव कहे जे. निम्नं गबति निम्नगेव. नितरां निक्षेव .विष्कंनते, चैतन्यं मदिरेव. पुष्यति मदं धूम्येव दत्तेऽधताम् ॥ चापल्यं चपलेव चुंबति दवज्वालेव तृष्णां नय, त्यु लासंकुलटांगनेव कमला स्वैरं परिभ्राम्यति ॥३॥ अर्थः-(कमला के०) लक्ष्मी, (निम्नं के० ) नीचप्रत्ये ( निम्नगाश्व के०) नदीनी पेठे (गति के०) जाय जे. वली ते लक्ष्मी (नितरां के०) अत्यंत (चैत न्यं के०) ज्ञानने (विष्कंनते के०)विनाश करे . केनी पेवें ? तोके (निश्व के०) निशनी पेठे.जेम निश अचैतन्य करे , तेम लक्ष्मी पण झाननो नाश करे ने. तथा (मदं के०) अहंकारने (पुष्यति के०) पोषण करे . केनी पेठे ? तो के (मदिरेव के०) मदिरा जेम ले तेम. अर्थात् जेम मदिरा उन्मत्त ताने करे ने तेम लक्ष्मी पण अहंकार जे मद तेने करे ले. वली ते लक्ष्मी (अंध तां के०) अंधपणाने (दत्ते के०) थापे . केनी पेठे ? (धूम्येव के०) धूमस मूहनी पेठे वली (चापल्यं के०) चंचलपणाने (चुंबति के०) नजे . Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १४८ केनी पेठें ? तो के (चपलेव के० ) विजलीनी पेठें जाणधुं. तथा (तृष्णां के० ) मृगतृष्णाने खने (उल्लासं के०) उल्लासने (नयति के०) पमाडे ने एटले लोन dia वधारे बे. केनी पेठें ? तो के (दुवज्वालेव के ० ) वनाशिनी ज्वालानी पेवें. अर्थात् जेम दवज्वाला तृषाने वधारे. बे, तेम लक्ष्मी लोनने वधारे बे. वली लक्ष्मी (स्वैरं के०) स्वेवायें करी (परिभ्रमति के० ) परिभ्रमण करे बे. केनी पेठें ? तो के (कुलटांगनेव कै०) स्वैरिणी स्त्रीनी पेठें. जेम असती स्त्री स्वेवायें जमे बे, तेम लक्ष्मी पण स्वेच्छायें भ्रमण करे बे ॥ ७३ ॥ टीकाः - पुनर्लक्ष्मी स्वभावमाह ॥ निम्नंगेति ॥ कमला लक्ष्मीः निम्नं नीचं प्रति गछति । केव ? निम्नगा इव नदीव । यथा नदी नीचं गछति । पुनः नित रां श्रतिशयेन चैतन्यं ज्ञानं विष्कंनते विनाशयति । केव ? निदेव यथा निश चैतन्यं करोति । पुनर्लक्ष्मी मंदं अहंकारं पुष्यति पुष्णाति । केव ? मदिरेव सूरेव यथा मदिरा मदं उन्मत्ततां करोति । पुनः कमला अंधतां दत्ते अंध त्वं करोति । केव ? धूम्येव धूमसमूहश्व । यथा धूमोऽप्यंधं करोति । पुन लक्ष्मीश्चापल्यं चुंबति जति । केव ? चपला श्व विद्युदिव । पुनः कमला तृ ari लासं नयति । लोनवांचां वईयति । केव ? दवज्वाला इव । यथा दव ज्वालां तृषां वर्धयति । पुनः कमला स्वैरं स्वेब्बया परिभ्रमति । केव ? कुलटां गना इव सती स्त्री इव यथा सती स्त्री स्वेऩया. चमति तत् ॥ १३ ॥ नाषा काव्यः - सवैया तेइसा ॥ नीचकि और ढरैं सरिता जिम, घूम बढावत नींदकि नांइ ॥ चंचलता प्रगटै चपला जिम, अंध करै जिम धूम कि जांइ ॥ तेज करे सना दव ज्यों मद, ज्यों मद पोषति मूढकि तां ॥ ए करतूत करै कमला जग, मोलत. ज्यौं कुलटा बिनु सांइ ॥ १३ ॥ वली धनना दोषो कहे बे. दायादाः स्टहयंति तस्करगणा मुष्णंति भूमीनुंजो, गृ हंति चलमाकलय्य दुतनुग्नस्मीकरोति क्षणात् ॥ नः प्लावयति दितौ विनिहितं यक्षा दरंते हात्, र्व्व तास्तनया नयंति निधनं धिग्बव्दधीनं धनम् ॥ ७४ ॥ अर्थ :- ( धनं के० ) इव्यने ( धिक् के० ) धिक्कार हो. ते बे? तो के (बव्हधीनं के० ) घणाकने खाधीन रहेलुं बे. १९ केहवुं इव्य कोने कोने Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ . जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. श्राधीन रहेळु ले ? सो के ते धननी ( दायादाः के०) गोत्रीया (स्टहयं ति के०) स्टहा करे . वली तेने (तस्करगणाः के) चोरना समूहो (मुष्णंति के) चोरे . तथा (नूमीजुजः के० ) राजा (बलं के०) कांइ पण मिषने (आकलय्य के०).दश्ने (गृहंति केए) ग्रहण करे ने. वली (दुतनुक् के०) अमि.(कणात् के० ) क्षणमात्रमा (जस्मीकरोति के) जस्म करे . अने (अंनः के) पाणी, (प्तावयति के०) पलाली नाखे . तथा (हितो के०) पृथ्वीने विपे (विनिहितं के०) स्थापन करेलुं जे धन, तेने ( यदाः के०) व्यंतरो, (हगत् के०) बलात्कारथी (हरंते के०) हरण करे . तथा (उत्ताः के०) उराचारी एवा (तनयाः के०) पुत्रो, (निधनं के०) विनाशने (नयंति के०) पमाडे . माटें घणा जननी स्टहायुक्त एवा धनने धिक्कार होजो ॥ ७ ॥ टीकाः-धनस्य दोषानाह । धनं व्यं धिक् अस्तु । धिक् निर्नसननिंद योः। किंनूतं ? बव्हधीनं बव्हधीनत्वं । बहवःवंति। कथं ? दायादाःगोत्रिणः स्टहयंति ग्रहीतुं वांति । पुनस्तस्करगणाश्चोरसमूहाः मुष्णति चौर यंति । पुनमीनुजो राजानः बलं बाकालय्य मिपं दत्वा गृहंति ! दुतनुक् वन्हिः कणागेन जस्मीकरोति ज्वालयित्वा रहां करोति । पुनरंजः पानीयं प्लावयति वाहयति । पुनर्यधनं दितौ विनिहितं स्थापितं सन् यदाव्यं तरा हगबलात्कारेण हरते अपहरंति । पुन:र्वृत्ताः उराचारास्तनयाः पुत्रा निधनं विनाशं नयंति प्रापयंति । एवं बद्धीनं धनं धिगस्तु ॥ ७ ॥ नाषाकाव्यः-तृत ऊपर प्रमाणे ॥ बंधु विरोध करै निशि वासर, मंग नकों नरव बल जोवै ॥ पावक दाहत.नीर वहावत, व्है दृग उट निशा चर ढोवै ॥ नूतल रदत जद हरै करि, कै उरवृत्ति कुसंगति खोवै ॥ए उत्पात उवै धनके ढिग, दामधनी कहो क्यों सुख सोवै ॥ ७ ॥ जे धन के तेज मोह उत्पादक डे, ते कहे ने. नीचस्याऽपि चिरं चनि रचयंत्यायांति नीचै तिम्, शत्रोरप्यगुणात्मनोऽपि विदधत्युच्चैर्गुणोत्कीर्तनम्॥ निर्वेदं न विदंति किंचिदकृतज्ञस्यापि सेवाक्रमे, कष्टं किं न मनस्विनोऽपिमनुजाः कुर्वति वित्तार्थिनः॥५॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १४७ अर्थः-(मनस्विनोऽपि. के० ) मानवंत एटले माह्या एवा पण ( मनु जाः के) मनुष्यो, ( वित्तार्थिनः के ) इंव्यार्थी थया बता, ( किं कष्टं के) कया कष्टने (न कुर्वति के) नथी. करता? अर्थात् सर्व प्रकार ना कष्टने करेज . ते जेम:केः वित्तार्थीजनों (नीचस्यापि के०) नीच जन नी आगल, ( चटूनिके०).प्रिय एवां वचनोने (चिरं के) घणा काल (र चयंति के०) बोले . तथा (नीचैः के०) नीच पुरुषो साथै ( नतिं के०) प्रणामने (आयांति के०) करे . तथा (अगुणात्मनोपि के) निर्गुण एवा पण ( शत्रोरपि के०) शत्रुना पण (उच्चैः के०) अतिशयें करी (गुणोत्की तनं के०) गुणवर्णनने ( विदधति के०) करे . वली (अकृतस्यापि के) करेला कार्यने न जाणनार एवा अकृतज्ञ स्वामीना पण (सेवाक्रमे के०) सेवा करवामां (किंचित् के०) जरा पण (निर्वेदं के) खेदने ( नविदंति के) जाणता नथी. एटले वित्तने वांडनारा जनो पूर्वोक्त सर्व काम करे बे. टीकाः-धने मोहोत्पादकत्वमाह ॥ नीचस्येति ॥ मनस्विनोमानवंतो दहा अपि मनुष्या वित्तार्थिनो व्यार्थिनःसंतः किं कष्टं न कुर्वति ? अपितु सर्व कष्टं कुर्वनि। यथा नीचस्यापि नरस्याये चिरं चिरकालं याचन् चटूनि चटुवच नानि प्रिंयवचनानि रचयंति जल्पंति । पुनर्निचैर्नरैः समं नतिं आयांति प्र गामं कुर्वति । पुनः शत्रोरपि अगुणात्मनोपि निर्गुणस्यापि नचैर तिशयेन गुणोत्कीर्तनं गुणवर्णनं विदधति । पुनरकतइस्यांऽपिप्रनोः सेवाकमे सेवा क रणे किंचित् स्तोकमपि निर्वेदं खेदंन विदंतिनजानंति। वित्तवांहकाःसंतः७५ जापाकाव्यः-सवैया इंकतीसा ॥ नीच धनवंत तांइ निरखि असीस दे ६, वह न विलोके यह चरन गहतु है ॥ वह अकृतज्ञ नर यह अझता को घर, वह मदलीन यह दीनता कहतु है । वह चित्त कोप गनै यह वाकों प्रनु माने, वाके कुवचन सब याहि सहतु है। ऐसी गति धारै न विचारै कबु गुनदोस, अरथानिलापि जीव अरथ चहतु है ॥ ७५ ॥ लक्ष्मीः सर्पति नीचमर्णवपयः संगादिवांनोजिनी, संसर्गा । दिव कंटकाकुलपदा न कापि धत्ते पदम् ॥चैतन्यं विषसन्नि धेरिव नृणामुडासयत्यंजसा, धर्मस्थाननियोजनेन गुणिनि ह्यं तदस्याः फलम्॥॥इति लक्ष्मीस्वनावप्रक्रमः॥१७॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. ___ अर्थः-(लक्ष्मीः के) लक्ष्मी, (नीचं के०) नीच पुरुषप्रत्ये (सर्पति के०)जा य. शा माटें जाय जे ? तो त्यां नत्प्रेक्षा करे . के (अर्णवपयःसंगादिव के०) समुश्जलना संगथकी जेम जाल , ते नीचगामी तेम लक्ष्मी पण जलसं गथकी नीचगामी थइ जे. कारण के लक्ष्मीनी मृत्मत्ति समु जलथीज डे अ र्थात् समुजल पिता होवाथी ते नीचगामी . वली लक्ष्मी (कापि के०) को पण (पदं के०) स्थानकने (नधत्ते के०) नथीधारण करती. केम के, (अंनोजि नीसंसर्गात् के०) कमलिनीना संयोगपकी (कंटकाकुलपदाश्व के०) कांटायें करी व्याप्त ने पग जेना एवीज जापीयें होय नही एटले जेम कोस्ने कांटा वाग्या होय तेने पीडा होवाथी क्यांय पग मामी सके नही तेम लक्ष्मी पण एकस्था रहेती नथी. वली लक्ष्मी (नृणां के०) मनुष्योना (चैतन्यं के०) झा नने (अंजसा के०) अनायासें करी (उजासयति के०) गमावे ने शा माटें ? तो के ते (विषसन्निधेरिव के०) विषना सन्निधिपणा थकीज जाणीय होय नही कारण के विषनुं अने लक्ष्मी, स्थानक एक समुज . (तत् के०) ते कारणमाटें (गुणिनिःके) गुणिजनोयें (धर्मस्थाननियोजनेन के०) धर्मस्था नमां तेना व्ययने करवे. करी (अस्याः के०) मा लक्ष्मीनु (फलं के०) फल, (ग्राह्यं के०) ग्रहण करवा योग्य जे. अर्थात् पुण्यकार्यमा जे लक्ष्मी वापरे, ते लक्ष्मीनुं फल पामें ॥७६॥ इति सप्तदश लक्ष्मीस्वनावप्रक्रमः॥ १७ ॥ टीकाः-उपमानेन श्रीस्वरूपमाह ॥ लक्ष्मीः नीचं सर्पति नीचं जनंप्र तियाति। कस्मात् ? नत्प्रेदते । अऽर्णवपयः संगात् समुज्जलसंगमान्नीचगामि न्यनूत्। पुनर्लक्ष्मीः कापि पदं स्थानं च न धत्ते न स्थापयति । कीदृशी ? अं जोजिनीसंसर्गात् कमलिनीसंयोगादिव ।कंटकाकुलपदा कंटकैप्प्तचरणेव ॥ पुनर्लक्ष्मीनृणां पुंसां चैतन्यं ज्ञानं अंजसा वेगेनोजासयति गमयति । क स्मात् विषसंनिधेर्विषसामीप्यादिव लदम्याः विषस्य च समुश्स्थानत्वात् तस्मात्कारणात् गुणिनिर्जनैर्धर्मस्थाननियोजनेन धर्मस्थानव्ययकरणेना स्याः लदम्याः फलं ग्राह्यं सफला कर्तव्येत्यर्थः ॥ ७६ ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायांहर्षकीर्तिनिः॥सूरिनिर्विहितायांतु,लक्ष्म्याश्च प्रक्रमोऽजनि॥१७॥ नाषाकाव्य-वृत्त ऊपर प्रमाणे॥नीचहीकी औरकुं उमंगी चलै कमलासु, पिता सिंधु सलिल सुनाउ याहि दियो है॥ रहै न सुस्थिर व्है सकंटक चरन याको, वसि कंजमांहि कंजकोसो पद कियो है॥जाकों मिलै हितसों अचेत Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २४॥ करि मारे ताहि, विपकी बहिन तातें विपको सो हियो है ॥ ऐसी गहारी जिन धरमके पथमारी, करिकें सुकत तिन याको फल लियो है ॥ ७६ ॥ कथाः-अंगदेशने विषे धारापुर नगरनो सुंदर नामें राजा , तेनी म दनवनना नामें राणी . लेने एक कीर्तिपाल, बीजो महीपाल एवे नामें बे पुत्र . ते राजा परस्त्रीपराङ्मुख , अने राणी पण शीलांगी जे. एकदा मध्यरात्रिये तेनी कुलदेवतायें श्रावीने कडं के हे राजन् ! तुमने उर्दशा आवी ,महोटुं कष्ट प्राप्त थझे ? ते सांजलीने राजायें कह्यु के गुनागु नकर्म जे जीवें कस्यां होय, ते जोगव्या विना लूटको थाय नही ॥ यतः ॥ संपदि यस्य न हों, विपदि विषादोरणेषु धीरत्वम् ॥ तं नुवनत्रयतिलकम्, जनयति जननी सुतं विरतम् ॥ १ ॥ माटें कीधां कर्म नोगव्या विना लूटे नही. एवं धैर्य धरी प्रधानने राज्य नलावी राजा पोतें तथा स्त्री अने बे पुत्र साथें लश् परदेश नणी चाल्या. एकदा वगडामां कुटुंब सहित राजा सूतो ले ते वखतें पोतानी पासें जे संबल हतुं, ते सर्व चोर लोको लश् गया. पनी वनफलादिकें कुटुंब निर्वाह करतो थको चालतो चालतो पृथ्वीपुरनगरें आव्यो. तिहां को धनसागर व्यवहारीयाना वाडामा रह्यो. राणी'लोंकोने घेर मजुरी करवा जाय जे तेने स्वरूपवान देखी मोहित थ लोको मजुरी वधारे देवा लागा. तिहां विषयी लोकोना प्रसंगथी घणां रख सहन करयां, फरी नाग्योदय थयो तेवारें पोताने नगरेंगया. राज्य पाम्यां, सर्व कुटुंबने मल्यां, सर्व मनोरथ सिह थया. घणो काल सांसारिक सुख नोगवी वृक्षावस्थायें चारित्र लइ देवट संलेषणा करी देवलोकें गया. ए लम्पीनी चंचलताविषे कथा जाणवी॥७६॥ हवे दाननो उपदेश कहे . चारित्रं चिनुते धिनोति विनयं झानं नयत्युन्नतिम्, पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युलासयत्यागमम् ॥ पुण्यं कंदलयत्यऽघं दलयति स्वर्ग ददाति क्रमात्, निर्वाणश्रियमातनोति निहितंपात्रे पवित्रं धनम्॥७॥ अर्थः-(पवित्रं के०)पवित्र एटले न्यायोपार्जित एवं (धनं के०) धन, (पात्रे के) पात्रने विषे (निहितं के०)यारोपण कयुं तुं एटले दाधुं तुं (चारित्रं के०) संयमने (चिनुते के०) वधारे . तथा (विनयं के०) विनयना गुणने Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० - जैनकथा रत्नकोष नाग पदेजो. (धिनोति के) वधारेने. तथा (झानं के०) श्रुतादिकज्ञानने (उन्नति के०) उन्नतिप्रत्ये (नयति के०) पमांडे . तथा (प्रशमं के०) उपशमने (पुष्णाति के०) पोषण करे . तथा (तपःके) मास पद पणादिक जे तपतेने (प्रबल यति के०) बलवान् करे ले. एंटले पारणादि योगथको नृत्साह करे . तथा (आगमं के० ) सिक्षांत पतनादिकने ( नन्नासयति के० ) प्रबल करे डे. तथा ( पुण्यं के०) पुण्यने (कंदलयति के) उत्पन्न करे डे. (अघं के०) पापने (दलयति के०) खंमन करे जे: तथा ( स्वर्ग के०) स्वर्गने ( ददाति के०) आपे . तथा (क्रमात् के०) अनुक्रमथकी (निर्वाणश्रियं के०) मो दरूप लक्ष्मीने (बातनोति के०) विस्तारे एटले आपे ले. अर्थात् सुपा त्रमा आपेलुं धन, पूर्वोक्त सर्व वस्तुने आपे ॥ ७ ॥ टीकाः-दानोपदेशमाह ॥ चारित्रमिति ॥ पवित्रं न्यायोपार्जितं धनं वित्तं पात्रे सुपात्रे निहितं दत्तं सत् चारित्रं संयमं चिनुते वक्ष्यति । वि नयं विनयगुणं धिनोति प्रीणयति । पुननिं श्रुतादि उन्नतिं नयति प्राप यति। पुनः प्रशमं उपशमं मुष्णाति पोषयति । पुनस्तपोमासपणादि प्रबल यति पारणादियोगाउत्साहयति । पुनरागमं सिद्धांतपठनादि नवासयति प्रब लं करोति । पुनः पुण्यमेव सत्कर्मवनं कंदलयति कंदलायुक्तं करोति । पुनः अर्घ पापं दलयति खमयति । पुनःस्वर्ग ददाति । क्रमादनुक्रमेण निर्वाणश्रियं मोद लदमी आतनोति दत्ते इत्यर्थः। सुपात्रे दत्तं धनंएतानि वस्तूनि करोति॥७॥ नाकाव्यः-कवित्त मात्रात्मक बंद ॥ चरन अखंम झान अति उज्ज्व ल, विनयविवेक प्रसम अमलान ॥ अनथ सुनान सुकत गुनसंशय, उच्च श्रमर पद बंध विधान ॥ अगम गम्य रम्य तपकी रुचि, नत मुगति पंथ सोपान ॥ ए गुन प्रगट होहि तिनके घट, जे नर देंहिं सुपत्तहिं दान ॥७॥ दाख्यिं न तमीहते न नजते दौर्नाग्यमालंबते, नाऽकीर्तिर्न परानवोऽनिलषते न व्याधिरास्कंदति ॥ दैन्यं नाश्यिते उनोति न दरः क्विनंति नैवापदः, पात्रे योवितरत्यनर्थदलनं दानं निदानं श्रियाम्॥७॥ अर्थः-( यः के०) जे पुरुष, (पात्रे के० ) पात्र जनने विषे ( दानं के० ) दानने ( वितरति के० ) थापे . (तं के० ) ते पुरुषने ( दारिद्र्यं Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २५१ के) दारिद्य, ( नईदते के ) जोतुं नथी, तथा ते पुरुषने (दौ ग्यं के०) उर्भाग्यपणुं, (न नजते के०) सेवतुं नथी. तथा (अकीर्तिः के) अपयश (नालंबते के०) आश्रय करतुं नथी. तथा ते पुरुषने (परानवः केए) परानव, (नानिलपते के०) अनितापं करतो नथी. तथा (व्या धिः के०) व्याधि, (न यास्कंदति केए) न शोषण करे . तथा ( दैन्यं के०) दीनता ( नायिते के०) आदर करती नथी तथा (दरः के० ) जय, ते (नमुनोति के) नथी पीडतो. तथा (आपदः के०) कष्टो, (नैव क्लिभंति के०). नथीज पीडा करतां. ते दान कहेवू ? तो के (धन र्थदलनं के०) उपश्वोने नाश करनारंडे तथा (श्रियां के०) संपत्तिनुं (नि दानं के) कारणचूत . ते माटें सुपात्रने दान जरूर आपq ॥ ७॥ टीकाः-पुनर्दानगुणानाह॥ दारिद्यं नेति ॥ यः पुमान पात्रे सुपात्रे दानं वित रति प्रयजति । तं पुरुषं दारिद्यं न दिते न पश्यति। पुनस्तं दोनोग्यं जगत्वं न जजते न सेवते। पुनस्तं अकीर्त्तिरपयशो नालंबते नाश्रयति । पुनस्तं परानवः नाऽनिलषते न वांबति । पुनाधिर्माद्यं तं नास्कंदति न शोपयति । पुन र्दैन्यं दीनतां नायिते नाश्रयति । पुनर्दरोनयं न उनोति न पीडयति । पुनः आपदोव्यसनानि कष्टानि तं न विश्नति न पीडयंति । यः पात्रे दानं ददाति । किंनूतं दानं? अनर्थानां उपश्वानां. दलनं बेदनं । पुनः किंनूतं श्रियां संपदा निदानं कारणं ॥ ७ ॥ नापाकाव्यः-उप्पयबंद ॥ सो दरिए दलमलै, तांहि उरनाग न गंजै॥ सो न लहै अपमान, सो तो विपदा जय नंजै ॥ पिसुन कोई सुःख देश, तास तन व्याधि न वढ ॥ तांहि कुजस परिहरै, सुमुख दीनता न कट्टर ॥ सो लहै उच्च पद जगत मैं, अघ अनर्थ नाश हि सरव ॥ कहिं कंवरपाल सो धन्य नर, जो सुखेत बोवै दरव ॥ ७ ॥ . वली पण दानना गुणो कहे जे. लक्ष्मीः कामयते मतिर्मगयते कीर्तिस्तमालोकते,प्री तिचुंबति सेवते सुनगता नीरोगताऽऽलिंगति ॥श्रे यासंदतिरन्युपैति दृणुते स्वर्गोपनोगस्थिति, मुक्ति वीति यःप्रयति पुमान् पुण्यार्थमर्थ निजम्॥७॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. अर्थः-( यः के) जे ( पुमान् के० ) पुरुष, ( पुण्यार्थ के०) पुण्यने अर्थे ( निजं अर्थ के०) पोताना धनने (प्रयवति के० ) आपे ले (तं के०) ते पुरुषने (लक्ष्मीः के ) कमला, ते. ( कामयते के०) ने बे. तथा तेने (मतिः के० ) बुद्धि, ( मृगयते के:) खोले जे शोधे . तथा ( कीर्तिः के) कीर्त्ति ( थालोकते के०) जोवे तथा तेने (प्रीतिःके) प्रीति, (चुंबति के०) चुंबन करे ने तथा ते जनने.(सुनगता के०) सौना ग्य, (सेवते के०) सेवे . तमा (नीरोगता के०) आरोग्यता, ते (आ लिंगति के०) आलिंगन करे ले. वली तेने (श्रेयःसंहतिः के.) कल्याणपरंप रा, (अन्युपैति के०) सन्मुख आवे . तथा ते पुरुषने ( स्वर्गोपनोगस्थितिः के०) स्वर्गना उपनोगनी पक्षति, (कृणुते के०) वरे . तथा ( मुक्तिः के०) मोद,(वांनति के०) वांडे . माटें व्यने पुण्यने अर्थे अवश्य वापरतुं ॥७॥ टीकाः-दानगुणानाह ॥ लक्ष्मीरिति ॥ यः पुमान् पुण्याऽर्थ श्रेयोर्थ निजं अर्थ स्वकीयं धनं प्रयन्नति ददाति । तं पुरुष लक्ष्मीः कमला कामयते वांति। पुनर्मतिर्बुद्धिस्तं मृगयते अन्वेषति । पुनः कीर्तिस्तं पालोकते पश्यति । पुनः प्रीतिरानंदस्तं चुंबति श्लिष्यति । पुनः सुनगता सौनाग्यं तंसेवते नजति।नी रोगता यारोग्यं तं आलिंगति । पुनः श्रेयःसंहतिः कल्याणपरंपरा तं अन्युपै ति सन्मुखमायाति । पुनः स्वर्गोपनोगस्थितिर्देवलोकस्य जोगपतिस्तं वृणुते वरयति । पुनर्मुक्तिर्मोदस्तं वांबति । यः पुण्यार्थ निजं अर्थ प्रयन्नति ॥७॥ नाषाकाव्यः-सवैया इकतीसा ॥ ताहिकों सुबुद्धि वरे, रामा ताकी चाह करे, चंदन स्वरूप व्है सुजस तांहि अरचै ॥ सहज सुहाग पावै, सुरग समी पावै, वार वार मुगति रमनि तांहि चरचै ॥ तांश्के सरीरकों आलिंगत अरोग ताइ, मंगल करै मिता प्रीति करै परचै ॥ जो नर व्है सुचेत चि त समता समेत, धरमके हेतकों सुखेत धन खरचै ॥ ए॥ वली पण दाननाज गुण कहे . मंदाक्रांताटत्तम्॥तस्यासन्ना रतिरनुचरी कीर्तिरुत्कंण्ठिता श्रीः, स्निग्धा बुद्धिः परिचयपरा चक्रवर्त्तित्वझद्धिः॥पाणौ प्राप्ता त्रिदिवकमला कामुकी मुक्तिसंप, त्सप्तदेव्यां वपति विपुलं वित्तबीजं निजं यः॥G० ॥ इति दानप्रक्रमः॥१७॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १५३ अर्थः- ( यः. के ० ) जे पुरुष, (निजं के० ) पोता ( विपुलं के० ) प्रचुर एवं (वित्तबीजं के ० ) वितरूप बीजने (सप्तदेत्र्यां के ० ) सात क्षेत्रने विपे एटले १ जिनवन, २ जिनबिंब, ३. ज्ञानपुस्तक, ७ चतुर्विध संघनक्ति, ते रूप सात क्षेत्रने विषे (वपति के ० ) वावे. ले. एंटले वापरे . ( तस्य के० ) ते पुरुषने ( रतिः ho) समाधि (यासन्ना के ० ) समीप वर्त्तवावाली थाय बे. दूकडी थाय बे. तथा तेने (कीर्त्तिः के०) कीर्त्ति ते (अनुघरी के०) दासी थाय बे. तथा (श्रीः के०) संपत्ति एटजे धनधान्य हिरस्यरूप संपत्ति, ते मलवाने (उत्कंठिता के०) उ त्कंठित थाय छे. तथा (बुद्धिः के०) बुद्धि, (स्निग्धा के०) स्नेहवती थाय बे. तथा तेने (चक्रवर्त्तित्वद्धिः के०) सार्वनौमपणानी विनूति, (परिचयपरा ho) सुपरिचित थाय बे. तथा तेने (त्रिदिवकमला के०) स्वर्गनी लक्ष्मी, (पाणौ ho) हाथने विषे ( प्राप्ता के ० ) प्राप्त थाय छे. तथा तेंने ( मुक्तिसंपत् के ० ) मुक्तिरूप संपत्ति, एटले सिद्धिरमा, ते (कामुकी के० ) निलाप युक्त याय . माटें सात क्षेत्रने विषे धन वावरतुं ॥ ८० ॥ श्रांहिं धनाशालिन, चंद नवाला, सागरचं श्रेष्ठिनी कथानो दृष्टांत जाणवो ॥ इति दानप्रक्रमः ॥ १८ ॥ टीका:- नृयोऽप्याह ॥ तस्येति ॥ यः पुमान् निजं स्वकीयं विपुलं प्रचुरं वित्तमेव वीजं । सप्तदेत्र्यां १ जिनजुवन, २ बिंब, ३ पुस्तक, ७ चतुर्विधसंघ तिरूपायां वपति । तस्य पुरुषस्य रतिः समाधिरासन्ना समीपवर्त्तिनी स्यात्तथा तस्य कीर्त्तिरनुचरी सेविका स्यात्तथा तस्य श्री संपत् धनधान्य हिररूपा उत्कंठिता मिलनायोत्कंठिता स्यात्तथा तस्य बुद्धिरौत्पत्तिक्या द्या स्निग्धा स्नेहवती स्यात्तथा तस्य चक्रवर्तित्वद्धिः सर्व्वनौमविभूतिः परिचयपरा सुपरिचिता स्यात्तथा त्रिदिवस्य स्वर्गस्य कमला श्रीः पाणी हस्ते प्राप्ता संगता स्यात्तथा मुक्तिसंपत् सिद्धिरमा कामुकी सानिलापा स्याद्यः सप्तदेत्र्यां निजं वित्तबीजं वपति ॥ ८० ॥ अत्र धनाशालिन‍ चंद नवाला सागरचं श्रेष्ठिकथाः ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकीर्त्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु दानस्य प्रक्रमोऽजनि ॥ १८॥ इति दानप्रक्रमः ॥ १८ ॥ भाषाकाव्यः - मात्रात्मक बंद ॥ ताकि रती फिरती दासी सम, सहसा राजऋद्धि घर खावै ॥ सुमति सदा उपजै ताके घट, सो सुरलोक संपदा पावै ॥ ताकी दिष्टि लखै सिवमारग, सो निरबंध जावना जावै ॥ जो नर त्यागि कपट कूंरा कहि, विधिसों सपत खेत धन बोवै ॥ ८० ॥ २० • Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. कथाः - मणिमंदिर नामें नगर तेमां श्रीकरनामें व्यवहारीयों वसे ले. ते परम श्री जिननक्त ने, त्रिसंध्य जिनपूजा यावश्यक करे ले. चतुःपर्वी पो सह करे बे, तेने कुशलवती नामें नार्या बे, ते आवकने घेर वे सेवक बे, ते पण श्रावकनी संगतिथी जिनधर्मसेवन करे छे. एकदा ते बेडु सेवक पोतपोतामां वातो करतां बोल्या के ए नाग्यवंत शेवनां त्रणे जव प्रत्यक्ष् धन्य जावां ते वाक्य सांजनी शेठ हर्षवंत थयो, अन्यदा ते वेहु जा शेवनी साधें देरासरे गया, तिहां शेठ फूल लइ जिनवनमां गयो ने ते वे सेवक मांहेलो एक वडेरो सेवक पांच कुंमांनां फूल लइ नक्तिपूर्वक जिनपूजा करवा लाग्यो, अने बीजो सेवक उपाश्रयें जइ व्याख्यान सां जलवा वेगे. उपवास करी वे पहोर पढी पोतानी पांतीमां प्रावेलुं धान्य पीरसावीने क्तिपूर्वकं कपीश्वरने वहोराव्युं, मनमांहे पोताने अत्यंत धन्यवाद यापतो रह्यो . एम अनुक्रमें गुनकृत्य करतां आयु पूर्ण थये बेज मरण पामी कलिंगदेशनो शूरसेन नामें कोइक राजा बे, तेनी वि जया नामें राणीनी कूखें पुत्रपणें जइ उपना. तेमां एकनुं नाम अमरसेन बीजानुं नाम वीरसेन पाडयुं बेदु पुत्र राजाने परमवल्लन बे, अनु में सर्व कलाना पारंगामी थया. ते बेदु सौभाग्यनिधान सर्वलोकने त्यंत प्रिय थयेला देखीने उरमान मातायें चिंतव्युं जे ज्यां सुधी ए वे पुत्र याही हशे, त्यां सुधी महारा पुत्रने राज्य मलशे नहीं. एकदा राजा वसंतक्रीडाने अर्थे उद्यानें गयो. एवामां राणीयें रात्रिने समयें पोतानुं शरीर नखें करी वलूयुं, राजा घरें श्राव्यो, तेचारें राणीने पूधुं के तहारुं शरीर कोणें वलूयुं ? तेवारें राणी रोती थकी स्त्रीचरित्र करती बोली के हे स्वामी ! ए काम सर्व तमारा कुमरोनुं जाणजो. ए बेदु मदोन्मत्तावीने मने वलग्या माटें हवे मने माहरे पीयर मोकलो. ए तमारा मानीता पुत्र यागल महाराथी रही शकाय नहीं. एवी वात सांगतांज राजायें चंमालने तेडावीने कयुं के या बेदु कुंपात्रोनां मस्तक कापी या रात्रें महारी पासें लावजे, ते सांजली चंमाल बेदु कुमरो पासें गयो, ने राजानो हुकम कही संजलाव्यो. कुमर बोल्या के राजानो प्रदेश मारे प्रमाण बे, तुं सुखें ते काम कर. तेवारें चंमाजें कह्युं के तमें परदेश जणी जाउ ए हुं तमारा पुस्यथी कहुं बुं, तेणें तेमज कयुं, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ सिंदूरप्रकरः यने वेदु कुमर.गना जता रह्या. मनमां विचारवा जाग्या के आपणा क मनी वाते, के जे आपणी उरमान मातायें आपणने कूडं कलंक दीधुं. पाबलथीमाताने पण आनंद थयो... .हवे ते बेदु नाईटथ्वीमां फरंता फरता एक अटवीमां रात्रिने समयें कोई वृदनी नीचें विश्राम लेवा माटें रह्या. तिहां अमरसेन सूइरह्यो भने वय रसेन जागतो वेगे, हवे ते रदनी उपर सूडो सूडी बे , तेमां सूडी बोली जे आ रदनीचें बेग, तेनुं बालिथ्य करीये, तेवारें सूडो बोल्यो के हे सूडी ! यापणे तिर्यंच बैयें, माटे आपणाथी गुं उपकार थाय ! ते वारें सूडी बोली जो उद्यम करीयें तो सर्वसाध्य , अने जो तमें नद्यम करो, तो हुँ पण सानिध्य करूं ! तेने सूडे कह्यु के तुं कहे ते हुँ उद्यम करूं ! सूडी बोली के त्रिकूटपर्वत उपर एक सहकार , ते एक विद्याधरें मंत्रीने वाव्यो , तेमां एक फल एवं ले के तेनुं नदण करवाथी राज्य मले, अनें बीजुं फल.एवं ने के तेनुं नहाण करे, तेना मुखमाथी प्रतिदिन पांचशे पांचशे सोनामोरो पडे, माटें ते सहकारनां फल नावीने ए वे जणने आ पीयें तो परोणागत रूडी थाय. एम विमासी ते कीरयुग्म उडथु, ते त्रिकूट पर्वतें जई सहकारनां फल लेइ यावीने कुमरोने आप्यां. प्रनातें फल लर बेदु जण बागलं चाल्या, तेमां अमरसेनें दातए कीधां. पनी राज्य पदवी मलवानुं फल दीधुं. तेणें नहण कीg फलनो उपचार कह्यो. बीजुं फल बीजे दिक्सें दातण करी शूरसेने नदण कीधुं. तेवारें तेना मुख मांथी पांचों दिनारो पड़ी. ते धनथी आनंद पाम्या. पड़ी चालतां चालतां सातमे दिवसें कंचनपुरनगरें आव्या, तिहां नगरनी बाहेर वृदनी नीचें महोटा नाइने बेसाडी वयरसेन जोजन लेवा सारु नगरमां याव्यो, ते अवसरें ते नगरनो राजा अपुत्रीयो मरण पाम्यो बे, तेवारे सर्व लोकोयें पंचदिव्यनी अधिवासना कीधी, उद्यानमांहे पंचदिव्यथी अमरसेनने राज्य मन्यु. तेंने हाथी उपर बेसाडी नगरमांहे लाव्या. राज्यपाटें स्थाप्यो. पनी नाश्नी शोध करी पण किहां दीतो नहीं, अने वयरसेन नाइने राज्य मन्युं सांजलीने कोइ गणिकाने घेर जइ रह्यो. तिहां प्रति दिवस पांचशे सोनामोर मुखमांथी निकले, ते वेश्याने आपे, अने नि श्चिंतपणे वेश्यानी साथै विषयिक सुख जोगवे. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ___ एकदा ६ अक्कायें पोतानी पुत्रीने पूज्यु के ए तहारो.जर कोइ पण धंधो कस्या विना क्याथी इव्य ल आवे ? तेवारें वेश्यायें वयरसेनने पूयुं. वयरसेनें स्त्रीनो मर्म अजाणते, थके सर्व पोतानी साचे साची हकी गत कही. ते प्रमाणे वेश्यायें अक्कानी बागल कह्यु, तेव्रारें अक्कायें औ षध आपी वमन कराव्यु, तेमांथी गोटली काहाडी लीधी, प्रजातें वयर सेन दातण करी खोखारो करवा लाग्यो फण मुखमांथी सोनामोर पड़ी नही, पनी व्यहीन जागी अक्कायें घरमांथी बाहेर कहाढी मूक्यो, ते वारें चिंतातुर थको वनमा वृदनी नीचे जा वेगे. तिहां रात्रिने समयें चार चोरने पोतपोतामां वाद करता देखी कुमर पण चोरनी पे चोर थने तेनी साथे जइ मल्यो अने ते चोरने विवाद करवानो व्यतिकर पूब्यो, तेवारें चोर बोल्या के अमें बार वर्ष पर्यंत म होटो प्रयास करीने तेमां एक चांखडीनो जोडो, बीजो दंम, अने त्रीजी कंथा, ए त्रण वस्तु एक सिद्धपुरुष पासेंथी पाम्या बैये. ते. सांजली कुंमर वोव्यो के ए निर्जीव वस्तु माटें तमें आटलो क्वेश शा वास्ते करो बो ? एमां ने मुं? तेवारें चोर बोल्या के ए वस्तुमा महोटो प्रनाव जे, कारण के ते सि६ पुरुपें ब महिना पर्यंत देवता आराध्यो, त्यारे तेणे संतुष्ट थइने याकाशगामिनी विद्या माटे चांखडी दीधी, अने ए देम चे ते सर्व शस्त्रनो निवारण करनार ने, तथा त्रीजी कंथा जे ले, ते दिनदिन प्रत्ये पांचशे सो नामोरनी आपनारी , माटें ए त्रणे वस्तुनी अमने वहेंचण करी आप तो अमारो विवाद मटी जाय. तेने कुमरें कयुं के तमें दूर जश् बेसो. ढुं विचार करीने तमोने वहेंची आपुं. पनी कुमरें लब्ध लक्ष्मीनीपेरें कंथा पहेरी अने दंम हायमां धारण कयो. तथा चांखडी पगमां पहेरीने आकाशे नडी गयो. पाठलथी चोर विलखा थया थका अन्यत्र स्थानकें जता रहा. कुमर पण देशांतर जर पांच दिवसें पाडो तेहीज गाममां आव्यो, ति हां दररोज पांचसो सोनामोर तेने कंथा आपे, ते लइ वाटमां विलास करतो फरे. तेने गणिकायें दीठो, त्यारे तेनी पासें आवी पोतानो अपरा ध खमावी अक्कायें तेने पोताने घेर आण्यो. कुमर पण गणिकानो विश्वा स न करतो कंथाने कोई व्यवहारीयाने घेर मूकी पोते वेश्याने घरे रह्यो थको तेनी साथे विषय संबंधी सुख विलास जोगवे . Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २५७ एकदा वली.गणिकायें अक्काना कहेवाथी वयरसेन कुमरने पाऊकार्नु वृत्तांत पूयुं, तेनो कुमरे खरेखरो हारद कह्यो. तेणें जश्.अक्काने कह्यो. अक्का युक्ति करी वयरसेन प्रत्ये कहेवा लागी के हे वत्स ! ताहारा वियोग थी निरंतर महारी पुत्री मूळ पामती, तेवारें में समुश्मध्ये जे यदनुं देह , तेनी यात्रा करवानी प्रतिज्ञा कीधेली , पण तिहां जवाइ शकातुं नथी. ए महोटुं संकट . ते वात कुमरें सत्य मानीने अक्काने साथें ला चांखडी पहेरी यदना मंदिरें जर घर आग़ल चांखडी उतारी मांहे गयो. एटलामां पाबलथी चांखडी उपाडीने अक्का पोताने घेर जती रही. कुम र आवी जूवे , तो चांखडी अने अक्का वेदु दीठां नहीं. तेवारें अक्कार्नु कर्तव्य जाणी विलखो थयो. सर्व स्थलें अकाने जोइ पण क्यांही दीती नही. तेवारें कुमर त्यांज वेट उपर अटकी रह्यो. ' एवामां एक विद्याधर तिहां आव्यो. तेणें कुमरने पूब्यु के तुं क्याथी आव्यो बो ? कुमरें तेने सर्व वृत्तांत कडुं. विद्याधर वोल्यो के तुं चिंता म कर. ढुं तुऊने ताहरे स्थानकें पहोंचाडीश ! ज्यांसुधी हुँ यदनी यात्रा करि आवं, त्यांसुधी तुं हां रहेजे. अने था मोदक प्रमुख आपुं बुं, ते तुं नूख लागे तेवीरें खाजे. पण पेला वृदनी नीचे जइश नहीं ? एम कहि विद्या धर यदने देहरे गयो. पाउलथी कुमरें जश्ते वृदनुं फूल तोडी सूंघ्यु, एंटले तरतज ते गधेडो बनी गयो, जे महोटानुं कहुं न करे, ते दुःखी थाय. ___ पन्नर दिवसने अंतरें ते विद्याधर आव्यो, तेणे कुमरने गर्दनाकारें दीठो, तेवारें बीजा वृदनुं फूल सूंघाडीने फरी स्वानाविक जेवो हतो तेवो मनु ष्य कस्यो. कुमरे ते बेदु वृदनां फूल लइ पोतानी गांठें बांध्यां, पनी विद्याधरें तेने तिहाथी उपाडीने कांचनपुरें जश् मूक्यो. फरी,अक्कायें दीठो, तेवारें कहेवा लागी के हे स्वामी ! तमें केवी रीतें आव्या ? कुमरें कह्यु के हं देवताना प्रनावथी अहीं आव्यो वं. तेने वली पण अक्का कपट वच ने करी घेर तेडी यावी अने कहेवा लागी के हे स्वामी ! तमें देहरामांहे गया, एटलामा कोइएक देवतायें यावीने चांखडी सहित मुकने नपाडीने समुश्मां नाखी दीधी. हुं महोटा कष्टं मरती मरती घेर यावी . कुमर बोल्यो के महारी उपर यदें तुष्टमान थश्ने घणुं व्य मुझने आप्यु. तथा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. वली वे औषधियो पापी, तेमां एक औषधिना योगथी नवयौवनपणुं प्रा प्त थाय, ते सांजली अक्का बोली जो महारी ऊपर उपकार करी नवयौव नपणुं मने बकसो, तो मने सर्वनी उशीयाल, ताबेदारी टली जाय. तेने कुमरें तत्काल एक फूल सूंघाडयुं जेथी अक्का.तत्काल रासजी थ६ गई, तेनी उपर कुमर चढी वेठो अने हाथमां पूर्वोक्त दंम लइ ते रासनीने न गरमांहे सर्वत्र फेरववा लाग्यो. दमना. प्रहार, माथामां मारीने आकुल व्याकुल करी. ते जो सर्व गणिकाय एकत्र मनी राजा आगल जइ फरि याद करी.राजायें तरत कुमरने पकडवा माटें घणा शीपाश्यो मोकल्या, ते सर्वने दंझना योगथी कुमरें जीती लीधा, ते वात सेवकोयें जश्ने राजानी आगल कही, तेवारें राजायें पोतानुं सर्व सैन्य तेने पकडवा माटें मोकव्यु, तेने पण कुमरें जीती सीधुं. __ पड़ी राजायें अनुमानथी उलख्यो जे बा महारो नाइ ? तेवारें तेने जर पगें लाग्यो. ते जोइ सर्व लोकें जाण्यु जे या तो राजानो नाइले एम दीताथी सर्व हर्षवंत थया अने अक्काना कपटनी वात सर्व तेना मुखथी सांजली सदु कोइ कहेवा लाग्यां के था कूटणी अत्यंत लोन. करवा गइ तो रासनी थइ. पडी कुमरें गोटली तथा चांखडी प्रमुख जे कांई पोतानी वस्तु तेणे लीधेली हती, ते तेनी पासेंथी पानी लइ शिखामण आपी. रा सनी टाली दीधी अने स्वानाविक रूप करी दीg. कुमरोयें केटलाक काल पर्यंत.तिहांज राज जोगव्यु. पनी पितायें ते डावीने बेहु पुत्रोने जुदा जुदा देशोनां राज्य आप्यां, ते वेदुनाइये सला हसंपथी जोगव्यां. बेहु ना साथें रह्या, वृक्षावस्थायें ज्ञानीना उपदेशथी वैराग्य पामी दीक्षा लश् आयु पूरण थये मरण पामी देवलोकें गया ॥ इति दान पूजाविषय अमरसेन वीरसेन कथा संपूर्ण ॥७॥ हवे तपनो उपदेश करे जे. शार्दूलविक्रीडितरत्तत्रयम् ॥ यत्पूर्वार्जितकर्मशैलकुलिशं यत्कामदावानल, ज्वालाजालजलं यज्यकरणग्रामाहिम त्रादरम् ॥ यत्प्रत्यूहतमःसमूहदिवसं यल्लब्धिलदमील ता, मूलं तविविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्प्टदः॥॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २५ अर्थः-(वीतमष्टहः के०) गडे स्टहा जेने एवो बतो एटने नीयाणादिकें रहित बतो (तविविधं के०) तेनाना प्रकारनां (तपः के०) तपने (यथाविधि के०)शास्त्रोक्तविधियें करी (कुर्वीत के०.) करे. ते केहq तप ने ? तो के (यत्पूर्वा र्जितकर्मशैलकुलिशं के०) ने पूर्वन उपार्जन करेलां कर्मो तेज शैल जे पर्वत तेने विपे वजसमान . जेम पर्वतने जेदवामां बज बलवान होय , तेम जा गवं. अर्थात् कर्मरूप पर्वत तेने दवामां वजसमान ने वली (यत् के०) जे तप, (कामदावानलज्वालाजालजलं के) कामरूप जे दावानल तेनी ज्वाला नीजे जाल तेनोजेसमूह तेने विषे जल समान , तथा (यत् के०) जे तप, (उग्रकरणग्रामाहिमंत्रादरं के०) दारुण एवोजे इंडियसमूह तेरूप अहि जे सर्प तेने मंत्रादरसमान , तथा (यत् के०) जे तप,(प्रत्यूहतमःसमूहदिवसं के) विघ्नरूप जे अंधकारसमूह तेने विपे दिवस समान , तथा (यत् के०) जे तप, (लब्धिलक्ष्मीलतामूलं के) संपत् तेज लता तेना उत्पन्न थयेला मूलसमान , माटें ते तप सर्व जनोयें करवु ॥ १ ॥ टीकाः-अथ तपस उपदेशहारमाह ॥ यदिति ॥वीता गता स्टहा वांग यस्य स तीतस्टहः सन् वांडा निदानादिरहितः सन् तहिविधं तपः कुर्वी त कुर्यात् । तत् ि ? यत्तपः पूर्वे नवेऽर्जितानि उपार्डिलानि यानि कर्माणि तान्येव शैलाः पर्वतास्तेषु कुलिशं वजं । तेषां डेढ़कत्वात् । पुनर्यत्तपः कामएव दावानलो दवाग्निस्तस्य ज्वालानां जालः समूहस्तत्र जलं तिहिना शकत्वात् । पुनर्यत्तपः उयो दारुषो यः करणानां इंडियाणां ग्रामः समूहः सएवाहिः सर्पस्तस्य मंत्रादरं सर्पमंत्रस्य बीजं । पुनर्यत्तपः प्रत्यूहाएव विघ्नाएव तमसोऽधकारस्य समूहस्यं तत्र दिवसं दिनं । तन्नाशकत्वात् । पुनर्यत्तपोलब्धिलक्ष्मी संपदेव लता वल्ली तस्याः मूलं उत्पादनकंदं । तहि विधं नानाप्रकारं यथाविधि तपः कुर्वीत ॥ ७१ ॥ . नाषाकाव्यः-प्पयबंद ॥ जो पूरवरूत कर्म, पिंम गिरिदलन वजधर ॥ जो मनमथ दवज्वाल, माल संहरन मेघकर ॥ जो प्रचंम इंडिय नुयंग, थं जन सुमंत्र वर ॥ जो विनाव संतमस पुंज, खंमन प्रनातकर ॥ जो लब धि वेलि उपजत घन, तासु मूल दिढता सहित ॥ सो सुतप अंग बहु वि धि विध, करहिं विबुध वांडारहित ॥ ७१ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० । जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. वली पण तपनो महिमा कहे जे. यस्माधिनपरंपरा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते, कार्मः शाम्यति दाम्यतींख्यिगण कल्याणमुत्सर्पति॥नन्मी लंतिमद ईयःकलयतिध्वंसंचयः कर्मणाम्, स्वाधी नं त्रिदिवं शिवंचनजति श्लाघ्यं तपस्तन्न किम्॥२॥ अर्थः-(तत् के० ) ते (तपः के) तप, (किं के ) गुं ( श्लाघ्यं के०) वखाणवा योग्य, (न के०) नथी ? ना वखाणवा योग्य ज. केम श्लाघ्य के ? तो के (यस्मात् के०) जे तपथकी (विघ्नपरंपरा के०) कष्टोनी पंक्ति (विघटते के०) नाश पामे . तथा जे तपथकी (सुराः के०) देवता, (दास्यं के०) दासपणाने (कुर्वते के०) करे . वली जे तपथकी (कामः के०) काम (शाम्यति के०) शांति पामे बे. वली जे तपथकी (इंडियगणः के०) इंडि योनो गण, (दाम्यति के०) दमने प्राप्त थाय . वली जे तपथकी (कल्याणं के) कल्याण जे ,ते(नत्सर्पति के०) प्रसरे ले. वलीजे तप यकी (महर्षयः के०) तीर्थकरादिसंपत्तियो, (उन्मीलंति के) विकासने प्राप्त थाय ने. वली जे तपयकी (कर्मणां के०)झानावरणीयादिककर्मनो (चयः के० ) समूह (ध्वंसं के०) नाशने (कलयति के ) पामे . वली जे तपथकी, (त्रिदिवं के) स्वर्ग अने (नजति के०) मजे ले (च के०) वली ( शिवं के० ) मोक्ष (स्वा धीनं के ) स्वाधीन जेम होय तेम थाय ने. माटें ते तप वखावा लायक नथी झुं ? अर्थात् वखाणवा लायकज ॥ ७॥ ___टीकाः-तपःप्रनावमाह ॥ यस्मादिति ॥ तत्तपः किं श्लाघ्यं न प्रशस्यं न? अपि तु श्लाघ्यमेव त किं ? यस्मात्तपसो विघ्नपरंपरा कष्टश्रेणिर्विघटते विलयं याति। पुनः सुरादेवादास्यं दासत्वं कुर्वते । पुनर्यस्मात्कामः शाम्यति उपशमं याति । पुनः इंख्यिगणः पंचेंश्यिसमूहो दाम्यति दमं प्राप्नोति । पुन यस्मात्तपसः कल्याणं श्रेयनत्सर्पति प्रसरति । पुनर्यस्मान्महईयस्तीर्थक, रादिसंपदः नन्मीलंति विकसंति । पुनर्यस्मात् कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां चयः समूहो ध्वंसं नाशं कलयति प्रयाति । पुनर्यस्मात्तपसः त्रिदिवं स्वर्गःच पुनः शिवं मोदः स्वाधीनं स्वायत्तं स्यात्तत्तपः किं श्लाघ्यं न स्यात् ? ॥७॥ नापाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा॥जाके आदरतमहारिदिसों मिलापहोइ,म Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ सिंदूरप्रकरः दन अव्यापं होश,कर्म वन दाहियें ॥ विधन विनास दो गिरवान दास हो, ग्यानको प्रकास हो, नौं समुश् थाहियें ॥ देव पद खेल हो, मंगलसों मेल होइ, इंइिनकी जेल होइ, मोखपंथ गाहियें ॥ जाकी ऐसी महिमा, 'प्रगट कहै कौरपाल, तिहुँ लोक तिहुँ काल सो तप सराहियें ॥२॥ कांतारं न यथेतरोज्वलयितुं ददोदवाग्निं विना, दावाग्निं न यथेतर शमनितुं शक्तोविनांनोधरम् ॥ निष्णातः पवनं विना निरसितुंनान्योययांनोधरम्, कौघं तपसा विना किमपरं हर्तुं समर्थस्तथा ॥३॥ . अर्थः- (यथा के०) जेम (कांतारं के ) वनने ( ज्वलयितुं के० ) बालवाने (दवाग्निविना के०) दावाग्निविना (इतरः के० ) बीजो ( ददः के०') माह्यो (न के) नथी. वली.ते ( दावाग्निं के०) दावाग्निने (शम यितुं के० ) शमन करवाने ( अंनोधरंविना के०) मेघ विना (इतरः के०) बीजो ( शक्तः के० ) समर्थ ( न के० ) नथी. वली ( यथा के०) जेम ( अंनोधरं के ) मेघने ( निरसितुं के) टालवाने ( पवनविना के० ) पवनविना ( अन्यः के ) बीजो (न कें०) न ( निष्णातः के० ) नि पुण होय. (तथा के०) तेम ( कौघं के०) कर्मसमूहने (हर्तु के० ) बेद वाने ( तपसाविना के ) तपविना (अपरं के० ) बीजो ( किं के०) गुं (समर्थः के.) समर्थ होय ? ना होयज नहिं ॥ ३ ॥ . टीकाः-अन्यश्च ॥ कांतारमिति ॥ यथा कांतारं वनं ज्वलयितुं दावाग्निं विना इतरोऽन्यो ददोन। पुनर्यथा दावाग्निं शमयितुं विध्यापयितुंअंनोधरं मेघ विनाऽपरः शक्तो न समर्थो न । पुनर्यथांऽनोधरं मेघं निरसितुं.दरीकर्तुं पवनं विनाऽन्यो न निष्णातो न निपुणः। तथैव कौघं कर्मसमूहं हंतु उत्तुंतपसा वि नाऽन्यत्किं समर्थ? अपितु न किमपि । किंतु तप एव कर्माणि हर्तु समर्थः ७३ नाषाकाव्यः-सवैया तेश्सा॥ज्यौं वर कानन दाहनकों दव, पावकसो नहिं दूसरो दीसै ॥ ज्यौं दव आग बुजै न ततजन, जो न अखंमित मे घ वरीसै॥ ज्यौं प्रगटै नहिं जौं लगि मारुत, तौं लगि घोरघटा नहि खी से ॥ त्यौं घटमें तपवज विना दृढ, कर्म कुलाचल और न पीसै ॥७३॥ २१ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. वली पण तपनो महिमा कहे बे, स्त्रग्धरावृत्तम् ॥ ॥ संतोषस्थूलमूलः प्रशमपरिकरः स्कंधबंधप्रपंच, पंचातीरोध शाखः स्फुरदनयदलः (स्फुटविनयदलः) शीलसंपत्प्रवालः ॥ श्र दांनः पूरसेका विपुल कुल बलैश्वर्यसौंदर्य नोंगः, स्वर्गीदिप्राप्तिपुष्पः शिव सुखफलदः स्यात्तपः पादपोऽयम्॥८४॥ इति तपःप्रक्रमः ॥ १॥णा अर्थः- (यं के ० ) या ( तपः पादपः के० ) तपरूप जे वृक्ष, ते ( शिव सुखफलदः के० ) शिवसुखना फलने देनारो ( स्यात् के०) होय. ते केहवो तपः पादप छे ? तो के (संतोषस्थूलमूलः के० ) संतोष जे मूत्याग, तेज बे स्थूलमूल जेनुं एवो तथा ( प्रशमपरिकरः के० ) दमा तेज ने परिकर जे ने एवो तथा ( स्कंधबंधप्रपंचः के०) याचारादि जे श्रुतस्कंधरूप, तेनी बंध जे रचना ते रूप ने विस्तार जेनो एवो तथा (पंचातीरोधशाखः के० ) पंचें यिनो जे रोध ते रूप बे शाखा जेमां एवो तथा ( स्फुरदन्यदलः के० ) देदी प्यमान एवं जे अजयदान ते रूप बे पत्र जेमां एवो अथवा (स्फुट विनयदलः) वो पाठ होय तो स्फुट बे विनयरूप पत्र जेमां एवो तथा (शीलसंपत्प्रवालः ० ) ब्रह्मचर्यव्रतरूप प्रवाल एटले नवपल्लव जेमां एवो तथा (निःपूर सेकात के ० ) श्ररूपं जलनो जे पूर तेनुं जे सिंच तेथेकी (विपुल कुलबलैश्व सौंदर्योगः के० ) विस्तीर्ण एवां कुल, बल, ऐश्वर्य, ने सौंदर्य ते रूप बे जोग जेने एवो अथवा विपुलकुल बलैश्वर्य रूप जे विस्तार तेनो ने जोग मां व बे तथा (स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः के०) स्वर्गादि जे देवलोक, ग्रैवेयक, अनुत्तर विमान, तेनी जे प्राप्ति तेज बे पुष्प जेमां एवोजे तपोवृद्ध, ते शिवसुखफ लने या ॥ ८४ ॥ श्रहिं वसुदेवहरिकेशी बलनी कथानो दृष्टांत ग्रहण करवो. टीका:- पुनराह ॥ संतोषइति । अयं तपएव पादपो वृक्षः शिवसुखफ लदः स्यात् शिवसुखान्येव फलानि ददातीति मोक्षफलदाता स्यात् । किंनू तस्तपः पादपः ? संतोषोमूर्खात्यागएव स्थूलं पुष्टं मूलं यस्य सं । पुनः किंनूतः ? प्रशममा एव परिकरः परिवारो यस्य स । पुनः किंनूतः ? स्कंधा याचारां गादि श्रुतस्कंधास्तेषां बंधो रचना एवं प्रपंचो विस्तारो यस्य स । पुनः किं नूतः ? पंचानां ग्रहाणां इंद्रियाणां समाहारः पंचाही | पंचाक्ष्याः रोध एव शाखा यस्य स । पुनः किंभूतः ? स्फुरत् देदीप्यमानं अनयं अजयदानमेव Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूर प्रकरः १६३ दलत्वं यस्यं सं ! अथवा स्फुटविनयदलः स्फुटानि प्रकटानि विनयरूपाणि दलानि पत्राणि यस्य स । पुनः किंनूतः ? शीलसंपदेव ब्रह्मव्रतमेव प्रवाला नवपल्लवायस्य स । पुनः किंनूतः ? श्रद्धारुचिः सैवांजः पानीयं तस्याः पूरस्ते न सेकः सिंचनं तस्मात् विठला नि विस्तीर्णानि कुलवलेश्वर्य सौंदर्याएयेव नोगो यस्यंस । अथवा विपुलकुल बलैश्वर्यमेवं जोगी विस्तारोयस्य स । पुनः किंनू तः ? स्वर्गादीमां देवलोक ग्रैवेयकानुत्तर विमानानां प्राप्तिरेव पुष्पाणि यस्य स । ईदृशस्तपएव पादपोवृक्षः स शिवसुखमेव फलं ददाति ॥ ८४ ॥ त्र नंदिपेण वसुदेव हरिकेशी बलकथा || सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकी र्त्ति निः ॥ सुरिनिर्विहितायां तु तपसः प्रक्रमोऽजनि ॥ इति तपः प्रक्रमः ॥ १८९ ॥ भाषाकाव्यः - उप्पय छंद ॥ सुदिढ मूल संतोष, प्रसम गुन प्रबल पेढ ध्रुव ॥ पंचाचार सुसाख, सीन संपति प्रवाल दुव ॥ जय अंग दल पुंज, देव पद पुरुषं सुमंकित ॥ सुकृत जार विस्तार, जाव सिव सुफल अखंमित ॥ परतीति धार जल सिंचि किय, प्रति उतंग दिन दिन पुषित | जयवंत ज गत यह सुतप तरु, मुनि विहंग सेवहिं सुखित ॥ ८४ ॥ कथाः - तप उपर नंदीषेण मुनिनो दृष्टांत जाणवो. जेणें बार हजार वर्ष तपस्या करी अंत्यावस्थायें अपसण लइ पोतानुं दौर्भाग्य संचारी त पना प्रजावी यावते नवें स्त्रीवल्लन थानं ! एवं नीयाएं बांधी काल क देवलोकें गयो, तिहांथी च्यवीने समु विजयनो लघुना वसुदेव नामें थयो, तिहां गतजन्मना तपः प्रजावथी - १२००० स्त्रीनुं पाणिग्रहण करयुं. एवी रीतें तपना फलथी विशेष सुख जोगवी यावत् अंत्यावस्थायें सुन नावमा रही काल करी देवलोकें पहोतो, माटें सर्व नव्यजीवें श्रीनंदीपे एनी पेठें कुमा सहित तप कर ॥ इति तपचपरि नंदिषेणमुनिकथा ॥ ८४ ॥ हवे गुननावनो उपदेश करे बे. शार्दूलविक्रीडितवृत्त६यम् ॥ नीरागे तरुणीकटाचितमिव त्यागव्यपेतप्रनौ, सेवाकष्टमिवोपरोपण मित्रांनोजन्मनाम इमनि॥ विष्वग्वर्षमिवोपरदितितले दानादर्चातपः, स्वा ध्यायाध्ययनादि निःफलमनुष्ठानं विना जावनाम् ॥ ८५ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. अर्थ : - ( जावनां विना के० ) एक गुननावनाविना ( दानादच के० ) सुपात्र दान, जिनपूजन, अने (तपःस्वाध्यायाध्ययनादि के०) तर्प, स्वाध्या यनुं अध्ययन तेज ने यादिमां जेने एवं ( अनुष्ठानं के० ) अनुष्ठान ते सर्व (निः फलं के० ) निष्फल थाय बे. केनी पेठें ? तो के (नीरागे के० ) रागरहित एवा पुरुषने विषे ( तरुणी कंटाकितमिव के०) युवतीकटा विदे पज जेम, एटले नीरागी पुरुषने जेम स्त्रीना कटानो विदेप व्यर्थ थायले. तेम चाहिं पण जावं. वली केनी पेठें ? तो के (त्यागव्यपेतप्रनौ के०) दान स्वामी (सेवाकष्टंव के०) सेवाकष्ट जे बे तेज जेम. एटले दान नापनार पुरुषनी पासें सेवाकष्ट ते जेम व्यर्थ थाय बे, तेम जाणवुं. वली केनी पेठें ? तो के (श्मनि के ० ) पाषाणने विषे ( अंनो जन्मनां के०) कमलोनुं (उपरोपणमिव के ० ) वावकुंज जेम. वली केनी पैठें तोके (उपर चितितजे के ० ) दामिने विषे अथवा पर्वतने विषे (विष्वग्वर्षमिव के ० ) चोतरफ मेघनीवृष्टि ज जेम. एटले कारनूमिने विषे अथवा पर्वतने विषे चारे तरफ पडनारों मेघ जेम निःफल याय तेम जावना विना सर्व अनुष्ठान निष्फल थाय ॥ ८५ ॥ टीका:- नावोपदेशमाह ॥ नीरागे इति ॥ जावनां गुननावं विना दानाह दर्चा तपः स्वाध्यायाध्ययनादि सर्व्वं अनुष्ठानं क्रियाकरणं निःफलं स्यात् । दानं च दर्जा देवं जिन पूजा चं तपश्च स्वाध्यायश्च तै याद यस्य तत्दा नजिनपूजातपः सिद्धांतपतनादिकं जावं विना निःफलं । किमिव ? नीरा गे पुरुष तरुणी कटाचितमिव युवलीकटा विक्षेपणमिव । यथा नीरागे तरुणी कटाक्षा निःफलाः । पुनः किमिव ? त्यागव्यपेतप्रनौ । दानरहिते कृप ऐ स्वामिनि सेवाकष्टं व दातरि स्वामिनि सेवाकष्टं निःफलं । पुनः किमिव ? अश्मनि पाषाणे यानोजन्मनां कमलानां उपरोपणं वापनं ३ व । यथा पाषाणोपरि कमलवापनं निःफलं । पुनः किमिव ? नंबर क्षिति तजे उपरभूमौ विष्वग्वर्षमिव यथोपरनूमौ पर्व्वते मेघवर्षणं निःफलं ॥ तथा गुननावनां विना सर्वा क्रिया निःफला ॥ ८५ ॥ जापाकाव्यः - ज्यौं नीराग पुरुषके सन्मुख, पुरकामिनि कटाउ करि क वी ॥ ज्यौं धन त्याग रहित प्रभु सेवत, ऊसर में वरिषा जिम वूठी || ज्यों शिलमांहि कमलको बोवन, पवन पकरि ज्यौं बंधिय मूठि ॥ ए कर तूति दोइ जिम निःफल, त्यों बिनु जाव क्रिया सब झूठी ॥ ८५ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २६५ वली पण शुजनावोपदेश करे ले. सर्व झीप्सति पुण्यमीप्सति दया धित्सत्यघं मित्सति, क्रोधं दित्सति दानशीलतंपसां साफल्यमादित्सति॥ कल्याणोपचयं चिकीर्षति नवांनोधेस्तटं लिप्सते, मुक्तिस्त्री परिरिप्सते यदि जनस्तभावयेनावनाम् ॥६॥ अर्थः-( यदि के ) जो ( जनः के०) मनुष्य, (सर्व के०) सर्व वस्तु ने (झीप्सति के०) जाणवाने जे जे, जो वली ( पुण्यं के ) धर्मने (ई प्सति के०) श्वे , जो वली (दयां के०) दयाने (धित्सति के ) धारण करवाने जे ने, जो वली (अघं के० ) पापने ( मित्सति के ) मानवाने के डे, जो वली ( क्रोधं के० ) कोधने ( दित्सति के० ) खंम न करवाने के डे, जो वली ( दानशीलतपसां के०) दान, शील, तपना ( साफल्यं के०) साफल्यने (आदित्सति के०) ग्रहण करवाने ले ले, जो वली (.