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जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो.
जापाकाव्यः - सवैय्या इकतीसा ॥ गहें जे सुजनरीति, गुनीसों निवाहै प्रीति सेवा साथै गुरुकी, विनैसों कर जोरिके ।। विद्याको विसन धेरै, पर तिय संग हेरे, दुर्जनकी संगतिसों, बैठे मुख मोरिकें ॥ तजै लोकनिंद्य काज, पूजै देव जिनराज, करें जे करणि थिर, उमंग बहोरिकें ॥ तेही जीव सुखी होहिं तेहि मोखमुखी, होहिं, तेही होइ परम, करमफंद तोरिकें ॥ ८ ॥
वृत्त ऊपर प्रमाणें || पर निंदा त्याग करू, मनमें वैराग धरु, क्रोध मान माया लोन, च्यारो परिहर रे ॥ हिरदेनें तोप गढ़, समतासों सीरो रहु, धर को नेद लडु, खेदमें न पर रे ॥ करमकों वंस खोज, मुगतिको पंथ जोन, सुकृतको बीज बोन, इरितसों कर रे | अरे नर ऐसो होहि, बार बार कहुं तोहि, नांहि तौ सिधार नैया, निगोद तेरो घर रे ॥ ए ॥
कवित्त मात्रात्मक ॥ यालस त्यागु जागु नर चेतन, वल संजारू मति करहुं विलंब ॥ इहां न सुख लवलेश जगतमहिं, निंब विरखमंहिं लगे न यं ॥ तातें तूं अंतर विपक्ष हरु, करु बिजद निज कदंब || गहु गुन ज्ञान बैठ चारित रथ, देहि मोख मग सनमुख बिंब ॥ १०० ॥
यथ योग कवित्त मात्रात्मक ॥ जैन वंस सर हंस सितंबर, सुनिपति अजितदेव प्रति व्यारज ॥ ताके पट्ट वादिमदनंजन, प्रगटे विजय सिंह आचारज ॥ ताके पह नए सोमप्रन, तिन्हें गिरंथ कियो हितकारज ॥ जा के पढत सुनत अवधारत, होइ पुरुष जे पुरुष अनारज ॥ १०१ ॥ दोहा ॥ नाम सूक्तमुक्तावली, द्वाविंशति अधिकार ॥ सत सिलोक परधान स व इति गरंथ विस्तार ॥ १०२ ॥ करपाल बनारसी, मित्रयुगल इक चि त ॥ तिन गरंथ नापा कियो, बहुविधि बूंद कवित्त ॥ १०३ ॥ सोलहसें इक्या नवें, रितु ग्रीप वैसाख ॥ सोम वार एकादशी, कर नक्षत्र सित पाख ॥ १०४॥ या नापा करनारें बीजी टीका उपरथी रचना करेली देखाय बे जे माटें कोइ कोइ स्थर्थमां कचित् फेर दीवामां आवे छे. अने बेहलां वे का व्यनो अर्थ फेरव्यो बे.
इति सोमप्राचार्यविरचित सिंदूरप्रकरः ( सूक्तमुक्तावलि ) ग्रंथ हर्षकीर्त्ति सूरिकृत युक्ति, व्याख्या अन्यपंमितकृत बाजावबोध संयुत, बनारसीदासकृत नापाकाव्यसहितः समाप्तः ॥ समाप्तोयं ग्रंथः ॥