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सिंदूरप्रकरः . केलिसदनं गुणसमूहस्य क्रीडागृहं । एवं ज्ञात्वा.संघ सेव्यः शेषं पूर्ववत्॥२३॥
जापाकाव्यः-वृत्त उपरं प्रमाणे ॥ताको आइ मिलै सुख संपति, कीरति रदै तिहूं जग बाई ॥ जिनसौं प्रीति बढे ताके घद, दिन दिन धरम बुद्धि अधि काई॥ बिन लिन ताहि लखै शिव सुंदरि, सुरग संपदा मिल सुनाई ॥ वा नारसि गुनरासि संघकी, जो नर जगति करें मन लाइ ॥ २३ ॥
कथाः-अयोध्या नगरीये नस्तचक्रवर्ती अन्याय वर्जतो राज्य पाले .ए कदा श्रीआदिनाथने केवलज्ञान उपने थके चोराशी गणधर सहित विहार करता अयोध्याना उद्यानमा समोसस्या, उद्यानफालकें वधामणी दीधी, तेने साडीबार कोडनुं दान दीधुं. पड़ी जरतराज़ायें विचाघु जे बाज रुष जदेव पधाया , तेने सपरिकर नोजन करावं ! एम चिंतवी घणा गाडां पक्कासादिकें भरी समोसरणे आवी नगवानने वांदीने विनति करी के महाराज! आज सर्व कुटुंब सहित आप महारुं नोजन करो. तेवारें जगवान बोल्या के हे जरत ! साधुने राज्यपिंक अग्राह्य . वली आधा कर्मी तथा साहामो आण्यो ने पण अग्राह्य जे. एवी वाणी सांजली नरत पश्चातापं करवा लाग्यो, नेवारें लगवान् बोल्या के हे राजे ! तुं अ संतोपं म कर, पहेलु पात्र वीतराग, बीजूं पात्र साधु, त्रीजुं पात्र अषु व्रतधारी अने चोथु पात्र दर्शनभर, माटें तुं अणुव्रतधारी श्रावकनी नक्ति कर, जेथकी संसाररूप समुइ.चुचूक समान थाय. एवं सांजलीजरत राजा हर्ष पाम्यो थको स्वस्थानकें आव्यो. श्रावक मात्रने जमवा माटें नो तरां दीघां. निरंतर सर्वलोक जमवा आवे. केम के ते वखतें लोक सर्व रुजु जड हता. माटें हरहमेश आववा लाग्या, तेवारें रसोइ करनारायें राजाने विनव्यो के महाराज! प्रजा सर्व उलटी पडी ने, केहने जमाडीयें अने के हने न जमांडीये! तेवारें राजायें परीक्षा करी शुरू श्रावकने ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप त्रण रेखा कांगणीरत्नथी कीधी. एम करी अवतार स फल करवा लाग्यो. तथा श्रीशत्रुजयनो प्रथम उदार कस्यो, संघवीनी प दवी पाम्यो. वली अष्टापद पर्वत पर रुपनदेव प्रमुख आगामी कालें थ नारा चोवीश तिर्थकरनां प्रासाद करी मांनोपेत प्रतिमा जरावी. ए रीतें श्रीसंघनी नक्ति करी अनुक्रमें प्रारीसानवनमां रूप जोतां अनित्यनावना जावतां मनमां वैराग्य वृद्धि करता था संसारमा सार ते एक धर्मज .