कल्याणोपचयं के०) कल्याणसमूहने ( चिकीर्षति के०) कर वाने श्छे , जो वली (नवांनोधेस्तटं के०) नव जे संसार ते रूप जे स मुश् तेना तटने (लिप्सते के०) पामवाने , जो वली (मुक्तिस्त्री के०) मुक्तिरूप स्त्रीने (परिरिप्सते के०) आलिंगन करवाने के डे (तत् के०) तो (नावनां के०) गुननावनाने (नावयेत् के० ) नावना करे ॥६॥ टीकाः-पुनराह ॥ सर्वेति ॥ यदि जनो लोकः सर्व वस्तु झीप्सति झातुं इति । पुनर्यदि जनः पुण्यं धर्म ईप्सति वांबति । पुनर्यदि जनोद यां कृपां धित्सति धर्तुमिबति । पुनर्यदि अघं पापं मित्सति मातुं श्नति।पु नर्यदि क्रोधं दित्सति खंमितुं वति। पुनर्यदि दानशीलतपसां साफल्यं स फलत्वं आदित्सति गृहीतुमिहति । पुनर्यदि कल्याणोपचयं कुशलं वृद्धि चि कीर्षति कर्तुमिहति । पुनर्यदि जवांनोधेः संसारसमुश्स्य तटं पारं लिप्स ते लब्धं मिनति। पुनर्यदिमुक्तिस्त्री सिदिरमणी परिरिप्सते आलिंगितुं श्व ति जनस्तदा नावनां गुननावं जावयेत् कुर्यादित्यर्थः ॥ ७६ ॥ नाषाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥ पूरव करम दहै, सरवज्ञ पद लहै, गहै पुस्यपंथ फिरि पापमें न आवनां ॥ करुनाकी कला जागै, कठिन कषा Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनकथा रत्नकोष भाग पहेलो. > य जागे, लागे दान सील तप सफल सुहावनां ॥ पावै नवसिंधु तट खोजै मोख द्वारपट, सम साधि धर्मकी धरा में करै धावनां ॥ एते सब काज करे खकों गधरे, चेली चिदानंदकी अकेली एक जावना ॥ ८६ ॥ 'वली फरीने पण कांइक विशेष कहे वे पृथ्वीवृत्तम्॥ विवेकवनसारिणीं प्रशमशर्मसंजीवि नीम, नवार्णवमहातरी मदनदावमेघावली ॥ चलाक्षमृगवागुरां गुरुकपायशैलाश निम् विमु क्तिपथवेसरी नजत जावनां किं परैः ॥ ८ ॥ अर्थः- हे नव्यजनो ! ( जावनां के० ) गुननावनाने ( नजत के सेवन करो ( परैः के० ) बीजा कष्टानुष्ठानोयें करी ( किं के० ) शुं ? काहीं जनहिं. अर्थात् शुनाव रहित अनुष्ठाभो करवाथी गुं ? कांहीज नहिं. ए जावना केहवी ने ? तो के ( विवेकवनसारिणीं के० ) कृत्याकृत्यविचार रूप जे वन ते वनजां कुंव्या रूप, तथा वली ( प्रशमशर्मसंजीविनीं के० ) उपराम सुखने जीवन करनारी तथा ( नवार्णवं महातरी के० ) संसार समुने विषे महोटा नावसमान, तथा ( मदनदावमेघावली के० ). काम देव रूप जे वनानि तेने विषे मेघसमान, तथा ( चलादमृगवागुरां के० ) चंचल एवी जे इंडियो ते रूप जे मृग तेने विषे मृगजालपाशबंधनरूप, तथा ( गुरुकषायशैलाशनिं के० ) महोटा चार कषायरूप जे पर्वत तेने विषे वज्रसमान, तथा ( विमुक्तिपथवेसरी के ० . ) मुक्तिमार्ग ने विपे नार वाहकत्वें अर्थात् रस्तामां जातां नारवाह्न करनारी खच्चर घोडी समान बे, माटें हे नव्यजनो ! एवी गुननावनाने तमें करो ॥ ८७ ॥ フ टीका:- पुनर्विशेषमाह । विवेकेति ॥ जो नव्याः ! जावनां गुजपरिणाम रूपां जजत सेंवध्वं । परैः अन्यैः कष्टानुष्ठानैः गुननावनारहितैः किं ? न किं चिदित्यर्थः । कथंभूतां नावनां ? विवेकः कृत्याकृत्यविचारएव वनं तत्र सारिणीः कुव्याः तां । पुनः प्रशमशर्मणः उपशमसुखस्य संजिविनीं जीव नकर्त्री । पुनः जवएव संसार एव अर्णवः समुस्तत्र महातरी माहा नावां । पुनः किंनूतां ? मदनएव दावो दावाग्रिस्तत्र मेघस्यावली लिं । पुनः किंनूतां ? चलानि चंचलानि यानि अाणि इंडियायेव मृगा हरिया Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २६७ स्तेषु वागुरां मृगजालपाशबंधनरूपां । पुनः कीदृशी ? गुरुर्गरिष्ठश्चतुःकषा यरूपएवं शैलःपर्वतः तत्र अशनि वजं । पुनः किंनूतां? विमुक्तेः सिः पंथा स्तत्र वेसरी अश्वतरीतनारवाहकां। तस्मानुजनावनामेव कुर्वतु॥७॥ नाषाकाव्यः-वृत्त ऊपर प्रमाणे ॥प्रसमके पोषवेकों; अमृतकी धारासम, झानवन सींचवेकों नारी नीर जरी है ॥ चंचल करन मृग बंधवेकों वागु रा सी, काम दावानल.नासिधेकों मेघऊरी है ॥ प्रबल कपाय गिरि नंजवे कों वजगदा, नौसमुश् तरवेंकों पोढी महातरी है ॥ मोखपंथ गाहिवेकों वेसरी बिलायतकी, ऐसी शुधनावना अबंध ढार ढरी है ॥ ७ ॥ वली पण कहे . शिखरिणीटत्तम् ॥ घनं दत्तं वित्तं जिनवचनमव्यस्तमखिल म्, क्रियाकांमं चं रचितमयनौ सुप्तमसकृत् ॥ तपस्तीवंत तं चरणमपि चीर्ण चिरतरम्, नच्चित्ते नावस्तुषवपनव त्सर्वमफलम् ॥ ७ ॥ इति नावनाप्रक्रमः ॥ २० ॥ अर्थः-(घनं के०) घj (वित्तं के०) इवा, (दत्तं के०) पात्रजनने दी ,तथा (अखिलं के०) समय (जिनवचनं के०) जिनागमरूप शास्त्र (अन्यस्तं के०) जण्यु, तथा (चं के) नयंकर एवं (क्रियाकांमं के०).क्रियाकांम ते लोचा दि (रचितं के०) कयुं. तथा (असकृत् के०) वारंवार (अवनौ के.) पृथ्वी ने विपे ( सुप्तं के०) शयन कयुं तथा ( तीव्र के०) तीव्र एवं (तपः के०) बार प्रकारनुं जेतप तेने (तप्तं के०.) तप्यु, तथा (चरणमपि के०) चारित्र पण (चिरतरं के०) घणाककालपर्यंत (चीर्ण के०) सेवन कयु. परंतु (चि ते के०) चित्तने विषे (जावः के०) शुननाव, (नचेत् के०) जो न होय तो (सर्व के०) पूर्वोक्त सर्व (तुषवपनवत् के०) तुष जे फोतरां तेने स्वांमवानी पेठे (अफल के) निष्फल जाणवू ॥७॥ अहिं जावना नाववा विषे मरुदेवी माता, जरत महाराज, एलायचीपुत्र तथा प्रसन्नचंराजर्षि, तेनी कथा नो दृष्टांत लेवो ॥ ते कथा सर्व प्रसिदले ॥ इति नावनाप्रक्रमः ॥२०॥ . टीकाः-पुनराह ॥ घनमिति ॥ घनं प्रचुरं वित्तं धनं पात्रेन्योदत्तं पुनर खिलं समस्तं जिनवचनं जिनागमरूपं अन्यस्तं पतितं । पुनश्चमं नीमं क्रियाकांमं लोचादि रचितं कृतं । पुनरवनौ नूमौ असरहारं सुतं शयनं क Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. तं । पुनस्ती कुकरं तपस्तप्तं तपः कृतं । पुनश्चरणं चारित्रं चिरतरं बदुकालं चीर्ण सेवितं । परं चेद्यदि चित्तें नावो न । शुननावना नास्ति । तदा तुषव पनवत् सर्व पूर्वोक्तं विफलं स्यात् ॥ ॥ अत्र मरुदेवीनरतएलायचीपुत्र प्रसन्नचंाजर्षीणां कथाः॥ सिंदूरप्रकरारख्यस्य व्याख्यायां. हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायांतु, नावनाप्रक्रमोऽजनि ॥इति नावनाप्रक्रमः॥२०॥ नापाकाव्यः-आनानकचंद ॥ गहि पुनीत आचार, जिनागम जोव नां ॥ करि तप संयम दान, जूमिका सोवनां ॥ ए करनी सब विफल, होहि विनु नावना ॥ ज्यों तुस बोए हाथ, कलू नहिं आवनां ॥ ७ ॥ . कथाः-इहां नाव उपर इलायचीपुत्रनी कथा जाणवी. जे नटवी उपर मोह्यो थको नाटकीयापणुं अंगीकार करी पनी राजाने रीजववा माटें वांसना अपनागें नाचतां साधुना दर्शनथी नावना नावतो वांसनी उपर रह्यो थको केवलज्ञान पाम्यो बे, इत्यादि कथा प्रसिह बे. माटें नाव विना सर्व अनुष्ठान व्यर्थ जाणयुं ॥ उक्तं च ॥धनं दत्तं वित्तं जिनवचन मन्यस्तमखिलं क्रियाकांमं च रचितमवनौ सुप्तमसळत् ॥ तपस्तीनं तप्तं चरणमपि चीर्ण चिरतरं, न चेचित्ते नावस्तुषवपनवत् सर्वमफलम् ॥ हवे वैनग्यने कहे . हरिणीदत्तम् ॥ यदशुनरजःपायोदृप्तेंख्यिधिरदांकु 'शम्, कुशलकुसुमोद्यानं माद्यन्मनःकपिशृंखला॥ विरतिरमणीलीलावेश्म स्मरंज्वरनेषजम्, शिवपथ रथस्तवैराग्यं विमृश्य नवाज्नयः (नवाऽनवः) अर्थः-हे मुनि ! (तत् के० ) ते ( वैराग्यं के० ) वैराग्यने ( विमृश्य के०) विचारीने (अनयः के०) संसार जयरहित (नव के० ) था. ते कयो वैराग्य ? तो के ( यत् के० ) जे वैराग्य (अशुनरजः के० ) पाप रूप जे रज तेनेविषे (पाथः के०) जलरूप . तथा (दृप्तेश्यिधिरदांकु शं के० ) मदोन्मत्त एवी जे इंडियो ते रूप जे हाथायो, तेमने विषे अंकु श समान बे. वली (कुशलकुसुमोद्यानं के०) कुशलतारूप जे फूल तेमनो उद्यान एटले वनरूप ले. वली ते वैराग्य ( माद्यन्मनःकपिशृंखलां के०) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २६ए मदोन्मत्त एवं जे मन ते रूप जे वांदर, तेने बांधवामां सांकल समान . वली (विरतिरमणीलीलावेश्म के०) देशविरति सर्वविरतिरूप जे स्त्री तेमने क्रीडा करवानुं गृह . वली (स्मरज्वरभेषजं के०) कामदेवरूप जे ताव तेने यौषधसमान दे. वजी (शियपथरथः के०) मोदमार्गने विपें रथ समान ने. माटें ते वैराग्यने विचारीने संसारनय रहित था. अने जो ( जवानवः ) एवो पाठ होय तो नव एटले संसार ते रहित था. एम जाणवू ॥ ७ ॥ टीकाः-अथ वैराग्यमाह ॥नो मुने ! तरैराग्यं विमृश्य चिंतयित्वाऽजयः संसाररहितोनव तकिं ? यत् वैराग्यं अशुनं पापमेव रजोधूलिस्तत्र पायो जलं। तउपशामकत्वात्। पुनढतानि इंडियाण्येव हिरदा गजास्तेषां अंकुशमि वांकुशं वश्यकरं। पुनः किंजूतं? कुशलमेव कुसुमानि तेषां उद्यानं पुष्पारामं । पुनर्यत् वैराग्यं माद्यन्मदोन्मत्तो यो मनःकपिर्वानरस्तस्य शृंखलां निगड बंधनं । पुनर्यत् विरतिरमणीलोलावेश्म देश विरतिसविरतिरेव स्त्रीः त स्याः क्रीडागृहं। पुनर्यत् स्मरएव ज्वरस्तस्यौपधं कामज्वरौपधं । पुनर्यत् शिवपथरथः मोक्षमार्गे रथसमानः । तखैराग्यं विमृश्य विचार्य अनयः सं सारजयरहितोनव जवानवति पाते नवरहितोनव ॥ ५ ॥ जाषांकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥ अशुनता धुलि हरवेकों नीरपुर स म, विमल विरति कुलवधुको सोहाग है ॥ उदित मदनज्वर नाशवेकों ज्वरांकुश, अगजननकों अंकुशको दाग है ॥ चंचल कुमन कपि रो कवेकों लोहफंद, कुसल कुसुम उपजायवेकों बाग है ॥ सूधो मोख मार ग चलायवेको नामी रथ, ऐसों हितकर नवनंजन विराग है ॥ ए ॥ वली पण वैराग्यज कहे जे. वसंततिलकाटत्तम् ॥ चंमानिलस्फुरितमब्दचयं दवार्चि, .. दवज तिमिरमंमलमर्कबिंबम् ॥ वजं महीधनिवदं नय ते यथांतम्, वैराग्यमेकमपि कर्म तथा समग्रम् ॥ ॥ अर्थः-(यथा के०) जेम (चंमानिल के०) प्रचं एवो अनिल जे वायु तेनुं (स्फुरितं के०) स्फुरण एटले चालवं ते (अब्दचयं के) मेघघटाने (अंतं के) अंतप्रत्ये (नयते के०) पमाडे जे. वली जेम (दवार्चिः के०) दावामिनी ज्वाला, (पदव के०) वृदना समूहने नाश पमाडे जे. वली जेम ( अर्क Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. बिंब के०) सूर्यबिंब (तिमिरमंमलं के०) अंधकारना ममलने नाश पमाडे जे. वली जेम (वजं के०) वज (मंहीध्रनिवहं के) पर्वतसमूहने नाश पमाडे जे. ( तथा के० ) तेम ( समयं के०) समग्र एवं (कर्म के ) कर्म तेने (एकमपि के०) एक एवं पण (वैराग्यं के०) वैराग्य ने ले ते नाश पमाडे ले ए ___टीकाः-पुनराह ॥ चंमानिलेति ॥ यथा चंझानिलस्फुरितं प्रचंमवायुस्फू र्जितं अब्दचयं मेघघटां अंतं विनाशं नयते प्रापयति। पुनर्यथा दावार्चिवा मिक्समूहं अंतं प्रापयति पुनर्यथा अर्कबिंब सूर्यबिंब तिमिरमंमलं अंधकार समूहं अंतं नयते। पुनर्यथा वजं इंशयुधं महीध्र निवहं पर्वतसमूहं अंतं विना शं नयते प्रापयति । तथा एकमपि वैराग्यमेव समयं कर्म अंतं नयते॥॥ जापाकाव्यः-श्रानानकचंद ॥ ज्यों समीर गंजीर, घनाघन बय करै ॥ वज विनासै शिखर, दिवाकर तम हरै॥ ज्यौं दव पावक पूर, दहै वनकुंज कों ॥ त्यौं नंजै वैराग्य कर्मके पुंजकों ॥ ए० ॥ वली पण कहे . शिखरिणीटतम् ॥ नमस्या देवानां चरणवरिवस्या शुनगुरो, स्तपस्या निःसीमक्रमपदमुपास्या गुणव ताम्॥निषद्याऽरण्ये स्यात् करणदमविद्या च शिव दा, विरागः क्रूरागः दपणनिपुणोंऽतः स्फुरति चेत् ।' अर्थ:-( चेत् के०) जो (अंतः के) हृदयने विपे ( विरागः के) वैराग्य, (स्फुरति के०) स्फुरे , तोज.(देवानां के०) अरिहंतादि देव तेने करेलो ( नमस्या के०) नमस्कार ते पण ( शिवदा के० ) मोद देनारो (स्यात् के०) थाय. तथा ( गुनगुरोः के०) सारा गुरुनी (चरणवरिव स्या के० ) चरणसेवा ते पण त्यारेंज मोददायी थाय, तथा (निःसीमक मपदं के०) अत्यंत श्रम, स्थानक एवं (तपस्या के०) तप पण त्या रेंज मोददायी थाय . तथा ( गुणवतां के०) ज्ञानादिक गुणें करी युक्त एवा जननी (उपास्या के०) सेवा ते पण त्यारेंज मोद देना। थाय. तथा (अरण्ये के० ) वनने विषे (निषद्या के०) स्थिति एटले रहे ते पण त्यारेंज मोद देनारी थाय. (च के० ) तथा ( करणदमविद्या के०) प्रियदमननी विद्या पण त्यारेंज मोददायक थाय. अर्थात् ज्यारे हृदयने Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १७१ विषे वैराग्य उत्पन्न थाय, त्यारेंज पूर्वोक्त सर्ववानां थाय. ते वैराग्य केहे वो ? 'तो के (क्रूरागःपणनिपुणः के) क्रूर एवो जे अपराध तेने पण एटले टालवामां निपुण जे काही एटले ॥ १ ॥ टीकाः-पुनराह ॥ नमस्येति ॥ चेद्यदि अंतश्चित्ते विरांगो वैराग्यमेव स्फुरति वर्त्तते तदा देवानां नमस्या नमस्करणं शिवदा मोक्षदायिनी मोद दायकी स्यात् । पुनः शुनगुरोश्वरणवरिवस्या चरणयोः सेवा तदा शिवदा स्यात् । पुनरत्यंतश्रमपदं ईदृशी तपस्या तपस्तदैव शिवदा स्यात् । पुनः गुणवतां ज्ञानादिगुणयुक्तानां उपास्या सेवापि तदैव शिवदा स्यात् । पुनर रएये वने निषद्या स्थितिस्तदैव शिवदा स्यात् । पुनः करणदमविद्या इंडि यदमन विधिरपि तदैव शिवदः स्यात् । यदि अंतर्मध्ये वैराग्यं नवति । कथंनूतो विरागः? क्रूरागःपणनिपुणः क्रूरं घोरं आगोऽपराधस्तस्य पणे रूपणकरणे निपुणश्चतुरः॥ १ ॥ नापाकाव्यः-कवित्त मात्रा० ॥ कीनी तिने सु देवकी पूजा, तिन गुरु चरन कमल मन लायो । सो वनवास वस्यो निसिवासर, तिन गुनवंत पुरुष गुन गायो ॥ तिन तप लियो कियो इंडिय दम, सो पूरन विद्या पढि आयो ॥ सब अपराध गए ताकों तजि, जिन वैराग रूप धन पायो ॥१॥ - वली विरक्तगुणो कहे . . शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ नोगान् कृष्णनुजंगनोग विषमान् राज्यं रजःसन्निनम्, 'बंधून् बंधनिबंधनानि विप यग्रामं विषान्नोपमम् ॥ नतिं तिसहोदरांतृणमिव स्त्रैणं विदित्वा त्यज, न्स्तेष्वासक्तिमनाविलोविलनते मुक्तिं विरक्तः पुमान् ॥ ए॥इति वैराग्यप्रक्रमः ॥.२१ ॥ अर्थः-(विरक्तः के०) वैराग्ययुक्त एवो (पुमान् के०) पुरुष, (मुक्तिं के०) मुक्तिने (विलनते के०) प्राप्त थाय . गुं करीने प्राप्त थाय ? तो के (नोगान के) शब्दादिक नोगोने (कृष्णनुजंगमोगविषमान के०) कृष्ण सर्पना देह समान विषम एवाने (विदित्वा के०) जाणीने तथा (राज्यं के०) आधिपत्यने राज्यने ( रजःसंनिनं के०) धूलिसमान जाणीने तथा (बंधून के० ) स्वजनने (बंधनिबंधनानि के०) बंधनना कारणरूप जाणीने Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. तथा (विषयग्रामं के) विषयसमूहने (विषानोपमं केय) विषमिश्रित अन्न समान जाणीने तथा (नंतिं के) दिने ( जूतिसहोदरी के०) विनूतिनी बेहन एटले जस्मनी संदृश.जाणीने तथा ( स्त्रैणं के ) स्त्रीस मूहने (तृणमिव के०) तृण जेम होय तेम जीतीने मुक्तिने पामे दे. हवे ते पुरुष केहवो ? तो के (तेषु के) ते पूर्वोक्त पदार्थोने विपे (आसक्तिं के०) आसक्तिने (त्यजन के०) त्याग करतो एवो ले. वली केहवो ने ते पुरुप? तो के (अनाविलः के० ) रागपादिकें करी अनाकुल बे. एटले स्वच ॥ ए ॥ इति वैराग्यप्रक्रमः ॥ २१ ॥ . दीकाः-विरक्तगुणानाह ॥ नोगानिति ॥ विरक्तो वैराग्ययुक्तः पुमान मुक्तिं विलनते सिदि प्राप्नोति । किं कृत्वा? जोगान् शब्दादीन कृष्णश्चासौ लुजंगः सर्पस्तस्य जोगः शरीरं तत् विपमान नीमान् विदित्वा झात्वा। तेषु आसक्तिं अत्यनिलाषं त्यजन । पुनः राज्यं आधिपत्यं रजःसन्निनं धूलिसदृशं मत्वा त्यजन् । पुनर्बधून स्वजनान् कर्मबंधस्य निबंधनानिकार गानि मत्वा पुनर्विपयग्रामं विषयसमूहं विपानोपमं विपमिश्रितान्नसमं मत्वा । पुनतिं शादि नूतिसहोदरां जस्मनगिनीं रहासदृशीं मत्वा । पुनः स्त्रैणं स्त्रीणां समूहं तृणमिव तृणसदृशं विदित्वा तेषु आसक्ति अत्यानि लापं त्यजन् । कथंनूतो विरक्तः पुमान् ? अनाविलः रागहषायनाकुलः॥ए॥ । नाषाकाव्यः-सवैया इंकंतीसा ॥ जाकों जोगनाव दिसै कारे नागकेसी फन, राजको समाज दीसे जैसै रजकोष है ॥ जाको परिवारकों बढाउ घेरा बंध सके, विषै सुखसोंजकों विचारे विषपोप है ॥ लिस्वै यौं विनति ज्यौं नसमकों विजूति कहै, वनिता विलासमें विलोके दिढ दोप है। ऐसो जानि त्यागै यह महिमा वैराग ताकी, ताहीकों वैराग सही ताके ढिग मोख है। ए॥ ___ कथाः-हवे वैराग्य उपर कथा कहे जे. कांचनपुरनगरें विक्रमसेन राजा जे, तेनी पांचशे राणी ने, तेहज नगरमां एक नागदत्त नामें शेत वसे ले. तेने विष्णु नामें नार्या महास्वरूपवती बे. तेने एकदा गोखमां बेग थकां राजायें दीठी, तेवारें सेवको मोकली बोलावी लश्ने बलात्कारें अंतेनरमां मोकली दीधी. नागदत्तशेनें अनेक उपाय कस्या, पण को रीतें राजा तेनी स्त्रीने मूके नही. तेवारें नागदत्त स्त्रीथी विव्हल थयो थको वनमांजतो रह्यो. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १७३ हवे राजा पण ते स्त्री उपर मोह्यो थको वीजी सर्व स्त्रीयोने तृणप्राय जाणवा लाग्यो. पांचशे स्त्रीयो सर्व एमज वेसी रही, तेवारे ते स्त्रीयोयें कामण टुमणादिक प्रयोगथी विष्णु राणीने मारी नारखी. तेने मरण पामेली देखीने राजा तेने पगे वलगी रह्यो, पण मोहंदशाथी जूदो न थाय. तेनो पग मके नही. पनीको प्रपंचथी प्रधान ते राणीने अग्निसंस्कार करवाला गयो. पण जेवारें अमितीरें मूकी, तेवारें राजा राणीने अणदेखतो थको प्रधान प्रत्ये कहेवा लाग्यो के महारी वलनाने लाव. प्रधान पण राजाने तिहां लइ जश्ने राणीनुं कलेवर देखाडयुं. ते जो राजा मनमां वैराग्य पाम्यो अने विचायुं जे आ राणीना शरीरमा अत्यंत सुरनिगंध हतो, ते पुरनिगंध थयो ! तथा मुखकमल चंमा जेतुं हतुं ते शोपाश्ने नहिं तेवु थयुं ! अने नेत्र, बांदु, गलस्थल, इत्यादि अंग पूर्वं जे हता, ते सर्व बगडी गयां ! इत्यादि स्वरूप सर्व अनित्य आणी राणीने अमिसंस्कार करी दीक्षा लश्.उग्र तप तपीने त्रीजे देवलोकें देवता थयो.. तिहाथी चवी रत्नपुर नगरें जिनधर्मा नामें शेत थयो अने पूर्वलो नागदत्तशेत ते एक ब्राह्मणने घेर पुत्रपणे उपनो, तेनुं नाम अनिशर्मा पाड्यु, ते वृक्षावस्थायें संसार त्यागी त्रिदंकी तापस थयो, बे वे मासे पार| करे, ते अनेक देश भ्रमण करीने शिष्योना परिवार सहित एकदा प्र स्तावें फरी रत्नपुर नगरें आव्यो, तेने राजायें अत्याग्रह पूर्वक पारणुं करा ववा माटें निमंत्रणा करी, तेवारें तापसें पूर्वजन्मना वेरथी राजांने कह्यु के जो जिनधर्मी शेठ पोतानी पीठ उपर जोजन करावे, तो ढुं पारणुं करूं? एवी महारी बा . राजायें ते वात कबूल करी जिनधर्मीश्रेष्ठीने तेडी तेनी पुंठ मंमावी. तेनी नपर तापस चढी बेगो. अने त्रांबानुं नाजन पर मानथी नरी लाव्या, ते पण शेवनी पीठ उपर राव्यु. तापस जमवा बेगे पनी ऊष्ण अन्नना योगें शेठनो वांसो तप्यो, अने महावेदना थवा मांमी. तेवारें शेठे मनमां चिंतव्युं जे में जन्मांतरें ए रुपिने संताप्यो हशे, तेथी ए हमणां मने संताप करे , माटें कीधेलां कर्म नोगव्या विना कां बूटे नही ! हवे तापस जमी रह्या पडी नाजन उपाडयुं तो शेठना वांसा नी खाल नीकली पडी, महावेदनाक्रांत थ पोताने घेर अावी सर्व जीवा योनि खमावी अनशन व्रत लइ मरण पामी सौधर्मे थयो. अने त्रिदं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो.. मीयो मरण पामी तेज इनो ऐरावत हाथी थयो. ते हाथी मरण पामी घणो संसार परिचमणकरी सीताह नामें गुह्यक थयो. अने सौध मैं पण तिहाथी चवी हस्तिनागपुरें अश्वसेन राजाने घरे पुत्र पणे कप नो. मातायें चौद सुपन दी. जन्म्या पंढी सनत्कुमार नाम दीधुं. ते बी जना चश्मानी पेरें वधतो अनुक्रमें यौवनावस्था पाम्यो. अत्यंत रूपवा न सौनाग्यवान् थयो. तेनो महें। नामें कोई मित्र , तेनी' साथें अनेक प्रकारनी रमत क्रीडा करवा लाग्यो. .' ___ एकदा वसंतक्रीडा करवा माटें मित्रनी साथें उद्यानमां.गयो, ते अवस रें राजाने माटें अपूर्व अश्व कोइ परदेशथी नेट लइ आव्यो, ते अश्वने राजायें कुमरनी पासें वनमां मोकल्यो. कुमर पण ते घोडा उपर चढी घ णी वार घोडाने फेरव्यो पण जेवारे तेनी लगाम खेंची तेवारे ते घणोज दोड्यो, अने दणएकमांहे ते वन मूकीने आगल जतो रह्यो, ते समाचार अश्वसेन राजायें जाण्या. तेवारें सैन्य लश्ने तेने जोवा निकट्यो. सर्वत्र जोयो पण क्यांहि न मलवाथी राजा रुदन करतो.पाडो घेर आव्यो. तेवारें प्रधान अावी राजाने नमस्कार करी आज्ञा मागीने देशांतर ज वा निकटयो. ते केटलेक दिवसें कौवेरी नगरीयें गयो, तिहां सरोवरनी पाल उपर बेसी वनफल खाइ पाणी पीधुं, एकदम बेठगे. एटलामा वेषु, वीणा, मृदंग, जनरी प्रमुखनो नाद सांजव्यो तेने अनुसार आगल जवा लाग्यो, आगल अनेक जनथी परवस्यो थको कुमरने वेठेलो दीतो, तेवारें प्रधाने आश्चर्य पामीने कुमरने नमस्कार कस्यो. आलिंगनथने वेदु जण म व्या, कुमरें पोताना असिनें बेसाड्यो. तदनंतर देमकुशल पूबयां. पनी कुमरें चूसंझायें करी पोतानी नार्याने कर्यु, ते प्रधानप्रत्ये बोली के हे सत्पुरुष, तहारा मित्रने घोडायें वनमांहे अपहस्यो ते जेवारें वाग ढी ली मूकी तेवारें घोड़ो उनो.रह्यो अने तत्काल मरण पाम्यो तथा कुमर . मूर्खायें वृदनी बायानीचें पड्यो तेने वृदना अधिष्ठायंक देवतायें जल आणी बांटयु. तेथी कुमर सावधान थ वनदेवता प्रत्ये पूबतो हवो के तमें कोण बो? तारे तेणें कह्यु केहूं वनाधिष्ठायिक देवता वं. खीर सम इना पाणीथी में तुमने सावधान कीधो, तेवारें कुमरें कडं के हे देव ! मु जने मानसरोवर देखाडो, तो तिहां दुं स्नान मकान करूं के जेथी सकल Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १७५ रोग निवारण थाय ! अने शीतल था! देवता तिहां लइ गयो, पनी कु मरें स्नान कीg. तृषा अने मार्गनो श्रम में हतो ते टाल्यो. एवामां पूर्वजन्मना वैरी यदें दीठो, चिस्काल पर्यंत तेनी साथें युद्ध थयु. कुमरें तेने जीत्यो. वीक्षा देवतायें हर्पित थश्ने कुमर उपर फूलनी वृष्टि करी. तिहां नानुवेग विद्याधरनी आठ कन्यापरण्यो. पडी कुमरने ते विद्याधर वैताढ्य पवर्ते लश्गयो. तिहां पण घणी कन्याउनुं पाणिग्रहण कयुं. अने सुखथी तिहां रह्यो. जे माटें पुण्यवंत पुरुष ज्यां जाय त्यां सुख पामे. एकदा ते वैरी यदें गृहमांथी उपाडीने वनमांहे मूकी दीधो. तिहांथी आगल चालतां एक मंदिर दीतुं. तेनी सातमी नूमियें चढयो, तेवार रु दन करती एवी एक कुमरी दीती. कुमरें तेने बोलावी पूज्यु के हे सुन गि! तुं रुदन शा माटें करे ? त्यारे कन्या बोली के अहो सुनग! सांकेत पुरपाटणे सुराष्ट्रराजा बे, तेनी सुनंदा नामें दुं पुत्री बु. वली जेवारें हूं यौवनावस्थाने.पामी, तेवारें महारा पितायें संकल्प कस्यो जे ए महारी पु त्री हुँ सनत्कुमारने परगावीश ! पण एक दिवसें कोईक विद्याधरें मने तिहाथी अपहरीने शहां बाणी . हवे. महारी शी गति थाशे ? कुमर बो व्यो, के तुंजय राखीश नही. सनत्कुमार ते ढुंज g. एवी वात करे , एट लामां ते कन्यानो हरण करनार विद्याधरं पण त्यांआंवी पहोतो,तेनुं अने कुमरनुं मांदोमांहे यु६ थयु. कुमर जीत्यो अने सुनंदानुं पाणिग्रहण क युं. वली जे विद्याधरने जीत्यो तेने पण प्रथम ऋषीश्वरें कहेलु हतुं ते न परथी पोतानी पुत्री कुमरने परणांवी, अनेक विद्या बापी ने वैताढ्य पर्वतें लइ गयो. तिहां श्रीशांतिनाथजीना अनेक बिंब वंदाव्यां. तिहाथी निकलीने अमें आज अाहीं तमोने मल्या बैयें.. इत्यादि वार्ता मंत्रीश्वर आगल कहीने पनी तिहाथी अंतेवर तथा मं त्री सहित चाव्या, ते हस्तिनागपुरें याव्या.. पुत्र आव्यो सांजलीने पिता घणोज प्रमोद पांम्यो. पड़ी पुत्रनो राज्याभिषेक करीने पितायें श्रीधर्मना थना शिष्यनी पासेंथी दीक्षा लीधी. पाउल सनत्कुमार ब खंम पृथ्वी साधीने राज्य सुख जोगववा लाग्यो. इं३ धनद मारीनी साथै बत्र, चामर, मोकल्या. बे चामर, वे पावडी, एक मुकुट, बे देवष्य वस्त्र, बे कुंमल, नदत्रमाला, हार, सिंहासन, दे Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. १७६ वतानां गायन, तथा अप्सरा. ए सर्व प्राणी दीघां. बत्रीश हजार राजायें मी राज्यानिक कीथो. एम चक्रवर्तीनी पदवी जोगवतो रहे बे. एकदा सौध मैं सनामां बेठीं थकां सनत्कुमार चक्रीनुं रूप वखाएयुं ते सर्व देवोयें याथातथ्य करी मान्युं. परंतु वे मिथ्यात्वी देवो हता, ते इं इनुं वचन असमानता परीक्षा करवा माटें ब्राह्मणनो वेश धारण करी चक्रीना द्वार बागल यावी द्वारपालने कहेवा लाग्या के में दूर देशांत रथी रूप जोवा सारु याव्या ढैयें. ते वखत चक्रवर्ती पोताना शरीरें न वट करावता हता. तिहां द्वारपालनी याज्ञा मागी ब्राह्मणनेरूपें देवोयें यावी रूप जोयुं. तेथी हर्ष पामी कहेता हवा के मारो जन्म सफल थ यो चक्रवर्तीयें कक्षं के हुं मकन करी जमीने राजसनायें विराजुं, तेवारें यावजो राजाना कहेवा प्रमाणें सनामां पण ते देवो, रूप जोवा याव्या. तेवारें मनमां विषाद पामी मस्तक धूणाववा लाग्या. चक्रवर्त्तीना पूलवाथी देवोयें कत्युं के तमारुं शरीर हमण रोगें ग्रसित थवाथी पूर्वनुं रूप पन टाइग बे इत्यादि वृत्तांत कही स्वस्थानकें गया. सनत्कुमारें यौवना दि वस्तुने थिर जाणी विजयंवर सूरि पासें दीक्षा लीधी. बमास पर्यंत अनुराग धरतां सैन्य प्रमुख सर्व परिकर साथै फला. परंतु सनत्कुमारें कां तेनी तरफ जोयुं पण नही. पढी सर्व कोइ पोतपोताने घेर पाठा याव्या. वे चक्रवर्तीना शरीरें कमें कमें वधतां वधतां महारोगोत्पत्ति थइ, ते सात वर्ष पर्यंत जोगवी कठिण तपस्या करता रह्या, तेना प्रजावथी अ नेक लब्धियो उपनी वली पूर्वनी पेरें सौधर्म सनत्कुमार साधुनी तप स्या तथा रोग संबंधि कष्ट सहन करवानी प्रशंसा करी, ते न मानतां फ री देवतायें प्रावी परीक्षा करवा माठें वैद्योपचार करवा संबंधी अनेक न पदेश करा. परंतु ऋषीश्वर लगार मात्र पण मग्या नही. अने कष्ट सहन क रवामां तत्पर रह्या. देवता पण साधुने वांदी ऊपर फूलनी वृष्टि करी स्व स्थानकें गया. सनत्कुमार साधु अंत्यावस्थायें अनशन व्रत लइ काल करी सात सागरोपमने यानखे चीजे देवलोकें देवता थया. देवस्थिति पूर्ण यये अनुक्रमें केटलाक मनुष्य तथा देवना जव करी केवलज्ञान उपार्जी मोद सुख पामशे. ए एकवीशमा वैराग्योपदेशप्रक्तमने विषे सनत्कुमारनी कथा कही ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २७ हवे न काव्ये करी सामान्य उपदेश कहे . उपजातियत्तम्॥जिनेऽपूजागुरुपर्युपास्तिः,सत्वानुकंमाशुनपात्रदा नम्॥गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य,जन्मतृतस्य फलान्यमूनि॥३॥ अर्थः-(नृजन्मदस्य के० ) मनुष्यनन्मरूप वृदनां (अमूनि के०) आ हवे कहेवाशे ते (फलानि के ) फलो . ते फलो कहे जे. तिहां प्र थम तो (जिनेइपूजा के) श्रीवीलराग प्रनुनी पूजा करवी ते, तथा वीजें ( गुरुपर्युपास्तिः के०) गुरुनी उपासना करवी ते. तथा त्रीजुं ( सत्त्वानुकं पा के० ) सर्व प्राणिमात्र नपर दया राखवी ते. तथा चोथु ( गुनपात्रदा नं के०) शुनपात्रने विपे दान देवू ते. तथा पांचमु (गुणानुरागः के०) गुणीने विषे प्रीति राखवी ते. बहुं (.आगमस्य के० ) शास्त्र- ( श्रुतिः के) श्रवण करवू ते..एटलां फलो मनुष्य जन्मवदनां डे. अर्थात् एटलां गुनरुत्यो क रवा.थकी मनुष्यजन्म सफल थयो जाणवो ॥३॥ टीकाः-अथ सामान्योपदेशमाह ॥ जिनेति ॥ नृजन्मवृदस्य मनुष्यजन्म तरोरमूनि फलानि । एतैः कृत्वा मनुष्यजन्म सफल नवति । अमूनि कानि? . प्रथपं तावजिनेऽपूजा श्रीवीतरागदेवस्य पूजा कार्या । पुनर्गुरूणां पर्युपा स्तिः सेवा । पुनः सत्त्वानां जीवानां अनुकंपा दया कार्या । पुनः शुनपात्रे दानं । पुनर्गुणेषु अनुरागः गुणग्रहणं कार्य । पुनरागमस्य सिद्धांतस्य श्रुतिः श्रवणं कार्य । एनिः कृत्वा मनुष्यजन्म सफलं स्यात् ॥ १३ ॥ . नाषाकाव्यः सर्वैय्या तेईसा.॥ कै परमेसुरकी अरचा विधि, सो गुरुकों नपसर्ग न कीजै ॥ दीन विलोकि दया धरिये चित्त, प्रासुक दान सुपत्तहिं दीजै ॥ गाहक ठहै गुनको गहियें, रुचिसों जिन आगमको रस पीजै ॥ ए करनी करिये गृहमें वसि, यौँ जगमें नर नौंफल लीजै ॥ ३ ॥ शिखरिणीटत्तम् ॥ त्रिसंध्यं देवाची विरचय चयं प्रापय यशः, श्रियः पात्रे वापं जनय नयमार्ग नय मनः॥स्म रक्रोधावारीन् दलय कलय प्राणिषु दया, जिनोक्तं सिक्षांतं शृणु तृणु जवान्मुक्तिकमलाम् ॥ ४ ॥ - आर्थ:-हे नव्यप्राणी ! (त्रिसंध्यं के०) प्रनात, मध्यान्ह अने सायंकाल, तेने विषे ( देवाची के) श्रीवीतरागनी पूजाने (विरचय के०) कर. तथा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. (यशः के०) कीर्त्तिने, (चयं के० ) वृद्धि प्रत्ये ( प्रापय के.) पंमाड. तथा (श्रियः के०) लक्ष्मीना (पात्रे के ) सुपात्रने विपे ( वापं के० ) वाववाने (जनय के०) उत्पन्न कर. तशा (मनः के०) मनने (नयमार्ग के) न्याय मार्ग प्रत्ये (नय के० ) पमाड. वली (स्मरक्रोधाद्यारीन के०) काम, क्रोध, मान, माया, लोन, ए आदि शत्रुनने (दलय के०) खमन कर. तथा (प्राणिषु के०) प्राणिमात्रनें विपे (. दयां के०) दयाने (कलय के ) कर. तथा ( जिनोक्तं के ) जिनप्रणीत एवा (सिद्धांत के०) सूत्र सिद्धांतने (शृणु के० ) श्रवण कर. ए पूर्वोक्त सर्वे करीने (जवात् के०) वेगें करी ( मुक्तिकमलां के० ) मोक्ररूप लक्ष्मीने (तृणु के० ) वर ॥ए॥ टीकाः-त्रिसंध्यमिति ॥ त्रिसंध्यं त्रिकालं प्रनाते मध्यान्हे सायं च दे वाची श्रीवीतरागपूंजां विरचय कुरु । पुनर्यशः कीर्ति चयं वृदि प्रापय । श्रियोलदम्याः पात्रे सुपात्रे वापं जनय वपनं कुरु । पुनर्मनश्चित्तं नयमार्ग न्यायमार्ग प्रति नय । पुनः स्मरकोधाद्यारीन काम क्रोध मान माया लो नाद्यान् शत्रून् दलयं खमय । पुनः प्राणिषु जीवेषु दयां कलय कुरु । पुनर्जि नोक्तं अर्हत्प्रणीतं सिद्धांतं सूत्रं शृणु । एतानि कृत्वा जवात्. वेगात् मु क्तिकमलां शिवश्रियं वृणु वरय ॥ ४ ॥ जापाकाव्यः-हरिंगीतबंद ॥ जी करे साधि त्रिकाल सुमिरन, जासु जस जग विस्तरै ॥ जो सुनै परमागम सुरुचिसों, नीति मारग पग धेरै ॥ जो निरखि दीन दया प्रयुंजे, काम क्रोधादिक हरे ॥ जो सुधन सपत सु खेत खरचै, ताहिं सिवसंपति वरै ॥ ए - शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्॥कृत्वाऽहत्पदपूजनं यतिजनं नत्वा विदित्वाऽऽगमं, हित्वा संगमधर्मकर्मधियां पात्रेषु दत्वा धनम् ॥ गत्वा पतिमुत्तमक्रमजुपां जित्वांऽतरारिव्रजम्, स्मृत्वा पंचनमस्क्रियां कुरु करक्रोडस्थमिष्टं सुखम् ॥५॥ अर्थः हे श्राइजन ! एटलांवानां करीने (श्ठं के०) वांलित एवा (सुखं के०) सुखने (करक्रोडस्थं के०)हस्तोत्संगगत एटले हाथमां तथा खोलामा रहे एवा ने (कुरु के०) कर.झुं करीने कर? तो के (अर्हत्पदपूजनं के०) श्रीवीतराग न गवानना पदपूजनने (रूत्वा के०) करीने तथा (यतिजनं के०) साधु जनने Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः १४ (नत्वा के०) नमस्कार करीने तथा (बागमं के०) सिक्षांतने (विदित्वा के०) जाणीने अथवा सांजलीने तथा (अधर्मकर्मतधियां के०) मापासक्त बुद्धि वाला जनोना (संगं के०) संगने (हित्वां के०) त्याग करीने तथा (पात्रेषु के०) सुपात्रने विषे (धनं के) धनने ( दत्वा के ) आपीने तथा (उत्तम कमजुषां के०) उत्तम मार्गना सेवनार जनोता (पति के०) मार्गप्रत्ये (गत्वा के) जश्ने तथा (अंतरा रिव्रजं के०) अन्यंतरना वैरिसमूहने (जित्वा के० ) जीतीने तथा ( पंचनमस्क्रिया के.) पंचपरमेष्टिनमस्कार मंत्रने (स्मृत्वा के०) स्मरण करीने तथा एमनुज ध्यान करीने इडित सुरखने करो त्संगप्राप्त कर. एटले कर जे हाथ अने नत्संग जे खोलो तेने विपे प्राप्त करए५ टीकाः कृत्वाऽहतिति ॥ नो श्राद! एतानि कृत्वा इंटं वांबितसुखं कर कोडस्थं हस्तोत्संगगतं कुरु। करोत्संगप्राप्यं कुरु। किं कृत्वा ? अर्हत्पदपूजनं वीतरागचरणपूजां कृत्वा। पुनर्यतिजनं साधुजनं नत्वा । पुनरागमं सिक्षांतं विदित्वा झावा.श्रुत्वा। पुनः अधर्मकर्मवधियां पापासक्तबुद्धीनां संगं संसर्ग त्यक्त्वा परित्यज्य । पुनः पात्रेषु निजं धनं वित्तं दत्वा। पुनः उत्तमकमजुषां उत्तममार्गसेविनां पति मार्ग प्रति गत्वा अनुश्रित्य पुनरंतरा रिव्रजं अंत रंगारिषड्वर्ग आत्यंतरं वैरिसमूहं जित्वा । पुनः पंच नमस्त्रियां नमस्कारमंत्रं स्मृत्वा ध्यात्वा इष्ठं सुखं करोत्संगप्राप्यं कुरु ॥ ५ ॥ नाषाकाव्यः-वस्तुबंद ॥ देव पूजहिं देव पूजहिं रचहिं गुरु सेव ॥ पर मागम रुचि धर हिं, तजहिं उष्ट संगति. ततबन ॥ गुनिसंगति आदरहिं, करहिं त्याग पुरन नबनं ॥ देहि सुपत्तहिं दान नित, जपहिं पंच नवका र ॥ ए करनी जे आचरहिं, ते पावहिं नवपार ॥ ५५ ॥ हरिणीटत्तम् ॥ प्रसरति यथा किर्तिर्दित पाकरसोद रा,ऽन्युदयजननी याति स्फातिं यथा गुणसंततिः॥ कलयति यया वृद्धि धर्मः कुकर्मदतिदामः, कुशल सुलने न्याये कार्य तथा पथि वर्त्तनम् ॥ ए६ ॥ अर्थः-हे प्राणी ! (न्याये के७) न्यायोपपन्न एवा (पथि के०) मार्गने विषे (तथा के०) तेवी रीतें ( वर्तनं के) वर्तन (कार्य के) करवा योग्य ने. केवी रीते ? तो के (यथा के०)जेम (दिलु के०) चारदिशाउमां(पाकरसो Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. दरा के ) चंकिरणसमान उज्ज्वल एवी ( कीर्तिः के०) कीर्ति (प्रसरति के० ) प्रसरे डे, वली (यथा के०) जेम (अन्युदयजननी के०) उदयने कर नारी एवी ( गुणसंततिः के) गुणश्रेणि, (स्फाति के) विस्तारने (याति के ) पामे में. तथा वली ( यथा के०) जेम:(कुकर्महतिदमः के) पा पहनने विपे समर्थ एवो (धर्मः के०) धर्म, (वृद्धि के०) वृधिने ( कलय ति के० ) प्राप्त थाय ने. ते न्याय मार्ग केहवो बे ? तो के ( कुशलसुलने के) चतुर पुरुषोयें सुलन डे ॥ ए६॥ . . टीकाः-प्रसरतीति ॥न्याय्ये न्यायोपपन्ने पथि मार्गे तथा प्रवर्तनं कार्य तथा प्रवृतिः कार्या । यथा दिदु चतुर्पु दिनु पाकरसोदरा चंकिरणवउज्ज्वला कीतिः स्फुरति विस्तरति । पुनर्यथा अन्यदयजननी उदयकारका गुणसंतति गुणश्रेणिः स्फातिं याति विस्तारं व्रजति । पुनर्यथा कुकर्महतो पापहनने दमः समर्थो धर्मो वृद्धि कलयति वृति प्राप्नोति । तथा न्याये पथि न्यायमार्गे प्रवर्तनं कार्य । कथंनूते न्याये पथि ? कुशलैश्चतुरपुरुषैः सुलनः सुप्रापः सुखेन लन्यस्तस्मिन् ॥ १६ ॥ नापाकाव्यः-दोहा ॥ गुन अरु धर्म सुथिर रहै, जस प्रताप गंजीर ॥ कुशल वृद जिम लहलहै, तिहिं मारग चलो वीर ॥ ए६ ॥ शिखरिणीरत्तध्यम् ॥ करे श्लाघ्यस्त्यांगः शिरसि गुरुपादप्रणमनम्, मुखे सत्या वाणी श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः॥ हृदि स्वना वृत्तिर्विजयि नुजयोः पौरुष महो, विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां ममनमिदम्॥७॥ अर्थः-(अहो के०) आश्चर्य ले के (प्रकृतिमहतां के०) स्वनावें करी उत्तम एवा जनोने (विनाप्यैश्वर्येण के०) साम्राज्य विना पण ( इदं के) हवे केहेवाशे ते (मंझनं के०) नूपण . ते गुंजूषण ? तो के (करे के०) हाथने विपे (त्यागः के०) दान तेज (लाध्यः के०) श्लाघ्य जे. पण कंकणादि नृपण मंम्न नथी. तथा (शिरसि के०) मस्तकने विषे (गुरुपादप्रणमनं के०) गुरु जनना पदने विपे प्रणाम तेज मंझन , परंतु मुकुटतिलकादि नथी. (च के०) तथा (मुखे के०) मुखने विपे (सत्या के०) सत्य एवी (वाणी के०) वाणी तेज मंझन बे परंतु तांबूलादि नथी. तथा (श्रवणयोः के०)कानने विषे (अधिगतं Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २१ के०) नएयु एवं (श्रुतं के०) सिद्धांत तेज मंमन ,परंतु कुंमलादि नथी.(हदि के०) हृदयने विषे (स्वला के) निर्मल एवी (कृत्तिः के०) व्यापार तेज मंमन , परंतु हारमालादि नथी. तथा (नुजयोः के०) वेढुहाथने विपे (विजयि के०)जयनशील एवं (पौरुषं के) पुरुषार्थ तेज मंझन में, परंतु केयूरादि नी.अर्थात् महान पुरुषोने धनादिविना पण यापूर्वोक्त सर्व मंमन रूप ए७ टीकाः-करइति ॥ अहो आश्चर्ये प्रलंतिमहतां स्वनावनोत्तमानां पुसां ऐश्वर्येण साम्राज्येन विनाऽपि इदं ममनं अस्ति । इदमिति किं ? करे हस्ते त्यागोदानं श्लाघ्यःमंमनं न कंकणादि। पुनः शिरसि गुरूणां पादयोश्चरणयोः प्रणमनं नमस्कारकरणं मंमनं न मुकुटतिलकादीनि । मुखे सत्या वाण्येव मंमनं न तांबूलादि । श्रवणयोः कर्णयोः अधिगतं पतितं श्रुतं शास्त्रमेव मंझनं न कुंमलादि । हृदि हृदये स्वना निर्मला वृत्तिापारएव मंझनं न हारमालांदि । नुजयोर्बाव्होर्विजयिं जयनशीलं पौरुपं पराक्रमो धर्मविपये य दलं तदेव मंमनं न केयूरादि । महतां .पुसांधनं विनापि दयैव मंमनं ॥५॥ जापाकाव्यः-कवित्त मात्रात्मक ॥ वंदन विनय मुकुटं शिर नप्पर, सुगुरु वचन कुंमलयुग कान ॥ अंतरशत्रु विजय नुजममन, मुगति माल नर गुन अमलान ॥ त्याग सहज कर कटक विराजत, शोनित सत्य सबद मुख पान ॥ नूखन तजहिं तहूं तन मंमित, यातें संत पुरुष परधान ॥७॥ नवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिषुर्मुक्तिनंगरीम्, तदानी मा कार्कीर्विपयविपटतेषु वसतिम्॥ यतश्याप्पेषां प्रथयति महामोहमचिरा, दयं जंतुर्यस्मात्पदमपिन गंतुं प्रनवति ॥एजाति सामान्योपदेशप्रक्रमः॥२॥ अर्थः-हे श्रावकजन ! ( यदि के ) जो (जवारण्यं केए) संसाररूप अटवीने (मुक्त्वा के) मूकीने (मुक्तिनगरी के०) मोदनगरी प्रत्ये (जिग मिषुः के० ) जवाने श्बतो एवो तुंनो, (तदानीं के० ) त्यारें तो (विष यविषवृदेषु के०) विषयरूप जे विषदो तेने विपे (वसतिं के) निवास ने (माकार्षीः के० ) म कर. ( यतः के०) जे कारण माटे ( एपां के०) ए विषयविषवृदोनी (नायापि के०) बाया पण (महामोहं के०) महोटा अझानने (प्रथयति के०) विस्तारे जे. जेम बीजी पण विषदोनी बाया Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैनकथा रत्नकोप नागपहेलो. जे, ते महोटी मूर्तीने उत्पन्न करे . अने ( यस्मात् के.) जे महामोह थकी (अयं केए) या (जंतुः के०) जीव, (अचिरात् के) वेगें करी (पद मपिगंतुं के०) एक पगलुं पण चालवाने (नप्रनवति के०) समर्थ थातो नथी. अर्थात् स्थावरपंणाने प्राप्त थाय ने एनाति सामान्योपदेशप्रक्रमः॥२२॥ टीकाः-नवारण्यमिति ॥ जो श्राद ! नवारण्यं संसाररूपां अटवीं मुक्त्वा त्यक्त्वा यदि मुक्तिनगरी सिदिपुरी प्रति जिगमिपसि 'गंतुकामोऽसि तदानीं विपयाएव विपदास्वेपां क्सतिं निवासं माकार्षीः मा कृथाः । कुतः? यतोयस्मात् कारणात् एषां विषय विपदाणां बायाऽपि महामो हं महदझानं प्रथयति विस्तारयति । अन्येपामपि विपतृदाणां बाया म हार्मोहं महती मूर्ती जनयति । यस्मान्महामोहादयं जंतुः प्राणी अचि राधेगात् पदमपि गंतु एकं पादमपि चलितुं न शक्नोति । किंतु ? स्थावरत्वं प्राप्नोति ॥ ए ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहि तायां तु, सामान्यप्रक्रमोऽजनि ॥२२॥ इति सामान्योपदेशतक्रमः ॥५॥ हवे एक काव्ये करी ग्रंथतुं समर्थन करे बे. उपजातिटत्तम्॥सोमनाचार्यमनाचयन, पुंसांत मापंकमपाकरोति ॥तदप्पमुप्मिन्नुपदेशलेश, निश म्यमानेऽनिशमेतिनाशम्॥णण्इतिग्रंथसमर्थनम्॥ अर्थः-(सोमप्रना के०) चंइनीकांति(च के) वजी (अर्यमना के०) सूर्यनी कांति ते (पुंसां के०) पुरुषोना (यत् के) जे (तमःपंकं के०) अंधकाररूप जे कचरो तेने (नअपाकरोति के०) नथी नाश करती. ( च के ) परंतु (त दपि के० ) तादृश एवो पण अज्ञान अने पापरूप कचरो ते (अमुष्मिन् के०) या सिंदूरप्रकराख्यनामा ( उपदेशलेशे के०) उपदेशनो लेश ते (नि शम्यमाने के०) सांजले बते (अनिशं के) रात्रि दिवस एटले निरंतर (ना शं के० ) नाशने (एति के०) पामे . अर्थात् आ सिंदूरप्रंकर सांजलवाथी तम जे पाप अने अज्ञान ते नाशने पामे बे. या श्लोकमां 'सोमप्रना' ए पदथी ग्रंथकर्तायें पोतानुं सोमप्रनाचार्य एवं नाम पण सूचव्युंडे ॥ए॥ टीकाः-अथ समर्थयति ॥ सोमप्रनेति ॥ सोमप्रना चंकांतिश्च पुनः अर्यमना सूर्यप्रनाऽपि पुंसां यत्तमःपंकं अंधकारकर्दमं न अपाकरोति न Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंदूरप्रकरः २०३ दूरीकरोति तदपि तादृशमपि तमःपंकं अज्ञानपापं अमुस्मिन् सिंदूर प्रकराख्ये उपदेशलेशे निशम्यमाने श्रूयमाणे सति अनिशं निरंतरं नाशं ए ति दयं याति । एतत् श्रवणात्तत्तमः पापं च याति (अत्र सोमप्रनाचार्य इति ग्रंथकता स्वनामापि सुचिलम् ॥ एए ॥ इति ग्रंथसमर्थनम् ॥ हवे एक श्लोकथी प्रशस्ति.कहे जे ॥ मालिनीटत्तम्॥अनजद जितदेवाचार्यपट्टोदयाडि, द्यु मणिविजयसिंहाचार्यपादारविंद। मधुकरसमतां यस्तेन सोमप्रनेण, व्यरचि मुनिपराज्ञा सूक्तमुक्तावलीयम् ॥ ॥२०॥ इति प्रशस्तिः ॥ इति सिंदूरप्रकरः समाप्तः॥ अर्थः-( तेन के ) ते (सोमप्रनेण के०) सोमजनामा (मुनिपरा झा के०) मुनिप जे मुनिश्रेष्ठ तेमना जे राजा एवा सूरीश्वर तेमणे (इयं के०) या (सूक्तमुक्तावली के०) सु नरम शोनायमान प्रस्ताववाला उक्त ए टले काव्य ते रूप मुक्ता जे मोतीयो तेनी बावली जे पंक्ति ते (व्यरचि के) विरचित करी. ते कया सोमप्रनाचार्य ? .तो के (यः के०) जे (अजितदेवा चार्यपट्टोदयादि के०) अजितदेवनामा आचार्यना पट्टरूप नदयाचलने विषे (द्युमणि के०) सूर्यसमान एवा जे (विजयसिंहाचार्य के) विजयसिंहाचार्य तेना (पादारविंदे के०) चरणारविंदने विपे (मधुकरसमतां के०) नमरनी समानताने (अनजत् के०) नजता हवा ॥१०॥ ए प्रशस्ति कही ॥ इति सिंदूरप्रकरस्य.बालावबोधः समासः ॥ टीकाः-अथ प्रशस्तिमाह ॥ अनजद जितदेवेति ॥ तेन सोमप्रनेण मुनि पराज्ञा मुनिपाःमुनिश्रेष्ठास्तेषां राजा सूरीश्वरस्तेन मुनिपराझा . सूरीश्वरेण इयं सूक्तमुक्तावलिः सूक्तान्येव सुनूषितान्येव शोजनप्रस्तावकाठ्यान्येव मुक्ता मौक्तिकानि मुक्ताफलानि तेपामावलिः श्रेणिः व्यरचि चिरचिता । तेन केन ? यः सोमप्रनः अजितदेवनामाचार्यस्य पट्टएव उदयारुिदयाचलः तत्र द्यु मणिः सूर्यसमानोविजयसिंहाचार्यस्तस्य पादारविंदे चरणकमले मधुकरसम तां चमरतुल्यतां अनजत् प्राप । अर्थात् पूर्वमजितदेवाचार्यस्तस्य सोमप्रना चार्यस्तेनेयं सिंदूरप्रकरनामा सूक्तमुक्तावली व्यरचि कृता ॥१०॥इति प्रश स्तिः॥ इति श्रीसिंदूरप्रकराख्यग्रंथस्य हर्षकीर्तिमूरिविरचिता व्याख्यासमाप्ता॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. जापाकाव्यः - सवैय्या इकतीसा ॥ गहें जे सुजनरीति, गुनीसों निवाहै प्रीति सेवा साथै गुरुकी, विनैसों कर जोरिके ।। विद्याको विसन धेरै, पर तिय संग हेरे, दुर्जनकी संगतिसों, बैठे मुख मोरिकें ॥ तजै लोकनिंद्य काज, पूजै देव जिनराज, करें जे करणि थिर, उमंग बहोरिकें ॥ तेही जीव सुखी होहिं तेहि मोखमुखी, होहिं, तेही होइ परम, करमफंद तोरिकें ॥ ८ ॥ वृत्त ऊपर प्रमाणें || पर निंदा त्याग करू, मनमें वैराग धरु, क्रोध मान माया लोन, च्यारो परिहर रे ॥ हिरदेनें तोप गढ़, समतासों सीरो रहु, धर को नेद लडु, खेदमें न पर रे ॥ करमकों वंस खोज, मुगतिको पंथ जोन, सुकृतको बीज बोन, इरितसों कर रे | अरे नर ऐसो होहि, बार बार कहुं तोहि, नांहि तौ सिधार नैया, निगोद तेरो घर रे ॥ ए ॥ कवित्त मात्रात्मक ॥ यालस त्यागु जागु नर चेतन, वल संजारू मति करहुं विलंब ॥ इहां न सुख लवलेश जगतमहिं, निंब विरखमंहिं लगे न यं ॥ तातें तूं अंतर विपक्ष हरु, करु बिजद निज कदंब || गहु गुन ज्ञान बैठ चारित रथ, देहि मोख मग सनमुख बिंब ॥ १०० ॥ यथ योग कवित्त मात्रात्मक ॥ जैन वंस सर हंस सितंबर, सुनिपति अजितदेव प्रति व्यारज ॥ ताके पट्ट वादिमदनंजन, प्रगटे विजय सिंह आचारज ॥ ताके पह नए सोमप्रन, तिन्हें गिरंथ कियो हितकारज ॥ जा के पढत सुनत अवधारत, होइ पुरुष जे पुरुष अनारज ॥ १०१ ॥ दोहा ॥ नाम सूक्तमुक्तावली, द्वाविंशति अधिकार ॥ सत सिलोक परधान स व इति गरंथ विस्तार ॥ १०२ ॥ करपाल बनारसी, मित्रयुगल इक चि त ॥ तिन गरंथ नापा कियो, बहुविधि बूंद कवित्त ॥ १०३ ॥ सोलहसें इक्या नवें, रितु ग्रीप वैसाख ॥ सोम वार एकादशी, कर नक्षत्र सित पाख ॥ १०४॥ या नापा करनारें बीजी टीका उपरथी रचना करेली देखाय बे जे माटें कोइ कोइ स्थर्थमां कचित् फेर दीवामां आवे छे. अने बेहलां वे का व्यनो अर्थ फेरव्यो बे. इति सोमप्राचार्यविरचित सिंदूरप्रकरः ( सूक्तमुक्तावलि ) ग्रंथ हर्षकीर्त्ति सूरिकृत युक्ति, व्याख्या अन्यपंमितकृत बाजावबोध संयुत, बनारसीदासकृत नापाकाव्यसहितः समाप्तः ॥ समाप्तोयं ग्रंथः ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. २५ ॥ अथ ॥ ॥श्रीदेमचंज्ञाचार्य कृतं श्रीवीतराग स्तुतिःप्रारज्यते॥ . तंत्र ॥ प्रस्तावनानामा प्रथम प्रकाशः॥ ॥ यः परात्मा परं ज्योतिः,परमः परमेष्ठिनाम् ॥आदित्यवर्ण तमसः,पर स्तादामनंति यम् ॥१॥ नावार्थः-(न्यःपरात्मा के०) जे नगवान परमा त्मा, ( परंज्योतिः के० ) परब्रह्म तेजोरूप तेज (परमेष्ठिनां परमः के ) जे अर्हन, सिम, श्राचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुरूप पंचपरमेष्ठि ते मध्ये उत्कृष्ट ले. अने सूर्यसमान प्रकाशवाला एवा (यं के०) जे जगवानने ( तमसःपरस्तात् के०) पापथकी किंवा अंधकार जे तमोगुणादि ते थकी पर एवाने (यामनंति के० ) ज्ञानी पुरुषो कहे जे ॥ १ ॥ सर्वे येनोदमूल्यंत, समूलाः क्लेशपादपाः ॥ मूर्ना यस्मै नमस्यंति,सु रासुरनरेश्वराः ॥ २ ॥ . नावार्थः-(येन के०) जे जगवंतें (समूलक्लेश पादपाः के०.) जे राग शेष मोहरूप जे वृत ते समूल उन्मूलन कस्या, अने जे जगवानने देव, दैत्य अने नरेश्वर मस्तकें करी नमस्कार करे ने ॥२॥ ॥प्रावत यतो विद्याः, पुरुषार्थप्रसाधिकाः ॥ यस्यं ज्ञानं नवनावि, नू तनावाऽवनासरत् ॥३॥ नावार्थः-(यतः के०) जे. जगवानथी चौदपूर्व रूप मुख्यत्तियें मोक्ने साधन करनारी एटले मोद साधनशील एवी विद्या उत्पन्न थश्यो. अने जे जगवंतमुंज्ञान, वर्तमान कालना, तथा आगल थनारा अने प्रवै थ गयेला जे पदार्थो तेनने प्रकाश करनारूं ॥३॥ ॥ यस्मिन् विज्ञानमानंदं, ब्रह्मचैकात्मतां गतम् ॥ स श्रद्ध्यः स चध्ये यः, प्रपद्ये शरणं च तम् ॥॥ नावार्थः-अने जे जगवंतने विपे विशिष्ट झान अने बीजुं आनंदकारक जे परब्रह्म स्वरूप, ते एकरूपताने पामेलु . ते जगवान पंमितोयें श्रद्धा करवा योग्य वे. थने तेज ध्यान करवा योग्य २. ए माटें दुं तेमनाज शरणनो अंगीकार करुं हुं ॥ ४ ॥ ॥ तेन स्यां नायवां स्तस्मै, स्टहयेयं समाहितः॥ ततः कृतार्थोनयासं, , नवेयं तस्य किंकरः ॥ ५॥ जावार्थः-ढुं, ते परमेश्वरज (नाथवान के) जेने माथे धणी ने एवो थालं ? अने समाधिप्रत्ये प्राप्त थयो थको ते न Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ 'जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. गवंतनी हुं स्पृहा एटजे इवा करूं ? अने ते नगवंतथीज हुं कृतार्थ था नं ? अने तेनो किंकर पण यानं ? ॥ ५ ॥ . ॥ तत्र स्तोत्रेण कुर्या च पवित्रां स्वां सरस्वतीम् ॥ इदं हि नवकांतारे, ज न्मिनां जन्मनः फलम् ॥६॥ नावार्थः अहं ते जगवंतने विषे स्तवनें करीने मारी पोतानी वाणीने पवित्र करूं. कारण के भगवाननुं स्तवन करवुं एज वाटवीने विषे प्राणीना जन्मभुं फल बे ॥ ६ ॥ ॥ क्वाहं पशोरपि पशु, वीतरागस्तवः क्व च ॥ उत्तितीर्षुररस्यानी, पत्रयां पंगुरिवास्म्यतः ॥ ७ ॥ नावार्थ:- परंतु पशु करतां पण (पशुः के० ) यज्ञा नी एवोढुंक्यां !! ने श्रीवीतरागनी स्तुति क्यां !!! एटले वीतरागनी स्तुति, मने अत्यंत दुर्घट बे, वली एमाटे पांगलां जेवो ढुं बुं. पांगलो जेम पोताना चरणें करी माहा अरण्यने उल्लंघन करवानी बा करे, तेम हुँ भगवाननी स्तुति करवानी इब्बा करनारो बुं ॥ ७ ॥ ॥ तथापि श्रमुग्धोऽहं नोपालंच्यः स्खलन्नपि ॥ विशृंखनापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते ॥ ८ ॥ जावार्थ : - तथापि पंतिपुरुषोयें, स्तुतिमध्यें वि पर्यास पामनारा मने या श्रद्धायें करीने जोलो बे, पंमितानिमानी नथी, एम जाण दोषास्पद गणवो नही. अने एवं पण बे, के श्रद्धा धारण करनारा पंकि तमानी पुरुषनी पूर्वापर संबंध रहित एवी पण वाग्वृत्तिं शोना पामे वे ॥ ८ ॥ ॥ श्री हेमचंद्रनवात्, वीतरागस्तवादितः॥ कुमारपालनूपालः प्राप्नोतु फल मीप्सितम् ॥९॥ नावार्थ:- हवे फलश्रुति कहे बे. - श्री हेमचंश्थी जेनी उत्पत्ति एवा वीतराग स्तवें करीने कुमारपाल नामां राजा, इञ्जिन्त फलने पामो ॥ ॥ इति श्रीवीतरागस्तवे प्रस्तावनानामक प्रथमप्रकाशः समाप्तः ॥ १ ॥ ॥ अथ सहजातिशयनामा द्वितीय प्रकाशः ॥ , ॥ प्रियंगुस्फटिकस्वर्ण, पद्मरागांजनप्रनः ॥ प्रनो तवाधौतशुचिः कायः कमिव नाक्षिपेत् ॥ १॥ जावार्थ :- हे प्रनो ! (प्रियंगु के० ) प्रियंगु नामक नीलवर्णवत्री, स्फटिकरत्न, सुवर्ण, खारक्त एवं पद्मरागरत्न, अनेकाज ल; एना सरखी ने कांति जेनी एवो ने अप्रचालित बतां पण पवित्र, एवो तमारो देह, कया पुरुषना मनने याश्चर्य करनार नथी ? अर्थात् सर्व कोइ पण तमने अवलोकन करी याश्वर्य पामे बे ॥ १ ॥ ॥ मंदारदामवन्नित्य, मवासितसुगंधिनि ॥ तवांगे भृंगतां यांति, नेत्राणि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र.. सुरयोषिताम् ॥ ५॥ नावार्थ:-हे प्रनो ! निरंतर कल्पवृदना पुष्पनी मालानी पेठे कर्पूरादिकोना लेपन विना पण सुगंधयुक्त एवा तमारा शरीरने विपे देवांगनाउनां नेत्रो नमरताने प्रामे ॥ २ ॥ ॥ दिव्यामृतरसास्वाद, पोषप्रतिहता श्च ॥ समाविशंति ते नाथ, नांगे रोगोरगव्रजाः ॥३॥ नावार्थ:-हे नाथ ! तमारा शरीरने विपे, रोगरूप जे सोना समूहो, ते प्रवेश करता नथी. कारण के ते जाणे दिव्य एवा अ मृतरसना आस्वादने करीने प्राप्त थयेली जे पुष्टता तेणें करी प्रतिहत क रेलाज होय नहिं ! माटें प्रवेश करता नथी. ए नत्प्रेदा करी जे ॥ ३ ॥ ॥ त्वय्यादर्शातलालीन, प्रतिमाप्रतिरूपके ॥ छत्स्वेदविलीनत्व, कथा पि वपुपः कृतः ॥ ४॥ नावार्थः-हे नाथ ! दर्पणने विषे प्रतिबिंबित जे मूर्ति तेना सरखा जे तमें, ते तमारे विपे देहथी गलित थनारा स्वेद एटले परसेवानां विलीन पणानी वार्ता पण क्याथी प्राप्त थशे ? नहीज थाय. अ र्थात् तमारे तो ते स्वेदादिक कांही नथी माटे ते वात पिण केम घटे ? ॥॥ ॥ न केवलं रागमुक्तं,वीतराग मनस्तव ॥ वपुःस्थितं रक्तमपि, दीरधारा सहोदरम् ॥५॥ नावार्थ:-हे वीतराग ! केवल तमारुं मनज (रागमुक्तं के०) विषयोनी रागतायें रहित , एवं नथी. परंतु तमारा शरीरने विपे रहेनारुं रक्त एटले रुधिर पण ( रागमुक्तं के०) आरक्ततायें रहित होतुं थ थकुं दूधनी धारा सर शुत्र जे. कारण के तीर्थकरनुं रक्त पण दूध सरखं उज्ज्वल होय जे. एम प्रसिज ले ॥५॥ ॥जगहिलणं किं वा, तवान्यक्तुमीमहे ॥ यदविस्त्रमबीनत्सं, गुनं मांसमपि प्रनो॥६॥ नावार्थ:-हे प्रनो! वली तमारा सर्व जगत्थी विलद ण एवा अन्यस्वरूपने वर्णन करवा माटें अमें झुं समर्थ थनारा बैयें ? ना कदापि थनार नथी. कारण के हे प्रनो ! तमारुं मांस पण उधरहित अने अबीनत्स एवं अने झुन्न तज्ज्वलवर्णयुक्त देदीप्यमान वे ॥ ६ ॥ ॥जलस्थलसमुद्भूताः, संत्यज्य सुमनःस्त्रजः॥ तव निःश्वाससौरन्य,मनु यांति मधुव्रताः ॥ ७ ॥ नावार्थ:-हे नाथ! जलने विपे अने स्थलने विषेनत्पन्न थयेली नत्तम पुष्पोनीमालाने पण समस्त पणायें तजीने तमा रा श्वासोवास संबंधि सुगंध प्रत्ये सर्व चमरो, अनुगमन करे . एवो तमा रो सुगंधमय श्वास ने ॥ ७ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. __ ॥लोकोत्तरचमत्कार, करी तव नवस्थितिः ॥ यतोनाहारनीहारी, गोच रौ चर्मचक्षुषाम् ॥॥ नावार्थ:-हे नाथ ! जे कारण माटें तमारो या हार अने नीहार,ते चर्मचळु याला मनुष्य तिर्यचने दृष्टिविषय थता नथी. ते कारण माटें तमारा जन्मनी स्थिति (लोकोतरचमत्कारकरी के०) सर्व लो कोने अत्यंत विस्मय करनारी जे ॥॥ इति सहजातिशयक्षितीयप्रकाशः॥२॥ ॥ अथ कर्मक्षयातिशय नामा तृतीय प्रकाशः॥ ॥सर्वानिमुख्यतोनाथ,तीर्थकन्नामकर्मजात् ॥ सर्वथा सन्मुखीनस्त्व, मा नंदयसि यत्प्रजाः ॥ १॥ नावार्थ:-हे नाथ ! जे कारण माटें सर्व प्रकारे सन्मुख एवा तमो, तीर्थकर नाम कर्मथी नत्पन्न थयेला (सर्वानिमुख्यतो के) सर्वानिमुखपणाथकी एटले चार मुखपणाथकी सनाने विपे सर्व लोकोने आनंद पमाडो बो. अर्थात् तमोने तीर्थकर नाम रूप कर्मे करीने सर्वानिमुख्य एटले चतुर्मुखपणुं प्राप्त थयुं . ए माटें सर्व. प्रजाने सन्मुख एवा तमो सर्व प्रकारे करीने आनंद उत्पन्न करो बो॥१॥ ॥ यद्योजनप्रमाणेपि, धर्मदेशनसमनि ॥ संमांति कोटिशस्तिर्यग,नृदेवाः सपरिबदाः ॥॥ जावार्थ:-हे नाथ ! जे तमारा योजन प्रमाण एवा धर्मोपदेशना समवसरणने विषे परिवार सहित कोटि प्रमाण एवा (ति र्यग्नृदेवाः के०) तिर्यच, मनुष्य अने देवो ते सुखें करीने समाय ॥२॥ ॥तेषामेव स्वस्वनाषा,परिणाममनोहरम् ॥ अप्येकरूपं वचनं. यत्ते धर्मा ऽवबोधकत् ॥३॥ नावार्थः-हे नाथ.तमाळं धर्मना अवबोधने करनालं एक सर एवं पण जे वचन, ते तिर्यग् मनुष्य अने देवादिकोने पोतपो तानी नाषायें परिणाम पामीने मनोहर लागे जे. अर्थात् तमाळं वचन सर्व कोइ पोतपोतानी नापामां समजे डे माटें सर्वने बोध रूप थाय रे ॥३॥ ॥सायेपि योजनशते, पूर्वोत्पन्नागदांबुदाः॥यदंजसा विलीयंते, त्वदिहा रानिलोमिनिः ॥॥ नावार्थ:-हे नाथ ! जे कारण माटें तमारा विहार रूप वायुना तरंगें करी एकसो पञ्चीश योजन पर्यंत, पूर्वे नत्पन्न थयेला जे रोगरूप मेघ, ते वेगें करीने विदीर्ण थाय ने. अर्थात् वायुयें करी जेम मेघ नाश पामे , ते प्रमाणे तमारा विहारें करीने आसपास सवासो योजन पर्यतवसनारा लोकोना रोग नाश पामे वे ॥ ४ ॥ . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. नए ॥नाविनवंति यभूमौ,मूषकाः शलनाः शुकाः॥णेन दितिपदिप्ता,अ नीतय श्वेतयः ॥ ५॥ नावार्थः-हे नाथ ! तमाराथी एथ्वीनेविषे उंदर, (शलनाः के०) टीड, अने गुक इत्यादिक (ईतयःके०) उपसर्गो ते, राजा ये कुणमात्रमा.निराकरण करेला अन्यायो जैम प्रगटज थता नथी तेम तमारा विहारथी बंदरादिक प्रगटज थता नथी ॥ ५ ॥ ॥ स्त्रीदेवपशदिनवो, यानिः प्रशाम्यति ॥ त्वत्कृपापुष्करावर्त, वर्षा दिव जुवस्तले ॥६॥ नावार्थः-हे नाथ! तमाराथी या नूतलनेविपे स्त्री, देत्र, ग्राम इत्यादिकथी उत्पन्न थयेलो वैररूप अग्नि, ते उपशांतिने पामे बे.ते जाणें तमारी कृपारूप मेघनी दृष्टियें करीनेज ते वैररूप अनि शांत थतो होय नहिं ! एम नासे . ए उत्प्रेक्षा जाणवी ॥ ६ ॥ त्वत्प्रनावे नुवि ब्राम्य,त्य शिवोबेदमिमिमे ॥ संनवंति न यनाथ,मारयो नुवि नारयः ॥७॥ नावार्थः-हे नाथ! जे कारणमाटे पृथ्वीतलने विपेच कल्याणने नबेदकारि एवं पटहवाद्यरूप तमारु पराक्रम, स्फुरण पामे बते सर्व जगतने शत्ररूप एवा माहामारीनामक रोगो पण उत्पन्न थता नथी॥॥ ॥ कामवर्षिणि लोकानां,त्वयि विश्वकवत्सले ॥ अतिवृष्टिरवृष्टिवा, नवे धन्नोपतापरुत् ॥ ७ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! जे कारणमाटें सर्वजगतने वत्सल अने वांलितवस्तुनी वृष्टि करनार एवा आप बंते अतिवृष्टि अने अ नावृष्टि पण सवाशो योजनमां लोकोने उपताप कस्नारी थती नथी ॥७॥ ॥ स्वराष्ट्रपरराष्टेन्यो, यत्कुशेपश्वा जुतं ॥ विश्वंति त्वत्प्रनावा,सिंहना • दादिव हिपाः ॥॥ नावार्थः-हें प्रनो ! जे स्वचक्र अने परचक्रथी नुत्पन्न थनारा दुशेपश्व, ते तमारा सामर्थ्य करीने सिंहनादयी हाथीयो जेम जलदी पलायन करे ने तेम ते उपश्वो पण नाश पामे डे ॥ ५ ॥ ॥ यत् दीयते च निदं, दितौ विहरति त्वयि ॥ सर्वातप्रनावाढये, जंगमे कल्पपादपे ॥१०॥ नावार्थ:-हे नाथ ! जे कारणमाटें सर्वेने या श्चर्यकारक एवा प्रनावें करीने प्रष्ट अने केवल जंगम एटले चलित कल्प वृद एवा तमें पृथ्वीतलने विपे विहार करे बते (उर्निदं के०) जे कुष्काल, ते पोतेंज नाश पामे छे ॥ १० ॥ ॥ यन्मूः पश्चिमे नागे, जितमार्तमममलम् ॥ मानूपुरालोक, मिती वोत्पिमितं महः ॥११॥ नावार्थ:-हे नाथ! तमारा मस्तकना पश्चिमना Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैनकथा रत्नकोप नाग पदेलो. गनेविषे जेणे सूर्यनुं मंगल जीत्यु जे एवं जे (उत्पिमितं के.) एक ठेकाणे एकटुं थयुं नामंगल, तेज जे ते जाणे तमारुं शरीर, लोकने कुःखें करीब वलोकन करवाने योग्य न थऽ शके एवं ने,तो पण सुखें करीज लोकोने जोवा योग्य थाय. ए माटेंज होय नहिं गुं? एनत्प्रेक्षा जाणवी ॥ ११ ॥ ॥ स एष योगसाम्राज्य, महिमा विश्वविश्रुतः ॥ कर्मदयोबो नगवन्, कस्य नाश्चर्यकारणम्॥१२॥ नावार्थ:-हे जगवन् ! सर्वजगत्मध्ये प्रख्यात अने कर्मक्यथी उत्पन्न थयेला एवा या तमारा योगसाम्राज्यनो महिमा,ते कोने अाश्चर्यनो कारण नथी? सर्वेने पण आश्चर्यनो कारण ले ॥१२॥ ॥ अनंतकालावित, मनंतमपि सर्वथा ॥ त्वत्तोनाऽन्यः कर्मकद,मुन्मूलय ति मूलतः ॥१३॥ नावार्थ:-हे नाथ! तमाराथी बीजो कयो पुरुष, अनंत कालें करी निविडीनंत थयेला अने सर्वप्रकारे करीअंत रहित एवा कर्मव नने समूल उन्मूलन करशे ? अर्थात् कोइ पण करनार नथी ॥ १३ ॥ ॥ तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं, क्रियासमनिहारतः ॥ यथानिबन्नुपेयस्य, परां श्रियमशिश्रियः॥१॥ जावार्थ:-हे नाथ! तमें क्रियासमनिहारें करीने ए टले क्रियाना अत्यादरें करीने मोदोपायनेविषे तेवी रीतें प्रवृत्त थया बो, के जेवी रीतें तमें मोदनी उत्तमलक्ष्मीने न ना करनारा होवा बतां, . पण मोदलदनीय आश्रय करेलाबो एटले मोदलक्ष्मीना निरनिलाषी एवा तमें बो तो पण तमारो आश्रय मोदलदमीज स्वतः करे जे ॥१४॥ ॥ मैत्रीपवित्रपात्राय, मुदितामोदशालिने ॥ कपोपेदाप्रतीक्ष्याय, तुन्यं योगात्मने नमः ॥ १५॥ नावार्थः-ए माटें ( मैत्री के०) परिहित चिं ता तेनुं पवित्र ए, पात्र बने परसुखतुष्टि अने गुणना पदपातें करी शोना यमान, तथा कारुण्य अने मध्यस्थपणुं, एवं करी पूज्य अने योगरूप एवा जे तमें तेतमने नमस्कार हो॥१५॥ इति कर्मदयातिशयनामातृतीयप्रकाशः३ ॥अथ सुरकृतातिशयनामा चतुर्थ प्रकाशः ॥ ॥ मिथ्यादृशां युगांतार्कः,सुदृशाममृतांजनम् ॥ तिलकं तीर्थकबदम्याः, पुरश्चक्रं तवैधते ॥ १ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! मिथ्यादृष्टिने प्रलयकालना सूर्य सरखं तापकारक बने सम्यग् दृष्टिने अमृतांजन सर तथा तीर्थक रनी लक्ष्मीना तिलक सर एवं तमारा अयनागने विपे धर्मचक शोने ले ? Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. ॥ एकोयमेव जगति, स्वामीत्याख्यातुमुदिता ॥ उच्चैरिध्वजव्याजात्, तर्जनी लॅनविहिषा ॥ २ ॥ 'नावार्थःहें नाथ !(जूंनविहिषा के०) ३६ जे तेणें अतिउच्च एवा इंध्वजना.मिर्षे करीने (तर्जनी के०) पोताना अं गुगनी पासेंनी बांगली आणे कल करेली होय नहिं ? एटले इंज जाणे सर्व जगतनेविषे आ एकज स्वामी चे, एवं कथन करवा माटेंज पोतानी यांगली कवं करेती होय नहिं? एम ते इंध्वज नासे .ए उत्प्रेक्षा ॥२॥ ॥ यत्र पादौ पदं धत्त,स्तव तत्र सुराऽसुराः॥ किरंति पंकजव्याजा,त्रियं पंक जवासिनीम् ॥३॥ जावार्थः-हे नाथ! तमारां चरणजेस्थानने विषे न्यास धरे छे एटले स्थापन थाय , ते स्थाने सुर अने असुर, कमलने मि क रीने कमलवासिनी एवी लक्ष्मीनेज विस्तार करे ने अर्थात् तमारा पगत लें सुवर्णमय नवकमलनी रचना करे ॥३॥ दानशीलतपोनाव, नेदाधर्म चतुर्विधम् ॥ मन्ये युगपदारख्यातुं, चतु वक्रोऽनवजवान ॥४॥ नावार्थः-तमें दान,शील,तप्न अने नाव ए नेदें करीने चार प्रकारना धर्मने एकठा समकालें कथन करवा माटें चतुर्मुखज थया के गुं? एम ढुं मानुं बुं ॥ ४ ॥ . ॥ त्वयि दोषत्रयात्रातुं, प्रवृत्ते नुवनत्रयीम् ॥प्राकारत्रितयं चक्रु, स्त्रयोपि त्रिदिवौकसः ॥५॥ नावार्थ:-हे नाथ ! तमें नुक्नत्रयने राग, द्वेष,मोह रूप दोपत्रयथी रक्षण करवा माटें प्रवृत्त थये बते नवनपति, ज्योतीपि अने वैमानिक एवात्रण प्रकारना देवो पण त्रण प्राकारने करता हवा ॥ ५ ॥ ॥ अधोमुखाः कंटकाः स्यु,धीयां विहरतस्तव ॥ नवेयुः संमुखीनाः किं, तामसास्तिग्मरोचिषः ॥६॥ नावार्थ:-हे नाथ ! पृथ्वीने विपे आ वि हार करे बते सर्व कंटक अधोमुख थाय . ए विषे दृष्टांत कहे जे के, रात्रिने विषे संचार करनारा जे घूअडादिक जीव ते, जेनो प्रकाश तीक्ष्ण डे एवा सूर्यनी संमुख थाय ने झुं? अर्थात् थता नयी ॥ ६ ॥ ॥केशरोमनखंश्मश्रु,तवावस्थितमित्ययम् ॥ बाह्योपि योगमहिमा,नाप्त स्तीर्थकरैः परैः॥॥ नावार्थ:-हे नाथ! तमारा मस्तकसंबंधी केश,शरीरसं बंधी रोम,हाथ तथा पगना नख अने (इमश्रु के०) दाढी मुंड, ए सर्व एकस्थि तियें रहे . एटले वृद्धि पामतां नथी. एवोथा बाह्य रहेलो तमारो योगम हिमा,ते पण अन्य जे बुझ कपिलादिक तीर्थकर,तेउने प्राप्त थयो नथी ॥७॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एश जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. ॥ शब्दरूपरसस्पी, गंधाख्याः पंच गोचराः ॥ नजति प्रातिकूल्यं न, त्व दये तार्किकाश्च ॥७॥ नावार्थ:-हे नाथ! शब्द,रूप, रस,स्पर्श अने गंधना मक जे पांच विषयो,ते तमारा अग्रजागने विपे प्रतिकूलपणे आचरण करता नथी. ए विपे दृष्टांत कहे. (तार्किकाश्व के०) पंचतार्किक एटने पंच दर्शन प्रामाणिक,ते जेम तमारी बागल प्रतिकूलपणे आचरण करता नथी? अर्थात् तीर्थकरनीपासें कुत्सितशब्दरूपादिक अने अन्य दर्शनो प्रतिकूल थाता नथी. ॥ त्वत्पादातृतवः सर्वे,युगपत्पर्युपासते ॥ आकालकतकंदर्प, साहायिक /जयादिव ॥ए॥ नावार्थ:-हे नाथ! सर्वस्तु एकसाथें अनुकूलपणे तमारा चर गने सेवन करे ;ते जाणे अनंतकाल पर्यंत करेलुंजे(कंदर्प के०) कामदेवतेनुं साहाय्य,तेना नयें करीनेज सेवन करे ले के गुं? अर्थात् बए ऋतु एम जाणे डे के अमें घणा दिवस कामदेवर्नु सख्य कस्युं,तेनुं माहापाप लाग्युं ते पाप केम मटशे? माटे कामदेवनो जय करनार श्रीवीतरागने शरणे जयें! एम मानी ते आपवीतरागने शरणेज जाणे आवेलीयो होय नहि ? ए उत्प्रेक्षा जाणव॥ ॥सुगंध्युदकवर्षेण,दिव्यपुष्पोत्करेण च ॥ नावित्वत्पादसंस्पर्शी, पूजयंति नुवं सुराः ॥१०॥ नावार्थ:-हे नाथ ! सर्वदेवो,सुगंध युक्त एवा नदकनी दृष्टियें करी बने दिव्यपुष्पोना समुदायें करी समवसरण संबंधी नूमिने पूजे बे; ते जाणे आगल तमारो पादस्पर्श थइ ते नूमि पवित्र थनार , माटें पूजन करवा लायक डे, एम जाणीनेज पूजन करे ले के गुं? ए नत्प्रेक्षा ॥ ॥जगत्प्रतीक्ष्य त्वां यांति,पहिणोपि प्रदक्षिणम् ॥ का गतिर्महतां तेषां, त्वयि ये वामवृत्तयः॥११॥ नावार्थ:-हे जगत्पूज्य! पदीयो पण तमनें प्र दक्षिणनावें करी गमन करे बे; एम बतां ते माहांतोनी शी गति थशे? जे मा हांतो तमारे विपे वामपार्श्ववृत्ति ने अथवा शब्दबलें करीने प्रतिकूलवृत्ति ने जेनी एवा ले.अर्थात् ते महंत ने तो पण तमारे विषेप्रतिकूलेवृत्ति होवाथी तेनी कया प्रकारनी गति थशे? ते जाणवामां आवतुं नथी ॥११॥ ॥पंचेंझ्यिाणां दौःशीव्यं,क नवेनवदंतिके ॥ एकेडियोपि यन्मुंच,त्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥१२॥ नावार्थ:-हे नाथ! तमारा समीपनागने विषे पंचे यि युक्त एवा पुरुपर्नु उःशीलपणुं क्याथी थशे? अर्थात् क्यांहि मण थना . रुं नथी. कारण के एकेंशिय एवो वायु पण,तमारी प्रतिकूलतानो त्याग करे जे. एटले वायु पण पृष्ठानुयायीज थाय जे. अर्थात् एकेंघिय एवो अज्ञानी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. २९३ वायु में, ते पण ज्यारें तमारेविषे प्रतिकूलता बोडे , तो ज्ञानाधिक्यवान् पंचेंघिय जीव झुं प्रतिकूलथाय ? ना थायज नहिं ॥१२॥ ॥मूर्ना नमंति तरव, स्त्वन्मादात्म्यचमत्कृताः॥ तत्कृतार्थ शिरस्तेषां, व्यर्थ मिथ्यादृशां पुनः॥१३॥ जावार्थ:-हे नाथ! तमारा माहात्म्ये करीने चमत्कारने पामेला एवा वृदो,पोताना मस्तकें करीने तमने नमे . ते का रणमाटें ते दोनुं मस्तक (कृतार्थ के०) सफल जाणवं. परंतु मिथ्या दष्टियोनुं तमने न नमनासं जे मस्तक डे, ते निष्फल जाणवू ॥ १३ ॥ ॥जघन्यतः कोटिसंख्या, स्त्वां सेवंते सुराऽसुराः ॥ नोग्यसंजारलन्यार्थे, न मंदा अप्पुदासते ॥ १४॥ नावार्थ:-हे नाथ! सामान्यथकी कोटिसं ख्या प्रमाण सुर अने असुरोतमने सेवे जे. कारण के नोग्यसमुदायें करी प्राप्त थवाने योग्य जे अर्थ ते विपे (मंदायपि के०) बालसु पण उदासी न थता नथी ॥ १४ ॥ इति सुरकतातिशय नामक चतुर्थः प्रकाशः ॥४॥ ॥अथ प्रातिदायनांमा पंचम प्रकाशः॥ ॥ गायन्निवालिविरुतै, नृत्यन्निव चलैदलैः॥ त्वंगणैरिव रक्तोसौ, मोदते चैत्यपादपः ॥१॥ नावार्थ:-हे नाथ आ समवसरणने विषे देवोयें करे लो जे चैत्यनामक अशोकवृद, ते यानंद पामे छे. केवी रीतें आनंद पामे ? तो के चमरोना गुजारवें करीने जाणे गीत गान करतोज होय नहि ! अने चंचल एवां पत्रोयें करीने नृत्य करतोज जाणे होय नहि ! अने तमारा गुणें करीने अनुरक्त थेयेलोज जाणे होय नहि ! एम आनंद पामेलो देखाय डे ॥१॥ ॥ यायोजनं सुमनसो,ऽधस्तान्निदिप्तबंधनाः ॥ जानुदघ्नीः सुमनसो, . देशनो| किरंति ते ॥ २॥ नावार्थ:-हे नाथ ! ( सुमनसः के० ) देव तात, ते तमारी देशनानूमिने विषे एक योजन पर्यत, जेनां दीटां अधो नागें करेला एवां पुष्पोने जानुप्रमाण, विस्तारे जे ॥ २ ॥ ॥ मालवकौशिकीमुख्य, ग्रामरागपवित्रितः ॥ तव दिव्योध्वनिः पीतो, हर्षाद्रीवैZगैरपि ॥३॥ नावार्थ:-हे नाथ ! मालवकौशिक प्रमुख ग्रामोयें करी मनोहर एवा रागविशेष,तेणें करी पवित्रित एटले पवित्र क रेलो अर्थात् प्रशस्य मनोहर जे राग, तेणें उत्तम प्रकारे करी गान करे Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ए जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. लो एवो जे तमारो दिव्य वाणीरूप ध्वनि ते, हर्षे करी जेणे ग्रीवा ऊर्ध्व करेली ले एवा हरिणादि वनचर जीवोयें पण (पीतः के०) पान कस्यो ले. अर्थात् श्रवण कराय डे ॥ ३ ॥ ॥ तवेंधामंधवला, चकास्ति चमरावली ॥ हंसालिरिव वक्रान, परि चर्यापरायणा ॥ ४ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! चंकांति सरखी निर्मल एवी चमरावली, तमारा पार्श्वनागने विपे तमारा मुखकमलनी सेवा करवा माटें तत्पर एवी हंसश्रेणीज जाणे होय नहिं ! एवी शोने के ॥४॥ __॥ मृगेंशसनमारूढे, त्वयि तन्वति देशनाम् ॥ श्रोतुं मृगाः समायांति, मृगेंऽमिव से वितुम् ॥ ५ ॥ जावार्थ:-हे नाथ! सिंहासनने विपेचारूढ एवा तमें, धर्मदेशनाने विस्तार करवा लागे बते, (मृगाः के० ) सर्व व नचर जीवो ते धर्मदेशनाने श्रवण करवा माटें आवे , ते जाणे मृगादि वनचरजीवो वनमध्ये सिंहने सेवन करवा माटेंज प्राप्त थया होयं नहिं ! एम नासे . ए उत्पेदा ॥ ५ ॥ ॥ नासां चयैः परिवृतो, ज्योत्स्नानिरिव चश्माः ॥ चकोराणामिव ह शां, ददासि परमां मुदम् ॥ ६॥ नावार्थ:-हे नाथ ! कांतिना समुदायें करी आसपास सेवन करेला एवा तमें चंडिकायें परिवृत एवो चं जेम चकोरपदीयोनी दृष्टिने परमानंद नत्पन्न करे , तेम तमें पण देशनाने श्रवण करनारा लोकोनी दृष्टिने परम यानंद नत्पन्न करो बगे ॥६॥ ॥ कुंडनिर्विश्वविश्वेश, पुरोव्योम्नि प्रतिध्वनन ॥ जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं, साम्राज्यमिव शंसति ।। ७ ॥ नावार्थ:-हे विश्व विश्वेश ! तमारा अपना गमा आकाशने विपे नादने नत्पन्न करनारो जे कुंकुनि, ते सर्व जगत्मध्ये नीरागी पुरुषोने विपे पण तमारा उत्कृष्ट एवा साम्राज्यने जाणे कथन क रतो होय नहिं ! एम जासे ले. ए पण नत्प्रेदा ले ॥ ७ ॥ ॥ तवोर्ध्वमूर्ध्वं पुण्यर्डि, क्रमसब्रह्मचारिणी ॥ बत्रत्रयी त्रिवन, प्रनु त्वप्रौढिशंसिनी ॥ ॥ नावार्थः-हे नाथ ! तमारा मस्तकने विषे एक उपर बीजुं, तेनी उपर त्रीजुं, एवा कमें करी रहेनारी जे बजत्रयी ,ते पु एयलक्ष्मीयें करी उत्तरोत्तर वृद्धि पामनारो जे अनुक्रम, तेनी (सब्रह्मचा रिणी के०) सरखी होती थकी तमारूं जे त्रिभुवननु प्रनुत्व, तेनी प्रौढता ने कथन करती बता रहे ॥ ७ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य वीतरागस्तोत्र. ॥ एतां चमत्कारकरी, प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयंते न के दृष्ट्वा, नाथ मिथ्यादृशोपि हि ॥ ९ ॥ नाधार्थः - हे नाथ ! या पूर्वोक्त, तमारीं चैत्यवृ हादिक चमत्कारकारक एवी अष्ट महाप्रातिहार्यनी लक्ष्मीने अवलोकन कमिय्यादृष्टि एवा पुरा कथा पुरुषो याथर्य करशे नहि ? अर्थात् सर्वे पण आश्चर्य पामशे ॥ इति ऋष्ट प्रातिहार्यनामक पंचम प्रकाशः समाप्तः ॥ ५ ॥ ॥ अथ प्रतिपक्ष निरासनामा पष्ठ प्रकाशः ॥ ॥ लावण्य पुण्यवपुपि त्वयि नेत्रामृतांजने ॥ माध्यस्थ्यमपि दौः स्य्याय, किं पुनर्देषविप्लवः ॥ १ ॥ जावार्थ :- हे नाथ ! लावण्यें करी जेनुं शरीर पवित्र वे, अने नेत्रोने अमृतांजन एटले सिद्धांजन सरखा एवा जे तमें ते तमारे विषे मध्यस्थ नाव जे बे, ते पण दुःखने माटे थाय बे, तो पी छेपे करीज तमने संकट करवा, ते दुःखरूप थाय, एमां तो गुंज कहेतुं ? ॥ १ ॥ . ॥ तवापि प्रतिपदोस्ति, सोपि कोपादिविप्लवः || नया किं वदंत्या पि, किं जीवंति विवेकिनः ॥ २ ॥ · नावार्थः - केटलाएक एम कहे बे के; हे नाथ ! तमारे पण शत्रु ले ने ते कोपादिकें करीने विडंबित बे, एटले महा जयंकर ले. एवी वात सांजलीने विचारनिपुण एवा जे पुरुषो, तेज जीवे गुं ? अर्थात् नज जीवे. केम के विवेकी जीवो ने ते तमारे माथे शत्रु वे, एम सांगतांज प्राणनो पण त्याग करशे पग तमारे शत्रु बे एवं ते कदापि माननार नथी ॥ २ ॥ ॥ विषस्ते विरक्तश्चेत् स त्वमेवाथ रागवान् ॥ न विपको विपक्षः किं, खद्योतोद्युतिमालिनः ॥ ३ ॥ 'नावार्थ : हे नाथ! तमारे शत्रुने मित्र हुए नयी कारण के जो तमारो शत्रु नीरागी बे एम कहीयें तो तमा राशिवाय बीजो को नीरागी नथी. ने हवे तमारो शत्रु जो सरागी एम कहीयें तो ते शत्रु नथी. ए उपर दृष्टांत कहे बे. खद्योज नामक कीट सूर्यन शत्रु होय गुं ? अर्थात् नथी. सूर्यना तेज खागल तेनुं हीन पशुं बे. एवं हीं पण जाणवुं ॥ ३ ॥ ॥ स्पृहयंति त्वद्योगाय, यत्तेपि लवसप्तमाः ॥ योगमुदरिाणां, परे पां तत्कयैव का ॥ ४ ॥ नावार्थ :- हे नाथ ! जे कारण माटें अनुत्तर विमानवासी एवा देवो पण तमारा योगने माटें इवा करे बे, , तो प्रसन्नमु खत्वादि जे योगमुझ तेणे करी रहित एवा अन्य हरिहरादिक जे बे, तेजने • Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ - जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. . योगनी वार्ता पण क्याथीज प्राप्त थशे? अर्थात् प्रसन्नमुखत्वादि योगनी मुश पण ते हरिहरादिकोने नथी तो ते योग तो तेने क्याथीज होय ? ॥१॥ ॥ त्वां प्रपद्यामहे नाथ, त्यां स्तुमास्त्वामुपास्महे ॥ त्वत्तोहि न परस्त्रा ता, किं ब्रूमः किमु कुर्महे ॥ ५॥ नावार्थ:-हे नाथ !. अमें तो तमें जे नाथ, तेनोज अंगीकार करीयें बैयें. अने तमारी स्तुति करीयें .यें. तथा तमारी उपासना करीयें बैयें. कारण के, तमाराथी बीजो कोइ रहाण कर नारो नथी, ए माटें अमें बीजुं हुं बोलीयें! अने झुं करीयें ! ॥ ५ ॥ ॥ स्वयं मलीमसाचारैः,प्रतारणपरैः परैः॥ वंच्यते जगदप्येतत्, कस्य फू त्कुर्महे पुरः ॥ ६ ॥ 'नावार्थ:-हे नाथ! स्वतः जेनो अति मलीन आ चार , अने बीजाने फसाववामां तत्पर एवा अन्य हरिहरादिकोयें आ सर्व जगत् पण फसाव्युं जे. ए अमें कोनी भागल पोकार करीयें ? ॥६॥ ॥ नित्यमुक्तान जगजन्म, स्थेनदयकृतोद्यमान् ॥ वंध्यास्तनधयप्राया न्, कोदेवांश्चेतनः श्रयेत् ॥७॥ नावार्थ:-हे नाथ! कयो सचेतन पुरुष एवीरीतना हरिहर देवोनो आश्रय करे ? अर्थात् कोइ पण जीव करेज नहिं. हवे ते देव कहेवा ? तो के निरंतर मुक्तिपदने प्राप्त थयेला, अने वली जगत्नी उत्पत्ति,स्थिति अने संहारने विषे उद्युक्त, एकारण माटे ते वंध्यापुत्र सरखा , एटले जे नित्यमुक्त सिम बता वली जगतनी उत्प त्यादिक करे , माटे ते वंध्यापुत्र सरखाज जाणवा ॥७॥ ॥ कृतार्था जतरोपस्थ, स्थितैरपि दैवतैः ॥ नवादृशानिन्दुवते, हाहा देवास्तिकाः परे ॥ ७ ॥ नावार्थ:-हें देव! बीजा केटलाएक आस्तिक एटले तीर्थिक ( हाहाइतिखेदे के ) अरे तूं कहेवू ? अने केवा खेदनी वात ? के तमारा सरखा देवोने निंदे !!! हवे ए आस्तिकजनो केवा ? तो के जठर (पेट) अने उपस्थ ( शिश्न) एवं करी दुःखित एवा पण देवोयेंज कृतकार्य थया एम माननारा ३ ॥७॥ ॥ खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य, किंचित्मानं प्रकल्प्य च ॥ संमांति देहगेहे वा,न गेहे नर्दिनः परे ॥ए ॥ जावार्थः-बीजा केटलाएक तीर्थिक, पोताना घरमध्येंज शूर थका कांक दरिहरादिकोयें कहेला आकाशपुष्प सरखां न होनार अने अविद्यमान एवा खोटां साधननी संभावना करी अने वली बीजा अनुमाननी पण कल्पना करीने पोतानोज मत खरो छे ! एवा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. ए गर्वे करीने देह, अने घर, एउने विषे पण समाता नथी. अर्थात् अति गर्विष्ट थाय ने ॥ ए॥ . ॥ कामरागस्नेहरागा, वीषत्करनिवारणो॥ दृष्टिरागस्तु पापीयान, कुरु छेदः सतामपि ॥ १५॥ जावार्थः-हे नाथ! ( कामराग के०) स्त्रीराग अने (स्नेहराग के० ) पुत्रादिक राग, ते सुकर ने निवारण जेनुं एवा ने, पण (दृष्टिरार्गः के०) पोताना मतनो अनुराग ते महापापी , ए माटे ते राग, सङनोने पण दुःखें करीने छेदवाने योग्य ॥ १० ॥ ॥ प्रसन्नमाम्यं मध्यस्थे, दृशौ लोकप्टणं वचः ॥ इति प्रीतिपदे बाढं, मू ढास्त्वय्यप्युदासते ॥११॥ जावार्थ:-हे नाथ ! तमाएं प्रसन्न एवं मुख, म ध्यस्थपणुं धारण करनारी दृष्टि, अने लोकोने तृप्त करनारूं एवं वचन, एवा प्रकारे करीने अत्यंत प्रीतिना स्थानकरूप तमारे विषे पण मूढ पु रुषो उदासीन थाय ने, आ केवडुं महोटुं आश्चर्य में? ॥ ११ ॥ ॥ तिष्ठेशायुईवेदशि, ज्वलेऊलमपि क्वचित् ॥ तथापि ग्रस्तोरागायै, नर्ना प्लोनवितुमर्हति ॥ १२॥ नावार्थ:-हे नाथ ! कदाचित् वायु पण स्थिर थाय, तेमज-पर्वत पण स्वरूप थाय,अने जल पण प्रज्ज्वलित थाय, परंतु रागादिकोयें ग्रस्त एवो पुरुष (आप्त के०) नीराग थवा योग्य होतो नथी ॥ १२॥ इति प्रतिपदनीरासनामाः षष्ठ प्रकाशः ॥ ६ ॥ ॥अथ जगत्कर्तृनिरासनामा सप्तमप्रकाशः॥ . ॥ धर्माधर्मी विना नांगं, विमांगेन मुखं कुतः ॥ मुखाहिना नवकृत्वं, तबास्तारः परे कथं ॥ १॥ नावार्थः-हे नाथ ! ( धर्माधर्मी विना के०) पुण्य पाप विना शरीरज होतुं नथीं; कारण के धर्मे करीने सुंदर अने अध मैं करीने कुत्सित एवं शरीर थाय . अने ए शरीर विना मुरक केम उत्पन्न थाय? अर्थात् नज थाय. अने मुख विना वक्तृत्व एटले वाचकत्व न होय, ते कारणमाटे अन्य जे ईश्वरादिक देव, ते वली बीजाने शिक्षा देनारा केम थशे ? तेने धर्माधर्मादिकना अनावें करीने मुखादिकनो पण अना वज डे, एढले ते उपदेश करवामाटें अशक्यज जे ॥ १ ॥ ॥ अदेहस्य जगत्सर्गे,प्रवृत्तिरपि नोचिता ॥ न च प्रयोजनं किंचित् स्वातं ज्यान्न पराझ्या ॥ ५॥ नावार्थ:-हे नाथ ! देहरहित जे पुरुष, तेने Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. जगत्सृष्टिने विपे प्रवृत्ति करवी ते पण योग्य नथी, ए माटें तेनुं जगत्ने विपे स्वतंत्रपणुं माटे कांइ पण करवानुं प्रयोजन नथी. अने वीजानी आझायें पण तेनी प्रवृत्तिनुं निरुपयोगिपणुंज जाणवू. अर्थात् वेदु प्रकारनुं प्रयोजन अदेहधारी ईश्वरने 'होय नहि ॥ २ ॥ ॥ कीडया चेत्प्रवर्तेत, रागवान् स्यात् कुमारवत् ॥ कृपयाथ सृजेत्तर्हि, सुख्येव सकलं सृजेत् ॥ ३ ॥ नावार्थः-हवे जो ते अदेहवान ईश्वर,ज गत्ने विपे क्रिडायें प्रवृत्त थाय लो पडी राजपुत्रादिकनी पेठे आसक्त थाय. अथवा जो ते केवल लोकोनी दयायेंज जगत् सृजवा प्रवृत्त थाय, तो तारें सर्व जगतने सुरखवालुंज उत्पन्न करे ? ॥ ३ ॥ ॥ दुःखदौर्गत्यर्यो नि, जन्मादिक्लेशविह्वलम् ॥ जनं तु मृजतस्तस्या, क पालोः का कपालुता ॥ ४ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! मुःख, उर्गति, दरिश्प गुं, उष्टयोनिने विपे जन्म, इत्यादिक क्लेशे करीने व्याकुल एवा लोकने उ त्पन्न करनारा अने कपालु कहेवाता एवा ते अदेह ईश्वरनी दयालुता गुंने ? अर्थात् कांज नथी ॥४॥ ॥ कर्मापेक्षः सचेत्तर्हि, न स्वतंत्रोऽस्मदादिवत् ॥ कर्मजन्ये. च वैचित्र्ये, किमनेन शिवंमिना ॥ ५॥ नावार्थः-हवे जो ते ईश्वर, कर्मनेविपे (अ पेदायुक्त के० ) जेनें जेई गुन किंवा अगुन कर्म होय, तेने तेवू सुख दुः खादिक नुत्पन्न करनार जै, तो ते ईश्वर, अमारी सरखोज स्वतंत्र नथी, तो ते कर्मवश जाणवो. पनी कर्मे करीनेज सुखःस्वादि विचित्रपणुं नत्प न थाय ने, एम , तो पड़ी विश्वकर्तपणे करी कहेला नपुंसक सरखा ते ईश्वरें करी शुं कर्तव्य डे ? अर्थात् कांश कर्त्तव्य नथ ॥ ५॥ ॥अथ स्वनावतोवृत्ति, रविता महेशितुः ॥ परीक्षकाणां तयेष, परीक्षादेपमिमिमः ॥६॥ नावार्थः-अथवा महेश्वरनी स्वनावें करीनेज (वृत्तिः के०) जगतत्सृष्टिनी प्रवृत्ति विचारवा योग्य नथी. ते विपे झुं हेतु ? एम शंका करियें तो कहेजे ईश्वरनो स्वतंत्रपणानो स्वनांव ले तेज हेतु ले तो ए स्वजावरूप हेतुज, परीक्षा करनाराउनी परीक्षाना आक्षेप माटे मंको जाणवी. एटले कोइपण परीक्षा करशो नहीं, एवो अर्थ सूचवनारो मंको जाणवो. ए जावार्थ जे ॥ ६ ॥ ॥सर्वनावेषु कर्तृत्वं,ज्ञातृत्वं यदि संमतम् ॥ मतं नः संति सर्वझा,मुक्ताः Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. कायनृतोपि च ॥ ७॥ नावार्थः-हवे जो सर्व पदार्थोनेविपे कर्तृत्व अने झातृत्व अंगीकार करेलु होय, सो ते अमोने मान्यज ले. कारण के जेन सर्वज्ञपुरुष , ते मुक्तिपदनेविपे रहेनारा अने देहधारी होइने विहार ना करनार पण २ ॥ ". ॥ सृष्टिवादकुहेवाक, मुन्मुच्येत्यप्रमाणकम् ॥ त्वबासने रमंते ते, येपां नाथ प्रसीदसि ॥॥ नावार्थ:-हे नाथ ! तमें जे जन नपर प्रसाद करो बो,तेज जन पूर्वोक्त रीतियें प्रत्यदादि प्रमाणरहित एवा जगत्ना कर्तृत्वा दि वादनो जे कुत्सित अनिलाप तेने तजीने तमाराशासनने विपे प्रीति धारण करे ने ॥ ७ ॥ इति सप्तम प्रकाशः ॥ ७ ॥ श्लोकसंख्या ॥ ५५ ॥ ॥अथैकांतवादनिरासनामाऽष्टमप्रकाशः॥ ॥ सत्त्वस्यैकांतनित्यत्वे, कृतनाशाहतागमौ ॥ स्यातामेकांतनाशेपि, क तनाशाकृतागमौ ॥१॥ जावार्थः-अन्यना मतें एकांतवाद अने श्रीजिन नामतें स्याहाद, ए माटें एकांतवादना निराकरणमाटे कहे जे. (सत्त्वस्य के ) संपूर्ण घटपटादिक वस्तुने एकांतपणायें शाश्वत पणानो अंगीकार करे बते कुंनारादिकें करेला जे घटादिक तेना नाशनो प्रसंग आवे अने नित्यने करणत्वनो अयोग , माटे अकतनी प्राप्ति थाय, अने अकतनी प्राप्तिनो तो अनाव , ए माटे ए वात घटती नथी. ए मलीने आ वे दो पनो संजव , माटे एकांतनित्यपद पण बनतो नथी. तेमज सर्व वस्तु स्वरूप, अत्यंत दणिकत्वपण कृतनाश अने अरूतागम एनो प्रसंग आवे में माटे बनतुं नथी ॥१॥ ॥ए प्रमाणे अचेतन वस्तुस्वरूपनो निर्णय करीने हवे स चेतन आत्मस्वरूपy कथन करे ले. ॥आत्मन्येकांतनित्ये स्या,न नोगः सुखःखयोः॥ एकांता नित्यरूपेपि, न जोगः सुखदुःखयोः ॥ २ ॥ नावार्थः-एकांतत्वें करीने नित्य एवा आत्माने विषे सुख बने मुःख एउनो नोग एटले विपाक थाय नही, तो एकनेज सुरखनो किंवा फुःखनो नोग थशे. कारण के, नित्यनुं एकरूपत्व ले. तेम वली एकांत नित्यरूपमां पण एकांतत्वें करीने अनित्य बतां पण या स्माने विषे सुखःखनो जोग थनार नहि. जे कारण माटें, जे समयें सु Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. खनोग थाय , तेज समयें दुःखनोग बनतो नथी. अने कैणिकने तो बे एनी अवस्थिति होवानो अनाव ले. माटे ए बे प्रकारना दोषे करीने अत्माने विषे एकांते अनित्यत्व बनतुं नथी॥२॥ ॥ वली पण दोषांतर कहे जे ॥ . ॥ पुण्यपापे बंधमोदौ, न नित्यकांतदर्शने ॥ पुण्यपापे बंधमोदी, ना नित्यैकांतदर्शने ॥३॥ नावार्थ:-पुण्य अने पाप एटले धर्म अने अधर्म ए एकतायें करीने नित्यरूप नृथी. कारण, जे 'पुण्यनो कर्ता ते पुण्यनोज कर्ता, परंतु ते पापनो कर्ता नथी. अने नित्यने तो एक स्वनावत्व ;माटे 'पुण्यपापने निन्नत्व बे. तेमज धर्म अने अधर्म,ए एकांतें करीने नित्य नथी. कारण नित्यने एक स्वरूपत्व;अने ते धर्माधर्म एकांतें करीने अनित्यरूप. नथी. कारण, जे संमयें पुण्य करे , तेज समये पाप करतो नथी. द णिकने बे समयने विषे स्थितिनो अनांव डे. तेमज बंध अने मोद, ए पण एकांतें करीने नित्य देखाता नथी. कारण, जेने बंध, तेनोज कालां तरे मोद थाय .अने दणिकने तो कालांतर स्थितिनो अनाव ॥३॥ ॥फरी एकांतपदने विषे सर्व पदार्थोनो बाश्रय करीने दोषांतर कहेवा माटें कहे ॥ ॥ क्रमाक्रमान्यां नित्यानां, युज्यतेऽर्थ क्रिया नहि ॥ एकांतदणिकत्वे पि, युज्यतेऽर्थ क्रिया नहि ॥ ४ ॥ नावार्थः- एकांतें करीने नित्य एवा पदार्थोंने कमें करीने अने अक्रमें करीने अर्थक्रियाकारित्व संनवतुं नथी. कारण, नित्यएक स्वनावने क्रमनो अनाव जे; अने अक्रम कहीयें तो एक कालेंज सर्व क्रियानुं अकरण थशे. अने बीजे काले क्रियाना अकर गत्वें करीने अपदार्थत्वनो प्रसंग प्राप्त थशे. तेम एकांत दणिकत्वमां पदा ोनुं क्रमाक्रमे करीने अर्थ क्रियाकारित्व बनतुं नथी. कारण, दणिकने क्रमाक्रमनो अनाव बे, बने अक्रमपदने विषे दणिकने एककालें सर्वका लमा थनारी क्रियाकरवानां सामर्थ्यनो अनाव ॥ ॥ - ॥ एवा परमतना दोषोने प्रगट देखाडीने हवे पहोताना मतनुं स्व रूप कहेवा माटें कहे जे ॥ ॥ यदा तु नित्यानित्यत्व, रूपता वस्तुनोनवेत् ॥ यथाउनगवन्नैवं, तदा दोषोस्ति कश्चन ॥ ५॥ नावार्थ:-हे जगवन्, तमें जे प्रकारे क Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. २०१ रीने पदार्थोनी मुख्यरूपें करी नित्यता अने पर्यायरूपें करीने अनित्यता, कहो बगे,ते प्रमाणे पदार्थमात्रने जेवारें नित्यानित्य रूपता कहीयें, ते समय कृतनाश, अने अस्तागम इत्यादिक कांई पम्प दोष प्राप्त थनार नथी॥५॥ . ॥ ते विषे दृष्टांत कहे ॥ ॥ गुडोहि कफहेतुःस्या, नागरं पित्तकारणम् ॥ध्यात्मनि न दोषोस्ति, गुडनागरनेषजे ॥६॥ नावार्थः-गोल जे जे ते निश्चयें करीने कफकारक ने अने गुंठ जे डे, ते पित्तकारक बे; परंतु ते.उनयात्मक गोल अने गुंठ, ए वे साथे मटयां थकां एउनो औषधने विषे कफ अने पित्तपणानो दोष नथी; तेमज अहीयां स्याहादमां पण जाणवू ॥ ६ ॥ ॥ कोइ कहेंशे के एक ठेकाणे नित्यत्व अने अनित्यत्व ए विरुद ? तो तेना प्रतिषेधने माटें कहे ॥ ॥ध्यं विरुई नैकत्र, सत्प्रमाणप्रसिझतः॥ विरुवर्णयोगोहि, दृष्टोमे चकंवस्तुषु ॥ ॥ नावार्थः-एक ठेकाणे रहेनारुं नित्यानित्यरूप क्ष्य पण विरु६ नथी. कारण के ते रूडा प्रत्यक्ष्प्रमाणे प्रसि. ते क्यों ने ? एम कोई कहे तो, नीलपीतादिवर्णे करीने मिश्रित जे काबरचितरी वस्तु तेने विषे नीलपीतादिक विरुषवर्णनो संयोग प्रत्यद सर्वने देखायज ॥७॥ ॥ विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारं करंबितम् ॥ इब्रस्ताथागतः प्राको. नानेकांतं प्रतिक्षिपेत् ॥ ७॥ नावार्थ:-हे नाथ !. नानाप्रकारना आ कारें करीने मिश्रित, एवो ज्ञाननो एक जे प्रतिनास, तेने बनासे निपु ण जे बौछ ते, स्याहादनो प्रतिक्षेप करवा माटें समर्थ नथी, अर्थात् स्या छादना खमन करवाने समर्थ थतो नथी ॥ ७ ॥ ॥ चित्रमेकमने च, रूपं प्रामाणिकं वंदन ॥ योगोवैशेषिकोवापि, ना नेकांतं प्रतिदिपेत् ॥ ए॥ जावार्थः-तेमज नैय्यायिक अथवा वैशेषि क ते पण प्रामाणिक अने एक एवाने अनेकरूप चित्रविचित्र बोलता थका स्याधादने प्रतिक्षेप करवा माटें समर्थ थता नथी ॥७॥ ॥ बन्प्रधानसत्त्वायै,विरुदं गुंफितं गुणैः॥सांरख्यः संख्यावतां मुख्यो, नानेकांतं प्रतिदिपेत् ॥ १० ॥ नावार्थः-(संख्यावतां के०) दरपुरुषो मध्ये मुख्य पणाने मानतो एवो सांख्य ते, सत्त्व, रज अने तमोरूपथी नि नवनाव एवाजे गुणो,तेणें रचित एवा प्रधान प्रकतिनामक तत्त्वनेश्वतो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २०१ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. . थको ( अनेकांत के०) स्याद्वादनी, निंदा करवा माटें समर्थ नथी ॥१०॥ ॥ विमतिः संमतिर्वापि चावकस्य न मृग्यते ॥ परलोकात्ममोदेषु, य स्य मुह्यतिशेमुषी ॥ ११ ॥ नावार्थ : हे नाथ ! ( चार्वाकस्य के०) चा afकनामा नास्तिनी ( विमतिः के० ) विसंवाद ने संवाद तेनुं श्रमें अवलोकन पण करता नथी. कारण के, चार्वाकनी बुद्धि, परलोक, यांत्मा, ने मोह, एउने विषे मोह पामे बे, एटले मूढ थाय बे ॥ ११ ॥ ॥ तेनोत्पादव्यये स्थेम, संजिनं गोरसादिवत् ॥ त्वपङ्कं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तु वस्तु सत् ॥ १२ ॥ नावार्थ : हे नाथ! ते परमत दोष दर्श नाकारणें करीने चतुर पुरुषो, तमें वर्णन करेली जे परमार्थे करीने प्रशस्त एव चेतनाचेतनात्मक वस्तु ते अंगीकार करता हवा. ते वस्तु केवी बे ? तो के उत्पत्ति, विना ने स्थिरत्वें नेद पामेली एटले उत्पाद, व्यय ने धौ व्ययुक्त एवो अर्थ वे जेमां एवी. ए उपर दृष्टांत कहे बे के जेम एक पल गो रण प्रकारें करीने जिन्न होय बे ॥ नक्तं च ॥ पयोव्रतोन दुध्यत्ति न पयत्ति दधिव्रतः ॥ गोरसव्रतोनोने, तस्मादस्तु त्रयात्मकम् ॥ १२॥ इत्यष्ट्रमप्रकाशः ८ ॥ अथ कलिस्तवनामा नवम प्रकाशः ॥ • ॥ यत्राल्पेनापि कालेन त्वङ्गक्तेः फलमाप्यते ॥ कलिकालः स एकोस्तु, कृतं कृतयुगादिनिः ॥ १ ॥ नावार्थ : हे नाथ ! जे कलिकालने विषे थोडे पण काळें करीने तमारी सेवानुं फल प्राप्त थाय बे, ते एक कलिका लज प्रमोने हो. ते कृत जागे युगादिकालेंज ययुं एम मे मानसुं तो पी ते कालें शुं कर्त्तव्य बे ? कां कर्त्तव्य नंथी ॥ १ ॥ " ॥ सुपमातोः पमायां कृपा फलवंती तव ॥ मेरुतोमरुभूमौ हि, श्ला ध्या कल्पतरोः स्थितिः ॥ २ ॥ नावार्थ :- हे नाथ ! सुषम काल करतां षमकालने विषे तरी कृपा फलवाली थाय बे. ए उपर दृष्टांत कहे बे. जे कारण माटे मेरुपर्वत करतां मरु देशने विषे कल्पवृक्षनी जे स्थिति, ते निश्वयें करी श्लाघ्य एटने वखारावा योग्य होय ॥ २ ॥ ॥ श्राः श्रोता सुधीर्वक्ता, युज्येयातां यदीश तत् ॥ त्ववाननस्य सा म्राज्य, मेकत्रं कलावपि ॥ ३ ॥ जावार्थ:- ( ईश के० ) हे स्वामि न् ! ( श्राः के० ) धर्मविचार करनार श्रोता, खने ( सुधीः कै०) निपुण एवा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र.. २०३ धर्मविचार करनार वक्ता, ए बन्ने जो एक तेकाणे मले, तो था कलि कालने विषे पण तमारा शासन- एकबत्र एवं साम्राज्य के. एम जाणवू ॥३॥ ॥ युगांतरेपि चेन्नाथ, नवंत्युनूंखलाः खलाः ॥ तथैव तर्हि कुप्यामः, कलये वामकेलये ॥ ॥ 'नावार्थ:-हे नाथ ! जो कलियुगथी अन्य जे कृतादिक युग तेने विषे पण निरंकुश एवा खल होय, तो अमें जेनी क्रीडा प्रतिकूल बे एवा कलिकालने माटें व्यर्थज कोप करीयें बैयें ॥ ४ ॥ ॥ कल्याणसिध्यै साधीयान्, कलिरेय कपोपलः ॥ विनाग्निं गंधमहिमा, काकतुंमस्य नैधते ॥५॥ नावार्थः-हे नाथ ! मोदनीसिदिने माटें अथ वा शब्दबलथी सुवर्णसिदिने माटें कलिकाल, एज (कषोपलः के०) अत्यं त प्रशंस्य कसोटीनो पाषाण जाणवो. अर्थात् जेम कसोटी सुवर्णनी प रीदा थाय , तेम कलिये मोक्ष्नी सिदिनी परीक्षा थाय बे. अहिं दृष्टांत कहे . जेम अनि विना कृष्णागरुना गंधनो महिमा एटले सुगंधनुं गुरु वधि पामतुं.नथी, कारण के ते तो अनियेंज वृद्धि,पामे . तेम कलि कालें धर्मनो महिमा वृद्धि पामे जे.ए नावार्थ जाएगवो ॥ ५ ॥ ॥ निशि दीपोंऽबुधौ हीपं, मरौ शाख) हिमे शिखी ॥ कलौ कुरापः प्रा तोयं, त्वत्पादानरजःकणः ॥ ६ ॥ नावार्थः-हे नाथ ! जेम रात्रिने वि 'पे दीप, तथा समुज्ने विषे हीप एटले बेंट,तथा मरुदेशने विषे वृद,तथा हिमने विपे अग्नि जेम प्राप्त थाय, तेम दुष्प्राप एवो तमारा पदकमलनो रजःकण, कलिकालने विषे मने प्राप्त थयेलो ॥ ६॥ ॥ युगांतरेष्ठ ब्रांतोऽस्मि, त्वदर्शन विना कृतः ॥ नमोऽस्तु कलये यत्र, त्वदर्शनमजायत ॥ ७ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! दुं तमारा दर्शन रहित थको कृतयुगादिकने विपे ब्रांतियुक्त करेलो . माटें जे कलियुगने विपे तमारुं दर्शन थो, ते कलियुगने मारो नमस्कार हो ॥ ७ ॥ ॥ बहुदोषोदोषहीना, त्वत्तः कलिरशोजत ॥ विषयुक्तो विषहरा, फणीं इश्व रत्नतः ॥ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! जेमां बहुदोपो एवो पण कलिकाल,दोषे रहित एवा तमारा योगें करीने शोनायुक्त थयो . ए विषे दृष्टांत कहे . के जे, विर्षे करी युक्त एवो जे सर्पश्रेष्ठ ते, विषहरण कर नारा मस्तकसंबंधी जे रत्न तेणें करीने जेम शोने . तेम ा कलि पण शोने के ॥ ७ ॥ इति कलिस्तवनामा नवम प्रकाशः समाप्तः ॥ ए॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ॥ अथ अभुतस्तवनामा दशम प्रकाशः॥ ॥ मत्प्रसत्तेस्त्वत्प्रसाद, स्त्वत्प्रसादादियं पुनः॥ इत्यन्योऽन्याश्रयं निधि,प्र सीद जगवन्माय ॥१॥ नावार्थ:-हे नाथ ! (मत्प्रसत्तेः के०) मारा प्रसन्न पणा थकी (त्वत्प्रसादः के०) तमारों अनुयह थाय ,अने मारी प्रसन्नता, तमारा अनुग्रहें करी थाय . एवोजे अन्योन्याश्रयरूप दोष ,एटले एक, एक विना होय नहि. तेने तमें नाश करो. अने हे'नगवन् ! तमेंज मारे विपे प्रसन्न था. अर्थात् तमें मारी प्रसन्नताप्रत्ये अवलोकन करशो नही ॥१॥ ॥ निरीदितुं रूपलमी, सहस्रादोपि न मः॥ स्वामिन् सहस्त्रजि ह्वोपि, शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ॥ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! सहस्रलोच न एवो इंश पण तमारा रूपनी शोनाने निश्चोषपणे अवलोकन करवा स मर्थ थतो नथी. तेमज हे स्वामिन् ? जेने सहस्रजिह्वा , एवो जे पुरुष ते पण तमारा गुणोनुं वर्णन करवाने समर्थ थतो नथी ॥२॥ ॥ संशयान्नाथ हरसे, अनुत्तरस्वर्गिणामपि ॥ यतःपरोपि किं कोपि,गुण स्तुत्योऽस्ति वस्तुतः ॥३॥ जावार्थ:-हे नाथ ! तमें अनुत्तरविमानवासी एवा देवोना पण संदेहने निराकरण करो बो. एटले अनुत्तरविमानवासी देवोने संदेह उत्पन्न यये बते तेमने अन्य स्थानकें गमनागमननो अनाव बे, एमाटें तेउ तिहांज रहीने मनमांहे संदेह करे . ते संदेहयुक्त एवा दे वोने जावान् सर्वज्ञ,तमो अहींयांज़ रह्या बता जाएीने ते देवोना प्रत्युत्त रने मनोवगर्णायें करीने परिणमावो बो. त्यार पड़ी ते देवता अवधिझाने करी आप नामनःस्वरूप ज्ञानथी प्रत्युत्तरने पण जाणे जे. ए माटें हे नाथ ! था गुण करतां अपर कोइ पण गुण वस्तुताथी स्तवन करवा यो ग्य था जगम्प्रहे डे झुं ? अर्थात् नथीज ॥ ३ ॥ ॥ इदं विरुदं श्रवत्तां, कथमश्रद्दधानकः ॥ यानंदसुखसक्तिश्च, विरक्तिश्च समं त्वयि ॥४॥ नावार्थ:-हे नाथ! तमारे विषे एक कालेंज परमानंद सुखनी आसक्तता अने संसारथी वैराग्य, एवा था विरुपणुं नासनारा क्ष्यने (अश्रदधानकः के०) श्रदाने न धारण करनारो पुरुष, ते श्रदायें के म अंगीकार करे ? अर्थात् करे नहीं ॥४॥ ॥नाथेयं घट्यमानापि, उर्घटा घटतां कथम् ॥ उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु,परमा Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. २०५ चोपकारिता ॥५॥ नावार्थः-है नाथ ! सर्व प्राणीमात्रने विषे माध्यस्थ्य अने सर्व प्राणिमात्रने विषे उत्कृष्ट उपकारकर्तृत्व, ए स्थिनि, संजाव्यमान ने तोपण महापुर्घट . ते माटे ते बेदु वात तमारे विष केम घटे ? ॥ ५ ॥ ॥ध्यं विरुई.जग,स्तव.नान्यस्य कस्यचित् ॥ निर्यथता परा या च,या चोच्चैश्चक्रवर्त्तिता ॥६॥ नावार्थ:-हे जगवन ! परस्पर अघटमान,जे हवे कहे गुं एवां वे वानां तमनेज, बीजा कोश्ने नथी. ते कयां वे वानां? तो के एक तो उत्कृष्ट (निर्यथता के ) निष्परिग्रहता अने बीजुं अत्यंत (चक्रवर्त्तिता के०) धर्मचक्रवर्तित्व. अर्थात् ए बेहु तमारा विना बीजा कोश्ने नथी ॥६॥ ॥ नारकाअपि मोदंते, यस्य कल्याणपर्वसु ॥ पवित्रं तस्य चारित्रं, को वा वर्णवितुं दमः ॥७॥ नावार्थ:-हे नाथ! जे तमारा च्यवनादिक पंच कल्याण पर्व तेने विपे नरकवासी ज़ीवो पण आनंदने पामे जे. तेवा तमारा चरित्रने वर्णन करवा माटें अमारा सरखो कयो जन समर्थ थाय? ॥७॥ ॥ शमोतोद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाभुता ॥ सर्वातनिधीशाय, तुन्यं न गवते नमः॥॥ नाबार्थ:-हे नाथ! आश्चर्यकारक अन्त तमारं रूप, अने सर्व प्राणिमात्रने विषे अभुत एवी तमारे दया . ए माटें संपूर्ण आ श्वर्यने उत्पन्न करनारा जे गुणो तेना केवल महानिधान अने नगवान् एवा तमोने महारो नमस्कार हो ॥॥ इत्यभुतस्तवनामा दशमप्रकाशः ॥१०॥ ॥ अथ मदिमास्तव नामा एकादशप्रकाशः ॥ , ॥ निघ्नन् परीषहचमू, मुपसात प्रतिविपन् ॥ प्राप्तोसि शमसौहित्यं, महतां कापि वैषी ॥१॥ नावार्थ:-हे नाथ ! तमें (परीषहचमूं के) हुधा, तृषा, इत्यादिक बावीश परिसहनी सेनाने अत्यंत दणता थका अने देव, मनुष्य, तिर्यंच एज्य करेला उपश्वोनो प्रतिक्षेप करता थका शमें करीने जे सौहित्य एटले सुसमाहितत्व, ते प्रत्ये प्राप्त थया बो. ए माटें उत्तम पुरुषनी जे निपुणता, ते वचनातीत जे ॥ १॥ ॥अरक्तोनुक्तवान्मुक्ति, महिष्टोहतवान् हिषः ॥ अहो महात्मनां कोपि, महिमा लोकज़नः ॥ २॥ नावार्थ:-हे नाथ ! तमें विषयोने विपे अरक्त होता थका मुक्तिनो उपनोग करता हवा. अने इष रहित हो ता थका अंतरंग शत्रुने जीतता हवा. अहो इति आश्चर्य !! महात्मा जे Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. गुरुपुरुष, तेनो उर्लन एवो जे महिमा ते लोकोने अनिर्वचनीय जे ॥ २॥ ॥ सर्वथा निर्जिगीषेण, जीतनीतेन वागसः ॥ त्वया जगवयं जिग्ये, महतां कापि चातुरी ॥३॥ • नावार्थ:-हे नाथ ! सर्वप्रकारे करीने जेने जयनी बाज नथी, एवा अने अपराधीं जयं पामेला करतां पण जय पा मेला एवा तमोयें पोताना गुणोयें करीने त्रैलोक्य जीत्युं . या उपरथी एवं सिम थाय ले के, माहात्मा पुरुषोनी चतुरता अनिर्वचनीय ले ॥३॥ ॥ दत्तं न किंचित्कस्मैचि, नात्तं किंचित्कुतश्चनं ॥ प्रभुत्वं ते तथाप्पेत, कला कापि विपश्चिताम् ॥ ४ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! तमें कोइने कां पण प्रसादें करीने धनकनकादिक दीधुं नथी, अने कोइथी रोपें करी दं मादिक कांड पण ग्रहण कयुं नथी, तथापि तमाकं सर्वलोकने विषे प्रसि ६ एवं आधिपत्य वर्ते , ते कारणमाटे विवरण पुरुपनी कोइएक कला नी कुशलता अनिर्वचनीयज ले ॥ ४ ॥ ॥ यदेहस्यापि दानेन, सुकृतं नार्जितं परैः ॥ उदासीनस्य तन्नाथ, पा दपीते तवाऽलुत् ॥ ५॥ नावार्थ:-हे नाथ! तमाराथी अन्य एवा ती र्थिकोयें देहना त्यागें करीने पण जे पुण्य संपादन नथी कां, ते पुण्य, सुरूतसंपादन विपे नदासीन एवा पण तमारा पादपीठना अयनागने विपे अखंगत् केतां बालोंटलुं हवं ॥ ५॥ ॥ रागादिषु नृशंसेन, सर्वात्मसु कृपालुना ॥ नीमकांतगुणेनोचैः, सा म्राज्यं साधितं त्वया ॥ ६ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! वली तमें अत्यंत साम्राज्यने स्ववशमां संपादन करेलुं . ते तमें कहेवा. बो? तो के रागादिकने विषे निर्दयपणुं अने सर्व प्राणिमात्रने विषे कपाशीलता, तथा अंतरंग शत्रुना दमनने विषे नयंकरपणुं बने संयमादिक पालवाने वषे सुंदरपणुं एवा बो. ॥६॥ ॥ सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु,दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः ॥ स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या, तत्प्रमाणं सनासदः ॥ ७ ॥ नावार्थः-अन्य जे हरि हंरादिक देव,तेने विषे सर्वप्रकारे करीने दोषी ,अने हे नाथ! तमारेविषे सर्वात्मतायें करी नीरागादिक गुणोरहेला बे. आ में करेली तमारी गुणस्तुति जो मिथ्या होय, तो ए विषेसनासद प्रमाण जे.एटले सनासदो जे कहेशे तेज सत्य ॥७॥ ॥ महीयसामपि महा,न्महनीयोमहात्मनाम् ॥ अहो मे स्तुवतःस्वामी, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. २०७ स्तुतेर्गोचरमागमत् ॥८॥ नावार्थ:- हो इति याश्वर्ये ! हे जगवन् स्वामी, एवा तने स्तुति करनांरो एवो जे ढुं, ते मारा स्तुतिविषयने विषे यावता हवा. ते तमें केहवो बे? तो के अत्यंत महानमध्ये पण महान् ने महात्मा एवा जे गुरुपुरुषो तेनी मध्ये पणं पूज्य हो ॥ ८॥ इत्येकादश' प्रकाशः ॥ ११ ॥ ॥ अथ वैराग्य स्तवनामा छारा प्रकाशः ॥ . ॥ पवन्यासादरैः पूर्व, तथा वैराग्यमाहरः ॥ यथेह जन्मन्याजन्म, तत्सा मीनावमागमत् ॥१॥ नावार्थ : हे नाथ ! तमें पूर्वजन्मने विषे उत्तम अन्यासना यादरें करीने तेवो वैराग्य संपादन करो बे, के जे या जन्मने विषे पण ते वैराग्य, तमारा जन्मदिवसथी मांमीने सहजधर्मने पाम्यो बे... ॥ श्रखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ निस्तुषम् || मोक्षोपायप्रवीणस्य, य या ते सुखहेतुषु ॥ २ ॥ नावार्थ :- हे नाथ! मोक्षोपायनूत जे संतोषा दिक साधनो, तेने विषे निपुण एवा जे तमें ते तमने दुःखहेतु जे इष्टवि योगादिक तेनेविषे तेवो अत्यंत निस्लुष वैराग्य नथी, ज़ेवो सुखहेतु जे इष्ट संयोगादिक, तेने विषे निस्तुप वैराग्य बे ? ॥ २ ॥ ॥ विवेकशाणैर्वैराग्य, शस्त्रं शातं तथा त्वया ॥ यथा मोदेपि तत्सादा, दकुंठितपराक्रमम् ॥ ३ ॥ नावार्थ : हे नाथ! तमें विवेकरूप शस्त्रघर्षण यंत्रे करीने वैराग्यरूप शस्त्र एवं तीक्ष्ण कयुं बे, के जेवुं ते वैराग्यशस्त्र मो देपि तां मोने विषे पण अथवा शब्दबलें करी मूके थके पण, कुंठित बे पराक्रम जेनुं एवं बे ॥ ३ ॥ स्पष्टप ॥ यदा मरुन्नरेंश्री, स्त्वया नाथोपनुज्यते ॥ यत्र तत्र रतिर्नाम, वि रक्तत्वं तदापि ते ॥ ४ ॥ नावार्थ : हे नाथ ! तमें जे प्रस्तावने विषे ( मरुत् के० ) देव ने (नरें के० ) राजा, एनी लक्ष्मी उपनोग करा बे, ते प्रस्तावने विषे पण तमारी जे ते स्थजें रति, ते समाधि एवं नामें करीने वैरागपणुंज रहे बे ॥ ४ ॥ ॥ नित्यं विरक्तकामेच्यो, यदा योगं प्रपद्यसे ॥ अलमेनिरिति प्राज्यं, त दा वैराग्यमस्ति ते ॥ ५ ॥ नावार्थ :- हे नाथ ! तमें जे समयें निरंतर म नो एव शब्दादिक विषयोथी विरक्त थका चारित्रयोगनो अंगीकार करो बो, ते समय तमारे ते विषयें करीने गुं ? अर्थात् कांहिं नहिं. एवो तमा रे विषे प्रति श्रेष्ठ वैराग्य रहेलो बे ॥ ५ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०G जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ॥ सुखे कुःखे नवे मोदे, यदौदासीन्यमीशिपे ॥ तदा वैराग्यमेवेति, कु त्र नासि विरागवान् ॥ ६॥ नावार्थः-हे माथं ! तमें जे समयें सुख, उःख नव बने मोक्ने विपे औदासीन्य धारण करो बो,ते समय पण तमने वैरा ग्यज रहे .ए माटेंतमें कया कालें कया स्थलें वैराग्यवान् नथी? अर्थात् सर्व कालें सर्वस्थलें वैराग्यवानज बो ॥ ६ ॥ ॥ दुःखगर्ने मोहगर्ने,वैराग्ये निष्ठिताः परे॥झानगर्न तु वैराग्यं त्वय्यैवा कात्मतां गतम् ॥ ७ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! अन्य एवा संसारी जीव, खगड़ित वैराग्यने विषे अने मोहगर्नित वैराग्यने विषे निष्ठा प्रत्ये पामेला बे, अने तमारे विषे झानगर्नित एवो वैराग्य एकाश्रयताने पामेलो . अ र्थात् तमारा जेवो वैराग्य कोश्ने नथी ॥ ७ ॥ ॥ योदासीन्येपि सततं, विश्वविश्वोपकारिणे ॥ नमोवैराग्यनिघ्नाय, ता यिने परमात्मने ॥ ७ ॥ नावार्थः-ए माटें निरंतर उदासीनत्वं बते प ए संपूर्ण जगत् नपर नपकार करनारा, वैराग्यतत्पर अने सर्व प्राणिमात्रनुं रहाण करनारा एवा परमात्मा जे तमें ते तमने महारो नमस्कार हो॥७॥ इति वैराग्यस्तवनामा हादशः प्रकाशः ॥१२॥ ॥ अथ. हेतुनिरासनामा त्रयोदश प्रकाशः॥ . ॥ अनादूतसहायस्त्वं; त्वमकारणवत्सलः ॥ अनन्यर्थितसाधुस्त्वं, त्व मसंबंधबांधवः ॥ १॥ नावार्थ:-हे नाथ! तमें न. बोलाव्या बता पण सखा प्रमाणे आचरण करनारा, अने कारण विना हितकर्ता, अने प्रार्थना न कस्या बता पण परकार्य साधन करनारा बो. अने संबंधविनाना बांधव गे॥ ॥ अनक्तस्निग्धमनस,ममृजोज्ज्वलवाक्पथम् ॥ अधौतामलशीलं त्वां, श रण्यं शरणं श्रये ॥ २॥ नावार्थः-एमाटें अन्यंग विनाज जेनुं मन स्ने हयुक्त ने, अने मलापकर्षण विना जेनो वचनमार्गनिर्मल , अने प्रदालन कस्या विनाज जेनो स्वनाव निर्मल , एवा शरण जवा योग्य जे तमें, ते.तमारा शरणनो हुँ आश्रय करूं बुं ॥ २ ॥ ॥ अचमवीरव्रतिना, शमिना समवर्तिना ॥ त्वया काममकुठ्यंत, कुटि लाः कर्मकंटकाः ॥ ३ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! शांत बता पण सुनटव्रत वाला अने (शमिनासमवर्तिना के ) शमशील अने शत्रुमित्रादिकोने Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. ए विषे समानरूपें.करीने वर्तनारा एवा तमें अत्यंत कुटिल एवा कर्मरूप कांटा तोडी नारख्या डे ॥३॥ ॥ अनवाय महेशाया, गदाय नरकंलिदे ॥ अराजसाय ब्रह्मणे, कस्मै चिन्नवते नमः ॥४॥. भावार्थः-नहीं नवकेतां शंकर अथवा नथी नव केतां जन्म जेने ते अनव कहियें ए अनव एवा (महेशाय के०) ईश्वर अथवा त्रिनुर्वनना स्वामी,अमे नथी गदा नामर्नु आयुरू अथवा नथी गद एटले रोग जेने एवा, वली नरक जे नरकयातना तेना बंद करनारा एवा अने नथी रजोनाव एटले विषयानिलाष जेने एवा तथा (ब्रह्मणे के०) पर ब्रह्मस्वरूप एवा को एक अलक्ष्यस्वरूप जे तमें,तेने महारो नमस्कार हो: था ठेकाणें शिव, विष्णु, ब्रह्मा न बतां पण तेन्नां अन्य कार्य करी नामधा रण करनारा जगवान् कह्या.ए विरोधानास अलंकार जे. एम जाणवू ॥॥ ॥ अंतूषितफलोदया, दनिपातगरीयसः ॥ असंकल्पितकल्पशे, स्त्वत्तो फलमवाप्नुयाम्॥ ५॥ नावार्थ:-हे नाथ ! सिंचन.कस्या विनाज फलोयें करीने अभुत, पतनरहित बतां अत्यंत महान, अने असंकल्पित एवा प ए मनोरथने पूर्ण करनार, कल्पद एवा जे तमें, ते तमाराथी हुँ य नीष्ट फलने पामुं!॥ ५॥ ॥ असंगस्य जिनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः ॥ मध्यस्थस्य जगबातु, रनंकस्तेस्मि किंकरः ॥ ६॥ नावार्थ:-हे नाथं ! जेने धन कनकादिकनो परिग्रह नथी, सामान्यकेवलीना (ईशस्य के०) स्वामी, ममतार हिंत, अने जेनुं चित्त कपारूप ने, अने बीजानी अपेक्षायें रहित, अने सर्व जगत्ना त्राता एवा जे तमें ते तमारो त्रिशूलपातादिक चिन्हर हित एवो ढुं सेवक बुं॥ ॥ अगोपिते रत्ननिधा,ववृते कल्पपादपे ॥ अचिंत्ये चिंतारत्ने च,त्वय्या स्माऽयं मयार्पितः॥७॥ नावार्थ:-हे नाथ ! नहिं ढांकेलो एवो जे रत्ननो निधि, अने नहि सेवन करेलो एवो जे कल्परद, अने चिंतन करवा माटें अशक्य एवो जे चिंतामणि, ते समान जे तमें,ते तमारे विषे में आ महा रो आत्मा समर्पण कस्यो जे ॥ ७ ॥ ॥ फलानुध्यानवंध्योऽहं, फलमात्रतनुर्नवान् ॥ प्रसीद यत्कृत्यविधौ, किं कर्तव्यजडे मयि ॥॥ नावार्थ:-हे नाथ ! हुं फलनी चिंतवनायें रहित बूं, अने तमें फलरूप शरीर बो, ए माटें कये समये गुं करवु ? ए विषे मूर्ख Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. एवो जे हुं, ते मारे विषे, मारे गुं कर जोइयें ? ते वालमां मारी ऊपर प्रसाद करो ॥ ॥ इति हेतु निरासनामकत्रयोदशः प्रकाशः ॥ १३ ॥ ॥ प्रथ योगस्तवनामा 'चतुर्दशः प्रकाशः ॥ ॥ मनोवचः कायचेष्टाः, कष्टाः संहृत्य सर्वथा ॥ श्वयत्वेनैव जवंता मनःशल्यं वियोजितम् ॥ १ ॥ नावार्थ :- हे नाथ ! तमें मायासें करीने ज कष्टकारक एवा मन, वचन, अने. देह, एनी व्यापाररूप क्रियाउने स र्वप्रकारें करी संतृत करीने मनोरूपशव्यनुं प्रथक्करण करूं बे ॥ १ ॥ ॥ संतानि न चाहाणि, नैवोश्रृंखलितानि च ॥ इति सम्यक्प्रतिपदा, त्व ये प्रियजयः कृतः ॥ २ ॥ नावार्थ:- उत्तमप्रकारनुं जेनुं ज्ञान के एवा जे तमें ते तमें, पोतपोताना विषयोनेविषे प्रवृत्त स्वी कर्णादि पंचेरियोने अत्यंत संयमित न करी, ने अत्यंत विषयासक्त पण न करी. कारण के गुना शुन पदार्थरूप विप्रयोनेविपे हर्ष ने विषाद, एउनुं त्यागपणुं बे. माटें हे नाथ! तमें पूर्वोक्त रीतें इंडियजय को बे ॥ २ ॥ ॥ योगस्याष्टांगता नूनं, प्रपंच: कथमन्यथा ॥ श्राबाजनावतोप्येष, तव सात्म्यमुपेयिवान् ॥३॥ नावार्थ : हे नाथ! अध्यात्मयोगनी पण अष्टां गता बे. ते कये प्रकारें अष्टांगता के ? तो के यम, नियम, आसन, प्राणा याम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा ने समाधि ते रूप विस्तार, निश्वयें करीने बेज. ( अन्यथा के० ) जो एम. अष्टांगता प्रपंच न होय तो या योग, बालपणाथी पण तमारा स्वरूपना संहितपणां प्रत्यें केम. प्राप्त थाय ? अर्थात् प्राप्त थायज नहीं ॥ ३ ॥ विषयेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि ॥ योगे सात्म्यमदृष्टेपि, स्वामि निमलौकिकम् ॥ ४ ॥ नावार्थ :- हे स्वामिन्, चिरकालसहचर एवा मनोज्ञशब्दादिक विषयोमां आपने, यापमां अध्यात्मयोग न दीसतां बतां पण सहज जावें करीने वैराग्य बे, ए केवल अलौकिकजं बे कारण के लो कमध्यें तो दृष्टने विषे राग याय, पण दृष्टमां तो राग होतो नथी ॥४॥ ॥ तथा परे न रज्यंत, उपकारपरे परे ॥ यथापकारिणि नवा, नहो सर्वम लौकिकम् ॥ ५ ॥ नावार्थ :- हे नाथ ! जेवा तमें अपकार करनारा जनोने विषे स्नेहयुक्त हो, तेवा अन्यलोक, उपकार विषे तत्पर एवा पण अन्य Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. २२२ जनने विषे स्नेaयुक्त यता नथी. ते माटें ग्रहो ! ! ! या सर्व (अलौकिकं के० ) तमारुं चरित्र लोकोत्तर है ॥ ५ ॥ ॥ हिंसकाप्युपकता, प्राश्रिताप्युपे चिंताः ॥ इदं चित्रं चरित्रं ते, के वा पर्यनुयुंजताम् ॥ ६ ॥ . जावार्थ : हे नाथ ! तमें हिंसा करनारा पुरु पोपण, स्वर्गादिकने विषे पहोंचाडीने, उपकारसंयुक्त कथा; ने सेवापर एवा सिंकादिक पुरुषो (उपेदिताः के० ) उपेक्षित करा. एटले ते नरकगति निवारण करी नहीं. तस्मात् हे नाथ! या पूर्वोक्त तमारा श्रार्य कारक चरित्रने विषे कया पुरुषोने पूढीयें ? अर्थात् कोण पुरुष त्व त्सदृश व्याचरण करवा माटें समर्थ बे ? कोई नयी ॥ ६ ॥ ॥ तथा समाधौ परमे, त्वय्यात्मा विनिवेशितः ॥ सुखी दुःख्यस्मि ना स्मीति यथा न प्रतिपन्नवान् ॥ ७ ॥ नावार्थ :- हे नाथ! तमें उत्कृष्ट स माधिने विषे तेवे प्रकारें करीने श्रात्मा स्थापन को ले के, ढुं सुखसंयुक्त बुं, अथवा दुःख संयुक्त बुं ! ए कांइ जाणता नयी ॥ ७ ॥ ॥ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयमेकात्मतां गतम् ॥ इति ते योगमाहात्म्यंं, कथं श्रदीयतां परैः ॥८॥ जावार्थ :- हे नाथ ! ( ध्याता के० ) ध्यान क रनार, (ध्यानं के० ) गुनाशुनपरिणामरूप मननो व्यापार, तेमज (ध्ये यं के० ) ध्यान करवाने योग्य एवं परमात्मस्वरूप, ए त्रणे पण एका त्मतायें करी तमारे विषे प्राप्त यएतां वे, माटें तमारुं ( योगमाहात्म्यं के० ) योगप्रत्रुत्व ते, ( परैः के० ) अन्य जे खमारा सरखा जन, तेन एं केवी रीतें श्रद्धायें ग्रहण याय ? अर्थात् अन्य पुरुषोयें पण तमारुं योगमा हात्म्य ॥ ॥ इति योग स्तवनामा . चतुर्दशप्रकाशः समाप्तः ॥ १४ ॥ ॥ अथ भक्तिस्तवनामा पंचदशः प्रकाशः ॥ ॥ जगत्रागुणास्त्रात, रन्ये तावत्तवासताम् ॥ नदात्तशांतया जिग्ये, मुड्यैव जगत्रयी ॥ १ ॥ नावार्थ:- हे त्रातः! कहेतां हे रक्षक ! तमारा ज गत् ने जीतनारा अन्य गुण तो प्रथम दूर रहो, परंतु उभट होइने शांत एव तमारी कृतियेंज या त्रिभुवनने जीत्युं बे ॥ १ ॥ ॥ मेरुस्तृणीकृतोमोहा, त्वयोधिर्गोष्पदीकृतः ॥ गरिष्ठेच्यो गरिष्ठोयैः, पा मस्त्विमपो हितः ॥ २ ॥ नावार्थ : हे नाथ ! जे पापी पुरुषोयें, सर्व Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. मध्ये श्रेष्ठ अने गुरुना पण अत्यंत. गुरु एवा जे तमें ते तमारी निंदा करी; तो ते पापी पुरुपोयें मोहें करीने एटले अज्ञानें करीने मेरु पर्वत' पण तृण सरखो गण्यो. अने समुश्ने पण गोष्पद सरखो गण्यो; एवं जाणवू. अर्था त् तमारी निंदा करनारा प्राणी अति मूर्ख जमणवा ॥ ५॥ . ॥ च्युतश्चिंतामणिः पाणे, स्तेषां लब्धा सुधा मुधा ॥ यैस्ते शासनस र्वस्व, मझानै त्मसात्कृतम् ॥ ३ ॥ . नावार्थः हे नाथ, जे ज्ञानरहित एवा पुरुषोयें तमारी आझार्नु रहस्य अंगीकार कयुं नहिं; ते पुरुषना ह स्तथी चिंतामणिज भ्रष्ट थयो, किं वा ते पुरुषोने प्राप्त थए@ अमृत व्यर्थ गयु. एम जाण ॥ ३ ॥ ॥ यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टि,मुल्मुकाकारधारिणीम् ।। तमाशुशुणिः सादा, दालप्यालमिदं हि वा ॥४॥ नावार्थः हे नाथ! जे जन तमारे विषे ज्व लितकाष्ठना आकारने धारण करनारी एटले क्रोधे आरक्तवर्ण एवी दृष्टिने धारण करे जे, तेने यागुशुणिः , एटले अग्नि, एवं साक्षत् कहि स्तुति कर्ता (अलं के०) पूर्ण थयुं एम कहि रहि गयो, अर्थात् स्तुतिकर्ता पुरुष, तेने अनि बालो. एवं कहेवा मा प्रथम प्रवृत्त थयो,परंतु तेने अनि एम कहिने बालो एवं नाशसूचक क्रियापद कहेQ ए ठीक नही एम विचार करी तेने अनि एटलुंज बोली पागल स्तब्ध रही गयो ॥ ४ ॥ ॥ त्वबासनस्य साम्यं ये, मन्यते शासनांतरैः ॥ विषेण तुल्यं पीयूषं, तेषां हंत हतात्मनाम् ॥५॥ जावार्थः हे नाथ ! जे पुरुषो, तमारा शा सनने परशासननी साथें समान माने , ते जनने (पीयूपं के०) अमृत,ते विष सरखं डे, (दंत के० ) ए महोटा खेदनी वात ! वली ते जन कहेवा जाणवा ? तो के निंदा करवा योग्य डे मन जेनुं एवा जाणवा ॥ ५ ॥ ॥अनेडमूकानूयासु,स्ते येषां त्वयि मत्सरः॥ गुनोदर्काय वैकल्य,मपिपापे पु कर्मसु ॥६॥ नावार्थ:-हे नाथ! जे पुरुषोने तमारेविषे अत्यंत शेषप्राप्त थयो, ते पुरुषो,कर्ण अने वचन एनएं रहित था. अने ए प्रकारना कथन करनारना पापकर्मने विषे जे व्यंगत्व थाय,ते पण गुनफलने माटें जे.॥६॥ ॥ तेन्योनमोंजलिरयं, तेषां तान् समुपास्महे . ॥ त्वबासनामृतरसैर्येरा मा सिंच्यतान्वहम् ॥ ७ ॥ लावार्थः-हे नाथ! जे जनोयें तमारा शास नरूप अमृतरसें प्रतिदिवस पोतानो यात्मा सिंचन कस्यो , ते जनोने न Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. २१३ मस्कार हो. अने ते जनोने आ में करसंपुट करेलो जे. अने हे नाथ ! अमें ते जनोने सेवीयें बैयें ।। ॥ .. ॥ नुवे तस्यै नमोयस्यां, तव पादनशिवः ॥ चिरं चूडामणीयंते, ब्रू महे किमतः परम् ॥.. नावार्थ:-हे नाथ ! जे नूमिने विषे तमारा चरणनखनां किरणो, चिरकाल पर्यंत (चूडामणीयंते के० ) रक्काजरण सरखां आचरण करे : ते नूमिने अमारो नमस्कार हो. हे नाथ! अमें ए पड़ी गुंनाषण करीयें ? कारण केजे तमारा चरणनखें स्पर्श करेली एवी नूमि तेने पण अमे नमस्कार करीयें बैयें ॥ ॥ ॥ जन्मवानस्मि धन्योस्मि, कृतकृत्योस्मि यन्मुहुः ॥ जातोस्मि स्वर्ण ग्राम, रामणीयकलंपटः ॥ ए॥ नावार्थ:-हे नाथ! जे कारण मात्रै हुँ वारं वार तमारा गुणसमुदाय जे मनोहर पगुं,तेने विषे (लंपटः के०) त त्पर एवो , ते कारण मात्रै हुँ सफलजन्मा बु, हुँ (धन्यः के०) वखा एवा योग्य बुं अने ढुं कृतकृत्य बुं एंटले कृतकार्य थयो बुं ॥॥ इति श्री जक्तिस्तव नामा पंचदशंः प्रकाशः ॥ १५ ॥ .. ॥अथात्मगर्दास्तवनामा पोडश प्रकाशः॥ ॥ त्वन्मतामृतपानोबा,श्तः शमरसोर्मयः ॥ पराणयंति मां नाथ,परमा नंदसंपदम् ॥ १॥ नावार्थ:-हे नाथ! (इतः के०) आ एक पार्श्वना ग थकी शमरसना जे तरंगो ते, मने.परमानंदनी संपत्तिप्रत्ये पंमाडे ने. ते शमरसना. तरंगो कहेवा के ? तो के तमारा मतरूपज जे अमृतपान , तेनाथी उत्पन्न थयेला ॥ १ ॥. . ॥ इतश्चानादिसंसार, मूर्वितोमूर्खयत्यलम् ॥ रागोरगविषावेगो, हताशः करवाणि किम् ॥ २॥ नावार्थ:-हे नाथ! (इतः के०) या बीजा पा वनागथी अनादिसंसारनी वासनायें वृद्धि पामेला एवा विषयरूप सर्पना विषनो वेग, मने अत्यंत मूर्बाने पमाडे . माटें ( हताशः के०) जेनी याशा नंगई डे; एवो जे ढुं ते गुं करुं ? ॥ ॥ ॥ रागादिगरलाऽऽघातोऽ, कार्ष यत्कर्म वैशसम् ॥ तत्तुमप्यशक्तोस्मि, धिङ्मे प्रसन्नपापिनः ॥ ३ ॥ दणं सक्तः दणं मुक्तः, दणं कुछः दणं दमी ॥ मोहाद्यैः क्रीड़येवाहं, कारितः कपिचापलम् ॥ ४ ॥ नावार्थः Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. हे नाथ! हुँ, राग एज को एक सर्प, तेने विपे मूर्छित होतो थको, पर दारागमनादिक ने उष्ट कर्म तेने करतो हवों,ते कर्म कहेवां ले ? तो के ते कर्मने कहेवा पण ढुं असमर्थ . माटें गुप्तपापी एवो जे ढुं, तेने धिक्कार हों ॥३॥ हे नाथ! मोहांदिकोयें मनें मर्कट सरखी चापल्यदशाप्रत्ये पमाडेलो . ते केवी रीतें ? तो के-अन्य पुरुषोयें क्रीडायें करी जेवी रीतें वानरने चापल्य करावाय जे? तेथी केवो ढुंथयो ,तो के या संसारने विषे मात्र आसक्त, अने दणमात्र मुक्त, क्षणमात्र क्रोधायमान अने दण मात्र कमावान ए प्रकारना चापल्यप्रत्ये मने मोहादिकोयें पमाडेलो ॥४॥ ॥ प्राप्यापि तव संबोधि, मनोवाक्कायकर्मजैः ॥ मुश्चेष्टितैर्मया नाथ, शिरसि ज्वालितोऽनलः ॥ ५॥ त्वय्यपि त्रातरि त्रात, यन्मोहादिमलि म्लचैः ॥ रत्नत्रयं मे हियते, हताशोहा हतोस्मि तत॥ ६॥ नावार्थ:-हे नाथ ! तमारा सम्यक् धर्मने पामीने पण मन,वाणी अने काय एउंना व्या पारथकी उत्पन्न थएला जे सुष्कर्मो तेणे करी मारा मस्तकने. विषे में अग्नि प्रज्ज्वलित कस्यो बे.अर्थात् हवे ते अनि मने अत्यंत ताप नत्पन्न करे ॥५॥ हे त्रातः के०) हे रक्षण करनारा ! तमें रक्क बतां मोहादिक चोरोयें मारु (रत्नत्रयं के० ) ज्ञान दर्शन चारित्ररूप, अथवा देव, गुरु धर्मरूप रत्नत्रय द रण कयुं,एटले हा इतिखेदे ज़ेनी आशा नष्ट थएली एवो हुँ थयो बुं ॥६॥ ॥ ब्रांतस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं, मयैकस्तेषु तारकः ॥ तत्तवांझो विलयोस्मि, नाथ तारय तारय ॥ ७ ॥ नवत्प्रसादेनैवाह, मियती प्रापितो नुवं ॥ औदासीन्येन नेदानीं, तव युक्तमुपेदितुंम् ॥॥ नावार्थ:-हे नाथ ! ढुं नाना प्रकारना तीर्थोनेविषे भ्रमण करतो हवो, परंतु ते सर्वतीर्थोने विषे में, संसारसमुथी तारनारा एवा एक तमनेज अवलोकन कया. माटें ढुं तमारा चरणकमलने विषेलम थयो बु.ए माटे हे नाथ! तमें मने तारो, तारो॥७॥ हे नाथ ! तमारे प्रसादें करीनेज ढुं या मनुष्य जन्मादिक नूमि काप्रत्ये प्राप्त थयो बूं, ते माटें सांप्रतकालें उदासीन धर्मे करीने तमने मारी उपेक्षा करवी, ते योग्य नथी ॥ ७ ॥ ॥ज्ञाता तात त्वमेवैक, स्त्वत्तोनान्यः कृपापरः ॥ नान्योमत्तः कृपापात्र, मेधि यत् कत्यकर्मतः ॥ ॥ नावार्थ:-हे तातः! तमेंज एक निपुण बो. तमाराथी बीजो कोई दयापर नथी, अने मारा करतां बीजु कोइ कपा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. २१५ करवाने गरीब पात्र नथी, ए माटें तमें जे कृत्य करवामाटें योग्य हो, ते कृत्य करीने वृद्धि पामो ॥ ए॥ इत्यात्मगहस्तवनामा षोडशः प्रकाशः ॥ १६ ॥ ॥ अथ शरणागमननीमा सप्तदशः प्रकाशः ॥ ॥ स्वकृतं दुःकृतं गर्हन, सुकृतं चानुमोदयन् ॥ नाथ त्वच्चरणौ यामि, शरणं शरणोतिः ॥ १ ॥ मनोवाक्कायजे पापे, कृतानुमतिकारिते ॥ मे मि या कृतं नूया, दपुनः क्रिययान्वितम् ॥ २ ॥ जावार्थ :- हे नाथ ! श्राश्र ये रहित एवोढुं पोतें करेलां पापोनी निंदा करतो थको ने पुष्यनुं नुमोदन करतो. थको तमारा चरणप्रत्यें शरण याव्यो बुं ॥ १ ॥ . हे ना 'थ ! मासं स्वतः करवायें ने बीजा पासें कराववे करीने उत्पन्न थयेला जे कायिक, वाचक ने मानसिक पापो, तेनेविषे फरीने तेम न थाय. तेवी क्रिया युंक्त एवं दुष्कर्म मिथ्या हो. अर्थात् मिथ्याडुक्कड हो ॥ २ ॥ " , " ॥ यत्कृतं सुकृतं किंचि, इन त्रितयगोचरम् ॥ तत्सर्वमनुमन्येऽहं, मार्गमा त्रानुसार्यपि ॥ ३ ॥ सर्वेषामर्हदादीनां योयोर्हत्वादिकोगुणः ॥ अनुमो दयामि तं तं सर्व तेषां महात्मनाम् ॥ ४॥ जावार्थ:- हे नाथ ! में, ज्ञान, दर्शनचारित्र विषयक जे कांइ पुण्य करयुं होय, ते सर्वने केवलत्राचारमात्रने अनुसरनारो एवो पण हुं अनुमोदन करुं हुं ॥ ३ ॥ हे नाथ ! संपूर्ण हैदादिकोना एटले र्हत्, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय ने सर्व साधुएना त्त्व सिद्धत्वादिक जे जे गुएगो बे, ते संपूर्ण एवा प्रदादिक महात्मा ना. गुणो प्रत्यें हुं अनुमोदन करूं बुं ॥ ४ ॥ ॥ त्वां त्वत्फलनूतान् सिद्धां स्त्ववासनरतान्मुनीन् ॥ ववासनं च श रणं, प्रतिपन्नोस्मि नावतः ॥ ५ ॥ मयामि सर्वान् सत्त्वान्, कमयामि सर्वान् सवान्, सर्वे काम्यंतु ते मयि ॥ मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु, त्वदेकशरणस्य मे ॥ ६ ॥ नावार्थ :- हे नाथ ! हुं तमाराप्रत्यें ने तमारा फलनूत एटले तमारी उपासना करी ने सिद्ध थयेला जे सिद्ध बने तमारा मतने विषे यासक्त एवा जे मुनियो, ने तमारुं जे शासन, ए सर्वप्रत्यें जावें करीने शरणें व्यो बुं ॥ ५॥ हे नाथ ! हुं श्रा एकेंशिया दिकथी मांमीने पंचेंप्रिय पर्यंत सर्वप्राणीयोने कमा कर वानी प्रार्थना करुं बुं. ते सर्व प्राणीयो मने क्षमा करो. जेने तमेंज एक शरण बो एवो जे ढुं, ते मारे सर्वप्राणीउने विषे मैत्री केतां हितबुद्धि था ॥ ६ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैनकथा रत्नकोप नाग पदेलो. ॥ एकोहं नास्ति मे कश्चि, न चाहमपि कस्यचित् ॥ त्वदेहिशरणस्थ । स्य, मम दैन्यं न किंचन ॥ ७॥ यावन्नाप्नोमि पदवीं, परां त्वदनुना वजाम् ॥ तावन्मयि शरण्यत्वं, मामुचः शरणं श्रिते ॥ ७॥ नावार्थः-. हे नाथ ! ढुं एक बुं, मारे बीजो कोइ नथी, श्रमे ढुं पण कोइनो संबंधी नथी, ए माटें हे नाथ! तमारा चरणने विषे शरणे आवेला मने कांहिं पण दीनपणुं नथी ॥ ७ ॥ हे नाथ ! दुं ज्यां सुधी तमारे प्रनावें करीने प्राप्तथयेली नत्कृष्ट एवीजे मोपदवी. ते प्रत्ये प्राप्त थयो नथी, त्यां सुधी हे जगवन् ! शरणागत राणपणाने तमें बोडशो नहि. अर्थात् शरणे यावे जो जे ढुं तेनो त्याग करशो नहिं ॥ इति सप्तदश प्रकाशः ॥ ७ ॥ ॥अथ कोरोक्तिस्तवनामाष्टादशः प्रकाशः॥ ॥न परं नाम मृदेव, कठोरमपि किंचन ॥ विशेषज्ञाय विज्ञप्यं, स्वामिने स्वांताक्ष्ये ॥ १ ॥ ॥न पदिपसिंहादि, वाहनासीनविग्रहः ॥ न नेत्र वक्रगात्रादि,विकार विकतालतिः ॥२॥ नावार्थः- वली कोमलामंत्रणथी कहे जे के,हे स्वामिन ! विशेष निपुण एवा जे तमें स्वामी,तेबापने माटें के वल अत्यंत कोमलजविज्ञापना करवी योग्य एम नथी? तो कांइक पण कठोर विज्ञापना करीयें ? कारण के कठोर विज्ञापनायें पोताना अंतःकरणनी शुक्षि थाय ने ॥१॥. हे नाथ ! तमें पक्षि, पशु, सिंहादिकवाहनने विपे बेवेलो मेनो देह एवा नथी,अने नेत्रे करीने तथा मुखें करीने अने शरीरा दिकना विकारें करीने जेनीयाकति बीनत्स अमंगल एवा पण नथी ॥२॥ ॥ न शूलचापचकादि, शस्त्रांककरपल्लवः ॥ नांगनाकमनीयांग, परिष्वं गपरायणः ॥ ३ ॥ ॥न गर्हणीयचरित, प्रकंपितमहाजनः ॥ न प्रकोप प्रसादादि, विडंबितनरामरः ॥ ४॥ नावार्थः-अनें तमें शूल, चाप,चक्र, इत्यादिक चिन्ह जेने विषे ,एवा हस्तपनवें करी युक्त पण नथी; अने स्त्रीन जे सुंदर अंग, तेना आलिंगनने माटें तत्पर, एवा पण तमें नथी ॥३॥ अने निंद्य एवा आचरणे करी अत्यंत कंपने पमाडेला ने महाजन केतां शिष्टजनो जेणे,एवा पण तमें नथी; तेमज अत्यंत कोप किंवा प्रसाद,तेणें, करी जेणें नर अने अमरने,विडंबन करेला बे; एवा पण तमें नथी ॥ ॥ न जगजननस्थेम, विनाशविहितादरः ॥ न लास्यहास्यगीतादि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. १७ विप्लवोपप्लुत स्थितिः ॥ ५॥ ॥ तदेवं सर्वदेवेन्यः, सर्वथा त्वं विलक्षणः॥ देवत्वेन प्रतिष्ठाप्य, कथं नाम परीदकैः ॥ ६ ॥ ॥ नावार्थः- अने सर्व जगतनी उत्पत्ति, पालन अने नाश-एं करवा माटे जेणें आदर करयो ने, एवा पण तमें नथी. अने.नाटक, हास्य, गायन-इत्यादिक उश्चष्ठितोयें करीने जेनो आचार उष्ट छे; एवा पण तमें नयी ॥५॥ वली कोमला मंत्रणथी कहे जे के हे नाव ! ते माटें परीक्षा करनारा पुरुषोयें तमारूं देवरूपत्वें करीने केम प्रतिस्थापन कस्यूँ ? कारण के तमें कहेवा बो? तो के (एवं के०) ए पूर्वोक्त प्रकारे करीने सर्व लोक प्रसिद, पशु सिंहादिवाहन रहि त, सर्व हरिहरादिक देवोथी सर्वप्रकारे करी विलक्षण कहेतांजिन रूपज बो: ॥अनुश्रोतः सरत्पर्ण,तृणकाष्ठादि युक्तिमत् ॥ प्रतिश्रोतःश्रयस्तु, कया युक्त्या प्रतीयताम् ॥७॥ ॥षयवाऽलं मंदबुद्धि,परीक्षकपरीक्षणैः॥ममापि कृतमेतेन,वैयात्येनजगत्प्रनोः॥॥ नावार्थः-ए विषे दृष्टांत कहेवामा कहे . हे नाथ ! पर्ण केतां पांदडां; तृण अने काष्ठादिक वस्तु, जलप्रवा हनीसाथे वहे ,एज योग्य वे. पड़ी ते तृण काष्ठादिक वस्तुप्रतिश्रोतः केतां जलप्रवाहनी सन्मुख गमन करनारी कोण युक्तियें प्रतीति प्रत्ये यावे ? अर्थात् कोइ पण युक्तिये ते तृणादिक वस्तुनी प्रवाह सन्मुख गमन करवानी प्रतीति आवे नहिं ॥७॥ हे प्रनी! अथवा तुबबुदिएवा परीद कोनी परीक्षायें बस. तथा हे जगत्प्रनो! माझं पण तमारी परीदाना पिष्टपे षण विषे जे उतपणुं, तेणें हवे पूर्ण श्ययु. कारण के तमारूं शान जे लद ण तेज तमारी योग्यताने कहे जे, माटें निरर्थक विचारनो उपयोग शामाटे करवो! हवे ते कयुं लक्षण ? ते पागलना श्लोकें करीने कहे जे ॥७॥ __ यदेवं सर्वसंसारि, जंतुरूप विलक्षणम् ॥ परीदता कृतधिय, स्तदेव तव लक्षणम् ॥ ए॥ ॥क्रोधलोननयाकांतं, जगदस्मादिलदाणः ॥ न गोच रोमृधियां, वीतराग कथंचन ॥१०॥ नावार्थ:-हे नाथ ! था पूर्वोक्त प्रकारे करीने जे संपूर्ण संसारी प्राणीना स्वरूपथी निन्न तमासं लक्षण , तेने निपुण पुरुषो, परीक्षायें जाणे जे ॥ ए॥' हे नाथ ! आ सर्वजगत् क्रोध, लोम अने जय ए-यें व्याप्त , अने वीतराग एवा तमें तो या सर्व जगतथी जिन्न होता थका कोइ पण प्रकारे करीने कोमल बुद्धि पुरुषोने सण गोचर एटले प्रत्यद थता नथी ॥ १० ॥ श्त्यष्टादश प्रकाशः॥ १७ ॥ me Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. ॥ अथ आझास्तवनामा एकोनविंशतितमः प्रकाशंः॥ ॥ तव चेतसि वर्नेह, मिति, वाापि उर्लना ॥ मञ्चित्ते वर्तसे चेत्त्व, मलमन्येन. केनचित् ॥ १ ॥. निगृह्य कोपता. कांश्चि, कांश्चितुष्टयानुर ह्य च ॥ प्रतार्यते मृधियः, प्रसननपरैः परैः ॥ ॥ नावार्थ:-हे ना थ! हुँ तमारा चित्तने विपे रहुँ ,एवी वार्ता पण अति उर्लन . परंतु हे नाथ ! तमें जो मारा चित्तने विषे रहेता हो,तो पठी बीजा कोइ पण साधनें करी | कर्त्तव्य ? अर्थात् कांश नहिं ॥ १ ॥ हे नाथ ! प्रतारणने विषे तत्पर एवा अन्य हरिहरादिक देवोयें कोमलबुद्धि एवा पुरुष फसाव्या डे. ते केवी रीतें फसाव्या बे ? तो के केटला एक लोकोने को करीने अने केटला एक लोकोने तुष्टि अने पोताना अनुग्रह प्रत्ये पमाडीने फसाव्या वे ॥ ॥ अप्रसन्नात्कथं प्राप्यं, फलमेतदसंगतम् ॥ चिंतामण्यादयः किंतु, फलं त्यपि विचेतनाः ॥३॥ वीतराग सपर्यात, स्तवाझापालनं परम् ॥या झारामा विराक्षा च, शिवाय च जवाय च ॥४॥ .जावार्थः-कोक शंका करे के जगवान् श्री वीतराग कोइने पूण प्रसन्न नथी अने अप्रसन्न पण नथी. एमाटें तेनाथी नपासकोने फलप्राप्ति केम थशे ? ए शंकानो परिहार करतो थको दृष्टांत कहे जे के, अप्रसन्न एवा देवगुरु इत्यादिकोथी फलप्राप्ति थवा माटें केम शक्य थशे ? •एवं जे बोलवू, ते असंगत . कारण के चेतनरहित एवां पए चिंतामणि,कल्पद,अने दक्षिणावर्त शंखादिक ते सर्व फल देतां नथी गुं? ना देज ले ॥३॥ हे वीतराग! तंमारी पूजा करवा करतां तमारी अज्ञातुं पालन करवु ए उत्कृष्ट जे. कारण के, तमारी आझाना पालन कर वाथी मोदप्राप्ति थाय जे; अने खमन करवाथी संसार वृद्धि थाय ने ॥४॥ ॥ बाकालमियमाझा ते, हेयोपादेयगोचरा ॥ याश्रवः सर्वथा हेय, उ पादेयश्च संवरः ॥५॥ आश्रवोनवहेतुः स्यात्, संवरोमोदकारणम् ॥ श्ती यमाईती मुष्टि,रन्यदस्याः प्रपंचनम् ॥६॥ हे नाथ ! कर्मबंधनहेतु जे या श्रव, ते सर्व प्रकारे करीने तजवो, अने कर्मदननो उपाय एवो जे संव र, ते सर्वथा ग्रहण करवो. माटें ( हेय के०) तज़वा योग्य अने (उपादे य के०) ग्रहण करवा योग्य विषय जेनो एवी प्रतिम जे तमारी याज्ञा ते अनादि सिम ॥ ५ ॥ श्राश्रव ए संसार- कारण अने संवर ए Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागस्तोत्र. शए मोदनुं कारण जाणवू. एवं सूचववा माटेंज अर्हत् संबंधिनी मुष्टि एटले ग्रंथि जे. ए विना जे सर्व कथन, ते अर्हद्रंथिनो विस्तार में ॥ ६ ॥ ॥ इत्याज्ञाराधनपरा, अनंताः परिनिर्वतीः ॥ निर्वाति चान्ये कचन, नि वास्यंति तथाऽपरे ॥ si. हित्वा प्रसादनादैन्य, मेकयैव त्वंदाझ्या ॥ सर्वथैव विमुच्यते, जन्मिनः कर्मपंज़रात् ॥ ७॥ नावार्थ:-हे नाथ ! ए प्रकारनी आझाना अाराधनमां.तत्पर एवा अनंत जीवो, मोक्ने पा मता हवा. अने केटलाएक जन, महाविदेहादिकने विषे मोदने पामे डे. तेमज बीजा केटलाएक पागल मोदने पामशे ॥ ७॥ हे नाथ! प्रा णी जे जे, ते तमारी प्रसन्नता विषे याचनारूप दीनपणानो त्याग करीने एक तमारीज जे आज्ञा तेणें करीनेज सर्व प्रकारथी ते पोतें कर्मरूप पां जरामांथी मुक्त थइ जाय जे ।। ७. ॥ इत्येकोनविंशतितमः प्रकाशः॥ १७ ॥ ॥अथ वीतराग स्तवनामा विंशतितमः प्रकाशः॥ .. ॥ पादपीठलुनन्मूर्ध्नि, मयि पादरजस्तव ॥ चिरं निवसतां पुण्य, पर माणुकणोपमम् ॥ १ ॥ मदृशौ वन्मुखासक्ते, हर्षवाष्पजलोमिनिः ॥ अप्रेक्ष्यप्रेदणोतं, हाणादालयतां मलम् ॥ २॥ नावार्थ:-हे नाथ! तमारा चरणपीतने विषे जेनुं मस्तक झुंठन पामेलु ले एवो जे ढुं, ते मारे विषे पुण्यपरमाणु कपनी जेने उपमा डे एवी तमारी पादरज, घणा काल पर्यंत वास करो ॥ १ ॥ हे नाथ !: तमारा मुखने विषे आसक्त एवी माहारी दृष्टि; हर्षे करी प्राप्त थएखा अश्रुजलना तरंगें करीने अवलोकन करवा माटें अयोग्य एवा पुरुषोना.अवलोकने करी उत्पन्न थएला (मलं के) पापने अथवा शब्दबलें करी ते थएला अनास्थारूप कर्दमने कृष्ण मात्रमा दालन करो ॥ २ ॥ __॥ त्वत्पुरोखंउनैनूया, न्मनालस्य तपस्विनः ॥ कृतासेव्यप्रणामस्य, प्रा यश्चित्तं किणावलिः ॥३॥ मम त्वदर्शनोजूता, श्चिरं रोमांचकंटकाः ॥ तुदंतां चिरकालोबा, मसदर्शनवासनाम् ॥ ४॥ नावार्थ:-हे नाथ! से वन करवाने अयोग्य एवा पुरुषोने जेणे नमस्कार करयो जे; एवं तु जे महारुं मस्तक, तेने तमारी बागल लुंठने करीने किणावलिरूप प्रायश्चित्त था ॥३॥ हे नान! घणे कालें करीने थएटुंजे तमारुं दर्शन, तेथी Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. करी उत्पन्न थएला जे मारा रोमांचकंटक, ते चिरकाल उत्पन्न थएली जे कुदर्शनवासना, तेने नाश करो ॥ ४ ॥ ॥ त्वाकांतिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधाखिव ॥ मदीयैर्लोचनांनोजैः, प्राप्यतां निर्निमेषता ॥ ५ ॥ त्वदास्यलासिनी नेत्रे, . त्वउपास्तिकरौ करौ ॥ त्वगुणश्रोत्रिणीश्रोत्रे, नूयास्तां सर्वदा मम ॥६॥ नावार्थ:-हे नाथ ! मारां नेत्ररूप रात्रिविकासी कमलें, तमारा मुखचंनी कांतिरूप अ मृतनुंज जाणे पान होय नहिं ते प्राशन करे बते ते नेत्रकमलोयें (नि निमेषता के०) मेपोन्मेपर हितपणुं अथवा देवतापणुं पाम्युं वे ॥५॥ हे नाथ! मारां नेत्रो तमारा मुखना अवलोकनने विषे निरंतर विलासशील था. एटले तत्पर था. अने महारा हस्त, तमारी सेवा करनारा थान; अने महारा कर्ण, निरंतर तमारा गुगनुं श्रवण करनारा था॥ ६ ॥ ॥ कुंठापि यदि सोत्कंठा, त्वगुणग्रहणं प्रति ॥ ममैषा नारती तर्हि, स्व स्ते तस्यै किमन्यया ॥ ७ ॥ तव प्रेष्योस्मि दासोस्मि, सेवकोस्म्यस्मि किंकरः ॥ उमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ नातः परं ब्रुवे'॥ ॥ नावार्थ:-हे नाथ! आ मारी वाणी, तमारी स्तुति करवा माटें कुंठित थइ बती पण तमारा गुणग्रहण प्रत्यें जो उत्कंठा युक्त तो आ वाणीनुं कल्याण था. तमारा गुणविषे उत्कंचित न होनारी वाणीयें झुं कर्त्तव्य ? अर्थात् कांश नथी. एटले तमारा गुणरहित जे वाणी होय, ते वाणी निष्फल जा पावी ॥७॥ हे नाथ! हुं तमारो प्रेष्य ९, दास बु, सेवक अने किंकर बुं. याहिं प्रेष्य, दास, सेवक, किंकर,एं सर्वशब्द कर्मकरवाचक ले. तेमाडे हे नाथ! पूर्वोक्त प्रेष्यादिशब्दयुक्त जे हुँ, ते मारो अंगीकार करो. दुं हवे पनी बागल कांश बोलतो नथी; एथी अधिक बोलवा ढुं समर्थ नथी॥॥ ॥ श्रीहेमचंप्रनवा, होतरागस्तवादितः ॥ कुमारपालनूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥ ए॥ नावार्थ:-ए कारण माटें कुमारपालराजा, या वीतरागना स्तवथी इलित फलने पामो. ते वीतरागस्तव केहवो ले ? तो के श्रीहेमचंप्रनवात् एटले हेमचंइसरिथी (प्रनवात् के) उत्पत्ति जेनी, एवो ले ॥ ए ॥ इति वीतरागस्तवनामा विंशतितमः प्रकाशः ॥२०॥ इत्या चार्य श्रीहेमचंइस रिविरचित बालावबोधसहितः श्रीवीतरागस्तवः संपूर्णः ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. २१ ॥ श्रीगौतमगुरुभ्यो नमः॥ अश्व ॥ संक्षिप्त बालावरोध सहिता श्रीगौतमटबा पारन्यते॥ प्रथम बालावबोधकर्ता मंगलाचरण करे . ॥ नत्वा वीरजिनं बाला, वबोधोलिख्यते मया ॥ श्रीमजौतमष्टबाया, वाचनार्थ विशेषतः ॥१॥ श्रीसोमसुंदर श्री, मुनिसुंदरमदिशालराजेंशः ॥ श्रीसोमदेवगुरवो, जयंति जिनकल्पवृदसमाः ॥ २॥ • हवे प्रथम ग्रंथकर्ता मंगलाचरण माटें गाथा कहे . ॥ नमिकण तिबनाहं, जाणंतो तहय गोयमो जयवं ॥ अबुहाण बोह 'गवं, धम्माधम्मं फलं वुले ॥१॥ जावार्थः-तीर्थना नाथ एवा श्रीम हावीर जगवालने नमस्कार करीने श्रुतकेवली एवा श्रीगौतमस्वामी पोतें चार झानना धणी श्रुतझानना बलें करी असंख्याता जव संबंधि संदेहने 'पोते जाणता बता पण अबोध जीवोने बोध थवाने अर्थे अडतालीश ट बायें करी पुण्य पापनुं फल श्रीमहावीर देवप्रत्ये पूबता हवा ॥१॥ हवे दश गांथायें करी अडतालीश टनानां नाम कहे जे. ॥ जयवं सच्चिय निरयं, सच्चिय जीवो पया पुरण सग्गं ॥ सच्चिय किं तिरिएसु, सच्चिय किं माणुसो दो ॥ २ ॥ सच्चिय जीवो पुरिसो,सच्चिय बी नपुंस हो ॥ अप्पाक दीहाक, होइ अनोगी सनोगी य ॥ ३ ॥ के व सुह जायज्ञ, केणव कम्मेण दूहन हो ॥ केशव मेहाजुत्तो, उम्मे हो कह नरो होइ॥ ४ ॥ कह पंमिनत्ति पुरिसो, केणव कम्मेण होइ मु स्कत्तं ॥ कह धीरु कह नीरू, कह विजा निप्फला सफला ॥ ५ ॥ केशव नास अबो, कह वा संमिला कह थिरो हो ॥ पुत्तो केण न जीव, बहु पुत्तो केण वा बहिरो ॥ ६॥ जचंधो केण नरो, केण विजुत्तं न जिय नरस्स ॥ केणव कुही कुजो, केशव कम्मेण दासत्तं ॥ ७ ॥ केण दरिदो पुरिसो, केणव कम्मेण इसरो हो ॥ केशव रोगी जायश, रोग विहूणो ह व केण ॥ ७ ॥ कह हीणंगो मूड, केणव कम्मेण ढूंट पंगू ॥ केशव रूवो जायs, रूव विद्वणो हवा केण ॥ ए॥ केशव बदुवेयपत्तो, केशव Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. कम्मेण वेयण विमुक्को ॥ पंचिंदिनवि होइ, केणव एगिदिन दो ॥ १० ॥ संसारो कहवि पिरो, केणव कम्मेण होश संखित्तो ॥ कह संसार तरि, सिद्धिपुरं पावए. पुरिसो ॥ ११॥ इति ॥ नावार्थ:-हे नगवन्! (सच्चियनिरयं के)सएवं एठले तेज जीव नरकें केम जाय? वली २ तेहीज जीव स्वर्गे पण केम जाय? वली३ तेहीज जीव तिर्य च केम थाय? वली ४ तेहीज जीव मनुष्य जन्मपण केवी रीतें पामे ? ॥२॥ वली हे जगवन् ! ५ तेहीज जीव पुरुष केम थाय ? ६ तेहीज जीव स्त्री केम थाय? ७ तेहीज जीव नपुंसक केम थाय? वली तेहीज जीव अल्पायुष्य वालो केम थाय ? ए वली तेहीज जीव महोदा यायुष्यवालो केम थाय ? १० वली तेहीज जीव जोगरहित केम थाय ? ११ वली ते हीज जीव, महोटा नोग नोगवनारो केम थाय ॥३॥ वली हे नगवन् ! १२ कया कर्मना उदयथी जीव सौनाग्यवंत पाय ? १३ वली कया कर्ममे योगें जीव उनांगी थाय ? १४ वसी कया कर्मने योगें जीव, (मेहाजुत्तो के०) मेधा जे बुधि तेणे करी युक्त एटले बुद्धिमान् थाय? १५ वली कया कर्मनेयोगें जीव हीन बुदिवालो थाय? ॥ ४ ॥ वली १६ कया कमै करी पुरुष पंमित थाय ? तथा १७ कया कर्मने योगें मूर्ख थाय? तथा १७. कया कर्मने योगें धीर साहसिक थाय? अने १ए कया कर्मने योगें नीरु एटले बीकण थाय? तथा २० कया कर्मने यो गें जरोली विद्या निःफल थाय ? अने २१ कया कर्मने योगें जरोली विद्या सफल थाय? ॥ ५॥ . वली हे नगवन् ! २२ कया. कर्मने योगें प्राप्त थयेली लक्ष्मी जती र हे ? अने २३ कया कर्मने योगें घणी लक्ष्मी प्राप्त थाय ? २४ वली कया कर्मने योगें तें पुरुषने थयेला पुत्रो जीवता न रहे ? २५ तथा कया क मैने योगें घणा पुत्रो थाय ? तेमज २६ कया कर्मने योगेंजीव बहेरो थाय? ६ _वली २७ कया कर्मने योगें ते जीव, जात्यंध थाय? तथा २७ कया कर्मने योगें जीवने जमेलुं अन्न पचे नहिं ? एटले अपचो अजीर्ण थाय? तथा श्ए कया कर्मने योगें जीव कोढ रोगवालो. एटले कोढीयी थाय? अने ३० कया कर्मे करी जीव कूबडो थाय ? तथा ३१ कया कर्मने यो गें ते जीव, दासपणुं पामे ? ॥ ७ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. २२३ वली ३२ कया कर्मे करी जीव दरिही. थाय ? तथा ३३ कया कर्मना उदयथी जीव धनवंत थाय ? तथा ३५ कया कर्मे करी ते जीव रोगी था य? तथा ३५ कया कर्मठे योगें जीव नीरोगी थाय ? ॥ ७॥ वली ३६ कया कर्मने योगें जीव हीन अंगवालो थाय?' तथा ३७ कया कर्मने दयें जीव, मुंगो तथा बोबडो थाय ? तथा ३७ कया कर्म ने उदये जीव तूठो थाय, तथा ३५ कया कर्मने योगें जीव पांगलो लंग डो थाय? तथा ४० कया कर्मे करी जीव घणो स्वरूपवंत थाय? तथा ४१ कया कमै करी हीन रूपवालो एटले रूपरहित थाय? ॥ ए॥ . वली ४२.कया कर्मे करी जीव अत्यंत वेदनायें करी पीडित 'थको रहे? तथा ४३ कया कर्मथकी जीव वेदना रहित थको शातामां होय ? तथा ४५ कयाकर्मे करी जीव पंचेंड्रियपणुं पामे ? अने ४५ कया कर्मे कररी जीव, एकेंशियपणुं पामे ? ॥ १०॥ वली ४६ कया कर्मने योगें जीव, घणो काल संसारमा स्थिर थको रहे ? तथा ४७ कया कर्मने योगें पुरुष संसारमा स्वल्प काल रहे, तथा ४७ कया कर्मने योगें जीव संसार समुह तरिने मोद नगरप्रत्ये जाय ? ॥११॥ ॥ हवे गौतमस्वामी ए अडतालीश प्रश्न प्रत्ये पूर्वी पड़ी ते प्र भना उत्तरनी जिज्ञासावंतयका वली पण कहे ॥ ॥ सबजगजीव बंधव, सवन्नू सदसण मुणिंद ॥ सवं सादुसु जयवं, क स्सव कम्मरस फल मेयं ॥ १२॥. नांवार्थ:-हे जगवन् ! तुं सर्व जगत वासी जीवोनो बांधव बोवली सवन्नू एटले सर्वज्ञ बो,अर्थात् सर्ववस्तुनो आण बो, तथा सदसण एटले सर्ववस्तुनो देखवा वालो बो, तथा केवल झाने करी सर्व मुनियोमां जगवान् एटले इंश बो,माटें में जे जे प्रश्न पूजयां, ते सर्व, कया कया कर्मनां फले ? ते सबंधी सर्व वात कहो ॥१२॥ __एवं पुछो जयवं, तियसिंद नरिंद नमिय पयकमलो ॥ अह साहिलं प यत्तो, वीरोमदुराश वाणीए ॥ १३॥ नावार्थः-ए प्रकारनी पडा श्रीगौ तम स्वामी कस्या पनी तियसिंद एटले त्रिदश जे देवता तेना इं अने न रिंद जे राजा तेजेना पदकमलने नमे एवा श्रीवीर नगवान् ते मधुरी वाणीयें करी प्रश्नना उत्तर प्रत्ये कहेवा माटें पयत्तो एटले प्रवर्त्या ॥१३॥ शहां परमेश्वरनी वाणी सांजलतां थकां जीवने कष्ट, नूरख, तृषा, जा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनकया रत्नकोष नाग पदेलो. णवामां आवे नहिं. ते ऊपर कोई एक वृक्षस्त्रीनी एटले मोशीनी कथा कहे जेः-एक गाममां कोई वणिक. रहे ,तेने घेर एक मोकरी चाकर डे, ते घर, वेयावञ्च करे ले. एकदा ते मोकरी धपा लेवा माटें वनमा गइ. ते मध्यान्हें भूख अने तृषायें. पीडाणी, तेथी थोडांक इंधण- लश्ने पानी घेर आवी. ते देखीने शेवें कह्यु के अरे मोशी ! बाजे इंधण थोडां केम ला वी ? वली बीजां इंधण लाव. ते सांजली.फरी तेवीज पाबी वन मां गश्, ते पण बपोरनो वखतं हतो तेथी लू अने तापने सहन करती थकी काष्ठनार) कपाडी चाली. मार्गमां एक मूलनुं काष्ठ नीचे पडी गयुं तेने नपाडवा लागी, एटलामां श्रीवीर नगवाननी वाणी सांजलवामां यावी, तेथी तिहांज ऊनी रही, तेने योगें नूख तृषा अने तापनी वेद ना तेने जाणवामां न आवी. अने धर्मदेशना सांजली हर्ष पामती सांजे घेर यावी. तेने शेठे घेर याववामां असर थयानुं कारण प्रत्यु, तेवारें तेनी आगल खरेखरी वार्ता कही संनलावी. तेवारें शेठे पण तेणें श्रीम हावीरना वचन सांनव्या, तेथी ते थिविरामां धर्मनो गुण जाणीने तेने बहुमान दीधुं. तेने योगें ते सुखी थइ. ए रीतें परमेश्वरनी वाणी सांजल वाथी फुःख टली जाय . नक्तं च ॥ दोहो ॥ जिनवरवाणी जे सुणे, नर नारी सुविहाण ॥ सूक्ष्मबादर जीवनी, रक्षा करे सुजाण ॥१॥ पदाद्य दरें नमी. ए श्रीजिनवाणी महिमा कपर मोकरीनी कथा कही. हवे वीर जगवान कहे जे के है गौतम ! जे प्रश्न तुं मुझने पूछे , ते सर्व वानां एकज जीव पोतें पोताने 'कर्मने वश थयो थको पामे जे, जे कर्म स्वरूप हुँ तुमने कहूं मुं, ते सांजल. एम कही हवे जगवान् पूर्वोक्त अडतालीश पश्नोना उत्तर कहे . तिहां प्रथम जीव कया कर्मने योगें करी नरकें जाय? तेनो उत्तर त्रण गाथायें करी कहे . गाथा ॥ जे घाय सत्ता, अलियं जपेई परधणं हर ॥ परदारं चिय वंचर, बदुपाव परिग्गहासत्तो ॥१५॥ ॥ चमो माणो विछो, मायावी नि हुरो खरो पावो ॥ पिसुणो संगह सीलो, साढूणं निंद अहमो ॥ १६॥ बालप्पाल पसंगी, उछो बुदिइ जो कयग्यो यः ॥ बदुपुरक सोग परे, मरित्रं नरयम्मि सो जाइ ॥ १७ ॥ नावार्थः-जे १ (सत्ता के०) जी वोनी (घाय के०) घात करे एटले जीव हिंसा करे, तथा २ (अलियं जं Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. पेड़ के० ) अंलिक एटले जूतुं वचन बोले, तथा जे ३ पारका धननु हरण करे, एटले चोरी करे, तथा जे ४ परदारं एटलें पारकी स्त्री साथें गमन करे, तथा जे ५ घणा पापपरिग्रहने विषे आसत्तो एटले प्रासक्त होय. ए रीतें पांच अणुव्रतने जे विराधे, ते. जीव, नरंकनुं आयुष्य बांधे ॥ १५ ॥ तथा जे ६ चमो एटले प्रकतियें अत्यंत रीसाल होय, ७ माणो एटले मा नी अहंकारी होय, घिझे एटले धृष्ट ते कोइने नमे नहीं, ७ मायावी कप टी होय. प निहुरो निष्ठुर ते कठोर चित्तवालो होय,१० खर ते रौइस्वनाव वालो होय, १.१ पावो एटले पापी होय, पिगुन एटलें पारकी चाडीक रनारो होय, १२ उर्जनता परायण होय, १३ अतिपाप हेतु वस्तुनो सं ग्रहशील होय, १४ साधुनी निंदा करे, उपलदणनी साधुनो प्रत्यनीक होय, १६ अधम नीचस्वनाववालो होय ॥ १६ ॥ आलप्पाल एटले अ संबंध वचन बोले, १७ पुष्टबुदिवालो होय,प्तथा जे कृतघ्न होय एटले करेला नपकारने न जाणे, (सो के०) ते जीव, मरण पामीने प्रचुर एटले घणां दुःख अने शोक तणे करीने नरेला एवा नरकने विपे जाय ॥ १७ ॥ यहां प्रथम हिंसा आश्रयी आठमो.सुनूम नामा चक्रवर्ती घणा पापोयें करीने नरकें गयो. तेनी कथा कहे जेः-वसंतपुरी नगरीना वनमध्ये एक आश्रमें जमदामि तांपस रहेतो हतो, ते, घणां कष्ट सहन करतो तपस्या करे, शिवनें ध्यान हृदयमां धारण करे, तेना योगें ते तापस सर्वत्र प्रसि ताने पाम्यो. एकदा देवलोकने विपे एक धन्वंतरि नामें देव तापसनक्त मिथ्यादृष्टि बे,अने बीजो विश्वानरं नामें देव, जिननक्त सम्यक्दृष्टि बे. ए बेहु मित्र ने ते बेदु मित्र शूरतापणे पोतपोताना अंगीकार करेला धर्मनां वखाण करवा लाग्या. एकें कह्यु के श्रीजिनधर्म समान कोइधर्म नथी तो बीजायें कडं के शिव धर्म समान बीजो कोई धर्म नथी. पडी बेदु देवोयें ए वो ठेराव कस्यो जे आपणे बेदु धर्मना गुरुननी परीक्षा करीये? ते वखतें जि नधर्मी देव बोल्यो के श्रीजिनधर्म मांहेलोजे जघन्य नवीन दीदित गुरु होय, तेनी परीक्षा करीये.अने शिवधर्ममाहे जे चिरंतनकालनो महातपस्वी गुरु होय, तेनी परीक्षा करीयें, ते ऊपरथी सारा नरसानी समजण तरत पड शे! एवो निश्चय करी ते बेतु देवो पृथ्वीतल उपर आव्या. . ॥ ते वखत मिथिलानगरीना पद्मरथराजा, राज त्यागीने चंपानगरीयें Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो.. श्रीवासुपूज्य स्वामी पासेंथी तरतनी दीक्षा लेने वव्यो व्रतो, तेने रस्ता मां आवतो देखीने प्रथम तेनीज परीक्षा करवा माटें अनेक प्रकारनां मि ष्टान्न नात पाणी सरस बनावीने तेने देखाड्यां. ते साधु नख्यो तरस्यो ह तो, तथापि तेणें ते मिष्टान्नने असुजतां जाणी लीधां नही. पोताना साहस थी चल्यो नही. तेवारे ते देवोयें एक रस्ते कांटा कांकरा विकूा, अने एक तरफना रस्ता उपर घणा न्हानां न्हानां देडकां किकूयों, तो पण ते महात्मा देडकां तरफना मार्गने बांमीने जे रस्ते कांटा कांकरा हता, ते रस्तेथी चालवा लाग्यो, तेने जो पण कांटाने योगें पगमांथी लोहीनी धा रा चाली जाय , तो पण दोन पाम्यो नहिं. ते पड़ी त्रीजी परीक्षामा ते साधुनी आगल देवोयें गीत नाटक करखां, स्त्रीयोनां रूप बनावीने दोनवी जोयो, तो पण ते दोनाणो नहिं. तेवारें.चोथी परीक्षा करवा माटें वली ते देवो निमित्तियानां रूप विकूर्वी साधुनी पासें आवीने कहेवा लाग्या के हे महात्मन् ! अमें निमित्तशास्त्रना बलथी कहीयें बैये जे तमारंवायुष्य ह जी घणुं ने, माटें हम यौवनावस्थायें जोग जोगवी, पडी वृक्षावस्था मां चारित्र लइ तप करजो. ते सांजली साधु बोल्या के हे सिपुरुषो! जो महारं आयुष्य घणुं हो, तो दूं घणा काल पर्यंत चारित्र पालीश ! ते थी घणा कर्मनी निर्जरा थशे ! वली हमणां लघुवयंमां तप थ६ शकशे, परंतु जरा अवस्था प्राप्त थया पली कांइ विशेष तप थाय नहीं ! एवी ते साधुनी दृढता जोश देवो हर्ष पामी ज़िनधर्मनी प्रशंसा करवा लाग्या. हवे ते बेदु देवो आगल जतां वनमांहे घणा कालगें तप करता, म होटी जटावाला, एकांत ध्याने.रहेला.एवा जमदनि नामक तापसने दी ठो. तेनी परीक्षा करवाने अर्थे ते बेदु देवो, चकला अने चकलीनुं रूप धारण करी ते ऋषिनी दाढीना वालमांहे मालो कर रह्या. एवामां च कलो मनुष्यनी नाषायें चकखीने कहेवा लाग्यो के हुँ हिमवंतपर्वतें जा यावं, तिहां सुधी तुं हां रहेजे ? ते वात चकलीयें न मांनी अने कहेवा लागी के तुं तिहां जश्ने बीजी को चकली साथें आसक्त थ जा. तो महारा शा हवाल थाय ? तेवारें चकलो बोल्यो के जो फरी नहीं थावं तो महारा ऊपर गोहत्या, स्त्रीहत्यादिकनु पाप ले. इत्यादि वातो कही. परंतु चकलीयें कांहि मान्युं नहिं, थने कहेवा लागी के जो तुं को चकली सा Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. थे यारी करे तो था रुषि- जेटलु पाप , ते सर्व पाप तहारी ऊपर पडे. एवी रोतनी प्रतिज्ञा कर, तो तुऊने जवादनं. ते वात सांजलतांज जमदग्नि तापंस सेशे जराणो थको माढीमूडमा हाथ नाखी, ते बेहुने पकड़ीने पूजवा लाग्यो के अरे ! हुं कठिण तप करीने पापोनो नाश करुं बुं, तेम बतां तमें मुझने पापी कहीने केम बोलावो बो? तेवारें चकलीबोली के हे कृषि! तमें कोप म करो. अने आपणुं शास्त्र जूठ. कयुं छेके॥अपुत्रस्यं गति स्ति, स्वर्गोनैव च नैव च ॥ तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा, स्वर्ग गहंति मानवाः ॥ १ ॥ माटें अपुत्रीयाने गति नथी बने स्व र्ग पण नथी अने तमें पण अयुत्रीया बो, तेथी तमारी मति किहां जे ? ते वात रुपियें सत्य करी मानी सीधी. अने विचायं जे कोक स्त्री साथें पाणिग्रहण करीने पुत्र उपजानुं ! पड़ी तपनो त्याग करीने कोष्टिक नगरें जितशत्रु राजानी घणी पुत्रीयो ने, एवं सांजली विचारवा लाग्यो के चा संतेनी पासें जा ढुं कन्यानी याचना करूं ! ए रीतें कृषिने चलायमान थ येला जोइने मिथ्यात्वी' देव जे हतो, तेणें श्रावकधर्म अंगीकार कस्यो. हवे तापस, राजापासें कन्यानी याचना करवा गयो, तिहां राजा बास नथी उठी साहामो याव्यो. ऋषियें कन्यानी मागणी करी तेवारें राजायें तापसने कह्यु के महारी सो पुत्रीयो ने तेमां जे तमारी वांडा करे, तेने तमें अंगीकार करो. ते सांजली ऋषि पण अंतेनरमांगयो. तिहां ते कन्या उतेने जटाधारी, दूबलो, नीख मागीने खावावालो, धोला केशवालो, थ संस्कारी शरीरवालो देखी धुंकीयो तेथी ते कृषि,रोषित थइ पोताना तपने प्रनावें करी ते सर्व कन्याउने कूबड़ी अने कुरूपिणी करी तुरत पाडगे वव्यो. तिहां अांगणा आगल धूलमां रमत करती एवी राजानी एक पुत्री दीती. तेने हाथमां बीजोऊं लश्कहेवा लाग्यो के हे रेणुका! तुं मुझने वांडे डे? तेवारें बोकरीयें बीजोरां तरफ पोतानो हाथ घाल्यो ते देखी कृषियें जाण्युं जेए मुफने वांडे ,एम विचारी तेने कपाडी लइ गयो. राजा पण शा पना जयथी बीहीतो थको सहस्त्र गोकुल तथा दास दासी सहित ते कन्या ऋषिने दधी, कषायें बीजी सो कन्याने पोतानी सालियोना स्नेहथी तप ने बलें कूबडापणुं टाली सारी कीधी. ए रीतें सर्व तपस्या गमावीने ते कन्याने वनमां आश्रमस्थानकें लश् आव्यो, तिहां लाली पाली यौवनवय Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. प्राप्त करी महास्वरूपवान् थयेली जोइ,तेनी साथें अमिनी साखें फरी पा णिग्रहण कीg. ऋतुकालें तेने कहेवा लाग्यो के हुँ एक चरु मंत्रे करी सा धी तुमने आपुं, के जेथी तहार घणोज रुडो एवो ब्राह्मण पुत्र थाशे ! ते ने रेणुकायें.