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सिंदूरप्रकरः .
नाषाकाव्यः-महरा बंद । गुन धर्म विकासे, माप विनासे, कुपथ नथा पन हार ॥ मिथ्या मत खमैं, कुनय विहमैं, मैं दया अपार ॥ तिस्ना मद मारें, राग विमारें, यह जिन आगम सार ॥ जो पूजै ध्यावें, पढ़ें पढावे, सो जगमांहि उदार ॥ २० ॥
हवे चारं श्लोकोयें करीने संघनां महिमाने कहे . रत्नानामिव रोहदितिधरः खं तारकापामिव, स्वर्गः क रूपमहीरुहामिवं सरः पंकेरुंदाणामिव ॥ पायोधिः पयसा मिवेंजमहसां (शशीवं महसां) स्थानं गुणानामसा,वित्या लोच्य विरच्यतां नगवतः संघस्य पूजाविधिः॥२१॥ अर्थः-हे जव्य जनो! (इति के०) आ प्रकारें (बालोच्य के० ) जो इने अर्थात् विचार करीने (जगवंतः के० )पूजन करवा योग्य एवा (सं यस्य के०) संब जे जे, तेनो (पूजाविधिः के० ) पूजानो विधि, (विरच्य तां के ) करीयें, अर्थात् करो. हवे शा प्रकारें. विचार करीने ? तो के, (असौ के०) या साधु, साध्वी, श्रावक, श्राधिका रूप चतुर्विध संघ जे , ते (गुणानां के०) शान, दर्शन, चारित्र अने विनयादिक जे सर्व गुणो ते नुं (स्थानं के) निवासस्थानक डे, केनी पेढ़ें ? तो के (रत्नानां के० ) र नौनुं स्थानक ( रोहणादितिधरः के०) रोहमाचलपर्वत ( श्व के०) जे म , तेम. तथा (खं के ) आकाश, ते (तारकाणां के० ) तारान्नु निवासस्थान (श्व के०) जेम छे, तेम. तथा ( कल्पमहीरुहां के०) क पदोनुं निवासस्थानक (स्वर्गः के०) स्वर्ग (श्व के ) जेम जे, तेम. तथा (पंकेरुहाणां के०) कमलोनुं निवासस्थानक ( सरः के० ) तलाव (श्व के) जेम , तेम. वली (पायोधिः के० ) समु.जे जे, ते ( पय सां के) जलोतुं निवासस्थानक (श्व के०)जेम, तेम. हवे ते जल केह वां ? तो के (इंउमहसां के०) चश्मा समान निर्मल ले. अथवा (शशीव महसां के०) शशीव महसांएवो पाठ जो होय तों,(महसां के०) तेजनुं निवा स स्थानक ( शशी के०) चश्मा (श्व के) जेम होय, तेम. अर्थात् पू क्ति वस्तु जेम बीजी कहेलो वस्तुनुं निवास स्थानक बे, तेम आ श्री चतुर्विध संघ पण ज्ञान, दर्शनं, चारित्रने रहेवानुं निवासस्थानक . या