कह्यु के मंत्रे करी बे नरु साधजो.जे.येकी एक ब्राह्मण पुत्र थाय, अने बीजो दत्रियपुत्र थाय. केम के दत्रिय पुत्र मदारी बहेन जे हस्तिना पुरें परणी जे तेने आपलॅ. पनी इंषियें वे चरु मंत्र साधीने स्त्रीने आ प्या. तेवारें रेणुकायें चिंतव्यु मे महारों पुत्र दंत्री माहाशूरवीर थाय तो ढुं आ जंगलमा रहेवाथी लूटुं ! एवा हेतुथी दत्रिय औषधपोतें खाइगइ श्रने ब्राह्मण औषध पोतानीबहेनने माटें हस्तिनापुरें मोकल्यु. तेणीयें खाधुं. हवे धूलीना ढगवामां रमत करती हती माटें एनुं नाम रेणुका पाडी दीधुं. तेने राम एवे नामें पुत्र थयो अने, बहेनने कृतवीर्य एवे नामें पुत्र थयो. एवामां अतिसार रोगें करी पीडित एवो एक विद्याधर ते आश्रमें आव्यो. ते अतिसारना प्रनावथी आकाशगामिनी विद्या नूती गयो. तिहां ते विद्याधरनी रामें घए। औषधादिक संबंधी सार'संजाल कीधी, तेथी ते विद्याधरें हर्षवंत थइने रामने परशु नामें विद्या आपी. तेने रामें साधी ली धी. तेने योगें ते परशुराम एवे नामें जगत्मां प्रसिद थयो. देवताधिष्ठित कुठार प्रहरण लश्ने फरतो रह्यो. हवे एकदा जमदमिनी आझा लश्ने रेणुका पोतानी बहेनने मलवा माटे हस्तिनापुरें गइ. तिहां रेणुकाने पोतानी साली जाणीने अनंतवीर्य राजा तेनी हांसी मश्कर। करवा लाग्यो. अने रेणुकार्नु घणुं सुंदररूप जोड राजा कामातुर थइ निरंकुशपणे.रेणुका. साथै विषय सेववा लाग्यो. तेना योगथी रेणुकाने वाली एक पुत्र थयो. पड़ी जमदग्नि ते पुत्र सहित रेणु काने पोताने श्राश्रमें तेडी लाव्यो अने तेने पुत्र सहित दीती,तेवारें परशु रामें क्रोधमां श्रावी परशुयें करी तरत पोतानी माता तथा नाइना मस्त को दी नाख्या. ते वात सांजली अनंतवीर्य राजा क्रोधे नयो थको सेना लइ यावी जमदग्निना आश्रमने बालीने त्रोडी फोडी नारख्यो अने सर्व तापसोने त्रास पमाड्या. ते तापसोनो ककलाट सांजली परशुराम तिहां आव्यो, तेणें अनंतवीर्यने मारी नाख्यो. प्रधान लोकोयें ते वात सांजली ने अनंतवीर्यना पुत्र कतवीर्यने हस्तिनापुरनी गादी बेसाड्यो. तेणें एक Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. दिवसें पोतानी माताना मुखथी बाप मास्यानुं वैर जाणी आश्रमें जर ज मदग्नि ऋषिने मारी नाख्यो, ते वात परारामें सांजली तेवारेहस्तिनापुरें यावीने कृतवीर्यने मारी पोतें राजगादीयें वैठो, ते वखत कृतवीर्यनी तारा नामें राणी सगा हती,तें परशुरामना जयथो नाशीने वनमां गई. तेनी नप र कोई तापसें दया बाणीने पोताना आश्रमना नोंयरामां बुपावी राखी. ति हां तेणीयें चौद सुपन सूचितं पुत्रने जन्म आप्यो. तेनुं नाम सुनूम पाडयुं. हवे परशुरामें दत्रीयो ऊपर रोष करी फरी फरी सात वखत निक्षत्री पृथ्वी कीधी, जिहां दत्री होय तिहां परशुरामनो कुहाडो जाज्वलमान थाय. एकदा जे. स्थानकें राणी तूपी पेठेली , ते आश्रमें श्रावतां परा रामनो कुहाडो जाज्वलमान थयो, तेवारें परशुरामें तापसोने पूब्युं के यहां कोई दत्री बे? तेवारें तापसो बोल्या के गृहस्थावासमां अमें सर्व दत्री हता, तेवारे तेने कृषियो जाणी बोडी दीधा. एम परशुरामें सर्वदत्रियोने मारीने तेमनी दाढा जश्ने एक थाल नखो. एकदा-परशुरामें बानुं कोई निमितियाने पूज्युं के मारूं मरण केवी रीतें थाशे ? तेवारें निमित्तियायें कह्यु के जेना देखवाथी या दाढा खीररूप थाशे, अने आ ते खीरने सिंहासन पर बेसीने जे जमशे, तेना हाथथी तारूं मरण थाशे. ते वात सांजली परशुरामें एक दानशाला मंमावी तेनी आगल एक सिंहासन रचाव्युं अने दाढाउनो थाल सिंहासन ऊपर रखाव्यो.. एवा अवसरें वैताढ्यपर्वत ऊपर मेघनाद नामा विद्याधरें पोतानी पु त्रीनो वर कोण थाशे? ते माटें निमित्तियाने पूब्युं. निमित्तियायें सुनूम वर बताव्यो, तथा सर्व तेनी हकीगत कही संनजावी, तेवारे ते विद्याधर पोतानी पुत्री सश्ने सुनूमना आश्रमें आव्यो, तिहां पोतानी पुत्री सुनू मने परणावी दीधी. अने पोते पण सुनूमनो सेवक थ रह्यो. ____ एकदा सुनूमें पोतानी माताने पूज्यु के हे माता ! पृथ्वी \ बाटलीज डे? तारे तेने मातायें कह्यु के पृथ्वी तो घणोज ले. तेमां एक माखीना पांख जेटली जगामां या आश्रम बे. तेमां बापणे परशुरामना नयथकी रह्या बैयें ! तथा आपनी पोतानी राजनूमि हस्तिनापुर . इत्यादि सर्ववृत्तांत कही संजलाव्युं. ते सांजली सुनूम रीशे जराणो नोयराथी बाहिर निकल्यो अने मेघनाद विद्याधर सहित हस्तिनापुरमा जिहां दानशाला , तिहां Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनकथा रत्नकोष नाग पढ़ेलो. गयो. तेनी नजर पडतांज छत्रीनी दाढानो थाल खीररूप. थंयों. तेने ज मवा लाग्यो, ते जोइ परगुरामंना रखवाला ब्राह्मणो तेने मारवा माटें दोड्या, तेमने मेघनाद विद्याधरें त्रास पमाड) मारी नाख्या. परशुराम पण ते वान सांजी तिहां यान्यो अने सुनूमने मारवा माटें परशु च लाव्यो, ते पशु सुमनी दृष्टियें पडतांज अंगारानी माफक उलवाइ गयो, ने सुनमें परशुरामनी ऊपर थालंज उपाडीने मूक्यो, ते थाल फीटीने चक्ररत्न थयो, तेणें परगुरामनुं मस्तक बेदी नाख्युं. पी जेम परशुरामें सात वार निःक्षत्री पृथ्वी करी, तेम परशुरामना वैरी सुनू में एकवीरा वार निर्ब्राह्मणी पृथ्वी कीधी, कोइ पण जाणमां रही यो एव ब्राह्मण जीवतो राख्यो नहिं. चक्ररत्नने बलें व खं पृथ्वी साधी ने चक्रवर्त्ती यो. पढी लोजनो वाह्यो थको धातकी खंमनुं भरत क्षेत्र सा धवा माटें लवणसमुमांहे चर्मरत्न ऊपर कटक चडावीने लव मुम हे चालतो थको वचमां अधिष्ठित सर्व देवोयें सहाय यापवाने पडतो मू क्यो, तेथी समुइमां मूबी मरण पामी अनेक जीवहिंसाना पातकें करी सातमी नरके गयो || इति जंतुघात विषे बहुपाप परिग्रहालक्त सुनूमच क्रीनी कथा समाप्त ॥ ॥ हवे बीजा प्रश्ननो उत्तर एक गाथायें करी कहे बेः ॥ ॥ गाथा ॥ तव संजम दाल रखें, पयईए जद्दन किपासून ॥ गुरुवयण र निच, मरिनं देवे सो जाइ ॥ १८ ॥ नावार्थ:- जे जीव, तप, संयम ने दान तेने विषे रक्त होय, संहंज प्रकृतियें नक परिणामी हो य, कृपालु दयावंत होय, गुरुना वचन उपर निरंतर रक्त होय, गुरुना क ह्या प्रमाणें चाले, ते जीव मरीने देवलोकमां जइ ऊपजे ॥ १८ ॥ जेम आनंद श्रावक तपस्या करी प्रतिमा च्यादरी, दान देइ, श्रीमहावीरदेव गु रुना वचन ऊपर निरंतर रक्त, दयावंत, नक परिणामी थको अवधिज्ञा न पामी देवपदवी पाम्यो, माटें ए बीजा उत्तरंयायी आनंद श्राव " कथा कहे . वाणिज्य नामा ग्रामें जितशत्रु राजा राज्य करे बे. तिहां खानंद ना में गृहस्थ रहे बे. तेनी शिवनिंदा नामें स्त्री बे. घरमां बार कोड सुवर्ण बे, दश हजार गायनुं एक गोकुल, एवां चार गोकुल बे, वली ते गामथी ईशा Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमटडा अर्थसदित. २३१ . न खूणे कोलाग ग्रामें आनंद श्रावकना सगांसणीा संबंधी घणा वसे ने. एवामां एकदा तिहां द्युतिपलाश नामा वनने विषे,श्रीमहावीर स्वामी यावी समोसस्या. तेमने जितशत्रु राजा अंने आनंद गृहस्थादि वांदवा मानै श्राव्या. तिहां श्रीवीरनगवाननी धर्मदेशना सानलीने यानंदें श्राव कना बार व्रत पडिवज्यां, तेमां पांचमा परिग्रह परिमाणवतने विषे चार क्रोड सुवर्ण थापण राखवू, चार कोड व्याजें आप, अने चार कोड व्यापार माटें राखq. एम सर्व मली बार कोड सुवर्ण अने एक गोकुल मां दश हजार गाय होय तेवा चार गोकुल गायोनां राख्यां. तेमज खेतर खेडवा माटें पांचशे हल मोकलां राख्यां, तथा पांचशे शकट बाहिर देशां तर मोकलवा योग्य अने पांचशे शकट, घरनां कामकाज करवा योग्य खे त्रमाथी धान्य काष्ठ अने तृणादि लाववा माटे राख्यां. तथा जलमार्गे जो परदेशे जानं तो.चार वहाण अने चार वहाण देथीधान्यादि लाववा माटे. ए रीतें बात वहाण फेरववा राख्यां. तथा स्नान करी राते धोतीयें अंगलू हण कर, उपरांत अंगहणानो नियम कस्यो, तथा नीला जेठीमधनुं दांतण करतुं, तथा दीरामलक फल गली वीजा फलना नियम कस्या. तथा शतपाक अने संहस्रपाक ए बे तेल मर्दन करवाने मोकलां राख्यां. बीजा तेलना नियम कस्या, तथा शिलारस अने अगरना धूप टाली बी जा धूपना नियम कस्या, जाइफूल अने कमलिनी, ए बे जातिनां फूल टा लीबीजा पुष्पना नियम कस्या, कानना आनरण तथा नामांकित मुश्किा टाली बीजा धानरण राखवाना नियम लीधा. आठ पारी जराय एवा पाणीना घडाथी स्नान करवू, तथा गहूंचूर्णनी पीठी करवी. बे श्वेतपटकूल टाली बीजा वस्त्रना नियम लीधा. चंदन, अगरु, कुं कुम, ए त्रण टाली बीजा विलेपन करवाना नियम लीधा. मग प्रमुखनी खीचडी तथा तंउलनी खीर तेमज उज्ज्वली खांमथी नरेला उंचा दानां अने घणा घृतथी तलेला एवां पक्कान्न खावां, उपरांत नियम सीधा. हा दादिक नीली काष्ठ पेया टाली बीजी पेयाना नियम लीधा, सुगंधिमय कल्मशालिमो कूर टाली बीजा नंदनना नियम सीधा. अडद अने मग टा ली बीजा विदलना नियम लीधा. शरत्काल संबंधी गायनां घृत टाली बीजा घृतना नियम लीधा, तूंबक मंमूकी अने वचूना शाक टाली बीजा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनकणार जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. शाकना नियम लीधा, वडा पूर्णादिक टाली बीजा धान्य शाकना नियम लोधा, आकाशढं पाणी टाली बीजा पाणी पीवाना नियम लीधा, एलची लविंग कस्तूरी कंकोल कपूर जायफल, ए पांच वस्तुयें करी संस्का रित जे तंबोल ते टोलीने बीजा तंबोल खावाना नियम लीधा, जे.कांश प्रथमथीज घरमां वस्तु , घरवखरी ले तेनी उपरांत परिग्रह राखचाना नियम कस्या. ए पांचमा तथा सातमा व्रतसंबंधी वात कही, तेम बीज़ा प्रण सर्व व्रतना यथायोग्य नियम संश् श्रीमहावीरने वांदीने धेर आव्यो. शि वनिंदा स्त्रीये पण श्रीमहावीर पासें श्रावी तेमज आनंदनी मे श्राविकाधर्म थंगीकार करखो. बेदु जणायें चौद वर्ष पर्यंत ए रीतें श्रावक्रधर्म पाल्यो. जो कोइ देव मनमां वैषधरिचलाववा यावेतो पण चले नहि. एवो निश्चल थयो. __ पनी आनंदश्रावकने प्रतिमा आराधवांनो मनोरथ थयो, तेवारें सर्व कुटुंबनी आझा लश्ने कोलागयामें पौषधशाला करावी. महोटा पुत्रने घ रनो नार सोंपी, सर्व सऊनने जमांडी हकीगत कहीने पौषधशालायें ज महातप करतो थको अगीयार प्रतिमाना आराधन करवामां प्रवत्यो. ॥ उक्तं च ॥ दंसण वय सामाश्य, पोसह पडिमा अबंन सचित्ते ॥ आरंन पेस नदिछ, वजए समणनूए अ॥ १ ॥ एवी रीतें प्रतिमानुं आराधन क रता थका आनंदन शरीर अत्यंत मुबल थयु: ___ एम धर्मजागरण करतां अनशननो मनोरथ उपनो, तेवारें संजेषणा करी अनशन लीधु, तेपनी अवधिज्ञान उपy. एवामां श्रीमहावीरस्वामी आवी नद्याने समोसस्या, तेवारें श्रीगौतमस्वामी बन्ने पारणे निदाने अ थै नगरमां जश् अन्न पाणी वहोरीने पाबा वलतां कोलागग्राम तरफ घणा लोक जातां देखी गौतमस्वामीयें पूङयुंके या लोको क्यां जाय ? तेवारेको इएके जवाब आप्यो के हे महाराज! आनंद श्रावकें अनशन कयुं ,तेमने वांदवा जाय ले ते सांजली श्रीगौतमस्वामी पण आनंदश्रावकने वंदाववा माटें तिहां गया. तेमने याव्या जोश्ने आनंदश्रावक अत्यंत हर्ष पाम्यो थको कहेवा लाग्यो के हे महाराज ! ढुं ऊठी शकतो नथी माटें तमें दक डा पधारो तो थामना पगने ढुं महारा मस्तकें करी फरसुं ! ते सांजली श्रीगौतमस्वामी ढकडा बेठा. तेवारें आनंद श्रावकें त्रिधा शुझे करी मस्तक पगें लगाडीने वांद्या, अने पूब्युं के महाराज ! गृहस्थने अवधिज्ञान उप Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. २३३ जे? श्रीगौतमंस्वामी बोल्या के हा ऊपजे. तेवारें आनंदें कडं के मुफने त मारा प्रासादथी अवधिज्ञानं उपर्नु , ते केटलुकपर्नु ? तोके पूर्व, द हिण अने पश्चिम दिशायें समुश्मांहे पांचशे योजन पर्यंत दे बु. अने उत्तरदिशियें हिमवंत पर्वत पर्यंत देखू बु. तथा नंचं सौधर्मदेवलोक लगें अ ने नीचुं पहेली नरकप्टथ्वीना लोलुश्रा नरकावासा लगें देखुं . ते सांन ली श्रीगौतमस्वामी बोल्या के गृहस्थनें एटर्बु अवधिज्ञान ऊपजे नही. माटे तमें मिंबामि उक्कड द्यो. आनंदें कयुं के सत्य कहेवा, मिजामि उक्कड दे वाय नहीं. श्रीगोतमस्वामी कह्यु के एटलु अवधि गृहस्थपणे न ऊपजे, तेवारें आनंदें कह्यु के तमेंज मिजामि उक्कड द्यो. ते वात सांगली श्रीगौतम स्वामी शंका पामता श्रीमहावीर पासें आवी जातपाणी आलोश पड़ी पू बवा लाग्या के हे नगवन् ! आनंदश्रावक मिजामिक्कड दीये के हुँददं ? नगवाने कयुं के हे गौतम! तुंज मिजामिछक्कड दे. जेमाटें आनंदने एटर्बु ज अवधिज्ञान नपर्नु बे. तेवारें श्रीगौत्तमस्वामीयें आनंद श्रावक पासें आ वीने मिहामि उक्कड दीधुं. अने आनंदने खमाव्यो. वीश वर्ष पर्यंत श्राव कधर्म पालीने पहेले सौधर्मदेवलोकें अरुणान विमानें चारपट्योपमने आ कखे देवतापणे जश् कपनो. तिहाथी चवी महाविदेदे उपजी तिहां चा रित्र लश्मीदें जाशे. ए बीजाप्रश्नना उत्तर ऊपर थानंदश्रावकनीकथा कही. ए रीतें नरक स्वर्गपणुं पामवा आश्रयी वे प्रश्न करा. हवे तिर्यच अ ने मनुष्यपणुंपामवा आश्रयी वे पलाकरी,तेनो उत्तर वे गाथायें करी कहे जे. । ॥ गाथा ॥ कङबी जो सेवई; मित्तं कले कए विसंवयई ॥ कूरो गूढम ईच, तिरिकं सो होइमरिकणं ॥१ए. ॥ अव मदव जुत्तो, अकोहणो दोस वहि मद्यो । नय सादुगुणेसु विन, मरिनं सो माणुसो हो ॥ २० ॥ नीवार्थः-(जो के०) जे कऊली एटले पोताना कार्यनो अर्थी थको मित्रनी सेवा करे, ते कार्य (कएवि के०) कृतेपि एटले सिह थया पड़ी में त्रने संवय एटलें विहडे विखोडे एवो क्रूर परिणामनो धणी होय. गूढम ईन एटले गूढमतिवालो होय अर्थात् पोताना हृदयनी वात कोश्नी आग ल कहे नही, ते जीव मरीने तिर्यच थाय. जेम अशोककुमरें मायायें करी मित्रोह कीधो, जेथकी विमलवाहन कुलगरनो हाथी थयो ॥ १५ ॥ तथा आर्यव एटले सरतचित्त वालो होय, माईव एटले मान रहित निर Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. हंकारी होय, अक्रोधि दमावंत होय, दोषवर्जित एटले जीवघांतादि दोष रहित होय, 'मध्यस्थो नयसाधुगुणेषुस्थितः' एटले सुपात्रने दान दीये, न्यायवंत होय, महात्मा साधुना गुण वखाणे ते जीव मरण पामीने मनु ष्य थाय, जेम सागरचंद मरीने पहेलो कुंलगर विमलवाहन थयो ॥२०॥ हवे ए वे यहा उपर सागरचंड शेठ अने.अशोकदत्तनी मली एकज कथा कहे जेः-यथा महाविदेहदेवने विषे अपराजिता नंगरी ईशान चंदराजा राज्य करे . तिहां चंदनदास एवे नामें श्रेष्ठी वसे ! तेने गु गवंत एवो सागरचंड नामा पुत्र बे. ते सरल चित्तवालो निरंतर धर्मी बने आचारें करी निर्मल ले. तेने अशोकदत्त नामें मित्र जे; ते माया वी . मनमां कपटी कूडो जे. एकदा वसंतमास आवे थकें रानानो या देश थयो जे आजे वसंतकाडा करवाने .मा. सर्वलोकें वनमांहे आवq. ते वात सांनतीने सागरचंड तथा अशोकदत्त ए बेदु वनमां गया. अने राजा पण परिवार सहित वनमां आव्यो. एम लाखोगमे.लोक तिहाँ ए कठां थयां. सर्व स्थलें गीत, गान, नाटक, जूलादि कौतुक सर्वलोक क रवा लाग्या. ते अवसरें राखो राखो. एवो कलकलाट शब्द लांजल्यो. ते वारें सागरचंड नजीक होवाथी तरवार हाथमां लश्ने तिहां गयो, तो चो रोयें अपहराती एवी पुण्यनर शेनी दीकरी प्रियदर्शनाने दयामणी दीती. तेने सागरचं बलें करी मूकावी. ते वात सागरदत्तना पिता चंदन दासें सांजली जेवारें पुत्र घेर आयो तेवारें पितायें शिखामण दीधी, जे हे वत्स ! नक्षतपणुं न करीयें, कुलनी मर्यादा प्रमाणे बल फोरवीयें, ६ व्यने अनुसारें वेश पहेरीयें, कुसंगति .परहरीयें, महोटानो विनय सेवी ये, वडायें कहेलां चार वचन सहन करीयें, तो महत्त्व पामीयें. माटें तुं तहारो जे अशोकदत्तमित्र , तेनी संगति टालीने श्रीजिनधर्मनुं पालन कर. एवी पितानी शीखामण सांजली सागरचंबोल्यो के हे तातजी! जेम लाज जाय ते वात हुं नहीं करूं. एवा पुत्रना वचनथी पिता हर्ष पाम्यो. हवे पुण्यनझोठे पण सागरचंड कुमरनो उपकार जाणीने पोतानी त्रि यदर्शना कन्या महोटा महोत्सवथी कुमरने परणावी बेदुनो विधात्रायें रूडो समागम मेलव्यो. कुमर कुपरी बेहु सुखें समाधे रह्यां. एकदा सागरचं यामांतरें गयो, तेवामां अशोकदत्त तिहां मित्रने घरे Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. यावी मायाये करी प्रियदर्शनाने स्नेह देखाडतो कदेवा लाग्यो के श्रावो थापणे स्नेह संबंध करीयें? से वात सांजलता स्त्रीने क्रोध उपनो. तेथी तेने घरथी बाहार काहाढी मूक्यो. बाहिर निकलतां रस्तामा सागरदत्त पण ग्रामांतरथी थावतो तिहां सांहामो मट्यो तेने अशोकदत्ते कयुं जे तमा री स्त्री महारी साथै स्नेह करवा तत्पर थ तेने में निषेधी जे. तेवात सां नली सागरचं विचारीने कडं के अघटित कार्य करवु योग्य नहीं. घेर या व्यो, तेंवारें स्त्रीना मुखी मित्रनुं स्वरूप सर्व जाण्यु. ते वखत विचायुं जे महारा बापें कंडं हतुं जे तहारा मित्रनी तुं सोबत करीश नही. ते वात सत्य थइ. एम निर्धारी धर्मकार्य करवाने प्रवर्तमान थयो. पोतानी लक्ष्मी सात देत्रे वावरतो थको रह्यो. अनुक्रमें स्त्री जरतार बेदु जण काल करी जंबु छीपना जरतदेवें दक्षिण खंमें मंगा अने सिंधु बेदु नदीनी वचें त्रीजा था रामांह पंव्योपमने आतमे जागे थाकते नवशे धनुष्य प्रमाण शरीर वाला युगलियां थयां.. तिहां कल्पद मनोवांडा पूर्ण करे दे. अल्पकषायवाला थयां. मांदोमांहे बेदुने घणो स्नेह थयो. अने अशोकदत्त मित्र पण मरी ने तिहांज चार दांत वालो हाथी थयो, ते हाथीयें जमतां जमतां एकदा तेरो वेदु युगलियांने दीवां,तेवारें पाउला स्नेहना वशथी बेदुने सूंढथीक पाडीने पोतानी पीठ ऊपर चडावी लीधां, तेथी ते युगलीयानुं विमलवाह न एवं नाम प्रसिद थयु. धार्यव गुणना प्रतापथी सातकुलगरमा ए प्रथम कुलगर थयो. अने अशोकदत्त मायायें.करी तिर्यच थयो. ए मनुष्य तथा तिर्यचपणुं पामवा आश्रयी सागरचं तथा अशोकदत्तनी कथा कही ॥ हवे स्त्री मरण पामीने पुरुषपणुं पामे अने पुरुष मरण पामीने स्त्रीपर्यु पामे, ए बेटबाना उत्तर बेदु गाथायें करी कहे जे. ___गाथा ॥ संतुझा सुविणीया, अजावजुत्ता य जा थिरा निचं ॥ सचं जंप महिला, सा पुरिसो होइ मरिकणं ॥ २१॥ ॥ जो चवलो सपना वो, माया कवडेहिं वंचए सयणा ॥ नयकस्सयवीसस्सइ, सो पुरिसो महि लया हो ॥२॥ नावार्थ:-जे स्त्री संतोषवानं होय,रूडी विनीत होय, सरल चित्तवाली होय, स्थिरस्वनाववाली होय, सत्य वचन बोलनारी हो य, ते स्त्री मरीने पुरुषपणुं पामे ॥ २१ ॥ जे पुरुष चपलस्वनावी होय, शठ होय, कदाग्रही होय, माया कपट करी सगासंबंधिने वंचें उगे, वली Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. कोनो विश्वासन करे, ते पुरुष मरण पामीने परनवें स्त्री थायं ॥ २२ ॥ हवे ए बेदु उत्तर ऊपर पद्म पद्मिनीनी कथा कहे जेः-स्वस्तिमती नग रीयें न्यायसार नामें राजा राज्य करे . ते नगरमा एक यद्मनामें शेठ सत्यवादी अने संतोषी वसें. तेनी स्त्री पद्मिनी.एवे नामें महारूपवंत बे, परंतु कर्मना योगें मुखरोगें करी पीडाती अकी काहलस्वरवाली-ले. ते असत्यवादी अने मायावी , शेवें स्त्रीनो मुखरोग मटाडवा माटें घाउ पचार कस्या, पण को रीतें गुण थयो नहिं, एकदा ते स्त्री कपटें करीन रिने कहेवा लागी के हे महाराज! मने सारं न थयुं माटें.तमें सुखें बोजी स्त्री परणो. तेने शेतें कह्यु के महारे परमसंतोष ,माटे ए वात कहीश नही. __एकदा शेठ जुना नयाने देह चिंताने अर्थे गयो. तिहां मेवनी दृष्टिथी निधान प्रगट थयु. तेने देखी शेत तिहांधी उठीने घेर जतो रह्यो. तिहां द कडो कोटवाल कनो हतो, तेणे निधान दीतो अने राजाने जई कह्यु के पद्मशेठ वनमा निधान प्रगट थतो देखी घेर जतो रह्यो, तेवारें राजायें कोटवालने कयुं के ए.शेठ पालथी धन लेवा गयो हो, माटें तुं फरी तिहां ज बानो रहीने जोर याय. कोटवाल फरी तिहां गयो,पण शेठने तिहां दीठो नहीं. तेवारें बलीराजानी आगलावीने कडं के स्वामी! शेव कांश निधान लेवा याव्यो नहीं. एवं सांजती राजायें शेठने तेडावी पूयु के, तमें निधान शा वास्ते नहिं लीधो? शेवें कडं हे महाराज! महारी पा सें थरखूट निधान पज्यो , तो फ्ली बीजा निधानने ढुं गुं करुं ? रा जायें पूयुं के कयो तमारी पासें निधन ? तेवारें शेवें कह्यु के महारी पासें संतोषरूप अक्ष्य निधान , ते सांजली राजा घणोज रीज पाम्यो यने शेठने निर्लोजी जाणी नगरशेनी पदवी आपी. ___ एकदा प्रस्तावें उद्यानमांहे श्रुतकेवली पधाया. तेमने राजा तथा पद्म शेत मला वांदवा गया. धर्मद्रेशना सांजल्यानंतर शेजें गुरुने पूब्युं के हे म हाराज ! मुजने अत्यंत सत्य अने संतोष रुच्यो ले तेनुं कारण गुं? अने महारी स्त्रीने मुखरोगें करी काहलस्वर थयो जे? तेनुं पण कारण मुझने कहो? एवं शेउनु बोलवू सांजलीने गुरु तेमना पागला नव कहेता हवा. के एज नगरमांनागशेठ असत्यवादी, असंतोषी अने मायावी रहेतो हतो तेनी नागिला नामें स्त्री ते माया रहित तथा सत्य संतोषते धारण करनारी हती. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमष्टचा अर्थसहितः २३७ एकदा नांगaari कोइक नागमित्र नामें मित्र देशांतर जतो हतो, ते नी स्त्री चपल हती तेना जयपी पोताना पुत्रने कही नागशेवनी स्त्री ना गिलानेज साक्षी राखी पोतानुं सुवर्ण, नागशेवनी पासें थापण मूक्युं यने पोतें देशांतर गयो तिहां घणुं धन उपार्जन करी पाठो वलतां मार्गमां चोर. लोकोयें धाड पाडी तेने मारी नाख्यो, ते वात तेनी स्त्री तथा पुत्रे सां नली. तेवा घणो दुःखित या शोक करवा लाग्या. अनुक्रमें केटला एक दिवस पछी ते शेठना पुत्रे पोताने पितायें राखेती थापण नागशेवनी पासेंथी मागी.. तेवारें शेठ ना कबूज़ थयो, घने कहेवा लाग्यो के महारी पासें तहारा पितायें कां पण थापण राखी नथी. A नागमित्रा पुत्र राजानी यागल जर ते वात कही. राजायें पूब्धुं के तहारी पासें कोई साक्षी बे ? तेणें कयुं के नागशेवनी स्त्री नागिला साक्षी बे. तेवारें राजायें प्रथम शेवने तेडी पूढयुं. पण तेणें कयुं के महारी पासें एने बायें कांइ थापण मूकी नथी. पी राजायें नागिलाने तेडावीने पूढ, तेवारें नागिला विचारखा लागी जे एक बाजु तड ने एक बाजु वाघ, ए न्याय महारे थयो छे. केम के. एक पासें जरतार बे, वली उत्तम स्त्रीनी ए रीत बे, जे जरतारने प्रतिकून न था. अने बीजी रीतें विचा रुं तो सत्य वचन लोपाइ जाय बे ? ते या नवें ने परजवें महाडुःखनुं देवावालुं थाय ! एम चिंतवी बेवट निर्धायुं जे साधुं बोलतां जे यवानुं ह शे, ते याशे. अमृत पीवाथी मरण थवानुं नथी. एम विचारी खैरे खरी सत्य वात राजा आागल कही दीधी. ते वचनथी राजा घणोज हर्षायमान यो ने नागशेवनी पासेंथी थापण पावीने की दीघो. यने तेनी स्त्रीने उत्तम वस्त्रोनी पहेरामणी यापी विदाय करी. पढी नगरनी स्त्रीयो मध्ये नागिला सत्य बोलनारपणें प्रसिद्धताने पामी. एकदा नागशेठने घेर मासखमणने पारले कोइ कृषि याव्या, तेने नाव सहित फासु यन्न पाणी वहोराव्या, तेथ बेदुजणें शुनकर्म उपार्जन कर अनुक्रमें तिहां या पूर्ण थये बते ते नागिलानो जीव मरण पामीने तुं इहां पद्मशेठ प ऐ यावी उपनो बो. अने नागशेठ मरण पामी कपटने योगें इहां तहारी पद्मिनी स्त्री या बे. जीनथी कूडुं बोल्यो, तेथी मुखरोग खने काहनस्वर थयो बे. ए रीतें पालो जव सांजली वैराग्य पानी बेहु जण दीक्षा ल‍ . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. मोदें पहोतां ॥ दोहो ॥ जीनें साचूं बोलीयें, राग शेष करि दूर ॥ उत्तम गुं संगत करो, लाने जिम सुखपूर ॥ जीराग्लांनाम पदायारैः ॥ ए पां चमा अने बहन बे उत्तर आश्रयी पद्म पद्मिनीनी कथा कही ॥ ५॥ ६ ॥ हवे सातमी एबानो उत्तर एक गाथायें करी कहे बे. ॥ गाथा ॥ अस्त वसह पसुन, जो लंड वंधियं पि दु कर ॥ सो स वाण निहींणो, नपुंस होइ मरिकणं ॥३॥ नावार्थः-जे पुरुष (अस्स के०) घोडा अने (वसह के वृषनं एटले बलंद तथा बोकडा प्रमुख पशुग्ने (लंब के०) लांडे, अांक देवरावे, नाक वींधे, गलं कंबल कापे, श्नोत्र कापे, ते जीव सर्व मनुष्योमांहे हीणो अधम जाणवो अने मरीने नपुंसक थाय ॥ २३॥ जेम गोत्रासें अनेक जीवना अवयंव द्या, तेथी घणा नव लगें नपुंसकपणुं पाम्यो, ते गोत्रासनी कथा कहे . वणिकयामें मित्रदेव राजा राज्य करे बे. तेनी श्रीदेवी नामें पट्टराणी बे. एकदा तिहां श्रीवर्षमान जिन समोसस्या. बार पर्षदा मलीधर्मदेशना सांनतीने सर्व हर्षवंत थया. तिहां श्रीमहावीरना' प्रथम शिष्य अने सा त हाथ प्रमाण शरीर वाला,अदीपमहाणसी प्रमुख अनेक लब्धिना धार क एवा श्रीगौतमस्वामी ते बहने पारणे श्रीमहावीरने आदेशे पात्रां पडिले हीने वणिकयामें वहौरवा माटें थाव्या. तिहाथी वहोरी पाना वलतां मा र्गमा घणा राउलजने वींटेली अने आकरा बंधने वांधेलो एवो एक पुरुष दीतो. ते केवो दीठो ? तो के जेना कान, नाक, होत, जीन बेद्यां , जेनुं धूलथी शरीर खरड्युं बे, अने तिल तिल जेटलुं तेना शरीरनुं मांस बेदी बेदी तेने खवरावे . एवो दयामणो, अने दुःखीयो देखी, ए पापर्नु फल ने, एम जाणी मनमां वैराग्य प्राणीने श्रीमहावीरपासें वी शरियावहि पडि कमी, नात पाणी आलोइने पूवा लाग्या के हे जगवन ! केवा प्रकारना रौ५ कर्मे करीने ए पुरुष एवो महा पुःखीयो थयो ? तेवारें जगवान् बोल्या के हे गौतम ! सांजल. हबिणानर नगरें सुनंदराजा राज्य करे . ते गाममां गायोने बेसवा माटे लोकोयें एक मांझवो करावेलो जे ते गायो बाहेर जंगलमांथर तृणादि क चरी पाणी पीने सांजनी वखतें मंझपमां ावी सुखें बेसे. ते गाममां को नीम नामें पुरुष रहे . तेनी उत्पला नामें स्त्री ने. तेनो पुत्र गोत्रा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमएडा अर्थसहित. २३ए स नामें में. ते बालपणाथकीज महाअष्ट, धार, निर्दनी, पापी,जीवघातनो करनार . एकदा रात्रिनी वरखतें सर्वलोक सूता पड़ी ते गोत्रास पोताना हाथमां काती जश्ने गायोता मांमवामां आव्यो, तिहां केदलिएक गायोना पूंज, कान, नाक, होव, जीन, स्तन, उहाडा, पग प्रमुख अवयच बेदी ना रख्या. एवं पाप करी पांचशे वर्षतुं आयु पाली मरण पामीने वीजी नरकने विषे जनारंकीपणे कपनो । उक्तंच॥ दोहो ॥ घोडा बलद समारीया,की धा जीव विणास ॥ पुण्यविहूणा जीव ते,पामे नरकनिवास ॥१॥ पड़ी ते गो त्रासनो जीव नरकना महा अघोर फुःख जोगवी तिहांथी मरण पामीने आ नगरमां सुमित्र शेवनी सुनश नामें वांजणी स्त्रीने घेर पुत्र पणे क़पनो जे. तेने जन्मतां वार उकरडा ऊपर नारखी दीधो. वली तिहाथी कपाडी लावीने उधित एवं नाम दीधुं : ते जेवारें महोटो थयो, तेवारें सुमित्रशेठ धन नपार्डवा माटे एने साथें से प्रवहणे चढयो. कर्मवशे संवर्तक वायरे करी प्रवहण नांग्युं. तिहां सुमित्रशेठ देवशरण थयो.अने उधितपुत्र घरे याव्यो. पिताना मरणनी वात- संनलावी तेथी सुनश शेवगणी पण शोक संताप करती मरण पामी पाबलथी बोकरो उराचारी पापीष्ट थयो. ते वात सानोयें जाणीने एने घरथी बाहिर काहाढी मूक्यो. गाममां फरतो साते दुर्व्यसन सेवन करे सर्व अनर्थन मूलरूप थयो: हमणां एणे राजा नी मानीती महारूपवंत, कलावान, सर्वदेशोनी नाषा जानारी एवी का मध्वजानामें वेश्या , तेनी साथें राजाने घणो स्नेहसंबंध थे, तैना घर मां प्रवेश करतो एनधितपुत्रने राजाना माणसोयें दोगे. तेवारें तेने बां धीने राजा आगल लाव्या. ते राजायें एने विडंबना करेली , ते विडंब ना करीने मारी नाखशे. मरीने वली पहेली नरकने विपे जश् नारकी पणे उपजशे.! तिहांथी मरीने नपुंसक थशे. एम घणा नव पर्यंत नपुंसक पणे कुःख वेगशे ! एम जाणी निलंबन कर्म न करQ. ए सातमा प्रश्नना उत्त र आश्रयी गोत्रासनी कथा कही ॥ हवे आवमी पहानो प्रत्त्युत्तर एक गाथायें करी कहे . ॥ गाया ॥ मारे नियमणो, परलो नेव मन्नए किंचि ॥ असंकि लिह कम्मो,अप्पासो नवे पुरिसो॥२॥ नावार्थः-जे निर्दय मन थको जीवने मारे,स्वर्ग मोद प्रमुख परलोकने किंचित्मात्र पण माने नही,अने Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. जे जीव अतिसंक्लिष्ट विरु६ कर्मोने आचरे, ते जीव, परनवें अल्पायुष्य वालो थाय ॥ १४ ॥ जेम उऊयणी नगरीयें समुदत्त शेठनी लार्या धा रिणी उराचारी हती, ते यज्ञदत्त नामा चाकरनी साथै आसक्त थइ थकी कर्मकरनी : साथें मतीने पोताना पुत्र शिवकुमरनो शेह, करवा चिंतव्यो ते सर्वने मराव्युं अने पोते.पण मरण पामी. आगल घणा नवें अल्पायु पाम्यु. माटें इहां शिवकुमार अने यज्ञदत्तनी कथा कहे जेः- - . __ उङयणी नगरीयें समुदत्तशेठ वसे . तेनी धारिणी नामा स्त्री ने, तेने शिवकुमार नामें पुत्र , अने यदत्त नामें कर्मकर दें. एकदा समु दत्त शेठने रोग उपनो तेथी ते मरण पाम्यो. पाउल तेना बेटायें मृत कार्य करयां. कर्मने नोगें धारिणी राणी पहेला यज्ञदत्तकमकरनी साथें लुब्ध थइ. जे नणी यौवनावस्थामां इंडियोने जीतबु माहार्लन जे. तेमां पण कामने जीतवो वली विशेष दोहिलो बे. पडी ते वात लोक विरु६ जाणीने शिवकुमार .तेने वारे, तो पण माता माने नहि.. एकदा धारिणीय यज्ञदत्तने एकांतें कह्यु के महारो पुत्र शिवकुमार रू. डो नथी माटें. जेम कुमुदिनीनो सूर्य विनाश करे ,अने कांठानो जेम न दोनो प्रवाह नाश करे , तथा वननो जेम दावानल नाश करे , तेम थापणो शिवकुमार विनाश करशे! तेथी प्रजन्नपणे एने मारी नाखवो जोयें. ते सनिली यज्ञदत्तै कडे के ए वात युक्त नथी केम के तहारो पुत्र ते महारी स्वामी जे. एना पसायथी आपणे बेदु सुखीयां बैयें. वली स्वा मी शेह करवो, ते. महापापनो हेतु ... ते सांजली धारणी बोली के.एमां शेर्नु पाप ने ? जो ए जीवतो दशे, तो आपणने सुखनो अंतराय करशे ! इत्यादि वातो सांजली विषयांध यज्ञदत्ते पण शिवदत्तने मारवानी कबूलात आपी. हवे कपटें करी धार पीयें पोताना पुत्रने कयुं के हे वत्स ! कोइ पण हथीयार धारणकर नार पुरुषनो विश्वास करीश नही. एकदा प्रस्तावें कुमरने कहेवा लागी के गोवालिक लोको पापणा गोकुलनी रक्षा रूडी रीतें करतां नयी मानें तमें बेदु जण गायोनी रक्षा करवा जाउ,ते सांजली वेदु जण हाथमां ह थीयार लश्ने जंगलमां गया. बेदुजण आगल पाउल जाय , एक बीजा नो विश्वास करता नथी. नीचा उतरतां बाहडीमां, यज्ञदत्ते खग काढ्यु Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. ते पाडली. शिवकुमार जाण्युं तेवारे त्यांची नाशिने गोकुलमां जतो रह्यो तिहां जश् गोवालीयाने शीखामण थापी समजावी राख्या. संध्या समयें गायना वाडामां बेदु जए। शय्या पाथरीने सूता,एवामां शिवकुमर कठीने शय्यायें खड्ग राखी उपरथीं ढांकी मूक्युं अने, पोतें गायो ना नमूहमा बानो जइ बेसी रह्यो. एटलामां यज्ञदत्ने बानो रही खङ्ग काढीने शिवकुंमारनी शय्या 'नपर घां कयो, ते वखत शिवकुमर गायो मांथी निकली मानो आवी घा करीमे यज्ञदत्तने मारी नारख्यो. अने मु खथी चोर ! चोर !! एवो कलकलाट शब्द करता गोवालीया अने शिवकु मार कांक बाहेर ज पाबा वली आवीने ब्रूम पाडवा लाग्या के.यज्ञद तने चोरें मारी नाख्यो ! ए काम करीने शिवकुमार घरे आव्यो. तेने मा तायें पूज्यु के यज्ञदत्त किहां जे? तारे शिवकुमरें कडं के पाउल आवे बे. एम कही मनमां चिंतवणा करे ,के महारी मातानां कर्म तो जू. कहेवां ? जे पुत्रने पण मारवानी तजवीज करी, एम विचारी वली माताने कहेवा लाग्यो जे ढुं रात्र जाग्यो बुं, माटें हमणां निश आवे डे, एम कही सुइ रहे बे. एटलामां तेनी मातायें खड्ग ऊपर कीडियो चडती दीती, तेवारें खड्ग काहाढी जोयुं तो लोहीयें खरड्युं दी तेथी विचायुं जे निश्चयथकी यज्ञदत्तने एणेज मास्यो . एम चिंतवीने जांखी थइ. पड़ी तेज खड़े करी पोताना पुत्रने मास्यो. ते धाव मातायें दीठो,तेणें मुसलथी धारणीने मारी तिहां मरती धारणीयें चपेटायें करी धावमाताना मर्मस्था ननें हण्यां, लेथी ते पण मरण पांमी. एम निर्दयपणे मांहोमांहे शेह करी मरण पाम्यां. ते सर्वजीव ते नवमां. पण प्रापें करी पाल्पायुष्यवालां थयां. अने आवते नवें महाकुःखी थाशे ! माटें जीववध न करवो ॥ दोहो॥ जीव वधे पापज करे,आणे हिये कुबुधि॥नारीकर्मा जीव जे,ते किम पामेसिदि ॥१॥ ए आठमा प्रश्नना उत्तरमा शिवकुमार यज्ञदत्तनी कथा कही ॥ हवे नवमी टबानो उत्तर एक गाथायें करी कहे . ॥ गाथा ॥ मारे जो न जीवे, दयावरो अजयदाण संतुको ॥ दीहान सो पुरिसो, गोयम जणि न संदेहो ॥२५॥ नावार्थ:-जे पुरुष जीवने न मारे, दयावंत होय,जे अजयदान देने हैयामांहे संतुष्ट थाय,हर्ष आणे, ते जीव दीर्घायु वालो यावते नवे घणुं जीवे, संपूर्ण आयुष्यवान् थाय. हे Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. गौतम ! ए वातमां कां पण संदेह नथी ॥ २५ ॥ जेम राजंगृही नगरीयें मणिकारशेठनो पुत्र दामनक हतो,ते एकलो घणा वखत मरण संकटथीउ गयो,महोटी चिनो धणी थयो,दीर्घायुष्यवालो थयो. अहिं तेनी कथा जा गवी. ते प्रश्नम बार पर्वोनी कथामा बनाइगयेती . तथा.एक ऋषीश्वर व नमाहे तपस्या करता हता. एवामां एक आहेडीये त्रास पमाडेलां मृगलां तेमनी आगलथी नाशि जतां हतां. पाउलथी आहेडीयें आंवी ऋषीश्वरने पूब्यु के मृगलां किहां गयां? तेवारें कृषियें दयाथी या प्रमाणे कयुं के ॥ यत्प श्यति न तद्धृते,या ब्रूते सा न पश्यति ॥ एटले जे चळु देखे.जे, ते चहु कां बोलतुं नथी, अने जे जीन बोले जे, ते जीन कां देखती नथी ? ॥दोहो। देखे ते बोले नही,बोले ते नवि आंख ॥ आहेड। मृगलां किहां,धनुष बाण सवि लाख ॥ १ ॥ एम कही ते बाहेडी जता रह्या. ए दयावान् ऋषिनी कथा नवमा प्रश्नना उत्तर ऊपर कही ॥ हवे दशमी अने अगीयारमी टहाना उत्तर बेतु गाथायें करी कहे : ॥ गाथा ॥ देश न निय संसत्तं,दिन्नं हारेश्वारएं दित्तं ॥ एएहिं कम्मे हिं, जोगेहिं विवडिन हो ॥ २६ ॥ सयणासण व वा, नत्तं पनं चपाणियं वावि ॥ हियएण देश.तु, गोयम जोगी नरो हो ॥ २७ ॥ नावार्थः-जे आपणी पासें बती वस्तु होय तो पण न आपे,तथा दी ये तो पनी संताप करे,अनेरो जे आपतो होय तेने देतां वारे.एवे एवे क करी जीव जोगें विवर्जित एटले नोगरहित थाय. जेम धनसार शेठ बास कोडी इव्यनोधणी बतांअत्यंत कृपणं हंतो तेथी जोगरहित-थयो ॥२६॥ __तथा जे पुरुष शयन, पाट, संथारो, आसन, पाटलो, पोंडणुं, कांबलो, वस्त्र, जात, पाणी जे महात्माने देवायोग्य वस्तु ते हैयानी वासनायें करी संतुष्ट थको आपे. हे गौतम ! ते पुरुष, जोगवंत सुखी थाय ॥२७॥ जेम ध नसार शेठ सुपात्रने दान आप्ती जोगसंबंधि सुख पाम्यो ॥दोहो॥ वीनतडी सामी सुणो, तप जप क्रिया न कीध ॥ राग शेष पातक कखां, गर्वे दानज दीध ॥ १ ॥ पदाद्यदरैर्वीतरागनाम श्रेयोर्थ ॥ हवे ते शेग्नी कथा कहे . मथुरानगरीयें धनसारशेठ वसे बे, ते बारात कोडी इव्यनो अधिपति बे, परंतु महारूपण जे. एक दमडी पण धर्मने अर्थे थापे नही. दरवाजा बागल को निदाचरने देखे, तो तेनी ऊपर रोष करे, जो कोइ यावी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमबा अर्थसहित. २४३ मागे, तो तेनी. ऊपर रीश करे, याचकने देखे, के स्थानथकी उठी जाय, धर्मने अर्थे धन अपवानी वातमां पासे पण आवे नही, पोताना घरमां कोनी देखतां सारी रसोई पण जमे नही: पूरुं खाय पए नहि. ते नगर नी मां को नूरव्यो माणस धंनसार शेतनुं नाम पण जम्याविना लीये नही ते एवं विचारे के एनुं नाम लेद्यं, तो आजे अन्न पण मलशे नही. हवे ते धनमांथी त्रीजो नाग बावीश कोड इव्य धरतीमा दाटी राखे लुं हंतुं. एटले. पृथ्वीगत करेलुं दतुं, तेने एक दिवस उघाडी जोतां लीयाला जेतुं दीढुं. ते जोश शेठने मूर्बाधावी गइ. धरती उपर पडि गयो. थोडी वार पढी सचेत थयो. एटलामा वली कोकें यावी कयुं के शेवजी आपना बावीशकोडना मालथीनरेलांप्रवहण मूबी गया. वली त्रीजे को के आवीने कह्यु के अमुक स्थलें आपणा मालनां गाड चोरोयें लूंटी ली धां. इत्यादिक इव्य नाश पाम्यानी वातो सांजली शेठ शून्य थ गयो. रा त्रि दिवस नम्या करे, लोको तेनी हांसी कया करे.. वली एकदा दश लाख जांम लइ प्रवहण नरी पोतें. वहाणमां बेसी देशांतर नपी चाट्यो, त्यां पण कर्मयोगें समुश्मां गाज, वीज, वर्षाद थयो, तोफानथी प्रवहण नांगी गयुं. पाटीयुं हाथमां श्राव्युं, तेनी मदतथी कांठे आव्यो तिहाथी रजलतो घेर आवी पहोतो. मनमां चिंतववा लाग्योजे हुँ इव्य पाम्यो, परंतु कोई वारें सुपात्रने दान दी) नहिं देताने पण वाखा, माटें महारी लक्ष्मी बाहिर परोपकारादि कोइ पण सुरूतमा काम आव। नहिं. जे माटें शास्त्रमा लक्ष्मीनीत्रण गति कही छे ॥ दानं नोगोनाश, स्ति स्रोगतयोनवंति वित्तस्य ॥योन ददाति न जुक्ते तस्य तृतीया गतिर्नवति ॥१॥ ए कहेली दान, नोग अने नाश एवीत्रण गतिमांथी महारी लक्ष्मीनी तो मात्र एक त्रीजी गतिज थ. एटले नाशपणुंज पामी. • एकदा वनमां केवली नगवान् समोसस्या, तेमने शेठ वांदवा गया. वां दीने पनी पूब्यु के हे जगवन् ! हुँ कहेवा कर्मना उदयथी कृपण थयो? तथा महारी लक्ष्मी सर्व जती रही तेनुं हुं कारणं दशे? तेवारें गुरु कहेवा लाग्या के हे शेव! धातकीखंमना नरतक्षेत्रमा एक गामें बे नाइ महोटी क दिना धणी हता. तेमां महोटो ना तो सरल चित्तवालो,नदार,गंनीर हतो, अने बीजो न्हानो नाइ रौपरिणामी रुपण हतो, ते महोटा जाश्ने पण Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. दानादिक थापता थकां वारे, तथापि ते तो दान अवश्य अप्यिाज करे. एम करतां महोटा जाने दिवसें दिवसें लक्ष्मी वृद्धि पामवा लागी, अने न्हानो लाइ जोतो रहे, पण कोश्ने पाइ पण आपे नहि. तेथी उल टी लक्ष्मी.खूटवा लागी. तेधारे दि खेवामाटें महोटा नाइ साथै महो टो कलह करवा लाग्यो ते कलहना योगथी एकदा महोटा जायें गुरुनी देशना सांजली वैराग्य पामी, दीक्षा लीधी. काल कर। पहेले देवलोकें देव तापणे रुपनो. अने न्हानो नाइ कृपण उतां निम्न थयो लोकें निंदतों थ को तापसी दीक्षा लश् अज्ञान तप करी असुरकुमार देवोमी जर कपनो. तिहाथी चवी इहां तुं धनसार नामें शेत थयो बो. अने ढुं महोटो जाइ देव लोकथी चवी तामलिप्ती नगरीयें एक व्यवहारीयाने घेर पुत्र पणे ऊपनो, अने तिहां दीक्षा लइ कर्मक्ष्य करी केवलझान उपार्जीने दुं हमणां मां ही आव्यो . ते सांजली शेठ पोताना पाबला नवनो नाइ जाणीने ह र्षवंत थयो. पनी गुरुये कह्यु के तें दान न दीधुं, तेथी अंतराय कर्म उ पायु तथा दान देतांने वास्यो, तेथी धन सर्वं दय थइ गपुं. इत्यादि वात सांगली धनसारशेठे एवो नियम लीधो, के हवेथी हुँ जेटलुं धन उपार्जन करूं! तेमाथी चोथो नाग धर्मकायमां वापरूं ! एवी जिहांसुधा जीवं, त्यां सुधी प्रतिज्ञा करुं बुं तथा पारका दोष न बोलुं. एम कही श्रावकधर्म अंगी कार कस्यो,अने केवलीनंगवाननी साथें पाबला नवनो अपराध खमाव्यो. हवे.शेत, तामलिप्ती नगरीयें जर व्यापार करवा लाग्यो. तिहां लक्ष्मी उपार्जन करी. तेमांथी घणी लक्ष्मी धर्म अर्थ सात खेत्रे खरचवा लाग्यो, यें पोसह करे, सुपात्रने दान आपे. एकदा प्रस्तावें शून्यघरमां पोसह लश् कास्सग्ग ध्याने रह्यो. तिहां व्यंतरदेवे कोपकर। सर्पनुं रूप करी शेउने मस्यो. एक दिवस पर्यंत शेत प्रतिमायें रह्या तिहां सुधी व्यंतर देवें अनेक प्रकारना उपसर्ग कस्या, पण शेठ दोन पाम्यो नहिं. एवी शेनी स्थिरता जोश, व्यंतर संतुष्ट थई, बोल्यो के जे मागो ते ढुं था'! परंतु शेठे कांइ मांग्युं नहिं. तो पण व्यं तरें कह्यु के तमें फरी मथुरा नगरीयें जाउ. अने तमारा नंमारें मूकेला बावीश कोड सोनैय्या जे लीयाला थइ गया जे, ते तमारा पुण्यने योगें सोनैय्या थशे. पनी शेवें मथुरामां आवी निधान कघाडी जोयो तो पूर्वे Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. २४५ जे लीयाला दहा हता, ते न दीठा. अने सोनेय्याज़ दीठा. तेमज जल मार्गना वहाणो पण पापीनी ताणथी क्यांक खराबे चड़ेला हतां, ते प ण फरी कुशलें आव्यां. एम सर्व स्थलेंथा करी पण बासत कोटि इव्य ए कहुँ थयु. तेमांथी दान देतो थको लोग जोगववा लाग्यो, घणां जिनप्रा साद.कराव्यां. एम साते देने सारी रीतें धन वावरीने रूडी धर्मसंबंधि कीर्ति उपार्जन करी यंतें पुत्रने घरमो नार सोंपी अनशन ले पहेले देवलोंकें अरुणान विमाने चार पट्योपमने थानखे देवतापणे जश्नपनो. तिहाथी चवीं महाविदेहदेवें मनुष्यपणुं पामी दीदा लइ मोदें जाशे. ए अगीयारमी टवाना उत्तरमा धनसार शेरनी कथा कही. हवे बारमी अने तेरमी टनाना उत्तर बे गाथायें करी कहे जे. ॥ गाथा ॥ गुरु देव य साहूंणं, विणयपरो संत दंसणी अ॥ न य न पा किंपि कडुआं, सो पुरिसो जायए सुहि ॥२॥ अगुणोवि गविवञ्चिय, निंद रागी तवस्सियो धारो॥माणी विडंबउ जो, सो जाय दूहपुरिसो २५ . नावार्थः-जे पुरुष पोताना गुरु, देव अने साधु महात्मानो विनय क रवामां तत्पर होय अने जेनुं दर्शन शांतमुशवालुं होय, एटले शांतमुश होय, अने कोइने कटुक वचन न बोले, एटले कोइना मर्मयुक्त निंदायुक्त तथा अणगमतां विरु६ वचन न बोले,ते पुरुष, सौजाग्यवंत होय ॥२॥ तथा जे पुरुष निर्गुण होय एटले गुणरहित थको पण गवि एटले गर्वि त अहंकारी होय, अने गुणवंत धैर्यवान एवा तपस्वीनी निंदा करे, त था जे मानी एटले जातिमदनो करनार अहंकारी, अने जिनशासन विडं बक होय, ते पुरुष उर्जागी थाय ॥ २ए जेम राजदेवनो नाइ नोजदेव एवा पा करी उर्जागी थयो. माटें ए बेहु प्रश्नना उत्तर ऊपर राजदेव अने जोजदेव ए बे नाश्नी कथा कहीयें .यें. अयोध्या नगरीयें सोमचंराजा सौम्यप्रतिवालो , ते नगरमां देव पाल नामें शेठ रहे ले. तेनी देवनी नामें स्त्री, तेने राजदेव बने नोज देव, एवे नामें बे पुत्र थया डे. तेमां महोटो नाइ सर्व कोश्ने गमतो सु जागी आतमे वर्षे सर्व कला शीखी लीधी, अनेक शास्त्र नण्यो, अने यौवनवय आवे थके स्वयंवर कन्या कोक व्यवहारी बाणी दीधी तेनुं Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. पाणिग्रहण कराव्यु,, जिहां जश्ने कोश्पण चीजनो व्यापार करें तिहां अ वश्य जान थाय. ते पुत्र राजामे पण मानेसो थयो. हवे बीजो हानो नाइ नोजदेव डे ते धुरथीज उर्जागी जे. ते जेवारें यौवन पाम्यो, तेवारे तेना पितायें घृणां शेठीया पासेंथी कन्यानी माग णी करी,पण एने आपवानी कोयें वांडा करी नहिं. तेवारें शेठे कोई एक दरिडीने पांचशो सोनैय्या यापीने तेनी कम्या परवानुं तेराव्यु. ते क न्याने बापें सोनैय्याना लोनथी कन्या देवानी कही. परंतु कन्या कहेवा लागी के ढुं अग्निमां प्रवेश करवाने कबूल करीश पण एकुर्नागीने पर शीश नहि. एवो ह ल बेठी. एम करतां वेश्याने धन आपीने तेने घेर जवा मांम्युं. तिहां पण वेश्या एवं चिंतववा लागी के जेमतेम करी ए हाथी उठी जाय, तो सारं. तेमज ज़े कोइ वेपार करी थावे तेमांप ए अवश्य नुकशानज थाय पण पूरूं नाणुं थर्बु मुशकिल थइ पडे. एवी रीतें जो पण ते बेदु सगा ना , तो पण आंतरं घणुं पडी गयुं. __एकदा को ज्ञानी गुरु, वनमांहे समोसस्या तेमने शेठजी बेदु पुत्रने साथें तेडीने वांदवा माटें गया. तेमने वांदी धर्मदेशना सांजव्यानंतर शेठे पूयुं के हे नगवन् ! महारा बे पुत्रमा एक महासुनागी अने एक महा कुर्नागी थयो , ते कया कया कर्मने योगें थया हशे ? तेवारें गुरुं बोया के हे देवपाल ! संसारमा सर्व जीवो पोतपोताना क रेला गुनाशुन कर्मने नोगवे . माटें तहारा पुत्रोनुं वृत्तांत कहुं ते सांजल. __एज नगरमां आ नवथी त्रीजे नवें.एक गुणधर अने बीजो मानधर एवे नामें बे वाणीया रहेता हता. तेमां गुणधर तो देव, गुरु, अने सा धुने विषे विनीत तेमज उपशांत चित्तवालो अक्रोधी हती, कोइने कटु वचन कहे नही. अने बीजो मानधर जे हतो ते माहानिर्गुणी अहंकार करतो थको साधुनी तथा धर्मवंत पुरुषोनी निंदा करतो रहे. महापुरुषोनी हास्य करतां कर्म उपार्जन करतो हतो. एकदा एक साधुयें वरंसालें मासखमण तप की , ते तपना बलथी आकर्ष्या देवता पण तेनी सेवा करवा लाग्या. तेने देखीने मामधर तेनी निंदा करतो कहेवा लाग्यो के अरे! आ पाखंमी मायावी लोकोने विष तारवा उगवा माटें तपस्या करे . महत्त्व पामवाते अर्थ कष्ट करे ने.एम Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ श्रीगौतमपला अर्थसहित.. निंदा करतां तेने एक देवतायें वायो, तो पण निंदा करतो रह्यो नही. तेवारें देवतायें क्रोध आणी चपेटो मायो; तेथी मरण पामीने पहेली नरकें गयो. अने महोटो गुणधर नामां वणिक ते मरीने देवता थयो. ह वे ते नरकथी निकलीने नोजदेव नामें तसारे घेर पुत्रपणे आवी रुपनो जे. ते पूर्वकृत कर्मने योगे.उर्जागी थयो जे अने पहेला देवलोकथी चवी ने ताहारे घेरं राजदेव नामें पुत्र थयो . ते सुकतने योगें सुनागी थयो जे. एवी गुरुनी वाणी सांजली बैदु नाइने जातिस्मरण झान उपन्युं, ते थी पाबला जव. दीठा. तेवारें नोजदेवें पोतानी निंदा करी केटला एक कर्मक्ष्य कस्या. अने वे नाइ, तथा त्रीजो बाप त्रणे जणे मली केवलीनी पासेंथी श्रावकधर्म अंगीकार कस्यो. अनुक्रमें बेहु पुत्र दोदा लइ चारित्र धर्म पाली बायु पूर्ण थये देवलोकें गया. त्रीजे नवें मोदें जाशे ॥ दोहो॥ गुण बोले निंदे नही, ते सोनागी हुँत ॥ अवगुण बोले परतणा, दोहग ते पामंत ॥ १ ॥ इति राजदेव नोजदेव कथा ॥ हवे चौदमी अने पन्नरमी एन्वाना उत्तर वे गांथायें करी कहे . ॥ गाथा ॥ जो पढ सुण चिंतइ, अन्नं पाढे देश उवएसो ॥ सुथ गु रु नतिजुत्तो, मरिसो होइ मेहावी ॥३०॥ तव नाण गुंए समिदं, अवमन्न ६ किर नयोण एसो ॥ सो मरिकण अहन्नो, उम्मेहो जायए पुरिसो ३१ नावार्थः-जे पुरुष ज्ञान नणे, ज्ञान सांजले तथा तेना अर्थ मनमां चिंतवे, तथा (अन्नंपाढे के०) अनेरा बीजा पुरुषोने ज्ञान जणावे, ते मने धर्मोपदेश दीये अने जे पुरुष सिद्धांतनी तथा सरुनी नक्तियें करी सहित होय. एटले सिमांतनी रूडा गुरुनी जक्ति करे ते पुरुष मरीने मे धावी एटले बुद्धिमान चतुर माह्यो विचरण थाय. जेम मतिसागरनो पुत्र सुबुद्धि प्रधान बुद्धिवालो थयो ॥ ३० ॥ तथा जे तपस्वी झानवंत गुणवंत पुरुष होय, तेनी जे पुरुष अवगणना करे, मुखथी एम कहे के ए कां न ही एमां शो माल ले ? ए कां पण जाणतो नथी, मूर्ख जे. एम अवगण ना करे, ते पुरुष अहन्नो.एटले अधन्य अर्थात् अनाग्यवान बतां उष्ट पा पिष्ट उम्मेहो एटले उर्बुदि वालो थाय, एटले बुझिरहित थाय जेम सुबुदि प्रधाननो न्हानो जाई माठीबुड़िये करी मुवीयो थयो ॥ ३१ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. Taal ऊपर बुद्धि कुबुधिनी कथा कहें वें. चितिप्रतिष्ठित नगरें चंड्यशा राजा राज्य करे बे. तेनो मतिसागर ना में प्रधान बे. तेने सुबुद्धि नामें पुत्रं थयो, ते हानपणमां जल्यो अने प्र ज्ञान बजें करी सर्व कलाई शीख्यो. चार प्रकारनी बुद्धिनो, जाण थयो. हवे ते प्रधानने वली बीजो पुत्र थयो, ते जणवा योग्य थयो. तेवारें नीशालें नवा मोकल्यो तेने जणाववा माटें चारमास पर्यंत पंमितें उद्यम कुपो पण जे कर्षण लोको उखर भूमियां बीज वावे, ते निःफल थाय. तेम ए गुणवंत बुद्धिवंत न हतो माटें जलावनार पंतिनो उद्यम सर्व निःफन यो. तेथी लोकें ए पुत्रनुं दुर्बुद्धि एवं नाम पाडधुं. एवामां तेज गामनो रहेनार कोइ धन्नो नामें शेठ व्यवहारीयो बे. तेने एक जावड बीजो बहाड, त्रीजो नावड अने चोथो सावड. एवे चार नामें चार पुत्र बे. ते चारेने परणाव्या, एटलामां धन्नो शेठ रोगें पीड़ा यो तेवारें पोताना चारे पुत्रने तेडी शीखामण देवा लाग्यो के हे पुत्रो ! तमें चारे जण मांहोमांहे स्नेह राखीने एकता मंली रहेजो. परंतु पोता न स्त्रीयोनां वचन सनिजी जूदा नाशो नहिं. जेमाटें कयुं बे के ॥ चोपाई ॥ स्त्रीनेवचने जाय सनेह, स्त्रीनेवचने जाये देह ॥ स्त्रीने वचनें बांधव न डे, एकता रहे तो गूड चुडे ॥ १ ॥ एव वात तमें करो नहीं. क्यारें पण कलह करी एक बीजाथी जूदा पडशो नहिं जूदा पडवाथी लोकमांहे हांसी थाय ने एम करतां जो कदापि ज़ूदा था तो ? तमो चारेने मा ढें जूदा जूदा चार निधान यापणा घरंनी चारे खूलोमां चारेने नामें था पी मूक्या बे, ते तेजो एवी वात पिताना मुखथी सांजलीने पुत्रो बोल्या के हे तात ! जेम तमें कहो हो, तेमज में करीशुं. पी पिताने समाधि मरण थयुं तेनुं मृतकार्य करी चारे जाइ स्नेहपूर्व क एकता रह्या अनुक्रमें चारे जाइयोने संताननी प्राप्ति थइ. तेवारें स्त्रीयो aढवा लागी के, हवे जूदा था. तेवखतें चारे जाइयें मंली चारे निधान काढा. तेमां पहेला महोटा नाइना निधानमांथी केश निकल्या, बीजा ना निधानमांथी मांटी निकली यने त्रीजाना निधानमांथी चोपडा तथा कागलीया निकल्याने चोथाना निधानमांथी सोनुं तथा रत्न निकल्यां तेथी ते जाइ हर्षवंत थयो घने त्रण जाइ इहवाएर थका कहेवा लाग्या २४८ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमष्टचा अर्थसहित. २४ जे पितायें आपसी सार्थे वैर राख्युं मात्र एक न्हानो पुत्र वल्लन हतो माटें तेज सर्व. लक्ष्मी खापी दीधी, परंतु रीतसर तो आपले चारे जाइयो म ली ते लक्ष्मी वर्हेची लेणुं ! तेवारें न्हानों ना कहेवा लाग्यो के मुकने जे पितायें निधान प्राप्युं, तेमांथी हुं कोइने आषीश नहीं. एम मांहोमांहे रात्रि दिवस कलह करता रह्या. कोइनुं वचन कोई माने नहीं. पणे नाइयें जइ राजाना प्रधान यागल वात कही, परंतु प्रधा नथ पंण तेनो न्याय थंयो नहीं. तेथी. अफसोसमां पड्या. एवामां मेतानो पुत्र बुद्धि तिहां श्राव्यो, तेनी यागल ते चारे निधाननो संबंध कही संवाव्य सुबुद्धियें कयुं के राजानो यादेश होय तो हुं तमारो ज गडो जांगी. नांखु. राजायें यादेश थाप्यो, तेवारें सुबुद्धियें तेमने एकांत मां तेी बात कही के तमारो पिता घणो चतुर हतो, तेणें चारे जाइने लाख लाख टंकी पवा कह्या बे. केम के महोटा जाईना निधानमां केश राख्या बे, माटें घोडा, गाय, श, उंट च्यादिक जे चोपद रूप धून बे, ते एने याप्युं a. ने बीजाना निधानमां माटी निकली बे माटें तेने खेत्र, धरती, रूप धन या बे तथा त्रीजाना निधानमां कागूल चोपडा बे माटें व्याजें नायुं श्रा पेनुं खत पत्र सर्व लेहेणुं जे लोको ऊपर बे, ते रूप धन तेने प्राप्युं बे. अने चोथाने सोनुं तथा रत्न जे घरमां बे, ते रूप धन यांम्युं बे. ते सांजली चारे जणे मली हिसाब, तपासी जोयो तो ते चारेंने सरखे हिसे लाख लाख टकान बच कर श्रापेली दीगमां श्रावी. ते जोइ चारे जणे जइ राजा नागल कह्युं के हे स्वामी ! सुबुद्धियें रूडीबुद्धियें करी अमारा ऊगडा नो निवेडो करी थाप्यो बे, ते सांजनी राजा खुशी थयो ने सुबुद्धि लोकमां प्रसिद्ध थयो तथा बीजो पुत्र तो लोकोमां हासीनुं पात्र थको निंदा पामतो कुबुद्धियो कहेवातो प्रसिद्धिने पाम्यो. एवामां को ज्ञानी गुरु ते वनना उद्यानमां श्राव्या. तेमने राजा तथा प्रधान पोताना पुत्रो सहित तेमज अन्यजनो पण वांदवा गया. वांदी धर्मोपदेश सांव्यानंतर मेहेतायें सुबुद्धिर्बुदिनामें वेदु पुत्र श्राश्रयी वात पूवाथी गुरु कहेवा लाग्या के हे प्रधान ! एज नगरमा एक विमल ने बीजो अचल, ए वे नामें वे वाणीया हता. परंतु बेदुना स्वनाव जूदा हता. तेमां विमनें दीक्षा लीधी. देव गुरु सिद्धांतनी नक्ति कीधी. ३२ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. सिक्षांत जण्यो, तेना अर्थ विचार जाण्या, बीजा साधुने पण नणाव्या, बेवट आचार्यपद पाम्यो; तेवारें घणा जीबोनें धर्मोपदेश देश पोतानुं आ युष्य पूर्ण करी बीजे देवलोके देवता थयो. __ तथा बीजो अचल वाणीयो तो .जे तपस्वी, झानी अने धर्मवंत होय, तेनी निंदा करे अने कहे ए साधु झुं जाणे बे ? एम सर्व कोश्नी अवज्ञा करतो हतो. तेने पा करी मरीने बीजी नरकें गयो. हवे विमलनो जीव देवलोकथी चवीने ताहारो सुबुधि नामें पुत्र थयो बने अचलनो जीव नरकथी निकली पूर्वे आचरेली निंदाने पापें करी हिं तहारो उर्बुझिनामें पुत्र थयो . ते हजी पण संसारमाहे घणो रजलशे. इत्यादि पूर्वनवनी वात सांजली सुबुधियें श्रावकधर्म अंगीकार कस्यो. वली केटला एक दिवस पनी दीक्षा पण लीधी, सिद्धांत नण्यो, चारित्र पाली पांचमे ब्रह्मदेवलोकें देवतापणे ऊपनो. अनुक्रमें मोदें पण जाशे ॥ दोहो ॥ जणे नणावे ज्ञान जे, थाये निर्मल बुद्धि ॥ देव गुरु न क्ति करे, अनुक्रमें पामे .सिदि ॥ १ ॥ गाथा ॥ जिपवर सुरतेचं, वीरं न मिकं विसाल राय तयं ॥ लहिन बालाबोहो, जति निसुषंति सुरक क रो ॥ १ ॥ इति सुबुद्धि उर्बुदि कथा समाप्ता॥ ॥ हवे शोलमी अंने सत्तरमी पन्जाना उत्तर बे गाथायें करी कहे जे ॥ गाथा ॥ जो पुण गुरुजण सेवी, धम्माधम्मा जाणिकं मह ॥ सुय देव य गुरुनत्तो, मरि सो पंमि हो ।॥ ३ ॥ मारे खाइ पीय, किंवा पढिएण किंच धम्मेण ॥ एकंचिय चिंतंतो,मरिकं सो काहलो हो ॥३३॥ नावार्थः-वली जे पुरुष गुरुंजन एटले वडेरानी सेवा नक्ति करवामां तत्पर होय, धर्माधर्म एटले पुण्यपापनो विचार जागवानी वांडा करे, तथा जे श्रुत सिद्धांतनो अने देव गुरुनो नक्त होय ते कुशल पुरुष मरीने पंमित थाय ॥ ३२ ॥ तथा जे पुरुष मारे एटले जीवोने मारे हिंसा करे, मय मांसादिक खाय, पीये, मोज मजाह करे अने नगवा पढवाथी झुं थाय? तथा धर्म करवाथी पण झुं थवानुं ले ? एप्रकारनी चिंतवणा करे, ते जीव, मरीने काहलो मूक मूर्ख थाय ॥३२॥ जेम पाबले नवें आंबानो जीव मरी ने कुशल थयो अने जांबानो मित्र लीबो हतो, ते सरीने कुशलने घरें कुमार Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमष्टचा अर्थसहित. २५२ एवे नामे सेंवकं भयो. तेनी कथा कहे बे ॥ श्लोक ॥. श्री वीरजिनपं बंद, rai कम् ॥ तत्त्वज्ञं सूर्यतेजस्कं, महीश्वरसुरार्चितम् ॥ १ ॥ • धारावास नगरे वेसमणशेठ धनवंत वसे बे, तेने कुशल एवे नामें पुत्र थ्यो, ते जप गएीने बहोंतेर कलानो जाए थयो, पदानुसारिणी प्रज्ञावालो थयो, हवे ते शेवने घेर एक कर्मकर बे, ते कुरूप डुर्भागी मूक, मूखरोगी बे. तथापि कुरान ते कर्मकरनी ऊपर स्नेह थाणे, कुशल पोतें जिनधर्मनो जाए बे, धर्मकरणी कैरे ले.. एकदा कुशल क्रीडा करवा माटें वनमां गयो. तिहां एक विद्याधरने उंचो उबली पाठो निचे पडतो दीगे. तेने कुशलें पूढ के तमें उत्तम पुरुषतां पांव रहित पंखीनी पेठें केम चडो पड़ो बो.? ते सांजली विद्या धर बोल्यो के दुं वैताढ्यनो वासी विचित्रगति नामें विद्याधर बुं. हमणां ढुं श्रीपर्वतें गयो हतो, तिहांथी वजतां महारो मित्र विद्याधर मल्यो तेने केलां एक शस्त्रना घाव लागेला दीठा, तेवारें में पूढधुं के तुजने या गुं ? ते युं के महारी स्त्रीने एक बीजो विद्याधर लइ जतो हतो, तेनी . पवाडे जइ युद्ध करी महारी स्त्रीने वाली इहां रह्यो बुं. युद्धमा घा लाग्या एवं सांजलीने में व्रणसंरोहणी औषधीयें करी तेने सक कीधो ते विद्या घर स्त्रीने लइ पोतानें स्थानकें गयो, परंतु हे जाइ ! मुकने व्याकुलपणाथी याकाशगामिनी विद्यानुं पढ़ वीसरी गयुं, तेथी पडी जानं बुं. एवी वात सांजलीने कुशलें कयुं के तमा) विद्यानुं धुरलुं पद याद करी कहो. ते विद्याधरें धुरनुं पद कही संजजायुः तेने अनुसारें कुशलें पदानुसारिणी प्रज्ञाने बलें समस्त पूरे पूरी व्याकाशगामिनी विद्यानां पदी कही संजला व्यां तेथी विद्याधर हर्षवंत थयो यको विस्मय पाम्यो, अने विचायुं जे या पुरुष प्रज्ञायें, बुद्धियें, रूपें घने गुणें कर श्रेयस्कर ने परोपकार करवामां दक्ष बे. एवा पुरुष विरलाज होय. एम चिंतवी कुशलनां माता पितानुं नाम पूठी विद्याधर पोताने स्थानकें गयो. बीजे दिवसें वेसण शेनुं घर पूछतो विद्याधर तिहां श्राव्यो, तिहां कुशलने देवपूजा करतो देखी विद्याधरें पूढधुं के तुं या धुं करे छे ? तेणें क के देवपूजा गुरुनक्ति करतो श्रीजिनधर्मनुं खाराधन करुं बुं. ते जोइ • विद्याधरें पण जिनधर्म पडिवज्यो, अने कहेवा लाग्यो के एक तो खाका Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. शगामिनी विद्यार्नु पद संजारी थाप्युं तेनो उपकार अने बीजो श्रीजिनध में बताव्यो. ए.बे उपकार तें मुझने कस्या. तेथी हुँ तहारो उसींगण को रीतें थ शकुं नहिं. एटबुं कही फरी शेठने कहेवा लाग्यो के महारा पि तायें एक.निमित्तियाने पूज्यु तुं के महारी पुत्रीनो वर कोण था ? निमित्तियायें कह्यु दतुं के तहारा पुत्रने विद्या वीसरी जशे तेने जे संनारी थापशे, ते ताहारी पुत्रीनो वर थशे. तेमाटे हे शेत तमारा पुत्रने महा री साथें वैताढय पर्वतें मोकलो तो विवाह करीयें. ते सांजली शेठे पुत्रने वैताढय पर्वतें मोकव्यो. तिहां गुजलने विवाह करी पली विद्याधर तथा कुशल अने कुशलनी स्त्री एत्रणे जरा शाश्वतां चैत्य वांदवाने माटें गयां, सर्व चैत्य वांदीने चैत्यना मंझाव्या. तिहां चारणश्रमण मुनिने वांद्या. मुनियें विद्याधरने कयुं के हे तुं तहारा. बनेवीथकी जिनधर्म पाम्यो बो. तेवारें मुनिने ज्ञानवंत जाणी कुशलें पूज्युं के हे महाराज ! कया शु नकर्मना उदयथी पदानुसारिणी प्रज्ञा जे बुद्धि ते अत्यंत निर्मल मुजने प्राप्त थइ ? अने महारो कुमारो मुखरोगी मूर्ख कुरूपवान् थयो, ते कया क मथी थयो? वली एनी ऊपर महारो घणो स्नेह शाथी थयो ? ते मुफने कहो. मुनि बोल्या के.या नवथकी त्रीजे नवें तुं अने कुमारो मली वे जण आंबो अने लींबो एवे नामें कुलपुत्र मित्र हता. तमारे परस्पर घणो स्नेह हतो, तेमां को निरंतर गुरुनी सेवा करे, पुण्य पाप संबंधि विचार पूबतो रहे. वंली गुरुना कहेवा ऊपरथी पांच वर्षने पांच मास पर्यंत ज्ञानपंचमीनुं तप, विधिपूर्वक एकाग्रचित्तें तेणें कीधु. झान अने ज्ञानवंतनी घणी न क्ति कीधी. तेना पुण्यथी आंबानो जीव मरीने देवलोकें देवता थयो.तिहां थी चवी तुं वेसमणशेतनो पुत्र थयो बगे. __ अने लींबानो जीव तो नास्तिकवादी थको जीवहिंसा करे, रूडं खावं, रूडं पी. स्वेबायें फरवू, नगवायी गुं थाय ? तथा धर्म करवाथी गुं थाय ? एनुं फल कांश नथी? जे धर्म करे ते वधारे दुःखी थाय ? एवी चिं तवणा करतो तथा लोकोने पण एवोज उपदेश देतो फरे. यद्यपि बेदु मित्र हता तथापि स्वनावमा एक बीजाने यांतलं घणुं हतुं जो पण एकज गांवें बांधेला होय, तो पण जे काच ते काचज कहेवाय,अने मणि ते मणिज कहेवाय. तेम बे मित्र हता तो पण आंबो ते धर्म स्थापन करतो बने Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसदित. २५३ लीबो ते धर्म नापतो निंदा करतो नरकें गयो, तिहाथी निकलीने तमारे घेर कुमारोमूक, मूर्ख, उर्जागी कुरूपो थयो. जेद्नाम तेवोज परिणाम थयो अने हे कुशल ! तें ज्ञान पंचमी, तप कीg, शुरुनी ज्ञानवंतनी नक्ति कीधी, तेथी तुं चोखी बुद्धिवालो थयो बो.माटे तुजने धर्मने विषे नाबप्रज्ञा . एवी गुरुनी वाणी सांजली कुशलने जातिस्मरण कपनु,पूर्वनव दीना,ते वारें गुरु पासेंथी श्रावकनांव्रत लई देशविरति थयो थको तिहाथी सुंदरीनामें स्त्री सहित पोलाने घेर आव्योः अने विद्याधर वैताढ्य पोताने नगर गयो. घेर अाव्या नंतर अनुक्रमें पुत्रप्राप्ति थइ. स्त्री जरतार बेहुयें पंचमीतप कयुं ते पूर्ण थये तेनुं उजमणुं की . श्रीसंघनी भक्ति करी. पनी घरनो जार पुत्रनें सोंपी कुशलें पिता सहित दीक्षा लीधी. अगीयार अंग अने चौद पूर्व नणी शुरू चारित्र पाली मोदनां सुख पाम्यो. अने लींबा नो जीव घणो संसार जम्यो ॥ गाथा ॥ जे नाग पंचमि तवं, उत्तम जीवा कुणंति जावजुश्रा ॥ वनुंजिय मणुष सुहं, पावंति केवलं नाणं ॥ १ ॥ इति आंबा लींबानी कथा ॥ ११ ॥ हवे अढारमी तथा उगणीशमी जाना उत्तर वे गाथायें कहे . ॥ गाथा ॥ सबे सिं जीवाणं, तासं ए करे जो करावे॥ परपीड व जाणा, गोयम धीरो नवे पुरिसो॥ ३४ ॥ कुक्कड तित्तर लावे, सूअर द रिणे व विविह जीवे अ॥धारे निचकाल,स सबकाल हवं नीरू ॥३५॥ नावार्थः-जे जीव पोते सर्व प्रकारना जीवो प्रत्ये त्रास करे नहिं, ए टले नय पमाडे नहिं. बीवरावे नही, तेम बीजा पासें त्रास करावे नही. जे परजीवने पीडा करवानुं वऊँ,हे गौतम ! ते पुरुष,धैर्यवंत साहसिक थाय. जेम पृथ्वी तिलक नगरें धर्मसिंह क्षत्रियनो पुत्र अजयसिंह एवे नामें महा धैर्यवान् थयो ॥ ३४ ॥ तथा जे जीव कूकडा,तीतर, लावां, सूअर, हरि । प्रमुख विविध प्रकारना जीवोने निरंतर बंधन ताडनादिक करे, पांजरा मांहे घाले, ते जीव सदैव बीकण होय उच्चाटमां रहे जेम पहेला कह्यो जे अजयसिंह तेनो न्हानो नाइधनसिंह स्त्री बीहीकण थयो ? ॥३५॥ हवे ए बेहु उत्तरनी उपर अनयसिंह अने धनसिंह बे जाननी कथा कहे . पृथ्वी तिलक नगरें पृथ्वी तिलक राजा राज्य करे . ते राजानो सेवक धर्मसिंह दत्री, , ते जिनधर्ममां रक्त डे, तेने एक अनयसिंह अने Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. बीजो धनसिंह ए बे.नामें बे पुत्र थया. परंतु तेना पोत पोतांना कर्म जूदां जूदां जे. महोटो ना तो वाघ, सिंहा सर्प, शरन, नूत, प्रेत इत्या दिक जीवोथी पण बीहे नही आकाशथी वज पडे तो पण मरे नहिं. अने बीजो न्हामो नाइजे धनसिंह , ते.तो मात्र सींदरी देखे, तो पण तेने सर्प मानीने बीक आणे, कोक पांदडं हाले, तेटलामां बीहे. • __ एक वार ते नगरनी ढूकडो एक सिंह याव्यो.जाणीने ते रस्तेथी कोई पण जाय नहि. तेवारेंप्रधानें राजा बागल यावी विनति करी के हेमहाराज! सिंहनी बीकथी मार्गमां कोई चाली शकतुं नथी. तेवारें राजाय सनामांहे सिंहने मारी लाववानुं बीडं आपवा मांमयुं. पण कोयें ज़ाल्युं नही, प रंतु अनयसिंहें ते बीडं जाल्युं अने कह्यु के हे महाराज! तमारो यादेश ने तो एकलोज जश्ने सिंहनो वध करी थावीश! अने लोकोने सुख करी आपीश ! एम कही वनमा गयो तिहां सिंहने बोलावी नालुं मारी तेनो वध करी पाडो यावी राजाने प्रणाम कीधो. राजायें खुशी थश्ने तेने महोटो सिरपाव बाप्यो. घणांक वस्त्रानरण दीधां. वली एकदा को एक सीमाडीयो राजा ते राजानी याग न मान तो थको वाट पाडे, गामोने लूंटे , तेनो निग्रह करवा माटें राजायें बी ९ फेरव्युं ते पण अनय सिंहें जाल्युं अने कटक श्ने ते सीमाडीया सामंतना नगरें पहोतो. ते राजानी पासें दूत मोकलीने कहेवराव्युं के अ मारा राजानी आण मान्य कर. नहिं तो यु६ करवानी सजा कर. तेवा रें सामंतें कह्यु के बागल पण घणा वखंतं राजानुं कटक महारी ऊपर च डा करी थाव्युं हतुं ते में जीत्यं हतुं. तेने दूतें कडं के स्वामी! हमणां तो अनय सिंह सिंह याव्यो बे. ते सांजली सामंत बोल्यो जे मोहाडाथी वरखाण करवे शुं थवानुं बे ? सिंह डे के शियालीयुं ले ? ते तो संग्राममा पाधलं जणा यावशे. ते सांजली दूत पाबो याव्यो अने अनयसिंहने कां के एमां अहंकार घणो ने, माटें युड़ कस्या विना मानशे नही. ... हवे अजय सिंह रात्रिने वखत निष्टचर्यायें गढ उलंघीने सामंतराजाना महेलमा पेठो. सामंत सूतो हतो तेने जगाड्यो अने कह्यु के ऊ ऊत, सिंह श्राव्यो तेनी साहामो धाव. ते सांजली सामंत पण कठीने सा हामो आव्यो. बेहुयें मनयु-६ कह्यु. अनयसिंहने सामंतें नूमियें पाडी बां Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. २५५ धी लीधो: तेवारें तेनी स्त्रीयें पगे लागीने जरतारनी निक्षा मागी जरता रने मूकाव्यो, ते राजा अंहंकार मूकीने अनयसिंहनो सेवक थयो. हवे प्रनात थयो, तेवारें कटकमां अचयसिंहने कोश्य दीगो नही, ते थी सर्व सेन चिंतातुर थयुं. तेटलामा एक जणे थावीने कडं के अनय सिं हें सामंतने जीत्यो ने अने तमो सर्वने तेणें तेड्या . तमें कांश शंका करशो नही. तेवारें सैन्यनां सर्वलोक गाममां श्राव्यां तेने सामंतें जोजन करावी सर्वने वस्त्रनी पहेरामएी कंरी खुशी कयां. हवे अजयसिंह सामंतने पोतानी साथें तेडी पृथ्वीतिलक नगरें आव्यो, तिहां सामंत सहित जश् पृथ्वीतिलक राजाने प्रणाम करो. ते जो राजा हर्षित थइ विचारवा लाग्यो के था मनुष्य , पण देवशक्ति धारण करे ३. एम चिंतवी अनय सिंहने एक देश बदीस आप्यो; अने सामंतने जो जन करावी वस्त्र पहेरामणी करी विदाय कस्यों ते पण राजाने जेट आपी रजा लश्ने पोताने देश गयो. . एकदा ते नगरना उद्यानमां चार ज्ञानना धणी श्रुतसागर नामा या चार्य पधास्या, ते सांजली राजा परिवार सहित तेमने वांदवा गया. देश ना सांनव्यानंतर धर्मसिंहें पूब्युं के हे महाराज! आ महारा अजयसिंह पुत्र शुं पुण्य कीधुं छे ? के जेथकी ए महा साहासिकं थयो ? अने न्हा ना पुत्र गुं कुकर्म कीधुं जे के जेथकी ते महा बीकण थयो ? गुरु कहेता हवा के एजं नगरने विषे एक पूरण अने बीजो धरण एवे नामें ए बेदु. जण आहिर हता, तेमां पूरण तो घणोज दयालु हतो धर्मा त्मा हतो, सर्व जीवनी रक्षा करतो कोश्ने त्रास देतो न हतो, अने बीजो धरण जे हतो ते तो कूकडा, सूडा, तेतर, मृगला प्रमुख जीवोने पकडी ने बांधी राखे, कोश्नो वास्यो रहे नही कोनुं कर्तुं माने नही, तेथी ते ने दो कस्यो माटें जीवरदाने पुण्य करी पूरणनो जीव ते तहारो अन यसिंह नामें शूरवीर अने नाग्यवंत पुत्र थयो तथा धरणनो जीव घणा जीवोने उहवी मरीने तहारो धनसिंह नामें लघुपुत्र बीकण थयो जे. ए वी पूर्वनन संबंधि वार्ता सांजलीने संघलायें श्रावकधर्म पडिवज्ज्यो. धर्मा राधन करी पिता तथा बेहु पुत्र मती त्रणे जण देवलोकें पहोता ॥ चो पाई ॥ गोयम पागल,जिएवरें कयुं, पुण्य पापर्नु फल जूजूलं ॥ गौतमष्टला Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. बोध, सुतां तां होय प्रतिबोध ॥ १ ॥ इति अजय सिंह धन सिंहकथा ॥ हवे व शमी बानो उत्तर एकगाथायें करी कहें बे.. ॥ गाथा || विद्या विन्नाणं वा, मिठा विलए गिन्हिनं जोन ॥ अवम नइ यायस्यिं सा विद्या निष्फला तस्स ॥ ३६ ॥ नावार्थ:- जे जीव वि या अथवा विज्ञान जे कला प्रमुख तेने मिथ्या एटले कूडा विनये . करी लेवा वांबे अर्थात् जलावनार जे खाचार्य तेनुं नाम उलवी नांखे, अवगणी ना पर ते जीवने नोली विद्या सफल' न थाय निःफल थाय. जेंम त्रि ये नातिनी पासेंथी विद्या शीखीने ते विद्याने बजें विदेशें ज‍ त्रि आकाशने विषे राख्यो ने गुरुनुं नाम उलवी नाख्युं ते करीयाका शकी त्रिदं पडीगयो विद्या निष्फल थइ. इहां नापितनी कथा. कहे बे. राजापुर नगरें कोइक विद्यावंत नापित वसे बे. ते विद्याने बलें या काराने विषे पोतानो बरो निराधारपणे राखे. परंतु तेहने लोक मांने नहीं एवो तेनो प्रभाव देखीने एक त्रिदंमीयो ब्राह्मण ते विद्या लेवानी वांढा करतो ते नापिनो मियात्वें बाह्यविनय करवा लाग्यो, जाएयुं जे कोइरी तें पण विद्या खापे तो ठीक थाय "अमेध्यादपिकांचनं” एटले. अपवित्रथी पण सोनुं लीजें. एम चिंतवी सदैव तेनी सेवा करे, नक्ति करे, पढी वि द्या मागवानी प्रार्थना कीधी, तेवारें तेणें पण संतुष्ट यने विधिपूर्वक वि या दीधी. ते त्रिणं विधिपूर्वक खाराधीने विद्या साधी सीधी पढी पोतानो जे त्रिदंम हतो, तेने व्याकाश मंगलें राखीने लोकोने कौतुक देखा तो फरे. लोक पण तेनी पूजा नक्ति की प्रशंसा करवा जाग्या. एकदा लोकें पूयं के हे स्वामी ! ए विद्या तसें कया गुरुनी पासेंथी पाम्या हो ? तेवारे ते ब्राह्मणें लगाथकी नावीनुं नाम कयुं नहीं अने तेने बदले हिमवंत वासी विद्याधर महारो गुरु बे. तेनी सेवा विनयथकी हुं या विद्या पाम्यो बुं. ए रीतें गुरुनुं नाम उजवतांज ते ब्राह्मणनो त्रिदंम जे खाका शमां अधर रहेलो हतो, ते खडखडाट करतो खाकाशथकी नीचें धरती यें यावी पड्यो, तेवारें लोकी सर्व हांसी करवा लाग्या खने जेवुं मान मह त्व वृद्धि पाम्युं हतुं तेथी वली बमणी अवहेलना थइ. लोक जे पूजा नक्ति करता हता, तणें पूजा नक्ति करवी मूकी दीधी. ए रीतें जे पुरुष विनय विना विद्या शीखे, गुरुनुं नाम उलवे, गुरुनी अवगणना करे, तेनी श्५६ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमटला अर्थसहित. विद्या निःफैल थाय. तेमज आवते नवें तेने ज्ञान प्राप्ति पण दोहेली थाय. ए गुरुनिन्हवण ऊपर नापितनी कथा कही: हवे एकवीशमी एबानो उत्तर एक माथायें करी कहे :॥ गाथा ॥ बहु मन्नइ आयरियं, विषय समग्गो गुणेहिं संजुत्तो ॥ श्य जागहिया विद्या, सा सफला होइलोगंमि ॥३७॥ नावार्थ:-जे जीव पोताना नणावनार आचार्य प्रत्ये घणुंज माने, जे विनयवंत होय, समय गुणे करी सहित दोय.एवीरीतें जे विद्या जणी लीधी होय,ते विद्या लोक माहे सफल थाय ॥३७॥ जेम श्रेणिकराजायें पोताना सिंहासननी क पर चंझालने बेसाडी विनयें करी अवनमन नामनी विद्या लीधी,ते सफज थ. माटें हाँ ते श्रेणिकराजानी कथा कहे जे. . _ राजगृही नगरें श्रेणिकराजा राज्य करे ले. तेने चेलणा नामें पट्टराणी बे. एकंदा राणीने एकथंना धवलगृहें वसवानी मोहलो कपनो, ते वा तराजायें अनयकुमारने कही. अनयकुमार देव आराध्यो, देवता प्रत्यद आवी कनो तेनी पासें एकथंनो आवास कराव्यो, तेने चारे बाजु फरतां चार वन कराव्यां. ते चारे वनमां सर्व ऋतुना फल फूल निरंतर सदैव लाने, एम करी राणीने एकथंना आवासें बेसाडी तेनो मोहलो पूर्ण कस्यो. ___ एवामां एक मातंगनी स्त्रीने अकालें आंबा खावानो मोहोलो कपनो तेना धणी मातंगें अवनमन नामनी विद्याने बलें करी राजानी वाडीमांहेला सर्व तुवनना आंबानी माल नमांवी तेनां फल ले स्त्रीनो मोहोलो पूर्ण कस्यो. राजायें अनयकुमारने कयुं के बांधानां फल रावली वांडीमांहेथी कोणें लीधां? ते चोरने शोधी काहाडवो ज़ोयें. अजयकुमार महोटी कुंवारी क न्यानी कथा कहीने बुद्धिने बने ते मातंग चोरने प्रगट कीधो, अने पकडी लाव्या. तेने राजायें पूब्युं के गढनी मांहेली कोरें महारी वाडी , तेना फल तें केवी रीतें लीधां? तेवारें मातंगें बोहीने कह्यु जे में विद्याने बलें लीधां. श्रेणिकराजायें कडं ते विद्या जो मुझने आपे, तो हूं तुमने मूकी या पुं. मातंगें ते वात मान्य कर). तेवारें राजायें पोतें सिंहासन पर बेग .. थकांज विद्या नणवा मांमी. तेने घणा वखत मातंगें विद्या कही, पण राजाने आवडी नहीं. तेंवारें अनयकुमार मंत्री कह्यु के हे महाराज! विद्या तो विनय करवानी बावडे,ते सांजली राजायें पोतें सिंहासनथी हेगे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. उतरी मातंगने सिंहासन ऊपर बेसाज्यो. पातें मातंगनी,आगल बे हाथ जोडी विद्या लेवा बेगे,तेषी एकवारेंचंमालें कंहेली विद्या राजाने मुखायें थइ गइ, सफल थिइ. ए रीतें तिनयं करीने विद्या सेवाथी कार्य सयुं ॥ इति विनयें विद्या सेवा आश्रयी श्रेणिकराजानी कथा ॥ २१ ॥ ॥ हवे बावीशमी अने त्रेवीशमी एबाना उत्तरो बे गाथायें करी कहे जे ॥ गाथा ॥ जो दाएं दाकणं, चिंत हा किसमं मए दिन्नं ॥ होकणवि धण रिद्धी, अचिराविदु नासए तस्स.॥ ३ ॥ थोवधणोवि दु सत्ति, देई दाणं पयट्ट परेवि ॥ सो पुरिसो तस्स धणं, गोयम संमिलई परजम्मे.३ - नावार्थः-जे मनुष्य दान दे करीने पढ़ी हृदयमां एवी चिंतवणा करे के हां इति खेदे अरे में आ दान फोकट शा वास्ते दीधुं ? एवी.री दान दश्ने पनी तेनो पश्चात्ताप करे, तेने घरें. धन शदि होइने एटले लक्ष्मी एकती थश्ने पनी पानी अचिर एटले स्वल्पकालमांज अर्थात थोडा दिवस रहीने दुइति निश्चें पानी जती रहे. .जेम दक्षिणमथुरानो वासी धनदंत शेठनो पुत्र सुधन नामें हतो तेहनी लक्ष्मी निकली पराइ थइ गइ पारके घेर जती रही ॥ ३ ॥ तथा जे स्वल्प धनवान् बतो पण पोतानी सत्तिए टले शक्ति प्रमाणे पोतें सुपात्रने दान आपे, परेवि एटलें बीजा पासें (प यह के०) दान देवरावे एवो जे पुरुष होय, (तस्सधणं के ) ते पुरुषने धन जे लक्ष्मी ते, हे गोयमं! (परजम्मे के०) परजन्म एटले नवांतरने विषे ( संमिल के) सम्यक् प्रकारे मलें , संपजे जे. जेम उत्तरमथुरा वासी मदनशेठने घेर अकस्मात् घणी शदि यावी मली ॥३॥ ॥ ए बेदु बोल कपर सुधन अने मदनशेठनी कया कहे वे ॥ दक्षिणदेशे दक्षिणमथुरा नगरीयें दनदत्त शेठ वसे बे. ते कोटिव्यनो धणी . तेने सुधन नामा पुत्र थयो. ते शेत पांचशे शकट करियाणांनां जरी वाणोतरने परदेश वेचवा मोकले, ते तिहां करियाणां वेचीने वली बीजा नवां करियाणां लश् आवे. तेमज केटलोक माल समुश् मार्गे वहा णो नरी मोकले, तथा मगावे, तथा केटलुं एक धन व्याजें आपे ने अने केटर्बु एक धन तो घरमां नंमारें नरी मूक्युं . हवे उत्तरमथुरामां समुदत्त व्यवहारीयो वसे , तेनी साथें ए शेग्ने घणो स्नेह ने प्रीति ने. मांदोमांहे करियाणां एक बीजानी ऊपर वेचवा Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. श्यए लेवा माटें मोकजे . तेमां लान घणो थाय ने. एम.करतां एकदा धनद तशेठ दाघज्वरें पीडाणो थको देव शरण थयो, सेवारें सगा संबंधीये तेना पुत्र सुधनने तेने पाटें थाप्यो. सुधन घरनां कुटुंबनो नार निर्वहवा लाग्यो. हवे ते सुधन एक वार सोनाना बाजोपनी. ऊपर स्नान करवा बेटो आगल सोनाती कूमी पाणीथी नरीने सेवकोयें मूकी स्नान करी रह्यो के तर तज सोनानी कूमी आकाश मार्गे चाली गइ. अने स्नान करी पाट कप रथी नीचे उतस्यो, एटले सोनानो पाट पण आकाशमार्ग चालतो थयो. वली देवपूजा करवा माटें देरासरमां गयो, तिहां देवपूजा करी लीधी, के तरतज देरासर तथा बिंब कलश सर्व पिगांणा. धोतीयानो समुदाय, अम काशे चाल्यो गयो, पनी घरमां आव्यो, त्यां घेर अानतां वहाण बूमी ग यानी खबर सांगली, पनी जमवा वेठो, आगल सुवर्णना थालमां नोजन मूक्युं तथा सुवर्णमय बत्रीश कचोलां दाल,कढी,शांक प्रमुखनां नरीमूक्यां. तथा बत्रीश वाटकी रूपानी मूकी, ते सर्व आकाशे चाली गइ. अने जे व खतें थाल आकाशे जवाने थरहस्यो,ते वखतें सुधनें तेने थरहरतो जाल्यो, तेनो एक कटको तेना हाथमा रही गयो,पण थाल तो चाल्यो गयो. एम देखतां देखतां सघली झदि जती रही. कर्मनी आगल कोइनुं कां जोर चाले नही. एवामां एक मागनारें आवी कह्यु के महारु एक लाख इव्य लहे| बे, ते आपो. तेवारें निधान खोली जोयुं, तो इंव्यं सर्व राखथयेटु दीतुं. तेथी वली घणोज दुःखी थयो. . पली मातानी आझा लइ सोनाना थालनो कटको साथै राख्यो,देशांतर जणी चाल्यो. मार्गे जातां महाकष्टथी कंदालीने एक पर्वत पर चडीति हांथी ऊंपापात करी मरवा तैयार थयो. तेने ऊपापात खातो एक साधुयें दीठो. तेणें ज्ञानने बलें तेनुं नाम जाणीने बोलाव्यो के हे सुधनशाह ! तमें साहस म करो. केम के पर्वत ऊपरथी पडी अकाल मरणें व्यंतर थश्यें ? ते सांजली सुधनपण ते झानी कृषि पासें आव्यो, शपिने वांद्या, ऋषियें कयुं के कर्मथी कोई छूटतो नथी ॥ कम करी सुदंसण शेठ, हरिचंद कीधी मातंग वेठ ॥ मेंतारज कृषि काढी दृष्ट, कर्मे कीg सदु पग हेठ ॥ १ ॥ माटे हे शेठ ! जे लक्ष्मीना कुःखथी तमें मरवा तैयार थया बो, ते ल मी असार , चपल नेमलीन ने,अनर्थनुं मूल ,वीजलीना ऊबकारनी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. पेखें हाथमांथी जती रहे, एवी लक्ष्मीने अर्थे कोण मरीने व्यर्थ हीरा जे वा मनुष्यनवने निःफल करै, इत्यादिक उपदेश सांजली शेठ प्रतिबोध पाम्यो मुनिनी पासेंथी दीक्षा लइ सूत्र नगी गीतार्थ अयो,अवधिज्ञान ऊपy.एवो सुधनझषि विहार करतो उत्तरं मथुरायें समुदत्तशेठने घरे व्रहोरवा आव्यो. तेने घरे पोताना सुवर्णपाट, कूमी, लोटी, कचोली, थाल, देरासर प्र मुख सर्व दीवां अने उलखी लीधां: सोनाना ख़ांमा थालमां समुदत्त शेग्ने जमता दीठा. ए रीतें ते इषिने पोताना घरमां अरहो परहो फर तो अने वस्तुनने जोतो देखी शेखें पूज्युं के महाराज! मुंजु बो ? ते धारें रुपियें कयुं के हे शेठ ! श्रा पाट, कुंमी, कचोलां, थाल प्रमुख तमें करावेलां वे किंवा तमारा पूर्वजोनां करावेलां बे ? शेवें कह्यु ए प्रथ मथीज महारा घरमा . शषियें कह्यु के तमें आवा खांमा थालमां शामा टें जमो बो ? शेतें कह्यु के गुं करीयें ए थालमा खेम चहोटतो नथी. एट ले शषियें केडमांथी, थालनो खंग काहाडी थाल पाडीने तेनी साथें मे लव्यो. एटले पोतानी मेलें चहोटी गयो. थाल संपूर्ण अखेम थयो, ते जोइने शेतना कुटुंबने कौतुक थयु. साधुयें चालवा मांमयुं, तेने शेवें वंद ना करी प्रब्यूं के महाराज! ए शीवात ? साधुयें कयुं के तुंअसत्य बो ले ले, तो तुमने ढुंगुं कहुं ! ! शेवें कडं के दुं असत्य बोल्यो बुं, परंतु ख री वातं तो एंज ले जे ए दिने महारे घेर आवे आठ वर्ष थयां ले. साधुयें कह्यु के ए दि में उसखी जे. ए सर्व महारा पितानापितानी वारनी बे, पण महारा पिता मरण पाम्यानंतर दुं तेनो सुधन नामें पुत्र हतो, ते महारा हाथथी गइ, तेथी में वैराग्य पामी दीदा लीधी. मनें अ वधिज्ञान ऊपy डे, तेथी ढुं शहां आव्यो बुं. शेवें कह्यु के ए लक्ष्मी सर्वे तमारीज डे. हवे एने व्यो अने सुख जोगवो. साधु बोल्या के महारा देख तां तो ए जती रही. माटें हुं हवे एने शी रीतें जोगवं? शेतें प्रयु के हे जगवन् ! तमारा हाथथी गइ अने अमारे घेर ावी, तेनुं कारण गुं दशे? तेवारें इषि बोल्या के पूर्व श्रीपुर नगरें जिनदत्तशेठ वसे ने, तेनो एक पद्माकर अने बीजो गुणाकर, एवे बे नामें बे पुत्र हता, ते शेजें मरती व रखतें निधान कही समजाव्यु. जे अमुक जगायें इव्य राखेर्नु . पनी म होटा जायें रात्रिय बानो जश्ने निधान मांहेलुं सर्व इव्य कहाढी लीधुं. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. पालथी न्हाना नाश्ने कर्तुं के चालो निधान काहादीने यापण बे वहेंची लश्य ! पलीबे नाश्यें धरती खोदी तेमांथी कांश मट्युं नही,तेवारें महोटा नाश्ना कपटने योगें न्हाय नाश्ने मूहों आवी गइ. सचेते.थया पली वली महोटा जाये न्हाना ज़ाइने कह्यु के ए धन सर्व तुं काहाढी मनो जग यो बो. एम कही तेने धिज़ कराव्यु. एरीतें में वंचना करी तेथी मरीने हुँ सुधन थयो ने न्हानो नाभरीने सहारो मदन नामें पुत्र थयो. में वंच ना कीधी तेथी महारी लक्ष्मी मदनने घेर आवी तथा वली में पूर्वनवें दा न आपीने पंजी पश्चात्ताप कस्यो, तेथी महारी लक्ष्मी गइ अने ए मदनने जीवें घणा सुपात्रोने दान दीधां, देवराव्यां, तेथी एने घणी लक्ष्मी मली. __ ए वाल सांजली शेठने वैराग्य नपनो तेथी दीदा.लीधी, तेवारे सर्व ल मीनो मालक मदन थयो. श्रावकनो धर्म पाली 'अंतें देवलोके देवता थयो, अने सुंधन ऋषि मोक्षसुख पाम्या ॥इति सुधनमंदन कथा ॥ २३ ॥ हवे चोवीशमी एलानो उत्तर एक गाथायें करी कहे जे. .. ॥ गाथा ॥ जं जं नियमण इं, तं तं साहूण. देश सदाए ॥ दिन्नेवि नाणु तप्पा, तस्स थिरा होइ धण रिक्ष ॥४०॥ नावार्थ:-जेजे आ पणा मनने गमती एवी इष्ट वस्तु यापणी पासें होय.ते ते वस्तु साधने श्रदायें करी एटले पोताना नावें करीने जे दीये, देईने तेनी अनुमोदना करे, पण पश्चात्ताप विषाद करे नहीं ते पुरुषने घणी शनि स्थिर थश्ने रहे. जेम शालिनशेठने घेर दि स्थिर थश्ने रही, बत्रीश कन्यापरण्या, तेमने नित्य.नवनवां वस्त्रानरण मलतां हतां.॥४०॥ तेनी कथा कहे . ___ मगधदेशमां राजगृही नगरीनी दकडु, शालिग्राम नामें गाम हतुं. ति हां धन्यानो पुत्र संगमो एवे नामें गोवालीयो लोकोना वाबरां चारतो पेट नरे. एकदा पर्वने दिवसें मातानी साथें आडोमांमी तेणे रकीर मागी, पण घरमां कांई चीज न हती के जेनी खीर रांधी बोकराने खवरावे, तेथी र डवा बेठी ते देखीने पाडोसणे खीर खांम अने शानिधान्य थाणी आप्युं, तेनी उत्तम खीर रांधी संगमाने नाणामां पारसीने पोतें बाहिर गइ. ए वामां पाडलथी तिहां मासखमणने पारणे एक साधु याव्यो, तेने संग मायें महोटा नलासयीं नाव सहित हर्ष आणीने ते सर्व खीर वहोरावी दीधी, ते पुण्यने योगें राजगृही नगरीमां गोनश शेठनी नानामें स्त्रीनी कूखें Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ऊपनो, शालिकेत्रनुं सुपर्नु माताने आव्यु, माटें शालिन.एवं नाम दीg, तरुणपणुं पाम्यो, तेवारें वत्रीश कन्या परपावी. गोनशेठ दीदा जर दे वता थयो. पुत्र कपर घणो स्नेह हतो, तेथी बत्रीश वस्रो तथा शालिन इ, पुत्रने सारु देवलोकथी नव नवां आनरण वस्त्रादिक नित्य मोकले. एक दिवस नेपालदेशना व्यापारी लक्ष्मूल्यंना शोल रत्नकंबल वेंचवा लाव्या, ते श्रेणिक राजायें न लीधा; पण नश शेतापीयें शोले चीर वे चाता लइ तेने फाडीने बत्रीश इकडा करी बत्रीश वहूरोते एकेको ढूंकंडो वहेंची आप्यो. सांजे सर्व वदूरोयें पग खूश्ने नारखी दीधा. • हवे श्रेणिकराजानी पट्टराणी चेलगायें एक रत्नकंबल लेवा माटें घ णो आग्रह कस्यो, श्रेणिकें व्यापारीने तेडाव्या ते बोल्या नंशशेगणीने वे चाता दीधा. राजायें एक रत्नकंबल लेवा माटें नश शेगणी पासे माणस मोकल्युं, तेने नायें कडं के एतो महारी वहूरोयें पग जूश्ने नाखी दीधा ले. जूना टूकडा पड्या , ते जोश्यें तो लइ जा. ते वात सांजली आश्चर्य पामीनें श्रेणिकराजा शालिनइने जोवा माटें तेने घेर अाव्यो, तेवारें जश शेठगणी सातमी नूमियें बेठेला शालिन ने कहेवा. गयां के हे वत्स ! आपणे घेर श्रेणिक याव्या ले माटें तमें नीचे चालो. पुत्रं जाण्यु के श्रेणिक एवे नामें कोई जातनुं करिवाणुं हशे ? माटें मा ताने कयुं तमेंज लइ वखारंमां नरो, वली लान आवे वेहेची नाखजो. मातायें कह्यु के ए करियाणुं नथी,ए तो आपणो राजा बे. ते वचन सान ली शालिन चिंतववा लाग्यो जे हुँ सेषकं . ए ठाकुर ने, माटें में पूर्ण पुण्य कस्यां नथी, एम विचारी नीचें यावी राजाने प्रणाम कस्यो. राजायें खोलामा बेसाडी चुंबी आपी. शालिन, राजानी पासें कुमलाइ गयो. ते थी खोलामांची ऊती सातमी नूमिकायें गयो. नायें राजाने नोजन कराववा माटें खमाव्यो. श्रेणिक स्नान करवा बेठो, न्हातां पोतानी मु इिका वाव्यमांहे पडी गइ. नायें वाव्यतुं पाणी बाहार कढाव्यु, .तेमाथी पारविनानां अनेक प्रकारनां फलहलतां आनूषण निकटयां दीतां, ते था जरण आगल पोतानी मुश्किा तो लीयाला सरखी दीसवा लागी ते जो चमत्कार पामी राजायें दासीने पूब्युं के आ अमूल्य आमरण वाव्य मां क्याथी आव्यां ? तेवारें दासीयें कह्यु के अमारो स्वामी तथा तेनीब Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. २६३ त्रीश स्त्रीयो नित्यप्रत्ये नवनवां आनरण पहेरे , आगला दिवसनां पहे रेलां आनरण उतारी वाव्यंमां नाखी दीये . माटें ए अमारा स्वामीनू निर्माल्य जे. श्रेणिक महोटो चमत्कार पामी दान पुण्यना ए फल , एवं चिंतवी नोजन करी पोताना महेलमांआव्यो. पालथी शालिन.वैराग्य पा मी एवो मनमा निर्धार कस्यो के बत्रीश स्त्रीमाथी नित्य प्रत्ये एकेक बांझवी. हवे एज गाममां धनो शेव रहें जे. तेने शालिननी बहेन 'परणी . ते धनाने स्नान.करावे में तेने सेती.थकी देखीने धन्नायें पूज्यु के केम रडे ? तेणें कह्यु महारो नाइ नित्य एकेकी स्त्री परहरे के अने दीदा लेशे. तेने धन्नायें हसीने कयुं के तहारो नाइ एवो रांक कां थयो ? बत्री शे स्त्रीने एकजवारें केम त्यागतो नथी ? तेवारें स्त्री बोली के वातो कहे वी तो सुसन ,पण करवी अति उर्लन . तमें केम मूकी शकता नथी ? धन्नायें कह्यु के मने एटलुंज वचन तहारा मुखथी कहेराव हेतुं. हवे तुं बोलीश नही. जा में महारी आठे स्त्रीने हमणांज मूकी दीधी. ते सांन ली स्त्री पगे लागी मनाववा लागी के महाराज! में तो हसता हसतां तमारी साथें वातो करी, माटें तमारे रोष न करवो. इत्यादि रीतें घणो समजाव्यो, पण धन्ने कह्यु के महारा मुखमांथी वात निकली ते फरे न ही. एम कही तिहाथी कतीने पोताना शाला पासें गैयो, तेने समजावी साथें तेडीने शालिन तथा धन्नो ए बेतु जणे मली श्रीमहावीरपासें जा दीदा लीधी. धन्नानी बाते स्त्रीयें दीक्षा लीधी दीदामहोत्सव श्रेणिकरा जायें कराव्यो. बेदु साधु बह, अहम, दशम, ज्वालस मासखमणादि त प करता शरीरें अत्यंत उर्बल थया.. एकदा श्रीमहावीरनी साथै विहार क रतां राजगृही नगरीये श्राव्या. पारणा माटें लगवाने कह्यु के बाज तमारे माताने हाथें पारj थाशे. ते नणी नाने घेर गया, पण.शरीर फुर्बल थवाथी कोश्य उलख्या नहीं. पाबा वलतां मार्गमां पाउला नवनी माता मदियारण मली तेणे ऋषिने दीवाथी हर्षे करी तेना स्तनमाथी दूध धारा वहेवा लागी, पोतानी पासें महीनी माटली ती, तेनुं दान दीधुं. सा धुयें जगवान् पासें आवी पूब्युं के अमोने माताने हाथे पारणुं न थयुं जगवाने कह्यु के जेंने हाथे पारणुं थयुं ते शालिननी पूर्वनवनी माता हती.पनी वेदु साधुयें अनशन लीधुं. जाने खबर पडी बहु पश्चा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. त्ताप करती बत्रीश वहूरोनी सार्थे तथा श्रेणिकराजा मली अनशनस्थान के बाव्या, साधुनने वांदी कष्ट खमता देरकी आश्चर्य पामी पाना पोताने घेर अाव्या. ते कृषि सर्वार्थ सि-६ विमानें पहोता एकावतारी थइ मोद पा मशे, माटे जे नावथी सुपात्रने. दान.आपे,तेने लक्ष्मी स्थिर थाय. दिवसें दिवसें नवनवा नोग पामे. ते ऊपर ए शालिनानी कथा कही ॥ श्रीमहीर जिनाधीशं, गौरवर्ण गुणोत्तमम् ॥ तरुणं कसणाकार, महिमाश्रित माश्रये ॥ पदाद्यादरैः श्रीगोतमनाम ॥ २४ ॥. हवे पच्चीशमी बवीशमी टन्बानो उत्तर दोढगाथायें करी कहे . . · ॥ गाथा ॥ पसुपरिक माणुसाणं, बालेवि दु जो विधए पावो । सो अपवच्चो जायइ, अह जाय तो विवजिता ॥ ४१ ॥ जो हो दयापर मो, बहु पुत्तो गोयमा जवे पुरिसो॥ ज़ावार्थः-जे पापी पुरुष ढोर प्रमु ख पशुनां बालको तथा हंसप्रमुख पदीनना बालको तेमज मनुष्यंना (बा लेवि के०) बालकोनो दुइति निश्चे ( वियए के० ) विबोह करे एटले तेमनो मात पिताथी वियोग करे ते पुरुष (अणवच्चो के ) अनपत्यो ए टले अपत्य जे बोरु तेणे करी रहित थाय. (अह के०) अथवा कदापि तेने बोरु थाय तो पण (विवङिजा के०) विवर्जिता एटले जीवे नहि जेम सिदिवास नगरै वर्षमानशेठनो दद्दो एवे नामें 'पुत्र हतो ते संतान विना अपार'कुःखी थयो ॥४१॥ तथा जे पुरुष सर्व जीवदयापर होय एटले दयावंत होय. हे गौतम ! ते पुरुषने गुणवान, दाह्या, विवेकी एवा घणां पुत्र थाय. जेम पूर्वोक्त वर्षमान.शेठनो महोटो पुत्र देसल हतो तेने घणा पुत्र थया ॥ ते देशल तथा ददानी कथा कहे . सिदिवास नगरें वईमाननामें वणिक वसे डे, तेने देसल अने दहो ए नामें बे पुत्र ग्यया. तेमां देसल महा दयावान् ,अने दहानु हृदय निर्द य ले. युवावस्थायें देसलने देवीनी अने दहाने देमती एवे नामें कन्या बा परणावी. तेमां देसल धर्म करणी पण करे, लक्ष्मी पण उपाऊँ, य ने सुख पण नोगवे. ए रीत त्रणे पुरुषार्थ साधे. अने दद्दो तो मात्र लक्ष्मी पेदा करवी अने सुख जोगव, एटलुंज साधे, पण धर्म न करे, माहालो जी थको धर्मनी वात पण जाणे नही. अनुक्रमें देसलने गुणवंत पुत्रो थ या, तेनी माता देवीनी पोताना पुत्रोनुं लालन पालन करे खोले बेसाडे, Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमटला अर्थसहित. २६५ मांदोमांहें वढता होय तो वारी राखे, एक घूघरे बाधे, कतावला बाहिर' थी यावी पोतानी माताने मले, एक देखे, एकने मुखें माता चुंबी आपे. एवं देवी ददो अने देमती पोताना हृदयमां चिंतातुर थयां थकां मांहो मांहे वातो करवा लाग्यां के थांपणने पुत्र नथी माटे यापणो ए संयोग, ए मंति, ए स्नेह अने ए जीवितव्य, इत्यादि सर्व शा कामर्नु ? जे माटे कह्यु ले के॥श्लोक ॥ अपुत्रस्य गृहं शून्यं, दिशः शून्या अबांधवाः ॥ मूर्ख स्य हृदयं शून्यं, सर्वशून्यं दरिश्ता १ ॥ एम विचारी पड़ी घणा देव दे हरानी मानता करतां,इवतां, एक दिवस सत्यवादी यदनु आराधन कहुं. दद्दो यदनी पूजा अने उपवास करी आगल बेटो.अने क\,के जेवारें पुत्र मुने आपशों,तेवारें हुँ उतीश ! एम बेसतां तेने अगीयार उपवास थ६ गया. तेवारें यददेव प्रत्यद थयो अने कहेवा लाग्यो के हे शेठ ! तुं शामाटें कष्ट करें ? कारण के देव, दानव, व्यंतर यदं, गमे ते हो परंतु कोई प ण उपार्जन करेला कर्मने दूर करी-शके तेम नथी. हे शेत! तें पूर्व पुत्र पामवा संबंधी अंतराय कर्म बांध्यु , तेमां महारं झुं चाले ? एम यदें कडं तो पण शेठ तिहाथी उठ्यो नहिं. तेवारें यदें कयुं के कदाचित् जो ढुं तुने पुत्र थाj,तो पण ते पुत्र जीवतो रहेशे नहि. तेवारें पालो तुं मने उनो पापीश ! तो पण शेठे कयुं के एक वार पुत्र थाय,एवं करो. पनी जे थनार होय, ते था. यक्षपण ते वातनी हा कंहीने पोताने स्थानकेंगयो. शेठे घेर आवीने पोतानी स्त्री पागल वात कही. स्त्री तथा शेठ कांश क हर्ष कांझ विषाद पामतां थकां पारणुं कयुं. अन्यदा ग धान थयुं. पुत्र जन्म्यो. वधामणी श्रावी, तेने जीवाडवा माटें तुलायें करी तोल्यो. अने तेनुं नाम पण तोलो पाडयुं. बही, दशोट्टण प्रमुख करतां स्वजनोने जमण जूठण करावी दान मान दोधां. पनी यदने नेटवर मात्रै बली ल प्रमुख लश् बालकने तेडी यदने नवनें गया. तिहां बारणां बंध करेला हता, ते को रीतें उघडे नही. घणा जपाय कस्या, पण को रीतें यदें दर्शन थाप्यां नहिं. तेवारे सर्व पाबां घेर वाव्या. शेठ बोल्या के यदें कडं हतुं जे छोकरो जीवशे नही, ते रखे तेमज थ जाय ? एम विचार कर तां ते दिवस तो गयो. पण रात्रियें अचिंत्यो एकाकी बालक बाजारी पडीने जेम वायराथी दीवो उत्तवा जाय, तेम देखतां देखतां बालक देव ३४ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. 'शरण थ गयो. ते जोश दद्दो शेठ बने देमती शेतगणी मूर्जी पामी नूमियें पड्यां. थोडी वारे सचेत यया यही घणुं स्वन तथा याकंद करतां, पडतां बाखडतां थयां: परंतु हाथमाथी गयेलो पुत्र प्राडो आव्यो नही. पड़ी महोटा नाइ देसलें कह्यं के तमें स्नान नोजन करो. महारा बोक रां , ते तमारांज जाणजो. माटें हवे तमें शोक मूको. एवामां आंकाश मार्गे चार झानना धणी चारण कपि चाल्या जता हता, ते तेनुं रुदन सांजलीने त्यां आव्या, तेमने सर्व जनोवें कठीने वंदना करी. शर्षियें ध मलान दीधो. पनी धर्मोपदेश आपीने वली कहेता हवा के हे शेत ! तर्फे शोक म करो. कारण के जे जीवें जेवं कर्म उपार्जन कस्युं होय, ते फल ते जीवने मले. आपणे कोदरा वाव्या होय तो तेने बदले शाल क्याथी मले? लींबोली वावीने रायणनी अाशा राखीये ते क्याथी मले ? शे पूब्युं के महाराज ! महारा बेदु पुत्रं पूर्वं कथा कया प्रकारंनांक में कस्यां ? जेने योगें एकने संतान घणां ने अने बीजाने संतानज न थी. तेवारें मुनि कहेता हवा के हे शेठ ! एज नगरीमा प्रा नवथी पाउ ले त्रीजे नवें विल्हण अने तिहण ए बे नामें वे कुलपुत्र रहेता हता, तेमा महोटो ना तो महोटो धर्मात्मा अने दयावंत हतो, अने न्हानो ना तो नित्य वनमांजश्ने मृगली बने तेना बालकनो वियोग करतो. हंस, सूडा,मोर बादिक पदीयोनें तेमनां बालकथी बूटांपाडी पकडीने पांजरामां नावी व्हेचे. तेमज माणसनां बालकोने एक गाममांथी लश बीजे गामें जर वेहेचे. ए रीतें धनने लोनें पाप करे, तेने घणा सङनोयें. वास्यो, तो पण ते उष्टकर्मथी वव्यो नहिं. उर्व्यसन मूक्युं नही. जेहनो जेहवो स्व जाव होय, ते कोइ पण वखत पोताना वनावने मूके नही. एकदा कोइदत्रियना बालकने वेहेचवा माटे चोरोथी पाज्यो तेना मावतरें दोगे, तरत पकडी बांधीने सारी पेठे मार मास्यो. जेदन नेदन क यो, तेनी वेदनाथी रोझ्ध्याने मरण पामी पहेली नरकें गंयो. महोटो ना ३ विल्हण पोताना नानु मृत्यु सांजली वैराग्य पामी अनशन व्रत लेश समाधिमरणें सौधर्मदेवलोके देवता थयो. तिहाथ चवीने तहारो देसल नामें महोटो पुत्र थयो . एवं पूर्वला नवें नूरख्या तरस्या ऊपर दया की धी ने तेथी एने गुणवंत पुत्र घणा थया , बने तिब्हणनो जीव नरक Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमपृच्चा अर्थसहित. २६७ थी निकलीने 'तहारो दद्दो नामें न्हानो पुत्र थयो छे, एणे पूर्वजे नवें म नुष्य ने तिर्यचना बालकों क्ोिह्यां तां ते साटें एने ठोकरां यतां नथी. एवां गुरुनां वचन सांगली बेदु नाइने जातिस्मरण ज्ञानं उपनुं, तेथी पू र्वला जव दीगमां श्राव्या, तेवारें वैराग्य, पामी समकेत मूल बार व्रत ली. चारणमुनि प्रकाश मार्गे चालता थया. घणा काल श्रावक धर्म पानी पी बेंदु जाइयें दीक्षा सीधी. समाधिमरणें देवलोके देवतापणे क पना ॥ दोहा ॥ जीवदया जिनवर कही, जे पाले नर नार ॥ पुत्र होवे शू री सबल, तेहने रंग मकार || इति देशल खने दहानी कथा ॥ २५ ॥ २६ ॥ ॥ हवे सत्त्यावीशमी अधावोशमी ष्टष्ठानो उत्तर दोढ गाथायें करी कहे बे ना • गाथा. ॥ सुयं जो नगइ सुयं, सो बहिरो, होइ परजम्मे ॥ ४२ ॥ विदिहं, जो किर नासिव कह विमूढप्पा ॥ सो जबंधो जाय, गोयम नियकम्म दोसेल ॥ ४३ ॥ नावार्थ:- जे पुरुष श्रुतं एटले या सांजव्यांने सांजल्युं कहे, एटले तें वात क्यांहीथी सांजली पण न होय, तथापि जे एम कहे के या वात में सांजली बे ! वली पारका दोषने प्र काशे, ते जीव, निवें जवांतरें बहेरो थाय एटले कानें सांनले नहिं ॥ ४२ ॥ तथा जे पुरुष, प्रदीठी वस्तुने दीठी कहे. एवी रीतें जे मूढात्मा पुरुष, धर्मने नवेखतो थको नापण करे. हे गौतम! ते जीव मरीने पोता ना कर्म दोष क जवांतरें जात्यंध थाय ॥ ४३ ॥ जेम महेंश्पुरना रहे वासी गुणदेव शेठनो पुत्र वीरम हतों ते पूर्वकृत पापना उदययी जन्म प र्यंत बहेरो जात्यंध त्रीडिय जेवो थयो, एटले कान थने यांख विना शेष त्र इंडिय वालोज जाणे होय नहीं ? एवी थी. इहां ए वीरमनी कथा कहे बे: माहेंपुर नगरें गुएादेव नामें शेठ वसे बे, तेने गावत्री. नामें स्त्री बे. तेने घणे दिवसें पुत्र थयो, ते पण कर्मने योगें जन्मांध अने बहेरो थयो, तेथ वधामणी श्रापवी तो दूर रही, परंतु ते बोकरानुं नाम पण पाडधुं नहीं. ांधलो ने बहेरो एवे नामें प्रसिद्ध 'थयो. तेनी बाल्यावस्था वीती ने यौवनवय प्राप्त थयुं तेवारें तेना मावित्रे मोहना वशथकी जे टला जेटला मंत्र प्रमुखं तंत्र जे कांइ हतां, ते सर्व करयां. कोइ बाकी राख्युं नहीं. तेमज निमित्तिया, ज्ञानी, जोशी, चूडामणीयादिक सर्व कोइ सि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. पुरुषोने पूज्युं मंगल मंमाव्यां, दीपावतार, अंगुष्ठावतार, पांत्रावतार, जोयां, तथा ग्रहपूजा, शांतिकर्म कराव्यां, पादरदेवतानी मानता करी, श्वा करी, यई सेव्या, सुणगाविद्यावंतजाण. जोडीयाने पूड़यां, पुत्रना । मोहथी ए कोई देवस्थान शेन रयुं, नहीं के. जे स्थान एना मावित्रे पू ब्या पूज्या विना मूकी दीधुं होय? पण ते सर्व प्रयास जेम करवर नू मियें वावेलुं बीज निःफल थाय: तेम निःफल थयुं, वली वैद्यनां उषध पण कस्यां, तथापि ते बोकरो कोइरीते साजो थयो नहिं. आंखें कांश देखे नहिं अने कानें कांश सानले नहिं. तेथी जोजन पान कराव, पडे, ते पण शान करीने करावे. मावित्रं विचायुं जे अमें पूर्वला नवें गुं जा पीयें केवु पाप कमु दशे के जेथकीा पुत्ररूपें पण सदैव शंल्यज़ थयुं ? एवा पुत्र विना सयुं. आवा पुत्र करतां पुत्र न होय तेज सारं. अने ए पुत्र जीव्या पाखें मूवोज रुडो एवा विचार कस्याज करे. . . . ___ एकदा झानी गुरु, वनमां पधास्या; तेमने सर्वलोक वांदवा गयां. वां दीने बेग, तेवारे ज्ञानबलें जाणीने गुरु बोल्या के हे गुणदेव शेठ ! तमें तमारा धंधा बहेरा बोकरा, घj ऊःख करो बो, ते करशो नहीं. जेमाटें करेला कर्म इंश्थी पण दूर था शके तेम नथी. पोतपोतानुं करेलुं पुण्य पाप सदु कोइ जोगवे , एवी गुरुनी वाणी सांजलीने सर्व कोइ कहेता हवा के जुआ मुनिमहाराजनुं केहबुं ज्ञान के ? केहq परहितचिंतन ? केहq जाणपणुं में ? इत्यादि प्रशंसा करवा लाग्या. पली शेठे पूयुं हे महाराज! कया पाप कर्मना उदयथी महारा पु त्रने अंधपणुं तथा बधिर पणुं प्राप्त थयुं ? तेवारें ज्ञानी गुरु बोल्या के एहीज नगरमां वीरम नामें कणबी रहेतो हतो, ते महा अधर्मी,जूता बोलो, अन्यायी, परना दोष सांजलनार, परदोष प्रकाशक, परनिंदा करनार अने कूडा कलंक चडावनार,, इत्यादिक उष्टकर्म करतो हतो. ___ एकदा गामना राजा साथें कोई सीमाडीया राजाने वैर थयुं, तेनो जय राजा राखे . एटलामां बे पुरुष मांदोमांहे बानी वात करता दे खीने वीरमें कोटवालने जइ कह्यु के अमुक बे जग सीमाडीया " राजाने तेडाववानी वातो करता हता. ते वात सांजली कोटवालें ते बेदु जणने पकडीने राजा आगल ऊना राख्या. राजाना पूबवाथी ते कहेवा लाग्यो के Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमष्टचा अर्थसहित. २६ महाराज !' में मारा घरसंबंधी कामकाजनी वातो करता हता, अमें सम खाइने कहीयें ढैयें, के कोई दिवसें स्वप्नमां पण में मारा ग कोरनुं मातुं चिंतव्यं नथीं. एवी तेमनी तात सांजली रोजायें वीरमने तेडावी पूधुं, तेवारें धूर्त, पापी, दुष्टचित्तवालो वीरम बोल्यो के महा राज ! एसाचे साची वात . में महारे काने सांजली बे. राजांयें पण तेनुं कड़े मानीनें ते बेदु जाने दंमनी शीक्षा करी. वली एक वार वीरमनो पाडीशी ग्रामांतरें गयो. ते पाढो घेर श्रावतो हतो तेने मार्गमां वीरम मव्यो तेने पाडोशीयें पोताना घर संबंधि सुखस माधीनी, खबर पूछी, तेवारें इष्ट वीरमें कह्युं के कामदेव ' नामें वालीको तमारे घेर सदैव यावे बे, ते तमारी स्त्री साधें बहु· स्नेह राखे बे, रमे बे, ते वात सांजनी शेठें कामदेव ऊपर कोप करो राजानी यागल वात करी, राजायें कामदेव ने पकडी तेनुं सर्वस्व खूंटी लइ दंमयो. वीरम एवां पाप कस्तो जुटुं बोलतो, परनिंदा करतो, लोकोने कूडां कलंक चडावतो हतो. एक दिवसें कोइक छत्रीयें तेने सारी पठें मार खा प्यो, तेनी पीडाथ घणादिवस दुःख जोगवी मरण पामीने तहारे घरे पु त्रपणे उपनो बे. ए खणसांनव्या प्रणदीग जनापवाद बोल्यो बे, तेथी जन्मांध ने बधिर यो बे, ए जीव घणो संसार रजंनशे ! एवी गुरुना मुखी वात सांजलीने मात्रित्र धर्म करवामां प्रवर्त्त ययां यांधलो दुःख सहन करतो मरण पामीने दुर्गतियें पहोतो || दोहो || असमंजसे बोजे घणुं, परने दिये कलंक ॥ ते मूरख किम लूटशे, पापी दुआ निःशंक ॥ १ ॥ इति वीरम कथा ॥ २८ ॥ ॥ हवे गात्रीशी बानो उत्तर एक गाथायें करी कहे बे ॥ || गाथा ॥ उचि मसुंदरयं, नत्तं तह पाणियं च जो देइ ॥ साहूल जाणमालो, जुत्तंपि न जिए तस्स ॥ ४४ ॥ नावार्थ:- जे पुरुष बिष्ट, नखराडा, बांमयां, विटाव्यां, एवां एवां विरुवां जे पोताने कोइ पण काम मन एव जात पाणी जाणतो बतो साधु महात्माने दीये, ते पुरु पने जमेलुं खांधेनुं यन्न जरे नही अपचानो रोग थाय ॥ ४४ ॥ जेम श्रीवा सुपूज्य स्वामीनो पुत्र जे मघवा तेनी पुत्रिका रोहिणी हती ते पूर्वजे नवें Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ago जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. उगंधा एवे नामें प्रसिदिपामी. कुष्टादिक रोगे पीडाणी.जेमाटें एणे घणा नव पहेला जाणीबूमीने साधुने कडवू तुंबडं वोराव्युं हतुं. तेनी कथा कहे : ॥ श्लोक ॥ श्रीवासुपूज्यमानम्य, तथा पुण्यप्रकाशकम् ॥ रोहिण्याश्च कथायुक्तं, रोहिणीव्रतमुच्यते ॥१॥ चंपानंगरीये श्रीवासुपूज्य स्वामीनो पुत्र मघवा नामें राजा राज्य करे . तेने लखमण नामें राण) सदाचारं अने सुशील वाली बे. तेने आठ पुत्र थयर. ऊपर एक रोहिणी नामें पुत्री थ. मातपिताने अत्यंत वज़न डे मा जन्मी तेवारें रांजायें वधामणां,दानं मान दीधां. महोटी थइ. चोरात कला शीखी. रूप लावण्य सौनाग्यं गुणवंती थई. तेने यौवनावस्थायें पहोंचली जोइनें राजायें चिंतव्यु जे एने योग्य वर मले तो सारं, माटे.स्वयंवर मंझप ममावीयें. ए मनगमंतो वर वरे, तो पली पश्चात्ताप न थाय. एम विचारी स्वयंवर मंझप रचाव्यो. कुरु, कौशल, लाट, कर्णाट, गौड, वैराट, मेदपाट, नागपुर, गौड, चौड, विडं, मगध, मालव, सिंधु, नेपाल, माहल, कोंकण, सौराष्ट्र, गुर्जर, जालंधर, आदि क चारे दिशियोना राजकुमारो तेडाव्या. सर्वराजा स्वयंवरें यावी बेगा. ए वामां रोहिणीराणी पण स्नान विलेपन करी, दीरोदक श्वेतवस्त्र पहेरी दीरा मोती माकना यानरणे अनंकतथकी जाणे देवलोकथी उतरीने जावी होय नही? एवी अप्सरा सरखी शोनती पालखीयें बेठी, सखी योना वृंदें परधर थकी तिहीं थावी. तिहां प्रतिहारी दासीयें राजकुमरोनां नाम, मोत्र, गुण, बल, देश, गाम, सीम, जूदा जूदा वर्णव कररी कही दे खाड्या, समजाव्या. एम करतां नागपुरनो वीतशोकराजानो. अशोकनामें कुमर तेने कंठमां वरमाला पहेरावी योग्यवर वरवाथी सदुको हर्ष पाम्यां. पितायें विवाह कस्यो. बीजा सर्वराजाने हाथी, घोडा, वस्त्र,नोजन, तंबोल आपी सर्वने सन्मान्या. सदु पोतपोताने स्थानकें गया. तथा अशोककुमरने पण सुवर्ण मोतीना आनरण प्रमुखनां दान, मा न देश रोहिणी सहित नागपुरें पहोंचाज्यो. तिहां वीतशोकराजायें पण नगरमा प्रवेश करवानो गुजदिवसें महोत्सव कोधो. केटलाएक दिवस पडी अशोककुमरने राज्यपाटें थापी वीतशोकराजायें दोदा लीधी. हवे अशोकराजाने राज्य संपदा तथा राणीसाथै सुख जोग वतां गजेंइसरिखा पाठ पुत्र थया. अने वली चार पुत्री थइ. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमटला अर्थसहित. २७१ एकदा राजा राणी वेहु सातमी नूमिये गोखें लोकपाल पुत्र खोलामा से बेठा ने. एवामां को एक स्त्री हैयुं पीटती,विलाप करती, रोती पुत्रना गुण बोलतो दैवने उनंनो देती जाय . तेने देखी रोहिणीय राजाने पूज्युं के स्वामी! ए कहेवा प्रकारनुं नाटक करे ? रोजायें कयुं हे राणी तुं धन यौवन राज्य मंदिर जरतार प्रासाद अने पुत्र पूरणयकी अहंकार म कर. यहा तछा म बोल. राणी बोली स्वामी रीश म करो. मने यहंकार का नथी मेंतो मात्र एवं नाटक क्यारे पण दातुं न हतुं तेथी तमोने पूङयुं . राजायें कह्यु ए कांइ नाटक नयी पण एनो पुत्र मरण पाम्यो. तेथी ए रुदन करे बे. राणीयें कह्यु.ए रुदन करवानी कला क्यांथी शीखी हशे? राजा कह्यु जो तुमने पंण ढुंरुदन करवू शीखावू . एम कही राणीना खोलामांथो बाल कने लश्बेदुहाथै कर गोख बाहेर हीमोलता हाथ थकी नीचें नारखी दीधो. ते जो सर्व लोक कोलाहल करवा लाग्यो. परंतु रोहिणीना मनमां कां पण मुःख थयुं नही. पुत्रने पडतां थकां नगरदेवतायें पकडीने सिंहासन पर बेसाड्यो. ते देखी सर्वलोक हर्षवंत थयां अने राजा कहेवा लाग्यो के हे रोहिणि! तुं धन्य कृतपुण्य बो. जेथी तुं पुःखनी वात पण जाणती नथी. ___ एकदा श्रीवासुपूज्य स्वामीना शिष्य सुवर्णकुंन बने रूपकुंन एवे नामें वे साधु चारज्ञानना धणी,बह अम्म तप करता, तिहां याव्या. राजा रा णी पुत्र प्रमुख सर्व परिवार वांदवा गया. गुरुयें धर्मलान दे धर्मदेशना दी धी. पली राजायें पूब्युं. हे जगवन् ! महारी रोहिणी राणीयें झुं तप कयुं ? के जेणे करीए पुखनी वात पण जाणती नथी. तया वली महारो पण ए नी ऊपर घणो स्नेह ने तेनुं गुं कारण ? तेमज एने पुत्र पण घणा गुणवं त थया , तेनो हेतु गुंबे ? ते कहो. ___ गुरु कहेता दवा हे राजन् ! एज नगरें धन मित्र शेनी धनमित्रा स्त्री हती तेनेकुरूपिणीउ गिणीएवीउधानामें पुत्री थ.तेजेवारेंयौवनावस्था पामी तेवारें पितायें तेनो विवाह करवामाटे एक कोटिव्यं आपवाठेराव कस्यो तथा पिकोरांक जेवायें पण परवाने मन कयुं नहीं. एवामां एक श्रीषेणनामे चोरने मारवा माटें लश् जतां शे तेने मरतो मूकाव घरे राखी पुत्री पर गावी दीधी. ते पण उगंधाना शरीरनो उर्गध सहन न थवाथी रात्रियें नाश) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. • गयो. तेवारें शेठ विषवाद करतो कहेवा लाग्यो के कर्मना दोष आगल कोनु चाले नहीं. पुत्रीने, कयुं तुं घर रही थकी दान पुण्य कर. ते पुत्री दान धर्म करवा वांडे पण तेना दायर्नु दानपण कोइ लीये नहीं. _एकदा.झानी मुनिने दुर्गंधासंबंधी वात पूजवायी तेमाणे कयुके गिरनार पर्वत पासें गिरिनगरीयें पृथ्वीपाल राजा ने तेनी सिदिमती राणी ले. को अवसरें राजा राणी बेहु वनमां कीड़ा करवा गुयां. एवामां कोश्क गुणासा गर मुनि मासखमणनुं पारणुं करवा माटें नगरमां जता देता. तेने देखी ग 'जायें तेमने वांदी नमस्कार करी पनी राणीने पराणे पानी वालीने कह्यु के ए. जंगमतीरंथ ने एने फासु थाहार पाणी देजो. पण. राणी विचायं जे आ {मायें आने .महारी क्रीडामां अंतराय पाड्यो, तेथी कोधित थकी एक कडवू तुंबडं साधुने वहोराव्र्यु साधुयें विचाङ्गु जे पायाहार जिहां परतवाय. तिहां अनेक जीव मरे ए माटे पोतेंज थाहार कस्यो एटले कडवा तुंबडाना विषप्रयोगें गुनध्याने मरण पामी देवता थयो. पालथी राजाने तें वातनी खबर पडी राजायें राणीने घरथी बाहेर काहाढी मूकी. राणीने जंगलमा रखडतां सातमे दिवसें कोढ रोग निकल्यो तेने फुःखें पीडाती.मरीने बछे नरकें गइ. तिहांथी मरी तिर्यंचमां अपनी. वली नरकम गइ. एम सातें नरकमां कमें क्रमें दुःख जोगवीने सापणी, ऊंटणी, कूकडी, सीयालणी, सूयरी, घिरोली; कंदरी, जलो, कागडी, चं मालिणी, रासनी प्रमुखना अवतार फामी. एकदा गायना अवतारमा मर ती वेलायें नवकार सांजली शेठने घेर मुर्गधापुत्री पणे कंपनी. तिहां निका चितकर्म थाकतां स्वल्प रह्यां, तेथी झानीनी देशना सांजली जातिस्मरण झान ऊपर्नु पूर्वला नव दीना. तेवारें उगंधायें हाथ जोडी प्रब्यु के महारा ज! ए रखनो निस्तार थाय तेवो उपाय कहो. गुरुयें कडं के आतिनुं नां जणहार एवं रोहिणी तप करो. ते तपनो विधि हुँ कहुँ ते सांजलो. सात वर्षने सात मास पर्यंत रोहिणीनवना दिवसें उपवास करवो. श्री वासुपूज्यजीनी पूजा करवी, तप तपता गुनध्यान ध्यावं. तेना प्रना वथी रूटुं था. आवता नवें अशोक राजानी राणी थाइशं. तिहां सुख जोगवी श्रीवासुपूज्यने तीर्थ मोक्ष पामीश. वली सप पूर्ण थयें उजमणुंक Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. २०३ री, श्रीजिन प्रासाद कराववा, श्रीवासुपूज्यजीनी रत्नमय प्रतिमा करा ववी. तेने सोना मोतीना बानरण करावी चढ़ायवां. तथा स्नान विलेपन कुंकम कपूर सुगंध इव्ये पूजा करवी. श्रीसंघनी नक्ति करेवी, अमारी प्रव विवी, दीनजनोने अखथी मूकाववा, साहामीवात्सल्य, संघफूजा करवी, सियत लखाववां, ए तप करवाथी सुगंधराजानी पेठे सर्व कुंख टली जा शे, तेवारें उगधायें पब्यु के सुगंधराजा ते कोण थयो ? तेनु दैत्तांत कहो. गुरुयें कपुर-सिंहपुर नगरमां सिंहसेन राजा राज्य करे - तेनी कनकप्रना राणी ,तेमने एक पुत्र थयो ते अतिशय दुर्गध हतो, तेथी ते सर्वने अप्रिय थयो. एक वखतें ते नगरीमा पद्मप्रनस्वामी समोसस्या. त्यां कुटुंब परिवा र सहित.नइं रांजायें कर अंजलि बांधी वांदीने पूब्युं. हे नगवन् ! मारो पु त्र उर्गध थयो, तेनुं कारण शुं हो ? एवं पूर्वला नवमां झुं कर्म कह्यं दशे? स्यारें जगवान कहेवा लाग्या. नागपुरथी बार योजन बेटे नीलपर्वतें एक शिलानी ऊपर मासोपवासी साधु धर्मध्यान करता हता. तिहां ते साधुना प्रनावथी आहेडीने सिकार मले नही तेथी यादेडीयें साधुनी ऊपर रोष करीने तेने नपश्व करवा माटे ज्यारें मासखमण पूरण थयुं त्यारे साधु गाममां एषणार्थे गया. पालथी व्याधे आवी, ते शिलानी नीचे काष्ट ना खीने अग्नि सलगाव्यो, साधु पण गोचरी करी फरी त्य शिला ऊपर आवी बेग तेमने नीचेंथी ताप आववा लाग्यो ते जे जेम ताप थाय, तेम तेम शुजध्यान आणे. एम कष्ण परिसह. सहन करी केवलज्ञान पामी मोदें गयो. ते व्याध उष्ट कर्मथी कुष्ठी अयो. मरीने सातमी नरकें गयो. पड़ी सर्प थश्ने पांचमे नरकें गयो. पनी.सिंह.यश्ने चोथे नरकें गयो. पली चि त्रक थश्ने त्रीजे नरकें गयो. पड़ी मार्जार थश्ने बीजे नरकें गयो. पडी उ चूक थक्ने पेहले नरकें गयो. एवा नव जमीने एकदा दारिद्धी गोवालीयो थयो. पशुपालनो धंधो करतोनाघोरी श्रावक पासेंथी नवकार शीरख्यो. एक वखतें वनमा सूतो हतो, एवामां दावामि बलतो एना ऊपर आवी पज्यो. तेथी बली मरण पाम्यो.. तिहां नवकार समस्यो तेने प्रनावें तहारो पुत्र थयो. थाकता कर्मना दोषथी उर्गधीशरीर थयुं . एवा पूर्व लव सांजलतां ज ते दुर्गधकुमरने जातिस्मरण झान ऊपy. फुःख संजारी जय पाम्यो. तेवा रें जगवंतने पगे लागीने,पूवा लाग्यो के,ढुंए दोषथी केम छूटीश? तेनोन Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ - जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. 'पाय कहो. त्यारें जिनेश्वरें कह्यु. रोहिणीनुं तप कर. तेथी सर्व निरांबाध थशे. पड़ी ते राजपुत्रं रोहिणीनुं वप फयुं. तेथी सेनुं शरीर सुगंधमय प्रयु. माटें हे उगधा ! तुं पण ए तप कर. एना प्रनावथी सुगंधकुमारनी पेरें तारां सर्व उःस्व नाश पामशे. एवं सांजलीने ते उगधायें रोदिणी तप अंगीकार कयुं. विधिपूर्वक गुनध्यानथी तपस्या करतां आत्मानी निंदा करतां मुर्गधाने जा तिस्मरण ज्ञान उपन्यु. तेना योगें पूर्वलो नव सांजरी याव्यो,तेथी वली वि शेषे तप करवा मांमयु. आयु पूर्ण थयाथी गुनध्याने मरण पामीने देवलो कने विषे देवता पणे उपनी. त्यांथी च्यवीने अहीं चंपानगरीने विषे मघवा राजानी पुत्री थ. तेनुं रोहिणी नाम पडयु. तेने तमें परण्या बो. एणे घj दान आप्यु जे. तेथी तमारी पट्टराणी थइ . एवं पूर्वे रोहिंगन तप कस्युं जे. तेना प्रनावथी दुःख ते वली शी चीज़ डे! एवं पण ए जाणती नथी. वली जमणुं कयुं तेना प्रनावथी ए कति पामी ! वली हे राजा! ते सिंहसेन राजायें पोताना सुगंध कुमरने राज्य पाटें श्रापो पोतें दीदा लीधी. सुगंधराजा राज्य पालतो.धर्मकृत्य करतो जैनधर्म पालतो मरण पामी देवलो के गयो. तिहांथी च्यवीने पुष्कलावती विजयें पुंगरगिणी नगरीमा विमल कीर्ति राजाने घरे अर्ककीर्ति नामा राजा चक्रवर्तीपणे उपन्यो. त्यां राज्य पाली जितशत्रु साधु पासेंथी दीक्षा ला बारमे देवलोके अच्युतें थयो. त्यांथी च्यवीने अह्नीं तुं अशोक नामें राजा थयो बो. तहारी राणीयें अने तें वेदु जणे मली पूर्व एकमना थइने एज़ रोहिणी तप एक सरखं कह्यु , ते माटें तहारो स्नेह एनी ऊपर घणो जे. वली राजायें. पूर्दा के हे स्वामी ! महारी स्त्रीने आठ पुत्र धने चार पुत्रीयो थ. ते तेमना कया पु एयोदयथी थई ? तेवारें गुरु बोल्या के, हे माहानाग्य ! एमांथी सात पुत्र तो पूर्वला नवें मथुरा नगरीयें एक अग्निशर्मा ब्राह्मण निवारी रहेतो हतो. तेने घेर साते पुत्र पणे उपन्या हता. ते दरिडी कुलमां उपन्या तेथी साते निख मागवा जाय, पण तेने को उटले बेसवा आपे नहीं. ज्यां जा य त्यां धक्को मारी बाहेर काहाडी मूके. एम ते. पुत्र गामो गाम फरतां निख मागता मागता एकदा पामलीपुरें गया. तिहां तेणें एक वाडीमां राजाना पुत्र तथा प्रधानना पुत्रने घणा हीरा मोतीना अमुल्य आनरण पहेरीने खेलता थका दीठा, तेथी मनमां आश्चर्य पाम्या. तेवारें म Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमटबा अर्थसहित. २५ होटा नायें कयु के जून विधातायें कहेवो अंतर कस्यो ? जेमाडे ए' वांडित सुख जोगवे के अने आपणे निदा मापता घर घर लटकीयें बैयें. ते सांजली न्हानो नाइ बोट्यो के. ए उलंनो आपणे कहेने यापीयें ? जो एवं पूर्व पुण्य कस्यां ,तो तेनां फल ए जोगवे ,अने बाप पुण्यहीन बेयें,तो घर घर नीख मागताफरीयें बैये. त्यांथी फरतां फरतां वनमां गया. तिहां एक साधु मुनिराज काउस्लग्ग ध्याने रह्या हता. तेमनी पासें जर कनाः साधुयें पण कानस्सग्ग पारी.दया आगीने तेमने धर्मदेशना दीधी, ते सांजली सांते नाइ वैराग पामी, दीदा लेश, चारित्र पाली, देवलोकें गया. तिहाथी च्यवीने आहीं तहारे घेर आवी पुत्रपणे उपन्या . तथा आठमों पुत्र तो वैताढय पर्वत उपर एक जनक नामें विद्याधर हतो ते नंदी श्वरही शाश्वत जिन प्रतिमानी पूजा करतो यात्रा करतो, धर्म सेवतो वि चरतो हतो, ते मरण पामी सौधर्म देवलोकें देव थयो. त्यांथी च्यवी तारो लोकपाल नामें आठमो पुत्र थयो . जेने खोलामाथी पडतां देवतायें सा निध्य कयुं. अने जे तहारी चार पुत्रीयो , ते पूर्वले नवें वैताढय पर्वतें विद्याधर राजानी पुत्रीयो हती. अनुक्रमें यौवनावस्था पामी. एकदा प्रस्ता वें बागमा रमवा गइ, तिहां साधुने कनेला दीवा. साधुयें तेमने कह्यु. हे कु मरीयो! तमें धर्म करो, त्यारे तेमणे कयुं. अमाराथी-धर्म करेणी न थाय. वती साधुयें कह्यु. तमारं आयुष्य स्वल्प रह्यु , माटें धर्मकरणीमां प्रमा द करशो नहीं. ते सांजली ते पुत्रीयोयें पूज्यु के, अमारुं आयु केटटुंबा की रझुं छे ?.साधुयें कह्यु, यात पदोर शेष रह्यं . पुत्रीयो केहवा लागी अ टला स्वल्प कालमां शुं पुण्य करियें? मुनियें कह्यु आजेज अंजुवाली पां चम डे माटें झानपांचमनुं तप करो. एटला तपथीज सुखी यशो. जेमाटें कह्यु डे केः-जे नागपंचमिवयं, नत्तमजीवा कुषंति नावजुया ॥ उवचुंज अणुवमसुहं, पावंति केवलं नाणं ॥ एवो उपदेश सांजली ते पुत्रीयोयें घेर आवी मावंतर आगल वात करी आज्ञा ल गुरुना दर्शनथी बाजनो दिवस सफल मानी देवपूजा करी पुण्यनी अनुमीदना करी पञ्चरकाण लीy. पोताना. आत्माने कृतार्थ मान्यो. एक स्थानकें चारे जणीयो बेठी. एट लामा विद्युत्पात थयो, तेथी चारे पुत्रीयो मरण पामी देवता थइ. तिहांथी च्यवीने तहारी पुत्रीयो थइ . मात्र एकज दिवस ज्ञान पंचमी तप करवा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. 'D ए फल थयु. ए वात सांजलतांज राजा तथा राणी अने पुत्र पुत्रीयो सर्वने जातिस्मरण झान नपन्यं. पूर्वला जब सांजस्या, तेथी वैराग्य पाम्यां थकां श्रावकधर्म अंगीकार करी पोताने घरे आव्यां. वली एकदा श्रीवासु पूज्य नगवान् श्रावी समोसत्या. तेमने राजा तथा रोहिणी राणी प्रमुख परिवार सहित वांदवा गया. तिहां प्रनुनी देशना सांजली घरे प्रावी पुत्र ने राज्यपाटें थापी सात देवें धन वावरी, चारित्र अंगीकार करी, बेहु जण मोदे गयां ॥ उक्तं च ॥रोहिणी पंचमी तपतणो,गिरवां ए फल जाण ॥ उख व्र होय सुख होय सदा, बोले केवलि वाण॥१॥इतिरोहिणी अशोककथा।। श्लोक ॥ श्रीमत्रवीरपदौ, श्रीजिनमतगतजनै सदावंदौ ॥ श्रीपति निकरा राध्यौ, श्रीदौ प्रणमामि चंगगती ॥१॥ स्वस्तिकः श्री वीतरागः नाम गुप्तम् ॥ ॥ हवे त्रीशमी टवानो उत्तर एक.गाथायें करी कहे जे ॥ ॥ गाथा ॥ मदुघाय अग्निदाहं, अंकं वा जो करें पाणीणं ।। बाला रामविणासी, सो कुही जायए पुरिसो ॥ ४५ ॥ , नावार्थः-(जो के) जे पुरुष (मदुघाय के०.) मध पाडे मधपुडा पाडे मदुधालनो आरंन करे, तथा अग्निदाह एटले दावानल दीये वा एटले तथा (पाणीणं के०) प्रा णीयोने के लांबन करे,ढोरने मांन दीए.तथा (बालारामविणासी के०) सूक्ष्म वनस्पतिकायनी विनाश करे, कुमलि वनस्पतिने दे, नेदे, त्रोडे, मोडे, खूटे, चूंटे (सो के०) ते पुरुष नवांतरें कोढीयो थाय जेम गोविंद पुत्र गोसलीयो मधवगेरे पाडवानां प्राप करीने पद्मशेठनो पुत्र गोरो एवे नामे वणिक महा कुष्टी थयो ॥ ४५ ॥ ते गोसलनी कथा कहे जे. पेठाणपुर नगरें गोविंद नामें गृहस्थ बसे , तेनी गौरी नामें स्त्री, तेने गोसलनामें पुत्र महा उर्व्यसनी बे. एकलो वनमांहे जश्ने लाकडीयें .मदुयाल पाडे, निर्दय पणे जालमांहे शशलादिक जीव होय तिहां दावा नल दीये, अग्नि सलगावे, बलद, गाय,घोडाने बांके, कूमला नवा जगता रोपा कूपलने बेदी नाखे, उन्मूलन करी नाखे, एवं कृत्यं करता देखी लो के तेना बापने उलंनो दीधी, तेवारें बापें तेने शीखामण दीधी, पण ते स व राखमांहे होम्यानी पेठे निःफल थइ. ते पुत्र मावतरने पण उचाटनो करावनारो थयो. धर्मनी तो वात पण ते न जाणे. एवामां तेना मावतर देवशरण थयां. पड़ी तो बली ते गोसल निरंकु Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. श हाथीनी पेठे.नबृंखल थयो थको फरे एकदिवसे नगरनी वाडीयोमांज इनारिंगादिकना तृद उन्मूली.नारख्यां तेने कोल्चालें दीठो, बांधीने राजा नी पासें पाण्यो राजायें तेनुं सर्व धन लश्ने मूकी दीधुं.'. वली एक दिवस बानो राजानी वाडीमां जश्ने कूमली अनेक जातिनी वनस्प्रंति बेदी नारखी. एटलामा वनपालकें दीठो. तेवारें मार मारी बांधी, कूटी, राजा आगल आणीने बनपालकें विनव्यो के महाराज ! एवं तमा री वाडीनो विनाश कीधों ! राजायें तेना बेदु हाथ बेदी नखाव्या, तेथी माहाःखी थंयो. पड़ी तेणें घणोज पश्चात्ताप कीधो ॥ दोहो। माय बाप म दोटा तणी, शीख न माने जेह ॥ कर्मवशे पडीया थकां, पडी पस्तावेन्ते ह॥१॥पनी ते गोसल पोतानी निंदा करतो मरण पामीने तेहीज नग रें पद्मशेठने घेर गोरो एवे नामें पुत्र थयो. ते जन्मथीज रोगीयो गलत को ढीयो थयो, नख बने नाक बेसी गयेलां, नकुटीना केश सडी गया, दांत पडी गया,निरंतर माखीयो बबणाट करती शरीर ऊपर वींटी रहे, उगंध तो एटली निकले,के कोश्थी सहेवाय नही. बा घणा घणा औषध कस्यां पण ते सर्व व्यर्थ गयां. कष्ट व्याधि टल्यो नहीं. एकदा दमसार नामा ज्ञानीमुनि ते नगरना वनमां पधास्या, तेमने वां दवा माटे नगरना लोकोने जता देखी पद्मशेत पण तेमने वांदवा गयो. तिहां साधु मुनिराजे धर्म देशनामां कडं के जीव जेबे, ते कीधाकर्मने वशे कुःखीयो थाय . जेम था नगरमां पद्मशेठनो पुत्र सुखी थयो जे ते सां जली पद्मशेनें पूब्यु के हे जगवन् ! महारे पुत्र शुं पाप कयुं ? गुरुयें तेने पूर्वोक्त गोविंदना पुत्र गोसलनुं सर्व वृत्तांत संजलावीने कडं के ते गोसल मरीने ताहारो पुत्र थयो . पद्मशेठे घेर आवी पोताना पुत्रने कयुं तें पा बला नवें घणा पाप करयां डे, ते सांजलतांज तेने जातिस्मरण ज्ञान ऊप मुं. पनी मुनिराज पासें श्राव्यो,तेमने वंदना करी पापनी निंदा गर्दा करी अनशन ला मरण पामी पहेले देवलोकें देवता थयो ॥ इति गोसल कथा॥ हवे एकत्रीशमी टहानो उत्तर एक गाथायें करी कहे . ॥ गाथा ॥ गोमहिस खरं करहं, अश्नारारोवणेण पीडे ॥ एएण पा व कम्मे, पं गोयमा सो नवे खुजो ॥४६॥ नावार्थः-बलद, नेश, अने उंटादिकनी कपर लोचें करी अतिनार थारोपण करे एटले एमनी पर Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. घणो जार नरीने जे पुरुष उक्तजीवोने पीडा करे, ते निःकेवल एज पापकर्म करी निश्चयथी हे गौतम! ते जीव खुको एटले कुब्जो अर्थात् कुबडो थाय. जेम धनावहशेठनो पुत्र धनदत्त पांबले नवें घणा जीवोनी ऊपर नार वहे वरावीने कुबडो थयो ॥ ४६॥ इहां धनदत्त अने धन श्रीनी कथा कहे . नूमिमंझन नगरें शत्रुदमन नामें राजा राज्य करे . तिहां धन्नों नामें शेत रहे . तेनी धीरू नामें स्त्री ने, जाडामो धंधो करी जीविका चला वे . तेणे पोताने घरे पोतीया, कंट, रासन, अने महिष ते पाडानो संय द कीधो बे. ते शेत लोनें वाह्यो थको अवाचक जीवोनी ऊपर तेमनी शे लिथी उपरांत घणो नार जरे अने घणुं नाडं ला निर्वाह करे बे. . एकदा को साधु वहोरवा सारु तेने घेर आव्या, तेमने स्त्री जरतारें बे हुयें मनी नावथी दान थाप्युं. तेने योगें शुनकर्म नपार्जी तेज नगरेंधना वह शेतने धनदत्तनामें पुंत्रपणे जश् कपनो. ते वणिज कला सर्व जाणे पण पूर्वला नवमां जीवोनी कपर घणो नार जरतो हतो,तेने योगें कुबडो थयो. हवे तेहीज नगरमां. धनशेठ वसे ,तेने घेर धीरूनो जीव मरीने पुत्री पणे उपनो तेनुं धनश्री एवं नाम पाड्युं. ते घणी रूपवंत गुणवंत ,ते यौ वनवय पामी थकी पूर्वनवने स्नेहें धनदत्त कुबडाने परणवा वां जे. वली एज धन्नाशेठने एक बोजी पुत्री थइ पण कर्मने योगें ते कूबडी . एकदा तेना बापनी बागल को निमित्तियायें कह्यु के जे कोइ ताहारी पुत्री धन श्रीने परणशे, ते महोटो व्यवहारी.थाशे ! एवी वात सांजलीने को धन पाल नामें शेतीयायें धनश्रीनी मागणी करी धनश्रीना पितायें ते वात क बल करी तथा बीजी जे कुबडी बेटी हती ते धनदत्तने दीधी. अने बेतु कु मरीने परणाववानुं मुहूर्त एकज दिवसें एकज लग्ने लीधुं. हवे धनश्रीयें पूर्वनवना स्नेहने लीधे धनदत्त कुबडाने परणवानी वां बायें त्यां मनोरथ पूरक एवे नामे कोइ यद ,तेने आराध्यो. यद संतुष्ट थश्ने माग, माग, एवं त्रण वखत कयुं धनश्रीयें कह्यु. के जेम महारो जर तार धनदत्त थाय तेम तमें करो. तेवारें यदें कह्यु के तहारे पितायें बेतु पुत्रीने एकज दिवसें एकज लग्ने बेदु वरने पाणिग्रहण कराववा वांग्यु बे,ते वखत हुँ दृष्टिबंधन करीश, तुं धनदत्तने परणजे. पड़ी जैवारें तुमने परणी घेर लइ जाशे, तेवारें मोह जशे. एम कही यद अदृष्ट थइ गयो. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. जए हवे लगने दिवसें बेहु वर सार्थेज परणवा आव्या. यः सर्वलोकने मोह पाड्यो बेदु परणीने पोतपोताने घेर बाबांतेवारें धनदत्त तो धन श्रीने घणीज स्वरूपवान् देखीने हर्ष पाम्यो घने धनपाल पीतानी परणेली स्त्रीने कूवडी देखी जांखो थयो थको मनसा विचारवा लाग्यो के आते वली जाल कहेवो थयो ! मतिविन्रम केम थइ गई !!! ते वात राजायें सांजली अने गामनां लोकोयें पण जाणी लोकना टोने टोला मली वा तो करवा लाग्यां, पनी मांहोमांहे बन्ने जण स्त्रीने अर्थ कलह करता रा जानी बागल गया. राजायें तेमने पाळा घेर मोकलीने धनश्रीने तेडावी एकांतें पूब्यु के धनदत्त जातें कुबडो बे, ते तने मनगमतो पाय नहीं,माटे साचे साचं कहे जे तुंकया वरने वरी डो? ते सांजली धनश्रीयें राजानी था गल खरेखरी वात कही दीधी के में मोहने वशे अवश्य ए धन्नावहना पु बनी साथे परणवा माटेंज यदनुं आराधन कयुंहतुं, ते संतुष्ट थयो तेना सांनिध्यथी हुँ धनदत्तने, परणी बुं अने महारी कूबड़ी बहेन ने यदें धन पालनी साथे परणावी . हवे जेम युक्त होय, तेम करो. जे देवतायें की, ते अन्यथा शी रीतें थाय ? माटें महारे ए.कूबडोज जरतार दो. पनी राजायें सऊनोने तेडी सर्व वात कही समजावी ते पण सर्व समजीने घेर गया. एकदा ते नगरना वनमां कोई धर्मरुचिनामा आचार्य चारज्ञानना धणी आवी समोसया, तेमने वांदवा माटें सर्व लोक गया, तेनी साथें धनदत्त पण पोतानी स्त्री सहित गयो..मुनिने वांदी धनदत्ते पूज्युं के हे जगवन् ! कये कर्मे करीने दुं कूबंडो थयो ? अने कया कमै महारी स्त्री धनश्रीनो महारी ऊपर घणो स्नेह ? तथा कया शुनकर्मे करी घणी लक्ष्मी सुख सौनाग्य पाम्यो , ते महारी ऊपर कृपा करीने कहो. __गुरु बोल्या के हे धनदत्त ! तुं पूर्वले नवें धन्नो हतो, अने धनश्रीनो जीव धीरू एवे नामे तहारी स्त्री हती, तिहां पोतीया रासनादिक ऊपर घणो नार नरवाथी तुं कूबडो थयो, अने नावथकी साधुने दान दीg, तेने योगें लक्ष्मीनो योग अखंम रह्यो. तेमज पाबले नवें बेहु स्त्री जर तार हता, तेथी तमारो स्नेह पण अखंक रह्यो . एवी वात सांजलीबे हुने जातिस्मरण ज्ञान रुपर्नु.पूर्वला नव दीला. पडी समकितमूल बारवत पडिवजी मुनिने वांदी घरे पहोता. अनुक्रमें धर्मपालता सुपात्रने दान Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. 'देतां आयु पूरण थये देवलोकें देवता थया ॥ इति धनदनधनश्रीकथा ॥ ॥ हवे बत्रीशमी एबानो उत्तर एक गाथायें करी कहे .॥ गाथा ॥ ज़ाइम मत्तमणरे, जीवे विकिणझंजो कयग्यो य ॥ सो इंदनू' मरि, दासत्तं वच्चए पुरिसो 11.४७ ॥ नावार्थ:-जे जीव जातिमद क रे, अहंकार करे एटले जातिकुलादिकना मदें करी मदोन्मत्त उन्मत्त थाय तथा जे मनुष्यादिक जीवोने (विकिरण के) वेचे विक्रय करे अने कृतघ्न थाय एटले परनो करेलो नपकार वीसरी जाय, फारकी निंदा करे, पोतानी आत्मप्रशंसा करे अन्यको प्रशंसा करवा योग्य.होय बतां तेना गुणने ढांके पोते कोइ गुणवाननी प्रशंसा न करे पारका अबता दोष क हेवे करी नीचगोत्र कर्म उपार्जन करे. हे इंश्लूति ! हे गौतम ! (सो के) ते पुरुष मरीने दोसपणुं पामे. जेम हस्तिनापुरें सोमदत्त पुरोहित पदन्न्रष्ट थई मरीने मुंबपुत्रं थयो ॥ ४७ ॥ तेनी कथां कहे :- . ___॥ कुरुदेशे हस्तिनागपुरें सोमदत्त नामें पुरोहित रहे . तेने घणा मनो रथें एक बलन नामें पुत्र थयो. ते ब्राह्मणजातिना मदें करी बीजा लो कोने तृण समान गणे. नगरमांहे मार्गमां आनोखं नाखी चाले राजपुत्र आनडे तो स्नान करे, अने जो कोइ मातंग दृष्टियें पडे, त्यारें तो वली वस्त्रसहित स्नान करे, प्रायश्चित्त लीये, एवी रीतें ब्राह्मण विनानी बीजी जाति ऊपर वैषधरतो तेमनी निंदा करतो पोतानी जातिने प्रशंसतो रहे. तेनी ऊपर लोक हांसी करे, ए प्रमाणे वर्तन करी ते पुत्र पोताना मावि त्रोने अत्यंत उच्चाट करवानुं कारण थपड्यो. . तेना पितायें तेने कह्यु के हे वत्स! लोकव्यवहारज रूडो जे जीव कम करी ब्राह्मण पण हीनजाति थाय माटें जाति शाश्वती कोश्ने न होय. तेमाटें मद करवो नहीं. एटलो करवो के जेणे करी लोक दासी न करे. त्यादिक तेनो पिता शिखामण आपे पण ते माने नही. उन्मत्तहाथीनी पेठे खुमारीमा जातियनिमान धरतो रहे. एम करतां तेनो पिता देवशरण थयो. तेवारें राजायें पुरोहितनो पुत्र अहंकारी हतो माटें अयोग्य जाणी ने तेना पिताने पाटें थाप्यो नहिं. बीजाने पुरोहित पदवी आपी दीधी. एवी रीतें मदें करी हांज पदभ्रष्ट थयो लोकमां हांसी थलोकोयें तेनुं ब्रह्म दत्त नाम पाडयुं. पदवी गयाथी निर्धनपणाने प्राप्त व्ययो. कृतघ्न थयो. पड़ी Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. गाय, बलदं वेहेची पेट नराध करवा लाग्यो. लोको सर्व निंदा करवा लाग्या.. एकदा गायोने चारो नाखतां कोयें कडं के हे ब्रह्मदत्त ! या तृण जे तुं तहारे हाथे कपाडे ले ते सबै तृणने मातंगी पगें करी चाप्यां जे. तेथी तु ने आनडडेट नथी लागती? एवीं अनेक वेकडी लोको करे, तेथीकोधे जरा इने ते गाम बोडी जतो रह्यो. जतां जतां मार्गमां नूलो पज्यो.तिहां मुबोने देखी आक्रोशंकरी हणवा लाग्यो, 'तेवारें हुंचे कोप करी ब्रह्मदत्तने पेटें बरी मारी तेथी त्यां मरण पामीने मुंबोने घेर पुत्रपणे जर उपन्यो. ते पण काणो खोडो, कुरूपडो, कालो, उर्जागी थयो. राजालोको, दासपणुं करे. मम एसने शूली प्रमुख चडाववानो वध करवानो धंधो करे. तिहांथी मरण परमी पांचमी नरकें नारकी थयो. तिहाथी मरीने मत्स्य थयो. तिहाथी वली नरकें गयो. एम अनेक नवज्रमण करी जेवारें मनुष्यमां उपजे. तेवारें हीनकु लमां कंपजे अने दासंपणुं करे. एकदा अज्ञानतपना बलें करी ज्योतिषी देवो मां कपन्यो. तिहाथी च्यवीने पद्मखेड नगरें कुंददत्ता गणिकाने तिहां पुत्र पणे रुपन्यो. तेनुं नाम मयण पाडयुं. तिहां बहोतेर कला शीख्यो, परोप कारी, दद, दयालु, लजालु, गंजीर, सरल, प्रियवादी, सत्यवादी थयो. जेहवा तेमां उत्तम गुणो, तेवा गर्वनुं ममत्व नथी. जेवारें लोको तेने गणिकानो पुत्र कही बोलावे, तेवारें दुःखीयो थको चिंतवे जे में कोई पूर्व नवें पाप कीधांबे, तेथी विधातायें मने गणिकाने घेर जन्म दीधो! जेथी ढुं आटला गुणने धरतो बतो पुण जातिहीन थयो . अथवा अमृतमय चंमा डे पण कलंकित ले तथा रत्नाकर जे समुझ ते रत्नोथी नरेलो ते बतां तेमनुं पाणी खालं जे, तेम जिहां गुण तिहां दोप पण होय ! एकदा ते नगरें केवली नगवान् पधाया. तेमने वांदवा माटें मयण गयो. वांदीने पूब्युं के हे नगवन् !माहारामां केटलाएक उत्तम गुलो बतां दुं कया कर्मनाउदयथी हीनजातिमांऊपन्यो ? नगवाने पाबला नवनुं स्वरूप कही संजलाव्यु अने तें जातिकुलनो मद कीधो.तथा परनिंदा कीधी.तेना पापें करी गणिकाने घेर ऊपनो बो, तेवारें मयणें कडं के हे नगवन् ! जो महारामां योग्यता होय, तो दीदा आपो. केवलझानीय तेने योग्य जाणीदीदा दी धी, साधुसमाचारी शीखवी, पनी पुष्कर तप करी अनशन लें। देवता थ यो. अनुक्रमें कर्मक्ष्य करी मोदसुख पाम्यो॥ इति ब्रह्मदत्त ब्राह्मण कथा. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JG9 जैनकथा रत्नकोष जाग पहेलो. हवे तेत्रीशी बानो उत्तर, एक गाथायें करी कहे हैं. ॥ गाथा ॥ चिरायवित्तीयो चारि, न वक्ति दाणगुण वित्तोय ॥ मा साय दंम जुत्तों, पुरिसो दारिदियो होइ ॥ ४८ ॥ जावार्थ:- जे पुरुष विनयें करी ही होय एटले विनयरहित होय तथा चारित्र वर्जित होय एटले चारित्र जे विरतिपणुं तेथकी रहित होयं तथा दान की वियुक्त होय एटले दानगुणथी रहित होय, तथा मनोम, वचनदं यने कायम, ए त्रण-दरें करी युक्त होय. एटजे मनें करी या ध्यान रौड़ध्यान चिंतवे ने वचनें करी दुर्वचन बोले, लोकोने कुबुद्धि छापे, कायायें करी कुचेष्टा करे. एवो पुरुष मरीने दरिड़ी थाय ॥ ४८ ॥ जेम हस्तिनापुरें सुबंधुशेवतो पुत्र मनोरथनामें हतो, ते व्यविनीत, अविरति थको मरीने दरी थयो. ' तेनुं निष्पुष्य एवं नाम पडधुं. तेनी कथा कहे बे. हरिणावर नगरें अरिमर्दन नामें राजा राज्य करे 'बे. ते गाममा सुबंधु नामा शेठ से बे. ते बंधुमती नार्या बे, तेनी घणे. मनोरथें एक पुत्र थयो. माटें तेनुं मनोरथ एवं नाम दीधुं. ते महोटो थयो, तेवारें तेनो पिता देवगु नमस्कार करवा कहे, पण ए स्तृब्ध यइ रहे प्रणाम न करे. तेमज निशा लें जलवा मोकल्यो, तो पण तेवोज कोरे कोरो रह्यो, पण एक अक्षर शीख्यो नही. पितायें महोटानो विनय करवा शीखव्यो, तो पण कोइनो विनय क रे नही. जेमाटें जेहनो जेंहंवो स्वभाव होय, ते कोइ रीतें मटे नही. एकदा तेनो पिता एने गुरुनी पासें तेड़ी गंयो. गुरुने कयुं के एने प्रति बोध प्रापो. गुरुयें मनोरथने पूढधुं हे वत्स ! व्रतपञ्चरका नियम पालवा यी बहु फलं था, माटें तहारी वा प्रमाणें कांइ नियम जे. मनोरथें कयुं के महाराथी नियम पजे नहिं. गुरुयें कयुं त्यारें दान आपवानुं व्यसन राख्य मनोरथे युं हुं दान पी शकतो नथी. एम करतां तेनो पिता मरण पा म्यो. पोतें महा कृपण हतो तेथी घरमा कोइ निखारी पण मागवा यावे नही. एकदा एकलो ग्रामांतरें जातो तो तेने मार्गमां चोरं लोकोयें मारी नाख्यो, पासें जे कां धन हतुं, ते सर्व चोरो लइ गया. मरीने दरिडीना कु लमां जइ पुत्रपणे कपनो तिहां निष्पुण्यक एवं नाम दीधुं. महोटो थयो, त्यारे लोकोनां ढोर चारे, हल खेडे, लोकोनी सेवा करे, दास थइ रहे. व ही करे, माथे चार कपाडे, तो पण पेट नरखं दोहेनुं थाय. · Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमष्टचा अर्थसहित. २८३ एकदा धन कमावा सारु, देशांतरें चाव्यो, तिहां लक्ष्मी मेलववांना घणा उपाय करना, परंतु कर्मयोगे दरिीज रह्यो हवे तिहां एक पएमुख नामें देव बे, तेनो साचो परतो हे, तेनी खागल धन मेलववा माटें उपवास क बेगे. सातमे दिवसें देव प्रत्यक्ष य बोल्यो के तुं शा मादें लांघण करे बे? लेवारें दरियें कयुं के लक्ष्मीने अर्थे करूं बुं. देवतायें कयुं लक्ष्मी म लव तुहारा कर्ममां लखी नथी. दरि बोल्यो के तो महारुं इहांज मरण था. एवो तेनो-हड जालीने देवतायें कयुं प्रजातें इहां सोनानो मोर ना चशे, ते एक पिच सोनानुं मूकशे, ते तुं लेजे. एम कही देव दृश्य थयो. प्रजातें सोनानुं पिव मल्युं, एम नित्यप्रत्यें एक पिच देतां तां वली दरिने कुबुद्धि ऊपनी ने विचायुं जे या जंगलमांहे केटला दिवस रही यें ? माठें या मोरने पकड़ी एक वखतेंज एनां सर्व पीठां लइ लहीयें. एम चिंतंवी मोरने पकड्यो, के तरत मोर फींटीने कागडो थइ गयो. देवतायें व दरीने पाटुप्रहारें माखो, तेथी पडि गयो. प्रथमथी जेटला मोरनां पीडां लीधां हतां, तेटलां सर्व कागडानां पीठां थइ गया. जे माटें कबे के “बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥ दोहा ॥ कतावल कीजें नही, कीधे काज विलास || मोर सोनानो कागडो, करी हुई घरदास ॥ १ ॥ प पोतेंज पोताने निंदतो थको पापात ख़ावा माटें पर्वत ऊपर च ड्यो, तिहां एक साधुने दीवा, तेवारें मनमां विचाखुं जे. एमने धन मेलव वानो हुं उपाय हुं ! एम चिंतीने तेमने वांद्या, तेवारें ऋपियें कंत्युं के तें देवनुं सधन करयुं, तिहां मोरंनो काग थयो. तेथी हमणां. इहां ऊंपा पात करवा खाव्यो बो. ते सांगली यार्य पामी विचायुं जे जून या क पिनुं कहेतुं ज्ञान बे ! पढी साधुने कहेवा लाग्यो के महाराज ! मने धन मेलववानो उपाय कहो. ज्ञानीयें कयुं के तें पूर्वला नवमां कोइ नियम पा व्यो नथी, विनय कीधो नथी ने कोइने दान पण दीधुं नथी, तेनें योगें दरी थयो बो. एवी वात सांजलतां जातिस्मरण ज्ञान कपन्युं; तेथी पू वला जव सर्वे दीठा. तेवारें वैराग्य पामी दीक्षा लीधी. तेने सारी रीतें या राधीने देवलोके देवता थयो. ए दरिडीपणा ऊपर निष्पुण्यनी कथा कही ॥ दवे चोत्रीशमी पृष्ठानो उत्तर एक गाथायें करी कहे बे. ॥ गाथा ॥ जो पुल चाइ विण, य जू चारित गुणसया इन्नो ॥ सो जण Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. सय विरका, महावित होश लोगंमि ॥ ए॥. नावार्थ:-जे पुरुष वली चाइ एटले त्यागी होय, पातार होय, विनय सहित दोय, चारित्रना गुण संबंधि जे सेंकड़ा तेणें करी प्राश्नो आकीर्ण एटले व्याप्त होय अर्थात् चारित्र जे. विरति आदिक गुणोना सेंकडा तेणें करी व्याप्त होय. ते पुरुष (जण के०) सऊन लोकना (सय के ) सेंकडा तेमांहे (विरका के) विख्यात हीय. एटले शेकडा गमे महर्षिकमां प्रसिद होय, जेम सांकेतपुर पाटणमांहे स्वल्पदिनो धणी धनमित्र शेतनो पुण्यसार नामें पुत्र थयो, तेणें पूर्वपुण्यने योगें घरमां चार निधान दीठा. ते राजायें.ल लीधा अने वली पण तेने याप्या, तेनी कथा कहे ॥४॥ सांकेतपुरें नानुमित्र राजा राज्य करे बे. तिहां धनमित्र नामें. शेठ वसे जे. तेने धनमित्रानामें नार्या , तेणें सहित ते सुखीयो . एकदा धनमि त्रा स्त्री रात्रं सूतां स्वप्नमांहे सोनानो पूर्ण कलश रत्ने नरेलो मुखमां पेस तो दीतो. पनी जागीने जरतार बागल वात कही. जरतारें विचारीने कर्दा के तुजने को माहानाग्यशाली पुत्र थशे, ते सांजली स्त्री अत्यंत हर्ष पा मी अनुक्रमें पूर्ण मासे पुत्र प्रसव्यो. वधामणीयाने वधामणी दीधी. तेनं पुण्यसार एवं नाम दीधुं. ते पुत्र अनुक्रमें रूप अने गुणें करी वृदिपाम्यो सर्व कला शीरख्यो, यौवनवयें एक व्यवहारीयानी धन्या नामें कन्या परण्यो. __ एकदा ते पुण्यसार; रात्रियें सुखें निशमां पोढयो , ते वखतें लक्ष्मी देवतायेंयावी कह्यु के हे पुण्यसार ! हुँ तदारे घेरावीश! पढी सुविहाण मां घरने चारे खूणे चार रत्नें नया सोनांना कलश रूपनिधान दीता. तेवारें पुस्यसारे जाण्युं जे देवीयें कयुं ते सत्य थयु. परंतु जो कोई उर्जनना वचनें राजा जाणो. तो अनर्थ ऊपजशे, माटे प्रथमथीज राजाने जाण करूं! एवं चिंतवीने राजानी आगल निधाननुं स्वरूप कयुं, ते जोवामाटें राजा पोतें पुण्यसारने घेर आव्यो.नंमार देखी विस्मय पाम्यो, तिहाथी कपाडी पोताना नंमारमा मूकाव्या. वली बीजे दिवसें पण तेमज प्रजातसमयें पु एयसारें चार नंमार दीना, अने राजानी बागल कह्यु. ते पण राजायें पुण्य सारना घेरथी मगावी पोताने मारे थाप्या. वली त्रीजे दिवसें पण पुण्य सारें तेमज चार नंमार दीठा अने राजा आगल कह्या, महारांज ! महारे घेर तेवीज रीतें वली पण चार नंमार थाव्या . ते पण राजायें पोताने Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. श्य मारें मूकंवानो दुकम करो. तेवारें प्रधान बोल्यो के महाराज ! तमें जे प्रथम बे दिवस निधान लावीन्नमारें मूक्या बे, ते याही मगावो. राजायें नंमारो ऊघडाव्यो, तेमां जीया तो निधान. दीठा नहीं, तैवारें राजायें क, ह्यं के एतोजेना पुण्यने योगें निधानं याव्या ने, तिहांज रहे. मदारी पासे रहे वाना नथी. में जेलोनाधीन थश्ने निधान आण्या, ते महारो प्रयास व्यर्थ . .पढ़ी राजायें ते नंमारगत 'व्य सर्वपुण्यसारने यापी नगरशेठनी पदवी दे वस्त्र, मुश्किा पहेरावी वाजिन वाजते गाजते परिवार सहित ते पुण्य सारने घरे पहोंचाड्यो. पडी पुण्यसारनु दिवसें दिवसें महत्त्व वृद्धि पाम्यु. पोतानी. लक्ष्मीथी पुण्यकार्य साधतो रहे डे. परंतु गांठ बांधे नहि.. एकदा ते नगरने उद्याने सुनंदनामें केवली जगवान् समोसस्या. तेमने राजा पोताना परिवार सहित तथा पुण्यसार शेत पण पोताना माता पि ता स्त्री सहित अन्यंजनोनी साथें वांदवा गयां. बांदीने बेठा. केवलीयें ध मोपदेश दीधो. पडी धनमित्रोवें पूब्युं हे जगवन् ! महारा पुत्रं पूर्वनवें गुं पुण्य कयुं , के जेनाथी ए लक्ष्मी,राज्यमान, सौजाग्य,महत्त्वने पाम्यो ? तेवारें गुरुये कह्यु के पूर्वे एहज नगरमां.धनकुमर शेठ हतो, तेणें गुरुनीपा सेंथीबावीश अनक्ष्यअने बत्रीश अनंतकायना नियमलीधा,सुपात्रोने दान दीधां, देव गुरु धने वडेरानी नक्ति विनय करतो, श्रावकधर्म पालतो, वृक्षा वस्थायें दीक्षा लीधी,सिद्धांत जण्यो,तपस्या करी,क्षमा नपर्शमादिक अनेक गुण पोताने विषे पाण्या, प्रांते अनशन ला यान पूर्ण करीत्रीजे दे वलोकें इंइ सामानिक देवता थयो, तिहां देवसंबंधी नोग नोगवी च्यवीने शेष थाकते पुण्ये तहारो पुत्र थयो. . पूर्वपुण्यने योगें ए लक्ष्मी महत्त्वा दिक पाम्यो . ए वात सांजली पुण्यसारने जातिस्मरण ज्ञान ऊपर्नु, पूर्व ला नव दीना. पनी कुटुंब सहित श्रावक धर्म आदरी पोताने घेर याव्यो. देवपूजा करे, नवकार गुणे, गुरुने वांदे, दान आपे, पनी पोताना पुत्रने योग्य जागी तेने घरनो नार सोंपी पोतानी शेठ पदवीय थापी पुण्यसा रें पोतें सुनंदनामें गुरुनी पासें दीक्षा लीधी. तेने निरतिचारपणे पाली दे वता थयो. तिहाथी च्यवी वली मनुष्य जन्म पामी मोदसुख पामशे ॥ ॥दोहा॥ जिण पूजे वंदे सुगुरु, नावें दान दियंत ॥ पुण्यसार जिम तसु घ रि, दि अचिंती हूंतः॥ १ ॥ इति महार्दिकत्वोपरि पुस्यसार कथा ॥३॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. ॥ हवें पांत्रीश तथा त्रीशमी शबाना उत्तर बे गाथायें करी कहे जे ॥ गाथा ॥ वीसन घायकारी, सम्ममणालोश्क पछित्ते ॥ जो मर अन्न जन्मे, सो रोगी जायए पुरिसों ॥५०॥ सब ररकणपरो, बालोश्य सयलपाव गणो य ॥ जो मरइ.अन्न ज़म्मे,सो रोगविवकिन हो ॥५१॥ नावार्थ:-जे मनुष्य विश्वासघात करे, अने. सम्यक् मने एटले सूधा मनें करी गुरु आलोयणा न लीये, ते पुरुष मरीने अन्यजन्में एटले नवां तरने विषे रोगीयो थाय॥५०॥ तथा जे पुरुष, विश्वासीनी रक्षा करवामां अग्रेसर होय अने पोताना करेला जे पापस्यानक होय, तें सर्वने साचे मनें थालोचे. एवी रीतें जे पुरुष करें, ते नवांतरने विषे रोगविवर्जित होय. नीरोगी होय ॥ ५१ ॥ ए बेदु पर अट्टणमननी कंथा कहे :___ उऊयणी नगरीयें जिसशत्रुराजा राज्य करे . तेने अट्टणमन नामें महामन ने हवे सोपारा नगरें सिंहगिरि राजा . ते वर्षोवर्ष मन्नयुक रावे , मनमहोत्सव करावे जे को जीते, तेने घणुं धन आपे, तिहां य ट्टणमन्न जश्ने बीजा मनोने जीती सरपावमां धन लश् घेर आवे. एकदा सिंहगिरि राजायें विचायुं जे उड़ायणीनो मन यावी वर्षोंवर्ष जीती जाय ते रुडं नहीं. माटें आपण एनो उपाय करीयें, पड़ी एक बलवान् महीने देखी राजायें तेने पोतापासें राखी मल्लयु८ शीखव्यु. मलीदा खव रावीपीवरावी पुष्ट कस्यो. पंजी मनमहोत्सवना दिवसें अट्टणमल्ने आवी युड़ कर तेने तरुण एवा माजीयें जीत्यो. राजांयें मानीने इव्य आप्यु. अ हण पाडो वट्यो तेणे सोरठदेशमां एक माहा जोरावर फलिहनामें कोली दीतो, तेनी साथें नाणुं परवीने तेने नऊयणीयें लश् गयो. तिहां तेने म नविद्या शीखावी. पडी सोपारा नगरमां परीदानी वेलायें तेडी आव्यो, तिहां सनामां मन महोत्सव संबंधि वाजिन वाजते, शंख पूराते, बंदिजन जय जय बोलते, फलिहमन अने माली मन ए बे मांहोमांहे जूझता, नाचता, माचता, हसता, एक बीजाने मुष्टिप्रहार देता, पंडता, चडता, मांदोमांहे पोतपोताने स्थानकें गया. तिहां अट्टणमल्ने फलिहमनने पूब्युं के तुऊने युद्ध करती थकां क्यांय अग खतां होय, तो कहे. तेणे पण साचे साचुं कर्पु, के अमुक अमुक अंग उखे . तेवारें बट्टणमल्ने फलिहमनने अन्यंग स्नान करावी तेनुं शरीर ताजु कराव्युं. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमटबा अर्थसहित. ១០១ हवे रांजायें:मानीमनने पूज्युं के तहारा अंग क्या उःखे में ? पण मा बीयें लाजने लीधे उःखवा- कांश कर्तुं नही, अने बीजे दिवसें सनामांहे सर्वलोक समद बेदु मनमुद करवा लाग्या, तिहां माडीमन थाक्यो. अने, फलिहमने तेनी ग्रीवा.मरडी मारी नारख्यो. तेथी फलिहमननो यश वि स्तार पाम्यो. अने बदीस पण मली. एम अट्टणमननी आगल ते यथास्थि त स्वरूप कही सुखीयो थयो, अने माजीमलें यथास्थित स्वरूप न कह्यु. ते थी कुःखी थयो: ए दृष्टांतें जे कोइ मुरुनी आगल साचं कही. आलोयणा लीये, ते अट्टणमन फलिहमननी पेठे सुखी थाय. नीरोगी थाय. अने ने को गुरुनी बागल आलोवतां लाजथी साचुं न कहे, ते • माबी मनमी पेठे रोगी.थको छःखी थाय ॥ उक्तं च ॥ पाप आलोवे आपणुं, गुरु आ गल निःशंक ॥ नीरोगी सुखिया हुवे, निर्मल जेहवो शंख ॥ १ ॥ ए आ लोयण ऊपर अट्टणंमन अने फलिहमलनी कथा कही ॥३६॥ ॥ हवे साडत्रीशमी टहानो उत्तर एक गाथायें.करी कहे २ ॥ ॥ गाथा ॥ लदु हबयाई धुत्तो, कूडतुला कूडमाण नंमेहिं । ववहर नियडि बहुलो, सो हीणंगो नवे पुरिसो ॥ ५५ ॥ नावार्थः-जे धूर्त, लघुलाघवी कलायें एटले हस्तादिलाघवें करी कूडा तोलें कूडा मापें करीने तथा कूकम कपूर मजीठ नेलसेल करी कूडाकरियाणे करी ( ववहर के ) व्यवसाय एटले व्यापार करे ( नियडिबदुलो के) निकतिबदु ल एटले मयावी थको घणुं पाप करे, ते पुरुष नवांतरने विषे जो मनुष्य थाय. तो पण हीणभंग वालो थाय. जेम ईश्वरशेठनो पुत्र दत्त एवे नामें हतो ते पूर्वै कूडां तोल, कूडां माप अने क्रूड करियाणांदिक करवाना पा पने परिमाणे हस्तादिक अवयवथी हीन थयो ॥५॥ तेनी कथा कहे . आशापूरणकल्पो , दिनेश्वरवरयुते ॥ देहि त्वं गौतम स्वामिन, वं दितः सुखसंपदम् ॥ १॥ दितिप्रतिष्ठित नामा नगरें आदिदेव ईश्वरनामें शेठ वसे , तेनी प्रेमला नामें स्त्री, तेने चार पुत्र थया, ते चारेने न णाव्या, परणाव्या, शेठ पोतें १६ थयो तेना घरमां घणुं इव्य बतां पण लोनने लीधे अनेक प्रकारना व्यापार करे, परंतु लक्ष्मी कोइने आपे नहिं कोक्ने दान देवानुं तो मनज न थाय ? एकदिवस शेत जमीने गोखें बेगे एवामां चोथा पुत्रनी स्त्री बहु Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IGG जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. “गुणवंती ने तेनी सुपात्रने दानदेवानी मति जे चतुर जे; जाण, ते स्त्री वासण धोवा मांजवा माटें घरथी बाहिर बांगणामां बेठी ने..एटलामां कोक नवदीदित शिष्य बात.वर्षनी नमरनो हतो, ते र्यासमिति शो धतो वहोरवा माटें शेठना घरने बारणे आव्यो, तेने देखी स्त्री कयुं ॥ दोहोशोरती ॥ चेला खरी सवार, धामणी वार न जाणीयें ॥ तुम. ल्यो अनथि आहार, अम्ह घर वासी जीमियें ॥ १ ॥ चेलायें कडं तो हुँ अन्यत्र निदा माटे जावं ? वढूयें कडं जेम मेल आवे तेम करो. पनी तेलो पण ते कृपणतुं घर मूकी अनेरे घर आहार लेवा गयो. • गोखमां बेळेला शेतजीये ते सर्व वात सांजलीने विचायुं जे ए बेहुनां वचन मलतां नथी, तेवारें वहूने बोलावीने पूज्युं जे वे पहोर शृया बतां, तमें चेलाने एम केम कह्यु के सवार , वली चेलायें कह्यु अमें बीहियें बैयें. तेवारें तें कह्यु अमारे घरें वासी जीमीय बैये पण आपणे घरे तो स वंदा नवीज रसवती नीपजे जे, अने सर्व कुटुंब सहित ताजी रसवती खा यें बैयें. परंतु टाहाढी रसोइ तो कोइ जमतुं नथी, तेम बतां तें चेलाने श्राम कर्दा, तेनुं कारण गुं? ते सांजली व बूंघट करीला आणती थकी कहेवा लागीके हे तातजी! सांजलो. में चेलाने कह्यं के तमें सवारी ए टले वहेली न्हानपणंमां दीक्षा केम लीधी? तेवारें चेले कडं जे धामणी वार न जाणीये ते दुं बीहूं. कारण के संसारं असार चे आयु अथिर ने, तेनी बीक लागे माटें धामणि वार न जाणीयें, एटले वेला केम गमावी यें? जेमाटें जीवितव्य वीजलीना ऊबकारा सर जे. वली में कडं जे य मारे घेर वासी जमीयें .यें. तेनो अर्थ आम जे के अमें पाबले नवें दान पु एय कीधांडे तेने योगें ऋदि मली ,परंतु ा नवमां दान पुण्य का करता नथी माटे नकी उपार्जन कांऽ थती नथी, तेथी वासी नोजन करीयें बैयें. ए वचन सांजली शेवें वहूने माहाबुद्धिमान् जाणी हर्ष पाम्यो थको क हेवा लाग्यो के महारी या वढू,सदु वढूरोथी न्हानी ले परंतु बुधियें करी सर्वमां अग्रेसर ३ माटें एने हुं महारा कुटुंबमां महोटी करी थापुं बु. तो हवे महारा सर्व कुटुंबीजनोयें एने पूीने कामकाज करवू,एवी अरज्ञा करूं बूं. वली शेतने ते दिवसथी दान देवानी बुद्धि पण थइ. . केटलो एक काल वीत्या पनी वली शेठने पांचमो पुत्र थयो. तेनुं दत्त एवं Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एनए . श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. नाम पाडयु.परंतु तेने हाथ पग नथी हीणंगो ,ते जेवारें यौवनवयं प्राप्त थयु, तेवारें लोक तेनी हांसी करे,वैयें तेलमर्दनादि अनेक उपचार कस्या,पण जेम पुढीनने उपगार करीयें,ते गुण न.करे,तेम एने पण कांश गुण थयो नही. शे अनेक उपचारो करीघj श्व्य वरच्यु, षणं पुत्र जेवो हतो.तेवोज रह्यो. __एकदा बे मुनीश्वर निक्षयें याव्या, तेमने वांदीने शेठे पूब्युं के महा राज!.महारो पुत्र सारो.थाय, तेवू औषध कहो. गुरुयें कह्यु जीवने रोग बे.प्रकारना थाय ने एक इव्यरोग अने बीजो जावरोग. तेमां पहेला इव्य रोगनो प्रतिकार.तो वैद्य जाणे ने, अने बीजा जावरोगनो प्रतिकार अमा रा गुरु जाणे . ते हाल आ गामनी बाहेर वनमां आव्या , तेमने पू बो. ते वान्त सांजली शेठ पण वनमां गयो. तिहां गुरुने वांदी पूबवा ला ग्यो के महाराज ! महारो दत्तपुत्र अंगहीण , ते को रीतें सारो थतो नश्री. तेनुं गुं कारण ? तथा इव्यरोग अने नावंरोग ते कोने कहीयें ? ते वारें गुरु बोल्यो जे राग शेपें करी मानां कर्म नपार्जन करीये ते नावरोग क हीये,अने ते कर्म उदय आव्याथी,जे विपाकें जोगवी ते इव्यरोग जाण वो. तिहां नावरोग मटी गयाथी व्यरोग-पण जाय.तप,संयम,दया कानस्स ग्गादिक क्रियायें करीनावरोग जाय,नावरोग गयो,तो व्यरोग पण जाय. __ था तहारा पुत्र पूर्वनवें हाटें वे लोनें करी लोकीने वंच्यां , कूडे तोलें कूडे मापें करी व्यापार कीधो , सरस नीरस वस्तुने नेल संनेल करी वेहेची जे. एम घणां पाप कीधां छे, परंतु एक वार साधुने दानं दीधुं बे, ते पुण्यने योगें करी तहारे घेर 'पुत्रपणे ऊपनो के. एणे हाथें करी कू ड कपट बलनेद करी मुग्ध लोकोने वंच्यां , तेणें करी हाथ रहित थयो बे. एवी वात गुरुना मुखथी सांजली शेठे तथा दत्ने बेदु जणे मलीने श्रा वकधर्म अंगीकार करो. दत्तं नियम लइ माया मूकी नवकारमंत्र स्मरण कयुं, ते स्मरण करी देवलोके गयो, माटें यहो लोको ! म वंचो, म वंचो. एक पुग्यज संचो. संचो ॥ इति हीनांगें दत्तकथा समाप्त ॥ ३७॥ हवे आडत्रीशमी अने उगणचालीशमी एबाना उत्तर एक गाथायें कहे जे. ॥ गाथा ॥ संजम जुाण गुणवं;तयाण साहसील कलियाणं ॥ मू उ अवस्म वाए, ए टुंट पहिवाएण ॥ ५३ ॥ नावार्थः-जे जीव, संय म युक्त दमादि गुणवंत,शीलें कलित एटले शीलें करी युक्त एवा जे साधु Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Iსთ जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. महात्मा सेमना (अववार के० ) अवर्णवादने बोले, एठले उता दोष बोले, निंदा करे; ते जीव नवांतरें (मू के ५) मूक ते बोबडो थाय. तथा जे जीव पगना प्रहारें करी साधुने (घाएणं के०) : घा करे एटले पाटु मारे, ते जीव जवांतरें टूटो थाय ॥ ५३ ॥ जेम वडावासी देवशर्माना पुत्र निशर्मा ये महात्मांनी निंदा कीधी, तेणें करी ते मूक थ्र्यो थने साधुने ढीकां पाटु ना प्रहार करा तेथी तेहीज नवें तेने• देवतायें शिक्षा दीधी. त्यांथी मरी नर कें गयो. नवांतरें हीनकुलमां पासड नामें इंटो थयो . तेनी कथा कहे : face नगरे देवशर्मा नामें ब्राह्मण चौद विद्यानो निधानं बे, तेने थ शर्मा नामें पुत्र थयो, ते घणां शास्त्र जल्यो, ज्योतिष शास्त्रमां निपुण थयो, तेथी पोताना मनमां घणो अहंकार खाणे. धर्मवंतनी गुणवंत नी चारित्रयानी निंदा करे, तेमना दोष बोले, तेने बापें शीखामण दी धी, के हे वत्स ! जातिकुलनो मद न करीयें. माह्यों मनुष्य गर्व करे न ही, कोइनी निंदा न करे. इत्यादि समजाव्यो पण. जेम कागडाने दूधथी धोतां कज्ज्वल न थाय, तेम ए पण पोतानो स्वभाव मूके नही. एकदा घणा साधुना परिवारें परवस्था थका एवा ज्ञानी गुरु तिहां या व समोसा तेमने नगरनां लोक सर्व वांदवां गयां, ते गुरुनो महिमा दे खीने शर्मा खीज्यो थको लोकोने कहेवा लाग्यो के ए पाखंमी महा त्मानी पूजा भक्ति करवाथं । गुं थाय ! ए वेदत्रयीथी बाहार बे. एक वार ते ब्राह्मण, घणा ब्राह्मणलोकोने देखतां थकां गुरुनी सायें वा द करवा माठें खायो ने कहेवा लाग्यो के तमें कु अपवित्र ने नि बो, तेम बतां लोको पासें पूजा करावो बो, ते शा माटें करावो बो ? जे माटें वेदना जाण एवा पवित्र ब्राह्मणने दान खापे, तेनी पूजा करे तो जीव स्वर्गे जात. में यज्ञ करीने बाग जेवा जनावरोने पण स्वर्गमां मो कलीयापीयें यें ! एवी रीतें बोलवा लाग्यो, तेने एक शिष्यें कंधुं के तुं प्रथम महारी सार्थेज वाद कर. ढुंज तहारा प्रश्नोनुं उत्तर श्रापुं बुं, ते सांजल. प्रथम तुं कहे बे के तमें कुड् बो, खमेंज ब्राह्मण बैयें, ते तहारुं बोलवु युक्त, जे माटें कयुं बे के ॥ श्लोक ॥ ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण यथा शि ल्पेन शिल्पकः ॥ अन्यथा नाममात्रं स्या, दिंड्गोपककीटवत् ॥ १ ॥ एव चनथी एम कीधुं जे ब्रह्मचर्य पाले, ते ब्राह्मण कहेवाय. केनी पेठें ? तो Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगोतमप्टला अर्थसहित. . २१ के शिल्पीना गुखें करी जेम शिल्पक कहेवाय.जो तेम ब्रह्मचर्य म होय तो इंश गोपकीट समान ते व्यर्थ बाह्मण जाणवो.. ... वली तुं कहे के के तमें शौच डो. ते.पण असत्य कहे . जेमाटे स्नान करी पाणी ढोली अपायं जीवोने.विराधवाथी कांई शौचपणुं थ तुं नश्री, जो स्नान कीधाथी शौचता थाती होय तो पाणीमो रहेला माल लां सर्व सदैवं स्नानज करे जे ते सर्व तहारा कहेवा प्रमाणे पवित्र थवां जोय. परंतु मनःशुद्धिविना शौचपणुं यतुं नथी मननी शुधियेंज शोचता कंही २॥ यउक्त पुराणे ॥ श्लोक ॥ चित्तमंतर्गतं उष्टं,तीर्थस्नानैर्न शुध्यति॥ शतशोथ जलधौतं, सुरानांममिवाशुचि ॥१॥किं च॥ सत्यं शौचं तपःशौचं,शौ चमिश्यिनिग्रहः॥ सर्वनूतदयाशौचं,जलशौचं च पंचमम् ॥२॥चित्तं रागादि निःक्लिष्ट,मलीकवचनैर्मुखं ॥जीक हिंसादिनिकायो,गंगा तस्यपराङ्मुखी॥३॥ नावार्थः-जेनुं अंतःकरण उष्ट बे, तेवो पुरुष, स्नानथी शुद्धथतो नथी. केनी पेठें तो के जेम हजार वखत जलथी धोयेलु मदिरानुं पात्र शुरू थातुं नथी. वली प्रथम सत्यरूप शौच, बीजुं तपरूप शौच,त्रीजुं इंडियना निय हरूप, चोथु. सर्व नूतपर दयारूप शौच अने जलशौच तो वटनुं पांचमुं शौच . तथा जेनुं चित्त रागादिकें करी क्लिष्ट , खोटुं बोलवाथी जेनुं मुख अपवित्र ने, तथा जीवहिंसादिकथी काया जेनी अपषित्र में, तेवा पुरुषने गंगा पण पवित्र करती नथी.अर्थात् गंगा पण तेमनाथी पराङ्मुखी . वली कडं ने के॥ श्लोक॥आत्मा नदी संयमपुस्यतोया, सत्यावहा शीलक्यातटो मी॥तत्राभिषेकं कुरु पांमुपुत्र,न वारिणा शुद्धयति चांतरात्मा॥१॥नावार्थ:श्रीकृष्ण कहे जे, के हे पांमुराजाना पुत्र अर्जुन! संयम अने पुण्य ते रूप जलें करी युक्त, अने सत्यरूप जेनो प्रवाह . तथा शील अने दया ते रूप जेनां बे तट ने, एवी आत्मारूप नदी के तेने विषे तुंअनिषेक कर, अर्थात् तेमां स्नान कर. परंतु जलें करी अंतरात्मा कोइ दिवस पण गुम थातो नथी. वली तें कयुं के तमें निर्गुण बो, ते पण तहारुं बोलवू अयुक्त जे. जे माटें दमा, दया अने क्रिया प्रमुख अनेक गुणों पण प्रत्यद अमारामां दे खाय बे; तोनिर्गुणी केम कहेवायें? ॥ उक्तं च॥ चित्तं समादिनिः शुई, वदनं सत्यनाषणैः॥ ब्रह्मचर्यादिनिः काया, गुदा गंगांनसा विना ॥१॥ना वार्थः-समादिकें करी चित्त शुद्ध थाय , सत्यनाषणे करी वदन शुक्ष थाय Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएश . जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. जे. ब्रह्मचर्यादिकें करी काया शुक्ष थाय जे एम गंगाना जल विनाज ते पू ोक्त सर्वशुम श्राय जे. परंतु गंगाजलथी ते कांश शुक्ष थातुं नथी. .. वली तुं करेले के तमें लोको पासें पूजा करावो बो. ते पण तें सत्य कयुं नथी जे माटें कयुंजे के॥ श्लोक ॥धूजां ह्येते जनाः स्वस्य,कारयति न जातुचित् ।। स्वयमेव जनः किंतु, गुणरक्तः करीति तत् ॥ नावार्थः-लोको जे अमोने पूजे जे, ते स्वयमेव एटले पोतानी.मेलेंज अमारामां गुणो जोइने पूजे जे.कारण के जन , ते गुणरत्नयुक्त जे. अर्थात् सर्व माणस जो गुण जोए ने तो पूजे. पण एमां कां नवाइ नथी. तथा तें कर्तुं के ब्राह्मणनी पूजा करनारो स्वर्ग जाय , ते पण अस त्य ले. केम के ब्राह्मण तो अपवित्र, अब्रह्म सेवनारा, खेती करनारा, घर मां गाय नेंशादिक पशु तथा बोरु वाबरुने राखी तेनुं पालन करनाराडे, तेमज रीशाल अने निर्दयी होय ,माटें तेने पूजवायी स्वर्ग प्राप्त न थाय ? . वली तें कह्यु के अमें यज्ञमां बागनो वध करी स्वर्ग मोकलीयें बैयें, ए वा पुण्यात्मा बैये! ते पण तहारं बोलवू असत्य . जे माटें तहाराज शा स्त्रमा कडं जे के ॥श्लोक। यूपं हित्वा पगून हत्वा,कृत्वा रुधिरकर्दमम्॥ यद्यैवं गम्यते स्वर्ग, नरके केन गम्यते ॥१॥नावार्थः-यूपने बेदीने, पगुने मा रीने जयंकर हिंसाथी-लोहीनो कचरो करीने ज्यारें स्वर्गमां जाय, त्यारें पड़ी नरकमां कोण जाय? अर्थात् को जायज नहिं. एवी युक्तिये सर्व नगरनां लोक देखतां थकां शिष्ये अग्निशर्मा ब्राह्मणने हराव्यो, तेथी ब्राह्मण रोपे जयो थको पोतीने घेर जतो रह्यो..पनी रात्रिय एकलो वनमांहे आवी सर्व साधु निडामा हता, तेमने पाटुप्रहार दीधा, मुष्टियोना प्रहार दीधा, तेने वनदेवतायें हांक्यो पकड्यो. पनी तेना बेतु पग शक्तियें करी द्या. तेनी पीडाथी टलवलतो प्रनातें लोकोयें दीठो,तेनुं स्वरूप सर्व लोकोने जाणवामां आव्युं. तेवारे सर्व तेनी निंदा करवा ला ग्या. एवी रीतें साधुननीयर्वज्ञा करी, ते पापीष्ट मरीने पहेली नरकें जय नारकीपणे ऊपनो, तिहाथी निकली को दरिडीने घेर पासड एवे नामें पुत्र थयो. तिहां पूर्वकृत कर्मने दो करी मूक थयो. ढूंटो थयो. जन्मतांज माता मरी गइ, अने जेवारें आठ वर्षनो थयो, तेवारें तेनो पिता देवशर ण थयो. लोकोनुं दासपणुं करी पेट नरवा लाग्यो..सर्व जनोने अगम Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ . श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. तो थयो थको वली पण संसारमाहे घणो रमल्यो ॥ इति अग्निशर्माकथा ।। हवे चालीशमी टंचाजो उत्तर एक गाथायें कर। कुहे जे. __॥ गाथा ॥ जो वाह मिस्संसो, बाउवायपि उरिकयं जीअं ॥ सीयंतगत संधि, गोयम सो पंगुलो हो ॥ ५४॥ . नोवार्थः-जें पुरुष निःशंकपणे अथवा निःस्तूंश एटले निर्दयं बतो र पनादिक जीवनी उपर नार नाखीने खेडे (वाह के०) जार वहावे तेथी बात एटले जेमनां अंग त्रूटी गयां ,उहात एटले जेमनो संचोज श्वास ने 'अने शरीरनी संधियो जेनी कुःखित ले एवा मुखिया वृषन कर्मकरादिक जीवोने जे सुखी करे. हे गौतम! ते जीव मरीने पांगलो प्राय. जेम सुग्रा मवासी दालु'कर्षणीनो पुत्र कर्मण नामें हतो,तेणें पूर्वला नवमां बलंद अने हालीने घणा नूरख्या तरस्या राख्या तेथी पांगलो थयो. तेनी कथा कहे जे. . सुग्रामग्रामें हालुकर्षणी , ते दयावंत संतोषी जे. चारा पाणीनो वख तं थाय एटले हल खेडनार हालीने लथा बदलने बोडी चारो पाणी आपे, कदा कालें चारो पाणी हाजर न होय तो पोते पण जमे नही, एवो नियम करेलो ने. तेनी हेमी नामें स्त्रीने, ते सरतचित्तवाली ले तेने कर्मण नामें पुत्र थयो, ते पूर्वकत कर्मे करी रोगियो पांगलो थयो . ते ज्यारें महोटो थ यो, त्यारे खेत्रनी चिंता करवा माटें बलद पर बेसीने खेत्रमा जाय,जा ते घणो लोनी ने माटें तेना बाप करतां त्रिगुणी जूमि खेडावे, हाली त था बलदोने खावानो वखत थाय तो पण तेने बूटा करे नही. चारह पाणी नी चिंता राखे नही. तेणे वर्षोवर्ष कर्षण करतां जे जे पाबले वर्षे धान्य नीपजतुं हतुं; तेथी आगले आगले.वर्षे धान्य नळू उलूं नीपजंवा लाग्यु तेथी अनुक्रमें निर्धन थइ गयो. तो पण ते पापकर्म करतो रहे नही. __ एकदा ज्ञानी गुरु आव्या तेमने वांदवा माटें गामना लोकोनी साथें ए पिता पुत्र पण गया. गुरुने पितायें पूज्युं के महाराज ! कया कर्मने यो में आ महारो पुत्र रोगीयो, पांगुलो अने निर्धन थयो जे? तेवारें गुरुयें क युं के एवं पूर्वले नवें कर्षण करतां नूरख्या तरश्या बलदोने वाह्या बे. तेम नी संधिने घा दीधा ले, मास्या जे. अंतें पश्चात्ताप कीधो, तेथी मनुष्यपणु पामी तहारो पुत्र थयो , एवी गुरुनी वाणी सांजली हलखेत्रना पाप आलो बा दीक्षा लीधी अने कर्मणे श्रावकधर्म आदस्यो,आयु पूरण करी Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए४ - जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. 'वेदु देवलोकनां सुख पाम्या. ए निर्दयता कपर कर्मणहालीनी कथा कही ॥ हवे एकतालीशसी तथा बेहेंतालीशमी प्रजाना उत्तर,बे गाथायें कर कहे जे:. ॥ गाथा ॥ सरल सहावो धम्मि, व माणस जीव ररकण परोय ॥ देव गुरुसंघनतो, गोयमवस्सियो हो ॥ ५५ ॥ कुडिलसहावो पाव, प्पि अजीवाण हिंसण परोष ॥ गुरु देवय पडिणी, अचंत कुरूव हो ॥५६॥ नावार्थ:-जे पुरुष बत्रदंनी पेठे सरलस्वनावी होय अने धर्मने निषे जेनुं चित्त होय तथा जे मनुष्य जीवनी रक्षा करवामां तत्पर.होय तथा जे. देव, गुरु अने संघनी नक्ति करवामां तत्पर होय, हे गौतम ! ते जीव रूप वान थाय ॥५५॥ तथा जे जीव स्वनावें कुटिल होय एटले कुटिलस्वनावी होय अने पापप्रिय होय, एटले तेने पाप करवुज गमे, अने जीवनी हिंसा करवामां तत्पर होय, तथा देव बने गुरुनी ऊपर क्षेष. वहे,देवगुरुनो प्रत्य . नीक होय ते पुरुष मरीने अत्यंत कुरूपवंत थाय ॥५६ ॥ जेम पाटणम गरमां देव सिंहशेठनो-पुत्र जगसुंदर सर्वलोकोने मन गमतो रूपवंत थयो. अने तेनोज बीजो ना असुंदर हतो.ते कालो कूबडो उन गी फुःस्वर लंब कंठो, महोटा पेटवालो, कुरूपो थयो. ए वेदुनाश्नी कथा कहे : पाटण नगरें देवसिंहशेठ धनवंत वसे ले. तेने देवश्रीनामें स्त्री जे, ते स रल अने स्नेहाली ले. तेणे एकदा पाउली रात्र एक आंबानो वृद शाखा माल फूलें नरेलो आकाशथी कतरतो पोताना मुखमांहे संचरतो स्वप्नामां दीतो. एटलामां जाग्रत थइने पोतांना भरतारने ते सुपनानी हकीगत कही. जरतारें सांजलीने स्त्रीने कह्यु के तुझने फलवंत गुणवंत आंबानी पेठे अनेक जीवोनु थाधारनूत एवं पुत्ररत्न थाशे. ते सांजली स्त्रीयें हर्षवंत थ. अनुक्रमें पूर्ण दिवसें लदणवंत रूपवंत पुत्र जन्म्यो. तेना पितायें वधामणां कीधां कुटुंब जमाडी. दीघां वस्त्रने साडी. हरख्यां बापने माडी. एनुं जग सुंदर नाम यथागुणे दाधुं. शेग्नुं वंबित काम सीधुं. नीसालें नएयो. क ला शीख्यो, जाग्य, सौनांग्य, विनय, विवेक, चातुर्य, औदार्य, गांनीर्य, धैर्यादिक गुणवंत थयो. ते यौवनवय पाम्यो तेवारें तेणें अनेक कन्या साथें पाणिग्रहण कीg, देव गुरु संघनी नक्ति करे, जिनधर्म धादरे, दान देश पुण्यनंमार नरे, दीन उःखीनो उधार करें, एवो गुणवंत ते कुमार थयो. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमष्टचा अर्थसहित. शल्य वे व एकदा देवश्रीयें शेषरात्रियें दवदग्धवृक्क मुखमां पेसतो सुप नामां दीवो, मातुं सुपनुं जाएी जरतार यागल कह्युं नही, अनुक्रमें कालो, चीडो, दंतालो, तुकान वालो, जेनुं हेयुं,, पेट, स्थूल, बाहु जेनी हूंकडी, जांघ लांबी, शरीरें घणां रोम, डुंगी, दुःस्वर, एवो पुत्र प्रसव्यो लोकोयें तेनुं रूप देखी सुंदर एवं नाम यप्युं. ते पुत्र मूर्ख धर्महीन थयो. पापें कूड़ो, कोइ न कहे रूडो, एवो डुर्नामी थयो. तेथी तेने कोइ केन्या थापे नही. इव्य खापवा मांमधुं तो पण कोइ कन्या खापवा कबूल ययो नही. वारे पितायें कयुंके हे वत्स ! तें पूर्वजे नवें पुण्य कीधुं नथी, तेथी यावो कुरूप थयो बो. ने वांबित पामतो नथी माटें हमणां धर्मकरशी कर. एवी, शीखामण दीधी, तो पण तेने धर्म करवानी इवा थर नही. • एकदा ते नगरे चार ज्ञानना धणी एवा सुव्रतनामा श्राचार्य यावी सुमोरया तेमने देवसिंहें पुत्रो सहित जइ वंदना करी. गुरुयें धर्मोपदेश दीधो, ते सांजली जेम मेघगरिव सांजली मोर हर्ष पामें, तेम सर्व हर्ष पाम्या. देशनानंतर शेतें पूजयं के हे भगवन् ! महारा वे पुत्रो बे, तेमां एक महोटो पुत्र गुणवंत सोनागी पुण्यवंत थयो ने बीजो लघुपुत्र इष्ट र्ना पापरुचि मागे थयो. माटे तेणें गुं पुण्य पाप कस्यां हशे ? ते कहो. गुरुकवा लाग्या के हे शेव ! एहीज नगरें या नवथी पाउले त्रीजे नवें ए क जिनदत्त एवे नामें वलिक रहेतो हतो, ते सरलस्वनावी जीवरक्षा कर वामां सर्वत्र प्रसिद्धि पाम्यो. वली देव गुरु ने श्रीसंघनी भक्ति करवामां पण अग्रेसर. हतो. तेथी सर्वलोको तेनां वखाए करवा लाग्यां. वली तेहीज नगरमा एक शिवदेव नामें वणिक महामिथ्यात्वी रहेतो हतो, ते देव गुरु ने संघ ऊपर द्वेष राखी तेमनी हांसी करे मनमां कूड कपट राखे ते यद्यपि जिनदत्तनो मित्र हतो. तथापि जीव हिंसा करतो रहे. ते मिथ्यात्व मरीने पहेली नरकें गयो ने जिनदत्त श्रावक मरीने पहेले देवलोके देवता थयो. तिहां देवतानां सुख जोगवी आयु पूरुं करीने तहारो ज सुंदर नामा महोटो पुत्र थयो ने शिवदेवनो जीव नरकथी निकली त हा सुंदर नामें न्हानो पुत्र थयो बे. एने देवगुरु ऊपर द्वेष हतो निर्द यी हतो, तेथी कुरूप थयो बे. हजी पण धर्मद्वेषी बे, माटें घणो संसारन म करशे. एवी गुरुना मुखथी पूर्वनव संबंधी वात सांजलतां सुंदरने Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए . जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. जातिस्मरण झान कपनु,तेथी हर्ष पाम्यो. घणो काल श्रावकधर्म आराधी अंतें दीदा लामोदसुख पाम्यो ॥ इति देवगुरु अने श्रीसंघनीनक्ति ऊपर जगसुंदर थने त्यसुंदरनी कथा॥ ४२ ॥ हवे तालीशमी टानो उत्तर एक गाथायें करी. कहे जे. . ॥गाथा॥ जो जंत दंम कस रकु,खग्ग कुंतेहिं कुणइ वियणा ॥ सो पावो निक्करुणो, जायश् बहु वेयणो पुरिसो ॥ ५७ ॥ . जावार्थः-जे पुरुष यंत्र, लाकडी,दंम,परोणा,काश,रकु ते नाडी,दोरी.खड्ग, ते खांमा;कुंतणा,अने जा ल, इत्यादिक हथीयारें करी अनेरा जीवोने वेदना करे, ते पापी निर्दयी पुरुष जन्मांतरें घणी वेदना पामे ॥ ५७ ॥ जेम मृगगामें विजयराजानी मृगाराणीनो पुत्र लोढो एवे नामे हतो, तेणें पाबले नवें घणागाम ऊपर अधिकारी होवाथी घणालोकोने अत्यंत मुखी कयां. तेथी तेहीज.नवमां तेने जलोदर कोढ प्रमुख शोल माहारोग ऊपना. मरीने पहेली नरकें गयो. तिहाथी लोढाने नवें नपुंसक थयो. पांचे इंडियोथी रहित अत्यंतवेदना ख मतो महा कुःखी थयो, तेनी कथा कहे : एहीज नरतदे। मृगगामें विजयराजा हतो. तेनी मृगावती राणी . तेमने संसार सुख जोगवतां घणो काल वीत्यो. एकदा श्रीमहावीर तीर्थकर विहार करता जव्यजीवोने प्रतिबोध देता श्रीगौतमस्वामी प्रमुख अनेक साधुना परिवारें परवस्याथका तिहां समो सस्था. देवतायें त्रण गढनी रचना करी आग्रल फूलपगर नस्या. बार पर्षदा मली परमेश्वरनी वाणी सांजलवा बेठी. एवा अवसरें एक जात्यंध पुरुष जातें कोढीयो , तथा हाथ पग नाक आंगली, सर्व गली गयां , उःस्वर उर्जग एवो ते लोकें निंदातो थको तिहां समोसरणमांबाव्यो. तेने देखी गौतमस्वामीयें परमेश्वर प्रत्यें पूछु के हे जगवन् ! ए जीव कया अशुन कर्मने योगें महापुःखी थयो. ? जगवानें कह्यु एवं पूर्वनवें घणां पाप कर्म कस्यां ,तेथी दुःखीयो थयो .वली गौतमस्वामीयें पूज्युं के महारा ज! ए जीवथी पण हजी अधिक फुःखीयो जीव कोइ हशे ? के जेने देखी लोक उगंधा सूग करे, निंदे,काहाढी मूके ! जगवान् बोल्या के हे गौतम ! एज गामना राजानो पुत्र जगतमा अत्यंत दुःखीयो , जे माटें ते बहेरो पांगलो नपुंसक बे. हाथ,पग,आंख,कान,नाक,चकटी,मुख,एमांनां अंग तो Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना अर्थसहित. ए तेने कां जनंही. जेंनी बाउ नाडी, मांहि वहे जे अने आठ नांडी, बाहिर वहे .आउ नाडी लोहीनी अने पाठ परूनी वहे .माहाधित ने, शरीर लोढो ने,सदैव लोमें करी आहार लिये . ते इहांज नरकनां पुःख नोगबे बे.. ते सांजली गौतमस्वामीने कौतुक कंपन्यु, तेवारें तेने जोवा माटें कहे वा लाग्या के हे स्वामी ! तमें आज्ञा आपो,तो हुँ तेने जो बाई. परमेश्वरे आज्ञाधापी गौतमस्वामी राजाने घेराव्या. राजा राणी बेदु हर्ष पाम्यां. राणी बोली मालाराज ! आज अमारा ऊपर अनुग्रह कीधो. श्री गौतमजी मुंगावती प्रत्ये बोल्या के तमारो पुत्र.महारे जोवो जे. तेवारेंराणायें पोताना चार पुत्र जे गुणवंत हता, तेने तेडीने गौतमस्वामीने वंदाव्या, श्री.गौतमें धर्मलान.दीधो. वली राणीयें कडं के आज अनुग्रह कीधो. तेवारें श्री गौतमें मृगावतीने कर्तुं तमारो जे शिलासरिखो पुत्र , ते ढुं जोवा था व्यो .राणी बोली के हे नगवन ! ते पुत्र तो कोई न जाणे तेवी रीतें अमें नोंयरामांहे बानो राख्यो ,ते तमें शी रीतें जाएयु ? श्रीगौतम बोल्या अ मारो स्वामी श्रीमाहावीर , ते सर्वज्ञ , तेमना कहेवाथी जाए. त्यारें राणीयें कह्यु के हे जगवन् ! रोक पडखो, तो जोजन वेलायें वस्त्रानरण मूकी गाडलीये आहार घाली जोयरे जश्लं, त्यारें तमने तेडी जर देखा डगुं. पड़ी राणी गांडी ला श्रीगौतमस्वामीने तेडी जोयरामा गइ. तिहां गौतमप्रत्ये कह्यु के हे जगवन् ! इहां उग्रगंध ,माटें मुहपंत्तियें मुख ना क बांधीने अंदर आवो. तिहां ज़र नोयरानुं कमाड घाडयुं. त्यारे तिहां खाधेलुं अन्न पण पाचं वले, एवों धुगंध आववा मांमयो. राणी सादरीपा परी तेनी ऊपर आहार मूकी लोढाने ऊपर लइ आवी. तेणें आहारसंशाथी रोमें करी आहार लेवा मांझयो, तेवोज ते आहार पर थश्ने निकलवा लाग्यो. एवं उःख जोइ राणीने वंदावी. श्रीगौतमस्वामी महावीर पासें पाना आवी कहेवा लाग्या के जेहबुं कुःख तमें कह्यु, तेवुज में दी, माटें हवे कहो के एवं मु महोटुं पाप कयुं हशे,के जेथी ए एवो दुःखी थयो ? प्रनु कहेता हवा हे गौतम! कृतधारी नगरें धनपतिराजाने विजयवर्ड न गोदेड ने, तेने पांचों गाम आव्यां, तेनी संजाल माटें एक राठोड अधिकारी करी मोकल्यो, ते राठोड रौपरिणामी दुश्बुद्धि महापापकर्मा . , पांचशे गामनी चिंता करे, अधिका कर लीये, नवा कर बेसाडे, लो Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. कोने कूडाँ आल थापी अन्याय थापी दंम करी निईव्य कीधी, अधिकी उनी वात करी लोकोने ताजणे करी ताडना करे,बांधीने मार आपे, ऊक लंबे,उहवे. एवी रीतनां वली बली पाप करतो रह्यो. तेथी तेज नवमां तेने कास, श्वास, ज्वर, दाह, कुखशूल, जर्गदर, हरस, अजीर्ण, आंखवेदना, कानवेदना, पूंतशूल, खस,कोढ,जलोदर,वेग अने वायु,ए शोल महारोगक पन्या,तेणें करी अति उपश्व पाम्यो थको धार्तरोऽध्यान धरी मरण पामी पहेली नरकें गयो. तिहां बेदन, नेदन, ताप, ताडनादि अनेक कष्ट, सहन करी तिहांथी निकली विजयराजानो पुत्र थयो . नपुंसक,दुःखीयो घणी वेदनायें पीड्यो थको जे. एणे एक जवने पा करी घणां सुःख दीनं ॥इति अकृत्य करवा ऊपर मृगापुत्रनी कथा ॥ ५३॥ हवे चुम्मालीशमी पडानो नत्तर, एक गाथायें करी कहे जे. ॥ गाथा ॥जे सत्ते विधगत्ते,मोबाव बंधणा मरणाकारुम पुरा हियउ, णो असुहा वेयणा तस्स ॥ ५ ॥ नावार्थः-जे पुरुष पीडायुक्त एवा (सत्ते के०) जीवोने (बंधणा के०) सांकल बंधनरूप (वियणत्ते के) वेदनाथकी तथा (मरणा के०) मरण थकी (मोआवश् के०) मूकावे , (कारुणपुरम हिय के०) दयायेंकरी पूर्ण एवं डे हृदय जेनुं एवां जे होय (तस्स के०) ते जीवने नवांतरें कोइ पण (असुहा के०) असुहामणी एवी (वेयणा के) वेदना न होय ॥५७ ॥ जेम सुप्रतिष्ठित नगरें चंदननामें शेठ मिथ्यात्वी हतो, पनी दृढ प्रतीति वालो श्रावक थयो, तेनो पुत्र जिनदत्त हंतो, ते सर्वकोश्ने अनीष्ट वन्नन थयो. अत्यंत सुख पाम्यो, ते चंदनशेत अने जिनदत्तनी कथा कहे :__ सुप्रतिष्ठित नगरें चंदननामें व्यवहारीयो वसे ले. ते मिथ्यात्वी, परं तु परिणामें नश्क , तेनी वाहिणी नामें स्त्री जे. एकदा शांत, दांत, गु णने धरता धर्मवंत क्रियावंत,एवा वे साधु तेने घेर आव्या. तिहां प्राशुक उपाश्रय जाणी शेतनी आशा ल तेमां रह्या, ते साधुना संसर्गे शेत त था तेनी स्त्रीयें जिनधर्म पामीने व्रत पञ्चरकाण नियम लीधा. तथा साधु उना संसर्गथकी शेवनी गोत्रदेवी पण सम्यक्दृष्टिवाली थ६. • हवे ते साधु, अन्यत्र विहार करी गया, शेठ पोतानी स्त्री सहित पहे लुं व्रत बाराधवा लाग्यो. परंतु गृहस्थरूप वृदनुं फल जे पुत्र, ते शेग्ने Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमष्टचा अर्थसहित. नथी तेणें करी शेठ शेठाली, बेडु चिंतातुर रहे बे पढी पुत्रने " कुलदेवी नी · रामना करवा माटें कंकू, कपूर, सुखड बने फूलें करी कुलदेवीने पूजे, नूमियें शयन करे, तपस्या करे. एम करतां कुलदेवी प्रसन्न थर, प्र त्यक्ष खावीने कलेवा लागी के हें शेत ! जेतुं माग, ते तुमने हुं च्यापुं. तेवा शेठें पुत्र माग्यो गोत्रदेवीयें चिंतव्युं जे प्रथम तो ए शेठें जे साधुपासेंथी पहेलुं व्रत लधुं बे, ते साधुं पाले ले के नथी पालतो ? धर्ममां दृढ बे, के नथी ? तेनी परीक्षा करूँ. एम मनमां विचारीने देवी कहेवा लागी के हैं शेव ! तुं जो जीववानी वांछा करतो हो, तो एक जीव मारीने तेनुं न लिदान मुकने श्राप तो हुं तुमने पुत्र यापीश ! यने जो तेम नहिं क रीश तो नमने स्त्री जरतार वेदुने कुशल नथी. ते सांजली शेतें कयुं के तुं एम कांबोजे बे ? जेमाटें जलो. पुरुष जे होय, ते कांइ लीघेलो नियम नं करे नही, मैं तो प्राणातिपातनो नियम लीधो ले, माटे पुत्र विना स. पण नियमनुं खंमन हुं करीश नही. ते सांजली देवी कोप करती शेठ नी स्त्रीने चोटले पकडी तरवारें करी मारवा लागी. स्त्री पण रडती थकी कहेवा लागी जे खरे देवि ! मारी रक्षा करो ! रक्षा करो !! तो पण दें वयें ते स्त्रीनुं मस्तक बेदी नाख्युं वली शेठने कहेवा लागी जे तुकने प • • ', एवीज रीतें मारी नाखीश ! वली कयुं के रेट ! दुर्बुद्धि ! आपणा कुल क्रमागत जीवघात करवी, बलि व्यापवानों जे चाल चालतोज खावे बे, तेन तें नियम शावास्ते लीधो ? माठें हवे पुत्रनी वात तो लांबी रही, प तहारे पोताने जीववानो पण संदेह बे, माटें हव कदाग्रह मूकीने मु ऊने बलिदान आप. एवां देवीनां कटुक. वचन सांजव्यां, तो पण शेठ दोन पाम्यो नही. खने देवीप्रत्यें कहेवा लाग्यो के मरतुं तो एकवार बेज माटें पढी मरीश, ते करतां हमणांज नवें महारी नाख. पण हुं निर्दयी थइने जीवघातपं अंगीकार करीश नही ! एवी शेवनी दृढता जोइ देवी हर्ष पामी शेठने स्त्रीं जीवती देखाडीने कहेवा लागी के हे शेठजी ! तुं धन्य हो ! तुं माहासाहसिक ने पुण्यवंत बो. तहारुं पहेनुं व्रत शुद्ध बे, के नथी. तेनी में• परीक्षा करी. ते संबंधि महारो अपराध तुं क्षमा करजे. तुं महारो साचो साधना हो, माटें हुं तुमने उपकार करीश. तुं श्री जिनेश्वरन क्ति कर. जेयी तुमने योग्य पुत्र थशे. तेनुं जिनदत्त नाम राखजे. एम कही Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० . जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. गोत्रदेवी श्रदृश्य थइ.ग. केटला एक दिवस पड़ी शेउनी स्त्रीय पुत्र प्रसव्यो तेनी वधामणी आवी. तेची.शेठे महोटो महोत्सव करी तेनुं जिनदत्त एवं नाम पाडयुं. नीशालें पोसालें जण्यो. सर्व कला शाख्यो. धर्मनो जाण थयो. यौवन वयें महोटा कुलनी योग्य कन्या परणावी. ते जिनदत्त पि ताने वनन ने, नीरोगी , नित्यप्रत्ये देवपूजा.करे . ___ एकदा वनमाहे ज्ञानी गुरु पधास्था, तेमने शेने पुत्र सहित जश् वांद्या. धर्मोपदेश सांनव्यानंतर चंदनशेठे प्रब्यु के हे जगवन् ! महारो जिनदत्तपु नीरोगी महासुखी सर्वने स्नेहालु, कये कमै करी थयो.. ? ते कहो. ते वारें गुरु बोल्या के हुँ जे कढुं , ते सावधान थश्ने सजिलो. एज नगरमां धरणो वाणीयो रहेतो हतो, तेने जिनदत्तनो जीव साधारण एवे नामें पुत्र हतो. ते पिता पुत्र वेदु दयावंत हता, तेमां साधारण तो निष्पाप व्यव साय करतो. मृगलां, बागं, तित्तर, चीडां,बांधेलां मूकावतो. बंधीखाने पड़े लां मनुष्योने पोतें घरनुं व्य यापी भूकावतो. मरता प्राणीने डोडावतो. देवगुरु धर्मने संसर्ग धर्मरंगें रंगायो रहेतो, श्रीशत्रुजयतीर्थ तेणें यात्रा की धी. आयु पूर्ण करी देवलोकें ते देवता थयो. तेमां धरणानो जीव-तमें बो अने साधारणनो जीव तमारे घेर जिनदत्त पुत्र थयो . महाधनवंत नीरोगी सुखीयो थयो,ते सर्व पूर्वपुण्यने प्रनावे जाणवो. एवी गुरुना मुखनी वाणी सांजली बेतु जगने जातिस्मरणशान ऊपर्नु. पूर्वला नव दीठा. वैराग्य क पनो,तेधारें दीदा लेवा तत्पर थया. गुरुयें. कह्यु के हजी तमाळं आयुष्य घ णुं . अने जोगावली कर्म पण घणां ,तेमाटें तमें सविशेष श्रावकधर्म करो. ते सांजली पिता पुत्र वेहु गुरुने बांदीने घेर याव्या. अनेक प्रकारनां पुण्य कीधां. सुरूत कीधां, दान दीघां, व्रत लइ बेदु जण देवलोकें देवताथ या. तिहाथी षवी मनुष्य जन्म पामी मोद पामशे. इति जिनदत्त कथा ॥ हवे पीस्तालीशमी एलानो उत्तर एक गाथायें करी कहे जे. ॥ गाथा ॥ जया मोहोद तिवो,अन्नाणं खु महप्नयं ॥ पेलवं वेयणिऊं च, तया एगिदियत्तणं ॥ ५॥ नावार्थः-(जया के) जे वारे जीवनें (तिबो के) तीव्रगाढ ( मोहोदन के० ) मोहनो उदय तथा (अन्नाणं के० ) अज्ञान ते सम्यक्झाननो अनाव होय, (तया के०) तेंवारे ते पंचें यि जीव होय, तो पण तेने (महनयं के०) मोहोर्यु ले जय जेमां एवं त Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमटबा अर्थसहित. ३०१ था (पेलवे के०) तुन, असार अने (वेयणिऊं के ) वेदनीय रूप एवं (एगिदियत्तएं के) एकेंख्यिप[प्राप्त थाय ने..ए (खु के) निश्चे जाणवू ॥ जेम महीसार नगरें मोहकनामें धनवंत हतो,पण अत्यंत कपण,थको लक्ष्मी कुटुंबनी घणी मूळ करी मरण पामिने एकेंझियमां जश्क़पनो. घ णो काल संसारमा नमशे.. हां मोहक गृहस्थनी कथा कहें लें ॥ देवकोटि समायुक्तं,वसुधाधिपसेवितम् ।। पुण्यातिशयसश्रीकं,रक्तवर्ण जिनं स्तुवे ॥१॥ 'महीसार नगरें मोहकनामें कोई गृहस्थ वसे . तेने मोहिनी नामें स्त्री . तेना पितानी पार्जित लक्ष्मी घणी . लक्ष्मीनो मोह अपार ने.रा त्रिदिवस सावधान पणे रहे, रखे ने कोइ महारुंधन लजाय? एवी चिंता करतो गनो नोयरामा निधान राखे. वली तिहाथी.कपाडी बीजे स्थानकें संचय करे, एम लक्ष्मीने राखवाना अनेक उपाय करे, रात्रि सूवे नही. अति कंपण पणे कदापि जमे नहीं तो जलें, पण घाखो दिवंस धन सा चववानी पडवाडे नम्या करे. जाडां, मेला, कपडां पहेरे. कोश्ने दान न थापे,कोइने माग्युं नबीनुं पण न आपे. लोनने लीधे संगा, गुणवंतने पण न उलखे ॥ चोपाई ॥ किस्युं करो रे कपण वखाण, नहिं उलखे याव्या घर जाण ॥ एह तिलें तेल नहिं लगार, एहथी वांडे तेह गमार ॥१॥ हवे शेनी स्त्री मोहिनीने पुत्र थयो. तेनुं लक्षण एवं नाम दीधुं ॥ चोपाइ ॥ मोहिनीने पुत्रनो मोह घणो, हाथी न मूके बालक परो॥ वहे लो जण्यो विवेकी बुद्धिमत, सुलक्षण, कलायें दुबलवंत ॥ १०॥ हवे ते पुत्र बापथकी विपरीत गुगवाखो थयो. जगतमां कहेवत ले के जेवो बाप तेवो बेटो थाय. ए वात जूती ,जे माटें एनो बाप तो निर्विवेकी क पण जे अने पुत्र तो विवेकी नदार थयो. साते देवें धन वावरे, ते जो तेनो पिता घणो उहवाय अने कहे के हे वत्स ! धन कांइ.फोकट श्रावतुं नथी. ए तो महा कुःखें उपार्जन करेलु डे, ते सांजली पुत्र कहे हे पि ताजी ! धन घणुए दे,तमें चिंता करशो नही. तेवारें पितायें कह्यु के हे व त्स ! पाणीथी नरेलुं सरोवर पण ढोरें पी जातां सूका जाय. तेवारें पु ने कह्यु के ज्यां लगण आपणुं पुण्य प्रबल डे, त्यांलगण कदापि खूटे न ही॥उक्तं च ॥ जइ सुपुत्त तो धन का संचे,जो कुपुत्त तो धन का संचे ॥ अचलरिदि तो धन को संचे, जो चलरिदि तो कां धन संचे ॥१॥ सही Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैनकथा रत्नकोप नाग पहेलो. सहाव चक्ला, तब चवलं च रायसम्माएं ॥ जीवोवि तक चवली,उवयार विलंबणा कीस.॥ २॥ मादें जेम कुवानां पाणी, वाडीनां फूल, गायनां दूध, लेतां थकांधणां होय, तेस दांन देतां थका लक्ष्मी पण वृद्धि पामे. ३ त्यादि पुत्रं. समजाव्यो, तो पण. शेठ धनंनो मोह.मूके नही. मनमां वि चारे जे महारो पुत्र का जाणतो नथी.. ___ एकदा नरडामां चोर लोको खात्र पाडी धन लश् गया. ते सांजली शे उने मूळ आवी गइ, रोवा वेतो: जमंवा बेसे नही. तेने. पुत्रं कडं के ए लक्ष्मी असार अने चपल , माटें तमें जमो. एम घणुं समजांवी जमाङ्यों, बीजें वर्षे शेठनी स्त्री मोहिनी मरण पामी. तेवारें शेत, स्त्रीना मोहें करी वजे हणायेलो जेम फुःखी थयो होय, तेम दुःखी थयो तेनां गुप संजारी सं नारीने रुदन कस्या करे, जमे नहीं. तेने फुःखें शेत मरण पाम्यो. पण पुत्र सुजाण ने, संसारनु स्वरूप जाणी शोक न करे. विचारे जे महारो बाप' मोहें करी मरण पाम्यो माटें ए मोह , ते जीवते विष विना मरण . ए मोह त्रिदोष विना सन्निपात डे,ए मोह न होय,तो जीव सदैव सुखीयोज होय. वली विवेक जे , ते सूर्यविना पण अजवालुं , दीपकविना प्र काश , रत्नविना कांति में, फूलविना फल , माटें विवेक महोटी वात बे. एवी समजण सखतो विवेकी थको धर्म कया करे. __एकदा ते भगरें श्रुतकेवली पधास्या, तेमने लक्षणें वांदीने पूब्युं के महा राज! महारो पिता मरी क्यां गयो दशे? गुरु बोल्या हे वत्स ! तहारो पिता धन कुटुंबनो मोह करी अज्ञानने वशे एकेश्यि पृथ्वीकायमां जइ नपन्यो जे. वली अंकाय, तेनकाय, वाउकाय अने वनस्पतिकायमांहे घणुं संसार चक्रमांन्रमण करशे. ते वात सांजली वैराग्य पामीने लक्षणे दीक्षा लीधी. तेने रूडी रीतें पाराधीने स्वर्गादिकनां सुख पाम्यो॥इति मोहक कथा ॥४६॥ ॥ हवे बैंतालीशमी अने सुडतालीशमी पहाना उत्तर कहे जेःगाथा ॥ नयधम्मो नय जीवो, नय पर लोगुत्ति नेय कोय रिसी॥श्य जो मन मुढो, तस्स थिरी हो संसारो ॥ ६० ॥ धम्मोवि अनिलो ए, अनि अहम्मोवि अलि सबन्नू ॥ रिसिणोवि अनिलोए, जो मन सो न संसारी॥६१ ॥ नावार्थः-धर्म नथी, जीव नथी, परलोक नथी, कोइ झषीश्वर नथी, एवी रीतें जे नास्तिक पुरुष माने, तेने संसार घणो Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतमष्टचा अर्थसहित. ३०३ स्थिर होय. मोह टूकडो न होय ॥ ६० ॥ तथा लोकमांहे धर्म बे. धर्म पण, सर्वज्ञ पण बे, खने लोकमांहे ऋषि पण छे. जे जीव, एवं माने ते जीव, संसारी न होय, अल्पसंसारी थको तरत मी जाय ॥ ६१ ॥ जेम राजगृही नगरीयें एक पंतिनी पासें एक शूर ने बीजो वीरं एवे. शिष्य एया. तेमां शूर तो धर्ममार्ग उठापवाथी तिहां पंण दुःखीयो यो ने वली घणो संसारमां जमशे. कुसंगतिने लीधे नास्तिकवादी थयो ं ने वीर. तो सजुरुनी संगतिंयी जाणकार थयो धर्ममार्ग स्थापतो तिहांज महत्त्व पामीने स्वल्पकालमां मोक पामशे. तेनी कथा कहे बेः राजगृही नगरीयें एक शूर अने बीजो वीर, ए वे गृहस्थो बे, ते बेदु जाग न्हानपमा एकज गुरुनी पासें नएया. परंतु पाबलश्री शूरने नास्तिक लो कोनी सोबत थइ तेथी " सरिसा सरिसेन रचंतिः” एटले मनुष्य, पोतानी "समान सँगति वालो : मलवाथी यानंद पामे बे. तेभी डुःसंगें कुग्रहकदाग्रही यो उतपणे धर्मापे, पोताना माहापण यागल बीजाने तृण समान arrai रहे, लोको सुखना प्रर्थनी वात कहे, तो तेमनुं कयुं माने नही. एकदा निहां कोई सुदत्तनामा गुरु चार ज्ञानना धणी पधारया, तेमने ध र्मार्थी लोक तथा वीर, ए सर्व वांदवा गया. ने शूर तो महाअहंकारी थको गुरुनुं माहात्म्य सांगली मनमां ईर्ष्या आणतो तिहां प्राव्यो. गुरुने कहेवा लाग्यो के तमें लोकोने शा माटें विप्रतारों मे ? जो तमारामां शक्ति होय, तो महारी सार्थे वादं करो. ते सांजली गुरुजीनों एक शिष्य तेने क हेवा लाग्यो. के अरे मूर्खा ! सर्वइसमान एवा या महारा गुरुनी साथें तुं वाद करीश ? ढुंज तहारो अहंकार मूकावीश, अने तुमने उत्तर देश. परंतु सभ्य, सनापति, वादी अने प्रतिवादी, ए चारें करी युक्त चतुरंग वाद क हेलो बे, माटे ते चतुरंग जो वाद थाय, तो करुं ! शूरें पण कबुल करूं. पटी बीजे दिवसें सवारमां चतुरंगनुं स्थापन यवाथी वाद करवा मांमयो. तिहां शूरे कर्त्तुं शरीरमां बीजो खनेरो कोइ जीव नथी, अने ते जीव नथी तो धर्म पण नथी जो धर्म नथी, तो परलोक पण नथी. जेम गाम विना सीम न होय, जेम स्त्रीविना पुत्र न होय, तेम जाली जेवुं. माटें पृथ्वी, पाणी, श्रमि, ने वायु पांच माहानूतना संयोगें खात्मा थाय बे. जेम धावडी मडुडां मीतुं गोल खने पाणीथी मदशक्ति होय बे तेम जाली लेबुं. बीजुं व्याकाशना Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 . जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. फूलनी पे कांज नथी. तो जीव क्यां ले ? के जेने सुख पामवांनी वांडा करीयें ? बतुं सुख बांकीनें संदेहयुक्त आगला अर्थने क्यां जोवा जायें ? . तथा सुख दुःख सर्व कर्मे करी होय ,ए वास पण अणमलती जे. जेमा टें एक पादाण नित्य सुखड अने फूलें करी पूजाय अने एक पाषाण नी ऊपर नित्य विष्टा नाखीयें तो हवे ए पाषाणे झुं सारु मातुं कर्म आ चमु जे ? तेम प्राणीमात्रने पण सुखकुःख, कारण, कांज नथी. तप जप क टक्रियाजे कांकरीयें,ते सर्व क्वेशरूप फोकट जाणवी. एटली वात,सूर बोल्यो. (हवे शिष्य ए वातनो उत्तर आपे वे. हे शूर! तुं जे कहे जे, के जीव नयी तो ढुं सुरखी , दुं दुःखी बुं, ए वातनो जाणनार कोण बे ? जेम सुखड लगाडवाथी हर्ष पामीयें, कांटो लागे उहवाश्ये बैयें, तेनो जागनार तो जीवज.एतो प्रत्यद देखाय .जो सहारा कहेवा प्रमाणे जीवजन थी तो पिता प्रमुख वडेरांना नाम पण तहारे कहेवा न जोयें. तथा को प, प्रसाद, शोक, नूख, तृषा, तृप्तो,पीज्यो. ए वात अनुमानें जीवजाणे डे, माटें जीव . तथा तें कह्यु जे पांच माहानूत ने तेज आत्मा बे,ते पण अ सत्य ने केम के? पांचनूततोजड ने माटें जे जड,ते चैतन्य केम होय ? जो वेलु घणी पीलीयें, तो पण तेमांथीतेल नीकले नही. तथा तें जे गुन अशुज कर्म कांज नथी, ए वात ऊपर पाषाणनोह ष्टांत कह्यो, ते पण अयुक्त जे माटें एक सुखी एक दुःखी.एक नाकर,एक चाकर इत्यादि सारा माग जे , ते सर्व पोतपोताना कर्मे करी.तेमाटें जो तप संयमरूप धर्म करीयें,तो सफलं थाय. धर्मना फल इहांज देखाय ने तेमाटें धर्म पण , परलोक गण के अने सर्वज्ञ पण , तेना कहेला शास्त्रने योगें चं सूर्य ग्रहण प्रमुख जाणीयें बैयें. माटें तुं कदाग्रह मूक. इत्यादि अनेक उत्तर प्रत्युत्तर आपीने शूरने निरुत्तर कस्यो. तेवारें राजायें शिष्यनी प्रशंसा करी अने शूरने राजायें कडं के हे पापी! तुं बापने नथी मानतो, सर्वने बापे , तेथी सर्व कोई अन्याय चोरी करशे यने राजा कोइने दंशे नही? तेवारें सदाचारनी वात तो रहेशेज नही ? एम कही रा जायें रोष याणीने शूरने पकड्यो. तेने शिष्ये बोडाव्यो. तेवारें राजा फरी बोल्यो के जून या शिष्यमां दयानो गुण कहेवो ? ए निरीह , साचो सदाचार कहे जे. एम कही पड़ी शूरने पोताना नगरमांथी काहाढी मूक्यो Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमप्टना बालावबोध. 305 अने बीजो वीर तो सन्मार्गे चालतो,धर्मनी स्थापना करतो तथा पुण्य.जे, पाप , वीतरांग देव , सुसाधु गुरु में, इत्यादि कहेतो हतो. तेने राजायें मान्यो ते मरीने देवता थशे. अंतें मोरमुख पामशे. अनें शूर नास्तिक वा दी थको घणो संसार रमलशे // इति धर्मस्थापने शूर अने चीरनी कथा // * हवे अडतालीशमी एलानो उत्तर एक गाथायें करी कहे..। गाथा // जो निम्मलनाणचरि, त्त दसणेहिं विनूसिथ सरीरो // सो संसारं तरिवं, सिधिपुरं पांवए. पुरिसो // 6 // . नावार्थ:-जे पुरुष निर्मल झानं चारित्र अने दर्शने करी विनूपित श रीरवालो होय ते. पुरुष संसार संमुश्तरीने मोदनगर प्रत्ये पामशे॥६॥ जेम अनयकुमार झानादिक आराधि मोद पामशे. तेनी कथा कहे - मगधंदेशे श्रेणिकराजा राज्य करे ,तेनो पुत्र अने प्रधान अनयकुमार जे. ते चारबुझिनो निधान ने पोतामा बापना राज्यने वृद्धिवंत करे .तेने रा जायें राज्य आपवा मांमयु. परंतु ते पापना जयथी बीहितो थको लीये नही. ___ एकदा श्रीवीरप्रनु ावी समोसंस्था. तेमने अनयकुमार वांदीने पूब्यु के हे स्वामी ! हेलो साधु कोण थाशे ! प्रजुयें कयुं नदायिनराजा थाशे. हवे पोंतानो पिता श्रेणिक,राज्य मूकी दीक्षा लेतो नथी. तेवारें अजयकु मारें चिंतव्यु के जो दं महारा पिताना आग्रहथी राज्य लाश,तो महारा थी पण दीदा लेवाशे नहिं माटें महारे राज्यश्री काम नथी पण महारा बापें एवं वचन महारी पासेंथी लीधेनुं जे मांहारी श्राझाविना तहारे किहां पण जावू नही, तेनो शो उपाय करवो? तेनी शोध करे : एवामां माघ महिनाने दिवसें संध्यासमयें चेलणा राणी सरोवरनी पाल ऊपर एक साधुने कारस्सग्ग ध्यामें रह्यो दीठो,तेवारें रागीयें चिंतव्यु जे ए कृषि रात्रिये टाहाड केवी रीतें सहन करशे? एवा विचारमां घेर आ वीरात्रि शय्यायें पोहोढी.तिहां पोतानो हाथ सोडनी बीहार रही गयो. अने जागीने जोयुं तो हाथ टाहाढो लागो, ते वखत साधु सांजरी आव्यो. हवे श्रेणिक राजायें चिंतव्युं जे महारो अंतेनर सघलो विरु६ . पा बली रात्रियें अनयकुमारें आवी जुहार कीधो तेने श्रेणिकें का अंतेउरने प्रजाली नारखो. एम कही पोतें वीर नगवानने पूढवा गयो. पालथी अन यकुमारें चिंतव्युं जे अंतेउरमां तो चेलणादिक महासतीयो ने माटें आग Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. न देवाय !.एम विचारी एक जूनी दस्तिनी शाला हती तेने अरग लगाडी पोतें श्रीवीरना समोसरण नणी चाल्यो. तिहां श्रेणिके श्रीवीरने पूब्यु के हे जगवन् ! महारी स्त्री चेलणा सती में, किंवा असती ? प्रनुये कह्यु चेला महाराजानी पुत्रीयो साते सतीयो . ते सांगली श्रेणिक पाडो बल्यो. गाम मां आग बजती दीती. मार्गमां अनयकुमार मल्यो तेने राजायें पूछयु के. अंतेनरने आग लगाडी ? अनये कह्यु के. हा स्वामी ! बाग लगाडी तेवारें श्रेणिकें रोष आणीने का के तुं केम न बढ्यो ? माटे तुं महारा थी दूर जा. तेवारें अनयकुमारें कडं के मने आपनो आदेश जोतो हतो सरली आगमांहे पेसी कार्यसाधन करगुं? एम कही समोसंरणे जश् श्रीवीर ने हाथे दीदा लीधी,राजा श्रेणिक पण फरी समोसरण जणी चाल्यो.ते जेट लामां राजा श्रेणिक याव्यो,एटलामां तो अनयकुमार दीदा लश्ने साधुना समुदायमां जय बेठा. तेमने राजायें आवीने वांद्यो, अपराध खमाव्यो. अ जयकुमार,झान, दर्शन, चारित्र पाली सर्वार्थ सिझविमानें पहोता. ते एका वतारी थइ मोदे जाशे, इति अनयकुमार कथा // महिहारं वीररत्न,श्रीदं गौ रतनुं मतम् // जितैनसं सूर्यरम्यं, प्रणामामि मुहुर्मुहुः // 1 // एकादरांतरितं नामत्रयं // एम अडतालीश टहानी उत्तरो परमेश्वरें कह्या // // गाथा // जं गोयमेण पुठं, तं कहियं जिणवरेण वीरेण // नवानावेह सया, धम्माधम्मं फलं पयडं // 63 // अडयालीसा पाह, तरेहिं गाहाण हो चउसहि // संखेवेणं नणिया, गोयम टला महनावि // 6 // नावार्थः-जे कांश पुण्यपापनां फल श्रीगौतमस्वामी पूब्यां, ते सर्व जिनवर श्रीमहावीस्वामीयें कह्यां.ते नो जव्यलोको ! तमें जावें करी सदैव धर्म अधर्मना फलने प्रगट विचारों धर्म आदरो // 63 // हवे ए शास्त्रमा प्रश्नोत्तरनी गाथानी संख्या कहे . अडतालीश प्रश्नोत्तरें करी चोशन गाथा थइ. एवो श्रीगौतमप्टना रूपजे शास्त्र ते जो पण महाअर्थरूप ले तोपण आही संदेपथी कह्यो॥६॥ इतिबालाबोधसहितं गौतमप्टबाशास्त्रं संपूर्णम्॥ 6ABARDMRDASukuma43. . A RSasaram COMAUSPICS Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरियाली अर्थ सहित. 307 // अथ हरीयाली // // सेवक आगल साहेब नाचे, बढ़े गंगाजल खारे.॥ गर्दन साटे गयवर वेच्या, ए अचरिज मोहे नारे ॥१॥चतुरनर बूमो ए हरियाली // जेम उत्तरादु देहि संजाली॥ ए बांकणी॥ अर्थः-कर्मरूपीया सेवकंनी आगल जीवरूपीन राजा नाचे ने तथा गंगा नदीना मीठा जल समान जे जैनवाणी छे तेना खारा जलसमान खोटा अर्थ केटलाएक मतवादीयो करे डे तथा प्रमादरूप गर्दननी आगल संयमरूप हाथी वेचाय ; अर्थात् केटलाएक संयमधारको प्रमादने वश पड़ी चोखं चारित्र पाली शक्ता नथी माटे ए मुंफने महोटं आश्चर्य थाय ने // 1 // चतुर जनो ए हरीयाली तमें समजो अने एनो वृत्तर संजाली आपो. ॥मांकडनें वश जोगी नाच्यो, मास्यो सिंह शियाले // एक चीटीये पर्वत ढायो, अचरिज इण कलिकाले // च // 2 // अर्थः-मनरूपी मांकडाने वश पड्या थका असंयति योगीजनो नाचे नेत था शीलरूपी सिंहने कामरूपी शीयालीये मास्यो तथा एक तृमारूपी कीटिका यें संतोषरूपी पर्वतने पाडी नारख्यो. ए अचरिज कलिकालमांहे देखाय // 2 // // सुरतरु शाखायें कागज बेगे, विषधर गरुड विमारे // कस्तूरी परनाशे वाहे, लसण नमु नझारें // 3 // च // अर्थः-जिनशासनरूपीया कल्पवृदनी ऊपर कुगुरु रूपीन कागड़ो बेगे तथा क्रोधरूपी सर्प ते झानरूपी गरुडने विमारे छे तथा समतारूप कस्तूरी डे तेने असत्य वचनरूप परनालिकामांहे वहावी दीधी अने ममता जुर्ग धरूप लसणनो संचय करी नंमारमी नस्यो रे // 3 // आंबो अकफल एक तरु लागा, हंस काग एक माले // __ मेंढे नाहर लातें मास्यो, नासीगयो पातालें // 4 // च०॥ अर्थः-जीवरूपी एक रद तेने विषे आंबाना फल समान सुख लागां अने आकडाना फलसमान कुःख लागां एम बै जातनां फल एक जीव रूप तदनेविषे लागां. तथा एकज जीवरूपी मालो तेनी नपर पुण्यरूप हं सपदी अने पापरूप काकपदी आवी बेग तथा अज्ञानरूप मेंढें, विवेक रूपी नाहर एटले सिंदू तेने लातें मास्यो परहो टाल्यो // 4 // Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 307 जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. ॥.मबारक मुख मयगल गलिया, राजा घरघर हिं // ए कज यंते पण गज बांध्या, रानहोकणं खंमें॥ ५॥च०॥ अर्थः-आ कलिकालना जीव स्वल्पपुण्यवान दे, माटे मन्चरसमान जाणवा ते मंडर समानं मिथ्यात्वी जीवरे ते मयगत समान महोटा जिनधर्मने गति जाय तथा जीवरूप राजा ते कर्मने वश रह्यो थेको चोराशी लदा जीवा योनिरूप घरघरनेविषे हिंझे ले भ्रमण करे बे तथा एक जीपना एकज श रीर रूपीयां यांनाने विषे पांच इंख्यिरूपीया पाँच हाथी बांध्या मे ते म दोन्मत्त थका सांकलोना बंधने तोडी रह्या बे तथा अवतरूपी रानः रण तेव्रतरूपी धान्यनाकपनी खंमना करे // 5 // // पाउनारी मलि एक सुत जायो बेटे बाप वधाख्यो / त्रों र वस्या मंदिरमायावी, घरथी साह कढायो॥ 6 // च०॥ अर्थ--कर्मनी मूलप्रति आठ जे तेज आउ नारी जाणवी. तेणे संसा-- ररूपी एक पुत्र पेदा कीधो ले तथा कपटरूपीया बेटायें मोहरूपी पिताने वधारी एटले महांटो कस्यो छे तथा विपयरूपी चोर ते कायारूप मंदि रमां आवी वस्या , तेणे शीलसाहसिकरूपी महोटा शादुकार तेने घर मांथी काढी मूक्या वे // 6 // // एक अग्नि संघलो जल शोपे, वेश्या धूंघट काढे // कुलवं ती कुल लाज त्यजी करी, घर घर बाहिर हिंमे॥७॥च०॥ अर्थः-एक तृमारूपी अनियें संतोपरूपी सर्वजल पीई रे तथा माया कपटरूपिणी वेश्या ते मीठा वचनरूपयां बूंघट काहाडे ने तथा सर्व विर तिरूप कुलवंत स्त्रीय पोतानी लाजनो त्याग करीने असंयमरूपीया अनेक थानक ने तेज अनेक घर जाणवां.तप घरघरने विषे बाहार फरति हिंमेले. // ए परमारथ ज्ञान सुनी करी, आतम ध्यान सुध्यावो // विनयसागर मुनि इम उपदेशे,धर्ममति मन लावो॥७॥०॥ अर्थः-ए वातनो ज्ञानमय परमार्थ जे श्रीवीतरागनां वचन, तेने संना रीने आत्मध्यान ध्यावाने प्रवर्तों,विनयसागरजी मुनि एवी रीतें उपदेशक रेले के, धर्मनी बुद्धि तमारा मननेविषे आणो,के जेथकी जन्म, जरा अ ने मरणना फुःखथी विमुक्त थ मुक्तिनां सुख पामो // // इति // Page #321 -------------------------------------------------------------------------- _